भारतीय ब्राह्मण धर्म का स्थल तथा बौद्ध धर्म की कर्म भूमि धराउत था । पुराणों के अनुसार देव सेनापति कार्तिक , भगवान नरसिंह की भूमि प्राचीन काल से थी । विंध्यपर्वत समूह के उतरी भाग का नाम करण विन्ध्योतर वासियो का राजा दैत्य राज हिरण्यकश्यपु का बध कर भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद की रछा के लिए सतयुग के अंगिरा संवत्सर वैशाख शुक्ल चतुर्दशी रविवार वरीयान योग में ऩरसिंह का अवतार द्वारा कर धरा का उद्धार किया गया गया था । वह स्थल धराउद के नाम से ख्याति प्राप्त हुई थी । धराउद में भगवान शिव के पुत्र देव सेनापति कार्तिक का प्रिय स्थल बराबर पर्वत समूह की सूर्यांक गिरि पर सिद्धों द्वारा स्थापित सिद्धेश्वर नाथ की उपासना करने के पश्चात धराउद में कार्तिकेशवर शिवलिंग की स्थापना तथा माता सिद्धश्वरी की अराधना स्थल का निर्माण किया गया था ।धराउद में शैव , शाक्त , सौर तथा वैष्णव धर्म के उपासकों द्वारा शिव लिंग , काली , नरसिह , सूर्य तथा कार्त्कायन का मंदिर तथा मूर्त स्थापित किया गया था । बिहार राज्य का जहानाबाद जिले के मखदुमपुर प्रखंडान्तर्गत धराउत प्राचीन एवं एतिहासिक स्थल है । बराबर पर्वत समूह के उतर - पश्चिम 5मील की दूरी पर स्थित धराउत में बौद्ध भक्खुनी गौतमी का स्तूपहै । दछिणी भारत की महान बौद्ध विद्वषी गौतमी तथा वैदिक और ब्राह्मण धर्म के विद्वान शाकद्वीपीय ब्राह्मण माधव के बीच शास्त्रार्थ हुआ था । 7 वीं शदाब्दी ई. मे चीन के यात्री ह्वेणसांग द्वारा वैदिक धर्म के विद्वान माधव तथा बौद्ध धर्म के विद्वसी गौतमी का स्मारक पर जाकर अवलोकन किया गया था । धराउत की बौद्धिक विरासत तथा शैव , शाक्त , सौर , वैष्णव , ब्रह्मण धर्म , दर्शन , बौद्ध धर्म की भूमि रही है । 185 - 75 ई. में शुंग वंश , 320 - 510 ई़ में गुप्त वंश के ऱाजाओं एवं 750 - 936 ई. तक पाल वंश और 1050 - 1197 ई. तक सेन वंश के राजाओं द्वारा धराउत का विकास हुआ था । 2077वर्ष पूर्व धराउत का राजा चंद्रसेन भगवान शिव तथा सू्र्य के उपासक थे । उन्होने शिव लिंग की स्थापना ,मंदिर का निर्माण , सूर्योपासना के लिए चंद्रपोखर , सूर्य मंदिर और कार्तिकायन , नरसिह भगवान की मूर्ति मंदिर का निर्माण कराया था । चंद्रसेन की पुत्री का विवाह उजैन का राजा विक्रमादित्य के साथ संपन्न हुआ था ।
उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य द्वारा सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु नवग्रह बड़ा कौन है का निर्णय दिया गया था । ग्रह अपने को बड़ा बताने लगे कि सबसे बड़ा मैं हूं, जब आपस में निर्णय नहीं कर पाए तब झगड़ते हुए इंद्रदेव के पास गए। कहने लगे कि आप सभी देवताओं के राजा है इसलिए हमारा न्याय करके बताइए कि हम 9 ग्रहों में सबसे बड़ा ग्रह कौन हैं। देवराज इंद्र ने ग्रहों से कहा कि पृथ्वी पर उजैन का राजा विक्रमादित्य दुखों दूर करने वाले हैं इसलिए आप लोग उनके पास जाकर अपने प्रश्न का उत्तर मांगो। वही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देंगे । उजैन राजा विक्रमादित्य के सभा में जाकर ग्रहगण उपस्थित हुए। अपनी समस्या राजा से कही और उनकी समस्या को सुनकर राजा बड़ी सोच में पड़ गए । जिसे छोटा कहूंगा वह तो क्रोधित होगा लेकिन झगड़ा समाप्त करने के लिए राजा के दिमाग में एक उपाय सूझा और कहा कि सोना, कांसा, पीतल, रजत, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक, और लोहा आदि नौ धातुओं के लिए नौ आसन बनवाए गए। जिसके बाद राजा ने कहा कि आप लोग अपने अपने आसनों पर बैठ जाएं जिसका आसन आगे होगा वह सबसे बड़ा जिसका पीछे वह सबसे छोटा होगा। सबसे पीछे का आसन लोहे का था।शनिदेव समझ गए कि राजा ने मुझे सबसे छोटा कहा है और उन्हें बहुत क्रोध आया और राजा से कहा कि तुम मेरे पराक्रम को नहीं जानते की सूर्य राशि पर एक माह, चंद्रमा पर सवा दो दिन, बृहस्पति 13 महीने, मंगल पर डेढ़ महीना, शुक्र पर एक एक महीना और राहु-केतु दोनों उल्टे चलते हुए केवल 18 महीने एक राशि पर रहता हूं, परंतु में एक ही राशि पर 3 महीने तक रहा हूं। जिसने मुझे वरदान दिया उसे मैंने नहीं छोड़ा बड़े-बड़े देवताओं को भी मैंने नहीं छोड़ा भविष्य में दुख दिया। जब राम भगवान पर साढ़ेसाती आई तो वनवास हुआ, रावण पर आई तो राम लक्ष्मण ने लंका पर चढ़ाई की जिससे कि रावण के भूल का नाश हुआ, तब विक्रमादित्य ने कहा कि भाग्य में लिखा है वह होकर रहेगा। बाकी सभी ग्रह खुशी पूर्वक वहां से चले गए। किंतु शनिदेव बड़े ही क्रोधित होकर वहां से चले गए। काल बीत गया तब राजा पर साढ़ेसाती की दशा आई । शनि देव घोड़े के सौदागर बनकर अपने सुंदर-सुंदर घोड़ों के साथ राजा के राज्य में आए, राजा के सैनिक ने सौदागर के आने की खबर राजा को बताई तो राजा ने अपने अश्वपाल को अच्छे-अच्छे घोड़े खरीदने को कहा और अच्छे नस्ल के घोड़े का दाम सुनकर अश्वपाल चौक गया और राजा को इस बात की सूचना दी। राजा घोड़ा खरीदने के लिए स्वंम आए और उसमें से एक अच्छा घोड़ा सवारी के लिए चुन लिया और जैसे ही उस घोड़े पर सवार हुए वह घोड़ा उनको जंगल में बहुत दूर ले गया। राजा को जंगल में छोड़ कर वह घोड़ा अंतर्ध्यान हो गया। राजा जंगल में भटकते भटकते बहुत दूर चले गए, और भूखा प्यास से व्याकुल हो रहे थे। तभी उन्हें एक ग्वाला दिखाई दिया ग्वाले ने राजा विक्रमादित्य को पानी पिलाया और राजा ने अपनी उंगली से अंगूठी निकाल कर उस ग्वाले को दे दिया।अब राजा आगे की ओर चल दिए जिस राज्य में राजा विक्रमादित्य पहुंचे वह राज्य राजा चंद्रसेन का था। इन दोनों राज्यों में दुश्मनी थी क्योंकि राजा विक्रमादित्य ने धराउद का राजा चंद्रसेन को युद्ध में पराजित किया था और उन्हें मृत्युदंड ना देकर जीवनदान दिया। इसी बात पर चंद्रसेन क्रोधित होकर अपने राज्य चला आया और जितने भी विक्रमा नाम के व्यक्ति थे उन सभी को फांसी लगवा दिया करता था। शनि देव भगवान के क्रोध से राजा विक्रमादित्य राजा चंद्रसेन की नगरी में जा पहुंचे। वहां के लोगों को यह पता नहीं था कि यह राजा विक्रमादित्य है। वहां पर लोगों ने राजा को पागल समझ कर पत्थर मारने लगे मारो इसे ! मारो इसे ! यह पागल नगरी में कहां से आ गया। राजा विक्रमादित्य के कपड़े फटे हुए थे, हाथ पैर में से खून बह रहा था इसलिए सब प्रजा राजा विक्रमादित्य को पागल समझ रही थी । राजा विक्रमादित्य के पास एक लकड़ी का व्यपारी आया और उन्हें अपने साथ ले गया। उस दिन उसकी दुकान पर बहुत ग्राहक आए और सेठ ने खुब धन कमाया। उस दिन उस दुकानदार की सारी लकड़ियां बिक गई। वह सेठ उस आदमी को भाग्यवान पुरुष समझ कर अपने घर भोजन कराने के लिए ले गया। भोजन करते समय राजा ने देखा की एक खूंटी पर हार लटक रहा है और वह खूंटी उस हार को निकल रही है। भोजन करने के पश्चात् सेठ को घर में वह हार नही मिला । उसने सोचा कि इस व्यक्ति के अलावा मेरे घर कोई और नहीं आया है लगता है कि इसी व्यक्ति ने मेरे हार की चोरी की है। परंतु राजा ने मना किया कि मैंने कोई हार नहीं चुराया तो वहां पर सात आठ आदमी इकठ्टे हो गए और उसको लेकर राजा चंद्रसेन के पास लेकर गए। राजा ने कहा शक्ल सूरत से तुम भले आदमी प्रतीत होते हो चोर नहीं लगते किंतु सेठ का कहना है कि तुम्हारे अलावा कोई और घर में नहीं था इसीलिए चोरी तुमने ही की है। तब राजा ने आज्ञा दी और राजा की आज्ञा का पालन किया गया। उसके हाथ-पैर कटवा दिए गए। कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उसको अपने घर ले गया। और बीका को मतलब विक्रमादित्य को कोल्हू पर बिठा दिया। बीका कोल्हू पर बैठा हुआ अपनी जुबान से बैल हकता रहा। अब राजा की साढ़ेसाती की दशा समाप्त हो गई। यह साढ़ेसाती राजा विक्रमादित्य की पत्नी की तपस्या और पूजा से समाप्त हुई। एक रात को वर्षा ऋतू के समय राजा विक्रमादित्य मल्हार राग गाने लगे तो उनका गाना सुनकर उस नगर की राजकुमारी गाने पर मोहित हो गई और अपनी सखी से कहा जाकर देखो तो यह कौन गा रहा है। तब उसे देखने के लिए सखी इधर उधर घूमती फिरती है और एक तेली के घर पहुंची उसने देखा कि एक चौरंगिया गा रहा है। सखी ने महल जाकर राजकुमारी को बतलाया। राजकुमारी ने अपने मन में प्राण कर लिया कि मैं चौरंगिया से विवाह करूंगी। प्रातकाल राजकुमारी को दासी ने जगाया तो राजकुमारी ने कहा आज मेरा अनशन व्रत है। मैं नहीं उठूंगी यह बात दासी ने रानी को बताई तो रानी राजकुमारी के पास गई और कारण पूछा तो राजकुमारी ने कहा यह मैंने प्रण लिया है कि तेली के घर जो चौरंगिया है में उसी से विवाह करूंगी। रानी ने कहा क्या तुम पागल हो गई हो तुम्हें पता भी है क्या कह रही हो। मैं तुम्हारा विवाह किसी राजा के साथ करवाउंगी लेकिन राजकुमारी कहने लगी कि मैंने प्रण किया है मैं उसी से शादी करूंगी। रानी ने तब राजा से कहा राजा ने भी यही समझाया कि हम तुम्हारा विवाह किसी देश के राजकुमार से करवाएंगे। तुम अपना प्रण तोड़ दो राजकुमारी ने कहा कि मैं अपने प्राण दे दूंगी लेकिन प्रण नहीं तोडूंगी। राजा ने कहा कि जैसी तुम्हारी इच्छा जो भाग्य में लिखा होगा वही होगा।राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि जो तुम्हारे यहां चौरंगिया है उसके साथ मैं अपनी पुत्री का विवाह करना चाहता हूं। तब तेली ने कहा ऐसा कैसे हो सकता है आप इतने बड़े राजा और कहां हम नीच तेली लेकिन बीका ने मना कर दिया उन्होंने कहा ऐसा नहीं हो सकता है लेकिन राजा ने अपनी लड़की का विवाह राजा विक्रमादित्य के साथ कर दिया। रात्रि को विक्रमादित्य और राजकुमारी महल में सोए थे। तो आधी रात के समय शनिदेव ने विक्रमादित्य को स्वप्न दिखाया कि राजा तुमने मुझे छोटा बताकर कितना दुख उठाया। राजा ने क्षमा मांगी शनिदेव ने खुश होकर राजा को हाथ पैर दिए। तब राजा बोले शनिदेव मेरी आपसे एक प्रार्थना है कि मेरे जैसा दुख आप किसी को ना दे। शनिदेव ने कहा तुम्हारी यह प्रार्थना स्वीकार है तब शनिदेव ने कहा जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा या कहेगा मेरी दशा में किसी