शनिवार, अगस्त 28, 2021

नेपाल की सांस्कृतिक विरासत...

         दक्षिण एशियाई स्थलरुद्ध राष्ट्र नेपाल  है। नेपाल के उत्तर मे तिब्बत और दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में भारत अवस्थित है। नेपाल की राजभाषा नेपाली  और निवासियों को नेपाली कहा गया है। नेपाल् की राजधानी काठमांडू  का राष्ट्रवाक्य: जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी । नेपाल 27°42′N 85°19′E / 27.700°N 85.317°E , भाषा नेपाली राजभाषा नेपाली , खस कुरा से युक्त  21  दिसम्बर, 1768  में बने नेपाल का  क्षेत्रफल 14,75,161 वर्ग कि. मि . में जनसंख्या 2011 जनगणना के अनुसार  2,64,94,504 है । विश्व का सबसे ऊँची 14 हिम शृंखलाओं में सर्वोच्च शिखर सागरमाथा एवरेस्ट नेपाल में  है। नेपाल की राजधानी काठमांडू में ललीतपुर (पाटन), भक्तपुर, मध्यपुर और किर्तीपुर  नगर  तथा   पोखरा, विराटनगर, धरान, भरतपुर, वीरगंज, महेन्द्रनगर, बुटवल, हेटौडा, भैरहवा, जनकपुर, नेपालगंज, वीरेन्द्रनगर, महेन्द्रनगर है। नेपाली भूभाग पर  अठारहवीं सदी में गोरखा के शाह वंशीय राजा पृथ्वी नारायण शाह द्वारा संगठित है । नेपाल' शब्द की व्युत्पत्ति ''ने'  का मतलब ऋषि तथा पाल का मतलब  गुफा मिलकर बना है। नेपाल की राजधानी काठमांडू 'ने' ऋषि का तपस्या स्थल था। 'ने' मुनि द्वारा पालित होने के कारण इस भूखण्ड का नाम नेपाल पड़ा है। तिब्बती भाषा में 'ने' का अर्थ 'मध्य' और 'पा' का अर्थ 'देश' होता है। तिब्बती लोग 'नेपाल' को 'नेपा' ही कहते हैं। 'नेपाल' और 'नेवार' शब्द की समानता के आधार पर डॉ॰ ग्रियर्सन और यंग ने  मूल शब्द से दोनों की व्युत्पत्ति होने का अनुमान किया है। टर्नर ने नेपाल, नेवार,  नेपाल दोनों स्थिति को स्वीकार किया है। 'नेपाल' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में किया है। चंद्रगुप्त मौर्य  काल में बिहार में मागधी भाषा प्रचलित थी उसमें 'र' का उच्चारण नहीं होता था। सम्राट् अशोक के शिलालेखों में 'राजा' के स्थान पर 'लाजा' शब्द व्यवहार में नेपार, नेबार, नेवार इस प्रकार विकास हुआ है । हिमालय क्षेत्र में  9,000 ई. पू . नेपाल में मानव  संस्कृति नव पाषाण युग  से  है। तिब्बती-बर्माई मूल के लोग नेपाल में 2,500 वर्ष पूर्व आ चुके थे। 5,500 ई .पू . महाभारत काल मेंं जब कुन्ती पुत्र पाँचों पाण्डव स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर रहे थे । पाण्डुपुत्र भीम ने भगवान महादेव को दर्शन देने हेतु उपासना के बाद  भगवान शिवजी ने उन्हे दर्शन एक लिंग के रुप मे दिये जो आज "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग " के नाम से जाना जाता है। 1,500 ईसा पूर्व के आसपास हिन्द-आर्यन जातियों ने काठमांडू उपत्यका में प्रवेश किया था । 1,000 ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्य संगठन बनें। नेपाल स्थित जनकपुर में भगवान श्रीरामपत्नी माता सिताजी का जन्म 7,500 ईसा पुर्व हुआ। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व 563–483) , शाक्य वंश के राजकुमार का जन्म नेपाल के लुम्बिनी में हुआ था । 250 ईसा  क्षेत्र में उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पड़ा और बाद में चौथी शताब्दी में गुप्तवंश के अधीन में राज्य हो गया । 5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वैशाली के लिच्छवियों के राज्य की स्थापना हुई। सन् 879 से नेवार युग का उदय हुआ । 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का नेपाल के दक्षिणी भूभाग में रहा हैं। चालुक्यों के  राजाओं ने बौद्ध धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा। 13वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल का थर वाले वंश का उदय होने लगा। 200 वर्ष में मल्ल राजाओं ने शक्ति एकजुट की। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। 1482 में  राज्य कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर प्रदेश हो गया था । 1765 ई . में, गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के असंगठित प्रदेशो पर आधिपत्य के बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ और कांतिपुर  के राजाओं को पराजित करने के बाद  नेपाल  की स्थापना की थी । नेपाल की लम्बाई  800 किलोमीटर और चौड़ाई 200 किलोमीटर का क्षेत्रफल 1,47,516 वर्ग किलोमीटर में नेपाल भौगोलिक रूप से पर्वतीय क्षेत्र, शिवालिक क्षेत्र और तराई क्षेत्र में विभाजित है । नेपाल की  नदियों में  कोशी, गण्डकी , बागमती और कर्णाली , कमला है । पहाड़ी भूभाग मे 1,000 लेकर 4,000 मीटर तक की ऊँचाई के पर्वत  में महाभारत लेख और शिवालिक  चुरिया की  पर्वत शृंखलाएँ हैं। पहाड़ी क्षेत्र मे ही काठमाण्डू , पोखरा , सुर्खेत  के साथ टार, बेसी, पाटन माडी  पड़ते है।  