रविवार, सितंबर 27, 2020

जीओ और जीने दो का मार्ग प्रशस्त करते तीर्थंकर

 अनेकांतवाद , अहिंसा  के प्रवर्तक भगवान महावीर
सत्येन्द्र कुमार पाठक 
विश्व और भारतीय मानवोचित गुणों को अनेकांतवाद तथा पंचशील सिद्धान्त का मंत्र देने वाले भगवान महावीर है। जैन धर्म  में 24 तीर्थंकर हैं । ग्रंथों के अनुसार  रीषभनाथ , अजीतनाथ,संभवनाथ , अभिनंन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ ,सुपार्श्वनाथ , चन्द्रप्रभ , पुष्पदंत, शीतलनाथ ,श्रेयांश नाथ , वासुपूज्य , विमललनाथ , अनन्तनाथ , धर्मनाथ , शाांतिनाथ ,कुंथुनाथ , अरनाथ, मल्लिनाथ, सुब्रनाथ ,  नमीनाथ , नेमीनाथ , पार्शनाथ और वर्द्धमान महावीर तीर्थंकर है।
भगवान महावीर जैन धर्म के चौंबीसवें तीर्थंकर है। भगवान महावीर का जन्म 540 ई.पू. वैशाली के गणतंत्र राज्य  ( बिहार राज्य का वैशाली जिले के कुण्डग्राम) के ग्यात्रिककुल के राजा सिद्धार्थ की भार्या लिच्छवी राजा चेटक की बहन त्रिशला के गर्भ से कुण्ड ग्राम में हुआ था।  वर्द्धमान महावीर की पत्नि यशोदा के गर्भ से अनोज्जा प्रियदर्शनी थी। 30 वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये। १२ वर्षो की कठिन तपस्या रीजूपालिका नदी जम्भिक स्थल पर साल पेड की छॉव मे  केवल्य ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् समवशरण में ज्ञान प्रसारित किया। भगवान महावीर ७२ वर्ष की आयु में पावा के मल्ल राजा स्टस्तिपाल के राज प्रसाद में 468 ई.पूू . कार्तिक क्टष्ण अमावस्या दीपावली को पावापुरी में  निर्वाण की प्राप्ति की। महावीर स्वामी के कई अनुयायी बने जिसमें मगध राजा बिम्बिसार, कुणिक और चेटक , आजातशत्रु , उदयन कलिंग नरेश खारवेल, राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष तथा चंदेल शासक हुए।
जैन ग्रन्थों के अनुसार समय समय पर धर्म तीर्थ के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है, जो सभी जीवों को आत्मिक सुख प्राप्ति का उपाय बताते है। तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही कही गयी है। भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी काल की चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर थे और ऋषभदेव पहले। हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया।उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है– अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य। उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धांत दिए। महावीर के सर्वोदयी तीर्थों में क्षेत्र, काल, समय या जाति की सीमाएँ नहीं थीं। भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद हो। यही महावीर का 'जीयो और जीने दो' का सिद्धन्त है । ग्रंथों के अनुसार उनके जन्म के बाद राज्य में उन्नति होने से उनका नाम वर्धमान रखा गया था। जैन ग्रंथ उत्तरपुराण में वर्धमान, वीर, अतिवीर, महावीर और सन्मति ऐसे पांच नामों का उल्लेख है। इन सब नामों के साथ कोई कथा जुडी है। जैन ग्रंथों के अनुसार, २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त करने के 188 वर्ष बाद इनका जन्म हुआ था। दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर बाल ब्रह्मचारी थे। भगवान महावीर शादी नहीं करना चाहते थे क्योंकि ब्रह्मचर्य उनका प्रिय विषय था। भोगों में उनकी रूचि नहीं थी। परन्तु इनके माता-पिता शादी करवाना चाहते थे। दिगम्बर परम्परा के अनुसार उन्होंने इसके लिए मना कर दिया था।[5] श्वेतांबर परम्परा के अनुसार इनका विवाह यशोदा नामक सुकन्या के साथ सम्पन्न हुआ था और कालांतर में प्रियदर्शिनी नाम की कन्या उत्पन्न हुई जिसका युवा होने पर राजकुमार जमाली के साथ विवाह हुआ। भगवान महावीर का साधना काल १२ वर्ष का था। दीक्षा लेने के उपरान्त भगवान महावीर ने दिगम्बर साधु की कठिन चर्या को अंगीकार किया और निर्वस्त्र रहे। श्वेतांबर सम्प्रदाय जिसमें साधु श्वेत वस्त्र धारण करते है के अनुसार भी महावीर दीक्षा उपरान्त कुछ समय छोड़कर निर्वस्त्र रहे और उन्होंने केवल ज्ञान की प्राप्ति भी दिगम्बर अवस्था में ही की। अपने पूरे साधना काल के दौरान महावीर ने कठिन तपस्या की और मौन रहे। इन वर्षों में उन पर कई ऊपसर्ग भी हुए जिनका उल्लेख कई प्राचीन जैन ग्रंथों में मिलता है।जैन ग्रन्थों के अनुसार केवल ज्ञान प्राप्ति के बाद, भगवान महावीर ने उपदेश दिया। उनके ११ गणधर (मुख्य शिष्य) थे जिनमें प्रथम इंद्रभूति थे। जैन ग्रन्थ, उत्तरपुराण के अनुसार महावीर स्वामी ने समवसरण में जीव आदि सात तत्त्व, छह द्रव्य, संसार और मोक्ष के कारण तथा उनके फल का नय आदि उपायों से वर्णन किया था। सत्य ― सत्य के बारे में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।अहिंसा – इस लोक में जितने भी त्रस जीव (एक, दो, तीन, चार और पाँच इंद्रीयों वाले जीव) है उनकी हिंसा मत कर, उनको उनके पथ पर जाने से न रोको। उनके प्रति अपने मन में दया का भाव रखो। उनकी रक्षा करो। यही अहिंसा का संदेश भगवान महावीर अपने उपदेशों से हमें देते हैं।अचौर्य - दुसरे के वस्तु बिना उसके दिए हुआ ग्रहण करना जैन ग्रंथों में चोरी कहा गया है।अपरिग्रह – परिग्रह पर भगवान महावीर कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों सेऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसको दुःखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। यही संदेश अपरिग्रह का माध्यम से भगवान महावीर दुनिया को देना चाहते हैं।ब्रह्मचर्य- महावीर स्वामी ब्रह्मचर्य के बारे में अपने बहुत ही अमूल्य उपदेश देते हैं कि ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय की जड़ है। तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तपस्या है। जो पुरुष स्त्रियों से संबंध नहीं रखते, वे मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ते हैं।जैन मुनि, आर्यिका इन्हें पूर्ण रूप से पालन करते है, इसलिए उनके महाव्रत होते है और श्रावक, श्राविका इनका एक देश पालन करते है, इसलिए उनके अणुव्रत कहे जाते है।जैन ग्रंथों में दस धर्म का वर्णन है। पर्युषण पर्व, जिन्हें दस लक्षण भी कहते है के दौरान दस दिन इन दस धर्मों का चिंतन किया जाता है।क्षमा के बारे में भगवान महावीर कहते हैं- 'मैं सब जीवों से क्षमा चाहता हूँ। जगत के सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी से वैर नहीं है। मैं सच्चे हृदय से धर्म में स्थिर हुआ हूँ। सब जीवों से मैं सारे अपराधों की क्षमा माँगता हूँ। सब जीवों ने मेरे प्रति जो अपराध किए हैं, उन्हें मैं क्षमा करता हूँ।'वे यह भी कहते हैं 'मैंने अपने मन में जिन-जिन पाप की वृत्तियों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पाप वृत्तियाँ प्रकट की हों और शरीर से जो-जो पापवृत्तियाँ की हों, मेरी वे सभी पापवृत्तियाँ विफल हों। मेरे वे सारे पाप मिथ्या हों।'धर्म सबसे उत्तम मंगल है। अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। महावीरजी कहते हैं जो धर्मात्मा है, जिसके मन में सदा धर्म रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में धर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, क्षमा पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। तीर्थंकर महावीर का केवलिकाल ३० वर्ष का था। उनके के संघ में १४००० साधु, ३६००० साध्वी, १००००० श्रावक और ३००००० श्रविकाएँ थी।  ईसा पूर्व 468  में भगवान महावीर ने  72 वर्ष की आयु में बिहार के  नालंन्दा जिले का पावापुरी में कार्तिक कृष्ण अमावस्या दीपावली को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया।  पावापुरी में जल मंदिर स्थित है  जहाँ महावीर स्वामी को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी।अहिंसा स्थल, महरौली, दिल्ली में दूसरी सदी के प्रभावशाली दिगम्बर मुनि, आचार्य समन्तभद्र ने तीर्थंकर महावीर के तीर्थ को सर्वोदय की संज्ञा दी थी।महावीर ने  जगत को न केवल मुक्ति का संदेश दिया, अपितु मुक्ति की सरल और सच्ची राह भी बताई। भगवान महावीर ने आत्मिक और शाश्वत सुख की प्राप्ति हेतु अहिंसा धर्म का उपदेश दिया। पद्मासन मुद्रा में भगवन महावीर की विशालतम ज्ञात प्रतिमा जी, पटनागंज (म•प•) ,तमिल नाडु, थिराकोइल , भगवान महावीर और अन्य २३ तीर्थंकर (बादामी गुफा, कर्नाटक) ,भगवान महावीर की कई प्राचीन प्रतिमाओं के देश और विदेश के संग्रहालयों में दर्शन होते है। महाराष्ट्र के एल्लोरा गुफाओं में भगवान महावीर की प्रतिमा मौजूद है। कर्नाटक की बादामी गुफाओं में भी भगवान महावीर की प्रतिमा स्थित है।
 जैन तीर्थंकरों का परिचय -  तीर्थंकर का अर्थ है- उद्धारकर्ता तथा तारने वाला। तीर्थंकर को अरिहंत कहा जाता है। मूलत: यह शब्द अर्हत पद से संबंधित है। अरिहंत का अर्थ होता है जिसने अपने भीतर के शत्रुओं पर विजय पा ली। ऐसा व्यक्ति जिसने कैवल्य ज्ञान को प्राप्त कर लिया। अरिहंत का अर्थ भगवान होता है।
 ऋषभदेव : राजा प्रियब्रत द्वारा अपने पुत्र आग्रीध्र को जम्बूद्वीप को स्वामी बनाया था ।जम्बुद्वीप के स्वामी आग्रीध्र के 9 पुत्रों मे प्रथम पुत्र हेम वर्ष का राजा नाभि की पत्नी मरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव का अवतरण चैत्र कृष्ण की अष्टमी-नवमी को हिमस्थल पर स्वयंभुव मनु के प्रथम मनु का मन्वन्तर में हुआ। इनके दो पुत्र भरत और बाहुबली तथा दो पुत्रियां ब्राह्मी और सुंदरी थीं। ऋषभदेव स्वायंभुव मनु से पांचवीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वायंभुव मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और ऋषभ। चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। कैलाश पर्वत क्षेत्र के अष्टपद में आपको माघ कृष्ण  को निर्वाण प्राप्त हुआ। प्रतीक चिह्न- बैल, चैत्यवृक्ष- न्यग्रोध, यक्ष- गोवदनल, यक्षिणी- चक्रेश्वरी हैं। अजीतनाथजी : द्वितीय तीर्थंकर अजीतनाथजी की माता का नाम विजया और पिता का नाम जितशत्रु था। आपका जन्म माघ शुक्ल पक्ष की दशमी को अयोध्या में हुआ था। माघ शुक्ल पक्ष की नवमी को दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की पंचमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। आपका प्रतीक चिह्न- गज, चैत्यवृक्ष- सप्तपर्ण, यक्ष- महायक्ष, यक्षिणी- रोहिणी है। संभवनाथजी : तृतीय तीर्थंकर संभवनाथजी की माता का नाम सुसेना और पिता का नाम जितारी है। संभवनाथजी का जन्म मार्गशीर्ष की चतुर्दशी को श्रावस्ती में हुआ था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तपस्या के बाद कार्तिक कृष्ण की पंचमी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- अश्व, चैत्यवृक्ष- शाल, यक्ष- त्रिमुख, यक्षिणी- प्रज्ञप्ति है। अभिनंदनजी : चतुर्थ तीर्थंकर अभिनंदनजी की माता का नाम सिद्धार्था देवी और पिता का नाम सन्वर (सम्वर या संवरा राज) है। आपका जन्म माघ शुक्ल की बारस को अयोध्या में हुआ। माघ शुक्ल की बारस को ही आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तप के बाद पौष शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। बैशाख शुक्ल की छटमी या सप्तमी के दिन सम्मेद शिखर पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- बंदर, चैत्यवृक्ष- सरल, यक्ष- यक्षेश्वर, यक्षिणी- व्रजश्रृंखला है। सुमतिनाथजी : पांचवें तीर्थंकर सुमतिनाथजी के पिता का नाम मेघरथ या मेघप्रभ तथा माता का नाम सुमंगला था। बैशाख शुक्ल की अष्टमी को साकेतपुरी (अयोध्या) में  जन्म हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार आपका जन्म चैत्र शुक्ल की एकादशी को हुआ था। बैशाख शुक्ल की नवमी के दिन आपने दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की एकादशी को सम्मेद शिखर पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- चकवा, चैत्यवृक्ष- प्रियंगु, यक्ष- तुम्बुरव, यक्षिणी- वज्रांकुशा है। पद्ममप्रभुजी : छठवें तीर्थंकर पद्मप्रभुजी के पिता का नाम धरण राज और माता का नाम सुसीमा देवी था। कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी को आपका जन्म वत्स कौशाम्बी में हुआ। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- कमल, चैत्यवृक्ष- प्रियंगु, यक्ष-मातंग, यक्षिणी- अप्रति चक्रेश्वरी है।सुपार्श्वनाथ : सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के पिता का नाम प्रतिस्थसेन तथा माता का नाम पृथ्वीदेवी था। सुपार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की बारस को हुआ था। ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की सप्तमी को आपको कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की सप्तमी के दिन आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- स्वस्तिक, चैत्यवृक्ष- शिरीष, यक्ष- विजय, यक्षिणी- पुरुषदत्ता है। चन्द्रप्रभु : आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु के पिता का नाम राजा महासेन तथा माता का नाम सुलक्षणा था। आपका जन्म पौष कृष्ण पक्ष की बारस के दिन चन्द्रपुरी में हुआ। पौष कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष 7 को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- अर्द्धचन्द्र, चैत्यवृक्ष- नागवृक्ष, यक्ष- अजित, यक्षिणी- मनोवेगा है। पुष्पदंत : नौवें तीर्थंकर पुष्पदंत को सुविधिनाथ भी कहा जाता है। पुष्पिपदंत के पिता का नाम राजा सुग्रीव राज तथा माता का नाम रमा रानी था, जो इक्ष्वाकु वंश से थीं। मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की पंचमी को काकांदी में  जन्म हुआ। मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की छठ  को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कार्तिक कृष्ण पक्ष की तृतीया  को आपको सम्मेद शिखर में कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। भाद्र के शुक्ल पक्ष की नवमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। आपका प्रतीक चिह्न- मकर, चैत्यवृक्ष- अक्ष (बहेड़ा), यक्ष- ब्रह्मा, यक्षिणी- काली है। शीतलनाथ : दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ के पिता का नाम दृढ़रथ  और माता का नाम सुनंदा था। आपका जन्म माघ कृष्ण पक्ष की द्वादशी को बद्धिलपुर  में हुआ। मघा कृष्ण पक्ष की द्वादशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। बैशाख के कृष्ण पक्ष की दूज को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। आपका प्रतीक चिह्न- कल्पतरु, चैत्यवृक्ष- धूलि (मालिवृक्ष), यक्ष- ब्रह्मेश्वर, यक्षिणी- ज्वालामालिनी है। श्रेयांसनाथजी : ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथजी की माता का नाम विष्णुश्री या वेणुश्री था और पिता का नाम विष्णुराज। सिंहपुरी नामक स्थान पर फागुन कृष्ण पक्ष की ग्यारस को आपका जन्म हुआ। श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को सम्मेद शिखर (शिखरजी) पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- गैंडा, चैत्यवृक्ष- पलाश, यक्ष- कुमार, यक्षिणी- महाकाली है। वासुपूज्य : बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य प्रभु के पिता का नाम वसुपूज्य और माता का नाम जया देवी था। आपका जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को चंपापुरी में हुआ था। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अमावस्या को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा मघा की दूज  को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को चंपा में आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- भैंसा, चैत्यवृक्ष- तेंदू, यक्ष- षणमुख, यक्षिणी- गौरी है। विमलनाथ : तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ के पिता का नाम कृतर्वेम तथा माता का नाम श्याम देवी (सुरम्य) था। आपका जन्म मघा शुक्ल तीज को कपिलपुर में हुआ था। मघा शुक्ल पक्ष की तीज को ही आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन कैवल्य की प्राप्ति हुई। आषाढ़ शुक्ल की सप्तमी के दिन श्री सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- शूकर, चैत्यवृक्ष- पाटल, यक्ष- पाताल, यक्षिणी- गांधारी। अनंतनाथजी : चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथजी की माता का नाम सर्वयशा तथा पिता का नाम सिंहसेन था। आपका जन्म अयोध्या में वैशाख कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन हुआ। वैशाख कृष्ण पक्ष चतुर्दशी  को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तप के बाद वैशाख कृष्ण की त्रयोदशी के दिन ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की पंचमी के दिन आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- सेही, चैत्यवृक्ष- पीपल, यक्ष- किन्नर, यक्षिणी- वैरोटी है। धर्मनाथ : पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ के पिता का नाम भानु और माता का नाम सुव्रत था। आपका जन्म मघा शुक्ल की तृतीया (3) को रत्नापुर में हुआ था। मघा शुक्ल की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष की पूर्णिमा के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- वज्र, चैत्यवृक्ष- दधिपर्ण, यक्ष- किंपुरुष, यक्षिणी- सोलसा। शांतिनाथ : जैन धर्म के सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ का जन्म ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को हस्तिनापुर में इक्ष्वाकु कुल में हुआ। शांतिनाथ के पिता हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन थे और माता का नाम आर्या (अचीरा) था। आपने ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- हिरण, चैत्यवृक्ष-नंदी, यक्ष- गरूड़, यक्षिणी- अनंतमती हैं। कुंथुनाथजी : सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथजी की माता का नाम श्रीकांता देवी (श्रीदेवी) और पिता का नाम राजा सूर्यसेन था। आपका जन्म वैशाख कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हस्तिनापुर में हुआ था। वैशाख कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। वैशाख शुक्ल पक्ष की एकम के दिन सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- छाग (बकरा), चैत्यवृक्ष- तिलक, यक्ष- गंधर्व, यक्षिणी- मानसी है। अरहनाथजी : अठारहवें तीर्थंकर अरहनाथजी या अर प्रभु के पिता का नाम सुदर्शन और माता का नाम मित्रसेन देवी था। आपका जन्म मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन हस्तिनापुर में हुआ। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कार्तिक कृष्ण पक्ष की बारस को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। मार्गशीर्ष की दशमी के दिन सम्मेद शिखर पर निर्वाण की प्राप्ति हुई। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- तगरकुसुम (मत्स्य), चैत्यवृक्ष- आम्र, यक्ष- कुबेर, यक्षिणी- महामानसी है।मल्लिनाथ : उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ के पिता का नाम कुंभराज और माता का नाम प्रभावती (रक्षिता) था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को आपका जन्म मिथिला में हुआ था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को दीक्षा ग्रहण की तथा इसी माह की तिथि को कैवल्य की प्राप्ति भी हुई। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- कलश, चैत्यवृक्ष- कंकेली (अशोक), यक्ष- वरुण, यक्षिणी- जया है। मुनिसुव्रतनाथ : बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के पिता का नाम सुमित्र तथा माता का नाम प्रभावती था। आपका जन्म ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की आठम को राजगढ़ में हुआ था। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की नवमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- कूर्म, चैत्यवृक्ष- चंपक, यक्ष- भृकुटि, यक्षिणी- विजया।नमिनाथ : इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ के पिता का नाम विजय और माता का नाम सुभद्रा (सुभ्रदा-वप्र) था। आप स्वयं मिथिला के राजा थे। आपका जन्म इक्ष्वाकु कुल में श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मिथिलापुरी में हुआ था। आषाढ़ मास के शुक्ल की अष्टमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कैवल्य की प्राप्ति हुई। वैशाख कृष्ण की दशमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- उत्पल, चैत्यवृक्ष- बकुल, यक्ष- गोमेध, यक्षिणी- अपराजिता।नेमिनाथ : बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के पिता का नाम राजा समुद्रविजय और माता का नाम शिवादेवी था। आपका जन्म श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी को शौरपुरी (मथुरा) में यादव वंश में हुआ था। शौरपुरी (मथुरा) के यादव वंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय के पुत्र थे नेमिनाथ। अंधकवृष्णी के सबसे छोटे पुत्र वासुदेव से उत्पन्न हुए भगवान श्रीकृष्ण। इस प्रकार नेमिनाथ और श्रीकृष्ण दोनों चचेरे भाई थे। श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को गिरनार पर्वत पर कैवल्य की प्राप्ति हुई। आषाढ़ शुक्ल की अष्टमी को आपको उज्जैन या गिरनार पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- शंख, चैत्यवृक्ष- मेषश्रृंग, यक्ष- पार्श्व, यक्षिणी- बहुरूपिणी है। पार्श्वनाथ : तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पिता वराणसी राजा अश्वसेन तथा माता का नाम वामा थी। पार्श्वनाथ का जन्म पौष कृष्ण पक्ष की दशमी को वाराणसी (काशी) में 872 ई.पू. हुआ था। चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को ही कैवल्य की प्राप्ति हुई। श्रावण शुक्ल की अष्टमी को झारखण्ड का कोडरमा जिला का पारस नाथ सम्मेद शिखर पर 772 ई.पू. निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- सर्प, चैत्यवृक्ष- धव, यक्ष- मातंग, यक्षिणी- कुष्माडी है।
महावीर : चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का जन्म नाम वर्धमान, पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला (प्रियंकारिनी) था। आपका जन्म चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी के दिन कुंडलपुर में हुआ था। मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की दशमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा वैशाख शुक्ल की दशमी के दिन कैवल्य की प्राप्ति हुई। 42 वर्ष तक आपने साधक जीवन बिताया। कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या के दिन आपको पावापुरी पर 72 वर्ष में निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- सिंह, चैत्यवृक्ष- शाल, यक्ष- गुह्मक, यक्षिणी- पद्मा सिद्धायिनी है। बिहार राज्य के पाटलिपुत्र के अगम स्थल पर 322 ई.पू.  स्थूलभद्र की सभापतित्व में जैनसंगति किया गया और 512 ई. में छमाश्रवणके सभापतित्व में गुजरात का बल्लभी स्थान पर द्वितीय जैन संगति हुआ था। महावीर स्वामी का प्रतीक चिन्ह सिंह है।

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