को किसी प्रकार का दुख नहीं होगा। जो मेरा प्रतिदिन ध्यान करेगा या चींटियों को आटा डालेगा उसकी सब मनोकामना पूर्ण होंगी। इतना कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए। इस बीच राजकुमारी की आंख खुली और उसने देखा कि राजा के हाथ पैर सही हो गए हैं राजा ने राजकुमारी को अपना सब हाल बताया। मैं उज्जैन का राजा हूं। मेरा नाम विक्रमादित्य है। यह सुनकर राजकुमारी बहुत खुश हुई। सुबह राजकुमारी ने सखियों को अपने पति का वृत्तांत सुनाया।जब सेठ ने यह सुना तो वह राजा के पास गया और उनसे माफी मांगने लगा। राजा के पैरों पर गिरकर कहने लगा कि मैंने आपको चोरी का झूठा दोष लगाया था। आप जो चाहे वह दंड दे सकते हैं। तब राजा ने कहा कि मुझ पर शनिदेव का प्रकोप था इस कारण मुझे इतना दुख प्राप्त हुआ इसलिए इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। तुम अपने घर जाओ। तब सेठ ने कहा कि मेरी आत्मा को शांति तभी मिलेगी जब आप मेरे घर प्रतिभोज करेंगे। राजा ने कहा ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी। सेठ ने अपने घर जाकर कई प्रकार के सुंदर और स्वादिष्ट भोजन बनवाए । जिस समय राजा भोजन कर रहे थे उसी समय उन्होंने एक आश्चर्यजनक घटना सबको दिखाई कि जो खूंटी हार को पहले निकल गई थी वह अब उगल रही थी। जब भोजन समाप्त हो गया तब सेठ ने हाथ जोड़कर राजा को बहुत सी मोहरे दी और कहा कि हमारी एक कन्या है उसका नाम श्री कंबरी है। उसका पानी ग्रहण करें इसके बाद सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा के साथ कर दिया और बहुत सा धन, दास -दासी आदि दिए। इस प्रकार कुछ दिनों तक वहां रहने के पश्चात राजा विक्रमादित्य अपने राज्य जाने के लिए कहा और राजकुमारी और श्री कंबरी दोनों जगह के दहेज में मिले अपने धन और दास - दासी सहित राजमहल उज्जैन नगरी की ओर चल दिए। जब नगरवासियों ने राजा के आने का समाचार सुना तो समस्त उज्जैन की प्रजा स्वागत के लिए आई। राजा प्रसंता पूर्वक अपने महल में पधारे सारे नगर में बड़ा भारी उत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला जलाई गई। उस दिन राजा ने पूरे राज्य में यह सूचना करा दी कि शनिदेव सब ग्रहों में सर्वोपरि अर्थात सबसे बड़े हैं। मैंने इनको छोटा बतलाया था इसी कारण मुझको इतना दुख मिला। तब सारे नगर में राजा ने शनिदेव की पूजा और कथा करने को कहा। इस प्रकार उज्जैन नगरी की प्रजा शनिदेव की कृपा से सुखी से रहने लगी। राजा चंद्रसेन ने मगध देश में पीपल पेड लगा कर भगवान शनिदेव को समर्पित किया । शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे एक लोटा जल डालें। काली उड़द, सरसों का तेल, गुण, काला कपड़ा चढ़ाकर दीप जलाये और पीपल के वृक्ष की सात बार परिक्रमा करें। ओम शनिश्चराय नमः का जाप करें। शनिदेव की कथा पढ़े और दूसरों को सुनाये। जो इस कथा को सुनता है वह शनिदेव की कृपा से उसके समस्त दुख दूर हो जाते हैं।
