मंगलवार, जुलाई 23, 2024

रांची की सांस्कृतिक विरासत

रांची की सांस्कृतिक विरासत 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
झारखण्ड राज्य की। राजधानी और दक्षिण छोटानागपु प्रमंडल तथा 5097 वर्गकिमी एवं 1968 वर्गमील क्षेत्रफल में फैलेरांची जिला  का मुख्यालय रांची है। रांची जिला की 2011 जनगणना के अनुसार जनसंख्या 2914263 की भाषा हिंदी , सदरी ,कुर्माली , कुरुख , मुंडारी , मगही है । रांची , जिला मुख्यालय है। इसे 1899 में एक जिले के रूप में स्थापित किया गया था।  छोटा नागपुर पठार का 1400 ई.पू. में लोहे का धातुमल, बर्तन और लोहे के औजार पाए गए हैं। मगध साम्राज्य ने रांची क्षेत्र पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण मगध साम्राज्य का सम्राट अशोक के शासनकाल तक चला । कलिंग शासकों ने  अभियानों के दौरान रांची  क्षेत्र को नष्ट  कर दिया था । गुप्त वंशीय  समुद्रगुप्त की सेनाएँ दक्कन के अपने अभियान पर इस क्षेत्र से गुज़रीं गुजरने और  गुप्तों के पतन के बाद फणी मुकुट राय ने नागवंशी वंश की स्थापना की थी। नागवंशीय  संप्रभु राजा ने 1000 ई.पू.  रांची जिले और छोटा नागपुर पठार के क्षेत्रों पर शासन किया था ।   नागवंशी राजवंश की राजधानी खुखरागढ़  था। मुगल साम्राज्य के विस्तार को  नागवंशियों द्वारा रोकने  के लिए मजबूर किया गया था । ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन तक स्वतंत्र रूप से शासन करना और प्रशासन करना जारी रखा । ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव , पांडे गणपत राय , टिकैत उमराव सिंह और शेख भिखारी ने 1857 के भारतीय विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । ब्रिटिश राज की अवधि के दौरान , आदिवासियों और छोटानागपुर पठार के अन्य स्थानीय लोगों ने अंग्रेजों द्वारा अधीनता का विरोध करना जारी रखने और  क्षेत्र में विद्रोह हुए थे ।
आर्द्र उपोष्णकटिबंधीय जलवायु के कारण बिहार राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी रांची थी। रांची  हिल स्टेशन हुआ करता था। गर्मियों के दौरान तापमान अधिकतम 42 से 20 डिग्री सेल्सियस और सर्दियों के दौरान 25 से 0 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। दिसंबर और जनवरी सबसे ठंडे महीने होते हैं, जब शहर के कुछ स्थानों पर तापमान हिमांक बिंदु तक पहुंच जाता है। वार्षिक वर्षा लगभग 1430 मिमी (56.34 इंच) है। जून से सितंबर तक वर्षा लगभग 1,100 मिमी है। रांची 23°21′N 85°20′E पर स्थित है।[5] रांची नगरपालिका क्षेत्र द्वारा कवर किया गया कुल क्षेत्रफल 175.12 वर्ग किलोमीटर है और शहर की औसत ऊंचाई समुद्र तल से 651 मीटर है।रांची छोटा नागपुर पठार के दक्षिणी भाग पर स्थित दक्कन पठार के पूर्वी किनारे का निर्माण करता है। रांची का  दसम फॉल्स , हुंडरू फॉल्स , जोन्हा फॉल्स , हिरणी फॉल्स और पंचघाग फॉल्स एवं  कांके, रूक्का और हटिया में बांध , स्वर्ण रेखा नदी , हरमू नदी है।रांची की पहाड़ी स्थलाकृति और घने उष्णकटिबंधीय जंगलों के साथ  संयोजन है । ब्रिटिश शासन के दौरान हिल स्टेशन' का दर्जा दिया गया था।रांची जिले का रांची और बुंडू अनुमंडल  और 14 प्रखंड है।  जिले में विधानसभा क्षेत्र में , तामार (एसटी) , सिल्ली खिजरी (एसटी) , रांची , हटिया , कांके (एससी) , और मंदार (एसटी) , सिल्ली, खिजरी, रांची, हटिया और कांके और। रांची लोकसभा क्षेत्र  हैं ।रांची विश्वविद्यालय की स्थापना 1960 ई. होने के बाद  35 घटक कॉलेज और 29 संबद्ध कॉलेज , 1944 ई. में स्थापित सेंट जेवियर्स कॉलेज , 19 55 ई.  में स्थापित  बिड़ला प्रौद्योगिकी संस्थान। , 1961 ई. में स्थापित  बिरसा कृषि रांची विश्वविद्यालय थी।आईआईएम रांची , आठवां भारतीय प्रबंधन संस्थान 2010 में रांची में स्थापित किया गया था। यह वर्तमान में अपने प्रमुख कार्यक्रम के रूप में दो साल का पीजीडीएम प्रदान करता है और हाल ही में शोध कार्य के लिए पीएफपीईएक्स लॉन्च किया है।राजेंद्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज  , रांची में रांची विश्वविद्यालय का चिकित्सा संस्थान, 2002 में 1960 ई. में स्थापित  राजेंद्र मेडिकल कॉलेज अस्पताल को अपग्रेड कर शामिल किया गया था ।ब्रिटिश शासन  ने  17 मई 1918 को रांची यूरोपियन ल्यूनेटिक एसाइलम स्थापित कर   मानसिक स्वास्थ्य के लिए  प्रमुख केंद्र बनाया  है । और इसका श्रेय कई लोगों को जाता है।  1922 में पहला व्यावसायिक चिकित्सा विभाग, 1943 में ईसीटी, 1947 में साइकोसर्जरी और न्यूरोसर्जरी, 1948 में नैदानिक ​​मनोविज्ञान और इलेक्ट्रोएन्सेफलोग्राफी (ईईजी) विभाग, 1952 में एक पूर्ण न्यूरोपैथोलॉजी अनुभाग, पहला उपयोग 1952 में लिथियम और 1953 में क्लोरप्रोमाज़िन।1952 में लिथियम और 1953 में क्लोरप्रोमाज़िन का पहला प्रयोग।1952 में लिथियम और 1953 में क्लोरप्रोमाज़िन का प्रथम प्रयोग किया गया था ।रांची जिले के प्रखंडों में अंगारा , बेरो , बुंडू ब्लॉक , बर्मू , चान्हो , कांके ओरमांझी, इटकी ,नगरी ,खेलारी , लापुंग , मंदार , नामकुम ,रातू , सिल्ली , रहे ब्लॉक , सोनाहातु है।
रांची जिले में 1311 गाँव ,305 पंचायत है । ब्रिटिश साम्राज्य ने लोहरदग्गा में 1845 ई. तक शासन और 1945 के बाद किशुनपुर जिला मुख्यालय की नींव रखी थी । 1691 ई. में धुर्वा के जगनाथपुर में जगन्नाथ मंदिर की स्थापना की गई थी ।  रांची नगरपालिका की स्थापना 1869 ई. में हुई है। रातू महाराजा नागवंशीय मनिमुकुट राय एवं नागवंशीय के प्रथम एवं 61 वें महाराज प्रतापन्द्यना ब्राह्देव द्वारा रातू किले का निर्माण कराया था । रांची को विशुनपुर , विलकिंग्सन , अर्चि कहा जाता था।ब्रिटिश प्रशासन ने 1927 ई. में पूर्ण जिला एवं 15 नवंबर 2000 ई. को भारत सरकार द्वारा झारखण्ड राज्य का दर्जा एवं झारखण्ड राज्य की राजधानी बनाई है। 
रांची जिले में  पहाड़ी मंदिर , सूर्यमंदिर , टैगोर हिल , नक्षत्र वैन ,रॉक गार्डन , देवरी मंदिर  , तामार का दसम फॉल ,पतरातू वैली , हुंडरू फॉल , पंचगढ़ फॉल ,सिंता फॉल ,रांची लॅक , माला शैली पर्वत , उल्तू का मराशिला पर्वत ,बूढ़ा पर्वत , नकटा पर्वत , राड़ू नदी ,हिनू नदी, जोन्हा जलप्रपात है। भगवान सूर्य। एवं छाया के पुत्र सावर्णि मनु  कुल में उत्पन्न 13वाँ मनु रुचि व रौच्य मनु ने रौच्य मन्वंतर के राजा चित्र सेन , विचित्र द्वारा रौच्य नगर का निर्माण। राउंची प्रदेश का मुख्यालय राउंची  किया था । चित्रसेन ने सौर धर्म , शैव धर्म ,  शाक्त धर्म की स्थापना की । वैष्णव धर्म , मरुत सम्प्रदाय , नाग सम्प्रदाय का उदय हुआ था । रांची को रौच्य , राउंची ,रअंची , राची कहा जाता था । राँची क्षेत्र में रांची जेल में 1885 ई. से 1900 ई. तक रांची क्षेत्र में ब्रिटिश साम्राज्य का शासन के विरुद्ध तथा नागरिकों की सुरक्षा के लिए कार्य करने वाले विरसा मुंडा 9 जून 900 ई. में हैजा होने के कारण अंतिम सांस लिए थे ।  भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी महेंद्र सिंह धोनी की जन्म भूमि और कर्मभूमि रांची है। रांची क्षेत्र में झूमर , दमकच ,पाइकि , छ, किरकल

मंगलवार, जुलाई 16, 2024

गिरीडीह की विरासत

गिरिडीह की सांस्कृतिक विरासत 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
झारखंड राज्य के पूर्वी क्षेत्र 4550 वर्गकिमी .56 व 1873.97 वर्गमील क्षेत्रफल में फैला गिरीडीह जिला का मुख्यालय गिरिडीह है।  गिरिडीह ज़िला की 2011 जनगणना के अनुसार 2445774 आबादी हिंदी , मगही और संथाली भाषीय है। गिरिडीह का अर्थ है “गिरी” का अर्थ “पहाड़,पर्वत” और “डीह” का अर्थ है “क्षेत्र या भूमि" होता है । गिरिडीह शब्द  “पहाड़ों वाला क्षेत्र  प्राकृतिक सौंदर्य, सांस्कृतिक धरोहर, और कृषि दृष्टि से समृद्धि का केंद्र है, और यह अपने स्थानीय आदिवासी भाषा और सांस्कृतिक विविधता के लिए प्रसिद्ध है। अबरख  एवं कोयला खनिजों , जैनियों का तीर्थस्थल पार्श्वनाथ और वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र बोस है। उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल का  हजारीबाग जिला के विभजन के २४ डिग्री ११ मिनट उत्तरी अझांश और ८६ डिग्री १८ मिनट पूर्वी देशांतर के बीच  स्थित गिरिडीह अनुमंडल का सृजन ब्रिटिश साम्राज्य काल मे 1870 ई. और गिरिडीह जिला का सृजन 04 दिसंबर 1972 ई. में हुआ है। गिरिडीह जिले के उत्तर में बिहार रज्य के जमुई और नवदा जिले , पुर्व में झारखंड राज्य का देवधर और जामताड़ा, दक्षिण में धनबाद और बोकारो तथा पश्चिम में हजारीबाग एवं कोडरमा जिले की सीमाओं से घिरा हुआ  है । पारसनाथ पहाड़ी की  ऊँचाई समुद्र तल से ४४३१ फिट है। विदेशी आक्रमणकारियों के कारण छोटा नागपुर के निवासियों का  मुण्डा राज्य का बना था । गिरिडीह जिला के  1556 ई0 में दिल्ली के गद्दी का उत्तरघिकारी अकबर काल में  गिरिडीह को खुखरा के नाम ख्याति  था। गिरिडीह का  क्षेत्र का प्रथम मुगल राजस्व प्रसासन के रूप में पेश किया गया । . रामगढ़ केंदी कुंदा और खरगडीहा  को ब्रिटिश जिला के रूप मे गठन किया गया था । कोल के उत्पादन में बढ़ोत्तरी 1931 ई. के बाद क्षेत्र की प्रसाशनिक संरचना बदल गयी थी ।भौगोलिक दृष्टि से, गिरिडीह जिले के बगोदर ब्लॉक के निकट पश्चिमी भाग और निचले पठार की औसत ऊंचाई उनकी उतार-चढाव सतह से 1300 फुट है। उत्तर और उत्तर पश्चिम में, निचली पठार काफी फार्म का स्तर पठार होता है । 700 फुट नीचे घाटी  पर नहीं पहुंच जंगलों को समान रूप से वितरित करता हैं। वृक्षों  में  साल और  प्रजातियो में बांस, सिमुल, महुआ, पलास, कुसुम, केन्द, आसन पीयार और भेलवा हैं। गिरिडीह जिला का बराकर और सकरी नदी. खनिज संसाधनों में समृद्ध कोयला क्षेत्र , मेटलर्जिकल कोल , मिका  है। तिसरी और गांवा ब्लॉकों में मिका  पाया जाता है।गिरिडीह जिले में  पर्यटक स्थल में   पारसनाथ  पर्वत पर 24 जैन तीर्थंकरों ने मोक्ष प्राप्त किया था। शिखरजी पर्यटन स्थल समुद्र तल से 1350 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं। र्ण्यटक स्थल उसरी फॅाल, खण्डोली, मधुबन, पारसनाथ(मारांग् बुरू), राजदह धाम निमाटाँड, झारखण्डी धाम और हरिहर धाम हैं।  गिरिडीह जिले के अनुमंडल में गिरिडीह सदर, खोरिमहुआ, बगोदर- सरिया और डुमरी और  सामुदायिक विकास प्रखण्ड, गिरिडीह, गाण्डेय, बेंगाबाद, पीरटांड, डुमरी, बगोदर, सरीया, बिरनी, धनवार , जमुआ, देवरी, तिसरी और गांवा हैं।
पारसनाथ  पर्वत -  गिरीडीह जिले में समुद्र तल से 1365 मीटर की उचाई युक्त   पारसनाथ पहाड़ी श्रृंखला में एक पर्वत शिखर का  नाम 23वें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ के नाम  है। पारसनाथ पर्वत की चोटी पर जैन तीर्थ शिखरजी हैं। संथाल और आदिवासी लोगों द्वारा पारसनाथ पर्वत  को मारांग बुरु , 'महान पर्वत', सर्वोच्च देवता कहा गया  है। पारसनाथ पर्वत  जैन धर्मावलम्बियों के लिए विश्व में प्रसिद्ध  जैन धर्म के  20 तीर्थंकरों के मंदिर अवस्थित है।। तलैटी से शिखर तक तकरीबन 10 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है।
 भगवान पार्श्वनाथ -  जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर 9 हाथ लंबाई युक्त भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म पौष कृष्ण एकादशी 872 ई. पू. में  इक्ष्वाकु वंशीय राजा अश्वसेन की भार्या रानी वामा देवी के पुत्र  वाराणसी के भेलूपुर में हुआ एवं  100 वर्षीय पार्श्वनाथ का मोक्ष श्रावण शुक्ल अष्टमी 772 ई.पू. को सामवेद शिखर ( पारसनाथ पर्वत )  पर हुआ   था । जैन ग्रंथ के अनुसार भगवान् कृष्ण के चाचा अश्वसेन के पुत्र बचपन से अहिंसा विचार धारा से ओतप्रोत थे जब  वैवाहिक कार्यक्रम में श्री कृष्ण एवं बलराम द्वारा विभिन्न स्थानों के राजाओं को आमंत्रित किया गया जिसमें विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में शाकाहारी एवं मांसाहारी भी थे फलस्वरूप नेमिनाथ जी बहुत दुखी हुए और जैन धर्म समर्थन एवंं प्रसार के लिए स्वयं को समर्पित किया था । वृक्ष में अशोक , रंग हरा , शासकदेव यक्ष ,धरणेन्द्र यक्षणी पद्मावती प्रथम गणधर श्री शुभदत , श्वेताम्बर परंपरा में 8 और दिगंबर परंपरा के 10 अनुयायी थे । तीर्थंकर पार्श्वनाथ के शरीर पर सर्पचिह्म था। वामा देवी ने गर्भकाल में  स्वप्न में सर्प देखने के कारण पुत्र का नाम 'पार्श्व' रखा गया। उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। एक दिन पार्श्व ने  महल से देखा कि पुरवासी पूजा की सामग्री लिये  तपस्वी पंचाग्नि जलाने के क्रम में अग्नि में सर्प का जोड़ा मर रहा है।   पार्श्व ने कहा— 'दयाहीन' धर्म किसी काम का नहीं'। तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था और जैन दीक्षा ली। काशी में 83 दिन की कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। पुंड़्र, ताम्रलिप्त आदि देशों में भ्रमण किया। ताम्रलिप्त में उनके शिष्य हुए। पार्श्वनाथ ने चतुर्विध संघ की स्थापना मे श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका  है । प्रत्येक गण एक गणधर के अन्तर्गत कार्य करता था। सभी अनुयायियों, स्त्री या पुरुष सभी को समान माना जाता था। सारनाथ जैन-आगम ग्रंथों में सिंहपुर के नाम से प्रसिद्ध है। यहीं पर जैन धर्म के 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ जी ने जन्म लिया और  अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। केवल ज्ञान के पश्चात तीर्थंकर पार्शवनाथ ने जैन धर्म के चार मुख्य व्रत – सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह की शिक्षा दी थी।श्री सम्मेद शिखरजी  गिरिडीह जिले की पारसनाथ पर्वत  पर चले गए जहाँ श्रावण शुक्ला सप्तमी को उन्हे मोक्ष की प्राप्ति हुई। जैन ग्रंथों में तीर्थंकर पार्श्‍वनाथ को नौ पूर्व जन्मों का वर्णन में प्रथम  जन्म में ब्राह्मण, दूसरे में हाथी, तीसरे में स्वर्ग के देवता, चौथे में राजा, पाँचवें में देव, छठवें जन्म में चक्रवर्ती सम्राट और सातवें जन्म में देवता, आठ में राजा और नौवें जन्म में राजा इंद्र (स्वर्ग) ,  दसवें जन्म में  तीर्थंकर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलत: तीर्थंकर बनें थे ।
18वीं सदी तक खडागड़िहा राज्य के अधीन ,ब्रिटिश साम्राज्य के तहत  जगंल तराई के तहत और कॉल विद्रोह के बाद 1833 ई. में खडागड़िहा राज्य , कुंडा राज्य कैंडी राज्य और रामगढ़ राज्य को को मिला कर हजारीबग्ग जिला में गिरिडीह को मिला दिया गया । खडागड़िहा राज्य बंदोवस्ती धनबाद राज्य के साथ 1809 ई. में गिरिडीह को मिला था । गिरिडीह जिले के 6 विधान सभा क्षेत्र में जमुआ प्रखंड के मिजोगंज में भगवान सूर्य को समर्पित जलीय सूर्यमंदिर ,, पिरताड़ में श्वेताम्बरी जैन मंदिर ,, रामोशरण मंदिर ,भूमिया जी मंदिर ,  उसरी नदी के किनारे कबीरज्ञान मंदिर , झूमर खेलना पर्वत पर कबूतरी गिरिनाथ धाम एवं खुखरा पर्वत पर पार्श्वनाथ मंदिर है । गिरिडीह जिले में पार्श्वनाथ पर्वत ( खुखरा पर्वत ) , डाबर सैनी पर्वत ,खंडीली पर्वत ,जुबली पर्वत ,झुमरखेलवा पर्वत , नचनियां पर्वत है ।

रविवार, जुलाई 14, 2024

कोडरमा की विरासत

कोडरमा की सांस्कृतिक विरासत 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
झारखंड राज्य के कोडरमा जिले केनिर्देशांक: 24°28′N 85°36′E / 24.47°N 85.60°Eनिर्देशांक: 24°28′N 85°36′E / 24.47°N 85.60°E पर स्थित  हिंदी और मगही भाषीय का क्षेत्रफल1655.61 वर्गकिमी में 2011 जनगणना के अनुसार 716259 आबादी निवास करते है । हजारीबग्ग जिले का कोडरमा अनुमंडल का सृजन 1973 ई में होने के बाद हजारीबग्ग जिले से अलग कोडरमा जिले का दर्जा 10 अप्रैल 1994 को प्राप्त हुआ है। कोडरमा भारत के अभ्रक जिला एवं  झारखंड का प्रवेशद्वार के नाम से  ख्याति है। प्राकृतिक संसाधन मौजूद कोडरमा जिला में  717 गाँवों में 377 गाँव एवं 122 निर्जन गाँव   शहर कोडरमा और झुमरी तिलैया बिहार में गया और नवादा तथा झारखंड का  गिरिडीह तथा हजारीबाग की सीमा पर  ह कोडरमा जिला मे कोडरमा, जयनगर, मरकच्चौ, डोमचांच, सतगांवा एंव चंदवारा है।  कोडरमा जिले  की औसत ऊंचाई 375 मीटर (1230 फीट) है। 
कोडरमा का चंचला मंदिर के गर्भगृह में शक्तिपीठ मां चंचला देवी स्थापित है ।  प्रत्येक मंगलवार व शनिवार को माता चंचला की उपासना की उपासना करते  है। अभ्रक की  खदानें होने के कारण कोडरमा को अभ्रक नगरी  कहा जाता है। उरवन टूरिस्ट कॉम्पलैक्स, ध्वजागिरि पहाड़ी और सतगांवा पैट्रो झरने पर्यटक स्थल हैं। ति‍लैया बांध - दामोदर नदी घाटी परियोजना के तहत तिलैया  बाँध का निर्माण हुआ था। डैम का  जल हरा  होने से  आनंद और रोमांच  उत्पन्न करता है। डैम के तरफ पहाड़,दुसरे तरफ पेड़ - पौधे और  नीचे डैम का पानी  मनमोहक दृश्य का निर्माण करते है। तिलैया बांध दामोदर घाटी में बराकर नदी पर बना हुआ है। डैम का आकार में  1200 फीट लंबा और 99 फीट ऊंचा 36 वर्गकिमी में फैला  है। बाँध सैनिक विधालय ,तिलैया का द्वार है । प्रसिद्ध फिल्मकार प्रकाश झा,सैनिक  विधालय के विधार्थी है। बिहार व बंगाल सरकार के संयुक्त प्रयास से वर्ष 1948 में तिलैया डैम का  निर्माण किया गया था। उरवन टूरिस्ट कॉम्पलैक्स -  ति‍लैया बांध के समीप  