विशव वांगमय इतिहास में दीप प्रज्वलित करने के लिए व्यापक उलेख किया गया है । भगवान सूर्य का पुत्र यमराज का जन्म , भूमि पुत्र दैत्यराज नरकासुर का बध , नरकासुर द्वारा अपह्रीत 16100 कुमारियों की मुक्ति और माता काली द्वारा दुष्टों अत्याचरियों का संहार करने पर कार्तिक क्टष्ण चतुर्दशी को छोटी दीवाली सहस्त्र वर्षों से मनायी जाती है । चतुर्द्शी को यम दियरा , , यम दिवस , नरकचतुर्दशी , काली चौदस और छोटी दीवाली मनाया जाता है। मृत्यु के देवता यमराज तथा बहन यमुना (यमी) है। यमराज का वाहन महिष और अस्त्र शस्त्र दण्डधर हैं। यमराज जीवों के शुभाशुभ कर्मों के निर्णायक और भागवत, बारह भागवताचार्य हैं। यमराज दक्षिण दिशा के दिक् पाल और मृत्यु के देवता हैं। यमराज का दरबार और नर्क का राजा तथा रंग नीली आकृति है । यमी और चित्रगुप्त जी के साथ विराजमान हैं। यमराज का १७वीं शताब्दी की एक पेंटिंग, राजकीय संग्रहालय, चेन्नई मे है ।यमराज का निवास स्थान यमलोक अस्त्र दण्ड , पत्नी देवी धुमोरना , पुत्र कतिला , सवारी भैंस ,दक्षिण दिशा के लोकपाल की संयमनीपुरी समस्त प्राणियों के लिये, भयप्रद है। यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुभ्बर, दघ्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त चौदह नामों से यमराज की आराधना होती है। इन्हीं नामों से इनका तर्पण किया जाता है। यमराज की पत्नी देवी धुमोरना थी। कतिला यमराज व धुमोरना का पुत्र था।भगवान सूर्य की भार्या तथा विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से पुत्र यमराज, श्राद्धदेव वैवस्वत मनु और यमुना उत्पन्न हुईं।वैदिक कार्यों में यम और यमी दोनों देवता, ऋषि और मंत्रकर्ता माने जाते थे और 'यम' को लोग 'मृत्यु' से भिन्न मानते थे। पर बाद में यम ही प्राणियों को मारनेवाले अथवा इस शरीर में से प्राण निकालनेवाले माने जाने लगे। वैदिक काल में यज्ञों में यम की भी पूजा होती थी और उन्हे हवि दिया जाता था। उन दिनों वे मृत पितरों के अधिपति तथा मरनेवाले लोगों को आश्रय देनेवाला माने जाते थे। तब से अब तक इनका एक अलग लोक माना जाता है, जो 'यमलोक' कहलाता है। मनुष्य मरने पर सब से पहले यमलोक में जाता है और वहाँ यमराज के सामने उपस्थित किया जाता है। वही उसकी शुभ और अशुभ कृत्यों का विचार करके उसे स्वर्ग या नरक में भेजते हैं। ये धर्मपूर्वक विचार करते हैं, इसीलिये 'धर्मराज' भी कहलाते हैं। यह भी माना जाता है कि मृत्यु के समय यम के दूत ही आत्मा को लेने के लिये आते हैं। स्मृतियों में चौदह यमों के नाम आए हैं, जो इस प्रकार हैं— यम, धर्मराज, मृत्यु, अंतक, वैवस्वत, काल, सर्वभूत, क्षय, उदुंबर, दघ्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त। तर्पण में इनमें से प्रत्यक के नाम तीन-तीन अंजलि जल दिया जाता है।मार्कडेयपुरण में लिखा है कि जब विश्वकर्मा की कन्या संज्ञा ने अपने पति सूर्य को देखकर भय से आँखें बंद कर ली, तब सूर्य ने क्रुद्ध होक उसे शाप दिया कि जाओ, तुम्हें जो पुत्र होगा, वह लोगों का संयमन करनेवाला (उनके प्राण लेनेवाला) होगा। जब इसपर संज्ञा ने उनकी और चंचल दृष्टि से देखा, तब फिर उन्होने कहा कि तुम्हें जो कन्या होगी, वह इसी प्रकार चंचलतापूर्वक नदी के रूप में बहा करेगी। पुत्र तो यही यम हुए और कन्या यमी हुई, जो बाद में 'यमुना' के नाम से प्रसिद्ध हुई।