पहाड़ी क्षेत्र की उपत्यका को छोड़ कर 2,500 मीटर (8,200 फुट) की ऊँचाई पर जन घनत्व कम है। हिमाली क्षेत्र  की सबसे ऊँची हिम शृंखला  में संसार का सर्वोच्च शिखर, ऐवरेस्ट (सगरमाथा) 8,848 मीटर (29,035 फुट) अवस्थित है। विश्व की 8,000 मीटर से ऊँची 14 चोटियों में से 8 नेपाल की हिमालयी क्षेत्र में पड़ती हैं।  सर्वोच्च शिखर कंचनजंघा,  शिखर सगरमाथा (एवरेस्ट) नेपाल में   अवस्थित है। हिमशिखर मे अन्नपूर्णा श्रखला है। नेपाल के प्रदेशों में प्रदेश नं १ की राजधानी - धनकुटा , प्रदेश नं २ की राजधानी - जनकपुर , बागमती प्रदेश हेटौड की राजधानी - डोरमणी पौडेल , गण्डकी प्रदेश की राजधानी - पोखरा , प्रदेश नं ५ की बुटवल , कर्णाली प्रदेश की विरेन्द्रनगर , तथा गोदावरी की  कैलाली तथा नेपाल की काठमाण्डू  राजधानी है । नेपाल में बौद्ध पशुपतिनाथ की पूजा आर्यावलोकितेश्वर  और सनातन धर्मावलंबी मंजुश्री की उपासना सरस्वती के रूप में करते हैं। नेपाल की समन्वयात्मक संस्कृति लिच्छवि काल से चली आ रही है।
 लुंबिनी - लुम्बिनी महात्मा बुद्ध की जन्म स्थली है। यूनेस्को तथा विश्व के सभी बौद्ध सम्प्रदाय महायान, बज्रयान, थेरवाद  के अनुसार  नेपाल के कपिलवस्तु का लुम्बनी पर युनेस्को का स्मारक ,  बुद्ध धर्म के सम्प्रयायौं द्वारा निर्मित  संस्कृति अनुसार के मन्दिर, गुम्बा, बिहार आदि निर्माण किया गया  है। लुम्बनी में  सम्राट अशोक द्वारा स्थापित अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म स्थान का  शिलापत्र अवस्थित है।
जनकपुर - वाल्मीकीय रामायण  का उत्तर कांड का पंचपंचाश: सर्ग के अनुसार इक्ष्वाकु वंशीय राजा निमि  के पुत्र  मिथि द्वारा मिथिला प्रदेश की राजधानी अपने पिता विदेह जनक  के नाम पर जनक नगर बसाया बाद में जनकपुर नगर की स्थापना कर मिथिला की राजधानी जनकपुर रखा गया था । सतयुग में मिथिला के राजा मिथि जनक  के वंशज जनकवंश कहलाये है ।   मिथिला की राजधानी जनकपुर में  मिथिला के राजा सीरध्वज जनक की पुत्री सीता का विवाह  अयोध्या का राजा दशरथ के पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के साथ  सम्पन्न हुआ था। 
मुक्तिनाथ - मुक्तिनाथ वैष्‍णव सम्प्रदाय के प्रमुख मन्दिरों में से एक है। यह तीर्थस्‍थान शालिग्राम भगवान के लिए प्रसिद्ध है। भारत में बिहार के वाल्मीकि नगर शहर से कुछ दूरी पर जाने पर गण्डक नदी से होते हुए जाने का मार्ग है। दरअसल एक पवित्र पत्‍थर होता है जिसको हिन्दू धर्म में पूजनीय माना जाता है। यह मुख्‍य रूप से नेपाल की ओर प्रवाहित होने वाली काली गण्‍डकी नदी में पाया जाता है। जिस क्षेत्र में मुक्तिनाथ स्थित हैं उसको मुक्तिक्षेत्र' के नाम से जाना जाता हैं। हिन्दू धार्मिक मान्‍यताओं के अनुसार यह वह क्षेत्र है, जहाँ लोगों को मुक्ति या मोक्ष प्राप्‍त होता है। मुक्तिनाथ की यात्रा काफ़ी मुश्किल है। फिर भी हिन्दू धर्मावलम्बी बड़ी संख्‍या में यहाँ तीर्थाटन के लिए आते हैं। यात्रा के दौरान हिमालय पर्वत के एक बड़े हिस्‍से को लाँघना होता है। यह हिन्दू धर्म के दूरस्‍थ तीर्थस्‍थानों में से एक है।
काठमाण्डु नगर से 29 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में छुट्टियाँ बिताने की खूबसूरत जगह ककनी स्थित है। यहाँ से हिमालय का ख़ूबसूरत नजारा देखते ही बनता है। ककनी से गणोश हिमल, गौरीशंकर 7134 मी॰, चौबा भामर 6109 मी॰, मनस्लु 8163 मी॰, हिमालचुली 7893 मी॰, अन्नपूर्णा 8091 मी॰ समेत अनेक पर्वत चोटियों को करीब से देखा जा सकता है।
समुद्र तल से 4360 मी॰ की ऊँचाई पर स्थित गोसाई कुण्ड झील नेपाल के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है। काठमांडु से 132 किलोमीटर दूर धुंचे से गोसाई कुण्ड पहुँचना सबसे सही विकल्प है। उत्तर में पहाड़ और दक्षिण में विशाल झील इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। यहाँ और भी नौ प्रसिद्ध झीलें हैं। जैसे सरस्वती भरव, सौर्य और गणोश कुण्ड आदि।यह प्राचीन नगर काठमाण्डु से 30 किलोमीटर पूर्व अर्निको राजमार्ग काठमाण्डु-कोदारी राजमार्ग के एक ओर बसा है। यहाँ से पूर्व में कयरेलुंग और पश्चिम में हिमालचुली शृंखलाओं के खूबसूरत दृश्यों का आनन्द उठाया जा सकता है।
पशुपतिनाथ मंदिर - भगवान पशुपतिनाथ का यह खूबसूरत मंदिर काठमाण्डु से करीब 5 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित है। बागमती नदी के किनारे इस मन्दिर के साथ और भी मन्दिर बने हुए हैं। विश्मवप्रसिद्ध महाकाव्य "महाभारत " जो महर्षि वेदव्यासद्वारा 5,500 ईसा पुर्व भारतवर्ष मे हुआ। उसीमे कुन्तीपुत्र धर्मराज युधिष्टीर, अर्जुन, भिम, नकुल, सहदेव तथा द्रोपदी जब स्वर्गारोहण कर रहे थे तब वे जिस विशाल पर्वत शृंखला से गये उसे " महाभारत पर्वत शृंखला " तथा जहा पर कैलासनाथ आदियोगी महादेव जी ने ज्योतिर्लिंग के रुप मे प्रकट हुये वो स्थान " श्री पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग मन्दिर " के नाम से जाना जाता है। "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग देवस्थान" के बारे में माना जाता है कि यह नेपाल में हिन्दुओं का सबसे प्रमुख और पवित्र तीर्थस्थल है। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर प्रतिवर्ष हजारों देशी-विदेशी श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचता है। गोल्फ़ कोर्स और हवाई अड्डे के पास बने इस मन्दिर को भगवान का निवास स्थान माना जाता है।पशुपति शिव (केदार )के शिर , उत्तराखण्डका केदारनाथ शिव (केदार)का शरीर ,डोटी बोगटानका बड्डीकेदार, शिव (केदार )का पाउ (खुट्टा)के रुपमे शिवका तीन अंग प्रसिद्द ज्योतिर्लिंग धार्मिक तीर्थ है । डोटीके केदार व कार्तिकेय (मोहन्याल)का इतिहास अयोध्याका राजवंश से जुड़ा है । उत्तराखण्ड के सनातनी देवता डोटी ,सुर्खेत ,काठमाडौं के देबिदेवाताका धार्मिक तीर्थ के लिए प्राचीन कालमे महाभारत पर्वत,चुरे पर्वत क्षेत्र से आवत जावत होता था । यिसी लिए यह क्षेत्र पवित्र धार्मिक इतिहास से सम्बन्धित है ।
रॉयल चितवन राष्ट्रीय उद्यान देश की प्राकृतिक संपदा का खजाना है। 932 वर्ग किलोमीटर में फैला यह उद्यान दक्षिण- मध्य नेपाल में स्थित है। 1973 में इसे नेपाल के प्रथम राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा हासिल हुआ। इसकी अद्भुत पारिस्थितिकी को देखते हुए यूनेस्को ने 1984 में इसे विश्‍व धरोहर का दर्जा दिया।
चाँगुनारायण मन्दिर -  मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि यह काठमाण्डु घाटी का सबसे पुराना विष्णु मन्दिर है। मूल रूप से इस मन्दिर का निर्माण चौथी शताब्दी के आस-पास हुआ था। वर्तमान पैगोडा शैली में बना यह मन्दिर 1702 में पुन: बनाया गया जब आग के कारण यह नष्ट हो गया था। यह मंदिर घाटी के पूर्वी ओर पहाड़ की चोटी पर भक्तपुर से चार किलोमीटर उत्तर में खूबसूरत और शान्तिपूर्ण स्थान पर स्थित है। यह मन्दिर यूनेस्को विश्‍व धरोहर सूची का हिस्सा है। 2072 वैशाख 12 का भूकम्प से इस मन्दिर की कुछ संरचना बिगड़ गयी है।
भक्तपुर के दरबार स्क्वैयर का निर्माण 16वीं और 17वीं शताब्दी में हुआ था। इसके अन्दर एक शाही महल दरबार और पारम्परिक नेवाड़, पैगोडा शैली में बने बहुत सारे मन्दिर हैं। स्वर्ण द्वार, जो दरबार स्क्वैयर का प्रवेश द्वार है, काफी आकर्षक है। इसे देखकर अन्दर की खूबसूरती का सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है। यह जगह भी युनेस्को की विश्‍व धरोहर का हिस्सा है। यूनेस्को की आठ सांस्कृतिक विश्‍व धरोहरों में से एक काठमाण्डु दरबार प्राचीन मन्दिरों, महलों और गलियों का समूह है। यह राजधानी की सामाजिक, धार्मिक और शहरी जिन्दगी का मुख्य केन्द्र है।
खूबसूरती की मिसाल स्वर्ण द्वार नेपाल की शान है। बेशक़ीमती पत्थरों से सजे इस दरवाज़े का धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व है। शाही अन्दाज में बने इस द्वार के ऊपर देवी काली और गरुड़ की प्रतिमाएँ लगी हैं। यह माना जाता है कि स्वर्ण द्वार स्वर्ग की दो अप्सराएँ हैं। इसका वास्तुशिल्प और सुन्दरता पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देती है। तथा मनमोहक सुन्दर दृश्य पर्यटकों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण जगह है।
काठमाण्डु घाटी के मध्य में स्थित बोधनाथ स्तूप तिब्बती संस्कृति का केन्द्र है। 1959 में चीन के हमले के बाद यहाँ बड़ी संख्या में तिब्बतियों ने शरण ली और यह स्थान तिब्बती बौद्धधर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया। बोधनाथ नेपाल का सबसे बड़ा स्तूप है। इसका निर्माण 14वीं शताब्दी के आस-पास हुआ था, जब मुग़लों ने आक्रमण किया।
इस स्तूप को नेपाली में बौद्ध नाम से पुकारा जाता है। इसकी प्रारम्भिक ऐतिहासिक सामग्री इसकी ही नीचे दबा हुवा अनुमानित है। लिच्छवि राजाओं मानदेव द्वारा निर्मित और शिवदेव द्वारा विस्तारित माना जाता है। हालाँकि इसकी वर्तमान स्वरूप की निर्माण की तिथि भी अज्ञात ही है। इसकी गर्भ-बेदी की दीवार पर स्थापित छोटे-छोटे प्रस्तर मूर्तियाँ और ऊपर की छत्रावली संस्कृत बौद्ध-धर्म का प्रतीक माना जाता है। नेपाल का इतिहास भारतीय साम्राज्यों से प्रभावित हुआ पर यह दक्षिण एशिया का एकमात्र देश था जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद से बचा रहा। हँलांकि अंग्रेजों से हुई लड़ाई (1814-16) और उसके परिणामस्वरूप हुई संधि में तत्कालीन नेपाली साम्राज्य के अर्धाधिक भूभाग ब्रिटिश इंडिया के तहत आ गए और आज भी ये भारतीय राज्य उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और पश्चिम बंगाल के अंश हैं।
हिमालय क्षेत्र में मनुष्यों का आगमन लगभग ९,००० वर्ष पहले होने के तथ्य की पुष्टि काठमाण्डौ उपत्यका में पाये गये नव पाषाण औजारौं से होती है। सम्भवतः तिब्बती-बर्मीज मूल के लोग नेपाल में २,५०० वर्ष पहले आ चुके थे।[1]
१५०० ईशा पूर्व के आसपास इन्डो-आर्यन जतियों ने काठमाण्डौ उपत्यका में प्रवेश किया। करीब १००० ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्यसंगठन बनें। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व ५६३–४८३) शाक्य वंश के राजकुमार थे, जिन्होंने अपना राजकाज त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए। नेपाल का प्राचीन काल सभ्यता, संस्कृति और र्शार्य की दृष्टि से बड़ा गौरवपूर्ण रहा है। प्राचीन काल में नेपाल राज्य की बागडोर क्रमश: गुप्तवंश किरात वंशी, सोमवंशी, लिच्छवि, सूर्यवंशी राजाओं के हाथों में रही है। किरात वंशी राजा स्थुंको, सोमवंशी लिच्छवी, राजा मानदेव, राजा अंशुवर्मा के राज्यकाल बड़े गौरवपूर्ण रहे हैं। कला, शिक्षा, वैभव और राजनीति के दृष्टिकोण से लिच्छवि काल 'स्वर्णयुग' रहा है। जन साधारण संस्कृत भाषा में लिखपढ़ और बोल सकते थे। राजा स्वयं विद्वान्‌ और संस्कृत भाषा के मर्मज्ञ होते थे। 'पैगोडा' शैली की वास्तुकला बड़ी उन्नत दशा में थी और यह कला सुदूर महाचीन तक फैली हुई थी। मूर्तिकला भी समृद्ध अवस्था में थी। धार्मिक सहिष्णुता के कारण् हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म समान रूप से विकसित हो रहे थे। काफी वजनदार स्वर्णमुद्राएँ व्यवहार में प्रचलित थीं। विदेशों से व्यापार करने के लिए व्यापारियों का अपना संगठन था। वैदेशिक संबंध की सुदृढ़ता वैवाहिक संबंध के आधार पर कायम था । 880 ई.में लिच्छवि राज्य की समाप्ति पर नुवाकोटे ठकुरी राजवंश का अभ्युदय हुआ। इस समय नेपाल राज्य की अवनति प्रारंभ हो गई थी। केंद्रीय शासन शिथिल पड़ गया था। फलत: नेपाल अनेक राजनीतिक इकाइयों में विभाजित हो गया। हिमालय के मध्य कछार में मल्लों का गणतंत्र राज्य कायम था। लिच्छवि शासन की समाप्ति पर मल्ल राजा सिर उठाने लगे थे। सन्‌ 1350 ई. में बंगाल के शासक शमशुद्दीन इलियास ने नेपाल उपत्यका पर बड़ा जबरदस्त आक्रमण किया। धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था अस्तव्यस्त हो गयी। सन्‌ 1480 ई. में अंतिम वैश राजा अर्जुन देव अथवा अर्जुन मल्ल देव को उनके मंत्रियों ने पदच्युत करके स्थितिमल्ल नामक राजपूत को राजसिंहासन पर बैठाया। इस समय तक केंद्रीय राज्य पूर्ण रूप से छिन्न-भिन्न होकर काठमाडों, गोरखा, तनहुँ, लमजुङ, मकबानपुर आदि लगभग तीस रियासतों में विभाजित हो गया था।२५० ईशा पुर्व तक ईस क्षेत्र में उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पडा। इस क्षेत्र में ५वी शताब्दी के उत्तरार्ध में आकर वैशाली के लिच्छवियो के राज्य की स्थापना हुई। ८वी शताव्दी के उत्तरार्ध में लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् ८७९ से नेवार (नेपाल की एक जाति) युग का उदय हुआ, फिर भी इन लोगों का नियन्त्रण देशभर में कितना बना था, इसका आकलन कर पाना मुश्किल है। ११वी शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग में दिखा। चालुक्यों के प्रभाव में आकर उस समय राजाओं ने बुद्धधर्म को छोडकर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा।१३वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल कुलनाम वाले राजवंश का उदय होने लगा। २०० वर्ष में इन राजाओं ने शक्ति एकजुट की। १४वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका। १४८२ में यह राज्य तीन भाग में विभाजित हो गया - कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर – जिसके बीचमे शताव्दियौं तक मेल नहीं हो सका। राजा स्थिति मल्ल अस्तव्यस्त आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में पूर्ण रूप से समर्थ हुए। राजा पक्षमल्ल ने केंद्रीय शासन को सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया, किंतु उनके निधन पर पश्चात्‌ उनके उत्तराधिकारियों ने राज्य को आपस में बाँटकर पुन: राजनीतिक इकाइयाँ खड़ी कीं। मध्यकालीन नेपाल साहित्य, संगीत और कला की दृष्टि से उन्नत होने पर भी राजनीतिक दृष्टि से अवनति की ओर ही बढ़ा। जनजीवन अशांत था। यूरोपीय साम्राज्यवादियों की कुदृष्टि भारत के पश्चात्‌ नेपाल पर भी पड़ गई थी। नेपाल के विरुद्ध किनलोक का सैनिक अभियान और उपत्यका में ईसाई पादरियों की चहल पहल इस तथ्य के प्रमाण हैं।