गुरुवार, मार्च 14, 2024

त्रयंकेश्वर परिभ्रमण

त्रयम्बकेश्वर परिभ्रमण
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
 महाराष्ट्र राज्य के नाशिक ज़िले का मुख्यालय गोदावरी नदी के किनारे स्थित नासिक  है। नासिक में  पंचवटी , राम कुंड , लक्षमण कुंड , तपोवन , हनुमानजी की , गोदावरी नदी एवं कपिला नदी संगम , गोदावरी घाट, सीता गुफा , लक्षमण द्वारा खिंची गयी लक्ष्मण रेखा , सूर्पनखा का नाक कान काटने का स्थल , माता सीता को भगवानराम द्वारा ब्रह्मा जी , भगवान शिव के समक्ष अग्नि को समर्पित स्थल , पांच बरगद का वृक्ष , नाशिक गुफाएँ , त्रिरश्मी लेणी , नीलकंठेश्वर मंदिर , कालाराम मन्दिर है ।  निर्देशांक: 20°00′N 73°47′E / 20.00°N 73.78°E पर अवस्थित समुद्र तल से 1916 फिट , 584 मीटर की ऊँचाई पर नाशिक ज़िला का क्षेत्रफल 267 किमी2 (103 वर्गमील) में 2011 जनगणना के अनुसार 14,86,973 आवादी है। सातवाहन वंश के राजाओं की राजधानी नाशिक  थी। मुगल काल में  नासिक को गुलशनबाद के नाम से जाना जाता था। कुंभ मेला - नाशिक में लगने वाला कुंभ मेला को सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है ।  पंचांग के अनुसार जब भगवान  सूर्य जब सिंह राशि में होने पर नाशिक में सिंहस्थ व कुम्भ मेला होता है। गोदावरी नदी में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि और पापों से मुक्ति मिलती है। गोदावरी नदी में निर्मित राम कुंड में स्नान , ध्यान एवं श्रद्धालुओं अपने पूर्वजों को जलांजलि एवं पिंड अर्पित करते हैं। पंचवटी नाशिक के उत्तरी भाग में पाँच वट वृक्ष से युक्त पंचवटी में त्रेतायुग में  भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के साथ  रहे थे।  पंचवटी में सीता गुफा में माता सीता , भगवान राम , शेषावतार लक्ष्मण की मूर्ति स्थापित है।    पंचवटी में जिस स्थान  से माता  सीता का अपहरण राक्षस राज रावण द्वारा  पांच बरगद के पेडों के समीप से किया गया था ।  सीता गुफा   में प्रवेश करने के लिए संकरी सीढ़ियों से गुजरना पड़ता है। सुंदरनारायण मंदिर नाशिक में अहिल्याबाई होल्कर सेतु के किनारे सुंदरनारायण मंदिर की  स्थापना गंगाधर यशवंत चंद्रचूड ने 1756 ई. में की थी।  सुंदरनारायण मंदिर में भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। मोदाकेश्वर गणेश मंदिर के गर्भगृह में स्थित  में स्थित  स्वयं  धरती से निकली गणेश जी की मूर्ति स्थापित  है । मंदिर में स्थापित मूर्ति शम्भु के नाम से जाना जाता है। नारियल और गुड़ को मिलाकर निर्मित मोदक भगवान गणेश का प्रिय व्यंजन है। रामकुंड गोदावरी नदी पर स्थित रामकुंड तीर्थयात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। श्रद्धालु स्नान के लिए आते हैं। अस्थि विसर्जन के लिये  कुंड पवित्र स्थान माना जाता है। त्रेतायुग में भगवान श्री राम गोदावरी नदी में स्नान किया था। नाशिक का  पंचवटी स्थित हेमादम्पति शैली में काले पाषाण से कालाराम मंदिर का निर्माण गोपिकाबाई पेशवा ने 1794 ई.  में करवाया था।  नाशिक से 6 किमी की दूरी  गंगापुर रोड के किनारे स्थित सोमेश्वर  मंदिरके गर्भगृह में महादेव सोमेश्‍वर की प्रतिमा स्थापित है। त्रयंकेश्वर क्षेत्र में  मनसा मंन्दिर में माता मनसा स्थापित है ।