चार द्वारों, सात तोरणों तथा पुष्पोदका, वैवस्वती आदि सुरम्य नदियों से पूर्ण अपनी पुरी में पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर के द्वार से प्रविष्ट होने वाले पुण्यात्मा पुरुषों को यमराज शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी, चतुर्भुज, नीलाभ भगवान विष्णु के रूप में अपने महाप्रासाद में रत्नासन पर दर्शन देते हैं। दक्षिण-द्वार से प्रवेश करने वाले पापियों को वह तप्त लौहद्वार तथा पूय, शोणित एवं क्रूर पशुओं से पूर्ण वैतरणी नदी पार करने पर प्राप्त होते हैं। द्वार से भीतर आने पर वे अत्यन्त विस्तीर्ण सरोवरों के समान नेत्रवाले, धूम्रवर्ण, प्रलय-मेघ के समान गर्जन करनेवाले, ज्वालामय रोमधारी, बड़े तीक्ष्ण प्रज्वलित दन्तयुक्त, सँडसी-जैसे नखोंवाले, चर्मवस्त्रधारी, कुटिल-भृकुटि भयंकरतम वेश में यमराज को देखते हैं। वहाँ मूर्तिमान व्याधियाँ, घोरतर पशु तथा यमदूत उपस्थित मिलते हैं। दीपावली से पूर्व दिन यमदीप देकर तथा दूसरे पर्वो पर यमराज की आराधना करके मनुष्य उनकी कृपा का सम्पादन करता है। ये निर्णेता हम से सदा शुभकर्म की आशा करते हैं।
सोरायसिस 2 दिन में चली जाएगी यदि आप हर सुबह ये लगाएंगे 100 साल की दादी: “रक्त वाहिकाओं को साफ रखती हूँ। नुस्खा लिख लीजिए इसी से तो चर्बी गायब होती है! 7 दिन में 5 किलो कम कर लेंगी नेत्र रोग विशेषज्ञ हैरान हैं! 6 दिनों में 100% तक आँखो की रौशनी अपने फेंफड़ों को संक्रमण और विषैले पदार्थों से कैसे बचाएं यम दिवाली आज, जानिए आखिर क्यों दिखाते हैं यमराज को ''दीया'' यम दिवाली यानि छोटी दिवाली के दिन यमराज को दीया दिखाने की परंपरा है। दिवाली से एक दिन पहले छोटी दिवाली मनाई जाती है इसमें मुख्य रूप से यम की पूजा का विधान है। यम दिवाली के दिन मिट्टी का दीया लेते हैं। फिर उस दिए में सरसों का तेल डालकर घर के बाहर किसी उंचे स्थान पर रखते हैं। यहां यह ध्यान दिया जाता है कि दीया की लौ दक्षिण दिशा में हो। दक्षिण दिशा में दिया इसलिए जलाया जाता है क्योंकि इस दिशा के स्वामी यमराज हैं। ये है कहानी इस दिन यमराज को दिया दिखाने के पीछे पौराणिक कथा है। कहते हैं कि रंती देव नाम के एक बहुत धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था। लेकिन जब मौत का समय पास आया तो उनके सामने यमदूत आ खड़े हुए देखा। भाई दूज का महत्व और किस मुहूर्त में करें भाई का टीका यमदूत को सामने देखकर राजा बोले मैंने तो कभी कोई पाप या अधर्म का काम नहीं किया फिर आप मुझे ले जाने क्यों आए हैं। राजा की बातों को सुनकर यमदूत ने कहा कि राजन एक बार आपके दरवाजे से एक ब्राह्मण भूखा वापस चला गया था। उस पाप के कारण ही आपको यह फल मिला है। इसे भी पढ़ें:दिवाली: इस दिवाली इन चीजों से सजाना न भूलें घर, लक्ष्मी बाहर से ही लौटकर चली जाएंगी फिर राजा ने कहा कि मैं आपसे विनती करता हूं कि मुझे एक साल का समय दें। राजा की बातों को सुनकर यमदूत उन्हें यह समय देकर वापस यमलोक चले गए। उसके बाद राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुंचे और उनसे अपने पाप की मुक्ति का उपाय पूछा। छठ व्रत न कर पाने पर करें ये काम और उपाय, छठी मईया पूरी करेंगी मनोकामना फिर ऋषि बोले आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत रखें और शाम के समय घर के बाहर दक्षिण दिशा में यमराज को दिया दिखाएं। फिर ब्राह्मणों को भोजन करवाकर उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें। राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया था। इस तरह राजा पाप मुक्त हो गए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान मिला। इसलिए उस दिन से ही यमराज को दीए जलाने की प्रथा चली आ रही है। भाई दूज का त्योहार हर वर्ष कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है। यह त्योहार भाई-बहनों का खास त्योहार माना जाता है। यह पर्व रक्षाबंधन की तरह ही भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है। हिन्दू धर्म के अनुसार इस दिन बहन के घर भोजन करने से भाई की उम्र बढ़ती है। माना जाता है की भाईदूज के दिन बहनें अपने भाई की लंबह उम्र और उनके उज्जवल भविष्य के भगवान यमराज की पूजा करती हैं। भाईदूज के त्योहार को यम द्वितीया भी कहा जाता है। भाईदूज का त्योहार दिवाली के दो दिन बाद आता है। भाईदूज के दिन बहनें अपने भाईयों के माथे पर रोली और अक्षत को लगाकर उज्जवल भविष्य की कामना करती हैं। भाईदूज के दिन बहन सुबह उठकर स्नान आदि करके तैयार हो जाती हैं। और सबसे पहले भाई-बहन दोनों मिलकर भगवान यमराज की पूजा करती हैं। तथा उनको अर्घ्य देते हैं। इसके बाद बहन अपने भाई को घी और चावल का टीका लगाती है। उसके बाद भाई की हथेली पर पान, सुपारी और सूखा नारियल रखती हैं। फिर भाई के हाथ पर कलावा बांधती है। और फिर मिठाई खिलाती है । यमी सूर्य की कन्या, जिसकी माता का नाम संज्ञा था। इसके सगे भाई यम अथवा यमराज हैं। यम तथा यमी एक साथ जुड़वाँ जन्मे थे और यमी का दूसरा नाम यमुना भी है। इन भाई-बहन की कथा विष्णुपुराण (३-२-४) एवं मार्कण्डेय पुराण (७४-४) पुराणों में सविस्तार वर्णित है। ऋग्वेद के अनुसार विवस्वान् के आश्वद्वय यम तथा यमी सरण्यु के गर्भ से हुए थे (१०। १४)। विवस्वान की कन्या यमी ने इंद्र के आदेश से शक्तिपुत्र पराशर के कल्याणार्थ दासराज के घर सत्यवती नाम से जन्म लिया (शिवपुराण)। इनकी कथा कूर्मपुराण में भी पाई जाती है।यम द्वितीया के संबंध में एक दंतकथा है कि इसी दिन यम अपनी बहन यमी के यहाँ अतिथि होकर गए तो उन्होंने अपने भाई को एक विशेष पकवान (अवध में 'फरा') बनाकर खिलाया। यमराज इसे खाकर अपनी बहन पर परम प्रसन्न हुए और चलते समय उनसे वरदान माँगने को कहा। यमुना ने अंत में यही वर माँगा कि जो भी भाई बहन यमद्वितीया के दिन मेरे तट पर स्नान कर यही पकवान बनाकर खाएँ वे यमराज की यातना से मुक्त रहें।
