बुधवार, फ़रवरी 05, 2025

त्याग और सौंदर्य का द्योतक है माता नर्मदा नदी

स्मृति ग्रथों के अनुसार माता नर्मदा का जन्म माघ शुक्ल पंचमी को अवतरण हुआ था । माता  नर्मदा ने अपने प्रेमी शोणभद्र से धोखा खाने के बाद आजीवन कुंवारी रहने का फैसला किया लेकिन क्या सचमुच वह गुस्से की आग में चिरकुवांरी बनी रही या फिर प्रेमी शोणभद्र को दंडित करने का यही बेहतर उपाय लगा कि आत्मनिर्वासन की पीड़ा को पीते हुए स्वयं पर ही आघात किया जाए। नर्मदा की प्रेम-कथा लोकगीतों और लोककथाओं में अलग-अलग मिलती है लेकिन हर कथा का अंत कमोबेश वही कि शोणभद्र के नर्मदा की दासी जुहिला के साथ संबंधों के चलते नर्मदा ने अपना मुंह मोड़ लिया और उलटी दिशा में चल पड़ीं। सत्य और कथ्य का मिलन देखिए कि नर्मदा नदी विपरीत दिशा में ही बहती दिखाई देती है। नर्मदा और शोण भद्र की शादी होने वाली थी। विवाह मंडप में बैठने  वक्त पर नर्मदा को पता चला कि शोण भद्र की दिलचस्पी उसकी दासी जुहिला(यह आदिवासी नदी मंडला के पास बहती है) में अधिक है। प्रतिष्ठत कुल की नर्मदा यह अपमान सहन ना कर सकी और मंडप छोड़कर उलटी दिशा में चली गई। शोण भद्र को अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह भी नर्मदा के पीछे भागा यह गुहार लगाते हुए' लौट आओ नर्मदा'... लेकिन नर्मदा को  नहीं लौटी थी । नर्मदा भारतीय प्रायद्वीप की प्रमुख नदियों गंगा और गोदावरी से विपरीत दिशा में पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित हैं । नर्मदा शोण नद से अलग होती दिखाई पड़ती है। नर्मदा को  चिरकुंवारी नदी कहा गया है । ग्रहों के किसी विशेष मेल पर स्वयं गंगा नदी भी यहां स्नान करने आती है। 
मत्स्यपुराण के अनुसार  सर्वत्र पवित्र नर्मदा नदी  , कनखल क्षेत्र में गंगा पवित्र और कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी  है। यमुना का जल सप्ताह में, सरस्वती का तीन दिन में, गंगाजल उसी दिन और नर्मदा का जल उसी क्षण पवित्र कर देता है।’ एक ग्रन्थ में सप्त सरिताओं का गुणगान गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती। नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन सन्निधिं कुरु।। 
नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है।  राजा मेखल की पुत्री राजकुमारी नर्मदा  थी। राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे। राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अत: उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ था । नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन ना कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहने लगी। विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची। जुहिला को सुझी ठिठोली। उसने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और चल पड़ी राजकुमार से मिलने। सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठा। जुहिला की ‍नियत में भी खोट आ गया। राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी। इधर नर्मदा का सब्र का बांध टूटने लगा। दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो वह स्वयं चल पड़ी सोनभद्र से मिलने। वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को साथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं। तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए। सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रहा लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं आई। 
