शुक्रवार, नवंबर 06, 2020

आयुर्वेद के जनक अश्वनौ और प्रणेता धन्वंतरि

आयुर्वेद के प्रणेता धनवंतरी
सत्येन्द्र कुमार पाठक
वेदों , पुरणों ,आयुर्वेद शास्त्रों भारतीय धर्मग्रंथों में आयुर्वेद का जनक अश्वनी कुमार तथा प्रणेता धनवंतरी है ।भगवान विष्णु के अवतार धन्वंतरि भूलोक  में अवतरण समुद्र मंथन से था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक क्टष्ण द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को समुद्र मंथन से प्रकाट्य धन्वंतरी , चतुर्दशी को काली माता तथा भगवान सूर्य पुत्र यम का जन्म , द्वापर युग में नरकासुर का वध ,समुद्र मंथन के बाद अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी तथा कार्तिक शुक्ल नवमी को अश्वनि का प्रादुर्भाव हुआ था। दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। कार्तिक क्टष्ण त्रयोदशी को धनवंतरी द्वारा आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया गया  था।भगवान विष्णु का अवतार धनवंतरी का  चार भुजायें हैं। भुजाओं में शंख और चक्र  और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा  है । आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। धनवंतरी ने अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया । काशी चिकित्सा   आचार्य सुश्रुत बनाये गए थे। सुश्रुत दिवोदास के शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे। सुश्रूत द्वारा  सुश्रुत संहिता लिखी गयी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे। दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं।भगवान  शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और  कालजयी नगरी काशी बन गयी।भगवान धनवंतरी  का निवास वनसैन , अस्त्र शंख, चक्र,अमृत-कलश और औषधि ,सवारी कमल है। वैदिक काल में  महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ।  अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलस मिला था । धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण में उलेख है। आयुर्वेद जगत के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता भगवान धन्वंतरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देव हैं।   कार्तिक त्रयोदशी धनतेरस को आदि प्रणेता, जीवों के जीवन की रक्षा , स्वास्थ्य , स्वस्थ जीवन शैली के प्रदाता के रूप में प्रतिष्ठित तथा विष्णु के अवतार के रूप में पूज्य ऋषि धन्वन्तरी का अवतरण दिवस के रूप में मनाया जाता है और आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता भगवान धन्वंतरि का ॐ धन्वंतरये नमः आदि मन्त्रों से प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त जगत को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायुष्य प्रदान करें।  धर्मग्रन्थों के अनुसार देवताओं के वैद्य धन्वन्तरी की चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। ¿धनतेरस को पीतल आदि अष्टधातु के बर्तन खरीदने की परंपरा प्राचीन काल से कायम है। आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य के देवता धन्वन्तरी ने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने शल्य चिकित्सा का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत नियुक्त किये गए थे। सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे, जिन्होंने सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के प्रथम शल्य चिकित्सक अर्थात सर्जन थे। कहा जाता है कि शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी। रामायण, महाभारत, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद भागवत महापुराण आदि पुराणों और संस्कृत के अनेक ग्रन्थों में आयुर्वेदावतरण के प्रसंग में भगवान धन्वंतरि का उल्लेख प्राप्य है। आयुर्वेद के आदि ग्रन्थों सुश्रुत्र संहिता चरक संहिता, काश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय में विभिन्न रूपों में धन्वंतरि का उल्लेख मिलता है।  