शनिवार, फ़रवरी 26, 2022

ज्योतिष व खगोलशास्त्र के प्रणेता वराहमिहिर...


भारत के प्रसिद्ध ज्योतिष, गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री  वराहमिहिर  का जन्म 499 ई. को मालवा का अवंति स्थित उज्जैन के क्षिप्रा नदी के किनारे कपिथ निवासी सौरधर्म के उपासक शाकद्वीपीय ब्राह्मण आदित्यदास के पुत्र हुए थे। वराहमिहिर का जन्मस्थल को कपिथ को कायथ , कपिथ्य कहा जाता है । आर्यभट्ट के शिष्य  वाराहमिहिर ज्योतिष विज्ञान और गणित के परम ज्ञाता ,  वेद के बारे में असधारण ज्ञान प्राप्त था । ज्योतिष शास्त्र में अद्भुत ज्ञान , सटीक भविष्य वाणी, और गणित में प्रकांड विद्वान होने के कारण वराहमिहिर की  मगध साम्राज्य में उच्च पद दिया गया था। राजा विक्रमादित्य गुप्तवंशीय बुधगुप्त   के  दरवार में नौ रत्नों में वाराहमिहिर ने  ज्ञान और अध्ययन को वृहद ग्रंथ का रूप दिया  था । वराहमिहिर के द्वारा ज्योतिष , आध्यात्म , खगोल विज्ञान  का अध्ययन  उज्जैन गुरुकुल में प्राप्त किया गया था  । वराहमिहिर की शिक्षा उज्जैन में  अपने पिता से प्राप्त करने के बाद वे आर्यभट्ट से मिले थे ।  आर्यभट्ट से प्रेरित होकर ज्योतिष और गणित के अनुसंधान में जुट गये थे । उन्होंने समय मापक घट यन्त्र, वेधशाला की स्थापना और इन्द्रप्रस्थ में लौहस्तम्भ के निर्माण कराया था । राजा विक्रमादित्य ने मिहिर को मगध राज्य का सबसे बड़ा सम्मान वाराह से अलंकृत किया था । वराहमिहिर ने ग्रह, नक्षत्रों और गणना के आधार पर राजा विक्रमादित्य के पुत्र की मृत्यु की भविष्यवाणी  में बताया था की  राजकुमार की  18 वर्ष की आयु में मृत्यु हो जाएगी। यह सुनकर राजा विक्रमादित्य बहुत ही दुखी हो गये। उन्होंने राजकुमार के देख रेख की विशेष व्यवस्था की। ताकि राजकुमार कभी बीमार नही  पडे। परंतु राजकुमार को 18 वर्ष के उम्र के बाद राजकुमार की मृत्यु हो गयी । राजा विक्रमादित्य ने मिहिर को  दरबार में कहा की आपकी जीत हुई। मिहिर ने राज से बड़े ही वीनम्रता से जबाब दिया। क्षमा चाहता हूँ महाराज। यह मेरी जीत नहीं है यह असल में ज्योतिष विज्ञान की जीत है। मैं गणना के आधार पर सिर्फ भविष्यवाणी की थी। राजा अपने पुत्र के निधन से बेहद आहात हुए। लेकिन मिहिर के सटीक भविष्यवाणी का भी उन्हें लोहा मानना पड़ा। उन्होंने मिहिर को मगध साम्राज्य का सबसे बड़ा सम्मान वराह से पुरस्कृत किया था । ज्योतिष और खगोल विद्या में अहम योगदान के कारण राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने उन्हें अपने दरबार के नौ रत्नों में शामिल किया।उनके द्वारा रचित ग्रंथ ज्योतिष शास्त्र में मानक ग्रंथ के रूप में स्वीकार  है।उन्होंने पंचसिद्धान्तिका में अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड बताया था। वाराहमिहिर ने गणित एवं विज्ञान को जनहित से जोड़ने का काम किया। उन्होंने भी धरती को गोल माना लेकिन उन्होंने पृथ्वी को गतिशील नहीं माना।उनका तर्क था की अगर पृथ्वी गतिशील होती तो पक्षी सुवह अपना घोंसला छोड़ने के बाद शाम को अपना घोंसला तक नहीं पहुँच पाती। हालांकि बाद में उनका यह तर्क गलत साबित हुआ। भले ही गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का श्रेय  है । पृथ्वी में कोई शक्ति जरूर है। जिसके कारण चीजें धरती की तरफ आकर्षित होती है।‘संख्या-सिद्धान्त’ गणित के एक प्रसिद्ध पुस्तक का रचनाकार  है। वराहमिहिर ने पर्यावरण, जल और भू-विज्ञान ,  गणित के त्रिकोणमितीय सूत्र का प्रतिपादन किया था । वराहमिहिर रचित ग्रंथ में बृहज्जातक, वराहमिहिर बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका काफी प्रसिद्ध हुई।बृहज्जातक – वराहमिहिर को त्रिकोणमिति के बारें में वृहद ज्ञान एवं त्रिकोणमिति से संबंधित कई महत्वपूर्ण सूत्र बताये हैं। पंचसिद्धांतिका ग्रंथ में पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत , बृहत्संहिता – वराहमिहिर नें बृहत्संहिता में वास्तुशास्त्र, भवन निर्माण-कला आदि , लघुजातक, बृहत्संहिता, टिकनिकयात्रा, बृहद्यात्रा या महायात्रा, योगयात्रा या स्वल्पयात्रा, वृहत् विवाहपटल, लघु विवाहपटल, कुतूहलमंजरी, दैवज्ञवल्लभ, लग्नवाराहि। वराहमिहिर रचित ज्योतिष ग्रंथ में रचना है।
वराहमिहिर ने फलित ज्योतिष, गणित और खगोलशास्त्र  एवं सूर्य सिद्धांत’ के  अनुसार गणना के लिए चार प्रकार के माह हो सकते है। पहला सौर, दूसरा चंद्र, तीसरा वर्षीय और चौथा पाक्षिक। का ज्ञान दिया गया है । ज्योतिष विज्ञान और खगोल विज्ञान का अच्छा ज्ञान रखने वाले वराहमिहिर की मृत्यु सन् 587 ई को हो गयी थी ।वाराहमिहिर ने यात्राक्रम में यूनान तक की यात्रा की। कुसुमपुर (पटना) जाने पर युवा मिहिर ने महान खगोलज्ञ और गणितज्ञ आर्यभट्ट से  प्रेरणा प्राप्त कर ज्योतिष विद्या और खगोल ज्ञान को  जीवन का ध्येय बना लिया।  गुप्त शासन के अन्तर्गत उज्जैन में कला, विज्ञान और संस्कृति के अनेक केंद्र पनप रहे थे। वराह मिहिर ने मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र शहर में रहने के लिये आ गये क्योंकि अन्य स्थानों के विद्वान भी यहां एकत्र होते रहते थे वराहमिहिर के ज्योतिष ज्ञान का पता विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय को लगा। राजा ने उन्हें अपने दरबार के नवरत्नों में शामिल कर लिया। मिहिर ने सुदूर देशों की यात्रा की, यहां तक कि वह यूनान तक  गये। सन् 587 में महान गणितज्ञ वराहमिहिर की मृत्यु हो गई।
550 ई. के लगभग इन्होंने तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें बृहज्जातक, बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका, लिखीं। इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं, जो वराहमिहिर के त्रिकोणमिति ज्ञान के परिचायक हैं।
पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर से पूर्व प्रचलित पाँच सिद्धांतों का वर्णन है। ये सिद्धांत हैं : पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत तथा  पूर्वप्रचलित सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें लिखकर अपनी ओर से 'बीज' नामक संस्कार का  निर्देश किया है ।  इन्होंने फलित ज्योतिष के लघुजातक, बृहज्जातक तथा बृहत्संहिता  ग्रंथ  हैं। बृहत्संहिता में वास्तुविद्या, भवन-निर्माण-कला, वायुमंडल की प्रकृति, वृक्षायुर्वेद आदि , ज्योतिष विद्या एक अथाह सागर है । वराहमिहिर के  ग्रन्थरत्न में पंचसिद्धान्तिका,बृहज्जातकम्,लघुजातक,बृहत्संहिता , टिकनिकयात्रा , बृहद्यात्रा ,यामहायात्रा ,योगयात्रा या स्वल्पयात्रा , वृहत् विवाहपटल ,लघु विवाहपटल ,कुतूहलमंजरी , दैवज्ञवल्लभ ,लग्नवाराहि है ।वराहमिहिर द्वारा पर्यावरण विज्ञान (इकालोजी), जल विज्ञान (हाइड्रोलोजी), भूविज्ञान (जिआलोजी) के संबंध में कहा गया था कि पौधे और दीमक जमीन के नीचे के पानी को इंगित करते हैं पंचसिद्धान्तिका ,  बृहत्संहिता, बृहज्जात्क (ज्योतिष) ,  फलित ज्योतिष में  स्थान दिया है । वराहमिहिर ने शून्य एवं ऋणात्मक संख्याओं के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया , संख्या-सिद्धान्त'  गणित ग्रन्थ के भी रचना कर उन्नत अंकगणित, त्रिकोणमिति के साथ-साथ कुछ अपेक्षाकृत सरल संकल्पनाओं का  समावेश किया , पास्कल त्रिकोण से प्रसिद्ध संख्याओं की खोज की थी । बृहत्संहिता में  16 द्रव्यमान का विश्लेषण के अनुसार षोडशके द्रव्यगणे चतुर्विकल्पेन भिद्यमानानाम्।अष्टादश जायन्ते शतानि सहितानि विंशत्या॥ अर्थ: सोलह प्रकार के द्रव्य विद्यमान हों तो उनमें से किसी चार को मिलाकर कुल 1820 प्रकार के इत्र बनाए जा सकते हैं। गणित की भाषा में , 16C4 = (16 × 15 × 14 × 13) / (1 × 2 × 3 × 4) = 1,820 है। उन्होने कहा है कि परावर्तन कणों के प्रति-प्रकीर्णन से होता है। उन्होने अपवर्तन की व्याख्या की है। वराहमिहिर का ज्योतिष शास्त्र एवं अन्य ग्रंथों का अध्ययन कर अल्वरूनी द्वारा अरबी भाषा मे अनुवाद किया एवं पाश्चात्य ज्योतिष शास्त्र में रोमेश , पॉलिश  द्वारा विकास किया गया है । यूनानी ज्योतिष शास्त्र में वराहमिहिर के द्वारा रचित ग्रन्थों के आधार पर ज्योतिष का विकास किया गया है । वराहमिहिर के पुत्र पृथ्युयशा ने ज्योतिष का विकास में सक्रिय थे ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें