बुधवार, दिसंबर 18, 2024

राजगीर की सांस्कृतिक विरासत

राजगीर की सांस्कृतिक विरासत 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बिहार राज्य के नालंदा ज़िले का राजगीर   द्वापर युग में मगध साम्राज्य की राजधानी हुआ करती थी । राजगृह को  वसुमतिपुर, वृहद्रथपुर, गिरिब्रज और कुशग्रपुर राजगीर  के नाम से विख्यात  है। सनातन धर्म ग्रंथों , बौद्ध एवं जैन ग्रंथों  साहित्य के अनुसार राजगीर बह्मा की पवित्र यज्ञ भूमि, संस्कृति और वैभव का केन्द्र तथा जैन धर्म के 20 वे तीर्थंकर मुनि सुव्रतनाथ स्वामी के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान कल्याणक एवं 24 वे तीर्थंकर महावीर स्वामी के प्रथम देशना स्थली और भगवान बुद्ध की साधनाभूमि राजगीर  है। ऋगवेद, अथर्ववेद, तैत्तिरीय उपनिषद, वायु पुराण, महाभारत, वाल्मीकि रामायण आदि में राजगीर का  उल्लेख मिलता है। जैनग्रंथ विविध तीर्थकल्प के अनुसार राजगीर जरासंध, श्रेणिक, बिम्बसार, कनिष्क  आदि प्रसिद्ध शासकों का निवास स्थान था।  विश्व शांति स्तूप, राजगीर पहाड़ियों का दृश्य, रत्नागिरि पहाड़ियों में रोपवे, प्राचीन दिवारें, स्वर्ण भंडार , गुफाएँ, गृद्धकूट पर्वत निर्देशांक: 25°02′N 85°25′E / 25.03°N 85.42°Eनिर्देशांक: 25°02′N 85°25′E / 25.03°N 85.42°E पर अवस्थित राजगीर समुद्र तल से ऊँचाई 73 मी (240 फीट) ,  2011 जनगणना के अनुसार राजगीर की जनसंख्या  41,587   हिन्दी एवं  मगही भाषायी क्षेत्र है। पटना से 100 किमी दक्षिण-पूर्व में पहाड़ियों और घने जंगलों के बीच बसा राजगीर प्रसिद्ध धार्मिक सनातन धर्म , जैन और बौद्ध तीनों धर्मों के धार्मिक स्थल हैं। बौद्ध धर्म के महात्मा बुद्ध का निवास एवं  उपदेश और प्रथम बौद्ध संगति तथा   बुद्ध के उपदेशों को  लिपिबद्ध स्थल राजगीर है।पंच पहाड़ियों से घिरा राजगीर वन्यजीव अभ्यारण्य प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है।   पर्यावरण एवं वन विभाग द्वारा सन् 1978 में 35.84 वर्ग किलोमीटर के राजगीर अरण्य क्षेत्र को वन्यजीव अभ्यारण्य बना दिया गया था । 
राजगीर की भूमि, धार्मिक तीर्थस्थल, तीन साल पर आनेवाला बृहद मलमास मेला स्थल है। राजगीर की  पंच पहाड़ियों में  रत्नागिरी, विपुलाचल, वैभारगिरि, सोनगिरि उदयगिरि   पहाड़ियों से घिरा राजगीर का घोड़ा कटोरा झील तट पर  भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा  स्थापित  है । राजगीर मगध सम्राट राजा जरासंध एवं भगवान बुद्ध महावीर की तपभूमि है। गृद्धकूट पर्वत पर बुद्ध ने महत्वपूर्ण उपदेश दिये थे। जापान के बुद्ध संघ ने गृद्धकूट पर्वत की  चोटी पर“शान्ति स्तूप” का निर्माण  करवाया है। शांति स्तूप के चारों कोणों पर बुद्ध की चार प्रतिमाएं स्थपित हैं। स्तूप तक पहुंचने के लिए  पैदल  या  “रज्जू मार्ग” रोपवे   से यात्रा करते है । राजस्थानी चित्रकला का अद्भुत कारीगरी राजस्थानी चित्रकारों के द्वारा लाल  मन्दिर में बनाया गया है । लाल  मन्दिर में भगवान महावीर स्वामी का गर्भगृह भूतल के निचे बनाया गया है । लाल  मन्दिर में २० वे तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ स्वामी की काले वर्ण की 11 फुट ऊँची विशाल खडगासन प्रतिम है।भगवान महावीर स्वामी की लाल वर्ण की 11 फुट ऊँची विशाल पद्मासन प्रतिमा वीरशासन धाम तीर्थ   है । इस मन्दिर में भगवान महावीर स्वामी के दिक्षा कल्याणक महोत्सव में विशाल जुलुस हर साल जैन धर्मावलम्बियों द्वारा निकाला जाता है ।  भगवान महावीर के प्राचीन चरण वेणुवन के समीप   समाप्त होता है । दिगम्बर जैन मन्दिर।को धर्मशाला मन्दिर के नाम से जाना जाता है। जैन धर्मावलम्बियों के ठहरने के लिए विशाल धर्मशाला से  पंचपहाड़ी के दर्शन करते है मन्दिर मैं भगवान महावीर की श्वेत वर्ण पद्मासन प्रतिमा है । वेदी में सोने तथा शीशे से निर्मित 10 धातु की प्रतिमा,छोटी श्वेत पाषण की प्रतिमा एवं 2 धातु के मानस्तंभ है । गर्भ गृह की बाहरी दिवाल के बायीं ओर पद्मावती माता की पाषाण की मूर्ति के शिरोभाग पर पार्श्वनाथ विराजमान  एवं दायीं ओर क्षेत्रपाल जी स्थित है । बायीं ओर की अलग वेदी में भगवान पार्श्वनाथ एवं अन्य प्रतिमायें अवस्थित है । दाहिनी ओर नन्दीश्वर द्वीप का निर्मित  है ।  मन्दिर का निर्माण गिरिडीह निवासी सेठ हजारीमल किशोरीलाल ने कराया था और प्रतिष्ठा विक्रम संवत  2450 में हुई थी। बैभारपर्वत की सीढ़ियों पर मंदिरों के बीच गर्म जल के  सप्तधाराएं सप्तकर्णी गुफाओं से जल आता है।  झरनों के पानी में  चिकित्सकीय गुण होने के प्रमाण हैं। पुरुषों और महिलाओं के नहाने के लिए 22 कुन्ड  हैं। सप्त झरने का जल प्रवाहित निरंतर है।“ब्रह्मकुन्ड” का जल सबसे गर्म ४५ डिग्री है। वैभारगिरी का  जरासंध का सोने का खजान है। बैभार  पर्वत की गुफा के अन्दर अतुल मात्रा में स्वर्ण छुपा है और पत्थर के दरवाजे पर उसे खोलने का रहस्य  किसी शांख लिपि एवं  गुप्त भाषा में खुदा हुआ है। मगध साम्राज्य का राजा  बिंदुसार के शासन काल में  शांख लिपि प्रचलित थी ।जैन धर्म के 24 वे तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की प्रथम वाणी विपुलाचल पर्वत पर जैन मंदिर   विखरी थी । भगवान महावीर ने समस्त विश्व को "जिओ और जीने दो" दिव्य सन्देश विपुलाचल पर्वत से दिया था । पहाड़ों की कंदराओं के बीच बने २६ जैन मंदिरों को आप दूर से देखते हैं । जैन मतावलंबियो में विपुलाचल, सोनागिरि, रत्नागिरि, उदयगिरि, वैभारगिरि  पहाड़ियाँ प्रसिद्ध हैं। जैन मान्यताओं के अनुसार इन पर 23 तीर्थंकरों का समवशरण आया था । आचार्य महावीर कीर्ति दिगम्बर जैन सरस्वती भवन  का निर्माण परम पूज्य आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज के मंगल सानिध्य में सन् 1972 को सम्पन्न हुआ था । नीचे एक बड़े हॉल में आचार्य महावीर कीर्ति जी की पद्मासन प्रतिमा विराजित है । ऊपर के कमरों में एक विशाल पुस्तकालय है, जिसमें जैन धर्म सम्बंधित हज़ारों हस्तलिखित एवं प्रकाशित पुस्तकें संग्रहित है । इसके अतिरिक्त जैन सिद्धांत भवन ‘आरा’ के सौजन्य से जैन चित्रकला एवं हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ की प्रदर्शनी आयोजित है । इसके अतिरिक्त विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर के जीवनी से संबंधित हस्तनिर्मित चित्रों कि प्रदर्शनी लाखों जैन अजैन यात्रियों द्वारा देखी और सराही जाती हैं । कई वर्ष पूर्व श्री महावीर कीर्ति सरस्वती भवन के संचालन के लिये एक बड़ी रकम पू० आचार्य श्री भरत सागर जी के प्रेरणा से शिखर जी में कमिटी को भेजने के लिये कुछ प्रबुद्ध व्यक्तियों को सौंपी गई थी, पर खेद है कि अभी तक कमिटी को वह रकम नही मिली हैं । कुछ प्राचीन खण्डित प्रतिमाएँ एवं अन्य पदार्थ जो उत्खनन से प्राप्त हुये थे । यहाँ भी संग्रहित है । ऊपरी हिस्से में वाग्देवी की प्रतिमा  स्थापित है । गृद्धकूट पहाड़ी पर मगध साम्राज्य के राजा  बिम्बिसार का बिम्बिसार कारागार में  भगवान बुद्ध के अनुयायी, बिम्बिसार का पुत्र  अजातशत्रु द्वारा कैद किया गया था। अअजातशत्रु ने अपने पिता से कारावास की जगह का चयन करने के लिए पूछा था। राजा बिम्बिसार ने स्थान चुना, जहां से वे भगवान बुद्ध को देख सकें। इसके बावजूद वह गृधाकुट और बुद्ध को खिड़की से देखते है। वैभारगिरी पहाड़ी में स्थित सप्तर्णी गुफा है। प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन सप्तर्णी गुफा  स्थान पर हुआ था। ब्रह्मकुण्ड व  गरम जल  स्रोत में स्नान करने से स्वास्थ्य लाभ होता है। सनातन धर्म संस्कृति के लिये पवित्र ब्रह्म कुण्ड है। सप्तपर्णी गुफा के स्थल पर प्रथम  बौध परिषद का गठन का नेतृत्व महा कस्साप ने किया था। 
“मनियार मठ"  के समीप  प्राचीन गुफाएं  स्वर्ण भंडार है। मनियार मैथ  अष्टकोणी मंदिर की दीवारें गोलाकार हैं। मनियार मठ के परिसर में विभिन्न  राजकुलों में  गुप्त राजकुल का धनुष और द्वापरयुग कालीन महाभारत में उल्लिखित मणि-नाग का समाधि स्थान है। सनातन धर्म की ज्योतिषीय गणना के अनुसार तीन वर्ष में  अतिरिक्त एक महीने को पुरूषोतम मास व अधिकमास और मलमास या अतिरिक्त मास मेला लगता है । ऐतरेय बह्मण के अनुसार अधिमास  को अपवित्र और अग्नि पुराण के अनुसार मलमास में मूर्ति पूजा–प्रतिष्ठा, यज्ञदान, व्रत, वेदपाठ, उपनयन, नामकरण आदि वर्जित है। मलमास  अवधि में राजगीर सर्वाधिक पवित्र माना जाता है। अग्नि पुराण एवं वायु पुराण आदि के अनुसार  मलमास अवधि में 33 कोटि 8 वासु , 11 रुद्र , 12 आदित्य , अश्विनी कुमार , ब्रह्मा जी  देवी देवता यहां आकर वास करते हैं।  ब्रह्माजी के द्वारा वैभारगिरी  ब्रह्मकुण्ड को  प्रकट किया था और मलमास में ब्रह्मकुण्ड  में स्नान का विशेष फल की संज्ञा दी  है। बुद्ध के समय प्रसिद्ध वैध जीवक ने बुद्ध को राजगीर में आश्रम समर्पित किया था । वैद्य जीवक ने बुद्ध के बीमार होने पर बुद्ध का इलाज वेणु वन में किया था।  बुद्ध स्नान स्थल वेणुवन स्थित  तालाब है। तपोधर्म आश्रम गर्म चश्मों के स्थान पर स्थित लक्ष्मी नारायण मन्दिर  है। तपोधर्म के स्थल पर बौध आश्रम और गर्म चश्मे थे। मगध साम्राज्य का  राजा बिम्बिसार तपोवन  पर स्नान स्थल था । मगध साम्राज्य का सम्राट जरासंध  बार-बार मथुरा पर हमले से श्री कृष्ण तंग आकर मथुरा-वासियों को द्वारिका  भेजना पड़ा था । जरासंध का  सैन्य कलाओं का स्थल पर गुलाबी रंग वाली हिन्दू लक्ष्मी नारायण मन्दिर अपने दामन में प्राचीन गर्म चश्मे समाए हुए हैं। लक्ष्मी नारायण मन्दिर भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को समर्पित है। जल कुंड में एक डुबकी ही गर्म चश्मे को अनुभव करने का स्रोत था, परन्तु अब एक उच्च स्तरीय चश्मे को काम में लाया गया है जो कई आधूनिक पाइपों से होकर आने पर हॉल की दीवारों से जुड़े स्थल पर  लोग बैठकर अपने ऊपर से जल के जाने का आनंद लेते हैं। कर्णदा कुंड  बुद्ध स्नान स्थल , प्रथम शताब्दी का मनियार मठ , मराका कुक्षी स्थल अजन्मित अजातशत्रु को पिता की मृत्यु का कारण बनने का श्राप मिला था । पांडव पुत्र  भीम और जरासंध महाभारत का मल्ल युद्ध स्थल रणभूमि  जरासंध का अखाड़ा है। विष्णु पुराण 23वाँ अध्याय के अनुसार मगध साम्राज्य की राजधानी राजगीर  में द्वापरयुग में  मगध साम्राज्य का राजा वृहद्रथ वंशीय मगध सम्राट  जरासंध , सहदेव ,सोमापि ,श्रुतश्रवा ,आयुतायु, निरमित्र ,सुनेत्र ,वृहतकर्मा ,सेनजीत ,श्रुतन्जय ,विप्र ,शुचि ,क्षेम्य ,सुब्रत ,धर्म ,सुश्रवा ,दृहसेन ,सुबल ,सुनीत सत्यजीत ,विश्वजीत और रिपुंजय द्वारा मगध साम्राज्य पर एक हजार वर्ष तक शासन था । सुनिक के पुत्र प्रद्योत मगध साम्राज्य का राजा बना था । मगध साम्राज्य का प्रद्योत वंशीय विशाख यूप ,जनक ,नंदिवर्धन , नंदी शासक 148 वर्ष तक रहा था।  नंदी का पुत्र शिशुनाभ ,काकवर्ण, क्षेमधर्मा ,क्षतौजा , विधिसार ,अजातशत्रु ,अर्भक ,उदयन , नंदिवर्धन ,महानन्दी शिशुनाग वंशीय राजाओं द्वारा 362 वर्ष तक मगध साम्राज्य का राजा थे ।शिशुनाभ वंशीय मगध साम्राज्य का राजा उदयन द्वारा मगध साम्राज्य की राजधानी राजगीर से स्थानांतरित कर गंगा नदी के किनारे अवस्थित  पाटलिपुत्र में मगध साम्राज्य की राजधानी बनाया था। 
आध्यात्मिकता और करुणा का केंद्र, वैभारगिरी पहाड़ियों की तलहटी में स्थित विरायतन में आध्यात्मिक और करुणा केंद्र  सुंदर और शांतिपूर्ण हैं । विरायतन परिसर में संग्रहालय , पुस्तकालय , आधुनिक अतिथिगृह , सप्तपर्णी में ध्यान और पार्श्व जिनालय दर्शनीय है। नेत्र ज्योति सेवा मंदिरम् की स्थापना 1987 ई.  में होने के पश्चात मोतियाबिंद, ग्लूकोमा, पेटीगियम, भेंगापन, लैक्रिमल विकार और एंट्रोपियन के लिए नेत्र शल्य चिकित्सा और चिकित्सा प्रबंधन प्रदान किया जाता है। बिहार का  विशेष रेटिनल क्लिनिक, 2011 में स्थापित हुआ एवं  वीरायतन में युवाचार्य श्री शुभम जी की याद में अत्याधुनिक डायग्नोस्टिक सेंटर 26 जनवरी 2024 ई. को  खोला गया।गौतम गुरुकुल के नाम से 26 जनवरी 2024 को विद्यालय प्रारम्भ हुई है। श्री ब्राह्मी कला मंदिरम संग्रहालय  तीर्थंकरों के जीवन और शिक्षाओं को शिक्षाप्रद प्रदर्शित करता है।  पूज्य गुरुदेव श्री अमर मुनिजी महाराज के 82 वें जन्मदिन के अवसर पर 1982 में श्री ब्राह्मी कला मन्दिरम संग्रहालय  प्रारम्भ किया  गया था। श्री ब्राह्मी कला मंदिरम का नामकारण जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी के नाम पर रखा गया है  । संग्रहालय पूज्य ताई माँ की आंतरिक दृष्टि का संग्रहालय में अवस्थित नाटकीय अनुवाद  और  प्रत्येक विवरण को अपने हाथों से डिज़ाइन और तैयार  है। संग्रहालय का मुख्य आकर्षण प्राकृतिक सामग्री सूखी पत्तियां, टहनियाँ, बांस के तने, पत्थर और पुनर्नवीनीकृत उत्पाद जैसे कपड़े, टूटे आभूषण, टूटे बर्तन आदि से निर्मित  सुंदर, रंगीन पैनल हैं। पूज्य ताई माँ इन वस्तुओं को एक साथ रखकर लघुचित्र बनाती हैं । पूज्य ताई माँ द्वारा निर्मित  अनूठी रचना, प्राचीन बिहार, प्राचीन बिहार के ऐतिहासिक शहरों, मंदिरों और स्थलों का एक मॉडल प्रदर्शन नालंदा, पावापुरी, कौशाम्बी, वाणिज्य ग्राम, श्रावस्ती, वैशाली, राजगीर, मिथिला, चंपा और लछुआर को कवर करते हुए बिहार के प्राचीन इतिहास को दर्शाता है। राजगीर के वीरायतन में स्थित पुस्तकालय का नाम ज्ञानजलि  में अमर मुनि की जीवन पर की पुस्तकें आदि विभिन्न धर्मों और दर्शनों पर विभिन्न भाषाओं में 20,000 से अधिक पुस्तकों का विशाल संग्रह है। वैभारगिरी पहाड़ियों की तलहटी में स्थित वीरायतन परिसर  में अतिथि गृह  तीर्थयात्रियों के लिए स्वच्छ, आरामदायक बोर्डिंग और लॉजिंग सुविधाएं प्रदान कर 300 अतिथियों के ठहरने की व्यवस्था है।  वातावरण का 50 एकड़ भू क्षेत्र में विकसित  बहुत सुंदर और शांत ,  बगीचे, संग्रहालय, नेत्र अस्पताल,  मंदिर,  प्रार्थना कक्ष और भोजनालय  ,  स्वस्थ, पौष्टिक शाकाहारी भोजन प्रदान करता है।कृपानिधि रिट्रीट  के पवित्र शहर में वैभारगिरी पर्वत श्रृंखला की तलहटी में हरे-भरे परिदृश्य के बीच स्थित इमारत की एल-आकार की संरचना  सुनिश्चित करती है कि हर कमरे से पहाड़ों का मनोरम दृश्य दिखाई है। रेस्तरां में  विशेष शाकाहारी व्यंजन ,  बैठकों, सम्मेलनों और सामाजिक समारोहों के लिए 2 बैंक्वेट हॉल  हैं।सप्तपर्णी गुरुदेव श्री अमर मुनिजी को समर्पित सप्तर्णी स्मारक में ध्यान और आध्यात्मिक अभ्यास करते हुए कई साल बिताए थे।  वीरायतन  परिसर में स्थित भगवान  श्री  पार्श्वभव्य जिनालय  मंदिर का उद्घाटन 2017 में हुआ था। साध्वीजी की उपस्थिति में पार्श्व भव्य जिनलग में पार्श्वनाथ को प्रतिदिन पूजा-अर्चना और आरती की जाती है। राजगीर में 20वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का प्रतीक सर्प  एवं 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का प्रतीक सिंह 468 ई. पू. प्रसिद्ध था । राजगीर का राजा मल्लराज सृस्टिपाल के शासन काल 468 ई. पू. में जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का पवित्र स्थल एवं पावापुरी  निर्वाण स्थल था । कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ के द्वितीय गुरु राजगीर में रुद्रक व रुद्रक रामपुत्र द्वारा कपिलवस्तु के राजा सुद्धोदन के पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ व महात्मा बुद्ध को ज्ञान की शिक्षा दी गयी थी ।मगध साम्राज्य के राजा अजातशत्रु द्वारा 483 ई. पू. को राजगीर का सप्तर्णी गुफा के क्षेत्र में महाकाश्यप की अध्यक्षता में  प्रथम बौद्ध संगति हुई थी । मगध साम्राज्य का राजा  बिम्बिसार ने 52 वर्ष , 493 ई. पू. मगध साम्राज्य का राजा आजातशत्रु ने 32 वर्ष एवं मगध साम्राज्य का राजा उदयन ने 461 ई.पू. तक राजगीर में शासक था । उदयन द्वारा मगध साम्राज्य की राजधानी राजगीर से पाटलिपुत्र किया गया था। शिशुनाभ ने उदयन का अमात्य 412 ई. में बना था । राजा उदयन के बाद मगध साम्राज्य का शासन शिशुनाभ बना था । मगध वासी एवं शासक भगवान सूर्य के उपासक थे । राजगीर का क्षेत्रफल 50 .18 वर्गकिमी में 2011 जनगणना के अनुसार 41507 आवादी वाले क्षेत्र में मगध साम्राज्य का राजा वृहद्रथ द्वारा भगवान शिव को समर्पित सिद्धनाथ मंदिर के गर्भगृह में बाबा सिद्धनाथ व वृहदरथेश्वर शिवलिंग , 2011 में निर्मित 6 फिट चौड़ा 85 फिट लंबी ग्लास ब्रिज , 10 मंदिर पर्वतों पर और 2 मंदिर पर्वत के तलहटी पर  है । पर्वतों की उचाई 73 मीटर है । शांति स्तूप , गर्म कुंड , जरासंध का अखाड़ा , स्वर्णभण्डार , मणियार स्थल , बिम्बिसार का कारावास स्थल , विरायतन , 20 वें तीर्थंकर सुब्रत स्वामी की जन्मभूमि , भगवान महावीर स्वामी की प्रथम देशनस्थली आदि प्रसिद्ध है।साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा 6 एवं  7 दिसंबर 2024 को राजगीर परिभ्रमण के दौरान राजगीर की सांस्कृतिक विरासत का अध्ययन किया गया ।
राजा मागध  द्वारा मगध साम्राज्य की स्थापना कर मगध की राजधानी गया बनाया गया था । मागध वंशीय राजा वसु ने मगध साम्राज्य की राजधानी गया से स्थान्तरित कर राजगृह में स्थापित की । राजगृह को वसुमतीपुर कहा जाता था । मगध साम्राज्य का राजा वसु वंशीय  वृहद्रथ ने वसुमतीपुर को वृहद्रथपुर नामकरण किया गया था । राजगीर को वसुमतीपुर , वृहद्रथपुर ,गिरिब्रज ,कुशाग्र पुर , राजगृह कहा गया है ।राजगीर में 22 कुंड ,52 झरने थे । वैभारगिरी को विवहाय गिरी कहा जाता था ।बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय 6 ठी ई.पू. पटना , गया , नालंदा , जहानबाद , नवादा , अरवल और औरंगाबाद जिले मिलाकर मगध था ।वैवस्वत मन्वंतर में वैवश्वत मनु की मित्रावरुण के परामर्श से पुत्री इला एवं देवगुरु वृहस्पति की पत्नी तारा एवं वनस्पति देव चंद्रमा के पुत्र बुध मगध का राजा थे । मगध का राजा बुध द्वारा गया में राजधानी बनाई गई थी । मगध राजा बुध काल मे ईशानकोण में वणाकार 8 अंगुल क्षेत्रफल में विकशित अत्रि गोत्र ,पीतवर्ण मिथुन कन्या राशि का राजा बुध थे । बुध का वाहन सिंह और समिधा अपामार्ग प्रिय वस्त्र हरा था ।

