मंगलवार, नवंबर 17, 2020

मानवीय चेतना का स्थल मिथिला...


    भारतीय वांगमय पुराणों और धर्मग्रंथों तथा इतिहास के अनुसार नारी सशक्तिकरण तथा नारी की मर्यादा की पहचान मिथिलांचल का पवित्र स्थल है । भारत गणराज्य का  बिहार राज्य  के तिरहुत प्रमंडल मे सीतामढी  जिला  सांस्कृतिक मिथिला क्षेत्र का  पौराणिक आख्यानों में सीता की जन्मस्थली है। त्रेतायुग में बिहार के पुनौरा  में जन्म स्थल के कारण सीतामड़ई, सीतामही और सीतामढ़ी पड़ा है ।  लक्षमना (लखनदेई) नदी के तट पर सीतामढी अवस्थित है। सतयुग में लखनदेई नदी के किनारे  महर्षि पुण्डरिक का साधना स्थल और राजा नेमी का ययज्ञ स्थल  तथा त्रेता युग में  मिथिला राज्य का महत्वपूर्ण अंग था। १९०८ ई . में यह मुजफ्फरपुर जिला का हिस्सा बना। स्वतंत्रता के पश्चात 1972 में मुजफ्फरपुर से अलग होकर यह स्वतंत्र जिला बना। बिहार के उत्तरी गंगा के मैदान में स्थित सीतामढी  जिला नेपाल की सीमा पर  अवस्थित और  बज्जिका तथा मैथिली भाषा का का क्षेत्र  है  । त्रेता युग में राजा जनक की पुत्री तथा भगवान राम की पत्नी माता सीता का जन्म पुनौरा में हुआ था। मिथिला में एक बार दुर्भिक्ष उत्पन्न हो गायी थी। पुरोहितों और पंडितों ने मिथिला के राजा जनक को अपने क्षेत्र की सीमा में हल चलाने की सलाह दी।  राजा जनक ने पुण्डरिकारण्य|   (  पुनौरा ) की भूमि में हल जोतने के क्रम में धरती से सीता का अवतरण  हुई  थी ।माता  सीता की अवतरण के कारण पुनौरा का नामकरण  सीतामड़ई, सीतामही और सीतामढ़ी पड़ा है । सीताजी के प्रकाट्य स्थल पर  सीता विवाह पश्चात राजा जनक ने भगवान राम और जानकी की प्रतिमा लगवायी थी।  ५०० वर्ष पूर्व अयोध्या के  संत बीरबल दास ने ईश्वरीय प्रेरणा पाकर उन प्रतिमाओं को खोजा औ‍र उनका नियमित पूजन आरंभ हुआ। यह स्थान  जानकी कुंड के नाम से जाना जाता है। प्राचीन कल में सीतामढी तिरहुत का अंग रहा है।  क्षेत्र में मुस्लिम शासन आरंभ होने तक मिथिला के शासकों के कर्नाट वंश ने यहाँ शासन किया।सीतामढी 1908 ई. में तिरहुत प्रमंडल का मुख्यालय मुजफ्फरपुर बनाया गया । बल्मिकीयरामायण , विष्णु पुराण के अनुसार मिथिला के राजा जनक की हल-कर्षण-यज्ञ-भूमि तथा उर्बिजा सीता के अवतीर्ण होने का स्थान राजनगर से पश्चिम  24 मिल की दूरी पर लक्षमना ( लखनदेई) नदी के तट  यज्ञ का अनुष्ठान एवं हल-कर्षण-यज्ञ के परिणामस्वरूप भूमि-सुता सीता धारा धाम पर अवतीर्ण हुई तथा  आकाश मेघाच्छन्न होकर मूसलधार वर्षा आरंभ हो गयी थी । वर्षा से प्रजा का दुष्काल मिटा, पर नवजात शिशु सीता की उससे रक्षा की समस्या मार्ग में राजा  जनक के सामने उपस्थित हो गयी।  वर्षा और वाट से बचाने के विचार से एक मढ़ी (मड़ई, कुटी, झोपड़ी) प्रस्तुत करवाने की आवश्यकता  पड़ी थी । राजाज्ञा से  उस स्थान पर एक मड़ई तैयार की गयी और उसके अंदर सीता सायत्न रखी गयी। कहा जाता है कि जहां पर सीता की वर्षा से रक्षा हेतु मड़ई बनाई गयी थी । उस स्थान का नाम सीतामड़ई, कालांतर में सीतामही और फिर सीतामढ़ी पड़ा। यहीं पास में पुनौरा ग्राम है जहां रामायण काल में पुंडरिक ऋषि निवास करते थे  सीतामढ़ी तथा पुनौरा जहां है वहाँ रामायण काल में पंडाराण्य  था। जानकी स्थान के महन्थ के प्रथम पूर्वज विरक्त महात्मा और सिद्ध पुरुष थे। उन्होने "वृहद विष्णु पुराण" के वर्णनानुसार जनकपुर नेपाल से मापकर वर्तमान जानकी स्थान वाली जगह को ही राजा जनक की हल-कर्षण-भूमि बताई। पीछे उन्होने उसी पावन स्थान पर एक बृक्ष के नीचे लक्षमना नदी के तट पर तपश्चर्या के हेतु अपना आसन लगाया। पश्चात काल में भक्तों ने वहाँ एक मठ का निर्माण किया । गुरु परंपरा के अनुसार  शिष्यों के अधीन आद्यपर्यंत चला आ रहा है। सीतामढ़ी में उर्वीजा जानकी के नाम पर प्रतिवर्ष दो बार एक राम नवमी तथा दूसरी वार विवाह पंचमी के अवसर पर विशाल पशु मेला लगता है, जिससे वहाँ के जानकी स्थान की ख्याति और भी अधिक हो गयी है। श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड मे"राजकुमारों के बड़े होने पर आश्रम की राक्षसों से रक्षा हेतु ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गये। राम ने ताड़का और सुबाहु  राक्षसों को मार डाला और मारीच को बिना फल वाले बाण से मार कर समुद्र के पार भेज दिया। उधर लक्ष्मण ने राक्षसों की सारी सेना का संहार कर डाला। धनुषयज्ञ हेतु राजा जनक के निमंत्रण मिलने पर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ  मिथिला की राजधानी  जनकपुर आ गये। रास्ते में राम ने गौतम मुनि की स्त्री अहिल्या का उद्धार किया, यह स्थान सीतामढ़ी से 40 कि. मी. अहिल्या स्थान  स्थित है। मिथिला में राजा जनक की पुत्री सीता स्वयंवर का  आयोजन था ।जनकप्रतिज्ञा के अनुसार नेपाल के धनुषा स्थल पर  शिवधनुष विखंडित कर राम ने सीता से विवाह किया| राम और सीता के विवाह के साथ ही साथ गुरु वशिष्ठ ने भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से करवा दिया।" राम सीता के विवाह के उपलक्ष्य में अगहन विवाह पंचमी को सीतामढ़ी में विवाहोत्सव होता है ।सीतामढ़ी शहर 26.6 ° उत्तर और 85.48° पूर्व में स्थित है। इसकी औसत ऊंचाई 56 मीटर (183 फीट) है। यह शहर लखनदेई नदी के तट पर स्थित है। यह बिहार का  सीतामढी मुख्यालय है और तिरहुत कमिश्नरी के अंतर्गत है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार सीतामढी  की जनसंख्या 2,669,887 तथा  क्षेत्रफल 1,200 वर्गकीमि  व 3,200 वर्गमील  है।  सीतामढी बिहार नेपाल की सीमा पर अवस्थित है। बिहार की राजधानी पटना से इसकी दूरी 135 किलो मीटर है। मुख्य रूप से हिन्दी और मैथिली भाषा के रूप में बज्जिका बोली जाती है। गंगा के उत्तरी मैदान में सीतमढी जिला की समुद्रतल से औसत ऊँचाई लगभग ८५ मीटर है। २२९४ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाला इस जिले की सीमा नेपाल से लगती है। अंतरराष्ट्रीय सीमा की कुल लंबाई ९० किलोमीटर है। दक्षिण, पश्चिम तथा पुरब में इसकी सीमा क्रमश: मुजफ्फरपुर, पूर्वी चंपारण एवं शिवहर तथा दरभंगा एवं मधुबनी से मिलती है। उपजाऊ समतल भूमि होने के बावजूद यहाँ की नदियों में आनेवाली सालाना बाढ के कारण यह भारत के पिछड़े जिले में एक है । सीतामढी में औसत सालाना वर्षा 1100 मि•मी• से 1300 मि•मी• तक होती है। यद्यपि अधिकांश वृष्टि मानसून के दिनों में होता है शरद् के दिनों में  वर्षा हो जाती है ।जानकी स्थान मंदिर: सीतामढी रेलवे स्टेशन से 2 किलोमीटर की दूरी पर बने जानकी मंदिर में स्थापित भगवान श्रीराम, देवी सीता है ।सीतामढ़ी नगर के पश्चिमी छोर पर अवस्थित है। जानकी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध यह पूजा स्थल हिंदू धर्म में विश्वास रखने वालों के लिए अति पवित्र है। जानकी स्थान के महन्थ के प्रथम पूर्वज विरक्त महात्मा और सिद्ध पुरुष थे। उन्होने "वृहद विष्णु पुराण" के वर्णनानुसार जनकपुर नेपाल से मापकर  जानकी स्थान वाली जगह को ही राजा जनक की हल-कर्षण-भूमि बताई। पीछे उन्होने उसी पावन स्थान पर एक बृक्ष के नीचे लक्षमना नदी के तट पर तपश्चर्या के हेतु अपना आसन लगाया। पश्चात काल में भक्तों ने वहाँ एक मठ का निर्माण किया । गुरु परंपरा के अनुसार उस कल के क्रमागत शिष्यों के अधीन आद्यपर्यंत चला आ रहा है। यह सीतामढ़ी का मुख्य पर्यटन स्थल है।बाबा परिहार ठाकुुुर : सीतामढ़ी जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर प्रखंड परिहार में परिहार दक्षिणी में में स्थित है बाबा परिहार ठाकुर का मंदिर। यहां की मान्यता है कि जो भी बाबा परिहार ठाकुर के मंदिर में आता है वह खाली हाथ वापस नहीं लौटता उर्बीजा कुंड:सीतामढ़ी नगर के पश्चिमी छोर पर उर्बीजा कुंड है। सीतामढी रेलवे स्टेशन से डेढ किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह स्थल हिंदू धर्म में विश्वास रखने वालों के लिए अति पवित्र है। ऐसा कहा जाता है कि उक्त कुंड के जीर्णोद्धार के समय, आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व उसके अंदर उर्बीजा सीता की एक प्रतिमा प्राप्त हुयी थी, जिसकी स्थापना जानकी स्थान के मंदिर में की गयी। कुछ लोगों का कहना है कि वर्तमान जानकी स्थान के मंदिर में स्थापित जानकी जी की मूर्ति वही है, जो कुंड की खुदाई के समय उसके अंदर से निकली थी। पुनौरा और जानकी कुंड :यह स्थान पौराणिक काल में पुंडरिक ऋषि के आश्रम के रूप में विख्यात था। कुछ लोगों का यह भी मत है कि सीतामढी से ५ किलोमीटर पश्चिम स्थित पुनौरा में हीं देवी सीता का जन्म हुआ था। मिथिला नरेश जनक ने इंद्र देव को खुश करने के लिए अपने हाथों से यहाँ हल चलाया था। इसी दौरान एक मृदापात्र में देवी सीता बालिका रूप में उन्हें मिली। मंदिर के अलावे यहाँ पवित्र कुंड है। हलेश्वर स्थान:सीतामढी से ३ किलोमीटर उत्तर पूरव में इस स्थान पर राजा जनक ने पुत्रेष्टि यज्ञ के पश्चात भगवान शिव का मंदिर बनवाया था जो हलेश्वर स्थान के नाम से प्रसिद्ध है। पंथ पाकड़:सीतामढी से ८ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में बहुत पुराना पाकड़ का एक पेड़ है जिसे रामायण काल का माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि देवी सीता को जनकपुर से अयोध्या ले जाने के समय उन्हें पालकी से उतार कर इस वृक्ष के नीचे विश्राम कराया गया था।