गोरखा राज्य इन दिनों काफी सबल हो चुका था। नेपाल की छोटी छोटी राजनीतिक इकाइयों पर और नेपाली जनजीवन पर गोरखा राज्य का प्रभाव छा गया था। न्यायमूर्ति राजा रामशाह के न्याय की चर्चा नेपाल भर में फैल गयी थी। राजा पृथ्वीपति शाह के राज्यकाल में बंगाल के नवाब ने गुर्गिन खाँ के नेतृत्व में नेपाल पर आक्रमण करने के लिए पचास साठ हजार फौज भेजी थी। नवाब की सेना मकवानपुर के तराई क्षेत्र में पड़ाव डाले हुई थी। मकबानपुर ने गोरखा राज्य से सहायता की याचना की। गोराखा के कुछ जवानों ने नवाब की सेना को गाजर मूली की तरह काट डाला। बचे हुए सैनिक अपनी जान बचाकर भाग निकले।उपर्युक्त इन दो कारणो से गोरखा राज्य नेपाली जनजीवन के सुखद भविष्य का आशाकेंद्र हो गया था। जनजीवन की इस आकांक्षा को नेपाल राष्ट्र के जनक महाराजाधिराज पृथ्वीनारायण शाह ने समझा और नेपाल के एकीकरण के लिए अभियान प्रारंभ किया। जिस प्रकार यूरोप में सार्डिनिया राज्य ने इटली का और प्रशा राज्य ने जर्मनी का एकीकरण किया, उसी प्रकार गोरखा राज्य ने पृथ्वीनारायण शाह के नेतृत्व में नेपाल का एकीकरण किया। मध्यकालीन नेपाल के अंतिम चरण में अर्थात्‌ राष्ट्र के जनक पृथ्वीनारायण शाह के उदय होने से पूर्व विदेशी लोग नेपाल पर दाँत गड़ाने लगे थे। नेपाल उपत्यका में पादरी लोग ईसाई धर्म का प्रचार करने लगे थे। मल्ल राजा आपसी फूट-वैमनस्य, झगड़ा, युद्ध आदि बातों में निरंतर व्यस्त थे।
नेपाल उपत्यका के बाहर के राज्य भी आपस में लड़-झगड़कर अपनी जन-धन-शक्ति को क्षीण कर रहे थे। राजाओं ने आपसी झगड़े, मल्ल राजाओं द्वारा देव-मंदिर की संपत्ति का व्यक्तिगत उपभोग, राजा भास्कर मल्ल द्वारा हिंदू भावना के विरुद्ध एक मुसलमान को प्रधान मंत्री बनाने का कार्य आदि मध्यकालीन राजनीतिक स्थिति को धूमिल बनाते हैं और साथ ही नेपाल की सार्वभौम स्वतंत्रता को अधर में डाल देते है। जिस प्रकार शमशुद्दीन इलियास के आक्रमण के पश्चात्‌ राजा स्थितिमल्ल ऐतिहासिक आवश्यकता के रूप में दिखाई पड़ते हैं उसी प्रकार साम्राज्यवादियों से नेपाल का बचाने वाले के रूप में पृथ्वीनारायण शाह ऐतिहासिक आवश्यकता स्वरूप दिखलाई पड़ते हैं। गोरखों ने 1790 में तिब्बत पर आक्रमण किया किंतु यह आक्रमण नेपाल को महँगा पड़ा। चीन ने 1791 में तिब्बत का पक्ष लेकर अपनी सेनाएँ नेपाल में प्रविष्ट करा दीं और 1792 में गोरखों को संधि करने पर विवश किया। इसी वर्ष ग्रेट ब्रिटेन और नेपाल में द्वितीय वाणिज्य संधि संपन्न हुई और नेपाल में एक अंग्रेज कूटनीतिज्ञ की नियुक्ति की व्यवस्था हो गई। भारत नेपाल सीमा विवाद के समय 1814 में ब्रिटेन ने नेपाल के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया। मार्च 1816 में नेपाल ने अपनी कुछ भूमि अंग्रेजों को दे दी और काठमांडू में अंग्रेजी रेजीडेंसी की स्थापना हो गई। 1857 के भारतीय 'सिपाही विद्रोह' में नेपालके तत्कालीन प्रधान मंत्री जंगबहादुर ने अंग्रेजी सेना की सहायता के लिए 12000 सैनिक भेजे।धर्मविरोधी, जातिविरोधी तथा राष्ट्रविरोधी कार्यों ने सच्चे नेपाली के मन में सुदृढ़ नेपाल राष्ट्र खड़ा करने की भावना को जन्म दिया। नेपाल की छिन्न-भिन्न राजनीतिक इकाइयों को एक सूत्र में बाँधकर नेपाल राष्ट्र खड़ा करने के लिए वहाँ की राजनीतिक इकाइयों का एकीकरण हुआ।१७६५मे, गोरखाके शाहवंशी राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के छोटे छोटे बाइसे व चोबिसे राज्यके ऊपर चढाँइ करतेहुए एकिकृत किया, बहुत ज्यादा रक्तरंजित लडाँईयौं पश्वात उन्हौने ३ वर्ष बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ के राजाओं को हराया और अपने राज्य का नाम गोरखा से नेपाल में परिवर्तित किया। कान्तिपुर तविजयके लिये तीन बार युद्ध थाकरना पडा, महान्पि सेनानायक कालू पाण्डे भी इसि युद्ध में सहिद हो गए। अौर पृथ्वीनारायण शाहने कूटनीति अपनाकर उपत्यका बाहरके देशों से लडाइँ कि अौर कीर्तिपुर में नाकाबन्दी कर दिया, पानीका मूल भी बन्द करदिया अन्तिम या तिसरी बार में उन्हे कान्तिपुर विजय में कोई युद्ध नहीं करना पड़ा। वास्तव में, उस समय इन्द्रजात्रा पर्व में कान्तिपुर की सभी जनता फसल के देवता भगवान इन्द्र की पूजा और महोत्सव (जात्रा) मना रहे थे, जब पृथ्वी नारायण शाह ने अपनी सेना लेकर धावा बोला और सिंहासन कब्जा कर लिया। इस घटना को आधुनिक नेपाल का जन्म भी कहते है।



