शनिवार, फ़रवरी 04, 2023

उज्जैन की सांस्कृतिक विरासत...


स्मृति ग्रंथो एवं इतिहास के पन्नों में मध्यप्रदेश का उज्जैन का उल्लेख मिलता है।  उत्तर भारत और डेक्कन के मध्य  मुख्य व्यापार मार्ग पर उजैन था ।   उज्जैन से मथुरा  के माध्यम से नर्मदा में महिष्ती (महेश्वर) के लिए और गोदावरी, पश्चिमी एशिया और पश्चिम में पैठान तक था। यूनानी व्यापारी  पहली सदी ई. में भारत के लिए यात्रा किया था। बैरीगाजा (ब्रोच) के पूर्व ओज़िन की पेरिप्लस  ओयिन, चीनी मिट्टी के बरतन, ठीक मस्लून और सामान्य कॉटनस, स्पाइकनार्ड, कॉस्टस बॉडेलियम बंदरगाहोंऔर उज्जैन  में व्यापार करने के लिए केंद्र प्रारम्भ था। परमारों के 10 वीं शताब्दी में  एपिग्राफिक रिकॉर्ड, हरसोल ग्रंथ, अनुसार परमरा वंश के राजाएं दक्कन में राष्ट्रकुटस के परिवार में पैदा हुए थे । मालवा के प्रारंभिक परंपरा राष्ट्रकूट के वासल्स उदयपुर प्रसाद, वैक्तिपति प्रथम अवंती के राजा थे । अवंति देश की राजधानी उज्जैन थी । राष्ट्रकूट इंद्र तृतीय, प्रतिहार महापाल प्रथम  के खिलाफ अपनी सेना के साथ आगे बढ़ते समय उज्जैन में रुका था। मालावा वक्षपति के उत्तराधिकारी वैरीसिंह काल में  महिपाल द्वितीय  की आक्रमणकारी सेनाओं को, वैरीसिह ने राष्ट्रकूट के साम्राज्य पर हमला करके इंद्र तृतीय ने  हार का बदला लिया था । महापाल और  कालाछुरी संघीय बांधददेव ने नर्मदा के किनारे तक उज्जैन और धार सहित क्षेत्र को जीत लिया था ।  मालवा का परमार की संप्रभुता  946 ई. में समाप्त होने पर वेरिसिह  द्वितीय संप्रभुता  प्रभावशाली रहा था । मालवा राजा वेरी सिह के पुत्र सियाका द्वितीय के शासनकाल में  मालवा में स्वतंत्र परमरा शासन प्रारंभ था । मालवा की  राजधानी उज्जैन में महाकाल वाना के क्षेत्र में स्थानांतरित किया गया था। परामारों को उज्जैन में 9 वीं से 12वी शदी  पहचान लिया गया था। विक्रमादित्य द्वारा परमार की परंपरा  में बदल दिया। उज्जैन के राजा परमारा शासक सिलदादित्य को मण्डू के सुल्तानों द्वारा उज्जैन पर अधिकार किया गया था ।   इल्तुतमिश द्वारा 1234 ई. में उज्जैन के आक्रमण ने मंदिरों को बर्बाद कर दिया। मंडू के बाज बहादुर काल में  मुगल शासन के सम्राट अकबर ने मालवा पर बाज बहादुर के आधिपत्य का अंत किया और उज्जैन की रक्षा के लिए  शहर की दीवार बनाई। उज्जैन शहर में नादी दरवाजा, कालीदेव दरवाजा, सती दरवाजा, देवास दरवाजा और इंदौर दरवाजा प्रवेश द्वार थे। उज्जैन के समीप 1658 ई. के युद्ध में औरंगजेब और मुराद ने जोधपुर के महाराज जसवंत सिंह को हराया, था ।  राजकुमार दारा की ओर से यशवंत सिंह  लड़ रहे थे। औरंगजेब द्वारा फतेहाबाद का नाम बदला गया है। रतलाम के राजा रतन सिंह का शिरोमणि, जो युद्ध में गिर गया, अभी भी साइट पर खड़ा है।महमूद शाह के शासनकाल में, महाराजा सवाई जय सिंह को खगोल विज्ञान के एक महान विद्वान, माल्वा के गवर्नर बनाया गया था, उन्होंने उज्जैन में वेधशाला का पुनर्निर्माण किया और कई मंदिरों का निर्माण किया। प्रथम शताब्दी ई.पू. भील राज गर्दभिल अंगुत्तर निकाय के अनुसार 6 ठीं शताब्दी ई.पू. मालवा की राजधानी थी । मगध साम्राज्य का हर्यक वंशीय राजा विम्बिसार का पौत्र अजातशत्रु का पुत्र उदयन का साम्राज्य 461 ई.पू. अवंति तक फैला था । मगध साम्राज्य का राजा उदयन काल में अवंति को उज्जैन कहा गया था । 
17 वीं शताब्दी की शुरुआत में, उज्जैन और माल्वा मराठों के हाथों में एक और समय की जब्ती और आक्रमण के माध्यम से चले गए, जिन्होंने धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। मालवा के मराठा वर्चस्व इस क्षेत्र में एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए गति प्रदान करता है और आधुनिक उज्जैन अस्तित्व में आया। इस अवधि के दौरान उज्जैन के अधिकांश मंदिरों का निर्माण किया गया था।इस समय के दौरान उज्जैन पूना और कांगड़ा शैली के चित्रकारों की बैठक का मैदान बन गया। पेंटिंग की दो अलग-अलग शैलियों का प्रभाव विशिष्ट है। मराठा शैली के उदाहरण राम जनार्दन, काल भैरव, कल्पेश्वर और तिलकेश्वर के मंदिरों में पाए जाते हैं जबकि पारंपरिक मालवा शैली को संदीपनी आश्रम में देखा जा सकता है और स्थानीय शेठों के कई बड़े घरों में देखा जा सकता है।मराठा काल में, लकड़ी के काम की कला भी विकसित हुई। दीर्घाओं और बालकनियों पर लकड़ी की नक्काशी की गई थी लेकिन कई उत्कृष्ट उदाहरणों को या तो कबाड़ या नष्ट कर दिया गया है।उज्जैन अंततः 1750 में सिंधियों के हाथों में और 1810 तक जब दौलत राव सिंधिया ने ग्वालियर में अपनी नईराजधानी स्थापित की, तब वह अपने प्रभुत्व का प्रमुख शहर था। 269 ई. पू. मगध साम्राज्य का मौर्य वंशीय अशोक उज्जैन का कुमार अर्थात राज्यपाल था । उज्जैन का राजा विक्रमादित्य 58 ई. पू .थे । मालवा प्रदेश की राजधानी उज्जैन का शासक बाजबहादुर थे । उज्जैन राजधानी को ग्वालियर स्थानांतरित हुई थी।  स्कंद पुराण के अवंति-महात्म्य के अनुसार अवंति  में सूर्य मंदिर और सूर्य कुंड और ब्रह्म कुंड का वर्णन किया गया है। शैववाद, सौरवाद , शाक्तवाद ,  वैष्णववाद , नाथ सम्प्रदा,  जैन धर्म और बौद्ध धर्म, कैथोलिक स्थित  है। स्कंद पुराण के अवंति खंड में शक्ति के विभिन्न रूपों के लिए अनगिनत मंदिरों , सिद्ध और नाथ पंथ ,  तांत्रिकों का स्थान  थे । उज्जैन में महाकालेश्वर की मूर्ति दक्षिणमुखी होने के कारण दक्षिणामूर्ति मानी जाती है। तांत्रशास्त्र  के अनुसार महाकाल मंदिर के ऊपर गर्भगृह में ओंकारेश्वर शिव की मूर्ति प्रतिष्ठित है। गर्भगृह के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में गणेश, पार्वती और कार्तिकेय के मूर्ति , दक्षिण में नंदी की प्रतिमा , तीसरी मंजिल पर नागचंद्रेश्वर की मूर्ति दर्शनीय है । महाकालेश्वर , काल भैरव मंदिर , शिप्रा नदी का रामघाट ,  कालियादेह ,हरसिद्धि मंदिर ,पीर मत्स्येन्द्रनाथ , इस्कॉन मंदिर ,भर्तृहरि गुफा ,भारत माता मंदिर ,मंगलनाथ मंदिर ,संदीपनी आश्रम ,चिंतामन गणेश मंदिर, चौबीस खंभा मंदिर , गोपाल मंदिर उज्जैन का प्रसिध्द एवं दर्शनीय स्थल है । मंगलनाथ मंदिर , शिप्रा नदी के तट पर स्थित संदीपनी  आश्रम में द्वापरयुग में  भगवान श्रीकृष्ण , बलराम और मित्र सुदामा के साथ मिकर गुरु संदीपनी से शिक्षा गृहण की थी ।  संदीपनी आश्रम की  पत्थर में 1 से लेकर 100 तक की संख्या उकेरी गई हैं । आश्रम के पास एक गोमती कुंड है । चिंतामन गणेश मंदिर उज्जैन - चिंतामणि गणेश मंदिर उज्जैन में भगवान गणेश मंदिर है । 11वीं और 12वीं शताब्दी में मालवा के परमारों का शासन काल में चिंतामणि गणेश मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ था ।  महाकालेश्वर से 6 किलोमीटर की दूरी पर भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में भगवान गणेश रूपों में  चिंतामण, इच्छामन और सिद्धिविनायक  की मूर्ति स्थापित की गई थी । चौबीस खंभा मंदिर - उज्जैन जंक्शन से 2 किमी की दूरी पर  उज्जैन में स्थित चौबीस खंबा मंदिर  है। महाकाल मंदिर के निकट 9वीं या 10वीं शताब्दी का चौबीस खम्बा दिर छोटी माता और बड़ी माता को समर्पित है । गोपाल मंदिर, उज्जैन - गोपाल मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है। गोपाल मंदिर का निर्माण  मराठा राजा दौलतराव शिंदे की पत्नी बयाजी बाई शिंदे ने 19वीं सदी में करवाया था। मराठा वास्तुकला से युक्त गोपाल मंदिर में भगवान कृष्ण की दो फुट ऊंची चांदी की सोने की मूर्ति चांदी की परत वाले दरवाजों वाली संगमरमर की वेदी पर रखी गई है। गोपाल  मंदिर में भगवान शिव, पार्वती और गरुड़ की मूर्तियां  हैं।
मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले का शिप्रा नदी के किनारे स्थित उज्जैन में महाकाल ज्योतिर्लिंग अवस्थित है। शिवपुराण कोटि रुद्र संहिता अध्याय 15, 16 और  17  , लिंगपुराण के अनुसार अवंति का राजा वेदप्रिय के पुत्र देव प्रिय , प्रियमेघा , सुकृत और सुव्रत भगवान शिव की उपासना से ब्रह्मतेज से परिपूर्ण थे । रत्नमाल पर्वत पर धर्मद्वेषी असुर दूषण  ने ब्रह्मा जी के वर प्राप्ति के बाद अवंति पर चढ़ाई कर ब्रह्मतेज से युक्त ब्राह्मण  के शासन क्षेत्र पर युद्ध किया था । वेदप्रिय पुत्रों द्वारा  पार्थिव शिवलिंग के स्थान में गड्ढे से  प्रकट होने के बाद गड्ढे से विकट रूपधारी भगवान शिव प्रगट होकर दुष्ट असुरों एवं असुर दूषण को भस्म किया था । असुरों को भस्म कर ब्राह्मण वेदप्रिय के पुत्रों की रक्षा की थी । भगवान शिव की महाकाल के रूप में ब्राह्मण द्विजों से वर मांगने के लिए कहा । ब्राह्मण द्विजों ने कहा कि हे महाकाल , महादेव ! हमें जनसाधारण की रक्षा के लिए सदा अवंति में रहे और मानव का हमेशा उद्धार करें।   भगवान शिव अपने भक्तों की रक्षा के लिए महाकाल ज्योतिर्लिंग के रूप में गड्ढे में स्थित हो गए । वे ब्राह्मण पुत्र मोक्ष प्राप्ति हुई तथा एक वर्ग कोस  भूमि भगवान शिव की भूमि बन गयी । शिव भूतल पर महाकालेश्वर के नाम से विख्यात हो गए । महाकाल के दर्शन करने से स्वप्न में दुःख नही होते और सर्वार्थ सिद्धि मनोकामनाएं प्राप्त होती है । असुरों का भस्म होने पर अवनति का राजा भगवान महाकाल के रूप में स्थापित है । अवंति नगर  में शुभ कर्म परायण , वेदों के स्वाध्याय में संलग्न और वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में तत्पर रहने वाले और अग्निहोत्र करने वाले ब्राह्मण वेदप्रिय के पुत्र शिव पूजा परायण देवप्रिय , प्रियमेघा ,  सुकृत और सुव्रत द्वारा भगवान शिव की पार्थिव लिंग की उपासना से अवंति नगरी ब्रह्मतेज से परिपूर्ण थी । ब्राह्मण पुत्रों द्वारा पूजित पार्थिव शिवलिंग के स्थान में बड़ी भारी आवाज के साथ गड्डा से विकट रूपधारी भगवान शिव प्रकट हो गए जिन्हें महाकाल कहा जाता है । महाकाल द्वारा ब्राह्मणों की रक्षा एवं असुरों को भस्म कर अवंति नगर की सुरक्षा प्रदान की थी । उज्जैन का राजा चंद्रसेन काल में   भगवान शिव के पार्षदों के प्रधान मणिभद्र द्वारा राजा चन्द्रसेन को कौस्तुभमणि प्रदान किया गया था । उज्जैन नगर में विधवा ग्वालिन के पुत्र पांच वर्षीय पुत्र श्रीकर महाकाल का भक्त था । चंद्र सेन राजा द्वारा महाकाल का मंदिर का निर्माण कर उज्जैन नगर की सुरक्षा की थी ।  गोप वंशीय श्रीकर की 8 वीं पीढ़ी में द्वापर युग में नंद के पुत्र भगवान कृष्ण , बलराम , और ब्राह्मण पुत्र सुदामा की शिक्षा उज्जैन स्थित सांदीपनि ऋषि के यहां ग्रहण की थी । चन्द्रसेन राजा एवं गोपकुमार श्रीकर को अंजनी पुत्र हनुमान द्वारा शिव उपासना एवं महाकाल का उपासना , आचार व्यवहार का उपदेश  दिया गया । राजा चन्द्रसेन और श्रीकर बाबा महाकाल के महान उपासक थे । अवन्तिका, उज्जयनी, कनकश्रन्गा को उज्जैन  मंदिरों की नगरी है। उज्जैन में प्रथम शताब्दी में उज्जैन का राजा गर्दभिल्ल  था । पुराणों के उल्लेखानुसार पवित्रतम सप्तपुरियों में अवन्तिका अर्थात उज्जैन में 12 ज्योतिर्लिंगों में महाकाल ज्योतिर्लिंग  स्‍थित है ।  द्वापर युग में महाकाल मंदिर स्थापित हुआ था । गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। उज्जैन का राजा गंधर्व सेन की पत्नी  सौम्यदर्शना के पुत्र विक्रमादित्य और भतृहरि और पुत्री मैनावती थी । सौम्यदर्शना को वीरमती और मदनरेखा कहा गया है। मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित बाबा  महाकाल भगवान मंदिर है। मध्य प्रदेश का उज्जैन जिला  का मुख्यालय उज्जैन चम्बल नदी की सहायक उत्तरवाहिनी  शिप्रा नदी के किनारे वसा उज्जैन महाकाल एवं  धार्मिक नगर है। महाराजा विक्रमादित्य के शासन काल में उज्जैन राज्य की राजधानी उज्जैन थी।  उज्जैन में प्रत्येक 12 वर्ष के बाद 'सिंहस्थ कुंभ' का मेला लगता है। मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध नगर इन्दौर से 55 कि.मी. और बिहार के पटना से 1280 किमी की दूरी पर स्थित 2011 जनगणना के अनुसार 515215 आवादी वाला   उज्जैन को कुशस्थति , विशाला ,कुमुदवती ,अमरावती  भोगवती , 'अवन्तिका','अवंतिकापुरी ,पद्मावती ,प्रतिपाल उदायिनी , उदैनी ,  उज्जैनी , उज्जैयनी', 'कनकश्रन्गा' कहा गया है। उज्जैन में 4 थीं शताब्दी के खगोलीय ग्रंथ एवं सूर्य सिद्धांत  के अनुसार भौगोलिक रूप से सटीक स्थान पर स्थित है  जहाँ देशांतर का शून्य मध्यह्न रेखा और कर्क रेखा प्रतिच्छेद करती है । ज्योतिष शास्त्र एवं खगोलीय शास्त्र के अनुसार भारत का ग्रीनवीच और पृथिवी का नाभी उज्जैन का स्थल है। ब्रह्मपुराण ,अग्निपुराण ,गरुड़ पुराण, स्कन्द पुराण और रामायण , महाभारत में उज्जैन को मोक्षदा ,भक्ति और मुक्ति स्थल कहा गया है । त्रेता युग में भगवान राम द्वारा अपने पिता दशरथ का अंतिम संस्कार शिप्रा नदी का रामघाट पर किया गया था । उज्जैन नगरी में 84 शिवलिंग , 64 योगनियाँ ,8 भैरव और 6 विनायक स्थापित है । यह कवि कालिदास , ज्योतिष और खगोलशास्त्र के ज्ञाता वराहमिहिर , बाणभट्ट ,राजशेखर ,पुष्पदंत ,शकराचार्य ,बल्लभाचार्य ,भतृहरि ,दिवाकर , कात्यायन , बाबा गोरखनाथ , नाथ सम्प्रदाय का स्थल तथा बौद्ध , जैन धर्म स्थली थी  ।
साहित्यकार व इतिहासकार सत्येंद्र कुमार पाठक ने 28 जनवरी 2023 एवं 29 जनवरी 2023 को उज्जैन की विभिन्न ऐतिहासिक एवं उज्जैन की सांस्कृतिक विरासत का परिभ्रमण किया ।  परिभ्रमण के दौरान विक्रम गढ़ पर विक्रमादित्य एवं विक्रमादित्य के नौ रत्न की मूर्तियां अतीत की यादगार बनाने में है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा महाकाललोक कॉरिडोर में भगवान शिव के विभिन्न रूपों एवं वैदिक ऋषियों , वेद रचनाकारों की मूर्ति स्थापित कर सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति का स्थान दिया गया है । भारत माता मंदिर के गर्भगृह में भारत माता की मूर्ति स्थापित है । उज्जैन का गढ़ क्षेत्र का उत्खनन से   ऐतिहासिक एवं प्रारंभिक लौह युगीन सामग्री अत्यधिक मात्रा में प्राप्त है। महाभारत व पुराणों के अनुसार  वृष्णि संघ के कृष्ण व बलराम उज्जैन में गुरु संदीपन के आश्रम में विद्या प्राप्त करने आये थे। कृष्ण की पत्नी मित्रवृन्दा उज्जैन की राजकुमारी के  भाई 'विन्द' एवं 'अनुविन्द' ने महाभारत के युद्ध में कौरवों की तरफ़ से युद्ध किया था। उज्जैन का प्रतापी राजा चंडप्रद्योत का शासन छठी सदी ई.पू.  में  था। उज्जैन राजा चंद्रप्रद्योत  की   पुत्री वासवदत्ता एवं वत्स राज्य के राजा उदयन की प्रेम कथा है। मगध साम्राज्य का राजा उदयन के  समय में उज्जैन मगध साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया था।उज्जैन राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में महाकवि कालिदास को उज्जयिनी अत्यधिक प्रिय थी। कालिदास ने अपने काव्य ग्रंथों में उज्जयिनी का अत्यधिक मनोरम और सुंदर वर्णन किया है। महाकवि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के आश्रय में रहकर काव्य रचना किया करते थे। । भगवान महाकाल की संध्या कालीन आरती को और क्षिप्रा नदी के पौराणिक और ऐतिहासिक महत्त्व से भली-भांति परिचित होकर उसका अत्यंत मनोरम वर्णन किया है । मेघदूत' में महाकवि कालिदास ने उज्जयिनी का बहुत ही सुंदर वर्णन करते हुए कहा है कि- "जब स्वर्गीय जीवों को अपना पुण्य क्षीण हो जाने पर पृथ्वी पर आना पड़ा, तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने साथ स्वर्ग भूमि का एक खंड ले चलते हैं। वही स्वर्ग खंड उज्जयिनी है।" 
600 ई.पू. अवंति जनपद उत्तरी भाग की राजधानी उज्जयिनी  तथा दक्षिण भाग की राजधानी 'महिष्मति' थी। अवंति उत्तरी भाग का राजा  चंद्रप्रद्योत  का  सिंहासन पर था।  प्रद्योत राजा के वंशजों का उज्जयिनी पर तीसरी शताब्दी तक शासन रहा था।मगध साम्राज्य का सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र अशोक उज्जयिनी का राज्यपाल  था। अशोक की  पत्नी देवी से पुत्र महेंद्र और 'पुत्री संघमित्रा' ने श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार व प्रसार किया था। मौर्य साम्राज्य के स्थापित होने पर मगध सम्राट बिन्दुसार का पुत्र अशोक उज्जयिनी का शासक नियुक्त हुआ था। बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अशोक ने उज्जयिनी का शासन प्रबन्ध अपने हाथों में सम्भालने के बाद  उज्जयिनी के सर्वांगीण विकास हुआ  था। 
मौर्य साम्राज्य के प्रसिद्ध शासक अशोक के बाद उज्जयिनी शकों और सातवाहनों की प्रतिस्पर्धा का मुख्य केंद्र बन गई। शकों के पहले आक्रमण को उज्जयिनी के वीर शासक विक्रमादित्य ने प्रथम सदी ईसा पूर्व विफल कर दिया था । विक्रमादित्य के बाद  शकों ने उज्जयिनी पर  अधिकार कर लिया। शक वंशीय राजा चस्तन व रुद्रदामन महाक्षत्रप  थे।
चौथी शताब्दी ई. में गुप्त और औलिकरों ने मालवा से शकों की शासन सत्ता समाप्त कर दी। शक और गुप्तों के काल में उज्जयिनी क्षेत्र का आर्थिक एवं औद्योगिक विकास हुआ। छठी से दसवीं सदी तक उज्जैन कलचुरियों, मैत्रकों, उत्तर गुप्तों, पुष्यभूतियों, चालुक्यों, राष्ट्रकूटों व प्रतिहारों की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र था । सातवीं शताब्दी में कन्नौज के राजा हर्षवर्धन ने उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिला कर उज्जयिनी का सर्वांगीण विकास किया था । सन 648 ई. में हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद नवीं शताब्दी तक उज्जैन परमार शासकों के आधिपत्य में शासन गयारहवीं शताब्दी तक रहा था ।परमार वंशीय राजाओं के बाद  उज्जैन पर चौहान और तोमर राजपूतों ने अधिकारों कर लिया। सन 1000 से 1300 ई. तक मालवा पर परमार राजाओं का शासन रहा और बहुत समय तक परमार राजाओं की राजधानी उज्जैन रही थी । परमार वंशीय राजाओं में  सीयक द्वितीय, मुंजदेव, भोजदेव, उदयादित्य, नरवर्मन शासकों ने साहित्य, कला एवं संस्कृति की उन्नति में सक्रिय थे । दिल्ली के दास एवं ख़िलजी वंश के शासकों ने मालवा पर आक्रमण से परमार वंश का पतन हो गया। सन 1235 ई. में दिल्ली का शासक शमशुद्दीन इल्तमिश विदिशा पर विजय प्राप्त करके उज्जैन की और आया और शमसुद्दीन इल्तुतमिश क्रूर शासक ने उज्जैन को बहुत बुरी तरह लूटा और प्राचीन मंदिरों एवं पवित्र धार्मिक स्थानों का वैभव  नष्ट कर दिया। सन 1406 में मालवा दिल्ली सल्तनत से आज़ाद हो गया।  अफ़ग़ान सुल्तान व खिलजी  स्वतंत्र रूप से राज्य करते रहे। मुग़ल सम्राट अकबर ने मालवा को अधिकार में करने के बाद  उज्जैन को प्रांतीय मुख्यालय बनाया था । मुग़ल बादशाह अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ व औरंगजेब ने उज्जैन पर शासन किया था । सन 1737 ई. में उज्जैन पर सिंधिया वंश का अधिकार हो गया। सन 1880 ई. तक उज्जैन पर  सिंधिया शासकों का राज्य की राजधानी उज्जैन में  रहने के दौरान  उज्जैन का विकास हुआ था । महाराज राणोजी सिंधिया ने 'महाकालेश्वर मंदिर' का जीर्णोद्धार कराया। सिंधिया वंश के संस्थापक शासक राणोजी शिंदे के मंत्री रामचंद्र शेणवी ने उज्जैन में स्थित महाकाल के मंदिर का निर्माण कराया। सन 1810 में सिंधिया शासक राज्य की राजधानी  उज्जैन से ग्वालियर में स्थापित किया था । उज्जयिनी में भगवान महाकालेश्वर मंदिर, चौबीस खंभा देवी, गोपाल मंदिर, काल भैरव, बोहरो का रोजा, विक्रांत भैरव, चौसठ योगिनियां, नगर कोट की रानी, हरसिद्धि माँ का मंदिर, गढ़कालिका देवी का मंदिर, मंगलनाथ का मंदिर, सिद्धवट, बिना नींव की मस्जिद, गज लक्ष्मी मंदिर, बृहस्पति मंदिर, नवग्रह मंदिर, भूखी माता, भर्तृहरि की गुफ़ा, पीर मछन्दरनाथ की समाधि, कालिया दह पैलेस, कोठी महल, घंटाघर, जन्तर मंतर महल, चिंतामणि गणेश , बड़ा गणेश जी , शिप्रा नदी का रामघाट आदि हैं।उज्जैन नगर विंध्य पर्वतमाला के पास और पवित्र क्षिप्रा नदी के किनारे समुद्र तल से 1678 फीट की ऊंचाई पर 23 डिग्री .50' उत्तर देशांश और 75 डिग्री .50' पूर्वी अक्षांश पर स्थित  है। महाकवि कालिदास और महान् रचनाकार बाणभट्ट ने नगर की ख़ूबसूरती को बहुत ही सुन्दर रूप से वर्णित किया है। महाकवि कालिदास लिखते है कि दुनिया के सारे रत्न उज्जैन में स्थित हैं और समुद्रों के पास केवल जल ही बचा है। उज्जैन नगर की भाषा  मालवी और हिंदी  है।क्षिप्रा नदी जब उफान पर आती है तो गोपाल मंदिर की देहरी को छू लेती है। दुर्गादास की छत्री से थोडा ही आगे चल कर नदी की धारा नगर के प्राचीन परिसर के पास घूम जाती है। भर्तृहरि जी की गुफा, पीर मछिन्दर और गढकालिका माँ का मंदिर पार करके नदी भगवान मंगलनाथ जी के पास पहुंचती है। मंगलनाथ जी का मंदिर सान्दीपनि आश्रम के पास ही है और पास में ही श्री राम-जनार्दन मंदिर के पास सुंदर दृश्य हैं। सिद्ध वट और काल भैरव की ओर मुडकर क्षिप्रा कालियादह महल को घेरते हुई लगभग सभी ऐतिहासिक स्थानों पर होकर शान्त भाव से उज्जैन से आगे अपनी यात्रा की ओर बढ़ जाती है।उज्जयिनी नगरी को प्राचीन समय में अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा, अमरावती कहा जाता है । महाकालेश्वर मन्दिर - श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के उज्जैन,  'उज्जयिनी' तथा 'अवन्तिकापुरी' मालवा क्षेत्र में स्थित क्षिप्रा नदी के किनारे विद्यमान है। जब सिंह राशि पर बृहस्पति ग्रह का आगमन होने पर  प्रत्येक बारह वर्ष पर महाकुम्भ का स्नान और मेला लगता है।  महाकवि तुलसीदास एवं  संस्कृत साहित्य केकवियों ने महाकाल मंदिर का वर्णन किया है। लोगों के मानस में महाकाल मंदिर की परम्परा अनादि काल से है। शुंग, कुषाण, सातवाहन, गुप्त, परिहार तथा मराठा काल में महाकाल  मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया है ।महाकाल  मंदिर का पुनर्निर्माण राणोजी सिंधिया के मालवा के सूबेदार श्री रामचंद्र बाबा शेणवी ने कराया था। महाकालेश्वर की प्रतिमा दक्षिणमुखी है। तांत्रिक पूजा में दक्षिणमुखी पूजा का महत्त्व बारह ज्योतिर्लिंगों में बाबा महाकाल है। ओंकारेश्वर में मंदिर की ऊपरी पीठ पर महाकाल मूर्ति की तरह ओंकारेश्वर शिव जी की प्रतिष्ठा है। तीसरे भाग में नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा के दर्शन केवल नागपंचमी का दर्शन  होते हैं। महाराजा विक्रमादित्य और राजा भोज की महाकाल पूजा के लिए लिखी गयीं शासकीय महाकाल मंदिर में प्राप्त होती रही है। श्री बड़े गणेश मंदिर - श्री श्री महाकाल मंदिर के समीप हरसिध्दि मार्ग पर पंडित नारायण जी व्यास द्वारा बडे गणेश जी की भव्य और कलात्मक मूर्ति प्रतिष्ठित किया गया है। मंदिर के परिसर में सप्तधातु से बनी पंचमुखी हनुमान जी की प्रतिमा और  नवग्रह मंदिर और श्रीकृष्ण और यशोदा आदि की प्रतिमाएं  हैं। मंगलनाथ मंदिर -  पुराणों के अनुसार उज्जयिनी नगरी मंगल की जन्म भूमि है। व्यक्ति की जन्म कुंडली में मंगल की दशा भारी रहती है, वह लोग अपने अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिए पूजा-पाठ करवाने के लिए उज्जैन नगर आते हैं।  उज्जैन में मंगल का जन्मस्थान होने के कारण मंगल पूजा को अधिक महत्त्व दिया जाता है। सिंधिया राजघराने ने मंगलदेव  मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था। उज्जैन शहर को भगवान महाकाल का नगर है । मंगल भगवान की शिव रूपी प्रतिमा की श्रद्धा भावना के साथ पूजा की जाती है। प्रत्येक मंगलवार को मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। हरसिध्दि मंदिर - उज्जैन नगर के प्राचीन धार्मिक स्थलों में हरसिध्दि देवी का मंदिर प्रमुख है। श्री चिन्तामण गणेश मंदिर से कुछ ही दूरी पर और रुद्रसागर तालाब के किनारे पर स्थित इस मंदिर में सम्राट विक्रमादित्य ने हरसिध्दि देवी की पूजा की थी। हरसिध्दि देवी वैष्णव संप्रदाय की आराध्य देवी रही हैं। शिव पुराण के अनुसार राजा दक्ष के द्वारा किये गये यज्ञ के बाद सती की कोहनी यहाँ पर गिरी थी। क्षिप्रा घाट - उज्जैन नगर के धार्मिक नगर होने में क्षिप्रा नदी के घाटों का प्रमुख स्थान है। नदी के दायें किनारे  उज्जैन नगर स्थित है,।  घाटों पर अनेक देवी-देवताओं के नये व पुराने मंदिर है। क्षिप्रा के घाटों की सुन्दरता सिंहस्थ कुम्भ के समय में लाखों-करोडों श्रध्दालु यहाँ भक्ति और श्रद्धापूर्वक स्नान करते हैं। द्वारकाधीश गोपाल मंदिर, उज्जैन - गोपाल'मंदिर का निर्माण महाराजा दौलतराव सिंधिया की महारानी बायजा बाई ने सन् 1833 के लगभग कराया था। गढ़कालिका देवी - गढ़कालिका देवी मंदिर  उज्जैन नगर में प्राचीन अवंतिका नगरी के क्षेत्र में हैं। महाकवि कालिदास गढ़कालिका देवी के उपासक थे। गढ़कालिका मंदिर का महाराजा हर्षवर्धन द्वारा जीर्णोद्धार कराया गया था । कराने का उल्लेख भी मिलता है।  तांत्रिकों की देवी गढ़कालिका  की मूर्ति सतयुग में और गढ़कालिका मंदिर का पुनर्निर्माण स्थापना महाभारत काल में हुई थी । , लेकिन मूर्ति सत्य युग की है।  ग्वालियर के महाराजा ने भी इसका पुनर्निर्माण कराया था। भर्तृहरि गुफ़ा - ग्यारहवीं सदी के भर्तृहरि की गुफा है। काल भैरव - उज्जैन नगर में काल भैरव मंदिर प्राचीन अवंतिका नगरी के क्षेत्र में स्थित है। कालभैरव  मंदिर शिव जी के उपासकों के कापालिक सम्प्रदाय का केंद्र है ।  मंदिर के गर्भगृह में  काल भैरव की विशाल प्रतिमा है। कालभैरव मंदिर का निर्माण राजा भद्रसेन ने कराया था। पुराणों में अष्ट भैरव में काल भैरव का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सिंहस्थ कुम्भ - सिंहस्थ कुम्भ उज्जैन का महान् स्नान पर्व है। यह पर्व बारह वर्षों के अंतराल से मनाया जाता है। जब बृहस्पति सिंह राशि में होता है, उस समय सिंहस्थ कुम्भ का पर्व मनाया जाता है।  पवित्र क्षिप्रा नदी में समुद्र मंथन में प्राप्त अमृत की बूंदें छलकते समय जिन राशियों में सूर्य, चन्द्र, गुरु की स्थिति के विशिष्ट योग होते हैं, वहीं कुंभ पर्व का इन राशियों में गृहों के संयोग पर  आयोजन किया जाता है। अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरु और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे थे। इसी कारण इन ग्रहों का विशेष महत्त्व रहता है और इन्हीं गृहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ का पर्व मनाने की परम्परा चली आ रही है। उज्जैन का चतुर्दिक विकास विभिन्न काल के राजाओं , शासकों द्वारा किया गया है














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