शास्त्र तथा ग्रंथों में देवोत्थान और तुलसी का उलेख महत्वपूर्ण रूप से वर्णित है । भगवान विष्णु आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी 'पद्मनाभा' के रूप में समर्पित हैं। सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी से चातुर्मास में भगवान विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर योग निद्रा को त्याग करने पर देवोत्थानी एकादशी रूप मे होते है। पुराणों में उलेख है कि भगवान विष्णु चार मासपर्यन्त (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को भूलोक पर लौटते हैं।इस दिन को 'देवशयनी' तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गृहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं शुभ कर्म देवोत्थान से प्रारंभ होते है । भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है।संस्कृत में साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है। भगवान विष्णु कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। पुराण के अनुसार भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं। देवशयनी एकादशी व्रतविधि एकादशी को प्रातःकाल उठकर घर की साफ-सफाई तथा नित्य कर्म से निवृत्त हो जाएँ। स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करें। घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें। तत्पश्चात उसका षोड्शोपचार सहित पूजन करें। इसके बाद भगवान विष्णु को पीतांबर आदि से विभूषित करें। तत्पश्चात व्रत कथा सुननी चाहिए। इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें। अंत में सफेद चादर से ढँके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराना चाहिए। व्यक्ति को इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करना चाहिए । देह शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य , वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध पंचाम्टत , ईख ,सर्वपापक्षयपूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एकमुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत करना चाहिए तथा देवोत्थान में मधुर स्वर के लिए गुड़ , दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल , शत्रुनाशादि के लिए कड़वे तेल का , सौभाग्य के लिए मीठे तेल , स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों , प्रभु शयन के दिनों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य जहाँ तक हो सके न करें। पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, मूली, पटोल एवं बैंगन आदि का भी त्याग कर देना चाहिए।
एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है । मंधाता के राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस दुर्भिक्ष से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गगयी थी । कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा।तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- 'महात्मन्! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें।' यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- 'हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है।'किंतु राजा का हृदय एक नरपराधशूद्र तपस्वी का शमन करने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा- 'हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएँ।' महर्षि अंगिरा ने बताया- 'आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।' राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया था । ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है। व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होता है ।चातुर्मास का पालन विधिपूर्वक करे तो महाफल प्राप्त होता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी कहते हैं। देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह का उत्सव भी मनाया जाता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार इस तिथि पर भगवान विष्णु के साथ तुलसी का विवाह होता है, क्योंकि इस दिन भगवान विष्णु चार महीने तक सोने के बाद जागते हैं। चार महीनों के अंतराल के बाद इसी तिथि से हिन्दूओं में शादियाँ आरंभ हो जाती हैं। तुलसी विवाह के दिन व्रत रखने का बड़ा महत्व होता है।प्राचीन काल में जलंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म था। उसी के प्रभाव से वह विजयी बना हुआ था। जलंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गए तथा रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उन्होंने जलंधर का रूप धर कर छल से वृंदा का स्पर्श किया। वृंदा का पति जलंधर, देवताओं से पराक्रम के साथ युद्ध कर रहा था लेकिन वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जैसे ही वृंदा का सतीत्व भंग हुआ, जलंधर का सिर उसके आंगन में आ गिरा। जब वृंदा ने यह देखा तो क्रोधित होकर जानना चाहा कि वह कौन है जिसने उसे स्पर्श किया था। सामने साक्षात विष्णु जी खड़े थे। उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, "जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम्हारी पत्नी का भी छलपूर्वक हरण होगा और स्त्री वियोग सहने के लिए तुम भी मृत्यु लोक में जन्म लोगे।" यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई। वृंदा के श्राप से ही प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में जन्म लिया और उन्हें सीता वियोग सहना पड़ा़। जिस जगह वृंदा सती हुई वहां तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ।
एक अन्य कथा में आरंभ इसी प्रकार है लेकिन इस कथा में वृंदा ने विष्णु जी को यह श्राप दिया था, "तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे।" यह पत्थर शालीग्राम कहलाया। विष्णु ने कहा, "हे वृंदा! मैं तुम्हारे सतीत्व का आदर करता हूं लेकिन तुम तुलसी बनकर सदा मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य कार्तिक एकादशी के दिन तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, उसकी हर मनोकामना पूरी होगी।" बिना तुलसी के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है। शालीग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी का ही प्रतीकात्मक विवाह माना जाता है।
तुलसी विवाह के दौरान तुलसी पौधे के साथ विष्णु जी की मूर्ति भी उनके साथ स्थापित की जाती है। तुलसी के पौधे और विष्णु जी की मूर्ति को पीले वस्त्रों से सजाया जाता है। इसके बाद तुलसी के गमले को गेरु से सजाया जाता है। गमले के आस-पास शादी का मंडप बनाया जाता है। इसके पश्चात गमले को वस्त्र से सजाया जाता है और लाल चूड़ी पहनाकर और बिंदी आदि लगाकर श्रृंगार किया जाता है। इसके साथ टीका करने के लिए नारियल को दक्षिणा के रुप में तुलसी के आगे रखा जाता है। भगवान शालीग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसी के चारों ओर सात बार परिक्रमा किया जाता है। इसके बाद आरती की जाती है। विवाह इसके साथ ही संपन्न हो जाता है। विवाह करवाते समय लोग ऊं तुलस्यै नमः का जाप करते रहते हैं। जो लोग इस दिन व्रत रखते हैं, वे इस दिन अन्न ग्रहण नहीं करते हैं। तुलसी पौधा धार्मिक, आध्यात्मिक और आयुर्वेदिक महत्व की दृष्टि से एक विलक्षण पौधा है। जिस घर में इसकी स्थापना होती है, वहां आध्यात्मिक उन्नति के साथ सुख, शांति और समृद्धि स्वयं ही आ जाती है। इससे अनेक लाभ प्राप्त होते हैं, जैसे वातावारण में स्वच्छता और शुद्धता बढ़ती है, प्रदूषण पर नियंत्रण होता है और आरोग्य में वृद्धि होती है। आयुर्वेद के अनुसार, तुलसी के नियमित सेवन से व्यक्ति के विचार में पवित्रता व मन में एकाग्रता आती है और क्रोध पर नियंत्रण होने लगता है। आलस्य दूर हो जाता है और शरीर में दिन भर स्फूर्ति बनी रहती है। ऐसा कहा जाता है कि औषधीय गुणों की दृष्टि से तुलसी संजीवनी बूटी के समान है।पौराणिक कथाओं के अनुसार देवों और दानवों द्वारा किए गए समुद्र-मंथन के समय जो अमृत धरती पर छलका था, उसी से तुलसी की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए इस पौधे के हर हिस्से में अमृत समान गुण पाए जाते हैं। हिन्दू धर्म में मान्यता है कि तुलसी के पौधे की जड़ में सभी तीर्थ, मध्य भाग (तने) में सभी देवी-देवता और ऊपरी शाखाओं में चारों वेद स्थित हैं। तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है और पूजन को मोक्षदायक कहा गया है।
देवउठनी एकादशी 2020: इस एकादशी पर भगवान विष्णु निद्रा के बाद उठते हैं इसलिए इसे देवोत्थान एकादशी कहा गया है। सनातन में शुभ और पुण्यदायी मानी जाने वाली एकादशी, कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष में मनाई जाती है। देवउठनी एकादशी 25 नवंबर, बुधवार को हरिप्रबोधिनी और देवोत्थान एकादशी के नाम से मनायी जाती है। पुराणो तथा एकादशी महात्म के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी के बीच श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और भादों शुक्ल एकादशी को करवट बदलते हैं। पुण्य की वृद्धि और धर्म-कर्म में प्रवृति कराने वाले श्रीविष्णु कार्तिक शुक्ल एकादशी को योग निद्रा से जागते हैं। इसी कारण से शास्त्रों में एकादशी का फल अमोघ पुण्यफलदाई बताया गया है। एकादशी पर भगवान विष्णु निद्रा के बाद उठते हैं । इसे देवोत्थान एकादशी कहा गया है। भगवान विष्णु चार महीने के लिए क्षीर सागर में योग निद्रा करने के कारण चातुर्मास में विवाह और मांगलिक कार्य नही किया जाता जाते हैं। पुनश्च देवोत्थान एकादशी पर भगवान के जागने के बाद शादी- विवाह , सभी मांगलिक कार्य आरम्भ होते हैं। देवोत्थान में भगवान शालिग्राम और तुलसी विवाह का अनुष्ठान किया जाता है। कार्तिक माह शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि के दिन तुलसी विवाह किया जाता है. इस साल यह एकादशी तिथि 25 नवंबर को शुरू होकर 26 तारीख को समाप्त होगी. तुलसी विवाह में माता तुलसी का विवाह भगवान शालिग्राम के साथ किया जाता है. मान्यता है कि जो व्यक्ति तुलसी विवाह का अनुष्ठान करता है उसे कन्यादान के बराबर पुण्य फल मिलता है । शालिग्राम भगवान विष्णु का अवतार हैं । पुराणों के अनुसार एक बार तुलसी ने गुस्से में भगवान विष्णु को श्राप से पत्थर बना दिया था. तुसली के इस श्राप से मुक्ति के लिए भगवान विष्णु ने शालिग्राम का अवतार लिया और तुलसी से विवाह किया. तुलसी मैया को मां लक्ष्मी का अवतार माना जाता है. कुछ स्थानों पर तुलसी विवाह द्वादशी के दिन भी किया जाता है । तुलसी के पौधे के चारो ओर ईख से मंडप बनाकर और तुलसी के पौधे पर लाल चुनरी चढ़ाए जाते है ।तुलसी के पौधे को श्रृंगार की चीजें अर्पित कर भगवान गणेश और भगवान शालिग्राम की पूजा की जाती है ।भगवान शालिग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात परिक्रमा की जाती है भगवान शालिग्राम तथा तुलसी आरती के बाद विवाह में गाए जाने वाले मंगलगीत के साथ विवाहोत्सव पूर्ण होती है । तुलसी विवाह 2020 का शुभ मुहूर्त - देवोत्थान , एकादशी तिथि प्रारंभ – 25 नवंबर, सुबह 2:42 बजे से एकादशी तिथि समाप्त – 26 नवंबर, सुबह 5:10 बजे तक है ।
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