बगही मठ:सीतामढी से ७ किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित बगही मठ में १०८ कमरे बने हैं। पूजा तथा यज्ञ के लिए इस स्थान की बहुत प्रसिद्धि है।देवकुली (ढेकुली):ऐसी मान्यता है कि पांडवों की पत्नी द्रौपदी का यहाँ जन्म हुआ था। सीतामढी से १९ किलोमीटर पश्चिम स्थित ढेकुली में अत्यंत प्राचीन शिवमंदिर है जहाँ महाशिवरात्रि के अवसर पर मेला लगता है।गोरौल शरीफ:सीतामढी से २६ किलोमीटर दूर गोरौलशरीफ बिहार के मुसलमानों के लिए बिहारशरीफ तथा फुलवारीशरीफ के बाद सबसे अधिक पवित्र है। जनकपुर:सीतामढी से लगभग ३५ किलोमीटर पूरब एन एच १०४ से भारत-नेपाल सीमा पर भिट्ठामोड़ जाकर नेपाल के जनकपुर जाया जा सकता है। सीमा खुली है तथा यातायात की अच्छी सुविधा है इसलिए राजा जनक की नगरी तक यात्रा करने में कोई परेशानी नहीं है। यह वहु भूमि है जहां राजा जनक के द्वारा आयोजित स्वयंबर में शिव के धनुष को तोड़कर भगवान राम ने माता सीता के साथ विवाह रचाया था।राम मंदिर(सुतिहारा): सीतामढी से लगभग १८ किलोमीटर पूरब एन एच १०४ से जाया जा सकता है।अन्य प्रमुख स्थल संपादित करेंबोधायन सरः संस्कृत वैयाकरण पाणिनी के गुरू महर्षि बोधायन ने इस स्थान पर कई काव्यों की रचना की थी। लगभग ४० वर्ष पूर्व देवरहा बाबा ने यहाँ बोधायन मंदिर की आधारशिला रखी थी।शुकेश्वर स्थानः यहाँ के शिव जो शुकेश्वरनाथ कहलाते हैं, हिंदू संत सुखदेव मुनि के पूजा अर्चना का स्थान है।सभागाछी ससौला: सीतामढी से २० किलोमीटर पश्चिम में इस स्थान पर प्रतिवर्ष मैथिल ब्राह्मण का सम्मेलन होता है और विवाह तय किए जाते हैं।वैष्णो देवी मंदिर: शहर के मध्य में स्थित भव्य वैष्णो देवी मंदिर हैं जहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु दर्शन-पूजन करने जाते हैं। सीता की जन्मस्थली और मिथिला संस्कृति के प्रभाव  सीतामढ़ी और मिथिला क्षेत्र की संस्कृति है। भूभाग को देवी सीता की जन्मस्थली तथा विदेह राज का अंग होने का गौरव प्राप्त है।  २५०० वर्ष पूर्व महाजनपद का विकास होनेपर यह वैशाली बिभीषिका को भी गाकर हल्का किया जात है। जटजटनि तथा झिझिया सीतामढी जिले का महत्वपूर्ण लोकनृत्य है। जट-जटिन नृत्य राजस्थान के झूमर के समान है। झिझिया में औरतें अपने सिर पर घड़ा रखकर नाचती हैं और अक्सर नवरात्र के दिनों में खेला जाता है। कलात्मक डिजाईन वाली लाख की चूड़ियों के लिए सीतामढी शहर की अच्छी ख्याति है। सोहर, जनेऊ के गीत, संमरि लग्न, गीत, नचारी, समदाउनि, झूमर तिरहुति, बरगमनी, फाग, चैतावर, मलार, मधु श्रावणी, छठ के गीत, स्यामाचकेवा, जट जटिन ओर बारहमासा यहाँ के मुख्य लोकगीत हैं।
वाल्मीकि आश्रम -  राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से घीरा बिहार, नेपाल और उत्तर प्रदेश के मध्य वाल्मीकि नगर का  स्थान महर्षि वाल्मीकि स्थान है। वन और नदियाँ  प्राचीन मिथिला की पश्चमी सीमा पश्चिमी में चंपारण पावन तीर्थ स्थल है। त्रेता युग में माता जानकी बणदेवी बनकर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में लव और कुश को जन्म दिया।  अस्वमेघ का घोड़ा लव और कुश ने पकड़ा था जिसे मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने छोड़ा था। यही माता सीता धरती में समाई थी। यही वह पवित्र भूमि है जहाँ आल्हा और उदल की कुलदेवी माता नरदेवी का प्राचीन मंदिर यहाँ विद्यमान है। प्रकृर्ति के प्रांगण में बसा यह स्थान अपनी कहानी अपने आप कहती प्रतीत होती है। वास्तव में यहीं त्रिवेणी संगम है। स्वर्ण भद्रा, ताम्रभाद्र और नारायणी जैसी प्राचीन देव नदियां का संगम इसी स्थान पर है। आज स्वर्ण भद्रा को सरस्वती, ताम्रभद्रा को तमसा कहा जाता है। सदानीरा नारायणी से मिलकर ये दोनों नदियां त्रिवेणी संगम बनती हैं। यहाँ से आगे बिहार में बहने वाली एक प्रसिद्ध नदी निकलती है जिसे गंडक नदी के नाम से जाना जाता है। love kush valmiki ashramवैसे गज और ग्राह की प्रिसिद्ध लड़ाई भी इसी क्षेेत्र से शुरू हुई थी। आदि कवि वाल्मीकि ने रामायण जैसी महान कृति की रचना इसी आश्रम में की थी। खुदाई में यहाँ से निकली कई भव्य मूर्तियां इस स्थान की प्रमाणिकता प्रदर्शित करती नजर आती है।यहाँ की सबसे अधिक पूजनीय एवं प्रसिद्ध सीता माता का समाधी स्थल। कहा जाता है अंत समय में जब सीता ने धरती माता से अपने गोद में लेने के लिए प्रार्थना की। धरती माता प्रकट होकर सीता को लेकर देखते ही देखते जमीन के भीतर लेकर चली गई।यहाँ का चन्देस्वर महादेव मंदिर यहाँ आने वालों केलिए श्रद्धा और आस्था का केंद्र बना हुआ है। प्राचीन काल से आराधित इस शिवालय में अंकुरित महादेव हैं। इस जगह महात्मा गांधी एवं आजादी के बाद प्रथम प्रधान मंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू भी आए। कहा जाता है की स्वप्न देखने के बाद जब खुदाई की गई तो उसमें से यह शिव लिंग निकला। जनश्रुति के अनुसार आदि कवि बाल्मीकि के द्वारा यह शिव लिंग सेवित था, जो कालांतर में जमींदोज हो गया था।
सीतामढ़ी जिला मुख्यालय सीतामढी से पांच किलोमीटर पश्चिम में पुनौरा ( पुण्यारण्य  ) स्थान महर्षि पुंडरीक के कर्म भूमि थी। पुनौरा में राम-जानकी मंदिर और  सीताकुण्ड  तथा पुण्डरीक ऋषि का आश्रम है । जिससे इस स्थान का नाम पुण्डरीक ग्राम पड़ा जो कालान्तर में पुनौरा और सम्प्रति पुनौरा धाम के रूप में प्रचलित हुआ। माता सीता की उत्पत्ति स्थल का सीताकुण्ड  थी। मिथिला राज जनक ने मिथिला में सूखा पड़ने पर स्वयं खेत में हल चलाया था और उस क्रम में एक कलश से धरती की बेटी सीता का अवतरण हुआ था। पुनौरा के  सन् 1934 ई० के भूकम्प से पूर्व पुनौराधाम स्थित श्री जानकी जन्म कुण्ड की छटा न्यारी थी। इसके जल में कुुछ विशेषताएं थीं। इसमें नियमित स्नान करने से वस्त्र गेरुए तथा नारंगी रंग के हो जाते थे। इसके जल में पंडित लोग प्रतिदिन स्नान कर अपनी पगड़ी पर नहीं मिटने वाले रंग चढ़ाते थे। इसी के प्रभाव से वे जगत में ख्याति प्राप्त करते थे और शास्त्रार्थ में सदा विजयी होते थे। सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में सिद्धयोगी बाबा आशा राम जी महाराज वर्षों तक डाकोर जी में योग सिद्धि करने के बाद तीर्थाटन के क्रम में जगत् जननी भक्त हितकारिणी श्री सीताजी की अवतरण भूमि पुण्योर्वरा पुनौराधाम में श्री सीताजन्मकुण्ड पर पधारे थे। वे जलावगाहन से कृतार्थ और सम्मोहित होकर यहीं रम गए। उनके समय में संक्रामक रोगों से पीड़ित लोग इस कुण्ड में स्नान कर चंगे हो जाते थे। यह कथा भी प्रचलित है कि ग्रामीण क्षेत्रों से अगर कोई सज्जन घी अथवा द्रव्य पदार्थ के लिए याचना करने इनके पास आते तो इसी कुण्ड मंे जितने की आवश्यकता होती उतनी जल निकाल पात्र में भरकर दे देते थे, जो घी के रूप में परिवर्तित हो जाता था। सहूलियत से व्यवस्था हो जाने पर जब वे सज्जन घी लौटा जाते तो उसे वे पुनः उसी पुण्यकुण्ड में डाल देते थे। इस तरह आदान-प्रदान कर लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से किया करते थे। ये सब पुण्योर्वराशक्ति का ही प्रभाव था।कहा जाता है कि बाबा आशारामजी सिर्फ लंगोट (कौपीन) धारण करते थे। एक जोड़ा चरण पादुका उनके पास थी, जिसको पहनकर वे कहीं जाते-आते थे। इंकड़ी का दो मंजिला तथा तीन मंजिला मंदिर बनाकर उसमें वे राम जानकी की युगल मूर्ति की झांकी को दर्शित करते थे। कहते हैं कि महाशक्ति दर्शन देकर चमत्कृत कर देती थी। लोग इस भूमि के दर्शन मात्र से मनोवांछित फल प्राप्त कर लेते थे।उन्हीं के समकालीन एक सिद्ध संत स्वामी परम हंसजी महाराज थे। एक बार प्राणान्तकाल में अर्द्धरात्रि के समय उन्होंने बाबा आशाराम जी को ऊपर की बुलाहट की सूचना दी। इस पर उन्होंने कहा कि अभी जाने का समय नहीं है, मृत्यु देवता को लौटा दें। प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में भक्त लोग आकर दर्शन करेंगे, तभी गमन करना ठीक होगा। इस तरह तीन बार दूत को लौटा दिया। तब तक सवेरा हो चला था। उन्हें लोग परमहंस जी महाराज को श्री सीता जन्मकुण्ड पर ले गए और उन्हें स्नान कराने के बाद मुख्य घाट पर विराजमान कर दिया। उसके तत्काल बाद बड़ी संख्या में मौजूद भक्तों के बीच उनका ब्रह्माण्ड विच्छिन्न हो गया। लोग विस्मय विमुग्ध विस्फारित नेत्रों से उन्हें निहारते रह गए। उसके बाद पुण्डरीक क्षेत्र पर उनकी आन्तरिक अभिलाषा के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार कर दिया गया। अपने समय के महान सन्त श्री सिद्धबाबा इसी जानकी जन्मकुण्ड में स्नान करने के बाद प्रतिदिन सीतामढ़ी नगर में स्थित जानकी मंदिर में पूजा करते थे। अखिल भारतीय संत सम्मेलन में सम्मिलित एक परम सिद्ध योगी सन्त अपने कई गृहस्थ और विरक्त शिष्यों के साथ जब मां सीता की प्राकट्स्थली पुनौराधाम से सीता जन्मकुण्ड पर पधारे, तब शिष्यों ने प्रश्न किया कि हमलोग कैसे समझेंगे कि यही वह स्थान है, जहंँ जगन्माता श्री सीता का प्रादुर्भाव हुआ था। यह सुनकर स्वामीजी मुस्कराते हुए बोले ‘बेटे तुम्हारी बाह्य दृष्टि पर धूमिल पर्दे पड़े हंै। इतनी शक्ति कहां जो समझोगे? एकाग्रचित्त होकर कुण्ड के जलमध्य देखो। आज्ञा पाकर सबके सब ध्यानावस्थित होकर देखने लगे। अलौकिक मन मोहक आलोक में एक लहलहाता हुआ लाल कमल प्रस्फुटित हुआ जिससे दिव्य सौंदर्यशालिनी सिंहासनारूढ़ भूमिजा की कमनीय आभा जनमन को आश्चर्य चकित करती