  भारतीय संस्कृति और पुरणों के अनुसार त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन और महामृत्जुंजय की उपासना का महत्वपुर्ण उल्लेख है  । शिव पुराण के कोटि रुद्रसंहिता का अध्याय 24 , 25 , 26  के अनुसार ऋषि गौतम और अहिल्या के तप करने के कारण भगवान शिव  , ब्रह्मा और विष्णु के रूप में त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग स्थापित हुए थे । ऋषि गौतम द्वारा अपने ऊपर दुष्टों द्वारा लगाए गए मिथ्या दोष गौ हत्या के प्रयाश्चित करने के लिये ब्रह्मगिरि की 101 बार परिक्रमा , 03 बार पृथिवी की परिक्रमा , एक करोड़ पार्थिव लिंग की पूजा तथा 11 बार गंगा जल से स्नान कर भगवान शिव की आराधना की थी ।पत्नी अहिल्या सहित ऋषि गौतम की उपासना से संतुष्ट हो कर भगवान शिव और शिव ऋषि गौतम दर्शन , गोदावरी गंगा का प्रकट जिसे गौतमी गंगा  , वृस्पति के सिह राशि आर् गोदावरी का प्रकट होने और भगवान शिव का त्रयम्बक शिवलिंग के रूप में प्रकट हो कर आशीर्वचन प्राप्त किये थे । महाराष्ट्र राज्य का  नासिक जिले में त्रयंबक के ब्रह्मगिरि से उद्गम गोदावरी नदी के किनारे त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित  हैं। यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। गौतम ऋषि तथा गोदावरी के उपासना से प्रसन्न हो कर गौतम ऋषि तथा गोदावरी की उपासना स्थल पर भगवान शिव निवास  करने के कारण  त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग से विख्यात हुए है । त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के गर्भगृह   में  ब्रह्मा, विष्णु और शिव लिंग के रूप में  त्रिदेव   हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मगिरि पर्वत पर जाने के लिये सात सौ सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद 'रामकुण्ड' और 'लक्षमण कुण्ड' मिलने के बाद और ब्रह्मगिरि शिखर के ऊपर  गोमुख से प्रवाहित होने वाली भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं। त्र्यंबकेश्‍वर ज्योर्तिलिंग मंदिर  में ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश तीनों विराजित होने के कारण ज्‍योतिर्लिंग की सबसे बड़ी विशेषता है। गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्‍वर मंदिर काले पत्‍थरों से निर्मित होने के कारण मंदिर की  स्‍थापत्‍य अद्भुत है। मंदिर के पंचक्रोशी में कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्‍न होती है।  प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण नाना साहब पेशवा द्वारा  1755 में प्रारम्भ किया गया और 1786 में पूर्ण किया गया था । त्र्यंबकेश्वर मंदिर की भव्य इमारत सिंधु-आर्य शैली का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रवेश करने के बाद शिवलिंग की केवल आर्घा दिखाई देती है, लिंग नहीं। गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। इन लिंगों को त्रिदेव- ब्रह्मा-विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है। भोर के समय होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है। त्रयंबकेश्वर मंदिर और गाँव ब्रह्मगिरि नामक पहाड़ी की तलहटी में स्थित है। ब्रह्मगिरि  को शिव का साक्षात रूप माना जाता है। ब्रह्म गिरि  पर्वत पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गमस्थल है। 
   त्रयम्बक में  अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर शिव से गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान माँगने के  फलस्वरूप दक्षिण की गंगा  गोदावरी नदी का उद्गम हुआ। गोदावरी के उद्गम के साथ गौतम ऋषि के अनुनय-विनय के उपरांत शिवजी ने  मंदिर में विराजमान होना स्वीकार कर लिया। तीन नेत्रों वाले शिवशंभु के त्रयम्बक स्थल पर विराजमान होने के कारण गौतम ऋषि की तपोभूमि को त्र्यंबक (तीन नेत्रों वाले) कहा जाने लगा है । त्र्यम्बक  का राजा भगवान त्र्यम्बकेश्वर  है । प्रत्येक सोमवार को त्रयम्बक का राजा भगवान  त्र्यंबकेश्वर  अपनी प्रजा तथा भक्तों  की रक्षा करते  हैं। महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो गईं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का अपमान करने के लिए प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त भगवान्‌ श्रीगणेशजी की आराधना की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर  गणेशजी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा उन ब्राह्मणों ने कहा- 'प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं । किसी प्रकार ऋषि गौतम को आश्रम से बाहर निकाल दें।' उनकी यह बात सुनकर गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर न माँगने के लिए समझाया। किंतु वे अपने आग्रह पर अटल रहे।अंततः गणेशजी को विवश होकर उनकी बात माननी पड़ी। अपने भक्तों का मन रखने के लिए वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत में जाकर रहने लगे। गाय को फसल चरते देखकर ऋषि बड़ी नरमी के साथ हाथ में तृण लेकर उसे हाँकने के लिए लपके। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मचा। सारे ब्राह्मण एकत्र होकर  गो-हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्यचकित और दुःखी थे। अब उन सारे ब्राह्मणों ने कहा कि तुम्हें यह आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाना चाहिए। गो-हत्यारे के निकट रहने से हमें भी पाप लगेगा। विवश होकर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे। किंतु उन ब्राह्मणों ने वहाँ भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे- 'गो-हत्या के कारण तुम्हें अब वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया।' अत्यंत अनुनय भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि आप लोग मेरे प्रायश्चित और उद्धार का कोई उपाय बताएँ।तब उन्होंने कहा- 'गौतम! तुम अपने पाप को सर्वत्र सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। इसके बाद 'ब्रह्मगिरी' की 101 परिक्रमा करने के बाद तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके एक करोड़ पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरि की 11 बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा।
स्मृति  ग्रंथों के अनुसार  महर्षि गौतम वे सारे कार्य पूरे करके पत्नी के साथ पूर्णतः तल्लीन होकर भगवान शिव की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न हो भगवान शिव ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा। महर्षि गौतम ने उनसे कहा- 'भगवान्‌ मैं यही चाहता हूँ कि आप मुझे गो-हत्या के पाप से मुक्त कर दें।' भगवान्‌ शिव ने कहा- 'गौतम ! तुम सर्वथा निष्पाप हो। गो-हत्या का अपराध तुम पर छल पूर्वक लगाया गया था। छल पूर्वक ऐसा करवाने वाले तुम्हारे आश्रम के ब्राह्मणों को मैं दण्ड देना चाहता हूँ।'इस पर महर्षि गौतम ने कहा कि प्रभु! उन्हीं के निमित्त से तो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। अब उन्हें मेरा परमहित समझकर उन पर आप क्रोध न करें।' बहुत से ऋषियों, मुनियों और देव गणों ने वहाँ एकत्र हो गौतम की बात का अनुमोदन करते हुए भगवान्‌ शिव से सदा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात मानकर वहाँ त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतमजी द्वारा लाई गई गंगाजी भी वहाँ पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगीं। यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है।इस भ्रमण के समय त्र्यंबकेश्वर महाराज के पंचमुखी सोने के मुखौटे को पालकी में बैठाकर गाँव में घुमाया जाता है। फिर कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान कराया जाता है। इसके बाद मुखौटे को वापस मंदिर में लाकर हीरेजड़ित स्वर्ण मुकुट पहनाया जाता है। यह पूरा दृश्य त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक-सा महसूस होता है। इस यात्रा को देखना बेहद अलौकिक अनुभव है।‘कुशावर्त तीर्थ की जन्मकथा काफी रोचक है। कहते हैं ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाती थी। गोदावरी के पलायन को रोकने के लिए गौतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंधन में बाँध दिया। उसके बाद से ही इस कुंड में हमेशा लबालब पानी रहता है। इस कुंड को ही कुशावर्त तीर्थ के नाम से जाना जाता है। कुंभ स्नान के समय शैव अखाड़े इसी कुंड में शाही स्नान करते हैं।’शिवरात्रि और सावन सोमवार के दिन त्र्यंबकेश्वर मंदिर में भक्तों का ताँता लगा रहता है। भक्त भोर के समय स्नान करके अपने आराध्य के दर्शन करते हैं। यहाँ कालसर्प योग और नारायण नागबलि नामक खास पूजा-अर्चना होती है । श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग तीन छोटे-छोटे लिंग ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रतीक स्वरूप, त्रि-नेत्रों वाले भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रायः शिवलिंग दिखाई नहीं देता है, गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। सुवह होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है।त्र्यंबकेश्वर मंदिर का निर्माण पेशवा बालाजी बाजीराव तृतीय ने पुराने मंदिर स्थल पर ही करवाया था। मंदिर का निर्माण कार्य 1755 में प्रारंभ होकर 31 साल के लंबे समय के बाद सन् 1786 में पूर्ण हुआ। त्र्यंबकेश्वर मंदिर तीन पहाड़ियों ब्रह्मगिरी, नीलगिरि और कालगिरि के बीच स्थित है। त्रंबकेश्वर को सोमवार को चाँदी के पंचमुखी मुकुट को पालकी में बैठाकर गाँव में प्रजा का हाल जानने हेतु भ्रमण कराया जाता है।  कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान के उपरांत वापस मंदिर में शिवलिंग पर पहनाया जाता है। त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक  है, तथा इस अलौकिक यात्रा में सामिल होना अत्यंत सुखद अनुभव है।कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि पूजन केवल श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग पर ही संपन्‍न किया जाता है। मंदिर के गर्भ-ग्रह में स्त्रियों का प्रवेश पूर्णतया वर्जित है। शिव ज्योतिर्लिंग!शिवरात्रि / त्रयोदशी सावन के सोमवारश्री रुद्राष्टकम्  ,  श्री गोस्वामितुलसीदासकृतं शिव आरती श्री शिव चालीसा , महामृत्युंजय मंत्र, संजीवनी मंत्र मंदिर में निरंतर होते है । स्वयंभू द्वारा  सतयुग में त्र्यम्बकेश्वर की स्थापना कर भगवान शिव को समर्पित किया था । त्रयम्बकेश्वर मंदिर का हेमाडपंती  शैली में निर्मित है। त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन तथा गोदावरी नदी में स्नान ,उपासना करने और गोदावरी के किनारे शयन करने से समस्त मनोकामना की पूर्ति , काल सर्प दोष , सभी ऋणों से मुक्ति तथा जीवन सुखमय होता है ।महामृत्युञ्जय मन्त्र - "मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र"  को  त्रयम्बकम मन्त्र  कहा जाता है, यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति हेतु की गयी एक वन्दना है। मन्त्र में शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' बताया गया है। यह गायत्री मन्त्र के समकक्ष सनातन धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मन्त्र है।भगवान शिव के तीन आँखों की ओर इशारा करते हुए त्रयंबकम मन्त्र और मृत-संजीवनी मन्त्र के रूप में जाना जाता है । कठोर तपस्या पूरी करने के बाद ऋषि शुक्र को प्रदान की गई है। ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मन्त्र को वेद का ह्रदय कहा है। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।है "त्रिनेत्रों वाला", रुद्र  ! तीनों कालों में हमारी रक्षा करने वाले भगवान को हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय मीठी महक वाला,सुगन्धित एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की  सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन, सुख में) वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा माली की तरह तना मृत्यु से  हमें स्वतन्त्र करें, मुक्ति दें नहीं वंचित होएँ  अमरता, मोक्ष के आनन्द से परिपूर्ण करें । ऋषि मृकण्ड की तपस्या से मार्कण्डेय पुत्र हुआ।  ज्योतिर्विदों ने मार्कण्डेय  शिशु के लक्षण देखकर ऋषि के हर्ष को चिंता में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने कहा यह बालक अल्पायु और बारह वर्ष है। मृकण्ड ऋषि ने अपनी पत्नी को आश्वत किया-देवी, चिंता मत करो। विधाता जीव के कर्मानुसार  आयु दे सकते हैं । भाग्यलिपि को स्वेच्छानुसार परिवर्तित कर देना भगवान शिव के लिए विनोद मात्र है। ऋषि मृकण्ड के पुत्र मार्कण्डेय का शैशव बीता और कुमारावस्था के प्रारम्भ में पिता ने उन्हें शिव मन्त्र की दीक्षा तथा शिवार्चना की शिक्षा दी। पुत्र मार्कण्डेय  को उसका भविष्य बता कर समझा दिया कि त्रिपुरारी  उसे मृत्यु से बचा सकते हैं। माता-पिता दिन गिन रहे थे।  मार्कंडेय ऋषि ने मृत्युंजय मन्त्र त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धन्म। उर्वारुकमिव बन्धनामृत्येर्मुक्षीय मामृतात्॥ से भगवान शिव की उपासना की थी । काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। यमराज के दूत समय पर आए और संयमनी लौट गए।  यमदूतों ने अपने स्वामी यमराज से जाकर निवेदन किया- हम मार्कण्डेय तक पहुँचने का साहस नहीं पाए। इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड को पुत्र को मैं स्वयं लाऊँगा। दण्डधर यमराज जी महिषारूढ़ हुए और क्षण भर में मार्कण्डेय के पास पहुँच गये। बालक मार्कण्डेय ने उन कज्जल कृष्ण, रक्तनेत्र पाशधारी को देखा  सम्मुख की लिंगमूर्ति से लिपट गया। अद्भुत अपूर्व हुँकार और मन्दिर, दिशाएँ जैसे प्रचण्ड प्रकाश से चकाचौंथ हो गईं। शिवलिंग से तेजोमय त्रिनेत्र चन्द्रशेखर प्रकट हो गए और उन्होंने त्रिशूल उठाकर यमराज से बोले, हे! यमराज तुमने मेरे आश्रित पर पाश उठाने का साहस कैसे किया है  ? यमराज ने उससे पूर्व ही हाथ जोड़कर मस्तक झुका लिया था और कहा कि हे! त्रिनेत्र मैं आपका सेवक हूँ। कर्मानुसार जीव को इस लोक से ले जाने का निष्ठुर कार्य प्रभु ने इस सेवक को दिया है। भगवान चन्द्रशेखर ने कहा कि यह संयमनी नहीं जाएगा। इसे मैंने अमरत्व दिया है। मृत्युंजय प्रभु की आज्ञा को यमराज अस्वीकार कैसे कर सकते थे? यमराज खाली हाथ लौट गए। मार्कण्डेय ने यह देख कर भोलेनाथ को सिर झुकाए और उनकी स्तुति करने लगे। उर्वारुमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। वृन्तच्युत खरबूजे के समान मृत्यु के बन्धन से छुड़ाकर मुझे अमृतत्व प्रदान करें। मन्त्र के द्वारा चाहा गया वरदान उस का सम्पूर्ण रूप से उसी समय मार्कण्डेय को प्राप्त हो गया। कलौकलिमल ध्वंयस सर्वपाप हरं शिवम्। येर्चयन्ति नरा नित्यं तेपिवन्द्या यथा शिवम्।। स्वयं यजनित चद्देव मुत्तेमा स्द्गरात्मवजै:। मध्यचमा ये भवेद मृत्यैतरधमा साधन क्रिया।।देव पूजा विहीनो य: स नरा नरकं व्रजेत। यदा कथंचिद् देवार्चा विधेया श्रध्दायान्वित।। जन्मचतारात्र्यौ रगोन्मृदत्युतच्चैरव विनाशयेत्।


                 



                   

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