मंगलवार, सितंबर 15, 2020

हिन्दी : मागधी और लिपियां

 मागधी और मगही ; कैथी लिपियां
सत्येन्द्र कुमार पाठक
हिन्दी भाषा मे भाषाई रूपी नदियां निरन्तर प्रवाहित होती है । मागधी और मगही भाषा हिन्द की हिन्दी मे समाहित है। मागधी लिपि का रूप कैथी लिपि थी । कैथी लिपि का प्रयोग ब्रिटिश साम्राज्य तक कायम था । मगध साम्राज्य की स्थापना मागध  द्वारा की गई एवं मागध लिपि का उदय हुआ था । कालांतर मागध लिपि कैथी लिपि शासन की बनी थी । 1947 के पूर्व मगध वर्तमान बिहार की शासकीय लिपि कैथी थी । मागधी लिपि को ब्राह्मी लिपि कहा गया था बाद में कैथी लिपि का रूप आया था । ब्राह्मी लिपि को प्राकृत लिपि , भाषा प्राकृत , प्राच्य , व्रात्य , मागधी  भाषा कहा गया है । हिन्दी साहित्य मे मागधी, प्राकृत मागधी, अपभ्रंश मागधी और मगही भाषा सम्मलित है। ‘सा मागधी मूलभाषा’ से  बोध होता है कि आजीवक तीर्थंकर मक्खलि गोसाल, जिन महावीर और गौतम बुद्ध के समय मागधी ही मूल भाषा थी जिसका प्रचलन जन सामान्य अपने दैनंदिन जीवन में करते थे। मौर्यकाल में यह राज-काज की भाषा बनी क्योंकि अशोक के शिलालेखों पर उत्कीर्ण भाषा यही है। जैन, बौद्ध और सिद्धों के समस्त प्राचीन ग्रंथ, साहित्य एवं उपदेश मगही में ही लिपिबद्ध हुए हैं। भाषाविद् मानते हैं कि मागधी  से ही सभी आर्य भाषाओं का विकास  हुआहै। मगही शब्द की उत्पत्ति ‘मागधी’ से मानी गयी है । व्याकरणाचार्य कच्चान ने मगही की प्राचीनता के संबंध में कहा है -"सा मागधी मूलभाषा, नराया आदि कप्पिका। ब्रह्मणा चस्सुतालापा सम्बुद्धा चापि भासि रे।।"‘चूलवंश’ में भी मागधी को सभी भाषाओं का मूल भाषा कहा गया है -"सब्बेसां मूल भाषाय मागधाय निरूक्तियां।" मौद्गल्यायन, बुद्धघोष और नाट्याचार्य भरतमुनि ने  मगही को आमजन की लोकप्रिय भाषा के रूप में स्वीकार किया है। संस्कृत नाटकों में आम आम लोगों की भाषा के रूप में मगही का ही प्रयोग हुआ है। पश्चिमी भाषाविद् और भारतीय भाषाओं के प्रथम सर्वेक्षक जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (1851-1941) ने आधुनिक मगही के दो रुपों को स्वीकार किया है -
(क) पूर्वी मगही (ख) शुद्ध मगहीपूर्वी मगही झारखंड राज्य के चतरा, हजारीबाग के दक्षिणपूर्व भाग, मानभूम एवं रांची के दक्षिण पूर्व भाग खरसावां तथा दक्षिण में उड़ीसा के मयुरभंज एवं बामड़ा तक बोली जाती है। पश्चिम बंगाल के मालदा जिले का पश्चिमी भाग भी पूर्वी मगही का क्षेत्र है। पटना, नालन्दा, गया,अरवल , जहानाबाद , नवादा , औरंगाबाद , ,पलामू चतरा,हजारीबाग, कोडरमा , रामगढ , मुंगेर, भागलपुर और बेगुसराय जिले में ही नहीं अपितु पूर्व क्षेत्र में रांची के दक्षिण भाग में, सिंहभूम के उत्तरी क्षेत्र में तथा सरायकेला एवं खरसावां के कुछ क्षेत्रों में मगही बोली जाती है।भाषाविदों ने पूर्वी मगही तथा शुद्ध मगही के साथ ही मिश्रित मगही का एक रूप भी स्वीकार किया है। इसके अनुसार मिश्रित मगही का रुप वहां दिखाई पड़ता है जहां आदर्श मगही अपनी सीमा पर अन्य सहोदर भाषाओं, जैसे मैथिली और भोजपुरी से मिलकर सीमावर्ती बोलियों के रुप में व्यक्त होती है।आधुनिक काल में मगही भाषा के अनेक रुप दिखाई पड़ते हैं। चूंकि मगही भाषा का क्षेत्र विस्तार बहुत ही व्यापक है, अतः स्थान भेद के कारण इसके रुप में भी कई भेद हो गए हैं। मगही भाषा के क्षेत्रीय भेदों का संकेत कृष्णदेव प्रसाद ने इस प्रकार से किया है -(क) आदर्श-मगही; (ख) शुद्ध-मगही; (ग) टलहा मगही;(घ) सोनतरिया मगही; (च) जंगली मगही।भाषाशास्त्री भोलानाथ तिवारी की मान्यता है कि मगही का परिनिष्ठित रूप पुराने गया जिले में बोला जाता है। ग्रियर्सन[3] ने भी गया जिले की मगही को विशुद्ध मगही माना है। जॉर्ज अब्राह्म ग्रियर्सन के भाषा-सर्वेक्षण के अनुसार ‘मगही’ भाषियों की संख्या 2067877 थी। लेकिन 1951  की जनगणना के अनुसार 3059345  मगही भाषी लोगों की संख्या 2011के जनगणना के अनुसार लगभग 35863939 है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने मगही भाषा के विकासात्मक इतिहास को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है -
1.अशोक के पूर्व की मागधी - ई0 पू0 600 से 300 तक  , 2. अशोक की मागधी - ई0 पू0 300 से 200 तक  3 .अशोक के  200  200  4. प्राकृत मागधी - 0 से 550 ई. तक , 3.अपभ्रंश - 1. अपभ्रंश मागधी - ई0 सन् 550 से 1200 ई. तक प्राचीन मगही - ई0 सन् 800 से 1200 तक .मध्यकालीन मगही - ई0 सन् 1200 से 1600 तक .आधुनिक मगही - ई0 सन् 1600 से  अबतक ।आदि पाली मगही (मागधी) काल में मुख्यतः अशोक के पूर्व, समकालीन और परवर्ती समय का साहित्य है। अशोक के पूर्व और परवर्ती काल का मगही साहित्य अनुपलब्ध है परंतु अशोककालीन मगही साहित्य हमें शिलालेखों, गुहालेखों और मौर्यकालीन ग्रंथों में मिलता है।प्राकृत मगही (मागधी) काल का साहित्य जैन और बौद्ध साहित्य है। सभी जैन आगम और बुद्ध वचन प्राकृत मगही भाषा में ही संग्रहित हुए हैं।अपभ्रंश मगही (मागधी) काल का समय राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ई0 सन् 550 से 1200 ई. तक का है। दुर्भाग्य से इस काल का मगही साहित्य अनुपलब्ध है।प्राचीन मगही (मागधी) काल का साहित्य अत्यंत समृद्ध है जिसका आरंभ आठवीं शताब्दी के सिद्ध कवियों की रचनाओं से होता है। इनमें सिद्ध कवि सरहपा सर्वप्रथम हैं जिनकी रचनाएं ‘दोहाकोष’ में संकलित और प्रकाशित हैं। इसका सम्पादन राहुल सांकृत्यायन ने किया है।मध्यकालीन मगही (मागधी) काल में सिद्ध साहित्य की परम्परा को मध्यकाल के अनेक संत कवियों ने बरकरार रखा और मगही भाषा में उत्कृष्ट रचनाएं की। बाबा करमदास, बाबा सोहंगदास, बाबा हेमनाथ दास आदि इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय संत कवि हैं जिनकी रचनाएं हमें मगही में प्राप्त होती है।