उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले का हरिद्वार है। ३१३९ मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गोमुख से २५३ किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र में प्रथम प्रवेश करने के कारण हरिद्वार को 'गंगाद्वार' कहाजाता है । 801 वर्ग कि. मि. या 2360 वर्ग मील क्षेत्रफल में विकसित हरिद्वार में समुद्र मंथन से भगवान धन्वंतरि के अमृत घड़े से अमृत की बूँदें गिर गयीं थी । हर की पौड़ी पर ब्रह्म कुण्ड में अमृत की बूंदे गिरी थी । हरिद्वार जिला, सहारनपुर कमिशनरी के हरिद्वार जिले की स्थापना २८ दिसम्बर १९८८ में हुई थी । पुराणों में हरिद्वार को गंगाद्वार, मायाक्षेत्र, मायातीर्थ, सप्तस्रोत तथा कुब्जाम्रक वर्णित किया गया है। कपिल ऋषि के तपोभूमि के कारण कपिला , सूर्यवंशी राजा सगर के प्रपौत्र भगीरथ द्वारा गंगाजी को सतयुग में वर्षों की तपस्या के पश्चात् अपने ६०,००० पूर्वजों के उद्धार और कपिल ऋषि के शाप से मुक्त करने के लिए के लिए पृथ्वी पर लाया गया था । पद्मपुराण के उत्तर खंड में गंगा-अवतरण के हरिद्वार की सर्वश्रेष्ठ तीर्थ होने का उल्लेख है । हरिद्वारे यदा याता विष्णुपादोदकी तदा। तदेव तीर्थं प्रवरं देवानामपि दुर्लभम्।। तत्तीर्थे च नरः स्नात्वा हरिं दृष्ट्वा विशेषतः। प्रदक्षिणं ये कुर्वन्ति न चैते दुःखभागिनः।। तीर्थानां प्रवरं तीर्थं चतुर्वर्गप्रदायकम्। कलौ धर्मकरं पुंसां मोक्षदं चार्थदं तथा।। यत्र गंगा महारम्या नित्यं वहति निर्मला। एतत्कथानकं पुण्यं हरिद्वाराख्यामुत्तमम्।।उक्तं च शृण्वतां पुंसां फलं भवति शाश्वतम्। अश्वमेधे कृते यागे गोसहस्रे तथैव च।। अर्थात् भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई गंगा जब हरिद्वार में आयी, तब वह देवताओं के लिए भी दुर्लभ श्रेष्ठ तीर्थ बन गया। मनुष्य उस तीर्थ में स्नान तथा विशेष रूप से श्रीहरि के दर्शन करके उन की परिक्रमा करते हैं वह दुःख के भागी नहीं होते। वह समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाला है। जहां अतीव रमणीय तथा निर्मल गंगा जी नित्य प्रवाहित होती हैं उस हरिद्वार के पुण्यदायक उत्तम आख्यान को कहने सुनने वाला पुरुष सहस्त्रों गोदान तथा अश्वमेध यज्ञ करने के शाश्वत फल को प्राप्त करता है। महाभारत के वनपर्व में देवर्षि नारद 'भीष्म-पुलस्त्य संवाद' के रूप में युधिष्ठिर को भारतवर्ष के तीर्थ स्थलों में हरिद्वार और कनखल के तीर्थों का उल्लेख किया गया है। महाभारत में गंगाद्वार को स्वर्गलोक द्वार के समान कहा गया है:-स्वर्गद्वारेण यत् तुल्यं गंगाद्वारं न संशयः। तत्राभिषेकं कुर्वीत कोटितीर्थे समाहितः।। पुण्डरीकमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्। उष्यैकां रजनीं तत्र गोसहस्त्रफलं लभेत्।। सप्तगंगे त्रिगंगे च शक्रावर्ते च तर्पयन्। देवान् पितृंश्च विधिवत् पुण्ये लोके महीयते।। ततः कनखले स्नात्वा त्रिरात्रोपोषितो नरः। अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति।।अर्थात् गंगाद्वार स्वर्गद्वार के समान है; इसमें संशय नहीं है। वहाँ एकाग्रचित्त होकर कोटितीर्थ में स्नान करना चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य पुण्डरीकयज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। सप्तगंग, त्रिगंग, और शक्रावर्त तीर्थ में विधिपूर्वक देवताओं तथा पितरों का तर्पण करने वाला मनुष्य पुण्य लोक में प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर कनखल में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्ग लोक में जाता है। पुराणों में हरिद्वार, प्रयाग तथा गंगासागर में गंगा की सर्वाधिक महिमा कही गयी है:- सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा। गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे। तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः।। अर्थात् गंगा सर्वत्र तो सुलभ है परंतु गंगाद्वार प्रयाग और गंगासागर-संगम में दुर्लभ मानी गयी है। इन स्थानों पर स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग लोक को चले जाते हैं और जो यहां शरीर त्याग करते हैं उनका तो पुनर्जन्म होता ही नहीं अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं। ह्वेनसांग सातवीं शताब्दी में हरिद्वार आया था और इसका वर्णन 'मोन्यु-लो' से किया है। मोन्यू-लो को मायापुरी कहा जाता है ।प्राचीन किलों और मंदिरों के अनेक खंडहर विद्यमान हैं। हरिद्वार में 'हर की पैड़ी' के निकट जो सबसे प्राचीन आवासीय प्रमाण , महात्माओं के साधना स्थल, गुफाएँ और छिटफुट मठ-मंदिर हैं। भर्तृहरि की गुफा और नाथों का दलीचा प्राचीन स्थल माने जाते हैं। राजा मानसिंह द्वारा बनवाई गयी छतरी, जिसमें उनकी समाधि हर की पैड़ी, ब्रह्मकुंड के मध्य स्थित है। पंडे-पुरोहित दिनभर यात्रियों को तीर्थों में पूजा और कर्मकांड इत्यादि कराते , स्वयं पूजा-अनुष्ठान इत्यादि कर तथा सूरज छिपने से पूर्व ही वहाँ से लौट कर अपने-अपने आवासों को चले जाते थे। उनके आवास के कस्बों को कनखल, ज्वालापुर इत्यादि थे। प्रति वर्ष चैत्र में मेष संक्रांति के समय मेला लगता है । प्रति बारह वर्षों पर जब सूर्य और चंद्र मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में स्थित होने पर कुंभ का मेला लगता है। उसके छठे वर्ष अर्धकुंभ का मेला लगता है मंदिर और देवस्थल हैं। 10वी शदी में तीन मस्तक और चार हाथ माया देवी का मंदिर पत्थर का बना हुआ है। हरिद्वार में हरि की पैड़ी , माता मंशा देवी मंदिर , माता चंडी देवी मंदिर , माया देवी मंदिर , दक्षिणेश्वर महादेव मंदिर , भारतमाता मंदिर , ब्रह्मा, विष्णु और महेश है । भगवान विष्णु ने हर की पैड़ी के ऊपरी दीवार में पत्थर पर पद चिह्न हरिपद को पवित्र गंगा पखारती है । हरिद्वार के दर्शनीय स्थल में गंगा आरती गंगा की पवित्र लहरों के हर की पौड़ी से संध्या को आरती की जाती है। चंडी देवी मंदिर , राजाजी नेशनल पार्क , मनसा देवी मंदिर , भारत माता मंदिर , वैष्णो देवी मंदिर , पतंजली योगपीठ , स्वामि विवेकानंद पार्क है । हरिद्वार जिले में ६१२ गांव और २४ शहर हैं। हरिद्वार में राजा विक्रमादित्य द्वारागंगा के किनारे हर की पैड़ी का निर्माण कराया गया था। चंडी देवी मंदिर , नील पर्वत पर स्थित नीलेश्वर महादेव मंदिर है । शिव महापुराण में नीलेश्वर महादेव मंदिर का उल्लेख है । नीलेश्वर महादेव मंदिर , दक्षेश्वर मंदिर , हरिद्वार और कनखल में भगवान शंकर, सती और पार्वती के अनेक चिन्ह बिखरे हुए हैं । सनातन धर्म ग्रंथों में हरिद्वार को कपिल्स्थान, मायापुरी, गंगाद्वार उल्लेख है। हरिद्वार में 16 आश्रम है । प्रजापति मंदिर, सती कुंड एवं दक्ष महादेव मंदिर हैं। कनखल आश्रमों तथा विश्व प्रसिद्ध गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के लिए भी जाना जाता ह प्रजापति दक्ष का मंदिर , भगवान शिव , माता सती का सती स्थल , कनखल आश्रम है । कनखल गंगा के पश्चिमी किनारे पर 260 मीटर व 850 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। नगर के दक्षिण में दक्ष प्रजापति का भव्य मंदिर है जिसके निकट सतीघाट के नाम से वह भूमि है जहाँ पुराणों (कूर्म २.३८ अ., लिंगपुराण १००.८) के अनुसार शिव ने सती के प्राणोत्सर्ग के पश्चात् दक्षयज्ञ का ध्वंस किया था। कनखल में अनेक उद्यान में केला, आलूबुखारा, लीची, आडू, चकई, लुकाट हैं। ब्राह्मण हरिद्वार अथवा कनखल में पौरोहित्य या पंडगिरी है। राजा दक्ष की राजधानी कनखल (हरिद्वार) में प्रजापति दक्ष ने यज्ञ के दौरान भगवान शिव को छोड़कर सभी राजाओं को बुलाया था। दक्ष की पुत्री औरभगवान शिव की पत्नी माता सती बिना बुलाये यज्ञ में पहुंची। यज्ञ में शिव का अपमान सती सहन नहीं हुआ और हवनकुंड में कूद कर सती हो गई। शिव को माता सती के यज्ञ कुंड में प्रवेश होने के कारण क्रोधित हो कर वीरभद्र को बुलाया और कहा कि मेरी गण सेना का नेतृत्व करो और दक्ष का यज्ञ नष्ट कर देने का निदेश दिया था । वीरभद्र शिव के गणों के साथ गए और यज्ञ को नष्ट कर दक्ष का सर काट डाला था । कनखल में उदासीन अखाड़ा का गृहमुख अवस्थित है ।
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