मंगलवार, दिसंबर 10, 2024

लव कुश की जन्म स्थली है नवादा की सीतामढ़ी


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लव कुश की जन्मभूमि है सीतामड़ई 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
नवादा जिला मुख्यालय के दक्षिण-पश्चिम में 30 किलोमीटर की दूरी पर रजौली अनुमंडल के मेसकौर प्रखण्ड का  सीतामढ़ी स्थित सीतामड़ई सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध रहा है। मेसकौर प्रखण्ड का क्षेत्रफल 122  वर्गकीमि में 1528 घरों में 2011 जनगणना के अनुसार 44358 लोग 60 गांवों में निवास करते है ।  रासलपुरा गाँव। का क्षेत्रफल 227 हेक्टेयर में 92 घरों में 613   निवासी की उपासना केंद्र   सीतामढ़ी में अवस्थित 16 फीट लम्बी और 11 फीट चौडी सीता मड़ई व सीता सीता  गुफा है। एकसमुद्र तल से 80 मीटर व 282 फिट उचाई पर धरवार हिल्स के पठार पर भगवान राम के सैनिकों एवं विश्वकर्मा द्वारा धरवार वन के  वाल्मिकी तपस्वी स्थल पर माता सीता की निर्वासन स्थली एवं लॉव कुश की जन्म स्थली   गोलनुमा चट्टान को काटकर कंदरा द्विप्रकोष्ट का सीतामड़ई का निर्माण गया था ।  सीतामड़ई गुफा पत्थरों पर पॉलीश की गयी है। पॉलीश के आधार पर  गुफा को मौर्य काल में विकसित था ।   सीतामड़ई गुफा का संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए सेन वंशीय राजा आदित्य सेन द्वारा मठ का निर्माण किया गया था । सीतामढ़ी माणिक  सम्प्रदाय के उपासकों का स्थल  था। निर्वासन काल में सीता का निवास स्थल  हैं। सीतामड़ई गुफा के प्रथम प्रकोष्ठ के बाद द्वितीय व अंतिम प्रकोष्ठ के चबूतरे पर माता सीता के  साथ लव और कुश  की पाषाण युक्त मूर्ति स्थापित है। गुफा के बाहर की ओर एक चट्टान दो भागों में विभाजित सीता जी के धरती में समाने की घटना कहा गया  है।  लव-कुश की जन्मभूमि एवं बालपन की कर्मभूमि है । सीतामड़ई के मैदानी भाग में  कबीर पंथ के उपासक , रैदास पंथ का रविमन्दिर , विश्वकर्मा पंथ का विश्वकर्मा मंदिर ,वाल्मीकि पंथ का वाल्मीकि मंदिर , शबरी मंदिर ,शिवमंदिर , कृष्ण मंदिर हनुमान मंदिर विभिन्न जातियों का आराध्य मंदिर है । यहां की मंदिरों में सामाजिक , सांस्कृतिक सौहार्द के रूप में प्रतिवर्ष अगहन मास की शुक्ल पक्ष में उत्सव मनाते है । खरवार एवं लोहरा जानजाति का उपासना स्थल था।  सीतामड़ई मंदिर का निर्माण 1957 में किया गया । सीतामड़ई  मंदिर एवं क्षेत्र  धार्मिक न्यास परिषद के अधीन है।
सीतामढ़ी से 2 किमी पर अवस्थित दलहा व दाहा , ढहा झील के किनारे पीपल वृक्ष का पाषाण युक्त स्तम्भ भगवान राम का अश्वमेघ यज्ञ का अश्व को लव और कुश द्वारा बंधा गया था ।  पाषाण युक्त स्तम्भ के  तट पर भगवान राम के सैनिक अश्वमेघ घोड़े को लव कुश से मुक्त हेतु युद्ध में सैनिक ढेड़ होने के कारण झील स्थल को ढेड़ व परास्त हो गया था । ढहा झील के किनारे अनेक पाषाण बिखरे पड़े है ।  वाल्मीकि आश्रम , श्रृंगी आश्रम , लोमश ऋषि आश्रम  ,था । कीकट प्रदेश का साधना स्थल , मगध साम्राज्य का राजा वृहद्रथ वंशीय  जरासंध , सहदेव  ,दृहसेन एवं रिपुंजय ने सीतामड़ई के क्षेत्रों का विकास किया गया । इक्ष्वाकु वंशीय एवं कुशवंशीय वृहद्वल ,  प्रद्योत वंशीय नंदी , मौर्य काल , गुप्तकाल , पालकाल एवं सेन काल की कीर्ति एवं सांस्कृतिक  विरासत सीतामढ़ी की पठार में विखरी पड़ी है । नरहट परगना के तहत 1819 ई. में  सीतामढ़ी का विकास हुआ । डिस्ट्रिक्ट गजेटियर 1906 एवं 1957 , हैमिल्टन बुकानन की डायरी 1840 ई. , अब्राहम ग्रियर्सन की नोट्स ऑफ गया , कननिघम रिपोर्ट आर्कियोलॉजिकल सर्वे  , 1581 ई. में राजा टोडरमल ने सीतामढ़ी का उल्लेख किया है । 
सीतामढ़ी परिभ्रमण 8 दिसंबर 2024 को विश्व हिंदी परिषद के आजीवन सदस्य एवं जीवन धारा नमामि गंगे के राष्ट्रीय सचिव साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने सीतामढ़ी क्षेत्रों में फैले सांस्कृतिक विरासत , माता सीता का निर्वासन स्थल , लवकुश की जन्म स्थली , बालपन की कर्म स्थली , विश्वामित्र की तपस्थली आदि महत्वपूर्ण स्थान का परिभ्रमण किया । सीतामढ़ी मंदिर के पुजारी सीताराम पाठक द्वारा सीतामढ़ी की की। चर्चा की । 

