रविवार, अगस्त 27, 2023

नालंदा की सांस्कृतिक विरासत ...


 बिहार राज्य का मगही और हिंदी भाषीय 09 नवंबर 1972 ई. में स्थापित   नालंदा जिला का मुख्यालय बिहार शरीफ है। नालन्दा ज़िले का क्षेत्रफल 2,367 कि॰मी2 (914 वर्ग मील) में 2011 जनगणना के अनुसार जनसंख्या 2,872,523 निवास बिहारशरीफ , हिलसा  और राजगीर अनुमंडल एवं प्रखंडों में गिरियक ,रहुई ,नूरसराय ,, हरनौत ,चंडी ,इस्लामपुर ,राजगीर ,अस्थावां , सरमेरा ,हिलसा ,  बिहारशरीफ , एकंगरसराय, बेन ,नगर नौसा ,कार्य परसुराय ,सिलाव , परवलपुर , कतरीसराय बिंद और थरथरी क्षेत्रों में निवास  करते है। बुद्ध और महावीर नालन्दा में कर्मक्षेत्र एवं जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर की मोक्ष स्थली पावापुरी , बौद्ध गुरु  शारिपुत्र, का जन्म नालन्दा  और नालंदा विश्वविद्यालय नालंदा था । नालंदा का  पूर्व में अस्थामा पश्चिम में तेल्हारा  दक्षिण में गिरियक तक उत्तर में हरनौत तक है। विश्‍व के प्राचीन विश्‍वविद्यालय के अवशेषों को अपने आंँचल में समेटे नालन्‍दा बिहार का पर्यटन नालंदा विश्‍वविद्यालय के अवशेष, संग्रहालय, नव नालंदा महाविहार तथा ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल  हैं।  राजगीर, पावापुरी, में  चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में एक वर्ष विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। भगवान बुद्ध ने सम्राट अशोक को यहाँ उपदेश दिया था। भगवान महावीर रहे थे। नालंदा में राजगीर में गर्म पानी के झरने का निर्माण् बिम्बिसार के  शासन काल में करवाया था । राजगीर का  ब्रह्मकुण्ड, सरस्वती कुण्ड और लंगटे कुण्ड ,  चीन का मन्दिर, जापान का मन्दिर , शांति स्तूप , जरासंध का अखाड़ा , स्वर्णगुफ़ा आदि  है।  बिहार शरीफ में पुल के समीप जम्मामस्जिद स्थित है।अलेक्‍जेंडर कनिंघम द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय अवशेषों की खोज की गई थी । नालंदा  विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना 450 ई॰ में गुप्त शासक कुमारगुप्‍त ने की थी। नालंदा विश्‍वविद्यालय को महान शासक हर्षवर्द्धन ने   दान दिया था। हर्षवर्द्धन के बाद पाल शासकों का संरक्षण और विदेशी शासकों से   दान मिला था । नालंदा विश्‍वविद्यालय का अस्तित्‍व 12वीं शताब्‍दी तक बना रहा। 12‍वीं शताब्‍दी में कुतुबुद्दीन का सिपाह सलाहकार वख्त्यार खिलजी द्वारा नालंदा विश्‍वविद्यालय को जल‍ा डाला था  । 
नालंदा प्राचीन् काल का सबसे बड़ा अध्ययन केंद्र था तथा इसकी स्थापना पांँचवी शताब्दी ई० में हुई थी। दुनिया के सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष बोधगया से 62 किलोमीटर दूर एवं पटना से 90 किलोमीटर दक्षिण में स्थित हैं। माना जाता है कि बुद्ध कई बार यहां आए थे। यही वजह है कि पांचवी से बारहवीं शताब्दी में इसे बौद्ध शिक्षा के केंद्र के रूप में भी जाना जाता था। सातवी शताब्दी ई० में ह्वेनसांग भी यहां अध्ययन के लिए आया था तथा उसने यहां की अध्ययन प्रणाली, अभ्यास और मठवासी जीवन की पवित्रता का उत्कृष्टता से वर्णन किया। उसने प्राचीनकाल के इस विश्वविद्यालय के अनूठेपन का वर्णन किया था। दुनिया के इस पहले आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दुनिया भर से आए 10,000 छात्र रहकर शिक्षा लेते थे, तथा 2,000 शिक्षक उन्हें दीक्षित करते थे। यहां आने वाले छात्रों में बौद्ध यात्रियों की संख्या ज्यादा थी। गुप्त राजवंश ने प्राचीन कुषाण वास्तुशैली से निर्मित इन मठों का संरक्षण किया। यह किसी आंँगन के चारों ओर लगे कक्षों की पंक्तियों के समान दिखाई देते हैं। सम्राठ अशोक तथा हर्षवर्धन ने यहां सबसे ज्यादा मठों, विहार तथा मंदिरों का निर्माण करवाया था। हाल ही में विस्तृत खुदाई यहां संरचनाओं का पता लगाया गया है। यहां पर सन् 1951 में एक अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शिक्षा केंद्र की स्थापना की गई थी। इसके नजदीक बिहारशरीफ है, जहां मलिक इब्राहिम बाया की दरगाह पर हर वर्ष उर्स का आयोजन किया जाता है। छठ पूजा के लिए प्रसिद्ध सूर्य मंदिर भी यहां से दो किलोमीटर दूर बडागांव में स्थित है। यहां आने वाले नालंदा के महान खंडहरों के अलावा 'नव नालंदा महाविहार संग्रहालय भी देख सकते हैं। नालंदा  विश्‍वविद्यालय के 14 हेक्टेयर क्षेत्रफल में अवशेष तथा उत्खनन में मिले इमारतों का निर्माण लाल पत्‍थर से किया गया था।विश्वविद्यालय परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर निर्मित और मठ व  विहार परिसर के पूर्व दिशा में स्थित एवं मंदिर या चैत्‍य पश्चिम दिशा में , परिसर की सबसे मुख्‍य इमारत विहार ,  दो मंजिला इमारत  परिसर के मुख्‍य आंगन के समीप है। यह स्थल  शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे।  विहार प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की प्रतिमा भग्न अवस्था  में  है।  मंदिर परिसर का सबसे बड़ा  मंदिर से सम्पूर्ण  क्षेत्र का विहंगम दृश्‍य , मंदिर कई छोटे-बड़े स्‍तूपों से घिरा तथा   स्‍तूपो में भगवान बुद्ध की मूर्त्तियाँ विभिन्‍न मुद्राओं में बनी हुई है। विश्‍व‍विद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में पुरातत्‍वीय  संग्रहालय में नालंदा विश्वविद्यालय का उत्खनन से   प्राप्‍त अवशेषों में भगवान बुद्ध की विभिन्‍न प्रकार की मूर्तियां , बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियांँ और प्रथम शताब्‍दी का दो जार ,  तांँबे की प्‍लेट, पपाषाण शिलालेख , सिक्‍के, बर्त्तन तथा 12वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं। शिक्षा संस्‍थान पाली साहित्‍य तथा बौद्ध धर्म की पढ़ाई तथा अनुसंधान होता है। यह एक नया संस्‍थान है। ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल में ह्वेनसांग की मूर्तियां स्थापित कर चीनीयात्री ह्वेनसांग की याद में बनाया गया है। नालन्‍दा और राजगीर के मध्‍य स्थित सिलाव मिठाई खाजा  है। सूरजपुर बड़गांव में  भगवान सूर्य  मंदिर तथा  झील सूर्यकुंड  है।