हुई आविर्भूत हुई। पुलकित लोचनों से अपलक निहारते हुए हर्षातिरेक से भरे लोग कृतार्थ हो गए। कुछ ही क्षणों के बाद वह विलक्षण दृश्य विलीन हो गया। यह सर्वत्र चर्चा का विषय बन गया। इसकी सूचना पाकर दार्शनिक सम्मेलन के प्रतिभागियों ने यहां आकर श्रद्धान्वित हो घंटों कुण्ड के घाट पर गरुड़ घंटी बजाकर अर्चना और आरती की। उत्तराखण्ड के एक सिद्ध योगी ने श्री जानकी जन्मकुण्ड पर 48 घंटों की निरन्तर समाधि धारण कर यह सिद्ध कर दिया कि संसार की सुखदायिनी भूमिजा इसी पुण्योर्वरा भूमि से प्रकट हुई थीं।मन्दाकिनी तट पर स्थित ब्रह्मावर्त बिठूर निवासी साकेतवासी रावल्लभशरण जी महाराज सरकार स्वामी इस पुण्य तीर्थ में तीन बार पधारे थे। उन्हें श्री हनुमतलाल जी का सान्निध्य प्राप्त था। उनमें संगीतबद्ध प्रवचन द्वारा जन मन को विभोर कर देने की अद्वितीय क्षमता थी। उन्होंने पुनौराधाम की गोपनीयता का दिग्दर्शन कराते हुए बताया कि स्वयं रामजी कभी बाहर जाने के लिए इच्छुक नहीं रहे, लेकिन जब श्री सियाजी की प्रेरणा हुई तब परमधाम के दर्शन और जनकपुरी की परिक्रमा करने का निश्चय किया।देवर्षि नारद ‘पद्मपुराण’ में पुण्डरीक तीर्थ का वर्णन करते हुए मर्यादा पुरुषोतम श्री रामचन्द्रजी से कहते हैं कि इस आश्रम पुनौराधाम में प्रवेश मात्र से प्राणी पवित्र हो जाता है, क्योंकि यह भूमिपुत्री का अवतरण स्थान है। यहाँ एक रात्रि बिताने पर दूसरे जन्म में माँ जानकी के सेवक और दूत बनने का सुयोग प्राप्त होता है।
वेदों में ऐसे तीर्थ के महत्व को दर्शाया गया है – ‘तरति पापादिक यस्मत्’ अर्थात् जिसके माध्यम से मनुष्य जघन्य पापादि से विमुक्त हो जाय उसे तीर्थ की संज्ञा में विभूषित करते हैं। यह भौम तीर्थ के अन्तर्गत आता है। अयोध्या, मिथिला (जानकी जन्मभूमि पुनौराधाम), पुष्कर आदि इसी के परिचायक हैं। इन्हीं तीर्थों में सब तीर्थ अन्तर्निहित हैं, जो भारतवर्ष में किसी न किसी रूप में सुशोभित हैं। गंगा, गंडक, कमला, कौशिकी, लक्ष्मणा आदि नदियों के सन्निकट ऋषि-मुनि तथा सन्त-महात्माओं की ऐसी तपोभूमि भगवदीय अवतारों की लीलाभूमि है। निश्चय ही यह भौमतीर्थ विशेष पुण्यप्रद है। वेदान्त की दृष्टि से यहाँ का अणु-अणु पवित्र तथा तीर्थवत है। इस तीर्थ में वास करने और यात्रा करने की महिमा अवर्णनीय है। रामभद्राचार्य जी पुनौरा को शक्तिपीठों का ननिहाल कहते हैं। जगदम्बा यहीं पूर्ण स्वरूप में जन्मी। बाकी शक्तिपीठ सती के अंगो के आधार पर निर्मित है। माता श्री जानकी के अवतरण का स्थल पुण्डरीक तीर्थ पुनौराधाम एक भव्य मनमोहक सरोवर के लिए भी प्रसिद्ध है। इसे सीता जन्म कुण्ड, जानकी जन्म कुण्ड और उर्विजा कुण्ड तीन नामों से अभिहित किया जाता है। इस पुण्य कुण्ड के चतुर्दिक् आम्र, पीपल, वट, अशोक आदि विभिन्न वृक्षों की शोभा न्यारी है। सैकड़ों वर्ष पुराने पीपल, कदम्ब तथा कबड़ा के लघुकानन कटकर विनष्ट हो गये। सिर्फ इमली के पेड़ पर चमगादड़ सदियों से उल्टे लटक कर तपस्या करते आ रहे हैं। कुण्ड के पश्चिमी भाग में लक्ष्मण की मृतक धार बुढ़िया के रूप में दृष्टिगत है। समीप ही पूर्व के जमीन्दारों का निवास स्थान है। पुनौराधाम बाईस टोलों में विभक्त है। उत्तर में जानकी जन्म नगर टोला है। यहाँ से खैरवा, रीगा चीनी मिल और हलेश्वरनाथ जाने के लिए कुछ दूर तक कच्चा मार्ग है। पूर्वी भाग में कई सन्त-महात्माओं की पुरातन भग्नप्राय समाधियां हैं। उसके बाद ‘यज्ञकुण्ड’ के रूप में जन्म कुण्ड से सटा एक सरोवर है। इससे पूरब विशाल और पुरातन श्री जानकी जन्म मन्दिर है, जिसमें श्री सीताराम जी की प्रस्तर और अष्टधातु की कश्मीरी पद्धति से निर्मित प्राचीन प्रतिमाएं हैं। मुख्य मन्दिर द्वार की दोनों तरफ गदा और गिरि धारण किए श्री हनुमत लाल जी हैं। इससे संलग्न ‘शिव पंचायतन मन्दिर’ है। मुख्य मन्दिर के उत्तर पुराना शिवालय है। शिवलिंग के अतिरिक्त पार्वती, दुर्गा, गणेश तथा नन्दी आदि देवताओं की प्रस्तर मूर्तियां दर्शनीय हैं। शिवालय से पूर्वोत्तर कोण की ओर एक चारदीवारी के अन्दर ‘यज्ञशाला’ है, जिसमें वैशाख मास शुक्ल पक्ष नवमी तिथि को महारानी जानकी के जन्मोत्सव के अवसर पर हवनादि होते हैं। ध्वज गाड़े जाते हैं। हजारांे लोग महाशक्ति सीता का गुणगान कर आनन्द मनाते झूमते हैं। मन्दिर के आस-पास फल-फूल तथा लताओं की हरियाली जनमन के विषाद को हर लेती है। जानकी जन्म भूमि ‘पुनौराधाम’ की महिमा का वर्णन पुराणों, संहिताओं और रामायणकारों ने काफी विस्तार व सुन्दरता से की है। जहाँ आदि शक्ति, महाशक्ति और वीर शक्ति सीता जी का प्रादुर्भाव स्थल है, उसकी महिमा का गुणगान साधारण नहीं है। यह गूढ़ विषय और गूढ रहस्य है। जन्म-जन्मान्तर तक जिनकी प्राप्ति के लिए बड़े बड़े ऋषि मुनि प्रयत्नशील रहे, पर पार न पा सके। इस महाशक्ति पीठ में आस्था और विश्वास के साथ निवास कर धर्मशास्त्रों का पठन पाठन तथा मनन ही एकमात्र उपलब्धि का स्रोत हो सकता है। मिथिला के संस्कृत साहित्यकारों ने अपने ग्रंथों में सीता की अवतरण स्थली पुनौराधाम का सराहनीय चित्रण किया है, जिससे यह ज्ञात होता है कि अवनी कुमारी सीता ने यहाँ अवतरित होकर ब्रह्माण्ड को सुख प्रदान करने के लिए ‘परमब्रह्म’ श्री रामचन्द्र जी की सहचरी के रूप में अपनी पावन लीलाओं से सबको चमत्कृत कर दिया था। धरती से विलक्षण बालिका का अवतरण विस्मयकारी रहस्य है। महाशक्ति की अवतरण स्थली के चतुर्दिक यशोगान गाती हुई, कहीं बागमती की धारा है, कहीं पुण्यसलिला सुरसरि का प्रवाह है, कहीं भैरव जी का पवित्र लिंग (भैरव स्थान) है, तो कहीं मीमांसा, न्याय और वेदों के पठन-पाठन में निरस्त पंडितों का निवास है।
वाल्मीकीयरामायण के उतरकाण्ड पंचपंचाश: सर्ग के अनुसार वैवस्वत मनु के पौत्र एवं इछ्वाकु  के  12वें पुत्र निमि ने गौतम आश्रम के समीप वैजयंत नगर  में महर्षि गौतम द्वारा यग्य कराया गया था । महर्षि वशिष्ट के शाप से निमि देहहीन होने के कारण विदेह कहे  गये थे । राजा निमि के मंथन से विदेह राज मिथि का पुत्र जनक का जन्म हुआ । मिथि द्वारा मिथिला की स्थापना की  और जनकपुर नगर में मिथिला की राजधानी स्थापित था । जनक वंश की की परंपरा कायम हुई ।





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