आयुर्वेदिक ग्रन्थों में भाव प्रकाश, शार्गधर तथा अनेक ग्रन्थों में आयुर्वेदावतरण के उधृत प्रसंगों में धन्वंतरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है। कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास रचित श्रीमद भागवत पुराण में धन्वंतरि को भगवान विष्णु का अंश माना गया है । गरुड़ और मार्कंडेय पुराणों के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण वे वैद्य कहलाए। विष्णु पुराण में धन्वन्तरि दीर्घतथा का पुत्र बतलाते हुए कहा गया है कि धन्वंतरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्व जन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे। इस प्रकार धन्वंतरि की तीन रूपों में उल्लेख मिलता है – समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वंतरि प्रथम, धन्व के पुत्र धन्वंतरि द्वितीय और काशिराज दिवोदास धन्वंतरि तृतीय। भगवान धन्वंतरि प्रथम तथा द्वितीय का उल्लेख पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रन्थों में भी कहीं-कहीं मिलता है।वेद संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में धन्वंतरि का उलेख है। महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रुप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। धन्वन्तरी का प्रादुर्भाव समुद्रमंथन के पश्चात निर्गत कलश से अण्ड के रुप मे हुआ। समुद्र से निकलते ही उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है अत: अब यह संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो। अत: तुम्हें अगले जन्म में जब सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे।  पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रुप में जन्म लिया और धन्वंतरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे। वे सभी रोगों के निवारण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया था । धन्वंतरि की वंश-परम्परा हरिवंश पुराण पर्व 1 अध्याय 29 के आख्यान के अनुसार इस प्रकार है –काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वंतरि-केतुमान्-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन-वत्स-अलर्क।(हरिवंश पुराण पर्व 1 अध्याय 29 ) .धन्वन्तरी के सम्बन्ध में पुरातन ग्रन्थों में प्राप्य सन्दर्भों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था । पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ। जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला । विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण 3-51 में आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है – सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:। शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।। -ब्रह्मवैवर्त पुराण 3-51 । सुश्रुत के मतानुसार ब्रह्माजी ने पहली बार एक लाख श्लोक के, आयुर्वेद का प्रकाशन किया था जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा तदुपरांत उनसे अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उन से इन्द्र ने पढ़ा। इन्द्रदेव से धन्वंतरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की। भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय प्रमुख मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया। विध्याताथर्व सर्वस्वमायुर्वेदं प्रकाशयन्। स्वनाम्ना संहितां चक्रे लक्ष श्लोकमयीमृजुम्।। इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तन्त्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वारा