 राजगीर - नालंदा ज़िले में स्थित वैतरणी नदी के तट पर  राजगीर मगध साम्राज्य की राजधानी थी । राजगीर को वसुमतिपुर, वृहद्रथपुर, गिरिब्रज और कुशग्रपुर के  नाम से जाना जाता है। पुराणों के अनुसार राजगीर बह्मा की पवित्र यज्ञ भूमि, संस्कृति और वैभव का केन्द्र तथा जैन धर्म के 20 वे तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ स्वामी के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान कल्याणक एवं 24 वे तीर्थंकर महावीर स्वामी के प्रथम उपदेश  स्थली  और  भगवान बुद्ध की साधनाभूमि राजगीर है।  ऋगवेद, अथर्ववेद, तैत्तिरीय उपनिषद, वायु पुराण, महाभारत, वाल्मीकि रामायण ,  जैनग्रंथ विविध तीर्थकल्प के अनुसार जरासंध, श्रेणिक, बिम्बसार, कनिष्क  आदि प्रसिद्ध शासकों का निवास स्थान राजगीर  था। मगध सम्राट  जरासंध ने भगवान श्रीकृष्ण को हराकर मथुरा से द्वारिका जाने को विवश किया था। पांडव पुत्र भीम एवं वृहरथ वंशीय जरासंध के बीच मॉल युद्ध होने के दौरान जरासंध मार गया था । जरासंध और भीम का मलयुद्ध स्थल को जरासंध का अखाड़ा कहा गया है ।विश्व शांति स्तूप - राजगीर पर्वत समूह की रत्नागिरि श्रंखला पर विश्व शांति स्तूप  में रोपवे, प्राचीन दिवारें, स्वर्ण भंडार ,  गुफाएँ, गृद्धकूट पर्वत है । राजगीर का निर्देशांक: 25°02′N 85°25′E / 25.03°N 85.42°E एवं समुद्रतल से ऊँचाई 73 मी (240 फीट) , 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या 41,587 आवादी वाले क्षेत्र हिंदी एवं मगही भाषीय क्षेत्र है। दक्षिण-पूर्व में पहाड़ियों और घने जंगलों के बीच बसा राजगीर धार्मिक तीर्थस्थल , सुन्दर हेल्थ रेसॉर्ट के रूप में  लोकप्रिय है।  हिन्दु, जैन और बौद्ध तीनों धर्मों के धार्मिक स्थल है । बुद्ध न केवल कई वर्षों तक कर्मक्षेत्र एवं पहली बौद्ध संगीति स्थल  थी। पंच पहाड़ियों से घिरा राजगीर वन्यजीव अभ्यारण्य प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण तथा वन्यजीव अभ्यारण्य और  राष्ट्रीय उद्यान है। राजगीर अभ्यारण्य में वनस्पतियों और वन्यप्राणियों की कई दुर्लभ प्रजातियां देखने को मिलती है। औषधीय पौधों की कई किस्मे राजगीर के जंगलो में पाई जाती है । बचे वन्यजीवों के भविष्य को सुरक्षा को सुनिश्चित करने के दिशा में पर्यावरण एवं वन विभाग द्वारा सन् 1978 में 35.84 वर्ग किलोमीटर के राजगीर अरण्य क्षेत्र को वन्यजीव अभ्यारण्य बना  था । राजगीर के ऐतिहासिक भूमि, धार्मिक तीर्थस्थल, तीन साल पर एक बार आनेवाला बृहद मलमास मेला  लगता है। पंच पहाड़ियां रत्नागिरी, विपुलाचल, वैभारगिरि, सोनगिरि उदयगिरि  हैं । तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरा राजगीर का घोड़ा कटोरा झील है । पर्यटक यहाँ झील में नौकायान का लुत्फ़ उठा सकते हैं और यहाँ साफ़-सफाई का भी बेहद ख्याल रखा जाता हैं । हाल ही में इसी झील के बीच भगवान बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा भी स्थापित की गई है । अगर आप प्राकृतिक सौंदर्यता के साथ रोमांच का अनुभव और वन्यजीव को खुले जंगलों में विचरण करते देखना चाहते हैं तो राजगीर अभ्यारण्य की सैर जरूर करें और इसके लिए वसंत से बेहतर कोई ऋतु नही हो सकता क्योंकि इसके आगमन के साथ ही जंगलो में जैसे बहार आ जाती है कलियां खिलने लगती है और माँझर लगे फलों के पेड़, फलों से लदे बेर के पेड़, खेतों में लहलहाती सरसों के पिले-पिले फूल और बागों में गाती कोयल और पपीहा अद्भुत अनुभूति का एहसास करते हैं । प्रकृति सौंदर्य को निहारना स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी है। गृद्धकूट पर्वत पर बुद्ध ने महत्वपूर्ण उपदेश दिये थे। जापान के बुद्ध संघ ने गृद्धकूट पर्वत श्रंखला  पर “शान्ति स्तूप” का निर्माण करवाया है । शांति स्तूप के चारों कोणों पर बुद्ध की चार प्रतिमाएं स्थपित हैं। शांति स्तूप तक पहुंचने के लिए  पैदल चढ़ाई एवं “रज्जू मार्ग”  बनाया गया है । राजस्थानी चित्रकला का अद्भुत कारीगरी राजस्थानी चित्रकारों के द्वारा लाल  मन्दिर में भगवान महावीर स्वामी का गर्भगृह भूतल के निचे निर्मित  जैन तीर्थयात्री आकर भगवान महावीर के पालने को झुलाते और  मन्दिर में २० वे तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ स्वामी की काले वर्ण की 11 फुट ऊँची विशाल खडगासन प्रतिमा विराजमान है । वीरशासन धाम तीर्थ में वेणु वन के समीप  भगवान महावीर स्वामी की लाल वर्ण की 11 फुट ऊँची  पद्मासन प्रतिमा है ।  पंचपहाड़ी के  दिगम्बर मन्दिर में भगवान महावीर की श्वेत वर्ण पद्मासन प्रतिमा ,  10 धातु की प्रतिमा, एक छोटी श्वेत पाषण की प्रतिमा एवं 2 धातु के मानस्तंभ , गर्भ गृह की बाहरी दिवाल के आले में बायीं ओर पद्मावती माता की पाषाण की मूर्ति ,  शिरोभाग पर पार्श्वनाथ विराजमान ,  दायीं ओर क्षेत्रपाल जी स्थित , बायीं ओर की अलग वेदी में भगवान पार्श्वनाथ एवं अन्य? प्रतिमायें अवस्थित , दाहिनी ओर नन्दीश्वर द्वीप का निर्मित है । शिखरबद्ध दिगम्बर  मन्दिर का निर्माण गिरिडीह निवासी सेठ हजारीमल किशोरीलाल ने प्रतिष्ठा विक्रम संबत 2450 में करायी थी । ब्रह्मकुंड एवं झरना - वैभव पर्वत की सीढ़ियों पर मंदिरों के बीच गर्म जल के सप्तधाराएं झरने  सप्तकर्णी गुफाओं से प्रवाहित  जल में औषधि गुण  हैं।कुंड 22 में  प्रमुख ब्रह्मकुन्ड” का जल गर्म (४५ डिग्री  है। स्वर्ण भंडार - मगध साम्राज्य का सम्राट वृहरथ वंशी  जरासंध का सोने का खजाना वैभार  पर्वत की गुफा के अन्दर अतुल मात्रा में सोना छुपा और पत्थर के दरवाजे पर खोलने का रहस्य शांख्य व शंख भाषा में खुदा और शांख्य भाषा व प्राकृत भाषा मगध राजा बिंदुसार के शासन काल में प्रचलित  थी। . विपुलाचल पर्वत पर जैन धर्म के 24 वे तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की प्रथम वाणी इसी विपुलाचल पर्वत से  विश्व को "जिओ और जीने दो" दिव्य सन्देश विपुलाचल पर्वत से दिया था । पहाड़ों की कंदराओं के बीच बने २६ जैन मंदिर है । जैन धर्म के अनुयायियों की  विपुलाचल, सोनागिरि, रत्नागिरि, उदयगिरि, वैभारगिरि  पहाड़ियाँ प्रसिद्ध हैं। जैन मान्यताओं के अनुसार इन पर 23 तीर्थंकरों का समवशरण  तथा जैन  मुनि मोक्ष स्थल हैं। आचार्य महावीर कीर्ति दिगम्बर जैन सरस्वती भवन का निर्माण परम पूज्य आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज के मंगल सानिध्य में सन् 1972 को सम्पन्न हुआ  था । भवन में आचार्य महावीर कीर्ति जी की पद्मासन प्रतिमा  है । पुस्तकालय में जैन धर्म सम्बंधित हज़ारों हस्तलिखित एवं प्रकाशित पुस्तकें ,  जैन सिद्धांत भवन ‘आरा’ के सौजन्य से जैन चित्रकला एवं हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ  है ।  विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर के जीवनी से संबंधित हस्तनिर्मित चित्रों कि प्रदर्शनी लगती है । जरासंध अखाड़ा के समीप नागराज मणिभद्र स्थल है । 
पावापुरी -  जैन धर्म के अनुयायियों के लिए पवित्र पावा में  भगवान महावीर को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। पावा के जलमंदिर है। पावापुरी का निर्देशांक: 25°05′30″N 85°32′20″E / 25.0917°N 85.5389°E 2011 जनगणना के अनुसार जनसंख्या 5,830 आवादी में मगही, हिन्दी भाषीय है। जैनधर्म के प्रभसूरीजी ने 13 वीं सदी ई. में विविध तीर्थ कल्प रूप में  प्राचीन नाम अपापा ,  पावापुरी , पावा से राजगृह से दस मील दूर है। भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण का सूचक स्तूप का   खंडहर  स्थित है। कनिंघम के अनुसार  बुद्धचरित में  पावापुरी की स्थिति का उल्लेख है । कसिया  प्राचीन कसिया को कुशीनगर से 12 मील दूर पदरौना स्थान  पर  गौतम बुद्ध काल में मल्ल-क्षत्रियों की राजधानी थी। भगवान महावीर का मोक्ष 72 वर्ष की आयु में हुआ था। बौद्ध ग्रंथ के अनुसार बुद्ध जीवन के अंतिम समय में तथागत ने पावापुरी में ठहरकर चुंड का सूकर-माद्दव का भोजन स्वीकार करने के कारण अतिसार हो जाने से उनकी मृत्यु कुशीनगर पहुँचने पर हो गई थी। कनिंघम ने पावा का अभिज्ञान कसिया के दक्षिण पूर्व में 10 मील पर स्थित फ़ाज़िलपुर  है। जैन ग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार महावीर ने पावा में एक वर्ष बिताने के बाद   प्रथम धर्म-प्रवचन पावा नगरी को जैन संम्प्रदाय का महत्वपूर्ण  है। महावीर स्वामी द्वारा जैन संघ की स्थापना पावापुरी में  की गई थी।  फाजिलनगर को  पावा नगर  कहते हैं। पावापुरी का कमल तालाब के बीच जल महावीर स्वामी जी  मंदिर , समोशरण मंदिर, मोक्ष मंदिर और नया मन्दिर  हैं।
 बिहारशरीफ  -   नालंदा जिला का मुख्यालय  बिहार शरीफ में बौद्ध अनुयायी उच्च शिक्षा ग्रहण स्थल थे। बिहार शरीफ में शेख शफूर्दीन याहिया मनेरी का कर्म स्थली था । बिहारशरीफ को 5 वीं शताब्दी का गुप्त काल मे ओदवंतपुरी कहा जाता था । ओदवंतपुरी में गुप्तकाल का स्तंभ है। बिहारशरीफ का पुराना नाम ओदंतपुरी और उदंतपुरी है। 7वीं शताब्दी में पाल वंश के शासक गोपाल ने ओदवंतपुरी के क्षेत्रों में  अनेक विहार (बौद्ध मठ) का निर्माण करवाया और  राजधानी बनाया। 10वीं शताब्दी तक  पाल राजवंश की राजधानी ओदवंतपुरी में था । आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने 1193 ई. में  नालंदा पर आक्रमण के दौरान  दौरान अनेक  बौद्ध मठों , ओदवंतपुरी विश्वविद्यालय को बर्बाद कर दिया।  बख्तियार खिलजी के लौटने के बाद स्थानीय बुंदेलों ने बिहारशरीफ पर दोबारा कब्जा कर  राजा बिठल का शासन स्थापित हुआ । राजा बिठल और बुंदेलों ने करीब सौ साल तक राज किया। साल 1324 में दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक ने अफगान योद्धा सैय्यद इब्राहिम मलिक को आक्रमण के लिए भेजा। जिसमें बुंदेलों की हार हुई और राजा बिठल मारे जाने केबाद  बाद बिहारशरीफ पर दिल्ली सल्तनत का  कब्जा हो गया। सैय्यद इब्राहिम मलिक की  जीत से खुश होकर सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक ने इब्राहिम मलिक को “मृदुल मुल्क” और “मलिक बाया” की उपाधि दी। सैय्यद इब्राहिम मलिक ने  30 सालों तक राज किया। वर्ष  1353 में सैय्यद इब्राहिम मलिक की हत्या कर दी गई। बिहारशरीफ के पीर पहाड़ी ( हिरण्य पर्वत ) की चोटी पर इब्राहिम मलिक को दफनाया गया। ये संरचना दुर्लभ गुणवत्ता वाली ईंटों से बनी  गुंबद के अंदर इब्राहिम मलिक के अलावा उसके परिवार के सदस्यों की 10 कब्रें हैं। राजा बिठल की मौत के बाद बुंदेला राजपूत गढ़पर और तुंगी गांव में जाकर बस गए। ब्रिटिश साम्राज्य   1867 में बिहारशरीफ में नगरपालिका गठन किया गया था ।
 तेल्हाड़ा -  नालन्दा जिले का एकंगरसराय प्रखण्ड के तेल्हाड़ा का कुषाणकाल की तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय  के खंडहरों में तब्दील है। तिलाधक महाविहार  तेल्हाड़ा का उत्खनन  में प्राप्त अवशेषों से प्राप्त जानकारी के अनुसार  तिलाधक महाविहार  प्राचीन शिक्षा केंद्र  था।  सातवीं सदी में चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत में तेल्हाड़ा स्थान का जिक्र करते हुए   कहा कि 5वीं सदी यानि “गुप्त काल” से 12वीं सदी “पालवंश” के शासनकाल तक तेल्हाड़ा का तिलाधक  महाविहार बौद्ध साधकों के शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र था । बख्तियार खिलजी द्वारा जलाए जाने के प्रमाण  उत्खनन के क्रम में साक्ष्य मिले हैं । तिलाधक महाविहार का उत्खनन के अनुसार  तीन बौद्ध मंदिर क्रमवार से  बौद्ध विहार का ऊपरी छत या सतह का निर्माण पाल वंश के शासनकाल यानि आठवीं से बारहवीं सदी एवं नीचे की सतह का निर्माण काल पांचवीं सदी का है ।  तेल्हाड़ा विश्वविद्यलय की  स्थापना कुषाण काल में महायान की पढ़ाई होती थी । तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय  की स्थापना काल से  100 ई.पू. से 1100 ई. तक देसी-विदेशी छात्र पढ़ाई करते थे।उत्खनन  से प्राप्त जानकारी के अनुसार तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय में शिक्षकों के रहने के लिए कमरे और पढने के लिए कक्ष , 1000 बौद्ध भिक्षु यहां रह कर शिक्षा ग्रहण , उच्च शोध वाले तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय विश्व के बौद्ध विद्वानों के लिए ज्ञान हासिल करने का केंद्र था । तेल्हाडा के 3 बौद्ध मंदिरों के अवशेष को  इत्सिंग के विवरणी में एक हजार बौद्ध भिक्षुओं के बड़े चबूतरे पर एक साथ बैठकर प्रार्थना करने का उल्लेख  है । जिसे भी यहाँ खुदाई के दौरान चिंहित किया गया है । उत्खनन से प्राप्त ब्राह्मी लिपि और मागधी  भाषा  में शिलालेख पर अंकित विवरण के अनुसार तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का नाम तिलाधक, तेलाधक्य या तेल्हाड़ा नहीं बल्कि श्री प्रथम शिवपुर महाविहार है .। शिलालेख पर तिल्हाधक महाविहारा बौद्ध महाविहार एक किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है । तेल्हाड़ा उत्खनन 2009 में प्रारम्भ किया गया था । बख्तियार खिलजी ने  तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय को जलाकर नष्ट कर दिया था ।उत्खनन कर्ता के अनुसार वख्तियार खिलजी द्वारा मनेर से होते हुए सबसे पहले  तेल्हाड़ा  विश्वविद्यालय के शिक्षकों व छात्रों को भगाकर वहां आग लगा दी थी।


 

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