मंगलवार, दिसंबर 30, 2025

अस्तिव की जग : मानव लालच से जूझ रही है पर्वत और नदियाँ


अस्तित्व की जंग : जब पर्वत और नदियाँ मानव लालच से जूझ रही हैं
मानव सभ्यता के मूल आधार—नदियाँ और पर्वत—आज तथाकथित विकास की मार से अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। यदि समय रहते संरक्षण नहीं हुआ, तो यह संकट आने वाली पीढ़ियों के लिए विनाशकारी विरासत बन जाएगा।
विकास की आड़ में विनाश: नदियों और पर्वतों का करुण संघर्ष
सभ्यता के स्तंभ खतरे में: जल, जंगल और पहाड़ों की पुकार
जब सूखती नदियाँ और टूटते पर्वत भविष्य पर प्रश्नचिह्न बनें
पर्यावरण संकट का सच: हिमालय से मगध तक चेतावनी की गूँज
विनाश के मुहाने पर खड़ी सभ्यता—मानव सभ्यता का इतिहास नदियों की गोद में फला-फूला और पहाड़ों की छांव में सुरक्षित रहा। लेकिन आज इक्कीसवीं सदी का तथाकथित ‘विकास’ इन्हीं आधारभूत स्तंभों को ढहाने पर तुला है। हिमालय की शिवालिक श्रेणियों से लेकर अरावली के प्राचीन पत्थरों तक और गंगा की लहरों से लेकर मगध की छोटी धाराओं तक—हर ओर प्रकृति की चीख सुनाई दे रही है। वायु प्रदूषण, जल संकट और बढ़ता तापमान कोई संयोग नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ किए गए खिलवाड़ का परिणाम है। यदि आज हमने अपनी नदियों और पर्वतों को नहीं बचाया, तो भविष्य की पीढ़ियों के पास विरासत के नाम पर केवल मरुस्थल और ज़हरीला पानी बचेगा।
नदियों का संकट – केवल जल नहीं, जीवन का क्षरण – आयरलैंड जैसे छोटे देश में 73,000 किलोमीटर लंबी नदी-नालियाँ हैं, जो पृथ्वी का दो बार चक्कर लगा सकती हैं। भारत में भी कभी नदियों का ऐसा ही विस्तृत जाल था, जो अब सिमटता जा रहा है।
प्रदूषण का ज़हर – गंगा, सोन और गंडक जैसी पवित्र नदियाँ आज औद्योगिक कचरे और अनुपचारित सीवेज का केंद्र बन चुकी हैं। तूफानी जल-अपवाह अपने साथ भारी मात्रा में प्लास्टिक और घातक रसायन लेकर इन जलस्रोतों में मिलता है, जिससे जलीय ऑक्सीजन समाप्त हो रही है। परिणामस्वरूप मछलियाँ मर रही हैं और शैवाल का साम्राज्य बढ़ता जा रहा है।
बिहार की दम तोड़ती नदियाँ – बिहार के परिप्रेक्ष्य में स्थिति और भी भयावह है। जहाँ गंगा और बागमती प्रदूषण से कराह रही हैं, वहीं बूढ़ी गंडक, फल्गु और मोरहर जैसी नदियाँ अपने अस्तित्व के पुनरुद्धार की बाट जोह रही हैं। दारधा, जमुनी और वाया जैसी नदियाँ अतिक्रमण का शिकार होकर नालों में तब्दील हो चुकी हैं। सबसे दुखद तथ्य यह है कि वैदिक काल की हिरण्यबाहु और बाह जैसी नदियाँ विलुप्त हो चुकी हैं, जो हमारी सांस्कृतिक और भौगोलिक क्षति का प्रतीक हैं। कम प्रवाह और बाँध – बड़े बाँधों ने नदियों की ‘अविरलता’ को नष्ट कर दिया है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा का पैटर्न बदला है, जिससे नदियों का जलस्तर घट रहा है। कम प्रवाह के कारण नौकायन और मछली-पालन अब पहले जैसा सुगम नहीं रहा। पर्वतों पर प्रहार: टूटता सुरक्षा कवच – पर्वत न केवल नदियों के स्रोत हैं, बल्कि वे बादलों को रोककर वर्षा कराते हैं और मरुस्थलीकरण को भी रोकते हैं। किंतु आज पहाड़ों को ‘कच्चे माल’ की खदान समझ लिया गया है। मगध के पर्वतों का रुदन – मगध प्रमंडल की पहचान मानी जाने वाली बराबर, राजगीर की पहाड़ियां , ककोलत ,  कौवाडोल और ब्रह्मयोनि जैसी ऐतिहासिक पहाड़ियाँ अवैध खनन के कारण पत्थरों के ढेर में बदलती जा रही हैं। यह केवल पर्यावरणीय क्षति नहीं, बल्कि हमारी प्राचीन धरोहरों पर सीधा आघात है। अरावली और दिल्ली-एनसीआर का भविष्य – सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णयों के बावजूद यह भयावह तथ्य है कि अरावली पर्वत श्रृंखला का 91 प्रतिशत हिस्सा संरक्षण से बाहर है। यदि अरावली समाप्त हुई, तो दिल्ली-एनसीआर को मरुस्थलीकरण और भीषण जल संकट से कोई नहीं बचा पाएगा। टांडा क्षेत्र में भीलीस्तान लायन सेना जैसे संगठन आदिवासियों के अधिकारों और पर्यावरण संरक्षण के लिए आवाज उठा रहे हैं, क्योंकि पहाड़ों का विनाश सीधे तौर पर स्थानीय समुदायों के विस्थापन का कारण बन रहा है।
5 डिग्री सेल्सियस की मार – एक शोध के अनुसार पहाड़ों का औसत तापमान 5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है। इसके कारण उत्तराखंड के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे नदियों में अचानक बाढ़ (फ्लैश फ्लड) और उसके बाद लंबे सूखे की स्थिति उत्पन्न हो रही है। खनन, शहरीकरण और वनों की कटाई: घातक गठजोड़ – पहाड़ों को काटकर बनाई जा रही सुरंगें और सड़कें उनकी स्थिरता को समाप्त कर रही हैं। वनों की कटाई से मिट्टी का कटाव बढ़ा है, जिससे भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ रही हैं। अनियंत्रित खनन भू-जल स्तर को भी गहराई में धकेल रहा है। बढ़ती आबादी और पानी की मांग के बीच जलवायु परिवर्तन किसानों को लंबे सूखे की ओर धकेल रहा है। समाधान की राह: अब नहीं तो कभी नहीं – इस संकट का समाधान केवल सरकारी फाइलों में नहीं, बल्कि धरातल पर कड़े निर्णयों में है। नमामि गंगे और दिव्य गंगा मिशन को केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि पारिस्थितिक शुद्धिकरण के रूप में देखा जाना चाहिए। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और बंगाल को गंगा बेसिन के लिए एकीकृत प्रबंधन नीति अपनानी होगी। नदियों के किनारों और पहाड़ों के संवेदनशील क्षेत्रों को ‘नो-डेवलपमेंट ज़ोन’ घोषित कर अतिक्रमण पर सख्त दंडात्मक कार्रवाई आवश्यक है। प्लास्टिक का पूर्ण बहिष्कार और रीसाइक्लिंग को जीवनशैली का हिस्सा बनाना होगा। सार्वजनिक परिवहन, वृक्षारोपण और स्थानीय समुदायों—विशेषकर आदिवासियों—की भागीदारी ही संरक्षण की कुंजी है। प्रकृति के पास हमारी आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन हमारे लालच के लिए नहीं। यदि हमने आज अपनी जीवनरेखा नदियों और प्रहरी पर्वतों की रक्षा नहीं की, तो प्रकृति स्वयं संतुलन बनाएगी—और वह संतुलन बाढ़, सूखे और आपदाओं के रूप में अत्यंत विनाशकारी होगा। नदियों को फिर से बहने दें और पहाड़ों को अपनी जगह स्थिर रहने दें—यही मानवता के बचने का एकमात्र मार्ग है। नमामि गंगे की ओर से भारतीय प्रशासनिक संस्थान, नई दिल्ली में जीवनधारा नमामि गंगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. हरिओम शर्मा के नेतृत्व में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सह आचार्यकुल के राष्ट्रीय प्रवक्ता  साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक सहित बिहार राज्याध्यक्ष डॉ. उषाकिरण श्रीवास्तव, डॉ. दिव्या स्मृति एवं अन्य गंगा सेवियों द्वारा गंगा बेसिन क्षेत्रों पर विस्तृत चर्चा की गई। मानव सभ्यता के मूल आधार—नदियाँ और पर्वत—आज तथाकथित विकास की मार से अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। यदि समय रहते संरक्षण नहीं हुआ, तो यह संकट आने वाली पीढ़ियों के लिए विनाशकारी विरासत बन जाएगा।

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