क्रांति और भक्ति के साधक राधा बाबा के नाम से विख्यात श्री चक्रधर मिश्र का जन्म बिहार राज्य का अरवल जिले के अरवल प्रखंडान्तर्गत फखरपुर में 1913 ई. की पौष शुक्ल नवमी को शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 1928 में गांधी जी के आह्वान पर गया के सरकारी विद्यालय में उन्होंने यूनियन जैक उतार कर तिरंगा फहरा दिया था। शासन विरोधी भाषण के आरोप में उन्हें छह माह के लिए कारावास में रहना पड़ा।गया में जेल अधीक्षक एक अंग्रेज था। सब उसे झुककर ‘सलाम साहब’ कहते थे; पर इन्होंने ऐसा नहीं किया। अतः इन्हें बुरी तरह पीटा गया। जेल से आकर ये क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गये। गया में राजा साहब की हवेली में इनका गुप्त ठिकाना था। एक बार पुलिस ने वहां से इन्हें कई साथियों के साथ पकड़ कर ‘गया षड्यन्त्र केस’ में कारागार में बंद कर दिया। जेल में बंदियों को रामायण और महाभारत की कथा सुनाकर वे सबमें देशभक्ति का भाव भरने लगे। इन्हें तनहाई में डालकर अमानवीय यातनाएं दी गयीं; पर ये झुके नहीं। जेल से छूटकर इन्होंने कथाओं के माध्यम से धन संग्रह कर स्वाधीनता सेनानियों के परिवारों की सहायता की। जेल में कई बार हुई दिव्य अनुभूतियों से प्रेरित होकर उन्होंने 1936 में शरद पूर्णिमा पर संन्यास ले लिया। कोलकाता में उनकी भेंट स्वामी रामसुखदास जी एवं सेठ जयदयाल गोयन्दका जी से हुई। उनके आग्रह पर वे गीता वाटिका, गोरखपुर में रहकर गीता पर टीका लिखने लगे। गोरखपुर ( उतरप्रदेश ) के गीता प्रेस से प्रकाशित कल्याण के संपादक भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी से हुई भेंट से उनके मन की अनेक शंकाओं का समाधान हुआ। इसके बाद वे भाई जी के परम भक्त बन गये। गीता पर टीका पूर्ण होने के बाद वे वृन्दावन जाना चाहते थे; पर सेठ गोयन्दका जी एवं भाई जी की इच्छा थी कि राधा बाबा के साथ हिन्दू धर्मग्रन्थों के प्रचार-प्रसार में योगदान दें। भाई जी के प्रति अनन्य श्रद्धा होने के कारण उन्होंने यह बात मान ली। 1939 में उन्होेंने शेष जीवन भाई जी के सान्निध्य में बिताने तथा आजीवन उनके चितास्थान के समीप रहने का संकल्प लिया।बाबा का श्रीराधा माधव के प्रति अत्यधिक अनुराग था। समाधि अवस्था में वे नित्य श्रीकृष्ण के साथ लीला विहार करते थे। हर समय श्री राधा जी के नामाश्रय में रहने से उनका नाम ‘राधा बाबा’ पड़ गया। 1951 की अक्षय तृतीया को भगवती त्रिपुर सुंदरी ने उन्हें दर्शन देकर निज मंत्र प्रदान किया। 1956 की शरद पूर्णिमा पर उन्होंने काष्ठ मौन का कठोर व्रत लिया।बाबा का ध्यान अध्यात्म साधना के साथ ही समाज सेवा की ओर भी था। उनकी प्रेरणा से निर्मित हनुमान प्रसाद पोद्दार कैंसर अस्पताल से हर दिन सैंकड़ों रोगी लाभ उठा रहे हैं। 26 अगस्त, 1976 को भाई जी के स्मारक का निर्माण कार्य पूरा हुआ। गीता वाटिका में श्री राधाकृष्ण साधना मंदिर भक्तों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। इसके अतिरिक्त भक्ति साहित्य का प्रचुर मात्रा में निर्माण, अनाथों को आश्रय, अभावग्रस्तों की सहायता, साधकों का मार्गदर्शन, गोसंरक्षण आदि अनेक सेवा कार्य बाबा की प्रेरणा से 1971 में भाई जी के देहांत के बाद बाबा उनकी चितास्थली के पास एक वृक्ष के नीचे रहने लगे। 13 अक्तूबर, 1992 को गीता वाटिका गोरखपुर में राधा बाबा की आत्मा सदा के लिए श्री राधा जी के चरणों में लीन हो गयी। यहां बाबा का एक सुंदर श्रीविग्रह विराजित है, जिसकी प्रतिदिन विधिपूर्वक पूजा होती है।
श्रीचक्रधर मिश्र विद्यार्थी जीवन में सभी उनकी प्रतिभा के कायल थे। नेतृत्व की अद्भुत क्षमता रखने वाले चक्रधर ने आठवीं कक्षा के बाद भारत को अंग्रेजी-पाश से मुक्त कराने के लिए राजनैतिक कार्यक्रमों में भाग लेना आरंभ कर दिया। हालांकि इस क्रम में उन्हें दो बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी।जेल से बाहर आने के बाद स्वाध्याय करते-करते उनका झुकाव वेदांत की ओर होने लगा और वह शांकर मतानुयायी हो गए। जब वह इंटर कक्षा के विद्यार्थी थे, तभी शारदीय पूर्णिमा के दिन संन्यास ले लिया। अपनी ब्राšाी स्थिति की परीक्षा लेने के लिए वह कलकत्ते में गंगा के किनारे कुष्ठ रोगियों के बीच बैठने लगे।एक बार कलकत्ते में उनकी मुलाकात श्रीरामसुखदासजी महाराज से हुई और उनके माध्यम से वह सेठ श्री जयदयाल जी से मिले। उनकी निष्ठा एकमात्र निराकार में थी। जयदयाल जी गयंदका के परामर्श से बाबा गोरखपुर आकर गीताप्रेस और फिर गीतावाटिका गए। गोरखपुर की गीतावाटिका में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ स्वामीजी रहा करते थे। स्वामी जी आगे चलकर श्री राधा बाबा के नाम से विख्यात हुए। कहते हैं कि बाबा को अद्वैत तत्व की साधना करते हुए सिद्धि मिली। श्रीराधा बाबा के नयनों में, प्राणों में, रोम-रोम में श्री राधारानी बसी हुई थीं। उनका मन नित्य वृन्दावनी-लीला में रमा रहता था। श्रीराधामाधव की प्रीति के साकार स्वरूप बाबा सदा नि:स्पृह भाव से जनसेवा में लीन रहते थे। गीतावाटिका में विख्यात श्रीराधाष्टमी महोत्सव का शुभारंभ राधाबाबा ने ही किया। उन्होंने श्रीकृष्णलीला चिंतन,जय-जय प्रियतम,प्रेम सत्संग सुधा माला आदि शीर्षकों से साहित्य का प्रणयन भी किया। बाबा अपनी साधनावस्था में प्रतिदिन तीन लाख नाम जप किया करते थे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे-इसकी 64 माला जप करने से एक लाख नाम जप होता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक बार श्रीमद्भागवतमहापुराण का अखंड पाठ किया। राधा बाबा 13 अक्टूबर, 1992 को सदा के लिए अंतर्हित हो गए। बाबा का सुंदर एवं प्रेरक श्रीविग्रह गीतावाटिका के नेह-निकुंज में प्रतिष्ठित है ।
श्रीचक्रधर मिश्र विद्यार्थी जीवन में सभी उनकी प्रतिभा के कायल थे। नेतृत्व की अद्भुत क्षमता रखने वाले चक्रधर ने आठवीं कक्षा के बाद भारत को अंग्रेजी-पाश से मुक्त कराने के लिए राजनैतिक कार्यक्रमों में भाग लेना आरंभ कर दिया। हालांकि इस क्रम में उन्हें दो बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी।जेल से बाहर आने के बाद स्वाध्याय करते-करते उनका झुकाव वेदांत की ओर होने लगा और वह शांकर मतानुयायी हो गए। जब वह इंटर कक्षा के विद्यार्थी थे, तभी शारदीय पूर्णिमा के दिन संन्यास ले लिया। अपनी ब्राšाी स्थिति की परीक्षा लेने के लिए वह कलकत्ते में गंगा के किनारे कुष्ठ रोगियों के बीच बैठने लगे। एक बार कलकत्ते में उनकी मुलाकात श्रीरामसुखदासजी महाराज से हुई और उनके माध्यम से वह सेठ श्री जयदयाल जी से मिले। उनकी निष्ठा एकमात्र निराकार में थी। जयदयाल जी के परामर्श से बाबा गोरखपुर आकर गीताप्रेस और फिर गीतावाटिका गए। गोरखपुर की गीतावाटिका में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ स्वामीजी रहा करते थे। स्वामी जी आगे चलकर श्री राधा बाबा के नाम से विख्यात हुए। राधा बाबा को अद्वैत तत्व की साधना से सिद्धि प्राप्त हुई थी । बाबा के नयनों में, प्राणों में, रोम-रोम में श्री राधारानी बसी तथा मन नित्य वृन्दावनी-लीला में रमा रहता था। श्रीराधामाधव की प्रीति के साकार स्वरूप बाबा सदा नि:स्पृह भाव से जनसेवा में लीन रहते थे। गीतावाटिका में विख्यात श्रीराधाष्टमी महोत्सव का शुभारंभ राधाबाबा द्वारा प्रारंभ किया गया था ।