चरक संहिता के निर्माण का भी आख्यान भी पौराणिक ग्रन्थों में साक्ष्य के रूप में उपलब्ध है। पुरातन ग्रन्थों के अनुसार धन्वंतरि काशी के राजा महाराज धन्व के पुत्र थे । उन्होंने शल्य शास्त्र पर महत्त्वपूर्ण गवेषणाएं की थीं। धन्वंतरि के  प्रपौत्र दिवोदास ने उन्हें परिमार्जित कर सुश्रुत आदि शिष्यों को उपदेश दिए इस प्रकार सुश्रुत संहिता किसी एक का नहीं, बल्कि धन्वंतरि, दिवोदास और सुश्रुत तीनों के वैज्ञानिक जीवन का मूर्त रूप है। धन्वंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत का है। उनके जीवन के साथ अमृत का कलश जुड़ा है। वह भी सोने का कलश। अमृत निर्माण करने का प्रयोग धन्वंतरि ने स्वर्ण पात्र में ही बताया था। उन्होंने कहा कि जरा मृत्यु के विनाश के लिए ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोम नामक अमृत का आविष्कार किया था। सुश्रुत उनके रासायनिक प्रयोग के उल्लेख हैं। धन्वंतरि के संप्रदाय में सौ प्रकार की जीवन का  उलेख है। धन्वंतरि संमप्रदाय में काल ,  मृत्यु सत्य  है ।अकाल मृत्यु रोकने का  निदान और चिकित्सा हैं। “वैदिक काल में महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था । देवों  और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया, जिसमें मन्दर पर्वत को मथनी के रूप में प्रयुक्त किया और वासुकि नाग को डोरी के रूप में प्रयुक्त कर मन्थन किया गया था ।श्रीमद्भागवत पुराण ते अनुुुुुसार मन्दर पर्वत को मथनी के रूप में प्रयुक्त किया और वासुकि नाग को डोरी के रूप में प्रयुक्त कर मन्थन किया। उसमें एक-एक करके अनेक रत्न उत्पन्न हुए, जिनमें अमृतकलश के साथ धन्वंतरि का प्रकट होना एक महत्तवपूर्ण घटना है।महाभारत , अग्निपुराण, विष्णुपुराण, हरिवंशपुराण और ब्रह्मवैवर्तपुराण इन्द्रविजय  ग्रन्थ के अनुसार देवों और असुरों में अनेक संग्राम हुए। उनमें 12 महासंग्राम अत्यन्त प्रसिद्ध हैं।  12 महायुद्धों में एक महायुद्ध का नाम समुद्रमन्थन  है। भगवान धन्वंतरि की उपासना  सम्पूर्ण भारत में की जाती है ।उत्तर भारत में इनके बहुत कम मन्दिर देखने को मिलते हैं।  दक्षिण भारत के तमिलनाडु एवं केरल में धन्वतरि मंदिर हैं। केरल के नेल्लुवायि में धन्वंतरि भगवान का  सुन्दर तथा वि शाल मन्दिर है। केरल के अष्टवैद्यों के वंश में आज भी भगवान धन्वंतरि की पूजा का विशेष महत्व है। अन्नकाल धन्वंतरि मंदिर( त्रिशूर) धन्वंतरि मंदिर, रामनाथपुरम (कोयम्बटूर), श्रीकृष्ण धन्वंतरि मंदिर(उडुपी) आदि भी प्रसिद्ध हैं। गुजरात के जामनगर व मध्य प्रदेश में भी इनके  मंदिर हैं।  तमिलनाडु के वालाजपत में श्री धन्वंतरि आरोग्यपीदम मंदिर स्थापित है। आरोग्य दीपम मंदिर का निर्माण श्रीमुरलीधर स्वामिगल द्वारा करवाया गया था।   स्वामिगल ने विमाााा केे कारण अपने माता पिता के खोने के कारण तथा जन निरोग जनसेवा के लिए   भगवान धन्वंतरि की मूर्ति की स्थापना की । नागराज तक्षक और आरोग्य देव धन्वंतरि की मूर्ति स्थापित है। राजा परीक्षित की सर्प काटने से मृत्यु और फिर उनके पुत्र जन्मेजय द्वारा नागों से प्रतिशोध की पौराणिक कथा  है।  धन्वंतरि देव की प्रतिमा के दर्शन के बाद ही जड़ी-बूटी इकट्ठा करते हैं और इलाज शुरू करते हैै । मद्भागवत पुराण के अष्टम स्कन्ध के छठे अध्याय में कहा गया है कि क्षीरसागर में तिनके, लताएं आदि जो भी औषधि स्वरूप हों, उन्हें डालकर मन्थन करके अमृत निकालना चाहिए। विभिन्न औषधियों से अमृत निकालने की विधि उस युग में केवल धन्वंतरि को ही आती थी। अत: धन्वंतरि ने एक विशिष्ट प्रक्रिया से देवों और असुरों के श्रम का सहारा लेकर अमृत निकाला, जिसे होशियारी से केवल देवों ने ही पीया। असुर अमृत प्राप्त न  कर सके । उन्होंने उसी के अनुरूप दूसरा पेय बनाने का प्रयत्न किया । विशेषज्ञता के अभाव में अमृत न बनकर सुरा स्वरूप पेय बना।  पुराणों ने अमृत मन्थन के स्वरूप को आलंकारिक शैली में वर्णित किया तथा धन्वंतरि को देवत्व रूप में प्रतिष्ठापित किया। आयुर्वेद में आयर्वेद के  आदिदेव धन्वंतरि  है।  हरिवंशपुराण ने  समुद्रमन्थन से अब्जदेव (धन्वंतरि )  उत्पन्न हुए।  इनको यज्ञभाग नहीं दिया गया। अत: ये बाद में काश राजा (काशी के राजा) धन्व के पुत्र रूप में उत्पन्न होकर धन्वंतरि कहलाये।ये अष्टांग आयुर्वेद के ज्ञाता थे। धनवंतरी के प्रपौत्र दिवोदास राजा  आयुर्वेदज्ञ  तथा शल्यशास्त्र के विशेषज्ञ  थे। आयुर्वेदज्ञ होने के कारण दिवोदास ने अपने प्रपितामह धन्वंतरि  अपने उपनाम के रूप में प्रयुक्त किया।राजा दिवोदास धन्वंतरि ने सुश्रुत, औपधेनव, औरभ्र आदि सात शिष्यों को शल्यप्रधान आयुर्वेद का ज्ञान दिया है।   धन्वंतरि, गालव ऋ षि की मन्त्रशक्ति से उत्पन्न हुए थे। इतिहास में विषवैद्य के रूप में  धन्वंतरि का उल्लेख है।अमृतकलश को धारण करने वाले समुद्र मन्थन से आविर्भूत आदिदेव धन्वंतरि है तथा प्रसिद्ध शल्यशास्त्री आयुर्वेदोपदेष्ता दिवोदास धन्वंतरि सुश्रुत के गुरु और काशी के राजा हुए हैं। दोनों ही पूज्य हैं। धन्वंतरि त्रयोदशी के दिन आदिदेव चतुर्भुज धन्वंतरि की पूजा कर आरोग्य और अमृत की कामना की जाती है।आयुर्वेद एक जीवन विज्ञान है ।
 पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भगवान सूर्य  की भार्या संग्या के गर्भ से वैवस्वत  मनु , यम , अश्वनि कुमार (  जुडुआ संतान ) पुत्र तथा यमुना पुत्री का अवतरण हुआ था ।  वैदिक ग्रंथ  में 'अश्विनौ'  ,  अश्वनी कुमार , अश्वदेव के नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद में ३९८ बार अश्विनीकुमारों का उल्लेख हुआ है और ५० ऋचाएँ  अश्वनी कुमार की स्तुति के लिए हैं। अश्विनीकुमार को स्वास्थ्य और आयुर्वेद के देवता ; देवों के वैद्य कहा गया है । बडे अश्विनीकुमार का संबंध नासत्य और छोटे अश्वनी कुमार का सबंध  दस्र से है ।  नासत्य की पत्नी ज्योति तथा दस्त्र की पत्नी मायान्द्री थी ।-संग्या ( सरण्यू ) और पिता सूर्य है और अश्वनी कुमार के पुत्र सत्यवीर, दमराज, नकुल, सहदेव तथा सवारी स्वर्ण रथ है । अश्विनीकुमार प्रभात के जुड़वा देवता और आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं। ये देवों के चिकित्सक और रोगमुक्त करनेवाले हैं। वे कुमारियों को पति माने जाते हैं। वृद्धों को तारूण्य, अन्धों को नेत्र देनेवाले कहे गए हैं। महाभारत के अनुसार  माद्री के नकुल  और सहदेव  पुत्र  को 'अश्विनेय' कहते हैं। दोनों अश्विनीकुमार युवा और सुन्दर हैं। इनके लिए 'नासत्यौ' विशेषण प्रयुक्त है, ऋग्वेद में ९९ बार आया है। नासत्य तथा दस्त्र प्रभात के समय घोड़ों या पक्षियों से जुते हुए सोने के रथ पर चढ़कर आकाश में निकलते हैं। इनके रथ पर पत्नी सूर्या विराजती हैं और रथ की गति से सूर्या की उत्पति होती है। ऋग्वेद (१.३, १.२२, १.३४) , महाभारत में  वर्णन है। वेदों में इन्हें अनेकों बार "द्यौस का पुत्र" (दिवो नपाता) कहा गया है। पौराणिक कथाओं में 'अश्विनीकुमार' त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र। भारतीय दर्शन के विद्वान उदयवीर शास्त्री ने वैशेषिक शास्त्र की व्याख्या में अश्विनों को विद्युत-चुम्बकत्व बताया है । आपस में जुड़े रहते हैं और सूर्य से उत्पन्न हुए हैं। ये अश्व (द्रुत) गति से चलने वाले यानि 'आशु' भी हैं - इनके नाम का मूल  है। वैवस्वत मन्वंतर में वैवस्वत मनु के पुत्र सोन प्शरदेश का राजा शर्याति  की पुत्री सुकन्या ने अपने पति च्यवन की पहचान बताने के लिए अश्विनीकुमारों से प्रार्थना की ।सुकन्या ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों का रूप, देवताओं के साथ सफल चिकित्सक रूप में है। वे सर्वदा युगल रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। उनका युगल रूप चिकित्सा के दो रूपों (सिद्धान्त व व्यवहार पक्ष) का प्रतीक माना जा रहा है। वे ऋग्वैदिक काल के एक सफल शल्य-चिकित्सक थे।  मधुविद्या की प्राप्ति के लिए आथर्वण दधीचि के शिर को काट कर अश्व का सिर लगाकर मधुविद्या को प्राप्त की और पुनः पहले वाला शिर लगा दिया। वृद्धावस्था के कारण क्षीण शरीर वाले च्यवन ऋषि के चर्म को बदलकर युवावस्था को प्राप्त कराना। द्रौण में विश्यला का पैर कट जाने पर लोहे का पैर लगाना, नपुंसक पतिवाली वध्रिमती को पुत्र प्राप्त कराना, अन्धे ऋजाश्व को दृष्टि प्रदान कराना, बधिर नार्षद को श्रवण शक्ति प्रदान करना, सोमक को दीर्घायु प्रदान करना, वृद्धा एवं रोगी घोषा को तरुणी बनाना, प्रसव के आयोग्य गौ को प्रसव के योग्य बनाना आदि कार्य है । अश्विनी कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पातिव्रत्य से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था। दधीचि से मधुविद्या सीखने के लिए इन्होंने उनका सिर काटकर अलग रख दिया था और उनके धड़ पर घोड़े का सिर जोड़ दिया था और तब उनसे मधुविद्या सीखी थी। जब इन्द्र को पता चला कि दधीचि दूसरों को मधुविद्या की शिक्षा दे रहे हैं । इन्द्र ने दधीचि का सिर फिर से नष्त-भ्रष्ट कर दिया। तब इन्होंने ही दधीचि ऋषि के सिर को फिर से जोड़ दिया था। देवता विश्‍वकर्मा को त्वष्टा  कहा गया है। उनकी पुत्री का नाम संज्ञा था। संज्ञा को कहीं-कहीं प्रभा भी कहा गया है। विश्‍वकर्मा ने अपनी इस पुत्री का विवाह भगवान सूर्य से कर दिया। विवाह के बाद संज्ञा ने वैवस्वत और यम नामक दो पुत्रों और यमुना  थी ।  संज्ञा बड़े कोमल स्वभाव की थी, जबकि सूर्य प्रचंड स्वभाव के थे। ऐसे में बड़े कष्टों के साथ संज्ञा सूर्यदेव के तेज को सहन कर रही थी। जब यह सब असहनीय हो गया तो वह अपनी छाया को सूर्यदेव की सेवा में छोड़कर अपने पिता के घर लौट गई।बहुत दिनों बाद पिता विश्वकर्मा ने उसे अपने पति के घर लौटने को कहा, लेकिन वह वहां नहीं जाना चाहती थी। तब वह उत्तरकुरु नामक स्थान (उत्तरी ध्रुव के पास) पर घोड़ी का रूप बनाकर तपस्या करने लगी। इधर सूर्यदेव, संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझते थे। एक दिन छाया ने किसी बात से क्रोधित होकर संज्ञा के पुत्र यम को शाप दे दिया। शाप से भयभीत होकर यम अपने पिता सूर्य के पास गए और माता द्वारा शाप देने की बात बताई। माता ने अपने पुत्र को शाप दे दिया, यह सुनकर सूर्य को छाया पर संदेह होने लगा। तब सूर्य ने छाया को बुलाकर उसकी सच्चाई जाननी चाही। छाया ने जब कुछ नहीं बताया और वह चुप रह गई, तब सूर्यदेव उसे शाप देने को तैयार हो गए। ऐसे में भयभीत छाया ने सब कुछ सच-सच बता दिया।फिर सूर्यदेव ने उसी क्षण आंखें बंद करके देखा कि संज्ञा उत्तरकुरु नामक स्थान पर घोड़ी का रूप धारण कर उनके तेज को सौम्य और शुभ करने के उद्देश्य से कठोर तपस्या कर रही है। तब सूर्यदेव ने अपने ससुर विश्वकर्मा के पास जाकर उनसे अपना तेज कम करने की प्रार्थना की। विश्वकर्मा ने उनके तेज को कम कर दिया। तेज कम होने के बाद सूर्यदेव घोड़े का रूप बनाकर संज्ञा के पास गए और वहीं उसके साथ संसर्ग किया। इससे उन्हें नासत्य, दस्त्र और रैवत नामक पुत्रों की प्राप्ति हुई। नासत्य और दस्त्र अश्विनीकुमार के नाम से प्रसिद्ध हुए। तत्पश्चात सूर्य ने प्रसन्न होकर संज्ञा से वर मांगने को कहा। संज्ञा ने अपने पुत्र वैवस्वत के लिए मनु पद, यम के लिए शाप मुक्ति और यमुना के लिए नदी के रूप में प्रसिद्ध होना मांगा। भगवान सूर्यदेव ने इच्छित वर प्रदान किया। वैवस्वत सातवें मन्वन्तर का स्वामी बनकर मनु पद पर आसीन हुआ। इस मन्वंतर में ऊर्जस्वी नामक इन्द्र थे। अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र और जमदग्नि- ये सातों इस मन्वंतर के सप्तर्षि थे। इस मन्वंतर में भगवान विष्णु ने महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से वामन नाम से अवतार लेकर तीनों लोकों को दैत्यराज बलि के अधिकार से मुक्त कराया ।33 देवताओं में से दो अश्विनी कुमार - हिन्दू धर्म के प्रमुख 33 देवताओं की लिस्ट में अश्विनी कुमारों का नाम भी है। अश्विनी देव से उत्पन्न होने के कारण इनका नाम अश्‍विनी कुमार रखा गया। इन्हें सूर्य का औरस पुत्र भी कहा जाता है। ये मूल रूप से चिकित्सक थे। ये कुल दो हैं। एक का नाम 'नासत्य' और दूसरे का नाम 'द्स्त्र' है। उल्लेखनीय है कि कुंती ने माद्री को जो गुप्त मंत्र दिया था उससे माद्री ने इन दो अश्‍विनी कुमारों का ही आह्वान किया था। 5 पांडवों में नकुल और सहदेव इन दोनों के पुत्र हैं। इनका संबंध रात्रि और दिवस के संधिकाल से ऋग्वेद ने किया है। उनकी स्तुति ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में की गई है। वे कुमारियों को पति, वृद्धों को तारुण्य, अंधों को नेत्र देने वाले कहे गए हैं।उषा के पहले ये रथारूढ़ होकर आकाश में भ्रमण करते हैं और इसी कारण उनको सूर्य पुत्र मान लिया गया। निरुक्तकार इन्हें 'स्वर्ग और पृथ्वी' और 'दिन और रात' के प्रतीक कहते हैं। चिकित्सक होने के कारण इन्हें देवताओं का यज्ञ भाग प्राप्त न था। च्यवन ने इन्द्र से इनके लिए संस्तुति कर इन्हें यज्ञ भाग दिलाया था।दोनों कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पतिव्रत से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का इन्होंने वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था। इन्होंने ही दधीचि ऋषि के सिर को फिर से जोड़ दिया था। कहते हैं कि दधीचि से मधु-विद्या सीखने के लिए इन्होंने उनका सिर काटकर अलगदेवता विश्‍वकर्मा को त्वष्टा  कहा गया है। उनकी पुत्री का नाम संज्ञा था। संज्ञा को कहीं-कहीं प्रभा भी कहा गया है। विश्‍वकर्मा ने अपनी इस पुत्री का विवाह भगवान सूर्य से कर दिया। विवाह के बाद संज्ञा ने वैवस्वत और यम नामक दो पुत्रों और यमुना  थी ।  संज्ञा बड़े कोमल स्वभाव की थी, जबकि सूर्य प्रचंड स्वभाव के थे। ऐसे में बड़े कष्टों के साथ संज्ञा सूर्यदेव के तेज को सहन कर रही थी। जब यह सब असहनीय हो गया तो वह अपनी छाया को सूर्यदेव की सेवा में छोड़कर अपने पिता के घर लौट गई।बहुत दिनों बाद पिता विश्वकर्मा ने उसे अपने पति के घर लौटने को कहा, लेकिन वह वहां नहीं जाना चाहती थी। तब वह उत्तरकुरु नामक स्थान (उत्तरी ध्रुव के पास) पर घोड़ी का रूप बनाकर तपस्या करने लगी। इधर सूर्यदेव, संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझते थे। एक दिन छाया ने किसी बात से क्रोधित होकर संज्ञा के पुत्र यम को शाप दे दिया। शाप से भयभीत होकर यम अपने पिता सूर्य के पास गए और माता द्वारा शाप देने की बात बताई। माता ने अपने पुत्र को शाप दे दिया, यह सुनकर सूर्य को छाया पर संदेह होने लगा। तब सूर्य ने छाया को बुलाकर उसकी सच्चाई जाननी चाही। छाया ने जब कुछ नहीं बताया और वह चुप रह गई, तब सूर्यदेव उसे शाप देने को तैयार हो गए। ऐसे में भयभीत छाया ने सब कुछ सच-सच बता दिया।फिर सूर्यदेव ने उसी क्षण आंखें बंद करके देखा कि संज्ञा उत्तरकुरु नामक स्थान पर घोड़ी का रूप धारण कर उनके तेज को सौम्य और शुभ करने के उद्देश्य से कठोर तपस्या कर रही है। तब सूर्यदेव ने अपने ससुर विश्वकर्मा के पास जाकर उनसे अपना तेज कम करने की प्रार्थना की। विश्वकर्मा ने उनके तेज को कम कर दिया। तेज कम होने के बाद सूर्यदेव घोड़े का रूप बनाकर संज्ञा के पास गए और वहीं उसके साथ संसर्ग किया। इससे उन्हें नासत्य, दस्त्र और रैवत नामक पुत्रों की प्राप्ति हुई। नासत्य और दस्त्र अश्विनीकुमार के नाम से प्रसिद्ध हुए। तत्पश्चात सूर्य ने प्रसन्न होकर संज्ञा से वर मांगने को कहा। संज्ञा ने अपने पुत्र वैवस्वत के लिए मनु पद, यम के लिए शाप मुक्ति और यमुना के लिए नदी के रूप में प्रसिद्ध होना मांगा। भगवान सूर्यदेव ने इच्छित वर प्रदान किया। वैवस्वत सातवें मन्वन्तर का स्वामी बनकर मनु पद पर आसीन हुआ। इस मन्वंतर में ऊर्जस्वी नामक इन्द्र थे। अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र और जमदग्नि- ये सातों इस मन्वंतर के सप्तर्षि थे। इस मन्वंतर में भगवान विष्णु ने महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से वामन नाम से अवतार लेकर तीनों लोकों को दैत्यराज बलि के अधिकार से मुक्त कराया ।33 देवताओं में से दो अश्विनी कुमार - हिन्दू धर्म के प्रमुख 33 देवताओं की लिस्ट में अश्विनी कुमारों का नाम भी है। अश्विनी देव से उत्पन्न होने के कारण इनका नाम अश्‍विनी कुमार रखा गया। इन्हें सूर्य का औरस पुत्र भी कहा जाता है। ये मूल रूप से चिकित्सक थे। ये कुल दो हैं। एक का नाम 'नासत्य' और दूसरे का नाम 'द्स्त्र' है। उल्लेखनीय है कि कुंती ने माद्री को जो गुप्त मंत्र दिया था उससे माद्री ने इन दो अश्‍विनी कुमारों का ही आह्वान किया था। 5 पांडवों में नकुल और सहदेव इन दोनों के पुत्र हैं। इनका संबंध रात्रि और दिवस के संधिकाल से ऋग्वेद ने किया है। उनकी स्तुति ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में की गई है। वे कुमारियों को पति, वृद्धों को तारुण्य, अंधों को नेत्र देने वाले कहे गए हैं।उषा के पहले ये रथारूढ़ होकर आकाश में भ्रमण करते हैं और इसी कारण उनको सूर्य पुत्र मान लिया गया। निरुक्तकार इन्हें 'स्वर्ग और पृथ्वी' और 'दिन और रात' के प्रतीक कहते प्राप्त न था। च्यवन ने इन्द्र से इनके लिए संस्तुति कर इन्हें यज्ञ भाग दिलाया था।दोनों कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पतिव्रत से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का इन्होंने वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था। इन्होंने ही दधीचि ऋषि के सिर को फिर से जोड़ दिया था। कहते हैं कि दधीचि से मधु-विद्या सीखने के लिए इन्होंने उनका सिर काटकर अलग रख दिया था और उनके धड़ पर घोड़े का सिर लगा दिया था । देवता विश्‍वकर्मा को त्वष्टा  कहा गया है। उनकी पुत्री का नाम संज्ञा था। संज्ञा को कहीं-कहीं प्रभा भी कहा गया है। विश्‍वकर्मा ने अपनी इस पुत्री का विवाह भगवान सूर्य से कर दिया। विवाह के बाद संज्ञा ने वैवस्वत और यम नामक दो पुत्रों और यमुना  थी ।  संज्ञा बड़े कोमल स्वभाव की थी, जबकि सूर्य प्रचंड स्वभाव के थे। ऐसे में बड़े कष्टों के साथ संज्ञा सूर्यदेव के तेज को सहन कर रही थी। जब यह सब असहनीय हो गया तो वह अपनी छाया को सूर्यदेव की सेवा में छोड़कर अपने पिता के घर लौट गई।बहुत दिनों बाद पिता विश्वकर्मा ने उसे अपने पति के घर लौटने को कहा, लेकिन वह वहां नहीं जाना चाहती थी। तब वह उत्तरकुरु स्थान (उत्तरी ध्रुव के पास) पर घोड़ी का रूप बनाकर तपस्या करने लगी। इधर सूर्यदेव, संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझते थे। एक दिन छाया ने किसी बात से क्रोधित होकर संज्ञा के पुत्र यम को शाप दे दिया। शाप से भयभीत होकर यम अपने पिता सूर्य के पास गए और माता द्वारा शाप देने की बात बताई। माता ने अपने पुत्र को शाप दे दिया, यह सुनकर सूर्य को छाया पर संदेह होने लगा। तब सूर्य ने छाया को बुलाकर उसकी सच्चाई जाननी चाही। छाया ने जब कुछ नहीं बताया और वह चुप रह गई, तब सूर्यदेव उसे शाप देने को तैयार हो गए। भयभीत छाया ने सब कुछ सच-सच बता दिया।फिर सूर्यदेव ने उसी क्षण आंखें बंद करके देखा कि संज्ञा उत्तरकुरु नामक स्थान पर घोड़ी का रूप धारण कर उनके तेज को सौम्य और शुभ करने के उद्देश्य से कठोर तपस्या कर रही है। तब सूर्यदेव ने अपने ससुर विश्वकर्मा के पास जाकर उनसे अपना तेज कम करने की प्रार्थना की। विश्वकर्मा ने उनके तेज को कम कर दिया। तेज कम होने के बाद सूर्यदेव घोड़े का रूप बनाकर संज्ञा के पास गए और वहीं उसके साथ संसर्ग किया। इससे उन्हें नासत्य, दस्त्र और रैवत  पुत्रों की प्राप्ति हुई। नासत्य और दस्त्र अश्विनीकुमार प्रसिद्ध हुए। भगवान सूर्य  ने प्रसन्न होकर संज्ञा से वर मांगने को कहा। संज्ञा ने अपने पुत्र वैवस्वत के लिए मनु पद, यम के लिए शाप मुक्ति , नासत्य एवं दस्त्र को देव वैद्य , और यमुना के लिए नदी के रूप में प्रसिद्ध होना मांगा। भगवान सूर्यदेव ने इच्छित वर प्रदान किया। वैवस्वत सातवें मन्वन्तर का स्वामी बनकर मनु पद पर आसीन हुआ। वैवस्व मन्वंतर में ऊर्जस्वी इन्द्र थे। अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र और जमदग्नि- मन्वंतर के सप्तर्षि थे। इस मन्वंतर में भगवान विष्णु ने महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से वामन नाम से अवतार लेकर तीनों लोकों को दैत्यराज बलि के अधिकार से मुक्त कराया ।33 देवताओं में से दो अश्विनी कुमार - हिन्दू धर्म के प्रमुख 33 देवताओं की लिस्ट में अश्विनी कुमारों का नाम भी है। अश्विनी देव से उत्पन्न होने के कारण इनका नाम अश्‍विनी कुमार रखा गया। इन्हें सूर्य का औरस पुत्र भी कहा जाता है। ये मूल रूप से चिकित्सक थे। ये कुल दो हैं। एक का नाम 'नासत्य' और दूसरे का नाम 'द्स्त्र' है। उल्लेखनीय है कि कुंती ने माद्री को जो गुप्त मंत्र दिया था उससे माद्री ने इन दो अश्‍विनी कुमारों का ही आह्वान किया था। 5 पांडवों में नकुल और सहदेव इन दोनों के पुत्र हैं। इनका संबंध रात्रि और दिवस के संधिकाल से ऋग्वेद ने किया है। उनकी स्तुति ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में की गई है। वे कुमारियों को पति, वृद्धों को तारुण्य, अंधों को नेत्र देने वाले कहे गए हैं।उषा के पहले ये रथारूढ़ होकर आकाश में भ्रमण करते हैं और इसी कारण उनको सूर्य पुत्र मान लिया गया। निरुक्तकार इन्हें 'स्वर्ग और पृथ्वी' और 'दिन और रात' के प्रतीक कहते हैं। चिकित्सक होने के कारण इन्हें देवताओं का यज्ञ भाग प्राप्त न था। च्यवन ने इन्द्र से इनके लिए संस्तुति कर इन्हें यज्ञ भाग दिलाया था।दोनों कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पतिव्रत से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का इन्होंने वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था। इन्होंने ही दधीचि ऋषि के सिर को फिर से जोड़ दिया था। कहते हैं कि दधीचि से मधु-विद्या सीखने के लिए इन्होंने उनका सिर काटकर अलग रख दिया था और उनके धड़ पर घोड़े का सिर रख दिया था और तब उनसे मधुविद्या सीखी थी।
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 वैवस्वव मन्तवंतर मेें कार्तिक शुक्ल नवमी को अश्वनी कुमारों का अवतरण हुआ था । निरोगता का पेड ऑवला की उत्पति की गयी । अछय नवमी को परिवार के साथ ऑवला पेड की छाया में दान , पान और अश्वनी कुमारों की उपासना करने वालों में निरोगता और चतुर्दिक विकास होती है । सौर धर्मावलंवियों तथा सौर धर्म के प्रधान शाकद्वीपीय मग ब्राह्मण द्वारा भगवान सूर्य की उपासना , अश्वनी कुमारों नासत्य तथा दस्त्र , धन्वंतरि के उपासक है । आयुर्वेद के जनक नास्त्य तथा दस्त्र द्वारा औषधीय पौधों , पेड , पुष्प को उत्पति गयी है तथा प्रणेता धन्वंतरि मानव जीवन के लिए निरोगता का रूप दिया है ।

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