सोमवार, दिसंबर 02, 2024

फल्गु नदी की सांस्कृतिक विरासत

फल्गु नदी की सांस्कृतिक विरासत 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बिहार राज्य का गया जिला मुख्यालय गया  में प्रवाहित होने वाली पवित्र  फल्गु नदी का   सनातन धर्म के वैष्णव सम्प्रदाय ,  सौर सम्प्रदाय , शैव सम्प्रदाय , शाक्त सम्प्रदाय , ब्रह्म सम्प्रदाय व बौद्ध धर्मों , जैन धर्म ग्रंथों में महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है ।  फल्गु नदी के तट पर अवस्थित  भगवान विष्णु का विष्णुपद मन्दिर , सौर सम्प्रदाय का प्रातःकाल , मध्यह्न एवं संध्या काल Kई भगवान सूर्य ,का सूर्यमंदिर , शाक्त सम्प्रदाय का भष्म पहाड़ी पहाड़ी पर माता मंगलागौरी मंदिर , मारकंडेश्वर मंदिर , पितमहेश्वर मंदिर  है। गया के समीप लीलाजन नदी और मोहाना नदी के संगम से फल्गु नदी आरम्भ होती हुई फल्गु नदी की धाराएँ गया जिले के बेलागंज प्रखंड , खिजरसराय प्रखंड , जहानाबाद जिले के मखदुमपुर प्रखंड , हुलासगंज प्रखंड , मोदनगंज प्रखंड , नालंदा जिले के एकंगरसराय प्रखंड क्षेत्र में प्रवाहित होती हुई अंत मे मोदनगंज प्रखंड के बंधुगंज क्षेत्र में प्रवाह पूर्ण करती  हैं । गया के समीप फल्गू नदी शीर्ष लीलाजन नदी और मोहाना नदी का संगम स्थान निर्देशांक 24°43′41″N 85°00′47″E / 24.72806°N 85.01306°E पर स्तित है। फल्गु नदी पर  घोड़ा बांध, उदेरास्थान बांध है  फल्गु नदी  जहानाबाद जिले के में दरियापुर,सुकियावा,कैरवा,शर्मा होते हुए मोकामा टाल में समाप्त हो जाती है।  वायु पुराण , गरुड़ पुराण , भविष्य पुराण , संहिताओं , स्मृति ग्रंथों  में भगवान विष्णु के छवि दर्शन का उल्लेख किया गया है। फल्गु नदी हिंदू रीति रिवाज के अनुसार मृत आत्मा की शांति के लिए बिहार के गया जिला में पिंड दान एवं दुग्ध अर्पण के लिए महत्वपूर्ण एवं धार्मिक माना जाता है। गया  के बोधगया के समीप मोहना एवं लीलाजन नदी के साथ मिलकर अपवाह क्षेत्र टाल में फैलती हुई जहानाबाद जिले के क्षेत्र में विलीन हो जाती है।।  फल्गु नदी की लंबाई लगभग 135 किलोमीटर है। बिहार की पौराणिक पर्व  सूर्य-उपासना अर्थात छठ पूजा में फल्गु  नदी में बिहार की महिलाएं दुग्ध-अर्पण,अन्न-अर्पण, के साथ-साथ व्रत एवं छठी मैया की आराधना करते हैं। बिहार विश्व का एक ऐसा क्षेत्र माना जाता है जहां प्रकृति ऊर्जा बहुल स्रोत सूर्य देवता की पूजा करते हैं ।
मोहना नदी -  झारखंड राज्य के चतरा जिले में  इटखोरी  प्रखंड का  बेंदी स्थित कोराम्बे पर्वत की झरना से मोहना व मोहनी नदी प्रवाहित होती हुई गया जिले के गया समीप नीलांजन में मिलत्ती है । मोहना नदी हजारीबाग से 19.3 किलोमीटर (12.0 मील) दूर चतरा जिले का इटखोरी प्रखंड स्थित बेंदी गांव के  समीप  हजारीबाग पठार पर कोराम्बे पहाड़ से निकलती है। उत्तरी छोटानागपुर  पठार का हजारीबाग पठार  के ऊपरी हिस्से से पश्चिमी भाग दक्षिण में दामोदर जल निकासी और उत्तर में लीलाजन और मोहना नदियों के मध्य  जलग्रहण क्षेत्र का निर्माण करता है।  मोहना नदी इटखोरी से उत्तर की ओर मोहना नदी  बहती हुई , गया के मैदानों में उतरती  और दनुआ दर्रे के तल पर  पार करती हुई  इटखोरी के पास  चौड़े और रेतीले चैनल के साथ चतरा-चौपारण रोड को काटती हुई  बोधगया से 3.2 किलोमीटर (2.0 मील) नीचे लीलाजन (निरंजना) के साथ मिलकर फल्गु बनाती है ।  पहाड़ियों से गुज़रती हुई  मोहना  दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है।  चतरा जिले के अंदर , मोहना के दो झरने में तमासिन में पहला झरना गहरी घाटी के शीर्ष पर नदी अचानक काली चट्टान की ऊँची खड़ी सतह से नीचे छायादार तालाब में गिरती  और पुनः मुड़ी हुई चट्टानों की  घाटी में गिरती है;।  हरियाखाल में निचला झरना अधिक शांत सुंदरता का नदी  सुरम्य घाटी से निकलती हुई, लाल चट्टानों की ढलान वाली ढलान से नीचे शांत, बड़े तालाब में गिरती  ऊँचे लकड़ी के किनारों से घिरा होता है। तमासिन चतरा शहर से 26 किलोमीटर (16 मील) दूर है। दक्षप्रजापति की पुत्री एवं वनस्पति के देव चद्रमा की पत्नी उतारा फाल्गुनी को समर्पित मोहना नदी है।  
 नीलांजन नदी -  झारखंड के चतरा जिले का हंटरगंज प्रखंड अवस्थित जोरी के समीप  सिमरिया से प्रवाहित होने वाली लिलांजन व निरंजना नदी बिहार राज्य के गया जिल का बोधगया से होकर गया के मोहना नदी में मिलकर संगम बना कर फल्गु नदी बनाती है।   निर्देशांक 24°43′41″उ 85°00′47″पूर्व स्थित नैरंजना नदी पर चलते हुए बुद्ध का चमत्कार । बुद्ध दिखाई नहीं दे रहे हैं ( अनिकोनिज़्म ), उन्हें केवल पानी पर बने रास्ते और नीचे दाईं ओर खाली सिंहासन द्वारा दर्शाया गया है। दक्षप्रजापति की पुत्री एवं वनस्पति देव चंद्रमा की पत्नी पूर्वा फाल्गुनी को समर्पित लीलाजन नदी चतरा जिले के सिमरिया के उत्तर में हजारीबाग पठार पर लिलांजन नदी  यात्रा शुरू कर  पश्चिमी भाग दक्षिण में दामोदर जल निकासी और उत्तर में लीलाजन और मोहना नदियों के बीच विस्तृत जलग्रहण क्षेत्र बनाता हुआ  गहरी और पथरीली चैनल से होकर बहती हुई  जोरी के पड़ोस तक नहीं पहुँच जाती है। वहाँ पहाड़ियाँ पीछे हटने लगती हैं और धारा एक विस्तृत रेतीले बिस्तर पर सुस्ती से बहती है।   हंटरगंज से आगे गया सीमा तक नदी रेतीली हो जाती है। लिलांजन नदी  गर्मियों में सूखी रहती और बारिश के दौरान विनाशकारी होती है। गया से  10 किलोमीटर (6 मील) दक्षिण में नीलांजन नदी एवं  मोहना नदी के साथ मिलकर फल्गु नदी बनाती है ।  बिचकिलिया झरने का जल  लीलाजन नदी में दाह या प्राकृतिक जलाशय में गिरता है। नीलांजन नदी  चतरा से 11 किलोमीटर (7 मील) पश्चिम में है । बुद्ध धर्म ग्रंथों के अनुसार , राजकुमार सिद्धार्थ गौतम ने उरुवेला व उरुविल्वा ग्राम स्थित नीलांजन नदी  के किनारे  बारह वर्षो तक ज्ञान प्राप्ति के लिए  तपस्या की थी । उरुविल्वा गाँव के समीप  जंगल में राजकुमार सिद्धार्थ  निवास के दौरान  एहसास हुआ कि कठोर तपस्या से ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी तब उन्होंने नदी में स्नान करने और ग्वालिन सुजाता से दूध-चावल का कटोरा प्राप्त करने के बाद स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया  था । नीलांजना नदी के किनारे स्थित  पिप्पला वृक्ष के नीचे बैठे राजकुमार सिद्धार्थ को ज्ञान की प्राप्ति हुई। यह वृक्ष बोधि वृक्ष के नाम से जाना गया और ज्ञान  स्थान को  बोधगया के नाम से जाना गया है। पूर्वाफाल्गुनी व निलालंजन नदी के किनारे गौतम बुद्ध को ज्ञान प्राप्त होने के बाद बौद्ध हुए थे । 
 पूर्वा फाल्गुनी नदी  व नीलांजन नदी और उत्तराफाल्गुनी नदी व मोहना नदी का संगम से प्रवाहित होनेवाली नदी को फल्गु नदी कहा जाता है । पूर्वा फाल्गुनी का आराध्य भगवान सूर्य एवं उत्तराफाल्गुनी का देव यमराज व धर्मराज है । फल्गु नदी का जल भगवान विष्णु का चरण पखारती है। फल्गु नदी को गुप्तवाहिनी नदी को  पूर्वजों का उद्धा
रक कहा गया है । त्रेतायुग में भगवान राम , माता सीता द्वापरयुग में पांडवों द्वारा अपने पूर्वजों को पितृ को पिंडदान देकर अपने पूर्वजों की मोक्ष दिलाये थे। कीकट प्रदेश का भगवान विष्णु भक्त असुर संस्कृति  राजा गयासुर के वक्ष स्थल विष्णु पर्वत पर अवस्थित विष्णुपद  , फल्गु नदी के तट पर विष्णुपद मंदिर है। त्रेतायुग में माता सीता द्वारा फल्गु नदी शापित होने के कारण फल्गु को अंतः शलीला कहा गया है । कीकट राज अंग वंशीय मागध ने मगध साम्राज्य की स्थापना कर मगध साम्राज्य की राजधानी गया में स्थापित की थी । देव गुरु वृहस्पति एवं चंद्रमा तथा तारा के पुत्र मगध साम्राज्य का  राजा बुध की भार्या वैवस्वतमनु मनु की पुत्री इला ने गय का जन्म दी । असुर संस्कृति के रक्षक एवं भगवान विष्णु के महान उपासक गयासुर  ने गया नगर की स्थापना की थी । गयासुर काल में गया में ब्रह्मेष्ठी यज्ञ , रुद्रेष्टि यज्ञ , सूर्येष्टि यज्ञ , विष्णुयष्टि यज्ञ एवं पितृ यज्ञ , यमेष्ठी यज्ञ , प्रेताष्टि यज्ञ  फल्गु नदी के क्षेत में किया किया गया था । 

शुक्रवार, नवंबर 29, 2024

नदियों की सांस्कृतिक विरासत है महाकुंभ

सनातन धर्म सांस्कृतिक विरासत है महाकुंभ स्नान
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
 सनातन धर्म संस्कृति ग्रंथों , स्मृति और संहिताओं में कुम्भ पर्व स्थल प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक की  नदी में स्नान करने का महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है। । प्रत्येक स्थान पर प्रति १२वें वर्ष तथा प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के बीच छह वर्ष के अन्तराल में अर्धकुम्भ होता है। यूनेस्को अगोचर सांस्कृतिक धरोहर का कुम्भ मेला को  अन्तर्भूक्ति के रूप में मान्यता दी है । प्रत्येक चार वर्ष बाद प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में किसी एक स्थान पर क्रम से आयोजित कुम्भ मेला है। खगोल एवं ज्योतिष शास्त्रों  के अनुसार कुंभ मेला सूर्य और चंद्रमा वृश्चिक राशि और वृहस्पति मेष राशि में प्रवेश करने पर मकर संक्रान्ति के दिन प्रारम्भ होता है । मकर संक्रान्ति के होने वाले योग को "कुम्भ स्नान-योग"   को विशेष मंगलकारी माना जाता है ।  पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार  खुलते  और  स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से होती है।  ऋग्वेद में  कुम्भ मेले को “अमरत्व का मेला” है । पौराणिक विश्वास जो कुछ भी हो, ज्योतिषियों के अनुसार कुम्भ का असाधारण महत्व बृहस्पति के कुम्भ राशि में प्रवेश तथा सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा है। ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पौड़ी स्थान पर गंगा जल को औषधिकृत तथा अमृतमय हो जाती है। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुम्भ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट है।
सागर मन्थन-  ज्योतिष एवं स्मृति ग्रंथों के अनुसार क्षीर सागर का मंथन सतयुग कूर्मावतार , चाक्षुस मन्वंतर 25 करोड़ 33 लाख 1 हजार 24 वर्ष  पूर्व श्रावण माह में होने के क्रम में हलाहल , कामधेनु ,ऐरावत , , कौस्तुभ मणि , उचैश्रवा ,कल्प वृक्ष ,रंभा , माता लक्ष्मी , वरुणा की पत्नी मदिरा की देवी वारुणी , चंद्रमा , पारिजात पुष्प ,पांचजन्य शंख, धन्वतरि और अमृत का उत्पत्ति हुई थी । क्षीरसागर मंथन से उत्पन्न अमृत कुंभ से अमृत को बहने  से रोकने के लिए देव गुरु वृहस्पति ,द्वारा अमृत कुंभ को छपाया , भगवान सूर्य ने अमृत कुम्भ को फूटने से बचाया और न्याय देव शनि द्वारा देवराज इंद्र के कोप से रक्षा की गई थी ।  देव गुरु वृहस्पति द्वारा अमृत कुंभ को प्रयागराज के संगम पर 12 वर्षो तक देव और दानवों से छिपाया , दूसरे बार हरिद्वार की गंगा नदी  , तीसरे बार उज्जैन की क्षिप्रा नदी और चौथी बार नासिक जिले का त्र्यम्बक स्थित गोदावरी नदी के उद्गम कुंड में अमृत कुंभ छिपाया गया था। अमृत कुंभ की प्राप्ति के लिए देव , दानव , दैत्य , राक्षस , जीव जंतु 48 वर्ष तक युद्ध करते रहे । भगवान  धन्वतरि द्वारा प्राप्त अमृत कुंभ को दैत्यों  को छीन लिया गया । भगवान विष्णु के  अवतार मोहनी ने दैत्यों से अमृत कुंभ प्राप्त कर दैत्यों और देवों को के बीच समझौता करायी  थी ।  अमृत कुंभ देव-दानवों द्वारा समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृत कुम्भ से जिस स्थान पर  अमृत बूँदें गिरा वह स्थल   कुंभ मेला   है। स्मृति ग्रंथों के  अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण देवराज  इन्द्र और  देवता कमजोर होने पर  दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर देवों को  परास्त कर दिया। दैत्यों से परास्त  देवता मिलकर भगवान विष्णु के समक्ष  सारा वृतान्त सुनाया था। भगवान विष्णु ने देवों और दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मन्थन करके अमृत निकालने की सलाह दी थी। भगवान विष्णु के  कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुम्भ के निकलते देवताओं के इशारे से देवराज इंद्र का पुत्र जयंत द्वारा भगवान धन्वंतरि के हाथ मे अमृत कलश ले कर प्रकट होने पर भगवान धन्वंतरि के हाथ से  अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में  धन्वंतरि  को पकड़ा था ।   अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध हुआ था । अमृत कुंभ प्रप्ति के दौरान देवों और दैत्यों के युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। चन्द्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की गयी थी । देव दैत्य युद्ध  शान्त करने के लिए भगवान विष्णु  ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिलाने से  देव-दानव युद्ध का अन्त किया गया था ।अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरन्तर युद्ध होने के कारण  देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होने से  कुम्भ बारह में से चार कुम्भ पृथ्वी पर  और आठ कुम्भ देवलोक में हैं ।चन्द्रादिकों ने कलश की रक्षा करने के समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चन्द्र-सूर्यादिक ग्रह आने पर   कुम्भ का योग होता है । अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरने से  वहाँ-वहाँ कुम्भ पर्व होता है । 
अनुष्ठानिक नदी स्नान को स्वसिद्ध 10 हजार ई.पू . , बौद्ध ग्रथों में 600 ई.पू. में नदी उत्सव , 400 ई.पू. मगध साम्राज्य के सम्राट चंद्रगुप्त ने कुम्भ मेले , 300 ई. पू. पृथ्वी पर अवस्थित गंगा नदी के तट पर  हरिद्वार का हरि की पैड़ी  , उज्जैन का क्षिप्रा नदी  , नासिक का गोदावरी नदी और प्रयाग का गंगा नदी , यमुना नदी और सरस्वती नदी की संगम त्रिवेणी में कुंभ का उल्लेख मिलता है। अखाड़े की स्थापना कुंभ मेले की हुई थी। अभान अखाड़े की स्थापना 547 ई. में हुई थी । चीनी यात्री ह्वेनसांग ने उल्लेख किया है कि प्रयागमें अवस्थित गंगा , यमुना और सरस्वती नदियों का संगम त्रिवेणी संगम  में सम्राट हर्षवर्धन द्वारा 600 ई. में कुंभ मेले के अवसर पर स्नान ध्यान किया गया था ।
निरंजनी अखाड़े का गठन 904 ई. ,  जूना अखाड़े का गठन 1146 ई. ,  कानफटा योगी चरमपन्थी साधु राजस्थान 1300 ई. , तैमूर, हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की सहिष्णुता के दण्ड स्वरूप दिल्ली को ध्वस्त करते हुए हरिद्वार मेले की ओर कूच करते  हजा़रों श्रद्धालुओं का नरसंहार होने के कारण  1398 ई. में  हरिद्वार महाकुम्भ नरसंहार
मधुसूदन सरस्वती द्वारा दसनामी व्यव्स्था की लड़ाका इकाइयों का गठन 1565 ई. ,  प्रणामी सम्प्रदायके प्रवर्तक, महामति श्री प्राणनाथजीको विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक घोषित 1678 ई. , फ़्रांसीसी यात्री तवेर्निए नें 1684 ई. को भारत में 12 लाख हिन्दू साधुओं के शामिल हुए थे । नासिक में 1690 ई. में शैव और वैष्णव साम्प्रदायों में संघर्ष; 60,000 मरे , 1760 - शैवों और वैष्णवों के बीच हरिद्वार मेलें में संघर्ष; 1,800 मरे , ब्रिटिश साम्राज्य  द्वारा 1780 ई. में  मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था की स्थापना की गई थी ।-हरिद्वार मेले में  1820 ई. का भगदड़ से 430 लोग मारे गए। अंग्रेज चित्रकार जे एम डब्ल्यू टर्नर द्वारा चित्रित 'हरिद्वार कुम्भ मेला' का  1850ई. में  चित्र बनाया गया था। ब्रिटिश कलवारी ने साधुओं के बीच मेला में हुई लड़ाई में 1906 ई. में  बीचबचाव किया। चालीस लाख लोगों ने प्रयागराज में आयोजित 1954 ई. का कुम्भ में भागीदारी की थी । गिनिज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने 6 फरवरी 1989 ई. के प्रयाग मेले में 1.5 करोड़ लोगों की उपस्थिति थी । प्रमाणित की थी । उस समय तक किसी एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी। नदियों की सांस्कृतिक विरासत महाकुंभ है ।
01 . त्र्यंबकेश्वर सिंहस्थ कुंभ नासिक -  महाराष्ट्र के नासिक जिले का त्रयंबकेश्वर सिंहस्थ कुंभ में प्रत्येक 12 साल में आयोजित होने वाला  हिंदू धार्मिक  सिंहस्थ कुंभ मेला  है। पारंपरिक रूप से कुंभ मेले के  नासिक-त्र्यंबक कुंभ मेला या नासिक कुंभ मेला के नाम से जाना जाता है । नासिक-त्र्यंबकेश्वर सिंहस्थ मेले में गोदावरी नदी के तट पर त्र्यम्बक अवस्थित  त्र्यंबकेश्वर शिव मंदिर और नासिक में राम कुंड में अनुष्ठानिक स्नान  है । यंबक में 1789 ई. तक त्र्यम्बक  के गोदावरी नदी के उद्गम एवं त्रयंकेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थल पर 1789 ई. तक आयोजित किया जाता था ।   वैष्णवों और शैवों के बीच संघर्ष के बाद , मराठा पेशवा ने वैष्णवों को नासिक शहर में अलग कर दिया था । संहिताओं के अनुसार , भगवान विष्णु ने कुंभ में अवस्थित अमृत की बूंदें चार स्थानों पर गिराईं गयी थी ।नासिक-त्र्यंबक सिंहस्थ की आयु अनिश्चित है । नासिक जिला गजेटियर का 19 वीं शताब्दी  में प्रकाशित के अनुसार स्थानीय सिंहस्थ मेले का वर्णन  है। कुंभ मेला" का उल्लेख  खुलासत-उत-तवारीख ( 1695 ई.) और चाहर गुलशन (1789 ई.) हैं।  नासिक सिंहस्थ ने कुंभ को हरिद्वार कुंभ मेले से अनुकूलित किया।  उज्जैन सिंहस्थ , बदले में, नासिक-त्र्यंबक सिंहस्थ है ।  18वीं शताब्दी में शुरू हुआ, जब मराठा शासक रानोजी शिंदे ने स्थानीय उत्सव के लिए नासिक से तपस्वियों को उज्जैन आमंत्रित किया। शिव पुराण के अनुसार, बृहस्पति हर 12 साल में सिंह राशि में प्रवेश करता है। कुंभ मेला उसी अवसर पर आयोजित किया जाता है।खुलासत -उत-तवारीख (1695 ई.) ने बरार सूबा के वर्णन में मेले का उल्लेख किया है , हालांकि इसमें इसका वर्णन करने के लिए "कुंभ मेला" या "सिंहस्थ" शब्दों का उपयोग नहीं किया गया है। इसमें कहा गया है कि जब बृहस्पति सिंह या सिंह राशि में प्रवेश करता था (12 साल में एक बार होता है), दूर-दूर से लोग त्र्यंबक में  बड़ी सभा के लिए आते थे जो मुगल साम्राज्य के सभी हिस्सों में प्रसिद्ध थी । नासिक जिले  के   त्र्यंबक में 1789 ई. तक आयोजित किया जाता था। उस वर्ष, स्नान के क्रम को लेकर शैव संन्यासियों और वैष्णव बैरागियों के बीच टकराव से अखाड़ों की स्थापना हुई थी । मराठा पेशवा के  ताम्रपत्र शिलालेख  में उल्लेखनीय है । पेशवा ने वैष्णवों के स्नान स्थल को नासिक शहर के गोदावरी तट का पंचवटी के  रामकुंड में स्थानांतरित कर दिया दिया था । शैव लोग  त्र्यंबक को कुंभ मेले का उचित स्थान मानते हैं। त्रिंबक में 1861 ई. और 1872 ई. में निर्मला साधुओं ने प्रतिद्वंद्वी संप्रदाय की नकल करते हुए जुलूस में नग्न होकर चलने का प्रयास किया था ।  उनके प्रतिद्वंद्वियों, साथ ही शांति बनाए रखने के इच्छुक ब्रिटिश प्रबंधकों ने उनका विरोध किया। नासिक-त्र्यंबकेश्वर सिंहस्थ 12 वर्षों की  तिथियां राशि चक्र की स्थिति के संयोजन के अनुसार निर्धारित बृहस्पति सिंह राशि में होने (  ज्योतिष में सिंह ); या जब बृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा चंद्र संयोजन ( अमावस्या ) पर कर्क राशि में होंने पर कुंभ स्नान होता है ।
02 . उज्जैन कुंभ स्नान - मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर का क्षिप्रा नदी के किनारे प्रत्येक 12 साल में आयोजित होने वाला  लिप्यंतरण सिंहस्थ या सिंहस्थ कुंभ  है। उज्जैन कुंभ मेले को सिंहस्थ या सिंहस्थ  व श्वा विलोपन के कारण कहा जाता है ।  बृहस्पति सिंह राशि में होने से उज्जैन कुंम्भ है। संहिता के अनुसार , गरुड़ ने अमृत घट की अमृत  की बूंदें उज्जैन में  गिरा था । मराठा शासक रानोजी शिंदे ने 18 वीं शताब्दी में  नासिक से तपस्वियों को उज्जैन के कुंभ  उत्सव में आमंत्रित किया।  उज्जयिनी में सिंहस्थ महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के मंदिर के प्रति विशेष श्रद्धा भगवान शिव के स्वयंभू लिंगम का निवास स्थान है । उज्जैन सिंहस्थ 12 साल मेंबृहस्पति सिंह राशि  में होने पर  कुंभ स्नान अनुष्ठान वैशाख महीने में पूर्णिमा के दिन होता है । उज्जैन सिंहस्थ की शुरुआत 18वीं सदी में नासिक-त्र्यंबकेश्वर सिंहस्थ के अनुकूलन के रूप में हुई थी । खुलासत-उत-तवारीख (1695 ई.) में "कुंभ मेला" मालवा सूबा के वर्णन में उज्जैन का बहुत पवित्र स्थान के रूप में उल्लेख किया गया है ।  हरिद्वार कुंभ  मेला और प्रत्येक  12 वर्ष  में कुंभ मेला , प्रयाग का  माघ वार्षिक मेला  और त्र्यंबक बृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करता है, तब हर 12 साल में एक मेला आयोजित होने पर   लगने वाले मेलों का उल्लेख है। विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित विक्रम-स्मृति-ग्रंथ के अनुसार , उज्जैन सिंहस्थ मराठा शासक रानोजी शिंदे  1745 ई.. ने अनिश्चित मूल के स्थानीय उत्सव के लिए नासिक से अखाड़ों को उज्जैन आमंत्रित किया। यह बताता है कि क्यों उज्जैन और नासिक मेले एक दूसरे के एक वर्ष के भीतर होते हैं, जब बृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करता है। यदि बृहस्पति वसंत से पहले सिंह राशि में प्रवेश करता है तो उज्जैन मेला पहले होता है; यदि बृहस्पति वसंत और देर से गर्मियों के बीच सिंह राशि में प्रवेश करता है तो नासिक मेला पहले होता है। 1789 में त्रिंबक में शैव संन्यासियों और वैष्णव बैरागियों के बीच टकराव के बाद , मराठा पेशवा ने दोनों समूहों को अलग-अलग स्थानों पर स्नान करने का आदेश दिया। पेशवा ने अगले उज्जैन सिंहस्थ पर भी यह नियम लागू किया: संन्यासी शिप्रा नदी के एक तरफ स्नान करेंगे, बैरागी दूसरी तरफ। ब्रिटिश शासन के दौरान , उज्जैन सिंहस्थ एक रियासत में आयोजित होने वाला एकमात्र कुंभ मेला था । जबकि हरिद्वार, प्रयाग और त्र्यंबक-नासिक सीधे ब्रिटिश शासित प्रदेशों का हिस्सा थे, उज्जैन ग्वालियर राज्य का हिस्सा था जिस पर सिंधिया (शिंदे) राजवंश का शासन था । इस दौरान, सिंधिया ने आयोजन के आधे खर्च का वित्तपोषण किया। 1826 में उज्जैन के मेले में शैव गोसाईं और वैष्णव बैरागियों के बीच सांप्रदायिक संघर्ष हुआ। संघर्ष की शुरुआत करने वाले गोसाईं हार गए। बैरागियों ने उनके मठों और मंदिरों को लूट लिया, जिन्हें स्थानीय मराठों ने सहायता प्रदान की। ब्रिटिश काल में सैन्यीकृत साधुओं को निरस्त्र कर दिया गया था। 1850 के एक ब्रिटिश खाते में उल्लेख है कि उज्जैन के प्रशासकों ने गोसाईं और बैरागियों के बीच हिंसा को रोकने के लिए ब्रिटिश सैन्य मदद मांगी थी। जवाब में, कैप्टन मैकफर्सन की कमान में ग्वालियर इन्फैंट्री की दो कंपनियों को उज्जैन में तैनात किया गया था । उथली नदी के बीच में एक बाड़ का निर्माण किया गया था ताकि दोनों समूह औपचारिक वरीयता पर लड़ने के बजाय एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से स्नान कर सकें। साधुओं को उनके स्नान में सहायता करने के लिए एक सौ ब्राह्मणों को बाड़ के साथ तैनात किया गया था। मैकफर्सन ने पूरे शहर में, स्नान घाटों और मंदिर की बालकनियों में अपने सैनिकों को तैनात किया। उन्होंने शैवों को बहुत बड़े और अधिक शक्तिशाली वैष्णव समूह के आने से पहले सुबह अपने स्नान अनुष्ठान समाप्त करने के लिए राजी किया। एहतियात के तौर पर, उन्होंने किसी भी संभावित हिंसा को रोकने के लिए नदी के किनारे भारी बंदूकें भी तैनात कीं। दो वैष्णव उप-समूहों के बीच विवाद था, जिसे मैकफर्सन ने बिना हिंसा के सुलझा लिया। 1921 का सिंहस्थ एक ऐतिहासिक बहस के लिए उल्लेखनीय है जिसमें रामानंदी संप्रदाय ने रामानुज संप्रदाय (श्री वैष्णव) को हराया था । बहस का उद्देश्य यह सवाल उठाना था कि क्या श्री वैष्णव साहित्य रामचंद्र को नाराज़ करता है। तोताद्रि मठ के स्वामी रामप्रपन्न रामानुजदास ने रामानुज संप्रदाय का बचाव किया। रामानंदियों का प्रतिनिधित्व भगवदाचार्य (उर्फ भगवद दास) ने किया। निर्णायक मंडल ने भगवदाचार्य को बहस का विजेता घोषित किया और रामानंदी रामानुज संप्रदाय से स्वतंत्र हो गए। हालांकि, कुछ रामानंदी खुद को रामानुज संप्रदाय का हिस्सा मानते रहे और आरोप लगाया कि भगवदाचार्य ने बहस जीतने के लिए जाली सबूत पेश किए और निर्णायक मंडल पक्षपाती था। रामानुजियों को इसके बाद 1932 में उज्जैन में होने वाले कुंभ मेले में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया गया।
03.  हरिद्वार कुंभ -, उतराखण्ड राज्य का  गंगा नदी के तट हरिद्वार शहर में प्रत्येक 12 साल में आयोजित हरिद्वार कुंभ मेला किया जाता है । ज्योतिष शास्त्र  के अनुसार  बृहस्पति कुंभ राशि में होने  और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करने पर हरिद्वार कुंभ मेला लगता है।  कुंभ का आयोजन आध्यात्मिक साधकों के लिए भी गहरा धार्मिक महत्व रखता है ।हरिद्वार कुंभ मेला 1600 ई. में "कुंभ मेला" का प्रारंभ  खुलासत-उत-तवारीख (१६९५) और चहार गुलशन (१७८९) में किया गया हैं। मुस्लिम विजेता तैमूर लंग  ने 1398 में हरिद्वार पर आक्रमण करने के दौरान  कुंभ मेले में तीर्थयात्रियों का नरसंहार किया था  मोहसिन फानी के दबेस्तान-ए मज़ाहेब (. 1655 ई. ) में 1640 ई.  में हरिद्वार में प्रतिस्पर्धी अखाड़ों के बीच लड़ाई का  कुंभ मेले में उल्लेखित है। खुलासत -उत-तवारीख (1695) में मुगल साम्राज्य के दिल्ली सूबे के विवरण में मेले का उल्लेख है । इसमें कहा गया है कि हर साल वैसाखी के दौरान जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है , तो आस-पास के ग्रामीण इलाकों से लोग हरिद्वार में इकट्ठा होते हैं। 12 साल में एक बार, जब सूर्य कुंभ राशि में प्रवेश करता है, तो दूर-दूर से लोग हरिद्वार में इकट्ठा होते हैं। इस अवसर पर नदी में स्नान करना, दान देना और बाल मुंडवाना पुण्य का काम माना जाता है। लोग अपने मृतकों की अस्थियों को नदी में प्रवाहित करते हैं ताकि वे अपने मृतकों की मुक्ति पा सकें। चहार गुलशन (1759) में कहा गया है कि हरिद्वार में मेला बैसाख महीने में आयोजित किया जाता है जब बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करता है। इसमें विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि इस मेले को कुंभ मेला कहा जाता था और इसमें लाखों आम लोग, फ़कीर और संन्यासी शामिल होते थे। इसमें कहा गया है कि स्थानीय संन्यासियों ने मेले में भाग लेने आए प्रयाग के फ़कीरों पर हमला किया था। 18वीं शताब्दी के मध्य तक, हरिद्वार कुंभ मेला उत्तर-पश्चिमी भारत में प्रमुख वाणिज्यिक आयोजन बन गया था। 1760 के त्यौहार में शैव गोसाईं और वैष्णव बैरागी (तपस्वी) के बीच हिंसक झड़प हुई थी । 1760 की झड़प के बाद, वैष्णव साधुओं को सालों तक हरिद्वार में स्नान करने की अनुमति नहीं थी । ब्रिटिश साम्राज्य के शासक  ने कुंभ मेले  पर नियंत्रण नहीं कर लिया और शैवों को निरस्त्र नहीं कर दिया था । ईस्ट इंडिया कंपनी के भूगोलवेत्ता कैप्टन फ्रांसिस रैपर द्वारा 1808 ई.  में दिए गएविवरण के अनुसार , 1760 की झड़प में 18,000 बैरागी मारे गए थे। रैपर ने कुंभ मेले के  आयोजन में सुरक्षा बलों की तैनाती के महत्व पर जोर देने के संदर्भ में कही थी। 1888 में, इलाहाबाद के जिला मजिस्ट्रेट ने 11 88 ई. लिखा कि रैपर द्वारा मौतों की संख्या "निस्संदेह बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई होगी"।  इतिहासकार माइकल कुक के अनुसार संख्या 1800 हो सकती है।  हरिद्वार में कुंभ मेले के दौरान हैजा महामारी 1783 ई. में फैली थी। कुंभ मेले का  प्रत्यक्षदर्शी ब्रिटिश कैप्टन थॉमस हार्डविक द्वारा एशियाटिक रिसर्च में लिखा गया  लेखानुसार  1776 ई. में हरिद्वार मराठा क्षेत्र का हिस्सा था। तीर्थयात्रियों से एकत्र किए गए करों के रजिस्टर के आधार पर,  हार्डविक के अनुसार, शैव अनुयायी की "संख्या और शक्ति के मामले में" सबसे प्रभावशाली थे।  शक्तिशाली संप्रदाय वैष्णव बैरागी था। गोसाईं तलवारें, ढाल लेकर चलते थे और पूरे मेले का प्रबंधन करते थे। उनके महंत सभी शिकायतों को सुनने और उन पर निर्णय लेने के लिए दैनिक परिषदों का आयोजन करते थे। गोसाईं कर लगाते और वसूलते थे, और मराठा खजाने में कोई पैसा नहीं भेजते थे। मेले में सिख जत्थे में बड़ी संख्या में उदासी संन्यासी शामिल थे । घुड़सवार सेना का नेतृत्व पटियाला के साहिब सिंह, राय सिंह भंगी और शेर सिंह भंगी ने किया था। सिख सैनिकों ने ज्वालापुर में डेरा डाला, जबकि उदासी ने अपने शिविर के लिए उत्सव स्थल के करीब एक स्थान चुना। उदासी प्रमुख ने गोसाईं महंत से अनुमति लिए बिना, चयनित स्थल पर अपना झंडा गाड़ दिया। इससे नाराज होकर गोसाईं ने उदासी का झंडा उतार दिया और उन्हें भगा दिया। जब उदासी ने विरोध किया, तो गोसाईं ने हिंसक प्रतिक्रिया दी, और उदासी शिविर को लूट लिया। इसके बाद उदासी प्रमुख ने साहिब सिंह से शिकायत की। तीन सिख प्रमुखों ने एक बैठक की , मुख्य महंत सिखों की मांगों पर सहमत हो गए और अगले कुछ दिनों तक दोनों समूहों के बीच कोई टकराव नहीं हुआ। हालांकि, 10 अप्रैल 1796 8 बजे सिखों ने गोसाईं और अन्य गैर-उदासी तीर्थयात्रियों पर हमला कर दिया। इससे पहले, उन्होंने अपने शिविर में महिलाओं और बच्चों को हरिद्वार के पास एक गाँव में भेज दिया था। सिखों ने लगभग 500 गोसाईं को मार डाला, जिनमें से एक महंत मौनपुरी भी शामिल थे। नरसंहार से बचने के प्रयास में नदी पार करते समय कई डूब गए। ब्रिटिश कैप्टन मरे, जिनकी बटालियन एक घाट पर तैनात थी, ने सिख घुड़सवार सेना की उन्नति को रोकने के लिए सिपाहियों की दो कंपनियाँ भेजीं। सिख दोपहर 3 बजे तक चले गए; उन्होंने झड़प में लगभग 20 लोगों को खो दिया था। अगली सुबह, तीर्थयात्रियों ने अंग्रेजों के लिए प्रार्थना की, जिनके बारे में उनका मानना ​​​​था कि सिखों को तितर-बितर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी1804 में मराठों ने सहारनपुर जिला ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया। कंपनी के शासन से पहले , हरिद्वार में कुंभ मेले का प्रबंधन हिंदू तपस्वियों के अखाड़ों (संप्रदायों) द्वारा किया जाता था जिन्हें साधु कहा जाता था। मराठों ने अन्य सभी मेलों में आने वाले वाहनों और सामानों पर कर लगाया, लेकिन कुंभ मेले के दौरान, उन्होंने अस्थायी रूप से सारी शक्ति अखाड़ों को सौंप दी। [ 23 ] साधु व्यापारी और योद्धा दोनों थे। कर एकत्र करने के अलावा, वे पुलिस और न्यायिक कर्तव्यों का भी पालन करते थे। कंपनी प्रशासन ने साधुओं की व्यापारी-योद्धा भूमिका को गंभीर रूप से सीमित कर दिया, जिससे वे तेजी से भीख मांगने पर मजबूर हो गए। ईस्ट इंडिया कंपनी के भूगोलवेत्ता कैप्टन फ्रांसिस रैपर ने एशियाटिक रिसर्च में 1806 के कुंभ का विवरण प्रकाशित किया ।  महाराजा रणजीत सिंह अप्रैल 1808 में कुंभ का दौरा करने वाले थे, और कंपनी ने हरिद्वार में उनका स्वागत करने के लिए अपने लाहौर दूत चार्ल्स मेटकाफ को तैनात किया । हालांकि, सिंह ने अपनी यात्रा रद्द कर दी। 1814 अर्ध कुंभ मेला बैपटिस्ट मिशनरी जॉन चेम्बरलेन, जो सिरधना में बेगम समरू की सेवा में थे , ने 1814 के अर्ध कुंभ में प्रचार किया। उन्होंने हरिद्वार में 14 दिन बिताए; पहले 4-5 दिनों में उन्होंने कुछ सौ हिंदुओं को आकर्षित किया। दसवें दिन तक, उनकी मंडली कम से कम 8 हज़ार तक बढ़ गई थी। [ 27 ] उन्होंने हिंदी में प्रचार किया , जिसे उनके अनुसार बंगाली और हिंदुस्तानी दोनों भाषी समझते थे; लेकिन उन्हें पंजाबी बोलने वाले सिखों के साथ संवाद करने में कठिनाई हुई । चेम्बरलेन ने उल्लेख किया कि मेले में "हर धार्मिक संप्रदाय के लोग" शामिल हुए थे, और "व्यापारिक कारणों" से बहुत से आगंतुक वहाँ आए थे। वह विशेष रूप से सिखों की बड़ी संख्या को देखकर आश्चर्यचकित था , जो उसके अनुसार, हिंदुओं की तुलना में अधिक संख्या में थे। उन्होंने कई यूरोपीय लोगों को भी देखा, जो नवीनता के लिए हाथियों पर सवार होकर आए थे।  मिशनरी रिकॉर्ड के अनुसार, अनुमानतः 500,000 लोग हरिद्वार में एकत्र हुए थे। सरकार के सचिव श्री रिकेट्स ने सरकार से चैंबरलेन के मूल निवासियों को उपदेश देने के बारे में शिकायत की, उन्हें डर था कि इससे परेशानी हो सकती है। सरकार ने बेगम सुमरू से चैंबरलेन को अपनी सेवा से बर्खास्त करने के लिए कहा। बेगम ने उसे बनाए रखने के प्रयास किए थे। एशियाटिक जर्नल ने तीर्थयात्री को उद्धृत करते हुए कहा: "आपका शासन धन्य हो! आपका शासन आने वाले युगों तक जारी रहे! आपने एक शानदार कुंभ का निर्माण किया है! आपने कलियुग को सत्य और न्याय के युग में बदल दिया है!"। 1857 के विद्रोह के बाद , ईस्ट इंडिया कंपनी को भंग कर दिया गया और इसके क्षेत्र ब्रिटिश राज के नियंत्रण में आ गए। ब्रिटिश सिविल सेवक रॉबर्ट मोंटगोमरी मार्टिन ने अपनी पुस्तक द इंडियन एम्पाय भारतीय सरकार के स्वच्छता विभाग को आधिकारिक रूप से शामिल करने वाला पहला मेला था। गौरक्षा आंदोलन का नेतृत्व करने वाली गौरक्षिणी सभा ने मेले में अपनी दूसरी बैठक आयोजित की थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा तीर्थयात्रियों को तितर-बितर करने से कई रूढ़िवादी हिंदू नाराज़ हो गए, जिन्होंने इसे अपनी धार्मिक प्रथाओं का उल्लंघन माना। 1915 कुंभ मेलाक्षेत्रीय हिंदू सभाओं के प्रतिनिधियों ने अखिल भारतीय हिंदू सभा की स्थापना की, जिसने 1921 में इसका नाम बदलकर अखिल भारतीय हिंदू महासभा कर दिया। दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह ने अखिल भारतीय सनातन धर्म सम्मेलन का गठन किया था।
04 . प्रयागराज महाकुंभ - उत्तरप्रदेश राज्य का इलाहाबाद जिले का गंगा , यमुना और सरस्वती की संगम पर अवस्थित प्रयागराज की भूमि पर प्रत्येक वर्ष माघ में माघ मेला , 6 वर्षो के बाद अर्द्घ कुंभ मेला और 12 वर्षों के बाद महाकुंभ मेलाका  महत्वपूर्ण स्थान है। गंगा , यमुना और सरस्वती नदियों का अद्भुत मिलन पवित्र और महत्वपूर्ण है । भगवान विष्णु के अवतार भगवान धन्वंतरि का अवतरण समुद्र मंथन मे अमृत कुंभ के साथ हुई थी । भगवान धन्वंतरि के  अमृत से भरा कुंभ  लेकर जाने के क्रम में  असुरों से छीना-झपटी में प्रयागराज के संगम में  अमृत की   बूंदें गिर गई थी ।  संगम में प्रत्येक बारह साल पर कुंभ का आयोजन होता है।प्रयागराज। में  गंगा का मटमैला जल ,  यमुना के हरे जल  और  अदृश्य  सरस्वती नदी का जल का संगम   है । पवित्र संगम पर दूर-दूर तक पानी और गीली मिट्टी के तट फैले हुए हैं। नदी के बीचों-बीच एक छोटे से प्लॅटफॉर्म पर खड़े होकर पुजारी विधि-विधान से पूजा-अर्चना कराते हैं। धर्मपरायण हिंदू के लिए संगम में  डुबकी जीवन को पवित्र करने वाली मानी जाती है। संगम के लिए किराये पर नाव किले के पास से ली जा सकती है। कुंभ/महाकुंभ पर संगम मानो जीवंत हो उठता है। प्रयागराज में त्रिवेणी संगम , गंगा , यमुना और पौराणिक सरस्वती नदी के संगम पर प्रतिवर्ष माघ मेला , 6 वर्षो के बाद अर्द्ध कुंभ और 12 वर्षों के बाद महाकुंभ के अवसर पर   जल अनुष्ठान के तहत  डुबकी ,  शिक्षा, संतों द्वारा धार्मिक प्रवचन, भिक्षुओं या गरीबों के सामूहिक भोजन और मनोरंजन तमाशे के साथ सामुदायिक वाणिज्य का उत्सव आयोजित किया जाताहै। प्रयागराज का गोरा शैली में त्रिवेणी संगम पर प्रत्येक 12 वर्ष पर  महाकुंभ मेला आयोजित होता है। चंद्र-सौर पंचांग  पर आधारित  बृहस्पति ग्रह के वृषभ राशि में प्रवेश और सूर्य और चंद्रमा के मकर राशि में होने पर निर्धारित माघ मेला , अर्धकुम्भ और महाकुंभ होती है । पुराणों और महाकाव्य महाभारत ,  मुगल साम्राज्य के इतिहासकारों द्वारा  इलाहाबाद में कुंभ मेले का  उल्लेख 19वीं शताब्दी के मध्य के बाद औपनिवेशिक युग के दस्तावेजों में मिलता है।  प्रयागवालों  ने 6 वर्षीय कुंभ , महाकुंभ मेले के 12-वर्षीय चक्र होने से, हर 12 साल बाद माघ मेला महाकुंभ मेले में बदलने और कुंभ मेले के छह साल बाद अर्ध कुंभ मेला बन जाता है। बृहस्पति मेष राशि में  , और सूर्य और चंद्रमा मकर राशि   या बृहस्पति वृषभ राशि में और सूर्य मकर राशि में होने पर कुंभ होता है। प्रयागराज में अशोक स्तंभ के   तीसरी शताब्दी ई.पू.  का शिलालेख , 1575 ई. , अकबर  काल के बीरबल ने 1575 ई. का  शिलालेख में "प्रयाग तीर्थ राज में माघ मेले" का उल्लेख है। चीनी यात्री ह्वेनसांग  ने  644 ई. एवं  जुआन त्सांग ने उल्लेख किया है कि सम्राट शिलादित्य ने हर पांच साल में एक बार  संपत्ति जनता में वितरित करने के बाद। के खजाने को  जागीरदारों द्वारा पुनः भर दिया गया था । ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ता कामा मैकलीन ने  ह्वेन त्सांग संदर्भ हर 5 साल में होने वाली कुंभ मेला को के बारे में  बौद्ध उत्सव कहा है । अखाड़ों द्वारा आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में प्रयाग में कुंभ मेले की शुरुआत की थी । मत्स्य पुराण के प्रयाग महात्म्य खंड में माघ महीने में प्रयाग की पवित्रता का वर्णन है।   बंगाल के प्रमुख आध्यात्मिक नेता चैतन्य ने 1514 में प्रयाग का दौरा करने के क्रम में मकर संक्रांति पर स्नान में भाग लिया था ।  तुलसीदास के 16वीं शताब्दी के रामचरितमानस में इलाहाबाद में मेले का उल्लेख वार्षिक रूप में किया गया है ।  आइन-ए-अकबरी 16 वीं शताब्दी  में  उल्लेख है कि इलाहाबाद माघ के महीने में विशेष रूप से पवित्र है। खुलासत -उत-तवारीख (लगभग 1695-1699) ने कुंभ मेला" शब्द का उपयोग किया है।  यादगार-ए-बहादुरी (1834 ई.) में उल्लेख किया  है कि सूर्य मकर राशि में प्रवेश करने पर  इलाहाबाद में माघ मेला माघ  में आयोजित किया जाता है ।ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1765 में इलाहाबाद की संधि के बाद प्रयागराज क्षेत्र पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया था । एशियाटिक सोसाइटी के भोलानाथ चंदर (1869) ने भी इलाहाबाद में "विशेष महान मेले" का उल्लेख वार्षिक रूप से किया है,।सिंधिया के1790 ई. का  पत्र में दक्कन से आए तीर्थ यात्रियों की सेवा अवध नवाब असफ उद दौला के अधिकारी मीर मुहम्मद अमजद द्वारा की और मेला में आए तीर्थ यात्रियों की और यात्रियों  पर लगने वाले कर में कमी कर दिया था । कंपनी ने 1806 ई.में तीर्थयात्रियों से कर वसूलने का काम अपने हाथ में ले लिया और मेले में स्नान करने वाले किसी भी व्यक्ति पर ₹ 1 का कर लगा दिया। वेल्श यात्रा लेखक फैनी पार्क्स के अनुसार , कर बहुत कठोर था । कंपनी ने 1808 ई. में इलाहाबाद में स्नान करने के इच्छुक देशी सैनिकों के लिए तीर्थयात्रा कर माफ करने की घोषणा की थी । कंपनी ने 1812 ई. में  "मेला" में लोगों की "बड़ी" भीड़ के लिए व्यवस्था की और 1883 ई. में रीवा के राजकुमार बिशुनाथ सिंह ने इस आधार पर कर देने से इनकार कर दिया कि वे स्नान नहीं करते। हालाँकि, स्थानीय ब्रिटिश कलेक्टर ने रीवा को ₹ 5,490 का कर बिल भेजने के आधार पर कि उन्होंने प्रयागवालों को काम पर रखा , और उनके अनुयायी  के लोगों ने अपने सिर मुंडवा लिए थे। रीवा के राजा ने 1836 ई. को  ब्रिटिश साम्राज्य  से अपने 5000 लोगों के दल को कर में छूट देने का अनुरोध किया था । ब्रिटिश साम्राज्य  ने 1840 ई. में  तीर्थयात्रियों पर लगने वाले करों को समाप्त कर दिया था ।  यूरोपीय यात्री चार्ल्स जेम्स सी. डेविडसन ने दो बार मेले का दौरा करने के बाद पुस्तक डायरी ऑफ़ ट्रैवल्स एंड एडवेंचर्स इन अपर इंडिया (1843) में मेला का वर्णन किया है। इलाहाबाद में 1870 का "कुंभ मेला" के रूप में वर्णित किया गया है।  कुंभ मेला 1858 में निर्धारित किया।   वर्ष, 1857 के विद्रोह से उत्पन्न अशांति के कारण इलाहाबाद में  मेला आयोजित नहीं किया गया था । 1846 में कुंभ मेला आयोजित किया गया हैं। इलाहाबाद आयुक्त, जीएचएम रिकेट्स ने 1874 ई. में लिखा कि मेला प्रत्येक सातवें वर्ष अधिक पवित्र हो जाता है  इलाहाबाद का दंडाधिकारी जी एच एम रिकेट्स का प्रतिवेदन के अनुसार  1868 ई.  में इलाहाबाद  कुंभ मेले का  प्रतिवेदन का उल्लेख 1870 में आयोजित होने वाले " (कुंभ मेला) में स्वच्छता नियंत्रण की आवश्यकता पर चर्चा हुई थी । उन्होंने उल्लेख किया कि  चार साल पहले "आद कुंब" (अर्ध कुंभ) में भारी भीड़ देखी थी।  इलाहाबाद के कमिश्नर जेसी रॉबर्टसन ने 1870 ई. का मेला "कुंभ" में साधुओं के जुलूस का उल्लेख किया है। इतिहासकार कामा मैकलीन के अनुसार  1870 का मेला इलाहाबाद का प्रथम "कुंभ मेला" कहा गया था ।औपनिवेशिक सरकार ने प्रयागवालों पर इलाहाबाद में अशांति फैलाने और आंशिक रूप से इलाहाबाद में 1857 के विद्रोह को भड़काने का आरोप लगाया था । 19वीं सदी के मध्य से, सड़क और रेलवे नेटवर्क में सुधार ने तीर्थयात्रियों के लिए किया गया । ब्रिटिश सरकार ने कर एकत्र किए, साथ ही 1860 के दशक से विशेष रूप से शिविर और मेला सेवाओं का प्रबंधन करना शुरू किया। ब्रिटिश सरकार द्वारा  हुसैन को 1882 ई. में  कुंभ मेला प्रबंधक के रूप में नियुक्त किया गया । परमहंस योगानंद की  योगी आत्मकथा में उल्लेख किया कि  जनवरी 1894 में प्रयाग में कुंभ मेले के दौरान उनके गुरु श्रीयुक्तेश्वर की महावतार बाबाजी से पहली बार मुलाकात हुई थी ।, यूनेस्को ने दिसंबर 2017 को  कुंभ को "मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत" घोषित किया।  , उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 12 दिसंबर 2017 को "अर्ध कुंभ" का नाम बदलकर "कुंभ" करने की घोषणा की है। प्रयाग कुंभ मेले में 1840, 1906, 1954 , 1986 और 2013 में कई भगदड़ें हुई हैं । महा कुंभ मेला 11 वर्षों के बाद वापस बृहस्पति की 11.86 वर्ष की कक्षा के कारण होता है। जॉर्जियाई कैलेंडर के अनुसार प्रत्येक 12 वर्ष के चक्र के साथ,  8 चक्रों में एक कैलेंडर वर्ष समायोजन दिखाई देता है। त्रेतायुग में वृहस्पति की भार्या ममता के पुत्र वेदों के रचयिता एवं वायुयान के प्रणेता ऋषि भारद्वाज द्वारा प्रयाग नगर का निर्माण कर गुरुकुल की स्थापना एवं कुंभ त्योहार का आयोजन प्रारंभ किया गया था । कुंभ मेला के वास्तविक रूप भारद्वाज की भार्या सुशीला के पुत्र द्रोण , गर्ग , पुत्री इलविला और कात्यायनी ने दी । भारद्वाज द्वारा कर्नलगंज में भरदवाजेश्वर शिवलिंग की स्थापना की गई । कुंभ मेला में कुंभ स्नान मगध सम्राट चंद्रगुप्त ने 400 ई. पू. , अमान अखाड़े ने 527 ई. और 600 ई. पू. में राजा हर्ष द्वारा कुंभ स्नान कर कुंभ मेला का विकास किया । प्रयागराज कुंभ मेला 13 जनवरी से 26 फरवरी 2025 में आयोजित होगी ।
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सोमवार, नवंबर 25, 2024

महाबोधि विहार बोधगया परिभ्रमण

 बोधगया की सांस्कृतिक विरासत का परिभ्रमण 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
बोधगया, का  इतिहास में फाल्गुनी वन , धर्मारण्य , उरुवेला , उरवन , बकतौर , बोधिमंदा , बोधगया के नाम से जाना जाता है ।  बिहार राज्य का गया जिले के बोधगया में निरंजना नदी ( फल्गु )   पर स्थित विश्व के बौद्धों के लिए सबसे पवित्र स्थान है। ज्ञान , अहिंसा , सत्य और शांति की भूमि गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़े बोधगया का  महत्वपूर्ण स्थलों का परिभ्रमण बोधगया अवस्थित बोधि ट्री स्कूल श्रीपुर के 23 व 24 नवम्बर 2024 को द्विदिवसीय आचार्यकुल सम्मेलन में शामिल होने के दौरान 23 नवम्बर2024 को विश्व हिंदी परिषद के आजीवन सदस्य साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक , नामानि गंगे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष गीता सिंह , सचिव शीला शर्मा ,और स्वंर्णिम कला केंद्र की अध्यक्षा व लेखिका उषाकिरण श्रीवास्तव द्वारा किया गया । बोधगया की सांस्कृतिक विरासत के विभिन्न स्थलों का उल्लेख साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक  द्वारा किया गया । बोधगया  2600 वर्ष पहले राजकुमार सिद्धार्थ को बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद बुद्ध बन गए थे। उनके ध्यान के पहले तीन दिन और ज्ञान प्राप्ति के बाद के सात सप्ताह बोधगया के विभिन्न स्थानों से जुड़े हुए हैं। इस शहर का इतिहास 500 ईसा पूर्व तक जाता है। बोधगया पर्यटन बौद्ध संस्कृति और जीवन शैली के बारे में मूल्यवान जानकारी प्राप्त करने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है। यह हर साल दुनिया भर से हज़ारों बौद्ध तीर्थयात्रियों को प्रार्थना, अध्ययन और ध्यान के लिए आकर्षित करता है। बोधगया क्षेत्र  में फैले कई मठ और मंदिर, विदेशी बौद्ध समुदायों द्वारा अपनी मूल शैली में बनाए गए हैं । क्षेत्र को एक अलौकिक शांति प्रदान करते हैं। महाबोधि मंदिर - महाबोधि मंदिर " बोधगया बुद्ध मंदिर " और "महान जागृति मंदिर"  कहा जाता है । यूनेस्को विश्व धरोहर महाबोधि मंदिर स्थल है। बोधिमन्दिर का आकार 5 हेक्टेयर है और  भारतीय मंदिर वास्तुकला की शास्त्रीय शैली में ईंट से बना है। मंदिर में 55 मीटर ऊंचा पिरामिडनुमा शिखर है जिसमें कई परतें, मेहराब की आकृतियाँ और बारीक नक्काशी है। महाबोधि मंदिर के गर्भगृह में 10 वीं शताब्दी की भूमिस्पर्श मुद्रा या 'पृथ्वी को छूने वाली मुद्रा' में बैठे हुए बुद्ध की 2 मीटर ऊंची सोने से रंगी हुई मूर्ति है। मंदिर के ऊपरी हिस्से को 2013 में थाईलैंड के राजा और भक्तों द्वारा उपहार के रूप में सोने से ढका गया था। बोधगया पर्यटन तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थल है। महाबोधि वृक्ष - पवित्र बोधि वृक्ष की छाया में   गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी । महाबोधि मंदिर के बगल में खड़ा है। सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त करने के बाद, बुद्ध सात दिनों तक बिना हिले-डुले वृक्ष के नीचे बैठे रहे थे । भिक्षु और भक्त वृक्ष को कई बार प्रणाम करते हैं। यह एक शुद्धिकरण अनुष्ठान है, और कुछ भिक्षु एक बार में 100,000 तक प्रणाम करने के लिए जाने जाते हैं। बोधगया पर्यटन यात्रा पर बौद्ध पर्यटक ट्रेन आपको निरंजना नदी  अत्यंत पवित्र है और इसे अंतिम संस्कार करने के लिए आदर्श स्थान माना जाता है। किंवदंती के अनुसार, एक महिला ने बुद्ध की दिव्यता पर सवाल उठाया था। उसने उन्हें एक सुनहरा कटोरा भेंट किया और उन्हें आश्वासन दिया कि यह ऊपर की ओर नहीं बहेगा। बुद्ध द्वारा नदी में भेजे गए सभी पिछले कटोरे ऊपर की ओर चले गए, जबकि आम लोगों के कटोरे नीचे की ओर चले गए। जब ​​बुद्ध ने आखिरकार अपना कटोरा भेजा भेजने से उसने सभी संदेह को धो दिया था ।।बोधगया के मुख्य आकर्षणों में से एक अलंकृत थाई मंदिर का निर्माण  1956 में थाई मंदिर का थाईलैंड के तत्कालीन सम्राट ने बनवाया था। कोनों पर घुमावदार ढलान वाली छत और सुनहरे टाइलों से सजे इस मठ में थाई बौद्ध वास्तुकला का एक असाधारण मिश्रण देखने को मिलता है। भगवान बुद्ध की 25 मीटर ऊंची कांस्य प्रतिमा आपका ध्यान आकर्षित शांत स्थान देखने वाले के मन को शांति प्रदान करता है। महान बुद्ध प्रतिमा के समीप स्थित इंडोनेशियाई निप्पॉन जापानी मंदिर, बोधगया में सबसे लोकप्रिय 1972 ई. में निर्मित बौद्ध मंदिर भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को दुनिया भर में फैलाने के लिए बनाया गया था। यह मंदिर जापानी वास्तुकला प्रतिभा का एक नमूना है। मंदिर की दीवारों पर भगवान बुद्ध के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को खूबसूरती से उकेरा गया है। बुद्ध प्रतिमा - बोधगया में पर्यटकों और बौद्ध तीर्थयात्रियों के लिए 80 फीट ऊंची महान बुद्ध प्रतिमा लोकप्रिय स्थलों में से एक है । बौद्ध धर्म के 14 वें बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा ने 1989 में भारत में भगवान बुद्ध की सबसे ऊंची प्रतिमा स्थापित की थी। ऊंची प्रतिमा में बुद्ध को खुले आसमान के नीचे कमल पर ध्यान में बैठे हुए दिखाया गया है। भगवान बुद्ध  प्रतिमा जटिल नक्काशीदार बलुआ पत्थर और लाल ग्रेनाइट से बनी है। बोधगया इसलिए प्रसिद्ध है क्योंकि यहीं गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। तब से बोधगया बौद्धों के लिए तीर्थ और श्रद्धा का स्थान रहा है।  महापरिनिर्वाण सूत्र के अनुसार बुद्ध अपने अनुयायियों से कहते हैं कि वे उन स्थानों की तीर्थयात्रा करके पुण्य और महान पुनर्जन्म प्राप्त कर सकते हैं, जहां उनका जन्म स्थल  लुम्बिनी हुआ था, जहां उन्हें बोधगया में ज्ञान प्राप्त हुआ था । जहां उन्होंने पहली बार सारनाथ में शिक्षा दी और  कुशीनगर में  निर्वाण प्राप्त किया था ।.
बोधगया पर्यटन तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थल है। महाबोधि मंदिर - महाबोधि मंदिर " बोधगया बुद्ध मंदिर " और "महान जागृति मंदिर"  कहा जाता है । यूनेस्को विश्व धरोहर महाबोधि मंदिर स्थल है। बोधिमन्दिर का आकार 5 हेक्टेयर है और  भारतीय मंदिर वास्तुकला की शास्त्रीय शैली में ईंट से बना है।"
[महाबोधि विहार -   महाबोधि मन्दिर, बोध गया स्थित प्रसिद्ध बौद्ध विहार को यूनेस्को ने  विश्व धरोहर घोषित किया है।यह विहार उसी स्थान पर खड़ा है  गौतम बुद्ध ने ईसा पूर्व 6 वी ई. पू. शताब्धिं में ज्ञान प्राप्त किया था। बोध विहार मुख्‍य विहार या महाबोधि विहार की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्‍थापित स्तूप के समान है। महाबोधि मंदिर के गर्भगृह में  गौतम बुद्ध की मूर्त्ति  पदमासन मुद्रा की मूर्ति स्थापितगौतम बुद्ध को ज्ञान बुद्धत्व (ज्ञान) प्राप्‍त हुआ था। महाबोधि विहार मंदिर के चारों ओर पत्‍थर की नक्‍काशीदार रेलिंग बनी हुई है। ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्‍त सबसे पुराना अवशेष है। बोधि  विहार परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्रा‍कृतिक दृश्‍यों से समृद्ध  पार्क में बौद्ध भिक्षु ध्‍यान साधना करते हैं। बोध विहार परिसर में उन सात स्‍थानों को भी चिह्नित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्‍ताह व्‍यतीत किया था। जातक कथाओं के अनुसार बोधि वृक्ष विशाल पीपल का वृक्ष महाबोधि  विहार मंदिर  के पीछे स्थित है। बुद्ध को पीपल  वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्‍त हुआ था। बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। विहार समूह में सुबह के समय घण्‍टों की आवाज मन को शांति प्रदान करती है।विहार के पीछे बुद्ध की लाल बलुआ पत्‍थर की 7 फीट ऊंची  मूर्त्ति  वज्रासन मुद्रा में है। बुद्ध  मूर्त्ति के चारों ओर विभिन्‍न रंगों के पताके लगे हुए हैं । जो इस मूर्त्ति को एक विशिष्‍ट आकर्षण प्रदान करतह।  तीसरी शताब्‍दी ई.पू. में मगध सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और पृथ्‍वी का नाभि केंद्र कहा था। इ मूर्त्ति की आगे भूरे बलुए पत्‍थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्‍ह बने हुए हैं। बुद्ध के  पदचिन्‍हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का  है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्‍ताह  बोधि वृक्ष के आगे खड़ी अवस्‍था में बिताया था।  बुद्ध की खड़ी अवस्‍था मे मूर्त्ति बनी हुई है। बुद्ध  मूर्त्ति को 'अनिमेश लोचन' कहा जाता है। महाबोधि विहार के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्‍य बना हुआ है। बोधिमन्दिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद तीसरा सप्‍ताह व्‍यतीत किया था।  काले पत्‍थर का कमल का फूल बना बुद्ध का प्रतीक माना जाता है। महाबोधि विहार के उत्तर पश्चिम भाग में  छतविहीन भग्‍नावशेषत्‍नाघारा के नाम से जाना जाता है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्‍ताह व्‍यतीत किया था। बौद्ध धर्म ग्रंथों के  अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्‍यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली। प्रकाश की इन्‍हीं रंगों का उपयोग विभिन्‍न देशों द्वारा पताके में किया है।
बुद्ध विहार के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवा सप्‍ताह व्‍य‍तीत किया था। बुद्ध ने छठा सप्‍ताह महाबोधि विहार के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा क्षील के नजदीक व्‍यतीत किया था। यह क्षील चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है। क्षील के मध्‍य में बुद्ध की मूर्त्ति स्‍थापित है। बुद्ध मूर्त्ति में  विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है। बुद्ध प्रार्थना में इतने तल्‍लीन थे कि उन्‍हें आंधी आने का ध्‍यान नहीं रहा। बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो सांपों का राजा मूचालिंडा ने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की थी । बोध  विहार परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृ‍क्ष है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना सांतवा सप्‍ताह इसी वृक्ष के नीचे व्‍यतीत किया था। बुद्ध दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्‍या‍पारियों से मिले थे। व्‍यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की।  प्रार्थना के रूप में "बुद्धं शरणं गच्‍छामि" (मैं बुद्ध को शरण जाता हूँ) का उच्‍चारण किया। था। महाबोधि विहार के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल दूरी परतिब्बती मठ  स्थित है। तिब्बती मठ बोधगया का सबसे बड़ा और पुराना मठ को 1934 ई. में बनाया गया था।  विहार (गया-बोधगया रोड पर निरंजना नदी के तट पर स्थित) 1936 ई. में बना था। विहार में दो प्रार्थना कक्ष है।  बुद्ध की  विशाल प्रतिमा सटा  हुआ थाई मठ  के छत की सोने से कलई की गई  गोल्‍डेन मठ कहा जाता है। थाई  मठ की स्‍थापना थाईलैंड के राजपरिवार ने बौद्ध की स्‍थापना के 2500 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्‍य में किया था। इंडोसन-निप्‍पन-जापानी मंदिर (महाबोधि मंदिर परिसर से 11.5 किलोमीटर दक्षिण-पश्‍िचम में स्थित) का निर्माण 1972-73 में हुआ था। इस विहार का निर्माण लकड़ी के बने प्राचीन जापानी विहारों के आधार पर किया गया है। विहार में बुद्ध के जीवन में घटी महत्‍वपूर्ण घटनाओं को चित्र के माध्‍यम से दर्शाया गया है। चीनी विहार का निर्माण 1945 ई. में हुआ था। इस विहार में सोने की बनी बुद्ध  प्रतिमा स्‍थापित है।  विहार का पुनर्निर्माण 1997 ई. किया गया था। जापानी विहार के उत्तर में भूटानी मठ स्थित है।  मठ की दीवारों पर नक्‍काशी का बेहतरीन काम किया गया है। विहार वियतनामी विहार है। विहार महाबोधि विहार के उत्तर में 5 मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। विहार का निर्माण 2002 ई. में किया गया है। विहार में बुद्ध के शांति के अवतार अवलोकितेश्‍वर की मूर्त्ति स्‍थापित है। मठों और विहारों के अलावा के कुछ और स्‍मारक भारत की सबसे ऊंचीं बुद्ध मूर्त्ति जो कि 6 फीट ऊंचे कमल के फूल पर स्‍थापित है।  पूरी प्रतिमा एक 10 फीट ऊंचे आधार पर बनी हुई है।

सोमवार, नवंबर 11, 2024

धर्म , संस्कृति और पर्यावरण का संगम उतराखण्ड की नदियां

उतराखण्ड की नदियाँ : धर्म ,  संस्कृति और पर्यावरण का संगम 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
सनातन धर्म संस्कृति में उतराखण्ड की नदियाँ  महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं । नदियों में भागीरथी , अलकनन्दा , मंदाकनी , यमुना और सहायक नदियाँ एवं झीलें मानव संस्कृति के लिए आस्था का केंद्र है। हिमालय की चोटियों के राजसी ग्लेशियर से प्रवाहित नदियाँ   भारतीय, नेपाली और तिब्बती सीमाओं पर पाए जाते है उत्तराखंड की नदियाँ में  काली, टोंस, अलकनंदा, भागीरथी, कोसी आदि हैं। उत्तराखंड के गंगोत्री ग्लेशियर के शीर्ष पर स्थित गौमुख से भागीरथी नदी निकल कर देवप्रयाग में अलकनंदा के साथ मिलकर संगम बनाती है ।संतोपथ ग्लेशियर और भागीरथी खरक ग्लेशियर का संगम से प्रवाहित होने वाली अलकनंदा नदी है। कालिंदी पर्वत श्रंखला पर 6365 मीटर उचाई पर स्थित यमुना ग्लेशियर ऋषिकुंड तक प्रवाहित होने के बाद उत्तरप्रदेश के प्रयागराज में गंगा , यमुना और सरस्वती नदियों का संगम बनाती है। यह स्थल को त्रिवेणी , प्रयाग संगम कहा जाता है । भागीरथी नदी की 80 किमी प्रवाहित होने वाली  सहायक भिलंगना नदी  में घुत्तु, बिरोदा, कल्याणी, भेलबाही, घोंटी नदियाँ  टिहरी में भागीरथी में गिरती है ।  गंगा नदी सभी नदियों में सबसे पवित्र है। पवित्र गंगा नदी का आत्मा ,  दिव्यता, आध्यात्मिकता, मोक्ष और स्वच्छता के गुणों का प्रतीक  उत्तरकाशी में गोमुख से बहती है। गंगोत्री ग्लेशियर, सतोपंथ ग्लेशियर और खतलिंग ग्लेशियर इसके स्रोत हैं। गंगा नदी की सहायक नदियाँ भागीरथी और अलकनंदा हैं। पिथौरागढ के कालापानी के समीपधौली गंगा की श्रंखला  3600 मीटर व 11800 फीट की उचाई पर स्थित गोमुख से  तवाघाट में काली नदी, व शारदा नदी और महाकाली नदी प्रवाहित है। मना का वसुंधरा झरने और संतोपथ झील की ओर जाने वाली मार्ग में सरस्वती नदी का उद्गम है । सरस्वती नदी का संगम अलकनन्दा नदी में मिलने से केशव प्रयाग स्थल मना में अवस्थित है ।यहां पांडव पुत्र भीम द्वारा शिला रखी है । शिला को भीम पुल कहा जाता है। मार्ग में गिरता है।  पहाड़ पानी के समीप सातताल झील का मुहाना किच्छ से  103 किलोमीटर तक प्रवाहित होने वाली गौला नदी  रामगंगा से  गौला नदी निकलती है। गोरी गंगा को जिसे गोरी गाड ​​और घोरी गंगा कहा गया है।  पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील में बहने वाली गौरी गंगा नदी है। यह नदी मिलम ग्लेशियर से 104 किलोमीटर तक बहती है और जौलजीबी में काली नदी में मिल जाती है। हिमालय में धारपानी धार के पास से  प्रारंभ होकर कोसी नदी  उत्तर प्रदेश से होकर रामगंगा नदी में मिल कर  नदी घाट, बुजान, अमदाना, बेताल और रामनगर शहरों को सिंचाई का पानी भी उपलब्ध कराती है।  केदारनाथ के समीप  चोराबारी ग्लेशियर से मंदाकिनी नदी  बहने वाली अलकनंदा नदी इसकी सहायक नदी  और सोनप्रयाग में वासुकीगंगा नदी से पानी प्राप्त कर रुद्रप्रयाग में अलकनन्दा में मिलत्ती है मंदाकिनी नदी और अलकनंदा नदी के संगम स्थल को रुद्रप्रयाग कहा जाता है। नंदाकिनी नदी - नंदा देवी राष्ट्रीय वन में नंदा घुंघटी ग्लेशियर विशाल नंदाकिनी नदी को पोषण देते हैं।  मंदाकिनी  नदी 56 किलोमीटर तक बहती और फिर पंच प्रयागों में से नंदप्रयाग पहुँचती हुई  अलकनंदा नदी से मिलती है। सरयू नदी - कुमाऊं क्षेत्र में कई नदियाँ निकलती हैं। सरयू उत्तराखंड की एक प्रमुख नदी है जो कुमाऊं क्षेत्र से निकलने वाली सरयू नदी  सरमूल से शुरू होती है और पंचेश्वर पहुँचने से पहले 145 किलोमीटर तक बहती है। नदी खूबसूरत मल्ला कत्यूर घाटी से होकर गुज़रती है, जहाँ यह कई बड़ी और छोटी सहायक नदियों से मिलती है।टोंस नदी -  गढ़वाल हिमालय पर्वतों से होकर गुजरने वाली  टोंस नदी कलसी के पास यमुना नदी से मिलकर  दून घाटी में यह बहुत सारा पानी ले जाती है। यमुना की सबसे लंबी सहायक टोंस  148 किलोमीटर तक फैली हुई है।नायर नदी -  गंगा नदी की 94 किमी लंबी सहायक नायर  नदी  पौड़ी जिले में गढ़वाल दूधातोली पहाड़ियों से निकलती है। पिंडारी नदी -  पिंडारी ग्लेशियरों से बहने वाली पिंडारी नदी  105 किलोमीटर तक पर प्रवाहित होती हुई भगोली, कुलसारी, नौटी और थरली गाँवों से होकर गुजरती है। नायर नदी (पश्चिमी) - पौड़ी जिले में गढ़वाल की दूधातोली पहाड़ियों से 91 किमी लंबी नायर पश्चिमी नदी  निकलती है। धौलीगंगा नदी-कुमाऊं - कजली नदी सहायक धौलीगंगा नदी कुमाऊं मंडल से होकर बहती  हुई  गोवनखाना हिमानी से प्रारम्भ  होकर तावधार में समाप्त होती है। रामगंगा नदी (पश्चिमी) रामगंगा पश्चिम नदी पौड़ी गढ़वाल क्षेत्र में दूधातोली पहाड़ियों से 155  किमी लंबी रामगंगा पश्चमी नदी निकलकर जलग्रहण क्षेत्र 30,641 वर्ग किलोमीटर में फैली  है।
 गौरवशाली उत्तराखंड  को  “देवभूमि” व देवताओं की भूमि से सम्मानित किया गया है। उतराखण्ड राज्य में पवित्र। नदियों में गंगा , अलकनंदा , मंदाकिनी , यमुना , बद्रीनाथ धाम , केदारनाथ मंदिर , गंगोत्री , यमुनोत्री  तीर्थस्थल हैं । चार धाम , पंच केदार , पंच प्रयाग , पंच बद्री , शक्ति पीठ और सिद्ध पीठ पवित्र मंदिर हिमालय की शांति में पहाड़ी क्षेत्रों में सुशोभित और आभा को दिव्य बनाते हैं।  देवताओं के दिव्य हस्तक्षेप में आत्मसमर्पण कर और पहाड़ी मंदिरों के आध्यात्मिक आनंद में आनंदित होता है।यहाँ "दिव्य ज्ञान" के मंदिर में भगवान शिव के (अग्नि) रूप दुर्गा, सर्वश्रेष्ठ देवी, काली के सबसे भयानक रूपों का प्रतिनिधित्व करने वाली चंडिका के गढ़वाल में नौ और कुमाऊँ में दो मंदिर ,  चेचक की देवी शीतला के  अल्मोड़ा , श्रीनगर , जागेश्वर और अन्य स्थानों में समर्पित मंदिर हैं। हजारों मंदिरों की भूमि सहस्त्र वर्षों  से ऋषि-मुनि , संत भगवान शिव  के हिमालय स्थित निवास पर जाते और वासुदेव, सर्वशक्तिमान से आशीर्वाद मांगते रहे हैं। हरिद्वार भारत के सप्त पुरी या सात सबसे पवित्र प्राचीन शहरों में से हरिद्वार   प्रमुख तीर्थ स्थल है। ऋषिकेश में मंदिर और आश्रम  हैं । भगीरथी गंगा और अलकनन्दा नदी के संगम पर अवस्थित देवप्रयाग है। केदारनाथ और बद्रीनाथ के पवित्र तीर्थस्थल गंगोत्री और यमुनोत्री के साथ मिलकर  चार धाम सर्किट बनाते हैं ।,  पंच केदार मंदिर भगवान शिव को समर्पित पाँच मंदिरों का समूह है । उत्तराखंड के मंदिरों को श्रेणी में केदारखंड- जिसमें गढ़वाल मंडल के मंदिर और मानसखंड-  के कुमाऊं मंडल के मंदिर हैं। उतराखण्ड राज्य में 147 प्राचीन मंदिर है । उत्तराखंड का चार धाम में गंगोत्री मंदिर , यमुनोत्री मंदिर , केदारनाथ मंदिर , बद्रीनाथ मंदिर है। पंच बद्री मंदिर में बद्रीनाथ - विशाल बद्री , योगध्यान बद्री , भविष्य बद्री , वृद्ध बद्री , आदि बद्री , पंच केदार मंदिर में केदारनाथ , तुंगनाथ , रुद्रनाथ मन्दिर , कल्पेश्वर , मध्यमहेश्वर या मद्महेश्वर , अंग्यारी महादेव मंदिर , अनुसूया देवी मंदिर और अत्रि ऋषि  आश्रम , ऑगस्त ऋषि  , बधाणगढ़ी मंदिर , बद्रीनाथ , बद्रीनाथ मंदिर द्वाराहाट , बागेश्वर , बाघनाथ मंदिर , बैजनाथ मंदिर , बैरासकुण्ड महादेव , बालेश्वर मंदिर , बंसी नारायण मंदिर , बसुकेदार मंदिर ,बेरीनाग , भैरव मंदिर ,भविष्य बद्री ,भीमेश्वर महादेव मंदिर ,बिलकेश्वर महादेव मंदिर , बिनेश्वर महादेव मंदिर , बुद्ध मंदिर , बूढ़ा केदार , बूढ़ा मदमहेश्वर , चैती देवी मंदिर ,चमोलानाथ मंदिर ,चंडिका देवी सिमली , चंडिका देवी मंदिर , चंडिका मंदिर बागेश्वर ,चंद्रबानी मंदिर ,चंद्रशिला ट्रेक ,चिंता हरण महादेव मंदिर ,चितई गोलू देवता मंदिर , डाट काली मंदिर , देवलगढ़: , देवी मंदिर , देवप्रयाग , ध्वज मंदिर , दूदाधारी बर्फानी मंदिर, दूनागिरी मंदिर ,गैरार गोलू देवता ,गंगोत्री , गंगोत्री मंदिर , गौरी उडियार गुफा , गौरीकुंड , गौरीकुंड मंदिर , गोलू देवता / ग्वाल देवता , गोलू देवता मंदिर , गोपेश्वर , गोपीनाथ मंदिर , गुजरू गढ़ी , हाट कालिका मंदिर, , हैदाखान मंदिर , हनुमान गढी , हनुमानचट्टी (बद्रीनाथ) , हरिद्वार , इंद्रासनी मनसा देवी मंदिर , इंद्रासनी मनसा देवी मंदिर , जागेश्वर , जागेश्वर , झूला देवी मंदिर , झूला देवी मंदिर , ज्योतिर्मठ , ज्योतिर्मठ , कैंची धाम , कैंची धाम , काली मंदिर कालापानी , काली मंदिर कालापानी , कालीमठ , कालीमठ , कालीशिला , कालीशिला , कल्पेश्वर , कल्पेश्वर , कालू सिद्ध , कालू सिद्ध , कामाख्या देवी मंदिर , कामाख्या देवी मंदिर , कमलेश्वर मंदिर , कमलेश्वर मंदिर , कपिलेश्वर महादेव मंदिर , कपिलेश्वर महादेव मंदिर , कर्कोटक मंदिर , कर्कोटक मंदिर , कर्मा जीत मंदिर , कर्मा जीत मंदिर , कार्तिक स्वामी , कार्तिक स्वामी , कसार देवी मंदिर , कसार देवी मंदिर , काशी विश्वनाथ मंदिर उत्तरकाशी , कटारमल सूर्य मंदिर , केदारनाथ , केदारनाथ मंदिर , खरसाली , कोट भ्रामरी मंदिर , क्रांतेश्वर महादेव मंदिर , क्यूंकालेश्वर महादेव मंदिर , लाखामंडल , लखनपुर मंदिर , लटेश्वर मंदिर , लक्ष्मण सिद्ध मंदिर , माँ बाराही देवी मंदिर, देवीधुरा , मदमहेश्वर , बिसोई में महासू देवता मंदिर , हनोल में महासू देवता मंदिर , मक्कूमठ , मांडू शिध , मनेश्वर मंदिर , मनकामेश्वर मंदिर , माता मूर्ति मंदिर , मठियाना देवी मंदिर , मोस्टामानु मंदिर , मुखबा , मुक्तेश्वर मंदिर ,नाग देव मंदिर , नाग देवता मंदिर बारसू , नागनाथ ममंदिर , नैना देवी मंदिर , नंदा देवी मंदिर अल्मोड़ा , नंदा देवी मंदिर मुनस्यारी , नारायण कोटि मंदिर, ओंकार रत्नेश्वर महादेव  , ओंकारेश्वर मंदिर  , पंचेश्वर महादेव मंदिर , पांडवखोली , पांडुकेश्वर , पारद शिवलिंग , पाताल भुवनेश्वर ,रघुनाथ मंदिर, देवप्रप्रयाग  ,राहु मंदिर ,राम मंदिर रानीखेत ,रामशिला मंदिर, अल्मोड़ा  , ऋषिकेश , रुद्रधारी झरना और महादेव मंदिर , रुद्रनाथ मन्दिर , रुद्रेश्वर महादेव मंदिर , साईं मंदिर , संतला देवी मंदिर , शनि देव मंदिर , शंकराचार्य समाधि , शिखर धाम मंदिर , शीशमहल राम मंदिर, हरिद्वार , शिव मंदिर , सीताबनी मंदिर , सोमेश्वर महादेव सांकरी , सोमेश्वर मंदिर अल्मोड़ा ,सुरा देवी मंदिर , सुरकंडा देवी मंदिर , टपकेश्वर , त्रियुगीनारायण , तुंगनाथ , उखीमठ ,उमरा नारायण मंदिर , उपत कालिका मंदिर , वैतरणी मंदिर समूह , विश्वनाथ मंदिर गुप्तकाशी , वृद्ध बद्री , व्यास गुफा , यमुनोत्री मंदिर , योगध्यान बद्री मंदिर है।
सिख धर्म के 10वें गुरु गोविंद सिंह का कर्म भूमि , धनरिया का पवित्र  हेमकुंड , हेमकुंड साहिब , लक्ष्मण मंदिर , गर्म कुंड बद्रीनाथ  गोविंद घाट , ऋषिकेश का गुरुद्वारा ,लक्ष्मण झूला , नीलकंठ महादेव , गीताप्रेस , योग केंद्र , जोशीमठ में भगवान नरसिंह , भगवान सूर्य आदि देव , देव प्रयाग , कर्ण प्रयाग , रुद्र प्रयाग , सोन प्रयाग , केशव प्रयाग , विष्णु प्रयाग , हरिद्वार का हरि की पैड़ी , कनखल पवित्र स्थान है । नारायण पर्वत , नर पर्वत , द्रोण पर्वत , धौला गिरी पर्वत , केदार चट्टी , वसुधरा आदि स्थल पवित्र है ।

रविवार, अक्टूबर 27, 2024

लालकिला , दिल्ली परिभ्रमण।


 पुराणों एवं स्मृति ग्रंथों के अनुसार खाण्डव वन को भगवान कृष्ण के परामर्श से पांडवों ने  इन्द्रप्रस्त का निर्माण कर पांडव की राजधानी बनी थी । पांडव वंशीय द्वारा दक्षिण दिल्ली का  सूरजकुंड  700 ई. में दिल्ली का रूप दिया गया । पांडव वंशीय तोमर शासक  अनंगपाल तोमर  द्वितीय ने  दिल्ली में लालकोट का निर्माण 1060 ई. में करने के बाद  अपनी राजधानी बनाई थी ।12 96 ई. में अल्लाउद्दीन खिलजी ने  लालकोट को कुष्क ए लाल , लाल प्रासाद में विश्राम किया था । लाल कोट में अष्टभुजी प्राचीर , तोरण द्वार और हाथी पोल द्वार थे । अग्निपुराण , अकबर नामा के अनुसार 1060 ई. में लालकोट का पुनर्निर्माण पृथ्वीराज चौहान द्वारा कराई गई थी । 1398 ई. में तैमूर लंग लालकोट का भ्रमण किया । लाल किला को लाल कोट , किला राय पिथौरा , लाल हवेली ,भाग्यशाली किला ,कुष्क ए लाल , , लाल प्रसाद , , लाल महल , शाहजहाबाद , किला ए मुबारक , लाल किला विभिन्न राजाओं , सुल्तानों , बादशाहों शासकों द्वारा नामकरण किया गया था । लाल की का दरवाजा में दिल्ली दरवाजा ,वर्खि दरवाजा ,अखबार दरवाजा ,नोवेल दरवाजा ,हिमायु दरवाजा ,लाहौर व लाहौरी गेट दरवाजा है ।सिखों द्वारा 174 , 1775 और 1703 ई. में लाल किला पर अधिकार किया गया था।लाल किले क्षेत्र 254 .67 एकड़ में फैले क्षेत्रफल में  है। लाल किला व लाल कोट का राजा पृथ्वीराज चौहान एवं गोविंद चौहान 12 वीं सदी तक 


थे । साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा 20 अक्टूबर 2024 को लालकिला परिभ्रमण किया गया ।
पुरानी दिल्ली क्षेत्र  में स्थित, लाल बलुआ पत्थर से निर्मित  "लाल किला", को 2007 ई. में  युनेस्को द्वारा  विश्व धरोहर स्थल किया गया है । यमुना नदी के किनारे दिल्ली का बादशाह शाहजहाँ द्वारा 1638 ई. में  250 एकड़ जमीन में लाल किला का निर्माण कराया गया गया था । बादशाह  शाहजहां ने 1638 ई . में अपनी राजधानी आगरा को दिल्ली में स्थापित कर लिया था । मुगल काल के प्रसिद्ध वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी को लाल  किले की शाही डिजाइन बनाने के लिए चुना था। उस्ताद अहमद ने लाल किला को बनवाने में विवेकशीलता और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल कर इसे अति सुंदर और भव्य रुप दिया था। लाल किला बनने के कारण भारत की राजधानी दिल्ली को शाहजहांनाबाद कहा जाता था ।, मुगल बादशाह  शाहजहां के बाद औरंगजेब ने लाल  किले में मोती-मस्जिद का निर्माण करवाया था।  लाल किले पर 17 वीं शताब्दी में  मुगल बादशाह जहंदर शाह के अधीनहोने के बाद  30 साल तक लाल किले बिना शासक का रहा था।  नादिर शाह ने लाल किले पर अपना शासन किया । ब्रिटिश साम्राज्य  ने 18 वीं सदी में  लाल किले पर अधिकार कर  लिया था  ।  भारत की आजादी के बाद  देश के प्रथम  प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने लाल किला  पर तिरंगा फहराकर देश के नाम संदेश दिया था। लाल किले का इस्तेमाल सैनिक प्रशिक्षण के लिए किया जाने लगा था।  प्रमुख पर्यटन स्थल के रुप में मशहूर है । सलीमगढ़ के पूर्वी छोर पर स्थित लाल बलुआ पत्थर की प्राचीर एवं दीवार के कारण लाल किला  है। लाल किला की  चार दीवारी  1.5 मील (2.5 किमी) लम्बी और यमुना नदी के किनारे से ऊँचाई 60 फीट (16मी), तथा 110 फीट (35 मी) ऊँची और  82 मी की वर्गाकार ग्रिड (चौखाने) का प्रयोग कर बनाई गई है। लाल किले 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद, किले को ब्रिटिश सेना के मुख्यालय के रूप में प्रयोग किया जाने लगा था । उमेद दानिश द्वारा 1903 ई. में लाल किले के नष्ट हुए बागों एवं बचे भागों को पुनर्स्थापित करने की योजना  प्रारम्भ  की  गयी थी । लाल किले  की कलाकृतियाँ फारसी, यूरोपीय एवं भारतीय कला एवं  शाहजहानी शैली था। यह शैली रंग, अभिव्यंजना एवं रूप में उत्कृष्ट है। लालकिला सन 1913 ई. में राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारक घोषित होने से पूर्वैसकी उत्तरकालीनता को संरक्षित एवं परिरक्षित करने हेतु प्रयास हुए थे।
लाल किला की दीवार  लाहौर दरवाज़े  मुख्य प्रवेशद्वार के अन्दर एक लम्बा बाजार ,, चट्टा चौक, जिसकी दीवारें दुकानों से कतारित,  खुला स्थान उत्तर-दक्षिण सड़क को काटती , सड़क पहले किले को सैनिक एवं नागरिक महलों के भागों में बांटती और  सड़क का दक्षिणी छोर दिल्ली गेट  है। लाहौर गेट से चट्टा चौक तक आने वाली सड़क से लगे खुले मैदान के पूर्वी ओर नक्कारखाना संगीतज्ञों हेतु बने महल का मुख्य द्वार है। गेट के पार एक और खुला मैदान में  मुलतः दीवाने-ए-आम का प्रांगण हुआ करता था। दीवान-ए-आम। जनसाधारण हेतु बना वृहत प्रांगण था। अलंकृत सिंहासन का छज्जा दीवान की पूर्वी दीवार के बीचों बीच निर्मित बादशाह के लिए निर्मित सिंहासन और सुलेमान के राज सिंहासन  था। नहर-ए-बहिश्त - राजगद्दी के पीछे की ओर शाही निजी कक्ष नहर ए बहिश्त  के क्षेत्र का , पूर्वी छोर पर ऊँचे चबूतरों पर बने गुम्बददार इमारतों की कतार से यमुना नदी का किनारा दिखाई पड़ता है। मण्डप  छोटी नहर से जुडे़ को  नहर-ए-बहिश्त कहते हैं । नहर के बहिका सभी कक्षों के मध्य से जाती है। लाल किले के पूर्वोत्तर छोर पर बने शाह बुर्ज पर यमुना  जल से  नहर की  जल आपूर्ति होती है। किले का परिरूप कुरान में वर्णित स्वर्ग या जन्नत के अनुसार बना है।  लालकिले का प्रासाद, शाहजहानी शैली का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत करता है। महल के  दक्षिणवर्ती प्रासाद महिलाओं हेतु निर्मित को जनाना व मुमताज महल,संग्रहालय बना हुआ एवं रंग महल, में सुवर्ण मण्डित नक्काशीकृत छतें एवं संगमर्मर सरोवर में नहर-ए-बहिश्त से जल आता है। दक्षिण से तीसरा खास महल में शाही कक्ष निर्मित  हैं।  खास महल में राजसी शयन-कक्ष, प्रार्थना-कक्ष,  बरामदा और मुसम्मनबुर्ज से बादशाह जनता को दर्शन देते थे। दीवान-ए-खास मंडप राजा का मुक्तहस्त से सुसज्जित निजी सभा कक्ष था। दिवान के खास महल  में  सचिवीय qक़क़ मंत्रीमण्डल तथा सभासदों से बैठकों के काम आता थाइस म्ण्डप में पीट्रा ड्यूरा से पुष्पीय आकृति से मण्डित स्तंभ बने हैं। इनमें सुवर्ण पर्त भी मढी है, तथा बहुमूल्य रत्न जडे़ हैं।  महल की मूल छत को रोगन की गई काष्ठ निर्मित छत से बदल दिया गया है। इसमें अब रजत पर सुवर्ण मण्डन किया गया है।तुर्की शैली में रंगीन संगमरमर पाषाण युक्त निर्मित  हमाम महल की राजसी स्नानागार था, एवं तुर्की शैली में बना है। हमाम के पश्चिम में मोती मस्जिद का निर्माण सन् 1659 में, औरंगजे़ब की निजी मस्जिद निर्मित थी। मोती मस्जिद तीन गुम्बद वाली, तराशे हुए श्वेत संगमर्मर से निर्मित ,  मुख्य फलक तीन मेहराबों से युक्त , एवं आंगन में  फुलो का मेला है। मोती मस्जिद के  उत्तर में हयात बख्श बाग  हैं।  मण्डप उत्तर दक्षिण कुल्या के दोनों छोरों पर स्थित हयात महल का निर्माण अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर द्वारा 1842 बनवाया गया था।  लाल  किला स्थल जहाँ से भारत के प्रधान मंत्री स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को देश की जनता को सम्बोधित करते हैं। लाल किला इमारत समूह में  3000 लोग  रहा करते थे परंतु 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद, किले पर ब्रिटिश सेना का कब्जा़ हो गया, एवं रिहायशी महल नष्ट कर दिये गये। लाल किला  ब्रिटिश सेना का मुख्यालय  बनाया गया। स्वतंत्रता  संग्राम के दौरान  बहादुर शाह जफर पर मुकदमा भी चला ,  नवंबर 1945 में इण्डियन नेशनल आर्मी के तीन अफसरों का कोर्ट मार्शल किया गया था। स्वतंत्रता के बाद 1947 में  भारतीय सेना ने  किले का नियंत्रण ले लिया था।  दिसम्बर 2003 में, भारतीय सेना ने लालकिला भारतीय पर्यटन प्राधिकारियों को सौंप दिया। किले पर दिसम्बर 2000 में लश्कर-ए-तोएबा के आतंकवादियों द्वारा हमला के दौरान  दो सैनिक एवं एक नागरिक मृत्यु को प्राप्त हुए।  भारत के आजाद होने पर 1947 ई. में  ब्रिटिश सरकार ने लाल किला परिसर भारतीय सेना के हवाले कर दिया था । २२ दिसम्बर २००३ को भारतीय सेना ने 22 दिसंबर 2003 को लाल किला खाली कर  समारोह में पर्यटन विभाग को सौंप दिया था । लाल किले पर 1739 में फारस के बादशाह नादिर शाह ने हमला किया और   स्वर्ण मयूर सिंहासन ले गया था।