धराउत में मागधीय परंपरा का वैदिक तथा ब्राह्मण धर्म और दर्शन के मनिषि माधव का कर्म स्थल था । मगध के वैदिक विद्वान माधव और दछिण भारत के विद्वसी गौतमी का शास्त्रात स्थल धराउत थी । वैदिक विद्वान माधव द्वारा बौद्ध विद्वसी गौतमी को धराउत में प्रवेश पर रोक लगायी गयी थी । जब गौतमी ने धराउत प्रवेश द्वार पर आगमन होने पर माधव एक वस्त्र में लौट रहे थे तभी गौतमी ने राजा से अनुरोध किया कि माधव जी से मुलाकात करने की अनुमति दी जाय ।राजा द्वारा माधव और गौतमी का मिलन तथा शास्त्रार्थ स्थल का चयन कुनवां पहाडी के समीप निर्मित भवन में किया गया था । ब्राह्मण धर्म तथा दर्शन पर माधव तथा गौतमी से 6 दिनों तक शास्त्रार्थ हुई जिसमें माधव की शास्रार्थ से पराजय के बाद निधन हो गया था । राजा द्वारा कुनवां पहाडी के श्रंखला पर माधव और गौतमी का समाधि स्थल का निर्माण कराया गया है ।बराबर पर्वत समूह की कुनवां श्रंखला धराउत के दछिण दिशा में स्थित में गुणमती या गुणमत समाधि स्थल है ।कुनवां पहाडी के उतर दिशा पर बौद्ध स्तूप तथा कई मूर्तियां स्थापित है । कुनवां से 200 गज की दूरी पर 60 फीट लंबाई तथा 250 फीट लंबाई पर बौद्ध चिह्न निर्मित है ।यह स्थल दीवारों से घीरा कर वैदिक , ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्म की मूर्तयां , स्तूप , मंदिर स्थापित है ।जेनरल कनिंघम ने ह्वेणसांग द्वारा उलेखित ग्रेनाईट पत्थर में निर्मित मूर्तियां , कुनवां श्रंखला पर निर्मित स्तूप , मंदिर , दीवार , स्मारक का अध्यन किया था । एल एस एस ओमॉली का बंगाल डिस्ट्रीक्ट गजेटियर गया 1906 , फ्रॉससिस बुकानन का एन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रीक्ट ऑफ बिहार एण्ड पटना 1811 - 12 तथा पी सी राय चौधरी के बिहार डिस्ट्रीक गजेटियर गया 1957 , हरिवंश पुराण , महाभारत , मत्स्य पुराण , ब्रह्म पुराण , आध्यात्म पुराण तथा बौद्ध ग्रंथों , जैन ग्रंथों , लिंग पुराण में धराउत की चर्चा है । प्राचीन काल मे धरा , धर्मा , धराउ , धराउद कलांतर धराउत नाम से ख्याति है। धराउत में स्तूप 4 थीं सदी तथा मंदिर निर्माण 9 वीं में निर्मित है । पटना से 72 कि. मी . , जहानाबाद से 20 कि .मी. दछिण और मखदुमपुर से 8 कि. मी . पूरब और बराबर पर्वत समूह से 10 कि. मी. उतर - पूरब स्थित 876 हेक्टेयर में विकसित एतिहासिक स्थल धराउत में 2011के जनगणना के अनुसार 8310 अावादी निवास करते है । धराउत के दछिण दिशा में राजा चंद्रसेन द्वारा निर्मित 2000 फीट लंबाई तथा 800 फीट चौडाई युक्त चंद्रपोखर है ।चंद्रपोखर के उतर - पश्चिम कोण पर देव सेनापति कार्तिकायन तथा 12 भुजाओं से युक्त अवलोकितेश्वर की मूर्ति है।राजा हर्ष के दामाद तथा धराउद का राजा ध्रुव सेन द्वीतीय बालादित्य संकुचित और घमंडी राजा था । बलभी आंध्र प्रदेश निवासी तथा बौद्ध धर्म का हीनयान साहित्य के विद्वान महाव्यूतपत्रि बौद्धिसत्व गुणमति का निवास राजा ध्रुव ने अपने सैनिक स्थल कुनवां के समीप रखा था । बराबर पर्वत समूह की एक श्रंखला को कुनवां पहाडी के नाम से ख्याति प्प्त है।हिनयानी साहित्य में धराउत का कुनवां पहाडी , गुणवती , गुनमति का महत्वपूर्ण उल्लेख है । 643 ईं में राजा हर्ष के पूर्वज सौर तथा शैव धर्म के उपासक थे ।चीनी यात्री ह्वेणसांग को शाक्यमुनि कहा गया । शाक्य मुनि द्वारा राजा हर्ष को बौद्ध धर्म के महयान से जोड कर महायान को राज्यश्रेय प्रप्त किया गया । 544 ई.पू. धरा विकसित तथा वैदिक केंद्र था ।750 ई. मे पाल वंश ,सेन वंश पुष्यभूति वंश गुप्त वंश 240- 467 ई. तक धराउत का विकस हुआ था तथा चंद्रसेन ने धराउत का चतुर्दिक विकास किया ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें