मंगलवार, अक्तूबर 22, 2024

धातु कला का रूप है दिल्ली लौह स्तम्भ

सिंधु घाटी सभ्यता की धातु कर्म का द्योतक दिल्ली लौह स्तंभ
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
 भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा  दिल्ली के महरौली क्षेत्र का कुतुमिनार परिसर में  लौह स्तम्भ  है। राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने 375 ई.  - 413 ई.  निर्माण कराया गया था । विशेषज्ञों के अनुसार 912 ई.पू. दिल्ली का 98 प्रतिशत लोहे की मात्रा युक्त लौह स्तम्भ  की उँचाई सात मीटर है। पाली स्तम्भ आलेख के अनुसार लौह स्तम्भ को ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा 10 50 ई. में लौह स्तम्भ को गरुड़ स्तम्भ  कहा गया था । लौह  स्तंभ  का वजन 6096 किलोग्राम की ऊँचाई 735 .5  से.मी. में  50 सेमी. नीचे , 45   से.मी. चारों ओर पत्थर का प्लेटफार्म युक्त स्तंभ का घेरा 41.6  से.मी. नीचे तथा ३०.४ से.मी. ऊपर है। लौह स्तंभ के ऊपर गरुड़ की मूर्ति पूर्व में थी । स्तंभ का कुल वजन ६०९६ कि.ग्रा. है।  रासायनिक परीक्षण क्रम  में 1961 ई. को  स्तम्भ शुद्ध इस्पात का बना है ।  भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुख्य रसायन शास्त्री डॉ॰ बी.बी. लाल के अ अनुसार लौह  स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के 20 - 30  किलो को टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है। 120   कारीगरों  का परिश्रम के बाद  स्तम्भ का निर्माण किया।  सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद  स्तम्भ में फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है।  स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं। इसके अतिरिक्त 50 से 600 माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन = एक  मि.मी. का एक हजारवां हिस्सा) आक्साइड की परत  स्तंभ को जंग से बचाती है। 
साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा 20 अक्टूबर 2024 को परिभ्रमण के दौरान महरौली के लोह स्तंभ को लौह स्तम्भ में वर्णित स्तम्भ लेख के अनुसार  अवलोकन किया गया  है । इतिहास के पन्नों में  लोह स्तंभ में  गुप्त स्तम्भ  लेखशैली और  चंद्रगुप्त द्वितीय के धनुर्धारी सिक्को में  स्तंभ गरुड़ और  स्तंभ कम और राजदंड आता है। लोह स्तंभ लेखन  अनुसार राजा चंद्र ने वंग देश  और सप्त सिंधु नदियों के मुहाने पर वह्लिको को हराया था। जेम्स फेर्गुससन के अनुसार लोह स्तंभ गुप्त वंश के चंद्रगुप्त द्वितीय का है। इतिहास के अनुसार लौह स्तंभ मगध  सम्राट अशोक ने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में बनवाया था।  राजा "चंद्र" शब्द की पहचान सूर्यवंशी राजा रामचंद्र से  है। जिनका साम्राज्य लंका के समुद्र तट तक था। स्तम्भ पर अंकित सन्देश का संस्कृत ,  हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा के अनुसार लौह स्तम्भ की सतह पर  लेख और भित्तिचित्र विभिन्न काल का  विद्यमान हैं । ललौह  स्तम्भ के उस भाग पर हैं जहाँ पर पहुँचना अपेक्षाकृत आसान है। इनमें से कुछ का व्यवस्थित रूप से अध्ययन नहीं किया जा सका है।  स्तम्भ पर अंकित सबसे प्राचीन लेख 'चन्द्र'  राजा के नाम से है जिसे प्रायः गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा लिखवाया  लेख 33.5 इंच लम्बा और 10.5 इंच चौड़े क्षेत्रफल में है।  स्तम्भ जंग-प्रतिरोधी लौह स्तम्भ लेख में  यस्य ओद्वर्त्तयः-प्रतीपमुरसा शत्त्रुन् समेत्यागतन् वङ्गेस्ह्वाहव वर्त्तिनोस्भिलिखिता खड्गेन कीर्त्तिर् भुजे तीर्त्वा सप्त मुखानि येन समरे सिन्धोर् ज्जिता वाह्लिकायस्याद्य प्यधिवास्यते जलनिधिर् व्विर्य्यानिलैर् दक्षिणाःखिन्नस्य एव विसृज्य गां नरपतेर् ग्गामाश्रितस्यैत्राम् मूर्(त्)या कर्म्म-जितावनिं गतवतः कीर्त्(त्)या स्थितस्यक्षितौ , शान्तस्येव महावने हुतभुजो यस्य प्रतापो महान्नधया प्युत्सृजति प्रनाशिस्त-रिपोर् य्यत्नस्य शेसह्क्षितिम् प्राप्तेन स्व भुजार्जितां च सुचिरां च ऐकाधिराज्यं क्षितौ चन्द्राह्वेन समग्र चन्द्र सदृशीम् वक्त्र-श्रियं बिभ्राता तेनायं प्रनिधाय भूमिपतिना भावेव विष्नो (ष्नौ) मतिं प्राणशुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णौर्धिध्वजः स्थापितः ।।
जे एफ फ्लीट  ने
 संस्कृत   श्लोकों का आंग्ल भाषा में  अनुवादित 1888 ई. के अनुसार (Verse 1) He, on whose arm fame was inscribed by the sword, when, in battle in the Vanga countries (Bengal), he kneaded (and turned) back with (his) breast the enemies who, uniting together, came against (him); – he, by whom, having crossed in warfare the seven mouths of the (river) Sindhu, the Vahlikas were conquered; – he, by the breezes of whose prowess the southern ocean is even still perfumed; – (Verse 2) He, the remnant of the great zeal of whose energy, which utterly destroyed (his) enemies, like (the remnant of the great glowing heat) of a burned-out fire in a great forest, even now leaves not the earth; though he, the king, as if wearied, has quit this earth, and has gone to the other world, moving in (bodily) from to the land (of paradise) won by (the merit of his) actions, (but) remaining on (this) earth by (the memory of his) fame; – (Verse 3) By him, the king, attained sole supreme sovereignty in the world, acquired by his own arm and (enjoyed) for a very long time; (and) who, having the name of Chandra, carried a beauty of countenance like (the beauty of) the full-moon,-having in faith fixed his mind upon (the god) Vishnu, this lofty standard of the divine Vishnu was set up on the hill (called) Vishnupada. दिल्ली का लौह स्तम्भ को गरुड़ ध्वज , गरुड़ स्तम्भ , राजदंड , सींगोल स्तम्भ  कहा गया है। महरौली शिलालेख में गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की उपलब्धियों की प्रशंसा की गई है। चंद्रगुप्त का लौह स्तंभ चौथी शताब्दी के अंत से पांचवीं शताब्दी की शुरुआत तक का है। व्यास नदी के  पहाड़ी पर स्थित महरौली में  दिल्ली का राजा गुप्त वंशीय राजा  समुद्र गुप्त का पुत्र  राजा चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा  320 ई. से 495 ई. में लौह स्तम्भ  दिल्ली लाया गया था।
 राजा समुद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय ने भगवान विष्णु के सम्मान में लौह  स्तंभ का नाम विष्णुपद रखा था। लौह स्तंभ मध्य प्रदेश में उदयगिरि पहाड़ी के शीर्ष पर स्थापित किया गया था ।  तोमर राजा अनंगपाल द्वितीय ने दिल्ली लौह स्तंभ को उठाकर 1050 ई. में  दिल्ली के लाल कोट स्थित  मंदिर में स्थापित किया था। दिल्ली के संस्थापक राजा   अनंगपाल के पोते राजा पृथ्वीराज चौहान को 1191 में मुहम्मद गौरी की सेना ने पराजित करने के बाद  कुतुबुद्दीन ऐबक ने लाल कोट में कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण कराने के बाद स्तंभ को मस्जिद के स्थापित कर दिया गया था ।
 महरौली शिलालेख व  गरुड़ स्तंभ महरौली का लौह स्तंभ 7.2 मीटर ऊंचा ,  48 सेंटीमीटर व्यास वाले जटिल नक्काशीदार आधार पर टिका हुआ लौह स्तम्भ का वजन 6.5 टन है। महरौली लौह स्तंभ को दिल्ली लौह स्तंभ या लोहे की लाट, कुतुब परिसर में स्थित है। इसका निर्माण चौथी या पाँचवीं शताब्दी ई. में हुआ था और  800 साल बाद दिल्ली सल्तनत काल में  स्थान पर लाया गया था। यह स्तंभ अपनी जंग लगी अवस्था के लिए उल्लेखनीय है । यह 99% लोहे से निर्मित 5वीं शताब्दी ई. में बनाया गया था । लौह स्तम्भ के  शीर्ष पर गुप्त वंश के प्रतीक  गरुड़ का प्रतीक चिन्ह  लुप्त हो चुका है। महरौली शिलालेख गुप्त कालका  चंद्रगुप्त द्वितीय  की सैन्य विजयों, शकों पर की गई जीत पर लौह स्तम्भ  है। संस्कृत और ब्राह्मी लिपि का उपयोग गुप्त युग के दौरान सांस्कृतिक और प्रशासनिक परिष्कार के उच्च स्तर  स्तंभ के ऊपर गरुड़ का प्रतीक गुप्त शासन में भगवान विष्णु को समर्पित  वैष्णववाद का स्तम्भ है। महरौली शिलालेख गुप्त काल के उन्नत धातु विज्ञान का द्योतक है। महरौली शिलालेख चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा अपनी सैन्य विजय, विशेष रूप से शकों पर विजय की स्मृति में बनवाया गया था।"शिलालेख भारत के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्रदान कराता हैं। 

1 टिप्पणी: