ग्राम गीतों का प्रथम गीतकार रामनरेश त्रिपाठी हिन्दी भाषा के 'पूर्व छायावाद युग' के कवि थे। कविता, कहानी, उपन्यास, जीवनी, संस्मरण, बाल साहित्य , ग्राम गीतों का संकलन करने वाले हिंदी के प्रथम कवि थे । जिसे 'कविता कौमुदी' के नाम से जाना जाता है। गांधी के जीवन और कार्यो से अत्यन्त प्रभावित थे।'बा और बापू' हिंदी का पहला एकांकी नाटक है। रामनरेश त्रिपाठी को ‘स्वप्न’ पर हिंदुस्तानी अकादमी का पुरस्कार मिला था । ब्राह्मण परिवार के भारतीय सेना का सूबेदार पं॰ रामदत्त त्रिपाठी के पुत्र पंडित रामनरेश त्रिपाठी का जन्म उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर के कोइरीपुर में 4 मार्च 1889 ई. को हुआ था । पं. त्रिपाठी की प्रारम्भिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल में हुई। पंडित त्रिपाठी में कविता के प्रति रुचि प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करते समय जाग्रत हुई थी।
संक्रामक रोग हो जाने की वजह से वह कलकत्ता में भी अधिक समय तक नहीं रह सके। सौभाग्य से एक व्यक्ति की सलाह मानकर वह स्वास्थ्य सुधार के लिए जयपुर राज्य के सीकर ठिकाना स्थित फतेहपुर ग्राम में सेठ रामवल्लभ नेवरिया के पास चले गए। यह एक संयोग ही था कि मरणासन्न स्थिति में वह अपने घर परिवार में न जाकर सुदूर अपरिचित स्थान राजपुताना के एक अजनबी परिवार में जा पहुंचे जहां शीघ्र ही इलाज व स्वास्थ्यप्रद जलवायु पाकर रोगमुक्त हो गए।
पंडित त्रिपाठी ने सेठ रामवल्लभ के पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा की जिम्मेदारी को कुशलतापूर्वक निभाया। “हे प्रभो आनन्ददाता, ज्ञान हमको दीजिये” रचना कर माता सरस्वती को समर्पित की थी ।
द्विवेदी युग के सभी प्रमुख प्रवृत्तियाँ उनकी कविताओं में मिलती हैं। फतेहपुर में पं॰ त्रिपाठी की साहित्य साधना की शुरुआत होने के बाद उन्होंने उन दिनों तमाम छोटे-बडे बालोपयोगी काव्य संग्रह, सामाजिक उपन्यास और हिन्दी में महाभारत थी । त्रिपाठी जी पर तुलसीदास व उनकी अमर रचना रामचरित मानस का गहरा प्रभाव था, वह मानस को घर घर तक पहुँचाना चाहते थे। वर्ष 1915 में पं॰ त्रिपाठी ज्ञान एवं अनुभव की संचित पूंजी लेकर पुण्यतीर्थ एवं ज्ञानतीर्थ प्रयाग गए और उसी क्षेत्र को उन्होंने अपनी कर्मस्थली बनाया था । उन्होंने वर्ष 1920 में 21 दिनों में हिन्दी के प्रथम एवं सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय खण्डकाव्य “पथिक” , “मिलन” और “स्वप्न” उनके प्रसिद्ध मौलिक खण्डकाव्यों , स्वपनों के चित्र पहला कहानी संग्रह है।
कविता कौमुदी के सात विशाल एवं अनुपम संग्रह-ग्रंथों का सम्पादन एवं प्रकाशन किया। महात्मा गांधी के निर्देश पर पंडित रामनरेश त्रिपाठी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रचार मंत्री के रूप में हिन्दी जगत के दूत बनकर दक्षिण भारत गए थे। वह पक्के गांधीवादी देशभक्त और राष्ट्र सेवक थे। स्वाधीनता संग्राम और किसान आन्दोलनों में भाग लेकर वह जेल भी गए। 16 जनवरी 1962 को अपने कर्मक्षेत्र प्रयाग में अंतिम सांस ली।
पंडित त्रिपाठी के निधन के बाद सुल्तानपुर जिले में सभागार "पंडित राम नरेश त्रिपाठी सभागार" है ।
रामनरेश त्रिपाठी की काव्य-कृति में मिलन (1918) १३ दिनों में रचित , पथिक (1920) , मानसी (1927) और स्वप्न (1929) के लिए हिन्दुस्तान अकादमी का पुरस्कार मिला , मुक्तक में मारवाड़ी मनोरंजन, आर्य संगीत शतक, कविता-विनोद, क्या होम रूल लोगे, मानसी , (काव्य) , प्रबंध में मिलन, पथिक, स्वप्न , कहानी : तरकस, आखों देखी कहानियां, स्वपनों के चित्र, नखशिख, उन बच्चों का क्या हुआ..? , कहानियों में 21 कहानियाँ , उपन्यास में वीरांगना, वीरबाला, मारवाड़ी और पिशाचनी, सुभद्रा और लक्ष्मी , नाटक : जयंत, प्रेमलोक, वफ़ाती चाचा, अजनबी, पैसा परमेश्वर, बा और बापू, कन्या का तपोवन , व्यंग्य : दिमाग़ी ऐयाशी, स्वप्नों के चित्र , अनुवाद : इतना तो जानो (अटलु तो जाग्जो - गुजराती से), कौन जागता है (गुजराती नाटक) है ।उन्होने गाँव–गाँव, घर–घर घूमकर रात–रात भर घरों के पिछवाड़े बैठकर सोहर और विवाह गीतों को चुन–चुनकर लगभग १६ वर्षों के अथक परिश्रम से ‘कविता कौमुदी’ संकलन तैयार कर उन्होंने १९१७ से लेकर १९३३ तक प्रकाशित किए थे ।
रामनरेश त्रिपाठी की लोकप्रिय सरस्वती उपासना लोकप्रिय रही है ।
हे प्रभो आनंददाता!
हे प्रभो आनंददाता !
ज्ञान हमको दीजिए,
शीघ्र सारे दुर्गुणों को
दूर हमसे कीजिए।
लीजिए हमको शरण में,
हम सदाचारी बनें,
ब्रह्मचारी, धर्मरक्षक,
वीरव्रत धारी बनें। --
गत हमारी आयु हो प्रभु!
लोक के उपकार में
हाथ डालें हम कभी
क्यों भूलकर अपकार में ।
रामनरेश त्रिपाठी की 8 अप्रैल 1958 में सुल्तानपुर का कोइरीपुर में रचना की थी ।
पता नहीं है जीवन का रथ
किस मंजिल तक जाये।
मन तो कहता ही रहता है,
नियराये-नियराये॥
कर बोला जिह्वा भी बोली,
पांव पेट भर धाये।
जीवन की अनन्त धारा में
सत्तर तक बह आये॥
चले कहां से कहां आ गये,
क्या-क्या किये कराये।
यह चलचित्र देखने ही को
अब तो खाट-बिछाये॥
जग देखा, पहचान लिए
सब अपने और पराये।
मित्रों का उपकृत हूँ जिनसे
नेह निछावर पाये॥
प्रिय निर्मल जी!
पितरों पर अब
कविता कौन बनाये?
मैं तो स्वयं पितर
बनने को बैठा हूँ मुँह बाये ।।
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