आधुनिक मगही (मागधी) काल औपनिवेशिक समय में आरंभ होता है। इस काल में लोकभाषा और लोकसाहित्य सम्बन्धी अध्ययन के परिणामस्वरुप मगही के प्राचीन परम्परागत लोकगीतों, लोककथाओं, लोकनाट्यों, मुहावरों, कहावतों तथा पहेलियों का संग्रह कार्य हुआ। साथ ही मगही भाषा में आधुनिक और समकालीन समाज-परिवेश और जीवन संबंधी साहित्य, अर्थात् कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, एकांकी, ललित निबन्ध आदि की रचनाएं, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं भाषा और साहित्य पर नवीन दृष्टि से अनुसंधान हुए तथा हो रहे हैं।‘ए हैंडबुक ऑफ द कैथी कैरेक्टर’ (1881), ‘लैंग्वेज ऑफ मग्गहिया डोम्स’ (1887), अनंत प्रसाद बनर्जी-शास्त्री कृत ‘इवोल्यूशन ऑफ मगही’ (1922), हरप्रसाद शास्त्री कृत ‘मगधन लिटरेचर’ (1923), ‘द बर्थ ऑफ लोरिक’ (मगही) टेक्सट् (1929), प्रो. रामशंकर कृत ‘मगही’ (1958), प्रो. कपिलदेव सिंह कृत ‘मगही का आधुनिक साहित्य’ (1969), डा. युगेश्वर पांडेय कृत ‘मगही भाषा’ (1969), डा. श्रीकांत शास्त्री कृत ‘मगही शोध’ (1969), सम्पत्ति अर्याणी कृत ‘मगही भाषा और साहित्य’ (1976),रास बिहारी पांडेय कृत ‘मगही साहित्य व साहित्यकार’ (1976), रास बिहारी पांडेय कृत ‘मगही भाषा का इतिहास’ (1980), असीम मैत्रा कृत ‘मगही कल्चर: ए मोनोग्राफिक स्टडी’ (1983), डा. ब्रजमोहन पांडेय ‘नलिन’ कृत ‘मगही अर्थ विज्ञान: विश्लेषणात्मक निर्वचन’ (1982), ‘मगही भाषा निबंधावली (1984), राहुल सांकृत्यायन कृत ‘पाली साहित्य का इतिहास’ (1993), डा. राम प्रसाद सिंह कृत ‘मगही साहित्य का इतिहास’ (1998), डा. सत्येंद्र कुमार सिंह कृत ‘मगही साहित्य का इतिहास’ (2002), एसईआरटी, बिहार टेक्सट् बुक कमिटि, पटना का ‘मगही भासा आउ साहित्य के कथा’, सरयू प्रसाद कृत ‘मगही फोनोलॉजी: ए डिस्क्रीप्टिव स्टडी (2008), धनंजय श्रेत्रिय संपादित ‘मगही भाषा का इतिहास एवं इसकी दिशा और दशा’ (2012) और डा. लक्ष्मण प्रसाद कृत ‘मगही साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ (2014)।डा. उमशंकर भट्टाचार्य कृत ‘मगही कहावत’ (1919), जयनाथ पति और महावीर सिंह कृत ‘मगही मुहावरा बुझौवल’ (1928), डा. विश्वनाथ प्रसाद कृत ‘मगही संस्कार गीत’ (1962), सम्पत्ति अर्याणी कृत ‘मगही लोक साहित्य’ (1965), डा. राम प्रसाद सिंह कृत ‘मगध की लोक कथाएं: अनुशीलन’ (1996), डा. राम प्रसाद सिंह कृत ‘मगही लोक गीत के संग्रह’ (1998), इनामुल हक कृत ‘मगही लोकगाथाओं का साहित्यिक अनुशीलन’ (2006) घमंडीदास कृत मगही रामायण आदि। मगही भाषा क विकास के लिए  मगही मंच , मगही अकादमी , विश्व मगही परिषद्  ,मगही लोक  अनेक संस्थाएं बनी है ।मगही साहित्य पर ५५ लोग विभिन्न विश्वविद्यालयो से शोधकार्य किए गए है । मगही भषा के विकास मे पं कमलेश बासाताड (अरवल ) , रामप्रसाद सिंह गया , कन्हैयालाल मेहरवार , गया , , सत्येन्द्र कुमार पाठक करपी अरवल , उमाशंकर सिंह सुमन , जहानाबाद , राजेन्द्र सुधाकर जहानाबाद  , नागेन्द्र कुमार सिंह कौआकोल नवादा , नागेन्द्र नारायण जालंधर , अरविन्द कुमार ऑजास जहानाबाद , राम रतन सिंह रत्नाकर नवादा , धनंजय श्रोत्रिय पटना चितरंजन चैनपुरिया जहानाबाद , मगध विश्वविद्यालय के मगही व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ भरत सिंह आदि मगही सेवी सक्रिय है । महाकाव्य: जनहरिनाथ (हरिनाथ मिश्र) कृत ‘ललित भागवत’ और ‘ललित रामायण’ (1893), जवाहिर लाल कृत ‘मगही रामायण’ (), रामप्रसाद सिंह कृत ‘लोहा मरद’ (), योगेश्वर प्रसाद सिंह ‘योगेश’ कृत ‘गौतम’ (), योगेश पाठक कृत ‘जरासंध’ () आदि। खण्ड काव्य: मिथिलेश प्रसाद ‘मिथिलेश’ कृत ‘रधिया’ (), रामप्रसाद सिंह कृत ‘सरहपाद’ () आदि।मुक्तक गीत एवं काव्य: जौन क्रिश्चियन कृत ‘सत्य-शतक’ (1861), जगन्नाथ प्रसाद ‘किंकर’ कृत ‘मगही गीत संग्रह’ (1934), मुनक्का कुँअर कृत ‘मुनक्का कुँअर भजनावली’ (1934), श्रीनंदन शाली कृत ‘अप्पन गीत’, योगेश्वर प्रसाद ‘योगेश’ कृत ‘इँजोर’ (1946), रामनरेश प्रसाद वर्मा कृत ‘च्यवन’ (), स्वर्णकिरण कृत ‘जीवक’ (), ‘सुजाता’ (), सुरेश दूबे ‘सरस’ कृत ‘निहोरा’ (), कपिलदेव त्रिवेदी ‘देव’ कृत ‘मगही सनेस’ (1965), रामविलास रजकण कृत ‘वासंती’ (1965), रजनीगंधा’ (1968), ‘दूज के चान’ (1979), ‘पनसोखा (1979), योगेश्वर प्रसाद ‘योगेश’ कृत ‘लोहचुट्टी’ (1966), रामसिंहासन सिंह ‘विद्यार्थी’ कृत ‘जगरना’ (1967), रामपुकार सिंह राठौर कृत ‘औजन’ (), राम प्रसाद सिंह कृत ‘परस पल्लव’ (1977) डॉ राम सिंहासन सिंह कृत 'अँचरा के छाँव में'(2015) आदि।
मगही कथा (कहानी) साहित्य - तारकेश्वर भारती कृत ‘नैना काजर’, जितेन्द्र वत्स कृत ‘किरिया करम’, श्रीकान्त शास्त्री कृत ‘मगही कहानी सेंगरन’, राजेश्वर पाठक ‘राजेश’ कृत ‘नगरबहू’, लक्ष्मण प्रसाद कृत ‘कथा थउद’, रामनरेश प्रसाद वर्मा कृत ‘सेजियादान’, अभिमन्यु प्रसाद मौर्य कृत ‘कथा सरोवर’, अलखदेव प्रसाद अचल कृत ‘कथाकली’, सुरेश प्रदास निर्द्वेन्द्ध कृत ‘मुरगा बोल देलक’, राधाकृष्ण कृत ‘ए नेउर तू गंगा जा’, रामनन्दन कृत ‘लुट गेलिया’, ब्रजमोहन पाण्डेय ‘नलिन’ कृत ‘एक पर एक’, रामचन्द्र अदीप कृत ‘गमला में गाछ’ और ‘बिखरइत गुलपासा’, दयानंद प्रसाद ‘बटोही’ कृत ‘कफनखोर’, शिव प्रसाद लोहानी कृत ‘घोटाला घर’, रामविलास रजकण कृत ‘कथांकुर’, मिथिलेश कृत ‘कनकन सोरा’, मुद्रिका सिंह कृत ‘जोरन’ आदि। मगही कथा (उपन्यास) साहित्य - मगही में प्रकाशित उपन्यासों की सूची इस प्रकार है - जयनाथ पति कृत ‘सुनीता’ (1927), ‘फूल बहादुर’ (1928) और गदहनीत (1937), डा. राम प्रसाद सिंह कृत ‘समस्या’ (1958), राजेन्द्र प्रसाद यौधेय कृत ‘बिसेसरा’ (1962), राम नन्दन कृत ‘आदमी आ देवता’ (1965), बाबूलाल मधुकर कृत ‘रमरतिया’ (1968), द्वारिका प्रसाद कृत ‘मोनामिम्मा’ (1969), चन्द्रशेखर शर्मा कृत ‘हाय रे उ दिन’ (), ‘सिद्धार्थ’ () और ‘साकल्य’ (), शशिभूषण उपाध्याय मधुकर कृत ‘सँवली’ (1977), श्रीकान्त शास्त्री कृत ‘गोदना’ (1978), उपमा दत्त कृत ‘पियक्कड़’ (), सत्येन्द्र जमालपुरी कृत ‘चुटकी भर सेनुर’ (1978), रामनरेश प्रसाद वर्मा कृत ‘अछरंग’ (1980), केदार ‘अजेय’ कृत ‘बस एक्के राह’ (1988), रामप्रसाद सिंह कृत ‘नरक-सरग-धरती’ (1992), रामविलास ‘रजकण’ कृत ‘धूमैल धोती’ (1995), डा. राम प्रसाद सिंह कृत ‘बराबर के तरहटी में’ ‘सरद राजकुमार’ और ‘मेधा’ , मुनिलाल सिन्हा ‘सीसम’ कृत ‘प्राणी महासंघ’ (1995), बाबूलाल मधुकर कृत ‘अलगंठवा’ (2001), आचार्य सच्चिदानन्द कृत ‘बबुआनी अइँठन छोड़ऽ’ (2004), परमेश्वरी सिंह ‘अनपढ़’ कृत ‘बाबा मटोखर दास’ ,मुनिलाल सिन्हा ‘सीसम’ कृत ‘गोचर के रंगे गोरू-गोरखियन के संग’ (), रामबाबू सिह ‘लमगोड़ा’ कृत ‘उनतीसवाँ व्यास’  और ‘टुन-टुनमें-टुन’ परमेश्वरी सिंह ‘अनपढ़’ कृत ‘शालिस’ (2006), रामनारायण सिंह उर्फ पासर बाबू कृत ‘तारा’ (2011) और अश्विनी कुमार पंकज कृत ‘खाँटी किकटिया’ (2018) बाबूलाल मधुकर कृत ‘नयका भोर’, हरिनन्दन किसलय कृत ‘अप्पन गाँव’, सिद्धार्थ शर्मा कृत ‘भगवान तोरे हाथ में’, बाबूराम सिंह ‘लमगोड़ा’ कृत ‘गन्धारी के सराप’, ‘बुज्झल दीया क मट्टी’, ‘कोसा’, अलखदेव प्रसाद अचल कृत ‘बदलाव’, केशव प्रसाद वर्मा कृत ‘सोना के सीता’, दिलीप कुमार कृत ‘बदलल समाज’, अभिमन्यु प्रसाद मौर्य कृत ‘प्रेम अइसन होव हे’, ‘पाँड़े जी के पतरा’, सत्येन्द्र प्रसाद सिंह कृत ‘अँचरवा के लाज’, छोटूराम शर्मा कृत ‘मगही के दू फूल’, केशव प्रसाद वर्मा कृत ‘कनहइया क दरद’, रामनन्दन कृत ‘कौमुदी महोत्सव’, रामनरेश मिश्र ‘हंस’ कृत ‘सुजाता’, रघुवीर प्रसाद समदर्शी भस्मासुर’, गोपाल रावत पिपासा कृत ‘आधी रात के बाद’, घमंडी राम कृत ‘सोहाग के भीख’ आदि।
मगध समाचार (अखौरी शिवनंदन प्रसाद, 1880), तरुण तपस्वी (श्रीकान्त शास्त्री, 1945-46), मागधी (श्रीकान्त शास्त्री, 1950), मगही (श्रीकान्त शास्त्री/शिवराम योगी, 1954-58), महान मगध (गोपाल मिश्र केसरी, 1955-56), बिहान (श्रीकान्त शास्त्री/डा. रामनंदन/सुरेश दुबे ‘सरस’, 1958-78), मगही सनेस (रामलखन शर्मा, 1965), मगही हुंकार (योगेन्द्र, 1966), सरहलोक (1967), सुजाता (बाबूलाल मधुकर, 1967), भोर (आशुतोष चौधरी/नंदकिशोर सिंह, 1968), सारथी (मथुरा प्रसाद नवीन/मिथिलेश, 1971), मगही लोक (रामप्रसाद सिंह, 1977-79), मगही समाचार (सतीश कुमार मिश्र, 1978), भोर (योगेश्वर प्रसाद सिंह योगेश/राम नगीना सिंह ‘मगहिया’, 1978), मगही समाज (रामप्रसाद सिंह, 1979-81), माँजर (बांके बिहारी ‘वियोगी’, 1980), कोंपल (जटाधारी मिश्र, 1979-80), मागधी (योगेश्वर प्रसाद सिंह योगेश, 1980), गौतम (श्यामनन्दन शास्त्री हंसराज, 1983), निरंजना (केसरी कुमार, 1983), पनसोखा (आशुतोष चौधरी, 1986), पाटलि (केशव प्रसाद वर्मा, 1989), कचनार (विश्वनाथ, 1992), मगह के हुँकार (सुशील रंजन, 1994), अलका मागधी (अभिमन्यु प्रसाद मौर्य, 1995), अँकुरी (जनार्दन मिश्र ‘जलज’ 1996), अखरा (ब्रजमोहन पाण्डेय ‘नलिन’, 1998), मगधांचल (जनवादी लेखक संघ, औरंगाबाद, 1998), मगहिया भारती (रामगोपाल पांडेय, 1998), मगधवाणी (1998), मगही पत्रिका (धनंजय श्रोत्रिय, 2001), मगही समाचार (सतीश कुमार मिश्र, 2004), सिरजन (कृष्ण मोहन प्यारे, 2009), टोला-टाटी (सुमंत), बंग मागधी (धनंजय श्रोत्रिय, 2011), मगही मनभावन (ई-पत्रिका, उदय भारती, 2011-15), मगही मंजूषा (उदय शंकर शर्मा, 2017)। मगही विद्वान और साहित्यकार श्रीकान्त शास्त्री आधुनिक मगही साहित्य की चेतना का आरम्भ श्रीकृष्णदेव प्रसाद की रचनाओं से मानते हैं। आधुनिक मगही साहित्य को विविध विधाओं के जरिए कवियों, लेखकों, नाटककारों, कहानीकारों, उपन्यासकारों एवं निबन्धकारों ने समृद्ध किया है। इनमें पुरानी और नयी पीढ़ी दोनों साहित्यधर्मी समान रूप से मगही में सृजनरत है। ऐसे मगही साहित्यकारों में जयनाथ पति, श्रीकान्त शास्त्री, श्रीकृष्णदेव प्रसाद, रामनरेश, पाठक, जयराम सिंह, रामनन्दन, मृत्युञ्जय मिश्र ‘करुणेश’, योगेश्वर सिंह ‘योगेश’, राम नरेश मिश्र ‘हंस’, बाबूलाल ‘मधुकर’, सतीश कुमार मिश्र, रामकृष्ण मिश्र, रामप्रसाद सिंह, रामनरेश प्रसाद वर्मा, रामपुकार सिंह राठौर, गोवर्धन प्रसाद सदय, सूर्यनारायण शर्मा, मथुरा प्रसाद ‘नवीन’, श्रीनन्दन शास्त्री, सुरेश दूबे ‘सरस’, शेषानन्द मधुकर, रामप्रसाद पुण्डरीक, अनिल विभाकर, मिथिलेश जैतपुरिया, राजेश पाठक, सुरेश आनन्द पाठक, देवनन्दन विकल, रामसिंहासन सिंह विद्यार्थी, श्रीधर प्रसाद शर्मा, कपिलदेव प्रसाद त्रिवेदी, ‘देव मगहिया’, हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी, हरिनन्दन मिश्र ‘किसलय’, रामगोपाल शर्मा ‘रुद्र’, रामसनेही सिंह ‘सनेही’, सिध्देश्वर पाण्डेय ‘नलिन’, राधाकृष्ण राय भरत सिंह , वैदेही शरण लाल , मनोज कुमार कमल आदि के नाम प्रमुख हैं। संस्‍कृत या अपभ्रंश या पैशाची जैसी पूर्व भाषाएं। हमारे पुराणाें और उपपुराणों में हमारी भाषाओं को प्रारम्‍भ में जहां ब्रह्माक्षर ( या ब्राह्मी। सन्‍दर्भ - शिवधर्मपुराण) में लिखने का निर्देश हैं, वहीं बाद में नन्दिनागरी लिपि में लिखने का निर्देश मिलता है। नन्दि नागरी ही  देवनागरी लिपि का पूर्व और प्रारम्भिक रूप है। उत्‍तर गुप्‍तकालीन देवीपुराण, शिवधर्मोत्‍तर पुराण और अग्निपुराण में नन्दिनागरी लिपि का सन्‍दर्भ मिलता है। देवीपुराण में कहा गया है कि नन्दिनागरी लिपि बहुत सुन्‍दर है और इसका व्‍यवहार समस्‍त वर्णों को ध्‍यान में रखकर किया जाना चाहिए। इसमें किसी भी वर्ण और उसके अंश को भी तोड़ना नहीं चाहिए। अक्षरों को हल्‍का भी नहीं लिखना चाहिए न ही कठोर लिखना चाहिए। हेमाद्रि (1260 ई.) ने भी इन श्‍लोकों को चतुर्वर्ग्‍ग चिन्‍तामणि में उद्धृत किया है- नाभि सन्‍तति विच्छिन्‍नं न च श्‍लक्ष्‍णैर्न कर्कशै:।। 
नन्दिनागरकैव्‍वर्णै लेखयेच्छिव पुस्‍तकम्।। प्रारभ्‍य पंच वै श्‍लोकान् पुन: शान्तिन्‍तु कारयेत्। (देवीपुराण 91, 53-54 एवं शिवधर्मोत्‍तर) । पुस्‍तकों के लिखने के सन्‍दर्भ में  अग्निपुराणकार ने भी प्रस्‍तुत किया है। नन्दिपुराण में कहा गया है कि स्‍याही का उचित प्रयोग करना चाहिए और वर्णों के बाहरी-भीतरी स्‍वरूपों को सही-सही प्रयोग करना चाहिए। उनको सुबद्ध करना चाहिए, रम्‍य लिखना चाहिए, विस्‍तीर्ण और संकीर्णता पर पूरा ध्‍यान देना चाहिए। (दानखण्‍ड अध्‍याय 7, ) । विश्व में  89 लिपियां थीं। पहली सदी तक चौंसठ लिपियां अस्तित्‍व में थीं। इन लिपियों के अलग-अलग नाम भी मौजूद हैं। यह कैसे हुआ, कोई नहीं कह सकता, मगर लिपियों का इतनी संख्‍या में होना जाहिर करता है कि ये सब एकाएक नहीं आ गई। एक छोटे से देश में इतनी लिपियां और उनको लिखने की परंपरा,.. बुद्ध जब पढने जाते हैं तो पहले ही शिक्षक को 64 लिपियों के नाम गिनाते हैं जिनमें पहली लिपि ब्राह्मी हैं। महाभारत में विदुर को यवनानी लिपि के ज्ञात होने का जिक्र आया है, वशिष्‍ठस्‍मृति में विदेशी लिपि का संदर्भ है। किंतु ब्राह्मी वही लिपि है जिसको चीनी विश्‍वकोश में भी ब्रह्मा द्वारा उत्‍पन्‍न बताया गया है ।पड़ नामक लिपि खोदक का नाम अशोक के शिलालेख में आता है, जो अपने हस्‍ताक्षर तो खरोष्‍टी में करता था अौर लिखता ब्राह्मीलिपि। हालांकि अशोक ने अपनी संदेशों को धर्मलिपि में कहा है...। सिंधु-हडप्‍पा की अपनी लिपि रही है, इस सभ्‍यता की लिपि के नामपट्ट धोलावीरा के उत्‍खनन में मिल चुके हैं...। कुछ शैलाश्रयों में भी संकेत लिपि के प्रमाण खोजे गए हैं। मैक्स ब्‍यूलर वगैरह उन पाश्‍चात्‍य विद्वानों के तर्कों का क्‍या होगा जो भारतीयों को अपनी लिपि का ज्ञान बाहर से ग्रहण करना बताते हैं। भारत में लिपियों का विकास अपने ढंग से, अपनी भाषा और अपने बोली व्‍यवहार के अनुसार हुआ है। हर्षवर्धन के काल में काल तक लोग सभी लिपियां जानते थे, अनेक देश की भाषाओं को जानते थे। उनको पढ़ाया भी जाता था। लगता है कि भारतीयों को अनेक लिपियों का ज्ञान होता था और उनकी सीखने में दिलचस्‍पी थी। तभी तो हमारे यहां लिपिन्‍यास की परंपरा शास्‍त्रों में भी मिलती है। लिपिन्‍यास का पूरा विधान ही अनुष्‍ठान में मिलता है.. इस संबंध में एक बार फिर से प्रकाशित भारतीय प्राचीन लिपिमाला की भूमिका लिखी है पिछले दिनों,,, जिक्र फिर कभी। एक समय था, जब भारत सम्पूर्ण विश्व में प्रत्येक क्षेत्र सबसे आगे था । प्राचीन काल में सभी भारतीय बहुश्रुत,वेद-वेदाङ्गज्ञ थे । राजा भोज को तो एक साधारण लकडहारे ने भी व्याकरण में छक्के छुडा दिए थे ।व्याकरण शास्त्र की इतनी प्रतिष्ठा थी की व्याकरण ज्ञान शून्य को कोई अपनी लड़की तक नही देता था ,यथा :- "अचीकमत यो न जानाति,यो न जानाति वर्वरी । तत्कालीन लोक में ख्यात व्याकरणशास्त्रीय उक्ति है  'अचीकमत, बर्बरी एवं अजर्घा इन पदों की सिद्धि में जो सुधी असमर्थ हो उसे कन्या न दी जाये" प्रायः प्रत्येक व्यक्ति व्याकरणज्ञ हो यही अपेक्षा होती थी ताकि वह स्वयं शब्द के साधुत्व-असाधुत्व का विवेकी हो,स्वयं वेदार्थ परिज्ञान में समर्थ हो, इतना सम्भव न भी हो तो कम से कम इतने संस्कृत ज्ञान की अपेक्षा रखी ही जाती थी जिससे वह शब्दों का यथाशक्य शुद्ध व पूर्ण उच्चारण करे  - यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्। स्वजनो श्वजनो माऽभूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत्॥अर्थात : " पुत्र! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन पाते हो तो भी व्याकरण (अवश्य) पढ़ो ताकि 'स्वजन' 'श्वजन' (कुत्ता) न बने और 'सकल' (सम्पूर्ण) 'शकल' (टूटा हुआ) न बने तथा 'सकृत्' (किसी समय) 'शकृत्' (गोबर का घूरा) न बन जाय। "भारत का जन जन की व्याकरणज्ञता सम्बंधित प्रसंग "वैदिक संस्कृत" पेज के महानुभव ने भी आज ही उद्धृत की है जो महाभाष्य ८.३.९७ में स्वयं पतञ्जलि महाभाग ने भी उद्धृत की हैं ।सारथि के लिए उस समय कई शब्द प्रयोग में आते थे । जैसे---सूत, सारथि, प्राजिता और प्रवेत । भाषा की बदलता रूप  पन्द्ह किललो मीटर के बाद बदल जाती है । भाषा विदो ने व्याख्या  की है । कोस कोस पर बदले पानी , चार कोस पर बानी । अर्थात बोली चार क्रोश के अन्तर पर परिवर्तित मिलती है।चीन का राजा अपनी सैन्य सहित आया तथा पश्चिमी गान्धार आदि क्षेत्रों के भी राजा सैन्य सहित सम्मिलित हुये।पहली समस्या संवाद की उत्पन्न हो जायेगी•• क्योंकि पश्चिम की बोली में तथा पूर्व की बोली में इतना अन्तर है कि परस्पर संवाद में एक शब्द भी न समझ सकते हैं और न ही समझा सकते हैं। महाभारत में वर्णन है कि - निवासं रोचयन्ति स्म सर्वभाषाविदस्तथा ||(आदिपर्व १९९) । संस्कृत का प्राचीन शिलालेख इसलिये नहीं मिलता क्योंकि संस्कृत शिलालेख नहीं, पांडुलिपि का विषय थी। बौद्ध व जैन ग्रंथों से कई लिपियों का वर्णन है। सबके शिलालेख नहीं मिलते।शिलालेखो की किसी भाषा को प्राचीन बताने की असमर्थता - जैन ग्रन्थ पन्नवणासूत्र में १८ लिपियों के नाम है - बन्भी , जवणालि , दोसापुरिया , खरोट्ठी , पुक्खरसारिया , भोगवइया , पहरैया , उपअन्तरिक्खिया , अक्खपिट्टीया, माहेसरी आदि इसी तरह बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तार सुत्त में ६४ लिपियों का उल्लेख है - ब्राह्मी , खरोष्टि , अंग ,वंग ,पुष्कर , उग्रलिपि ,ब्रह्मवल्लीं , देवलिपि ,नागलिपि , असुरलिपि , शास्त्रावर्त लिपि , ऋषितपस्तप्तलिपि आदि | अब क्या दुनिया का कोई भी भाषा वैज्ञानिक मुझे जैन ग्रन्थ में लिखी १८ लिपियों और बौद्ध ग्रन्थ में लिखी ६४ लिपियों को मिलाकर कुल ८२ लिपियों के शिलालेख या प्राचीन अभिलेख दिखा सकते है ? इसका उत्तर होगा मात्र १०-१२ के भी मुश्किल से दिखा पायेंगे उनमे से भी अधिकाँश ब्राह्मी और खरोष्टि है। मानव सर्व प्रथम सांकेतिक लिपि  का प्रयोग , मौखिक भाषा का प्रयोग किया था । बाद मे विभिन्न स्थानों से भिन्न भिन्न  लिपियों का उदय हुआ है तथा भाषा हुई । हिन्दी हिन्द की भाषा सम्पर्क बन कर  भाषाई एकता का रूप विश्व की धरातल पर पहचान बनाई है ।

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