नरकासुर - भागवत पुराण के अनुसार वैवस्वत मन्वंतर के सतयुग में भगवान विष्णु द्वारा वराह अवतार धारण कर समुद्र में विलिन भूमि का उद्धार कर दैत्य राज हिर्णयाछ काा बध किया गया था। भूमि देवी के गर्भ से भौमासुर जन्म हुआ था । भौमासुर क्रूर और अधमी था। भौमासुर के करतूतों के उसे नरकासुर कहा जाने लगा।दैत्यराज नरकासुर प्रागज्योतिषपुर में राजधानी बनाया था । नरकासुर द्वारा इंद्र को हराकर इंद्र नगरी पर सत्ता हासिल किया गया था। नरकासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे थे। वह वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीनकर त्रिलोक विजयी था। पृथ्वी की हजारों सुन्दर कन्याओं का अपहरण कर उनको बंदी बनाकर उनका शोषण करता था।नरकासुर ने मुर को मित्र बनाकर और मुर दैत्य के छः पुत्र- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण के साथ रहता था। द्वापर युग में भगवान कृष्ण की भर्या सत्यभामा द्वारा नरकासुर का वध किया गया और उसके एक पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर उसका राजतिलक किया गया था ।श्रीकृष्ण ने कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध कर किया था। नरकासुर की मृत्यु होने से उस दिन शुभ आत्माओं को मुक्ति मिली थी।नरक चौदस के दिन प्रातःकाल में सूर्योदय से पूर्व उबटन लगाकर नीम, चिचड़ी जैसे कड़ुवे पत्ते डाले गए जल से स्नान का अत्यधिक महत्व है। इस दिन सूर्यास्त के पश्चात लोग अपने घरों के दरवाजों पर चौदह दीये जलाकर दक्षिण दिशा में उनका मुख करके रखते हैं तथा पूजा-पाठ करते हैं। भगवान कृष्ण ने नरकासुर का संहार कर संहार कर 16 हजार लड़कियों को कैद से आजाद करवाया था। तत्पश्चात उन लड़कियों को उनके माता पिता के पास जाने का निवेदन किया , जिसे उन्होनें अस्विकार कर कृष्ण से विवाह का प्रस्ताव रखा ,बाद में यही कृष्ण की सोलह हजार पत्नियां ऐवं आठ मुख्य पटरानियां मिलाकर सोलह हजार आठ रानियां कहलायी गयी है । ।नरका सुर के बध के कारण इस दिन को नरक चतुर्दशी के रूप में मनाते हैं । उत्तर भारतीय महिलायें इस दिन " सूप " को प्रात: काल बजाकर 'इसर आवै दरिद्दर जावै ' कहते हुऐ 'सूप' को जला देते हैं । इस दिन को कहीं कहीं " हनुमत् जयंति " के रूप में भी मनाते हैं । प्रागज्योतिषपुर नगर का राजा नरकासुर नामक दैत्य था। उसने अपनी शक्ति से इंद्र, वरुण, अग्नि, वायु आदि सभी देवताओं को परेशान कर दिया। वह संतों को भी त्रास देने लगा। महिलाओं पर अत्याचार करने लगा। उसने संतों आदि की 16 हजार स्त्रीयों को भी बंदी बना लिया। जब उसका अत्याचार बहुत बढ़ गया तो देवता व ऋषिमुनि भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गए। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें नराकासुर से मुक्ति दिलाने का आश्वसान दिया। लेकिन नरकासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया तथा उन्हीं की सहायता से नरकासुर का वध कर दिया।इस प्रकार श्रीकृष्ण ने कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध कर देवताओं व संतों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई। ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे प्राचीन काल में कामरूप की राजधानी प्राग्ज्योतिश्पुर थी । गुवाहाटी ( प्राग्ज्योतिपुर ) में कामाख्या और उमानंद मंदिर मौजूद हैं । दिसपुर, असम की राजधानी, नगर के सर्किट-क्षेत्र में है । ब्रह्मपुत्र नदी और शिल्लोंग पठार के बीच में गुवाहाटी स्थित है । दैत्यराज नरकासुर द्वारा कामरूप की राजधानी प्रागज्योतिश्पुर बनाया गया था । गुवाहाटी का नाम असमीया शब्द "गुवा" संस्कृत शब्द "गुवक" है), जिस का मतलब है "सुपारी", और "हाटी", जिस का मतलब है "पंक्ति", अर्थात् सुपारी की पंक्ति कहा जाता है। इसका पूरा मतलब आता है "सुपारी की पंक्ति"। महाकाव्यों, पुराणों और इतिहास के अनुसार उत्कीर्ण लेख संबंधी स्रोतों में गुवाहाटी प्राचीन राज्यों की राजधानी है। भूमि पुत्र दैत्य राजा नरकासुर और महाभारत के अनुसार भगदत्त् की राजधानी था। देवी कामाख्या के प्राचीन सक्ति मंदिर नीलाचल पहाड़ी (भी तांत्रिक वज्र्रयाना और बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण स्थान्), प्राचीन और अद्वितीय ज्योतिषीय मंदिर चईत्राच्हल पाहार् में स्थित नव्ग्रह, और वशिथ और अन्य स्थानों में पुरातात्विक बनी हुई है में स्थित शहर के प्राचीन पौराणिक दावे का समर्थन पिछले। आम्बारी खुदाई 6 वीं शताब्दी ई. के शहर का पता लगाने. शहर के अलग - अलग समय अवधि में (यानी प्रकाश के पूर्व) प्रगाज्योतिस्पुर् और दुर्जोय् के रूप में जाना जाता था और वर्मन और कामारुपा राज्य के पाला राजवंशों के तहत राजधानी थी। उआन जान ग् के अनुसार वर्मन राजा भास्कर वर्मन (7 वीं शताब्दी ई.) के दौरान, गुवाहटी 19 किमी फैला है और नौसैनिक बल (नौकाओं - तीस हज़ार युद्ध के लिए प्रमुख आधार था हिंद महासागर से चीन के लिए समुद्री मार्गों - उआन जान ग्)। शहर पाला राजवंश के शासकों के अधीन 10 - 11 वीं शताब्दी ई. तक असम की राजधानी के रूप में बने रहे। आम्बारी में खुदाई और ईंट की दीवार और घरों में उपस्थित कपास विस्वविदाल्य् सभागार के निर्माण के दौरान खुदाई 9 11 वीं शताब्दी ई. तक आर्थिक और सामरिक महत्व के साथ महान आकार का एक शहर था। माता सती ने अपने पिता द्वारा अपने पति, भगवान शिव का अपमान किए जाने पर हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी थी। भगवान शिव को आने में थोड़ी देर हो गई, तब तक उनकी अर्धांगिनी का शरीर जल चुका था। उन्होंने सती का शरीर आग से निकाला और तांडव नृत्य आरंभ कर दिया। अन्य देवतागण उनका नृत्य रोकना चाहते थे, अत: उन्होंने भगवान विष्णु से शिव को मनाने का आग्रह किया। भगवान विष्णु ने सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए और भगवान शिव ने नृत्य रोक दिया। कहा जाता है कि सती की योनि (सृजक अंग) गुवाहाटी में गिरी। यह मंदिर देवी की प्रतीकात्मक ऊर्जा को समर्पित है। गुवाहाटी से 7 कि॰मी॰ दूर पश्चिम में नीलाचल हिल पर स्थित यह मंदिर असम की वास्तुकला है, जिसका गुम्बद मधुमक्खियों के छत्ते की भांति है। यहां देवी को बकरे की बली दी जाती है। यहां पूरी धार्मिक श्रद्धा और विश्वास से मुख्य रूप से दो त्यौहार मनाए जाते हैं। जून/जुलाई माह के अंत में पृथ्वी के मासिक चक्र की समाप्ति पर अम्बूची पर्व का आयोजन किया जाता है। सितंबर में मनासा पर्व के दौरान श्रद्धालु पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य करके देवी से दुआ मांगते हैं।नदी के बीच में पिकॉक हिल पर स्थित मंदिर है। भगवान शिव मंदिर का निर्माण 1594 में हुआ था।
काली चौदस - काली चौदस पूजा करने से पहले अभ्यंग स्नान करना होता है. अभ्यंग स्नान करने से व्यक्ति नरक में जाने से बच जाता है । रूप चतुर्दशी या काली चौदस कार्तिक मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है । काली मां की पूजा होती है । मां काली ने असुरों का संहार किया की। नरक चतुर्दशी या छोटी दिवाली भी कहते हैं । रूप चतुर्दशी का पर्व यमराज के प्रति दीप प्रज्जवलित कर मनाया जाता है । मां काली की आराधना का विशेष महत्व होता है । काली मां के आशीर्वाद से शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सफलता मिलती है । काली चौदस बुराई पर अच्छाई की जीत का भी प्रतीक है. काली चौदस पूजा को भूत पूजा के नाम से भी जाना जाता है. यह पूजा अधिकतर पश्चिमी राज्यों विशेषकर गुजरात में देखी जाती है. इस पूजा को करने से जादू-टोना, बेरोजगारी, बीमारी, शनि दोष, कर्ज़ दोष से मुक्ति मिलता है ।
काली चौदस की पूजा में अगरबत्ती, धूप, फूल, काली उरद दाल, गंगा जल, हल्दी, हवन सामग्री, कलश, कपूर, कुमकुम, नारियल, देसी घी, चावल, सुपारी, शंख, पूर्णपतत्र, निरंजन, लकड़ी जलाने के लिए लाइटर, छोटी-छोटी और पतली लकड़ियां, घंटा (बेल), गुड़, लाल, पीले रंग रंगोली आदि सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है । काली चौदस पूजा करने से पहले अभ्यंग स्नान करना होता है. ऐसी मान्यता है कि अभ्यंग स्नान करने से व्यक्ति नरक में जाने से बच जाता है । काली चौदस पूजा में मां काली की मूर्ति की स्थापना एक चौकी पर करें. जब आप चौकी पर मां काली को स्थापित कर लें उसके बाद दीप जलाएं. इसके बाद हल्दी, कुमकुम, कपूर, नारियल मां काली पर चढ़ाएं । काली चतुर्दशी को रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं । भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दांत असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था. इस दिन दीयों की बारात सजाई जाती है । रंति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे । उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय उनके समक्ष यमदूत आ खड़े हुए । यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए है । आपके यहां आने का मतलब है कि मुझे नर्क जाना होगा । आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है । यह सुनकर यमदूत ने कहा हे राजन एक बार आपके द्वार से एक ब्राह्मण भूखा लौट गया था । यह उसी पापकर्म का फल है । इसके बाद राजा ने यमदूत से एक वर्ष का समय दिया था । राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुंचें और उन्हें अपनी सारी कहानी सुनाकर उनसे इस पाप से मुक्ति का उपाय पूछा । ऋषि ने रंतीदेव को कहा कि कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणों को भोजन करवा कर उनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें । राजा रंतीदेव ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया । राजा रंतीदेव पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ । राजा रंती देव का पाप और नर्क से मुक्ति मिलने पर भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी छोटी दीवाली मनायी गयी है ।
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