सनातन धर्म संस्कृति और पुरणों तथा स्मृति ग्रंथों में पितृदेव व पितृदेवों का महत्वपूर्ण उलेख किया गया है । वैवस्वत मन्वंतर में चंद्रमा , वृहस्पति तारा के पुत्र बुधकी भार्या वैवस्वतमनु की पुत्री इला के पुत्र गय द्वारा गया नगर की स्थापना की गई थी । असुरराज गयासुर भगवान विष्णु के परमभक्त था । गयासुर के वक्षस्थल पर भगवान विष्णु का चरण तथा ब्रह्मा जी ने ब्रह्मेष्ठी यज्ञ , भगवान शिव द्वारा रुद्रेष्ठी यज्ञ कर जगत का उद्धार किया गया था । गया में पितृपक्ष में पूर्वजों को पितरी श्राद्ध कर पितरों की मुक्ति , मोक्ष दिला कर पितृ ऋण के मुक्ति व सर्वाधिक मनोकामना प्राप्त होती है ।
पितरों को मुक्ति के लिए देश - विदेश से लोग पितरों को मोक्ष दिलाने के लिए गया श्राद्ध कर पितृपक्ष में श्राद्ध कर्ता तथा पितृजन लाभान्वित होते हैं । डॉ गणेश दस सिंघल की पुस्तक पिलिग्रिमेज जॉग्राफ़ी ऑफ ग्रेटर गया के अनुसार गया नगर की भौगोलिक स्थित 24° 25' 16" से 24° 50' 30" उत्तरी अक्षांश एवं 84° 57' 58" से 85° 3' 18" पूर्वी देशांतर रेखाओं के बीच गया अवस्थिति है । वृहद् गया की स्थिति 24°23' से 25°14' उत्तरी अक्षांश एवं 84°18'30" से 85°38' पूर्वी देशांतर रेखाओं के बीच है । भगवान सूर्य से सीधा संबंध गया में अक्षांश और देशांतर रेखाएं गुजरने और मिलने का स्थान का विष्णुपदी अर्थात केंद्र विंदु हैं । इन रेखाओं का सीधा संबंध भगवान् सूर्य के साथ है । भगवान् सूर्य के 12 नामों में भगगवन विष्णु अक्षांश और देशांतर रेखाएं मिलने का स्थल विष्णुपदी वृत्त बनती है । विष्णुपदी 360 अंशों में विभाजन कर सूर्य एवं गति को निश्चित किया जाता है । गया स्थित भगवान सूर्य का प्रात: कालीन सूर्य सविता एवं पृथ्वी को अमृत प्राण देते हुए एक धक्का देता है और सायं कालीन आदित्य पृथ्वी के प्राणों का आहरण करता है। उससे पृथ्वी को आकर्षण शक्ति के कारण धक्का लगता है । इन दोनो धक्कों के कारण पृथ्वी अपने क्रांति वृत्त पर घूमने लगती है और सूर्य की परिक्रमा करना प्रारंभ कर देती है । भगवान् सूर्य सविता और आदित्य के रुप में प्रतिदिन इसे गतिशील बनाते हैं । गया स्थित प्रात:कालीन , मध्य कालीन एवं सायं कालीन भगवान सूर्य की मूर्तियां अवस्थित है । पृथ्वी और सूर्य की गति के कारण जहाँ सूर्य लोक से प्राण तत्व जीव गया स्थित विष्णुपदी आकर पृथ्वी से जीव पुन: सूर्यलोक पहुंचते हैं । मध्यस्थ चंद्रलोक एक सेतू का काम करता है । जहाँ विष्णुपदी होती है , वहाँ 360 भागों में विभक्त वृत्त होता है । जीवों को क्षिप्रगति से सूर्य लोक की ओर आकर्षित कर जीव सूर्य , चंद्र और पृथ्वी की गति के साथ स्वर्गलोक या विष्णुलोक पहुंच जाता है । यह कार्य गया - श्राद्ध करता है । एक ओर श्राद्ध कर्म जहाँ जीवों के बंधनों को खोल कर प्रेतत्व से विमुक्त करता है , वहीं दूसरी ओर विष्णुपदी जीवों को स्वर्गलोक भेजने में सक्षम होकर सहायता प्रदान करती है । पितृपक्ष का पारलौकिक एवं भौगोलिक रहस्यमय है । "
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष है। पंद्रह दिनों का पितृपक्ष में पितरों (पूर्वजों) को जल देने तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।
श्रद्धया इदं श्राद्धम् (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ : प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है। सनातन धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत नही करना चाहिए । भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को कीकट नदी व पुनपुन नदी में स्नानादि कर जलंल्ली देने के पश्चात आश्विन कृष्णपक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार सूक्ष्म शरीर आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करने पर प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।पितृपक्ष भर में तर्पण करने से पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। पितृ पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।
पुराणों में कई कथाएँ इस उपलक्ष्य को लेकर हैं जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म की कथा काफी प्रचलित है। एवं हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरित में श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र विधान का उल्लेख भरत कीन्हि दशगात्र विधाना तुलसी रामायण में हुआ है।
भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है। वैसे तो इसका भी शास्त्रीय समय निश्चित है, परंतु ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है।
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।
अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएँ। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है।
मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है। त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं। यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है। नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है। पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है। सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।कर्मागश्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं।यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं'(12) पुणादितिथियां (4),'मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ अवसर प्राप्त होते हैं।'पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है।पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए। कैसे करें श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए।जब बात आती है श्राद्ध कर्म की तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है। गया समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्द है। वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर | विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है कि स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं। गया में जो दूसरा सबसे प्रमुख स्थान है जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम "फल्गु नदी" है। ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। तब से यह माना जाने लगा की इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेंगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा | इस स्थान का नाम ‘गया’ इसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था। तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो में आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से "गया जी" बोला जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा में ऋषि अगस्त सहित ऋषियों के नाम से तर्पण व जल अर्पित किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा को ऋषि तर्पण के साथ महालय का आरंभ होता है । शास्त्रों में बताया गया है कि भाद्र शुक्ल पूर्णिमा का धार्मिक दृष्टि से महत्व है। शास्त्रों के अनुसार धरती पर राक्षस राज आतापी और वातापी द्वारा ऋषियों को खाया जाता था । ऋषियों ने मिलकर महान तेजस्वी ऋषि अगस्त से ऋषिगण कष्ट का निदान करने के लिए अनुरोध करने पर ऋषि अगस्त ने अपने तपोबल से इन असुरों का अंत कर दिया। ऋषि अगस्त के प्रति आभार प्रकट करने के लिए ऋषि , मुनियों ने इन्हें जल देना प्रारंभ किया था। पुरणों के अनुसार वृत्रासुर के वध के बाद राक्षस डरकर समुद्र में जाकर छुप गए। राक्षस रात को जल से निकलकर ऋषि मुनियों को खा जाया करते थे। ऐसे में देवताओं ने भगवान विष्णु के निर्देश पर अगस्त्य मुनि से सहायता मांगी थी । अगस्त मुनि ने अंजुली में समुद्र का सारा जल ले कर पी गए। समुद्र में छुपे राक्षस दिखने पर देवताओं ने उन्हें मार डाला।इसके बाद जल में रहने वाले जीव व्याकुल हो उठे। देवताओं ने कहा कि भाद्र शुक्ल पूर्णिमा को पितृपक्ष आरंभ होने से पहले सभी आपको जल देंगे। आपने जो अपने पेट में समुद्र को रखा हुआ है उसे मुक्त कर दीजिए। अगस्त मुनि ने समुद्र को मुक्त कर दिया। और इसके बाद से अगस्त मुनि के नाम से भाद्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन अगस्त मुनि और उनकी पत्नी लोपामुद्रा के साथ अन्य ऋषियों के नाम से तर्पण किया जाता है और जल दिया जाता है। ऋषि तर्पण के बाद अगले दिन यानी आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से श्राद्ध पक्ष आरंभ होता है।पितृपक्ष में पितृश्राद्ध करने वाले को बाहर के बने खाना के सेवन व 15 दिनों तक सात्विक भोजन करना चाहिए । शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में श्राद्धकर्ता को मूली और गाजर का सेवन नहीं करना चाहिए। मूली और गाजर का संबंध राहु से होता है। उसना चावल का सेवन करना पितृपक्ष में वर्जित व अरवा चावल का सेवन किया जाता है । पितृपक्ष में मसूर की दाल निषेध है क्योंकि ज्योतिष शास्त्र में मसूर दाल का संबंध मंगल है । , बैगन , अरबी और करेला को सेवन भूलकर नही करना चाहिए । पितृपक्ष में दूध का सेवन नहीं करना चाहिए परन्तु जिस दिन पितरों की तिथि में खीर को पितरों का भोजन माना गया है। अतः खीर का सेवन कर सकते हैं। वेदों , संहिताओं व स्मृति में भारतीय परंपरा व सनातन धर्म के वैदिक ऋषि एवं प्रसिद्ध वैरागी और भारतीय उपमहाद्वीप की विविध भाषाओं के प्रभावशाली विद्वान ऋषि अगस्त है । ऋषि अगस्त की पत्नी लोपामुद्रा ऋग्वेद और वैदिक साहित्य में 1.165 से 1.191 तक का लेखिका हैं । प्राकृतिक औषधीय वैज्ञानिक, सिद्धारीनिजीधर्महिन्दू धर्मपति या पत्नीलोपामुद्राबच्चेद्रधास्युअभिभावक । ब्रह्मा जी का पौत्र ऋषि पुलस्त्य की पत्नी हविर्भू के पुत्र अगस्त्य को सिद्ध चिकित्सा का जनक है । वैदिक ग्रंथों में सप्तर्षि और शैव सम्प्रदाय में तमिल सिद्ध में प्रतिष्ठित ऋषि अगस्त हैं । ऋषि अगस्त ने अगस्त वृक्ष की उत्पत्ति , पुराने तमिल के प्रारंभिक व्याकरण , वल्व तथा आदित्यहृदय के रचयिता , आविष्कारक , सौरधर्म , शाक्त धर्म एवं शैव धर्म , वैष्णव धर्म के उपासक थे । भाषा , अगत्तीयम , ताम्परापर्निया के विकास में ऋषि अगस्त की भूमिका रही है । प्रोटो-युग श्रीलंका और दक्षिण भारत में शैव केंद्रों में चिकित्सा और आध्यात्मिकता , शक्तिवाद और वैष्णववाद के पौराणिक साहित्य में पूजनीय हैं । दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के हिंदू मंदिरों में प्राचीन मूर्तिकला और राहत में पाए जाने वाले भारतीय संतों में जावा ,इंडोनेशिया पर मध्ययुगीन युग के शैव मंदिरों , प्राचीन जावानी भाषा के पाठ अगस्त्यपर्व का गुरु हैं । अगस्त्य को पारंपरिक रूप से संस्कृत ग्रंथों के रचयिता , वराह पुराण में अगस्त्य गीता , स्कंद पुराण में अगस्त्य संहिता , और द्वैध-निर्नय तंत्र पाठ की पौराणिक उत्पत्ति के बाद ऋषि अगस्त को मन , कलसजा , कुंभजा , कुंभयोनी और मैत्रावरुनी के रूप में जाना जाता है ।
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