ग्रंथों में ग्रहों की चाल और उनकी दशा का मानवीय जिन्दगी में घटने वाली प्रत्येक घटना पर विशेष उलेख है । ग्रहों की चाल पर मानवीय मूल्यों में लाभ और हानि का उतार चढाव की घटनाएं होती रहती है । मानव को लाभ-हानि ग्रहों के चाल के मुताबिक व्यक्ति के कार्य सही तथा गलत का मूल्यांकन होता है । ग्रहों की स्थिति में खरमास है। जिस तरह श्राद्ध महीने में नए और शुभ कार्य करना मना है उसी तरह खरमास में भी शुभ कार्य और यज्ञ करना निषेध है ।जयोतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य प्रत्येक राशि में माह के लिए रहता है । अर्थात 12 महीने में 12 राशियों में प्रवेश करता है । सूर्य का यह भ्रमण साल चलता रहता है । इसी कारण से प्रत्येक साल भर में शुभ और अशुभ मुहूर्त बदलते रहते हैं ।12 राशियों में भ्रमण करते हुए जब सूर्य गुरु यानी बृहस्पति की राशि धनु या मीन में प्रवेश करता है तभी खरमास प्रारंभ होता है । खरमास मेंसभी तरह के शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं । शास्त्रों के अनुसार खरमास में सभी तरह के शुभ कार्यों मे जैसे शादी, सगाई, गृह प्रवेश, नए घर का निर्माण आदि नहीं किया जाता है । कारण है कि खरमास के दौरान सूर्य गुरु की राशियों में रहता है जिसके कारण गुरु का प्रभाव कम हो जाता है । जबकि शुभ और मांगलिक कार्यों के लिए गुरु का प्रबल होना बहुत जरुरी होता है । गुरु जीवन में वैवाहिक सुख और संतान देने वाले है । वैज्ञानिक कारण - विश्व की आत्मा सूर्य और बृहस्पति की किरणें अध्यात्म और अनुसाशन की ओर प्रेरित करती है । सूर्य और बृहस्पति जब एक दूसरे की राशि में प्रवेश करते हैं तभी समर्पण और लगाव की बजाय त्याग और छोड़ने की भूमिका अधिक देती है साथ ही उद्देश्य और लक्ष्य में असफलताएं मिलती हैं । विवाह, गृहप्रवेश, यज्ञ आदि वर्जित हो जाता है .क्योंकि बृहस्पति और सूर्य दोनों ऐसे ग्रह हैं जिनमें बहुत ज्यादा समानता है. सूर्य की तरह बृहस्पति भी हाइड्रोजन और हीलियम से बना हुआ है ।सूर्य की तरह इसका केंद्र भी पानी से भरा हुआ है, जिसमें ज्यादातर हाइड्रोजन ही है जबकि दूसरे ग्रहों का केंद्र ठोस है बृहस्पति सौर मंडल के सभी ग्रहों से ज्यादा भारी हैं. अगर बृहस्पति थोड़ा बड़ा होता तो वो दूसरा सूर्य बन गया होता ।सूर्य पृथ्वी से 15 करोड़ किलोमीटर और बृहस्पति 64 करोड़ किलोमीटर दूर है. ये दोनों साल में एक बार एक दूसरे के साथ हो जाते हैं जिससे सौर चुम्बकीय रेखाओं के माध्यम से बृहस्पति के कण बहुत ज्यादा मात्रा में पृथ्वी के वायुमंडल में पहुंच जाते हैं, जो एक दूसरे की राशि में आकर अपनी किरणों को आंदोलित करते हैं. जिसकी वजह से धनु और मीन राशि के सूर्य को खरमास कहा जाता है. और सिंह राशि के बृहस्पति में सिंहस्त दोष दर्शाकर भारतीय भूमंडल के विशेष क्षेत्र गंगा और गोदावरी के साथ-साथ उत्तर भारत के उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, आदि राज्यों में शुभ काम या यज्ञ नहीं किया जाता. जबकि पूर्वी और दक्षिणी प्रदेशों में इस तरह के दोष को नहीं माना गया है.सूर्य दिसंबर महीने के मध्य में धनु राशि में प्रवेश करते हैं. इस बार सूर्य धनु राशि में 16 दिसंबर को प्रवेश कर रहे हैं. जिसके बाद से खरवास शुरू हो जाएगा. सूर्य 14 जनवरी तक धनु में राशि में रहेंगे. 14 जनवरी के बाद खरमास खत्म हो जाएगा। साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि भातीय ग्रंथों तथा ज्योतिष शास्त के गणना के अनुसार विश्व में संबत का रूप दिया गया है । संबत का प्रमुख केंद्र सूर्य है । प्राचीन काल मे सौर संबत प्रचलित किया गया । 14 मनुओं ने विभिन्न मन्वन्तर का प्रारंभ कर विकास की रूप रेखा अपना कर कार्य किया वही विभिन्न राजाओं द्वारा संबतं की परंपरा कायम किया है । वर्तमान में 7 वें वैवस्वत मनु ने वैवस्वत मन्वंतर प्रारंभ है । इस मन्वंतर के सतयुग , त्रेता ,द्वापर के बाद कलियुग प्रारंभ है ।सतयुग में मत्स्य कल्प में प्रभव संवत्सर , कच्छप कल्प में विभव संवत्सर , वराह कल्प में शुक्ल संवत्सर तथा न्टसिह कल्प में अंगिरा संवत्सर , त्रेता युग में सर्वजीत संवत्सर , तारण संवत्सर के बाद द्वापर युग में संवत्सर कायम हुआ । कलियुग में संबत् से ख्याति प्राप्त है । वर्तमान में सावर्णी मन्वन्तर , वराह कल्प है । द्वापर युग मे राजा युधिष्ठिर ने युधिष्ठिर संबत् आरंभ किया । युधिष्ठिर संबत् 3044 वर्ष के बाद उज्जेन का राजा विक्मादित्य द्वारा विक्रम संबत् प्रारंभ किया गया है । विश्व में 35 संबत है । प्राचीन सप्तर्षि संबत् , 6676 ई.पू . , कलियुग संबत 3102 ई.पू. , बुद्ध निर्वाण संबत् 487 ई. पू . , वीर निरवाण संबत 427 ई.पू , मौर्य संबत 321 ई. पू . , सेल्युकिडि ( सेलुक्स ) संबत 312 ई. पू., विक्म संबत 78 ई.पू. गुप्त संवत् 894 ई. एवं कलिचुरी संबत , गंगेय संबत , हर्ष संबत , भाटिक संबत , कोल्सम संबत ,नेवार संबत ,चालुक्य संबत , सिंह संबत , सेन संबत , यहुदी संबत , नेपीली संबत , ईस्वी संबत , बांग्ला संबत , शाक संबत् ,फसली संबत ,हिजरी संबत है ।
विश्व का प्राचीन सनातन धर्म है ।संवत्सर मनाने की परंपरा, और उसका विधि विधान है। ब्रह्म पुराण के अनुसार जगत पिता ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन प्रारंभ की थी। ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि की रचना का कार्य आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को करने के कारण ‘प्रवरा' तिथि घोषित किया। इसमें धार्मिक, सामाजिक, व्यवसायिक और राजनीतिक अधिक महत्व कार्य आरंभ किए जाते हैं । चैत्र मासि जगत ब्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि । शुक्ल पक्षे समग्रेतु तदा सूर्योदय सति।।भगवान विष्णु के मत्स्यावतार का आविर्भाव और सतयुग की शुरुआत प्रारंभ भी इसी समय हुआ था।तभी से इश प्रवरा तिथि के महत्व को स्वीकार कर, भारत के सम्राट विक्रमादित्य ने भी अपने संवत्सर का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही किया।जिसे आगे चलकर महर्षि दयानंद जी ने भी आर्य समाज की स्थापना इसी दिन की ।इस दिन मुख्यतया ब्रह्माजी का व उनकी निर्माण की हुई सृष्टि के प्रधान देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षसों, गंधर्वों, ऋषि, मुनियों, मनुष्यों, नदियों, पर्वतों, पशुपक्षियों और कीटाणुओं का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का पूजन किया जाता है। साथ ही संवत्सर पूजन, नवरात्र घट स्थापना, ध्वजारोहण, तैलाभ्याड्ं स्नान, वर्षेशादि पंचाग फल श्रवण, परिभद्रफल प्राशनन और प्रपास्थापन प्रमुख रुप से की जाती हैं।कहते हैं कि इसका विधिपूर्वक पूजन करने से वर्ष पर्यन्त सुख-शान्ति, समृद्धि आरोग्यता बनी रहती है।हमारे देश भारतवर्ष का गौरवमयी इतिहास और हमारी सनातनी सभ्यता और संस्कृति में संवत्सर का विशेष महत्व सदियों से रहा है।हमारे यहां शुभ संस्कार, विवाह, मुंडन, नामकरण कथा-किर्तन संकल्प जैसे शुभ कार्यों में जप-तप, मंत्र जाप, यज्ञादि अनुष्ठानों के समय संवत,संवत्सर का प्रयोग प्रमुखता से किया जाता है।हमारे पवित्र और प्राचीन ऋग्वेद में लिखा गया है कि दीर्घतमा ऋषि ने युग-युगों तक तपस्या करके ग्रहों, उपग्रहों, तारों, नक्षत्रों आदि की स्थितियों का आकाश मंडल में ज्ञान प्राप्त किया। आपको ये भी बता दें कि वेदांग ज्योतिष काल गणना के लिए विश्व भर में भारत की सबसे प्राचीन और सटीक पद्धति है।पौराणिक काल गणना वैवश्वत मनु के कल्प आधार पर सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग- इन चार भागों में विभाजित है। इसके पश्चात ऐतिहासिक दृष्टि से काल गणना का विभाजन इस प्रकार से हुआ। युधिष्ठिर संवत्, कलिसंवत्, कृष्ण संवत्, विक्रम संवत, शक संवत, महावीर संवत, बौद्ध संवत। तदुपरान्त हर्ष संवत, बंगला, हिजरी, फसली और ईसा सन भारत में चलते रहे। वेद, उपनिषद, आयुर्वेद, ज्योतिष और ब्रह्मांड संहिताओं में मास, ऋतु, वर्ष, युग, ग्रह, ग्रहण, ग्रहकक्षा, नक्षत्र, विषुव और दिन रात का मान व उनकी ह्रास, वृद्धि संबंधी विवरण पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।
58 ई.पू. उज्जैन के राजा विक्मादित्य ने आक्रांताशकों को पराजित कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। यह चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को घटित हुआ। विक्रमादित्य ने इसी दिन से विक्रम संवत की शुरुआत की। काल को देवता माना जाता है। संवत्सर की प्रतिमा स्थापित करके उसका विधिवत पूजन व प्रार्थना की जाती है।विक्रम और शक संवत्सर दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। यद्यपि हमारे राष्ट्रीय पंचांग का आधार शक संवत है, तथापि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शक हमारे देश में हमलावर के रूप में आए थे। कालान्तर में भारत में बसने के उपरांत शक भारतीय शक संवत् के अनुसार कोई राष्ट्रीय पर्व व जयंतियां मनाते हैं और ना ही लोक परंपरा के पर्व है । भारतीय परंपरा में विक्रम संबत के आधार पर पर्व , तिथियें , जयंतियों की प्रधानता है ।शक संवत् का हमारे दैनिक जीवन में कोई विशेष महत्व नहीं रह गया है। विक्रम संवत् के आधार पर तैयार किया गया पंचांग पूर्ण प्रचलन में है। भारत के सभी प्रमुख त्योहार व तिथियां इसी पंचाग के अनुसार मनाई जाती हैं। ज्ञात हो कि विक्रमी पंचांग ग्रेगेरिन कैलेंडर से ५७ वर्ष पहले वर्चस्व में आ गया था, जबकि शक संवत् की शुरुआत ईस्वी सन् के ७८ वर्ष बाद हुई। विश्व में लगभग २५ संवतों का प्रचलन है जिसमें १५ तो २५०० वर्षों से प्रचलित हैं। दो-चार को छोड़कर प्रायः सभी संवत् वसंत ऋतु में आरंभ होते हैं। दुनियाभर में लगभग सैंकड़ों संवत प्रचलित होंगे। उनमें से भी मुश्किल से 50 संवतों को अभी भी महत्व दिया जा रहा होगा। उनमें 20 संवत पर आधारित दुनिया भर में कैलेंडर निर्मित होते हैे। विक्रम संवत, बौद्ध संवत, महावीर संवत, यहूदी संवत, ईस्वी संवत, हिजरी संवत, चीनी संवत, ईरानी संवत, सिख संवत, पारसी संवत आदि। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कल्पाब्द : 1972949122 , सनातन कालकणना मान अनुसार सृष्टि संवत : 1955885122 , चीनी संवत : 96002318, पारसी संवत : 189923 ,मिस्र संवत : 27674, तुर्की संवत : 7627 , आदम संवत : 7372,ईरानी संवत : 6022 , यहूदी संवत : 5781 ,श्रीकृष्ण संवत : 5146 , युधिष्ठिर संवत : 5122 ,कलियुग संवत : 5121 , इब्राहीम संवत : 4460 ,कल्की संवत : , सप्तर्षि संवत : , मूसा सन् : 3653 ,यूनानी सन् : 3587 , रोमन सन् : 2765 ,बौद्ध संवत 2589 ,वीर निर्वाण संवत : 2541 (महावीर संवत 2609) ,बर्मा सन : 2555, मलयकेतु : 2326 ,श्रीशंकराचार्य : 2294 , पार्थियन : 2267, विक्रम संवत : 2077 , ईस्वी सन : 2020 , जावा : 1946 , शालिवाहन संवत : 1942 , कलचुरी संवत : 1778 ,बलभी संवत 1700 , फसली संबत् 1428 ,बांग्ला संवत : 1427 , हर्षाब्द संवत : 1413 , हिजरी सन् : 1442 है।
राजा विक्रमादित्य - उज्जैन के राजा गन्धर्वसैन की पुत्री मैनावती तथा भृतहरि और वीर विक्रमादित्य पुत्र थे ।
धारानगरी के राजा पदमसैन की पत्नी मैनावती के पुत्र गोपीचन्द ने श्री ज्वालेन्दर नाथ जी से योग दीक्षा प्राप्त कर तपस्या करने वन में चले गए और योगी गोपी चंद की माता मैनावती ने श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग दीक्षा प्रपत कर योगीनी हुई थी । विक्रमदित्य के 9 रत्नों में से एक कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् , कुमार संभवम् , रघुवंश अनेक रचना की है ।उज्जैन के राजा भृतहरि ने राज छोड़कर श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग की दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , राज अपने छोटे भाई विक्रमदित्य को दे दिया , वीर विक्रमादित्य ने श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से गुरू दीक्षा लेकर राजपाट सम्भालने लगे थे ।महाराज विक्रमदित्य ने देश को आर्थिक तौर पर सोने की चिड़िया बनाई, उनके राज को भारत का स्वर्णिम राज कहा जाता है ।विक्रमदित्य के काल में भारत का कपडा, विदेशी व्यपारी सोने के वजन से खरीदते थे ।विक्रमदित्य काल में सोने की सिक्के चलते थे । विक्रमदित्य द्वारा विक्र्म संबत स्थापित किया गया है । ज्योतिष गणना में हिन्दी सम्वंत , वार , तिथीयाँ , राशि , नक्षत्र , गोचर आदि रचना है । विश्व के न्याय प्रिय राजा विक्रमादित्य से न्याय करवाने आते थे । विक्रमदित्य के काल में हर नियम धर्मशास्त्र के आधार पर न्याय , राज चलता था ।विक्रमदित्य का काल राम राज के बाद सर्वश्रेष्ठ माना गया है । विक्मादित्य काल में भारत सोने की चिडियॉ का देश कहा गया ।
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