विश्व में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहर, धार्मिक प्रवृत्ति एवं परम्पराओं के संरक्षण एवं संवर्धन तथा प्रचार-प्रसार के लिए समय-समय पर महान संतों-विभूतियों का अविर्भाव होता रहा है। भारतीय विभूतियों की पावन श्रृंखला में गोरखपुर का "कल्याण" के सम्पादक हनुमान प्रसाद पोद्दार एवं नित्य जीवन सहचर "प्रीतिरसावतार" राधा बाबा थे ।राधा बाबा का बचपन का नाम चक्रधर मिश्र था। उनके परिवार का पालन-पोषण पौरोहित्य कार्य से होता था। बालक चक्रधर की विशिष्ट योग्यता के बारे में अध्यापकों को प्रारंभ में ही ज्ञान हो गया था। आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भारत माता को अंग्रेजी पाश से मुक्त कराने के लिए उन्होंने आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। इस कारण दो बार जेल-यात्रा करनी पड़ी। जेल का जेलर बड़ा क्रूर था। उन कठोर यातनाओं के मध्य उन्हें कई बार भगवत्कृपा की विशिष्टानुभूति हुई। इन दिव्य अनुभूतियों ने बालक चक्रधर के मन में प्रेरणा जगा दी कि जेल से बाहर आने के बाद भगवदीय जीवन व्यतीत करना है।जेल से बाहर आने के बाद उनके बड़े भाइयों ने उन्हें आगे के अध्ययन के लिए कलकत्ता बुला लिया। वहां स्कूली अध्ययन के साथ उनका स्वाध्याय भी होता रहता था। स्वाध्याय करते-करते उनके मन का झुकाव वेदान्त की ओर होने लगा और आप शांकरमतानुयायी हो गए। जब वे इण्टर कक्षा के विद्यार्थी थे, तब भगवदीय प्रेरणा से शारदीय पूर्णिमा के दिन उन्होंने संन्यास ले लिया। इससे उनके परिजनों को मर्मान्तक पीड़ा हुई, परन्तु सब जानते थे कि चक्रधर अपने निश्चय से डिगने वाला नहीं है।इण्टर की परीक्षा देकर वे एकान्त वास के लिए अज्ञात स्थान पर चले गए। वहां कठिन साधना की। फलस्वरूप उन्हें शीघ्र ही सिद्धि मिलने के पश्चात कलकत्ता लौट आए थे । एक दिन जब वे कलकत्ता के गोविन्द भवन में पूज्य रामसुखदास जी महाराज से सम्पर्क हुआ था । रामसुख दास के माध्यम से सेठ जयदयाल गोयन्दका जी से मिलन हुआ। सेठजी साकार एवं निराकार-दोनों प्रकार की निष्ठाओं के विश्वासी तथा बाबा की निष्ठा निराकार में थी। कई दिनों तक पारस्परिक विचार-विनिमय हुआ परन्तु सेठजी चक्रधर बाबा की विचारधारा में परिवर्तन नहीं ला सके। फिर भी यह तय हुआ कि श्रीमद् भागवत् पर टीका-लेखन का कार्य गोरखपुर की गीताप्रेस से हो। अत: सेठजी के परामर्श के अनुसार चक्रधर बाबा गोरखपुर की गीता वाटिका गए। उस समय गीता वाटिका में एक वर्षीय अखण्ड भगवन्नाम-संकीर्तन का भव्यानुष्ठान चल रहा था। वहां बाबू जी (हनुमान प्रसाद पोद्दार)आए और उन्होंने गैरिक वस्त्रधारी युवक संन्यासी के चरण छूकर प्रणाम किया। इस प्रणाम का चमत्कार अनोखा था। सेठ जयदयाल जी के साथ कई दिवस विचार-विनिमय के उपरान्त भी जो परावर्तन नहीं हो पाया, वह कार्य इस क्षणिक स्पर्श ने कर दिखाया। निराकार निष्ठा तिरोहित हो गयी और साकारोपासना का बीजारोपण इस युवा संन्यासी चक्रधर बाबा के अन्तर में हो गया।राधा बाबा सन् 1939 तक सेठ जयदयाल जी के साथ रहे और टीका-लेखन का कार्य पूर्ण हो गया। प्रश्न था कि बाबा अब कहां रहें। बाबा की चाह थी कि संन्यास का व्रत लेकर श्री वृन्दावन धाम में वास किया जाए और सेठ जी चाहते थे कि बाबा उनके साथ रहें, जिससे चारों दिशाओं में श्रीमद् भागवत का प्रचार-प्रसार हो सके। इस बीच भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दी गई अन्त: प्रेरणा से 11 मई, 1939 को कलकत्ता में गंगा का जल हाथ में लेकर चक्रधर बाबा ने संकल्प लिया कि अब मैं भविष्य में बाबूजी अर्थात् श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ रहूंगा। इस संकल्प का एक उप-संकल्प भी था कि जहां बाबूजी की चिता जलेगी, उसी स्थान के समीप अपना जीवन व्यतीत कर दूंगा। पूज्य बाबूजी (श्रद्धेय हनुमान प्रसाद पोद्दार) गीता वाटिका में रहा करते थे। चक्रधर बाबा भी बाबूजी के साथ रहने लगे थे। बाबा भगवद् भाव राज्य में प्रवेश करके अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्य लीला-विहार किया करते थे। बाबा के अन्तर में प्रेम का स्रोत निरन्तर प्रवाहित रहता था। पहले वे कट्टर वेदान्ती थे। अद्वैत तत्व की साधना करते समय उन्हें सिद्धि मिली थी। और अब ब्राहृस्वरूप होकर ब्राहृसायुज्य की स्थिति को भी उन्होंने प्राप्त कर लिया। बाबा के नयनों में, ह्मदय में, प्राणों में, रोम-रोम में श्रीराधारानी छायी हुई थीं। सन् 1951 की अक्षय तृतीया के दिन राधा बाबा को भगवती श्रीत्रिपुरसुन्दरी जी ने दर्शन देकर निज मंत्र का दान दिया। सन् 1956 की शरद पूर्णिमा के दिन उन्होंने काष्ठ-मौन का कठोर व्रत लिया। श्रीराधा भाव मधुरोपासना और सन् 1957 के 8 अप्रैल को बाबा की श्रीराधा भाव में प्रतिष्ठा हुई। श्री राधाभाव में प्रतिष्ठा होने से और श्रीराधा नाम का आश्रय लेने से आप "राधा बाबा" के नाम से विख्यात हुए।राधा बाबा की प्रेरणा से 16 फरवरी, 1975 को हनुमान प्रसाद पोद्दार कैन्सर अस्पताल की स्थापना का संकल्प लिया गया, जहां आज भी अनेक रोगी चिकित्सा लाभ प्राप्त कर रहे हैं। आपके ही संकल्प से 26 अगस्त, 1976 को बाबू जी के स्मारक के निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ। सबसे अधिक महत्वपूर्ण आपका कार्य है गीता वाटिका में श्रीराधाकृष्ण साधना मन्दिर, जो भक्तजनों के आकर्षण का केन्द्र है। इस मन्दिर के श्री विग्रहों में प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य राधा बाबा की देख-रेख में सन् 1985 में सम्पन्न हुआ। इसके अतिरिक्त "श्रीकृष्णलीला-चिन्तन", "जय-जय प्रियतम", "प्रेम-सत्संग-सुधा-माला", आदि-आदि नव साहित्य का प्रणयन, आत्र्तजनों को आश्रय, अभावग्रस्तों को आश्वासन, साधकों का मार्ग प्रदर्शन, गोमाता का संरक्षण आदि अनेक-अनेक ऐतिहासिक कार्य आपके द्वारा सम्पन्न होते रहे। श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ने अपनी जीवन लीला का संवरण सन् 1971 में किया। उनकी अन्तेष्टि गीता वाटिका में राधा बाबा की कुटिया के पास ही हुई। बाबा ने कुटिया के आवास को विसर्जित कर दिया और चितास्थली के समक्ष एक विशाल वृक्ष के नीचे अपना आसन लगाया। इस स्थान पर बाबा अपने तिरोहण, सन् 1992 तक नित्य विराजित रहे। श्रीराधाभाव के मूर्तिमान स्वरूप राधा बाबा 13 अक्तूबर, 1992 को हम सभी से सदा के लिए विदा लेकर अन्तर्हित हो गए।
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