उरवन टूरिस्ट कॉम्पलैक्स ,  पर्यटक  पिकनिक स्थल , बोटिंग और वाटर स्पोर्टस का आनंद लिया जाता है। उरवन में घूमने के बाद बागोधर के हरि हर धाम के दर्शन करते हैं। हरिहर धाम में  भगवान शिव को समर्पित 52 फीट ऊंचाई युक्त स्वयंभू  शिवलिंग है। प्रकृति की गोद में बसे सतगांवा में सतगावां  पैट्रो झरना घने जंगलों में स्थित हैं । गिरिडीह - -गिरिडीह हाईवे से 33 कि॰मी॰ की दूरी पर 400 फिट की उचाई अवस्थित मां चंचला देवी शक्तिपीठ स्थित है। माता चंचल शक्तिपीठ पर्वत पर गुफा में मां दुर्गा की चार मुद्राओं की मूर्ति  हैं। मां दुर्गा को समर्पित गुफा का प्रवेश द्वार काफी छोटा है। कोडरमा वन्यजीव अभयारण्य कोडरमा जिला कोडरमा  मुख्यालय से प्राररम्भ होकर एन एच  33 से होते हुए बिहार के गया और नवादा जिला तक विस्तृत वन क्षेत्र दो वन्यजीव अभयारण्य के लिए भौगोलिक विस्तार प्रदान करता है। कोडरमा वन्यजीव अभयारण्य में हिरण, भालू, नीलगाय,जंगली खरहा  , सैकड़ो तरह के परिंदे , साँप तथा कई अन्य सरीसृप है। अभ्यारण्य   में मुख्य वृक्ष सखुआ,बेल,बाँस,आम ,शिरिष,महुआ,पलाश है।अभयारण्य में ध्वजाधारी धार्मिक तीर्थ स्थल पहाड़ के शीर्ष  पर  चढने के लिए पत्थर की सीढियाँ है। महशिवरात्री के अवसर पर  मेला लगता है। मगध साम्राज्य का राजा  समुद्र गुप्त द्वारा 325 ई. से 380 ई. तक कोडरमा क्षेत्र का विकास एवं कोडरमा का नागवंशीय राजा फनीमुकट्ट थे । सतगावां प्रखंड के घोरसीमर में भगवान शिव का शिवलिंग , सौर , शाक्त , शैव  एवं वैष्णव सम्प्रदाय का स्थल राजा फनीमुकट्ट द्वारा निर्माण किया था । छोटानागपुर को महाभारत काल में मुराड , विष्णुपुराण में मुंड मुगलकाल में कुकरा और
ब्रिटिश काल में छोटानागपुर कहा जाता था । छोटानागपुर का राजा फनीमुकट्ट काल में मुंड कहा जाता था । गिरिडीह जिले का ढोंढा कोला के समीप मनकोमरो पर्वत , ध्वजाधारी हिल ,जरन पंचायत का वृन्दाहा पर्वत के 300 फिट से गिरने वाली जलप्रपात ,नदियों में करारों नदी ,बरकार नदी ,डोमचाच प्रखंड के हरिया नदी , सतगावां प्रखंड के दुमदुमा सकरी नदी प्रवाहित है।

गुरुवार, जुलाई 11, 2024

चतरा की सांस्कृतिक विरासत

चतरा की सांस्कृतिक विरासत  
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
उत्तरी छोटानागपुर का प्रवेश द्वार पठारीय व  प्राकृतिक वनों से परिपूर्ण  झारखंड राज्य का चतरा जिले के 3706 वर्गकिमी क्षेत्रफल में चतरा एवं हंटरगंज अनुमंडल ,12 प्रखंडों में चतरा , कुंडा ,हंटरगंज , प्रतापपुर ,लावालौंग , गिधौर ,पथलगड्ढा ,सिमरिया ,टंडवा ,इटखोरी ,कान्हाचट्टी ,मयूरहंड में 154 पंचायत। और 1474  गाँव में 2011 जनगणना के अनुसार 1042304 आबादी निवास करते है । चतरा जिले की स्थापना 29 मैं 1991 ई. में हुई है । ब्रिटिश साम्राज्य के शासन ने चतरा को अनुमंडल का दर्जा 1914 ई. में किया था । 18 वी. शताब्दी में रामगढ़ जिले का मुख्यालय चतरा एवं 1804-05  में  रामगढ़ जिला का मुख्यालय चतरा का राजा राम मोहन राय सेरिस्तदार थे । चतरा जिले का क्षेत्र सनातन धर्म का शाक्त। सम्प्रदाय , सौर , शैव , वैष्णव  , बौद्ध , जैन सम्प्रदाय एवं मगही , हिंदी भाषीय क्षेत्र  है । कीकट प्रदेश का अंग और शाक्त एवं शैव , सौर और वैष्णव सम्प्रदाय का स्थल चतरा का क्षेत्र था । 
इटखोरी भद्रकाली मंदिर -  चतरा  के पूर्व में 35 किमी और जीटी  रोड  चौपारण से 16 किमी पश्चिम महाने  एवं बक्सा नदी के संगम पर अवस्थित इटखोरी मां भद्रकाली मंदिर परिसर में शाक्त , शैव , बौद्ध , जैन  धर्मों का संगम स्थल है ।प्रागैतिहासिक काल से इटखोरी पवित्र भूमि पर धर्म संगम की अलौकिक भक्ति धारा  है । सनातन धर्मावलंबियों के लिए भूमि मां भद्रकाली तथा सहस्त्र  शिवलिंग महादेव का सिद्ध पीठ , भगवान बुद्ध की तपोभूमि के रूपमें आराधना वा उपासना का स्थल  शांति की खोज में निकले युवराज सिद्धार्थ की  तपस्या स्थली पर उनकी मां उन्हें वापस ले जाने आयी थी |  सिद्धार्थ का ध्यान नहीं टूटने एवं  उनके मुख से इतखोई शब्द निक्लाने से  इटखोरी कहा जाने लगा था ।| जैन धर्मावलंबियों ने जैन धर्म के दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ स्वामी की जन्मभूमि है| तपस्वी मेघा मुनि की  तप से भद्रकाली मंदिर परिसर परिसर को सिद्ध करके के सिद्धपीठ के रूप में स्थापित किया था । त्रेतायुग में भगवान राम के वनवास तथा पांडवों के अज्ञातवास में  मां भद्रकाली मंदिर परिसर का जुड़ाव रहा है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के द्वारा वर्ष 2011 में उत्खनन के दौरान के पुरातत्व विभाग ने 9वी० 10वि० काल में मठ मंदिरों के निर्माण की पुष्टि की है । सेंड स्टोन पत्थर को तराश कर बनाए गए प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष तथा बहुमूल्य पत्थरों से निर्मित प्रतिमाएं है । मां भद्रकाली की प्रतिमा बेशकीमती काले पत्थर को तराश कर 5 फीट ऊंची आदम कद प्रतिमा चतुर्भुज है । प्रतिमा के चरणों के नीचे ब्राह्मी लिपि में अंकित है । माता भद्रकाली प्रतिमा का
 निर्माण 9 वी शताब्दी में राजा महेंद्र पाल द्वितीय ने कराया था| बौद्ध धर्मावलंबियों द्वारा माता भद्रकाली की  प्रतिमा को मां तारा के रूप में उपासना करते  हैं|
कोल्हुआ पहाड़ -  समुद्र तल से 1750 फीट की ऊंचाई पर स्थित हंटरगंज प्रखंड से 6 किलोमीटर दूर कोल्हुआ पहाड़ 1575 फिट की उचाई श्रंखला पर  मां कौलेश्वरी मंदिर परिसर वैदिक काल का स्थल है| कल्हूआ  पहाड़ की चोटी पर सनातन, बौद्ध एवं जैन धर्म का संगम स्थल  है| महाभारत काल में स्थल राजा विराट की राजधानी थी । धर्मपरायण राजा विराट ने  मां कौलेश्वरी की प्रतिमा को  स्थापित किया था ।  बौद्ध धर्मावलंबी के लिए कौलेश्वरी पहाड़ भगवान बुद्ध की तपोभूमि के साथ मोक्ष प्राप्त करने का पवित्र स्थल है| । कोल्हुआ  के मांडवा मांडवी नामक स्थल पर बौद्ध धर्मावलंबी बाल व नाखून का दान कर मोक्ष प्राप्त करने का संस्कार करते हैं |पहाड़ के पाषाणों ने बौद्ध भिक्षुओं की प्रतिमाएं उत्कीर्ण है| जैन धर्म के दशवीं तीर्थंकर स्वामी शीतलनाथ की तपोभूमि कौलेश्वरी पहाड़ था । जैन धर्मावलंबियों ने पहाड़ की चोटी पर  भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमाएं स्थापित है|इसके सबसे ऊँची चोंटी को आकाश लोचन कहा जाता है । कौलेश्वरी मंदिर - पहाड़ की चोटी पर राजा विराट  द्वारा कौलेश्वरी मंदिर के गर्भगृह  में मां कौलेश्वरी की  प्रतिमा स्थापित है |  कौलेश्वरी माता की प्रतिमा काले दुर्लभ पत्थर को तराश कर बनाई गई है| मंदिर के पुजारियों वह भक्तों के अनुसार माता यहां जागृत अवस्था कौलेश्वरी सिद्धपीठ  है। ऋषि मार्कण्डेय के  दुर्गा सप्तशती में उल्लेख  है-कुलो रक्षिते कुलेश्वरी। अर्थात कूल की रक्षा करने वाली कुलेश्वरी। त्रेतायुग में श्रीराम, लक्ष्मण सीता ने वनवास काल और द्वापरयुग में कुंती ने अपने पांचों पुत्रों के साथ अज्ञातवास का काल और अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु का विवाह मत्स्य राज की पुत्री उत्तरा का हुआ था ।।भू-तल से 1575 फीट ऊंचे कल्हूआ पर्वत का प्राकृतिक सौंदर्य ,  हरे-भरे मनोहारी वादियों के मध्य मां कौलेश्वरी मंदिर, शिव मंदिर, जैन मंदिर व बौद्ध  स्थल और  तीन प्राकृतिक झील व  तलाब है।
 तमासीन जलप्रपात -  कान्हाचट्टी प्रखंड का  चतरा के उत्तर – पूर्व में 26 किलोमीटर की दुरी पर तमसीन  झरना तथा तमासिन पर्वत की गुफा माँ भगवती को समर्पित है । तमासिन  क्षेत्र मिश्रित जंगल में   उच्चे  पेड़ दिन के उजाले में  अँधेरा  बनाते हैं। मालुदाह जलप्रपात -  चतरा के पश्चिम में लगभग 8 किलोमीटर  की दूरी पर 5 किमी तक यह गाडियों के द्वारा और 3 किमी पैदल चलकर मलूदाह पर्वत से  50 फीट की ऊंचाई से मलूदाह झरना गिरता है। मलूदाह  झरने का अर्ध गोलाकार पहाड़ को काटा गया  है। डुमेर – सुमेर जलप्रपात -  चतरा से 12 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर में स्थित डुमेर पर्वत का  सुमेर जलप्रपात   वसंत, चट्टानी दीवारों की चमक  सफेद किरणों से उगते हैं। गोवा जलप्रपात - चतरा  के पश्चिम में 6 किलोमीटर की दूरी एवं  मालुदाह से 4.5 किलोमीटर पर स्तित गोवा पर्वत की झरना 30 फीट की ऊंचाई से जलाशय में गिरता चट्टानें से घिरे गोवा जलाशय है। कुंदामहल -  कुंदा गांव से  चार मील की दूरी पर  17 वीं शताब्दी में निर्मित कुंडा किला या कुदा महल  है। कुंदा महल दक्षणी भाग  से  आधा मील की दूरी पर कुंड गुफा अवस्थित है । कुंडा गुफा का प्रवेश द्वार काफी संकीर्ण है ।  गुफा के अन्दर  सेंट्रल हॉल  है । केंद्रीय हॉल के साथ अपने एकमात्र मार्ग के साथ जुड़े छोटे हॉल, पूरी तरह से अंधेरा हैं। गुफा के केंद्रीय कक्ष के अंदर के दीवारों पर नक्काशी द्वारा ब्राह्मी लिपि लिखी गई हैं । बिचकिलिया जलप्रपात - चतरा से 11 कि.मी. की दूरी पर पश्चिम  अवस्थित बिचकिलिया पर्वत का बिचकिलिया झरना से निरंजना (लिलाजन ) नदी के किनारे पर ‘दाह’  जलाशय है। दुवारी जलप्रपात - चतरा जिले से 35 किलोमीटर दूर पूर्व में गिधौर – कटकमसांडी मार्ग पर स्थित बलबल दुबारी जलप्रपात है । बलबल नदी के किनारे दुवारी के समीप हजारीबग्ग जिले का कटकम सांडी प्रखंड के बलबल में गर्मकुंड  है। गर्मकुंड बलबल के किनारे माता बागेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में माता बागेश्वरी एवं 18वीं शताब्दी की मूर्तियां , शिवलिंग है । खैवा बंदारू जलप्रपात -  चतरा शहर के दक्षिण-पश्चिम में जिला मुख्यालय से चतरा – चन्दवा रोड में  10 किलोमीटर पर बधार से तीन किलोमीटर की दुरी पर बंदारू जलप्रपात है। जंगलों के मध्य  में  सुंदरता के सौंदर्य में चमकदार है। बंदारू (दाह) जलाशय की धारा चट्टानों के माध्यम से अपना रास्ता बनाती है । खैवा जलाशय पत्थर की दीवारों को काट घाटी का निर्माण कर दोनों किनारों की दीवार वाले पत्थरों में कई आकृतियों के साथ गहरी खाई बनाती  है ।  प्रकृति ने चट्टानों में चट्टानी नदी का विस्तार प्रतिध्वनि गाने घाटी की दीवारों से आत्मापूर्ण भव्यता के  मधुर संगीत में गूंजते हैं अगर एक पत्थर जलाशय में फेंक देने पर  कई कबूतर उस ध्वनि से अपने घोंसले से एक साथ उड़ जाते है| धाराओं के नृत्य की लहरें, जगहों पर फोम, गड़गड़ाने की आवाज का निर्माण पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए निश्चित  घाटी ध्वनि के साथ गूंजती  है ।केरिदाह जलप्रपात -   चतरा के उत्तर-पश्चिम भाग पर 8 किमी   स्थित  पानी की गिरावट दो  पहाड़ियों के बीच  से तीन भागो में विभक्त करती है ।
 चतरा - , झारखंड के प्रवेशद्वार, बिहार के गया , औरंगाबाद जिले की सिमा से घिरा उत्तरी छोटानागपुर  का चतरा ऐतिहासिक प्रगति का  मूक दर्शक है। मगध साम्राज्य के सम्राट अशोक के शासनकाल के दौरान 232 ई.पू.  “अतावी” या वन राज्यों का। का प्रमुख क्षेत्र चतरा  था ।  मगध साम्राज्य के राजा  समुद्रगुप्त ने छोटानागपुर के माध्यम से चलते हुए महानद की घाटी में दक्षिण कौशल के राज्य के खिलाफ प्रथम  हमला करने का निर्देश दिया था । तुगलक के शासनकाल के दौरान,दिल्ली सल्तनत के संपर्क में चतरा  आया। औरंगजेब के शासनकाल में बिहार के  गवर्नर दाऊद खान ने 5 मई 1660 को कोठी किले पर कब्जा करने के बाद  कुंडा  पहाड़ी तट पर स्थित कुंडा किले पर कब्जा किया था । कुंडा किला और कोठी किला  2 जून, 1660 ईस्वी पर पूरी तरह से नष्ट हो गया था। 17 वीं सदी में राजा  रामदास  के कब्जे में कुंदा  किला था। अलीवर्गी खान 1734 ई. में कुंदा  की ओर अग्रसर थे । टिकारी (गया) के विद्रोही जमींदारों को पराजित करने के बाद और फिर उन्होंने चतरा किला पर हमला किया और कुंडा और कोठी किले को ध्वस्त कर दिया था । ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन चतरा का क्षेत्र 1769 ई. . में समाजसुधारक राजा राम मोहन रॉय, , 1805-06 में चतरा  में ‘सिरिश्द्दर’ के पद   रहते  थे । बिहार में  1857 के विद्रोह के दौरान छोटानागपुर में विद्रोहियों और ब्रिटिशों के बीच लड़ा जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई ‘चतरा की लड़ाई’ थी। चतरा की लड़ाई  2 अक्टूबर 1857 को ‘फांसी तालाब  के पास एक घंटे तक युद्ध  चला था । विद्रोहियों को पूरी तरह हराया गया था। 56 यूरोपियन सैनिकों और अधिकारियों की मौत हुई जबकि 150 क्रांतिकारियों की मौत हो गई और 77 लोगों को गड्ढे में दफनाया गया। सूबेदार  जय मंगल पांडे और नादिर अली खान को 4 अक्टूबर 1857 ई. .को जयमंगल पांडेय व नादिर अली को  मौत की सजा सुनाई गई। यूरोपीय और सिख सैनिकों को उनके हथियारों और गोला-बारूद के साथ  दफनाया गया।  इंस्क्रिप्वर पट्टिका  में शिलालेख में उल्लेख है: “रामगढ़ बटालियन के विद्रोहियों के खिलाफ कार्रवाई में 2 अक्टूबर 1857 को हर महामहिम की 53 वीं रेजिमेंट पैर और सिपाही की एक पार्टी मारे गए थे। 53 वीं रेजिमेंट के 70 वें बंगाल मूल इंफैंट्री और सर्गेन्ट डी। डायन की लेफ्टिनेंट जे.सी.सी. डुन को युद्ध में विशिष्ट वीरता के लिए विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया था, जिसमें विद्रोहियों को पूरी तरह हराया गया था और उनके सभी चार बंदूकों और गोला-बारूद को खो दिया था। चतरा जिले की नदियां में बसाने , भद्रकाली ,महाने ,हदहदवा ,अमानत , फल्गु ,निरंजना ,जमानत ,नदियां।  एवं पर्वतों में कोल्हुआ  1575 फिट ऊँचाई पर स्थित है । कुनवा ,  चनकी ,चौपारि ,गटमाही , ,कुरखेमापाली ,पिपरा ,हेदी ,कुडलॉन्जा ,अहिरपुरवा ,आरा , कुंडा सपरि पहाड़ियां है ।
करपी , अरवल , बिहार 804419
9472987491

मंगलवार, जुलाई 09, 2024

समन्वय का द्योतक नारी

 समाज और परिवार की स्तम्भ है नारी 
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
महिला अधिकार आंदोलन के केंद्र बिंदु और लैंगिक समानता , प्रजनन अधिकार और महिलाओं के खिलाफ हिंसा और दुर्व्यवहार  मुद्दों पर ध्यान  का केंद्र विंदु अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है । जर्मन साम्राज्य द्वारा  8 मार्च, 1914 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के लिए जर्मन पोस्टर  पर प्रतिबंध लगा दिया गया था । सार्वभौमिक महिला का  मताधिकार आंदोलन द्वारा प्रेरित  न्यूजीलैंड में प्रारम्भ इंटरनेशनल वोमेन डे  तथा  20वीं सदी की शुरुआत में उत्तरी अमेरिका और यूरोप में श्रमिक आंदोलनों से हुई थी।  न्यूयॉर्क शहर में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका द्वारा 28 फरवरी 1909 ई. को "महिला दिवस" ​​आयोजित था।  अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन में जर्मन प्रतिनिधियों को 1910 ई. में  प्रस्तावित करने के लिए प्रेरित किया। यूरोप में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का पहला प्रदर्शन और स्मरणोत्सव के रूप में  इंटरनेशनल वोमेन डे 8 मार्च 1917 को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया था ।  1960 के दशक के उत्तरार्ध में वैश्विक नारीवादी आंदोलन द्वारा अपनाए जाने तक अवकाश  आंदोलनों और सरकारों से जुड़ा था। 1977 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1977 ई. में महिला दिवस अपनाए जाने के बाद अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस   मुख्यधारा का वैश्विक अवकाश बन गया है। संयुक्त राष्ट्र महिलाओं के अधिकारों में मुद्दे, अभियान या विषय के संबंध में छुट्टी मनाता है। विश्व में ?महिला दिवस राजनीतिक उत्पत्ति  दर्शाता है । सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका  द्वारा 28 फरवरी 1909 ई. को कार्यकर्ता थेरेसा मल्कील के सुझाव पर न्यूयॉर्क शहर में आयोजित किया गया था । 8 मार्च, 1857 को न्यूयॉर्क में महिला परिधान श्रमिकों द्वारा एक विरोध प्रदर्शन की याद में मनाया गया था । कोपेनहेगन, डेनमार्क मेंसोशलिस्ट सेकेंड इंटरनेशनल की आम बैठक से पूर्व अगस्त 1910 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन आयोजित किया गया था। अमेरिकी समाजवादियों से प्रेरित होकर, जर्मन प्रतिनिधियों क्लारा ज़ेटकिन , केट डनकर , पाउला थिएडे और वार्षिक "महिला दिवस" ​​​​की स्थापना का प्रस्ताव रखा था ।  17 देशों के  100 प्रतिनिधियों ने महिलाओं के मताधिकार सहित समान अधिकारों को बढ़ावा देने की रणनीति के विचार के साथ सहमति व्यक्त की थी । 19 मार्च, 1911 को ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड में दस लाख से अधिक लोगों ने पहला अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया। ऑस्ट्रिया-हंगरी में,  प्रदर्शन हुए, पेरिस कम्यून के शहीदों के सम्मान में बैनर लेकर विएना में रिंगस्ट्रैस पर परेड करने वाली महिलाओं के साथ  यूरोप में, महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभाई थी । भारतीय राष्ट्रीय महिला दिवस व इंडियन नेशनल वोमेन्स डे   13 फरवरी को सरोजिनी नायडू  की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। हैदराबाद में जन्मी और कैब्रिज में शिक्षित महिलाओं की शक्तिशाली नेत्री    सरोजनी नायडू का जन्म 13 फरवरी, 1879 को हुआ था।  ‘नाइटिंगेल ऑफ इंडिया ’ या ‘भारत कोकिला ’ सरोजिनी नायडू को साहित्य में  योगदान  में जाना जाता है। साम्राज्यवाद-विरोधी, सार्वभौमिक मताधिकार, महिला अधिकार कार्यकर्ता श्रीमती नायडू ने भारत में महिला आंदोलनों का मार्ग प्रशस्त किया।। 1925 में सरोजिनी नायडू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष एवं 1947 में संयुक्त प्रांत में राज्यपाल और भारत के डोमिनियन में राज्यपाल का पद संभालने वाली पहली महिला थी । महिलाओं के अधिकारों, मताधिकार और संगठनों और विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व के लिए  1917 में महिला भारत संघ की स्थापना की थी । दिवस स्थापना महासभा के 2007 का  संकल्प संख्या 62 / 136 के अनुसार अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त को मनाया जाता है ।  महिला गण के  1995 में आंदोलन के पश्चात  15 अक्टूबर 2008 को प्रथम बार  अंतर्राष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस मनाया गया था ।  न्यूयॉर्क में 8 मार्च 1908 को महिलाओं द्वारा मताधिकार के लिए रैली , सोसलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका द्वारा थेरेसा मल्किल के प्रस्ताव पर 28 फरवरी 1909 को राष्ट्रीय महिला दिवस  , वोलिटीकेन के अनुसार 1908 में शिकागो में प्रथम महिला दिवस ,संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 8 मार्च 1975 को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की मनाए जाने की स्वीकृति दी थी । महिलाओं में  शैशवावस्था ,यौवन ,यौनप्रिपक्वता ,क्लीमेक्ट्रिक और पोस्ट क्लीमेंक्टेरिक  है । वेदों , स्मृति ग्रंथों में महिलाओं नारी की महत्वपूर्ण प्रधानता का उल्लेख मिलता है ।
भारतीय वांग्मय इतिहास के पन्नों और समाज में नारी का स्थान उत्कृष्ट , गौरव, गरिमा और महिमा का अद्वितीय महत्व है। परिवार संभालने एवं  समाज में योगदान भी अविस्मरणीय नारी का कार्य होता है। नारी का गौरव ,  समर्पण और संघर्ष में है। समाज में शिक्षा, संस्कृति, और आध्यात्मिकता का प्रतिष्ठान सुनिश्चित करती है। नारी की गरिमा साहसिकता और सहनशीलता , समाज में स्थिति के लिए एवं  परिवार की रक्षा के लिए संघर्ष करती है। नारी की महिमा उसके कर्तव्य और सेवा है। वह परिवार की देखभाल के साथ-साथ समाज में सेवा करती ।है । नारी का गौरव, गरिमा, और महिमा का संरक्षण समाज की जिम्मेदारी है। हमें नारी के सम्मान और सम्मान के प्रति समाज में जागरूकता फैलानी चाहिए। उसके साथ समानता और न्याय का भाव बनाए रखना हमारी जिम्मेदारी है। भारतीय नारी का गौरव, गरिमा, और महिमा समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अंग्रेजी साहित्य में  शबा की रानी वीनस जोन ऑफ़ आर्क एवा पेरोन मैरी क्यूरी इंदिरा गांधी विलेन्डोर्फ़ की वीनस वंगारी मथाई मदर टेरेसा ग्रेस हूपर मामेचिहो,  गीशा  तिब्बती किसान मर्लिन मुनरो ओपरा विनफ़्रे आंग सान सू की जोसेफ़िन बेकर ईसिस लावरीन कॉक्स एलिज़ाबेथ प्रथम  क्वेशुआई माँ का महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है। पुरातन सनातन धर्म तथा मानव संस्कृति में पुरुष और नारी का सम्मान के लिए नारी का नाम पुरुष पहले जोड़ते थे । जैसे उमा शंकर , सिंता राम , राधा कृष्ण , लक्ष्मी नारायण आदि है ।   भारतीय संस्कृति मे प्वैदिक काल से  नारी का स्थान सम्माननीय रूप  यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रफलाः क्रियाः।। अर्थात् जिस कुल में स्त्रियों की पूजा होती है, उस कुल पर देवता प्रसन्न होते हैं और जिस कुल में स्त्रियों की पूजा, वस्त्र, भूषण तथा मधुर वचनादि द्वारा सत्कार नहीं होता है, उस कुल में सब कर्म निष्फल होते हैं। खेती की शुरूआत बस्ती बनाकर रहने की शुरूआत नारी द्वारा की थी ।, सभ्यता और संस्कृति के प्रारम्भ में नारी है । कालान्तर में धीरे-धीरे समाज में सामाजिक व्यवस्था मातृ-सत्तात्मक से पितृसत्तात्मक होती गई और नारी समाज के हाशिए पर चली गई। आर्यों की सभ्यता और संस्कृति के प्रारम्भिक काल में महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ थी। ऋग्वेद काल में नारी  की सर्वोच्च शिक्षा अर्थात् बृह्मज्ञान प्राप्त कर सकतीं थीं। ऋग्वेद में सरस्वती को वाणी की देवी नारी की शास्त्र एवं कला के क्षेत्र में निपुणता का परिचायक है। अर्द्धनारीश्वर की कल्पना स्त्री और पुरूष के समान अधिकारों तथा  संतुलित संबंधों का परिचायक है। वैदिक काल में परिवार के कार्यों और भूमिकाओं में पत्नी को पति के समान अधिकार प्राप्त थे। नारियां शिक्षा ग्रहण करने के अलावा पति के साथ यज्ञ का सम्पादन  करतीं थीं। वेदों में रोमाला, घोषाल, सूर्या, अपाला, विलोमी, सावित्री, यमी, श्रद्धा, कामायनी, विश्वम्भरा, देवयानी आदि विदुषियों के नाम हैं।वेदों की २१ प्रकाण्ड विदुषियो में दक्ष प्रजापति की पुत्री एवं ऋषि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति चारों वेदों की प्रकाण्ड विदुषि थी। देवमाता अदिति ने  पुत्र इन्द्र को वेदों एवं शास्त्रों की शिक्षा दी थी ।  इन्द्र की पत्नी देव साम्राज्ञी शची वेदों की प्रकांड विद्वान थी। ऋग्वेद के सूक्तों पर शची ने अनुसन्धान किया। शचीदेवी पतिव्रता स्त्रियों में श्रेष्ठ मानी जाती हैं।  प्रथम मनु  स्वायम्भुव मनु की पत्नी शतरूपा  चारों वेदों एवं योग शास्त्र की  विदुषी थी। जल प्रलय के बाद मनु और शतरूपा से ही दोबारा सृष्टि का आरम्भ हुआ है। महाराज अश्वपति की पत्नी शाकल्य देवी  वनों में रहकर कन्याओं के गुरुकुल स्थापित , आश्रम बनाएं और   कन्याएं शिक्षा प्रदान की थी । शाकल्य देवी प्रथम  विदुषी द्वारा  कन्याओं के लिए शिक्षणालय स्थापित की गई थी । महर्षि मेधातिथि को शास्त्रार्थ में पराजित करने वाली वेदों के विदुषी संध्या ने यज्ञ को सम्पन्न कराने वाली प्रथम  महिला पुरोहित थी।  ब्रहर्षि वसिष्ठ जी की धर्मपत्नी विदुषी अरुंधति  ने  सप्तर्षि मंडल में ऋषि पत्नी के रूप में गौरवशाली स्थान पाई थी । काक्षीवान् की कन्या ब्रह्मवादिनी घोषा को  कोढ़ रोग हो गया था, लेकिन उसकी चिकित्सा के लिए वेद और आयुर्वेद का गहन अध्ययन किया और ये कोढी होते हुए विदुषी और ब्रह्मवादिनी बन गई। भगवान सूर्य पुत्र अश्विनकुमारों ने घोषा की चिकित्सा की और ये अपने काल की विश्वसुन्दरी बनी थी । वेदों पर अनुसन्धान करने वाली विदुषीब्रह्मवादिनी विश्ववारा ने  ऋग्वेद के पांचवें मण्डल के द्वितीय अनुवाक के अटठाइसवें सूक्त षड्ऋकों का सरल रूपान्तरण  किया था। अत्रि महर्षि के वंश में पैदा होने वली इस विदुषी ने वेदज्ञान के बल पर ऋषि पद प्राप्त किया था।ऋषि अत्रि  के वंश की ब्रह्मवादिनी अपाला  को  कुष्ठ रोग हो गया था ।  कुष्ट रोग के कारण इनके पति ने अपाला को घर से निकाल दिया था। अपाला द्वारा आयुर्वेद पर अनुसंधान कर सोमरस की का निर्माण कर इन्द्र देव को  सोमरस प्रदान की गई थी ।  आयुर्वेद चिकित्सा से अपाला  विश्वसुंदरी बनई और वेदों के अनुसंधान में संलग्न हो गईं थी । ऋग्वेद के अष्टम मंडल के ९१वें सूक्त की १ से ७ तक ऋचाएं संकलित कीं थी । आदित्य की पुत्री और सावित्री की छोटी बहन विदुषी तपती  देवलोक, दैत्यलोक, गान्धर्वलोक और नागलोक में  अधिक सुन्दरी  थी। वेदों की विद्वान रूप और गुणों से प्रभावित होकर  अयोध्या के महाराजा संवरण ने तपती से विवाह किया था। तपती ने अपने पुत्र कुरु को स्वयं वेदों की शिक्षा दी थी । ब्रह्मवादिनी वाक् अभृण ऋषि की कन्या ब्रह्मवादिनी वाक ने अन्न पर अनुसन्धान किया और युग में उन्नत खेती के लिए वेदों के आधार पर नए-नए बीजों को खेती के लिए किसानों को अनुसंधान से पैदा करके दिया था । देवगुरु  बृहस्पति की पुत्री और भावभव्य की धर्मपत्नी ब्रह्मवादिनी रोमशा ने ज्ञान का प्रचार-प्रसार कर नारी शक्ति में बुद्धि का विकास किया था । त्रेतायुग युग में मिथिला देश के विद्वान गर्ग गोत्रीय  वचक्नु की पुत्री ब्रह्मवादिनी गार्गी वाचक्नवी भी कहते हैं। गर्ग गोत्र की गार्गी ने शास्त्रार्थ में  विद्वान महिर्ष याज्ञवल्क्य तक को हरा दिया एवं माता सीता को नारीत्व की शिक्षा प्रदान की थी । महर्षि याज्ञवल्क्य की पत्नी  विदुषी मैत्रेयी ने वेदों का गहन अध्ययन किया। पति परमेश्वर की उपाधि इन्हीं के कारण जग में प्रसिद्ध हुई, क्योंकि इन्होंने पति से ज्ञान प्राप्त कर  ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए कन्या गुरुकुल स्थापित किए थे ।मिथिला के  महाराज जनक के राज्य की विदुषी सुलभा  ने शास्त्रार्थ में राजा जनक को हराया एवं स्त्री शिक्षा के लिए शिक्षणालय की स्थापना की थी । महिर्ष अगस्त्य की धर्मपत्नी एवं विदर्भ राज की पुत्री  विदुषी लोपामुद्रा ने  राजकुल में जन्म लेकर  सादा जीवन उच्च विचार की समर्थक थी, तभी तो इनके पति ने इन्हें कहा था- तुष्टोsअहमस्मि कल्याणि तव वृत्तेन शोभने, अर्थात् कल्याणी तुम्हारे सदाचार से मैं तुम पर बहुत संतुष्ट हूं। ये इतनी महान विदुषी ने अपने आश्रम में भगवान राम, सीता एवं लक्ष्मण को ज्ञान की बहुत सी बातों की शिक्षा दी थी। ममता के पुत्र दीर्घतमा ऋषि की धर्मपत्नी विदुषी उशीज थी। महर्षि काक्षीवान इन्हीं के सुपुत्र थे। इनके दूसरे पुत्र दीर्घश्रवा महान ऋषि थे। वेदों की शिक्षा उशीज ने  अपने पुत्रों को प्रदान की थी। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के ११६ से १२१ तक के मन्त्र पर अनुसंधान किया था। महर्षि दधीचि की धर्मपत्नी विदुषी प्रतिथेयी  थी। ये विदर्भ देश के राजा की कन्या और लोपामुद्रा की बहिन थीं। इनका पुत्र पिप्पललाद बहुत बडा विद्वान हुआ है।दीर्घतमा ऋषि की माता ममता  विदुषी एवं ब्रह्मज्ञानसम्पन्ना थीं।विदुषी भामती वाचस्पति मिश्र की पत्नी थी। विदुषी विद्योत्तमा से परास्त होकर पण्डितों ने एक मूर्ख को मौनी गुरु बताकर संकेत से शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी। पण्डितों ने दो अंगुली और मुक्का आदि के अलग अर्थ बताकर विद्योत्तमा को परास्त घोषित करके मूर्ख से विवाह करने को विवश कर दिया। विद्योत्तमा ने पति से उष्ट्र को उसट सुनकर उसे रात में ही घर से भगाकर दरवाजा बंद कर दिया। ‘‘अनावृतकपाटं द्वारं देहि।’’-कुछ वर्ष बाद एक घनघोर रात्रि में पति ने पुकारा। विद्योत्तमा ने द्वार खोलकर कहा, ‘‘अस्ति कश्चित वाक् विशेषः।’’ पत्नी के उपरोक्त तीन शब्दों पर अस्ति से कुमार सम्भव महाकाव्य, कश्चित् से मेघदूत खण्डकाव्य और वाक्विशेषः से रघुवंश महाकाव्य की रचना  कालजयी ग्रंथ के रचनाकार  अतीत के मूर्ख, विश्व के सर्वश्रेष्ठ संस्कृत साहित्यकार अमर महाकवि कालिदास थे। मिथिला की वेदांत और शास्त्र ज्ञाता मंडन मिश्र की भार्या एवं वेदांत ज्ञातृ  भारती ने आदि शंकराचार्य से शास्त्रार्थ की थी । आदि शंकराचार्य ने नारी की गुणों का महत्वपूर्ण उल्लेख किया है । 
मध्य काल में भारतीय नारी की स्थिति में कुछ गिरावट आ गई थी। परम्परागत तौर पर मध्य वर्ग में नारी की भूमिका घरेलू कामों से जुडी़ रहती थी जैसे कि बच्चों की देखभाल करना और ज़्यादातर औरतें पैसे कमाने नहीं जाती थीं। मध्यम वर्ग में धन की कमी की वजह से नारी को काम / मजदूरी करनी पड़ती थी। मध्य काल में  महिलाए समाज में राज्य प्रमुख, संत अहिल्याबाई होळकर, चांदबीबी, रानी चेन्नम्मा, रानी लक्ष्मीबाई महिला राज्यकर्ता प्रसिद्ध है । संत मीराबाई, संत मुक्ताबाई, कान्होपात्रा थी । भारतीय नारियों में कस्तूरबा गांधी , सरोजनी नायडू , भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरागांधी , एनी वेसेन्ट लेखिका सुभद्राकुमारी चौहान , महादेवी वर्मा आदि है।