अरवल: प्राचीनता और आधुनिकता का संगम
सत्येन्द्र कुमार पाठक
बिहार के मगध क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, अरवल, सिर्फ एक जिला नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास, साहित्य और संस्कृति का एक जीवंत दस्तावेज है। 20 अगस्त 2001 को जहानाबाद से अलग होकर गठित हुआ यह जिला अपने भीतर प्राचीन सभ्यताओं की कहानियाँ और आधुनिकता की झलकियाँ दोनों समेटे हुए है। 637 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला यह भू-भाग 25:00 से 25:15 उत्तरी अक्षांश और 84:70 से 85:15 पूर्वी देशांतर पर स्थित है, जो पटना से 65 किलोमीटर और जहानाबाद से 35 किलोमीटर की दूरी पर है। यह आलेख अरवल के समृद्ध अतीत, धार्मिक विरासत, साहित्यिक योगदान, और आधुनिक विकास के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है।
अरवल की भूमि ने कई महान साहित्यकारों को जन्म दिया है, जिन्होंने मगही और हिंदी भाषाओं को समृद्ध किया। इस क्षेत्र का साहित्यिक इतिहास हर्षवर्धन के शासनकाल से जुड़ा है, जब संस्कृत के प्रसिद्ध गद्य लेखक बाण भट्ट (606 ई.) का संबंध यहाँ से था। उनकी अमर कृतियाँ, कादंबरी और हर्ष चरित, आज भी भारतीय साहित्य की धरोहर हैं। बाद के समय में, 1844 ई. में डिंगल भाषा के पंडित कमलेश की "कमलेश विलास" ने अरवल के साहित्यिक परिदृश्य को और भी समृद्ध किया।
19वीं सदी के अंत में, भाषाविद सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने 1894 से 1923 के सर्वेक्षण में मगही को बिहारी भाषाओं में एक प्रमुख स्थान दिया। स्वतंत्रता के बाद भी, यहाँ के साहित्यकारों ने इस परंपरा को जारी रखा। बेलखर के गंगा महाराज, आकोपुर के रामनरेश वर्मा, और बासताड़ के श्रीमोहन मिश्र ने संस्कृत और मगही के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वहीं, फखरपुर के देवदत्त मिधर और तारादत्त मिश्र ने संस्कृत में कृष्ण भक्ति पर उत्कृष्ट रचनाएँ कीं। आधुनिक काल में, करपी के सत्येन्द्र कुमार पाठक ने 1981 में "मगध ज्योति" नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू कर पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नई अलख जगाई।
अरवल की भूमि शैव, शाक्त, सौर, और वैष्णव जैसे विभिन्न धर्मों का संगम रही है। इन धर्मों के प्रमाण यहाँ के प्राचीन मंदिरों और पुरातात्विक स्थलों में स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। करपी का जगदम्बा स्थान इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है। यहाँ स्थापित माता जगदम्बा, शिव-पार्वती विहार, शिवलिंग और चतुर्भुज भगवान की मूर्तियाँ महाभारत कालीन मानी जाती हैं। किंवदंतियों के अनुसार, कारूष प्रदेश के राजा करूष ने कारूषी नगर की स्थापना की थी, जो बाद में शाक्त धर्म का एक प्रमुख केंद्र बना। यहाँ तक कि दिव्य ज्ञान योगिनी कुरंगी भी तंत्र-मंत्र की उपासना के लिए इस स्थान का उपयोग करती थीं। इसी कारण इस क्षेत्र में कई मठों का निर्माण हुआ, जिन्हें आज भी 'मठिया' के नाम से जाना जाता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना (1861) के बाद, करपी गढ़ की खुदाई में भूगर्भ में समाहित हो चुकी कई प्राचीन मूर्तियाँ बाहर निकाली गईं, जिन्हें बाद में करपी के निवासियों को समर्पित कर दिया गया। इन पुरातात्विक साक्ष्यों ने इस क्षेत्र की ऐतिहासिक महत्ता को और पुष्ट किया है। धार्मिक स्थलों की बात करें तो, मदसरवा (मधुश्रवा) का च्यवनेश्वर शिवलिंग, जिसे ऋषि च्यवन ने स्थापित किया था, और वधुश्रवा ऋषि द्वारा स्थापित वधुसरोवर यहाँ की आध्यात्मिक गहराई को दर्शाते हैं। इसके अलावा, पुनपुन नदी के तट पर स्थित कुरुवंशियों द्वारा स्थापित शिवलिंग, किंजर और लारी के शिवलिंग, और रामपुर चाय का पंचलिंगी शिवलिंग शैव धर्म की व्यापकता को प्रमाणित करते हैं। खटांगी और पंतित के सूर्य मंदिर सौर धर्म के अनुयायियों के लिए आस्था के केंद्र हैं, जहाँ भगवान सूर्य की प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं। अरवल का इतिहास केवल धार्मिक और साहित्यिक गतिविधियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों का भी गवाह रहा है। 1840 ई. में, स्पेनिश व्यापारी डॉन रांफैल सोलानो ने यहाँ इंडिगो (नील) फैक्ट्री की स्थापना की, जिसका मुख्यालय अरवल में था। यह फैक्ट्री व्यापार और उत्पादन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गई थी। 1906 में अरवल यूनियन बोर्ड का गठन हुआ, जिसने 46 वर्गमील में फैले 180 गाँवों की सुरक्षा और विकास की जिम्मेदारी संभाली। स्वतंत्रता संग्राम में भी अरवल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मझियवां के किसान नेता पंडित यदुनंदन शर्मा ने किसान आंदोलन का नेतृत्व किया और "चिंगारी" और "लंकादहन" जैसे पत्रों का प्रकाशन कर लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाई। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में खाभैनी के जीवधर सिंह का योगदान भी अविस्मरणीय है।
आध्यात्मिक और सामाजिक सौहार्द की मिसाल पेश करते हुए, सूफी संत शमसुद्दीन अहमद उर्फ शाह सुफैद सम्मन पिया अर्वली की मजार यहाँ सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक है। 695 हिजरी संवत में अफगानिस्तान के कंतुर से आए इस संत की मजार सोन नदी के तट पर स्थित है, जहाँ सभी धर्मों के लोग श्रद्धा से आते हैं।
अरवल का कुल क्षेत्रफल 637 वर्ग किलोमीटर है। 2001 में स्थापित इस जिले की प्रमुख भाषाएँ मगही और हिंदी हैं। यहाँ की साक्षरता दर 56.85 प्रतिशत है। जिले में पाँच प्रखंड (अरवल, कुर्था, कलेर, करपी, और सोनभद्र बंशी सूर्यपुर) और 65 पंचायतें हैं। 118222 मकानों में 648994 ग्रामीण और 51859 शहरी आबादी निवास करती है।
कृषि यहाँ का मुख्य पेशा है। कुल 49520.40 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से 33082.83 हेक्टेयर सिंचित है। सोन और पुनपुन नदियाँ यहाँ की कृषि के लिए जीवनदायिनी हैं। इन नदियों के अलावा, वैदिक काल की हिरण्यबाहू नदी के अवशेष भी यहाँ बहते हैं। चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में भी विकास हुआ है। अरवल और कुर्था विधानसभा क्षेत्रों में 21 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 21 अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और एक सदर अस्पताल है। शिक्षा के लिए गांधी पुस्तकालय (1934) और पंडित नेहरू पुस्तकालय जैसे संस्थान स्थापित हैं। अरवल एक ऐसा स्थान है जहाँ इतिहास की परतें वर्तमान से मिलती हैं। प्राचीन मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गई कहानियाँ, साहित्यिक कृतियों में छिपा हुआ ज्ञान, और स्वतंत्रता संग्राम की लपटें—ये सब मिलकर इस जिले की अनूठी पहचान बनाते हैं। सत्येन्द्र कुमार पाठक, थॉर्नटोन्स गज़ेटियर, और ओ'मॉली जैसे इतिहासकारों और लेखकों के कार्यों में अरवल के प्राचीन गौरव की महत्वपूर्ण चर्चा मिलती है। यहाँ की भूमि पर द्वापर युग के ऋषि च्यवन, मधु, और यक्ष जैसे शासकों का कर्म और जन्म स्थल रहा है। दैत्यराज पुलोमा ने अपने नाम पर पुलोम राजधानी (वर्तमान बड़कागाँव) की स्थापना की थी, जो इस क्षेत्र के गहरे ऐतिहासिक संबंधों को दर्शाती है।
अरवल सिर्फ एक जिला नहीं, बल्कि एक विरासत है—एक ऐसी विरासत जो अपने अतीत का सम्मान करते हुए भविष्य की ओर अग्रसर है। यहाँ का हर कंकड़, हर मंदिर और हर कहानी इस बात का गवाह है कि अरवल सचमुच भारतीय संस्कृति और सभ्यता की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
करपी , अरवल , बिहार 804419
9472987491
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