भौगोलिक दृष्टिकोण से जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जुहिला  नर्मदा का सोनभद्र नद से वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर संगम है । रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी और अकेली उल्टी दिशा में बहती दिखाई देती है। रानी और दासी के राजवस्त्र बदलने का उल्लेख इलाहाबाद के पूर्वी भाग में प्रचलित है।  नर्मदा जी नदी बनकर जन्मीं। सोनभद्र नद बनकर जन्मा। दोनों के घर पास थे। दोनों अमरकंट की पहाड़ियों में घुटनों के बल चलते। चिढ़ते-चिढ़ाते। हंसते-रुठते। दोनों का बचपन खत्म हुआ। दोनों किशोर हुए। लगाव और बढ़ने लगा। गुफाओं, पहाड़‍ियों में ऋषि-मुनि व संतों ने डेरे डाले। चारों ओर यज्ञ-पूजन होने लगा। पूरे पर्वत में हवन की पवित्र समिधाओं से वातावरण सुगंधित होने लगा।
इसी पावन माहौल में दोनों जवान हुए। उन दोनों ने कसमें खाई। जीवन भर एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ने की। एक-दूसरे को धोखा नहीं देने की। एक दिन अचानक रास्ते में सोनभद्र ने सामने नर्मदा की सखी जुहिला नदी आ धमकी। सोलह श्रृंगार किए हुए, वन का सौन्दर्य लिए वह भी नवयुवती थी। उसने अपनी अदाओं से सोनभद्र को भी मोह लिया। सोनभद्र अपनी बाल सखी नर्मदा को भूल गया। जुहिला को भी अपनी सखी के प्यार पर डोरे डालते लाज ना आई। नर्मदा ने बहुत कोशिश की सोनभद्र को समझाने की। लेकिन सोनभद्र तो जैसे जुहिला के लिए बावरा हो गया था। माँ नर्मदा ने असहनीय क्षण में निर्णय लिया कि ऐसे धोखेबाज के साथ से अच्छा है इसे छोड़कर चल देना। नर्मदा ने अपनी दिशा बदल ली। सोनभद्र और जुहिला ने नर्मदा को जाते देखा। सोनभद्र को दुख हुआ। बचपन की सखी उसे छोड़कर जा रही थी। उसने पुकारा- 'न...र...म...दा...रूक जाओ, लौट आओ नर्मदा। लेकिन नर्मदा जी ने हमेशा कुंवारी रहने का प्रण कर लिया। युवावस्था में ही सन्यासिनी बन गई। रास्ते में घनघोर पहाड़ियां आईं। हरे-भरे जंगल आए। पर वह रास्ता बनाती चली गईं। कल-कल छल-छल का शोर करती बढ़ती गईं। मंडला के आदिमजनों के इलाके में पहुंचीं। कहते हैं आज भी नर्मदा की परिक्रमा में कहीं-कहीं नर्मदा का करूण विलाप सुनाई पड़ता है। नर्मदा ने बंगाल सागर की यात्रा छोड़ी और अरब सागर की ओर दौड़ीं। भौगोलिक तथ्य देखिए कि हमारे देश की सभी बड़ी नदियां बंगाल सागर में मिलती हैं लेकिन गुस्से के कारण नर्मदा अरब सागर में समा गई। नर्मदा की कथा जनमानस में कई रूपों में प्रचलित है लेकिन चिरकुवांरी नर्मदा का सात्विक सौन्दर्य, चारित्रिक तेज और भावनात्मक उफान नर्मदा परिक्रमा के दौरान हर संवेदनशील मन महसूस करता है। नर्मदा  नदी का  भक्त-गण माँ नर्मदा का मानवीयकरण कर ही लेते है। अमरकंटक पर्वत की श्रंखला से प्रवाहित होने वाली नर्मदा नदी है।
शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव का नृत्य करने के  दौरान पसीने से नर्मदा का अवतरण हुई थी । कही कही ब्रह्मा जी की तपस्या के दौरान ब्रह्मा जी की आखों से दो बूंदे आंसू गिरने के कारण नर्मदा जी की उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है। नर्मदा नदी को नर्मदा , रीवा , टिफ्ट वैली , उल्टी नदी ,नेरबुड्डा नदी कही गई है । नर्मदा को भगवान शिव , ब्रह्मा जी और मैखल कि पुत्री कही जाती है । मध्य प्रदेश राज्य का अनुपुर जिले के अमरकंटक पर्वत से उत्पन्न 1312 किमी व 815 . 2 मील पश्चिम की ओर प्रवहित होकर गुजरात राज्य के भड़ोच जिले। के अरबसागर की खंभात की खाड़ी मिलत्ती है। नर्मदा नदी मध्यप्रदेश राज्य का शहडोल ,मंडला ,जबलपुर ,नरसिंहपुर होसंगबाद , नर्मदापुरम , ढिंढोरी , महेश्वर ,  भेड़ाघाट ,खंडवा , मकरेश , ओम्कारेश्वर , खरगोल ,महाराष्ट्र , गुजरात आदि 16 जिलों में प्रवाहित होती है । नर्मदा नदी शहडोल , ताप्ती बैलून ,माही धार , गोदावरी व वेन गंगा बालाघाट में प्रवाहित होती हुई नर्मदा में मिलत्ती ह। नर्मदा नदी के सहायक नदियों में  हालर ,बजार ,वरना ,हिरण ,मेदोनी ,वर्मा ,कोलार ,मैन ,उरी , ओआँग ,हावी , वेन गंगा , ताप्ती ,माही नदिया है। नर्मदा नदी के हर कंकड़ में नर्मदेश्वर शिवलिंग है । गोदावरी और नर्मदा का संगम ओम्कारेश्वर में संगम है । मंडला में बजगर , अन्य नदी नर्मदा का संगम को त्रिवेणी संगम है। मान्धाता पर्वत पर ओम्कारेश्वर ज्योतिर्लिंग एवं ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग नर्मदा नदी के किनारे स्थापित है। 

मंगलवार, जनवरी 28, 2025

महाकुंभ , मौनी अमावस्या और प्रयागराज


चतुर्दशी व अमावस्या एवं व्रत के दिन स्त्री-सहवास तथा तिल का तेल खाना और लगाना निषिद्ध है। गत कलि युगाब्द 5126 विक्रम संवत 2081 शक संबत 1946 संबतसर पिंग 45 आंग्ल संबत 2025 माघ कृष्ण अमावस्या व 29 जनवरी को ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्म खंडः20 , 27 , 29और 38 एवं वराह पुराण  के अनुसार २९ जनवरी २०२५ बुधवार को रात्रि १०:२| से ३० जनवरी रात्रि ८:१४  तक व्यतिपात योग है। व्यतिपात योग की ऐसी महिमा है कि उस समय जप पाठ प्राणायम, माला से जप या मानसिक जप करने से भगवान की और विशेष कर भगवान सूर्यनारायण की प्रसन्नता प्राप्त होती है जप करने वालों को, व्यतिपात योग स्नानादि करने पर  लाख गुना फल मिलता है। ।  व्यतिपात योग की माघ-मौनी अमावस्या २९ जनवरी  २०२५ बुधवार है । माघ अमावस्या को मौनी व मुनि का अवतरण हुआ था । मौन रहकर प्रयाग संगम अथवा पवित्र नदी व पवित्र जल  में स्नान करना चाहिए।* ब्रह्मा जी ने स्वयंभुव मनु को उत्पन्न कर सृष्टि का निर्माण कार्य आरम्भ किया था । पद्म पुराण’ के अनुसार माघ मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या को सूर्योदय से पहले  तिल और जल से पितरों का तर्पण करने पर  स्वर्ग में अक्षय सुख भोगता है। पितृ पूजा, श्राद्ध, तर्पण, पिण्ड दान, नारायणी आदि कर सकते है। वैसे तो प्रत्येक अमावस्या पितृ कर्म के लिए विशेष होती है परंतु युगादि तिथि तथा मकरस्थ रवि होने के कारण मौनी अमावस्या का महत्व कहीं ज्यादा है। अगर आप पितृदोष से पीड़ित हैं अथवा आपको लगता है की आपके पिता, माता अथवा गुरु के कुल में किसी को अच्छी गति प्राप्त नहीं हुई है तो आज तर्पण (विशेषतः गंगा किनारे स्कन्द पुराण के अनुसार गंगा स्नान कर तर्पण कृत्य हैं।  पितरों के उद्देश्य से भक्तिपूर्वक गुड़, घी और तिल के साथ मधुयुक्त खीर गंगा में डालते हैं, उसके पितर सौ वर्षों तक तृप्त बने रहते हैं और वे संतुष्ट होकर अपनी संतानों को नाना प्रकार की मनोवाञ्छित वस्तुएं प्रदान करते हैं। पितरों के उद्देश्य से गंगाजल के द्वारा शिवलिंग को स्नान कराते हैं, उनके पितर यदि भारी नरक में पड़े हों तो भी तृप्त हो जाते हैं। ताँबे के पात्र में रखे हुए अष्टद्रव्ययुक्त (जल, दूध, कुश का अग्रभाग, घी, मधु, गाय का दही, लाल कनेर तथा लाल चंदन गंगाजल से भगवान सूर्य को अर्घ्य देते हैं, वे अपने पितरों के साथ सूर्यलोक में जाकर प्रतिष्ठित होते हैं।  गंगा के तट पर एक बार भी पिण्डदान करता है, वह तिलमिश्रित जल के द्वारा अपने पितरों का भवसागर से उद्धार कर देता है। पिता/माता/गुरु/भाई/मित्र/रिश्तेदार किसी के भी कुल में कोई किसी भी तरह, किसी भी अवस्था में मरा हो (चाहे अग्नि से या विष से या आत्मदाह अथवा अन्य  प्रकार से मृत्यु पितरों का उद्धार संभव है। माघ कृष्ण पक्ष की अमावस्या युगादि तिथि को चार युगों में से एक युग का आरम्भ हुआ था। स्कंदपुराण के अनुसार “माघे पञ्चदशी कृष्णा द्वापरादिः स्मृता बुधैः” द्वापरएवं  कलियुग की प्रारम्भ तिथि मानते हैं। युगादि तिथियाँ बहुत ही शुभ होती हैं, इस दिन किया गया जप, तप, ध्यान, स्नान, दान, यज्ञ, हवन कई गुना फल देता है l साधु, महात्मा तथा  के सेवन के लिए अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए तथा उन्हें रजाई, कम्बल आदि जाड़े के वस्त्र देने चाहिए।  गौशाला में गायों के निमित्त हरे चारे, खल, चोकर, भूसी, गुड़ आदि पदार्थों का दान देना चाहिए तथा गौ की चरण रज को मस्तक पर धारण कर उसे साष्टांग प्रणाम करना चाहिए। माघी अमावस्या को प्रात: स्नान के बाद ब्रह्मदेव और गायत्री का पूजन करें। गाय, स्वर्ण, छाता, वस्त्र, पलंग, दर्पण आदि का मंत्रोपचार के साथ ब्राह्मण को दान करें। पवित्र भाव से ब्राह्मण एवं परिजनों के साथ भोजन करें।  पीपल में आघ्र्य देकर परिक्रमा करें और दीप दान दें। इस दिन जिनके लिए व्रत कर मीठा भोजन करें। मौनी अमावस्या के दिन भूखे प्राणियों को भोजन कराने का भी विशेष महत्व है।  सुबह स्नान आदि करने के बाद आटे की गोलियां बनाएं। गोलियां बनाते समय भगवान का नाम लेते रहें। इसके बाद समीप स्थित किसी तालाब या नदी में जाकर यह आटे की गोलियां मछलियों को खिला दें। इस उपाय से आपके जीवन की अनेक परेशानियों का अंत हो सकता है। अमावस्या के दिन चीटियों को शक्कर मिला हुआ आटा खिलाएं। ऐसा करने से आपके पाप कर्मों का क्षय होगा और पुण्य कर्म उदय होंगे। यही पुण्य कर्म आपकी मनोकामना पूर्ति में सहायक होंगे। महाभारत अनुसाशन पर्व 25 ,36 38 के अनुसार दशतीर्थसहस्राणि तिस्रः कोटयस्तथा पराः॥ समागच्छन्ति मध्यां तु प्रयागे भरतर्षभ। माघमासं प्रयागे तु नियतः संशितव्रतः॥ स्नात्वा तु भरतश्रेष्ठ निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात्। अर्थात माघ मास की अमावस्या को प्रयाग राज में तीन करोड़ दस हजार अन्य तीर्थों का समागम होता है। जो नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करते हुए माघ मास में प्रयाग में स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में जाता है।