                              

गुरुवार, अगस्त 26, 2021

श्री कृष्ण: ज्ञान, प्रेम और कर्म का अनुपम संगम...

भारतीय संस्कृति में भगवान श्री कृष्ण का स्थान अद्वितीय है। वे सिर्फ एक आराध्य देव नहीं, बल्कि ज्ञान, प्रेम, भक्ति, योग और कर्म के साक्षात स्वरूप हैं। पुराणों और स्मृतियों में वर्णित गीता का संदेश, जो स्वयं कृष्ण ने दिया, आज भी मानव जीवन को सही दिशा दिखाने का सर्वोत्तम मंत्र है। उनका हर एक विचार, हर एक कार्य, और उनका पूरा जीवन ही एक शिक्षा है।

जन्माष्टमी: एक वार्षिक उत्सव

हर साल भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्री कृष्ण के जन्मदिन के रूप में जन्माष्टमी या गोकुलाष्टमी का भव्य उत्सव मनाया जाता है। इस दिन का विशेष महत्व है क्योंकि यह बुधवार को, रोहिणी नक्षत्र में, मध्य रात्रि को हुआ था, जिसे निशिथ काल कहा जाता है। द्वापर युग में, मथुरा के राजा कंस के कारागार में, माता देवकी और पिता वासुदेव के आठवें पुत्र के रूप में उनका अवतरण हुआ। इसके बाद, उन्हें गोकुल में माता यशोदा और नंद बाबा के पास लाया गया, जिन्होंने उनका पालन-पोषण किया। आगे चलकर उन्होंने वृंदावन में लीलाएं कीं और द्वारका में अपना राज्य स्थापित किया।

जन्माष्टमी के अगले दिन, इस उत्सव का एक और रोमांचक हिस्सा मनाया जाता है, जिसे दही हांडी कहते हैं।

दही हांडी: एकता और उत्साह का प्रतीक

महाराष्ट्र और भारत के पश्चिमी राज्यों में, विशेषकर मुंबई, लातूर, नागपुर और पुणे जैसे शहरों में, दही हांडी का त्यौहार बड़े उत्साह से मनाया जाता है। इस परंपरा में, दही से भरे बर्तनों को ऊँचाई पर लटका दिया जाता है। "गोविंदा" कहे जाने वाले युवाओं और लड़कों की टीमें मानव पिरामिड बनाकर इन बर्तनों तक पहुँचने की कोशिश करती हैं। लड़कियाँ नाच-गाकर और गाते हुए इन टीमों को उत्साह देती हैं और उन्हें चिढ़ाती हैं। जब पिरामिड बनता है और बर्तन टूटता है, तो बिखरी हुई सामग्री को प्रसाद माना जाता है। यह सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि एकता, साहस, और टीमवर्क का प्रतीक है। गुजरात के द्वारका में, यह परंपरा 'माखन हांडी' के नाम से जानी जाती है।

विभिन्न राज्यों में जन्माष्टमी की अनूठी झलक

जन्माष्टमी का त्यौहार पूरे भारत में अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है, हर जगह की अपनी अनूठी परंपराएँ हैं:

  • उत्तर भारत: उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमालयी क्षेत्रों में वैष्णव समुदाय के लोग जन्माष्टमी को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। जम्मू में लोग छतों से पतंग उड़ाकर इस उत्सव का आनंद लेते हैं।

  • पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत: मणिपुर, असम, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में कृष्ण भक्ति की परंपरा 15वीं और 16वीं शताब्दी के शंकरदेव और चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं के कारण व्यापक हुई। यहाँ बॉरगीत, अंकइणांत, सत्त्रिया नृत्य और भक्ति योग का विकास हुआ, जो आज भी इन क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय हैं। मणिपुरी शास्त्रीय नृत्य, जिसमें रासलीला और राधा-कृष्ण के प्रेम पर आधारित नृत्य नाटक शामिल हैं, जन्माष्टमी उत्सव का एक अभिन्न अंग हैं।

  • दक्षिण भारत: केरल में मलयालम कैलेंडर के अनुसार, आमतौर पर सितंबर में जन्माष्टमी मनाई जाती है। यहाँ के प्रसिद्ध कृष्ण मंदिर, जैसे गुरुवायूर और उडुपी, भक्तों से भरे रहते हैं। गुरुवायूर में स्थापित कृष्ण की मूर्ति द्वारका की मानी जाती है।

  • अन्य परंपराएँ:

    • जन्माष्टमी पर माता-पिता अपने बच्चों को कृष्ण और गोपियों के पात्रों के रूप में सजाते हैं।

    • मंदिरों को फूलों से सजाया जाता है और भागवत पुराण और भगवद गीता के दसवें अध्याय का पाठ किया जाता है।

    • मीठे व्यंजन बनाए जाते हैं, उपवास रखा जाता है और पूरी रात जागरण कर भक्ति गीत गाए जाते हैं।

जन्माष्टमी सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। यह त्यौहार बांग्लादेश में एक राष्ट्रीय अवकाश है, जहाँ ढाकेश्वरी मंदिर से एक विशाल जुलूस निकलता है। नेपाल के पाटन, फिजी, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, जमैका और सूरीनाम जैसे देशों में भी भारतीय मूल के लोग इसे धूमधाम से मनाते हैं। यहां तक कि पाकिस्तान के कराची स्थित स्वामीनारायण मंदिर में भी भजन और उपदेश होते हैं। अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में भी इस्कॉन मंदिरों के माध्यम से यह उत्सव मनाया जाता है।

निष्कर्ष

भगवान कृष्ण का जीवन हमें यह सिखाता है कि अराजकता और बुराई के समय में भी ज्ञान, प्रेम और धर्म के मार्ग पर चलकर विजय प्राप्त की जा सकती है। उनका जन्म उस समय हुआ जब हर तरफ उत्पीड़न और अराजकता थी, और उनके मामा कंस ने उनके जीवन को खतरा बना दिया था। इसके बावजूद, वे धर्म की स्थापना के लिए यमुना नदी पार कर गोकुल पहुँचे। उनकी बाल लीलाएँ, जैसे 'माखन चोर' की उपाधि, हमें यह याद दिलाती हैं कि जीवन में आनंद और चंचलता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।

जन्माष्टमी सिर्फ एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक उत्सव है जो हमें भगवान कृष्ण के जीवन, उनके दर्शन और उनके प्रेम के संदेश को याद दिलाता है। यह हमें यह भी सिखाता है कि कैसे अलग-अलग परंपराओं और भौगोलिक क्षेत्रों के लोग एक ही भावना से जुड़कर इस अद्भुत त्यौहार को मनाते हैं।

बुधवार, अगस्त 25, 2021

सनातन परंपरा: कल्प ...


      ज्योतिष शास्त्रों , स्मृतियों और पुराणों में कल्प एवं मन्वन्तर का उल्लेख किया गया है।  शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव से सृष्टि उत्पत्ति होती है । विष्णु पुराण में भगवान  विष्णु से  देवों का आविर्भाव हुआ है । ब्रह्म पुराण के अनुसार देवों के रचयिता ब्रह्मा जी  हैं ।   शिव पुराण के  " वायवीय संहिता " और लिंगपुराण  के अनुसार भगवान शिव द्वारा 28 अवतार लेकर सृष्टि प्रारम्भ किया गया है । ब्रह्मा,  विष्णु  और  रुद्र    कारणात्मा और  चराचर जगत् की सृष्टि,  पालन और  संहार और  साक्षात्  महेश्वर  से प्रकट हुए हैं । ब्रह्मा की सृष्टि कार्य में  , विष्णु की रक्षा कार्य में तथा रुद्र की संहारकार्य में नियुक्ति हुई थी । कल्पान्तर में परमेश्वर शिव के प्रसाद से रुद्र देव ने ब्रह्मा और नारायण की सृष्टि की थी । इसी  तरह दूसरे कल्प में जगन्मय ब्रह्मा ने रुद्र तथा विष्णु को उत्पन्न किया था । फिर  कल्पान्तर में भगवान् विष्णु ने  रुद्र तथा ब्रह्मा की सृष्टि की थी  । इस तरह पुनः ब्रह्मा ने नारायण की और रुद्र देव  ने  ब्रह्मा की सृष्टि की । इस प्रकार विभिन्न कल्पों में ब्रह्मा  , विष्णु  और  महेश्वर  परस्पर उत्पन्न होते और एक दूसरे का हित चाहते हैं ।  विष्णु का सप्तम वाराह कल्प चल रहा है । याने  7 × 4 ( चतुर्युग )  =  28 , अभी अठाईसवां  चतुर्युग चल रहा है । 1000  ( एक हजार ) चतुर्युग बीतने पर कल्प  ब्रह्मा जी का एक दिन कहलाता है । शिव जी के  28  ( अठाईस  )  अवतारों में प्रथम अवतार का नाम श्वेत था । भगवान विष्णु का 23 वें अवतार में  प्रथम अवतार  वाराह कल्प  था ।  " विश्व  रुप कल्प " ब्रह्मा जी को समर्पित है  । इस तरह हम पाते हैं कि हमारे। अठारहों पुराणों की कुल श्लोक संख्या चार लाख है । वैज्ञानिक  एवं सटिक गणना विश्व के ज्योतिष ज्ञान है ।    कल्पों  विवरण -    ब्रह्म लोक का एक सहस्र चतुर्युग  याने  43,20,000  मानवीय वर्ष  × 1,000  =  4,32,00,00,000  ( चार अरब बत्तीस करोड़  मनुष्य  वर्ष )  को एक कल्प कहते हैं ।  यों तो कल्प अनन्त हैं,  क्योंकि अभी तक अनेकों ब्रह्मा आ चुके हैं । प्रत्येक ब्रह्मा की आयु सौ वर्ष निर्धारित  है । अतः  30 × 12 =  360 × 100 = 36,000 कल्प एक ब्रह्मा के लिए है ।   ऋषि  - महर्षियों  ने वायु पुराण  द्वारा  35 कल्पों का निर्धारण किया है जिसके समाप्त होने पर पुनः एक से शुरुआत होकर  35 ( पैतीस ) है । ( 1 )   भव कल्प  ;( 2 )   भुव कल्प  ; ( 3 )   तपः कल्प  ;( 4 )   भव  ( 5 )   रम्भ कल्प  ;( 6 )   ऋतु  कल्प  ;( 7 )   क्रतु  कल्प  ;( 8 )   वह्नि  कल्प  ;( 9 )   हव्य वाहन कल्प  ;(10)   सावित्र  कल्प  ;(11)   भुवः  कल्प  ;(12)   उशिक  कल्प  ;(13)   कुशिक  कल्प  ;(14)   गान्धार  कल्प  ;(15)   ऋषभ  कल्प  ;(16)   षड्ज कल्प  ; (17)   मार्जालीय  कल्प ;(18)   मध्यम  कल्प  ;(19)   वैराजक  कल्प  ;(20)   निषाद  कल्प  ;(21)   पञ्चम  कल्प  ;(22)   मेघ वाहन  कल्प  ;(23)   चिन्तक  कल्प (24)   आकूति कल्प  ;(25)   विज्ञाति  कल्प  ; (26)   मन  कल्प  ;(27)   भाव  कल्प  ;(28)   वृहत्  कल्प  ; (29)   श्वेत  लोहित  कल्प  ;(30)   रक्त  कल्प  ;(31)   पीतवाशा  कल्प  ;(32)   कृष्ण  कल्प  ;(33)   विश्व रुप  कल्प  ;(34)   श्वेत  कल्प  और  (35)   वाराह  कल्प  है । श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार भगवान विष्णु से उत्पन्न ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष है ।ब्रह्मा जी की आयु 50 वर्ष पूर्वपरार्ध तथा 50 वर्ष द्वितीय परार्ध कहा है ।सतयुग , त्रेता , द्वापर और कलियुग को शामिल कर महायुग कहा गया है ।एक हजार महायुग व्यतीत होने पर ब्रह्मा का एक डिनर एक रात होती है ।सबत्सराबली तथा महाभारत के रचयिता महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास के अनुसार  ब्रह्मा जी के 51 वर्ष प्रथम दिन के 6 मन्वन्तर गत हो गए है ।14 मनुशासन में स्वायम्भुव मनु , स्वारोचिष मनु ,उतम मनु ,तामस मनु ,रैवत ,चाक्षषु ,वैवस्वत ,सावर्णि ,दक्ष सावर्णि ,ब्रह्मसवर्णी , धर्म सावर्णि , रुद्र सावर्णि ,देव सावर्णि तथा इंद्र सावर्णि है । 7वें वैवस्वत मनु काल का 28 वां महायुग प्रारम्भ है ।प्रत्येक मनु का शासन 71 महायुग का होता है ।एक महायुग में सौर वर्ष 4323000वर्ष है । 14 मनुओं का राज्य को एक कल्प या ब्रह्मा जी का एक दिन है । मनुमय सृष्टि के सौर वर्ष 1955885122 , कलियुग 5122 विक्रम संबत 2078 , ईस्वी सम्वत 2021 शालिवाहन संबत 1943 , फसली संबत 1428 , बांग्ला संबत 1428 ,नेपाली संबत 1141 औरहिजरी संबत 1442 प्रारम्भ है । 

सोमवार, अगस्त 23, 2021

कजरी तीज : दिव्य ज्ञान ...


        भारतीय संस्कृति में दिव्य ज्ञान एवं सामाजिक जीवन को सफलता का विशेष उल्लेख किया गया है । कजरी तीज स्त्रियों की संकल्पित और मनोकामनाएं पूर्ण भावनाएं समर्पित है । कजरी तीज के दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी आयू के लिए व्रत रखती है और अविवाहित लड़कियां इस पर्व पर अच्छा वर पाने के लिए व्रत रख कर जौ, चने, चावल और गेंहूं के सत्तू में घी और मेवा मिलाकर  भोजन बनाते हैं। चंद्रमा की पूजा करने के बाद उपवास तोड़ते हैं। कजरी तीज के दिन गायों की पूजा की जाती है। साथ ही इस दिन घर में झूले लगाते है और महिलाएं इकठ्ठा होकर नाचती है और गाने गाती हैं। कजरी  उत्सव पर नीम की पूजा कर  चाँद को अर्घ्य  देने की परंपरा हैं । भाद्रपद कृष्ण पक्ष तृतीय को कजरी तीज , बड़ी तीज, सातुड़ी तीज , कृष्ण तीज महिलाएं एवं लड़कियों द्वारा मनाई जाती है । माता  पार्वती  की पूजा कर महिलाएं कजरी तीज पर अखंड सौभाग्यवती एवं कुँवारी लड़कियां अच्छे वर के लिये , चतुर्दिक विकास  प्राप्ति के  लिए ब्रत रखती है । 108 जन्म लेने के बाद देवी पार्वती भगवान शिव से शादी करने में सफल हुई। कजरी तीज निस्वार्थ प्रेम के सम्मान के रूप में मनाया जाता है ।पौराणिकता के अनुसार, कजली घने जंगल क्षेत्र का राजा दादूरई द्वारा शासित था। कजली के लोग  कजली  गाने गाते थे ।कजली का  राजा दादूरई का निधन होने के बाद उनकी पत्नी रानी नागमती ने खुद को सती  में अर्पित कर दिया। नागमती द्वारा अपने पति कजली का राजा दादुरई के सती होने के स्थान कजली स्थान पर लोगों ने रानी नागमती को सम्मानित करने के लिए राग कजरी मनाना प्रारम्भ कर दिया था ।माता पार्वती भगवान् शिव की उपासना की थी। भगवान शिव ने पार्वती की भक्ति साबित करने के लिए कहा। पार्वती ने शिव द्वारा स्वीकार करने से पहले, 108 साल एक तपस्या करके माता पार्वती द्वारा भक्ति साबित की गयी थी ।भगवन शिव और पार्वती का दिव्य ज्ञान भाद्रपद महीने के कृष्णा पक्ष के दौरान हुआ था।  बूंदी रियासत में गोठडा के राजा ठाकुर बलवंत सिंह के भरोसे वाले  जांबाज सैनिक भावना से ओतप्रोत थे। राजा ठाकुर बलवंत सिंह द्वारा जयपुर के चहल-पहल वाले मैदान से तीज की सवारी, शाही तौर-तरीकों से निकल रही थी। ठाकुर बलवंत सिंह हाडा अपने जांबाज साथियों के पराक्रम से जयपुर की तीज को गोठडा ले आए थे ।कजली  तीज माता की सवारी गोठडा में निकलने लगी। ठाकुर बलवंत सिंह की मृत्यु के बाद बूंदी के राव राजा रामसिंह उसे बूंदी ले आए और केवल से उनके शासन काल में तीज की सवारी भव्य रूप से निकलने लगी। इस सवारी को भव्यता प्रदान करने के लिए शाही सवारी भी निकलती थी। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया गया था। सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झील के सुंदरघाट से तीजाइड प्रमुख रेस्तरां से होती हुई रानी जी की बावड़ी तक जाती थी। वहाँ पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। नृत्यांगनाएँ अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। करतब दिखाने वाले कलाकारों को सम्मानित किया जाता था और प्रशिक्षण का आत्मीय स्वागत किया जाता था। मान-सम्मान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी। दो दिवसीय तीज सवारी के अवसर पर विभिन्न प्रकार के जन मनोरंजन कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते थे, जिनमें दो मदमस्त हाथियों का युद्ध होता था, जिसे देखने वालों की भीड़ उमड़ती थी। पार्वतीजी स्वरूप कजली तीज माता का आशीर्वाद मिलता रहा।श्रही सवारी भी निकलती थी। इसमें बूंदी रियासत के जागीरदार, ठाकुर व धनाढय लोग अपनी परम्परागत पोशाक पहनकर पूरी शानो-शौकत के साथ भाग लिया करते थे। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया गया था।सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झील के सुंदरघाट से तीजाइड प्रमुख रेस्तरां से होती हुई रानी जी की बावड़ी तक जाती थी। वहाँ पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। नृत्यांगनाएँ अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। करतब दिखाने वाले कलाकारों को सम्मानित किया जाता था और प्रशिक्षण का आत्मीय स्वागत किया जाता था। मान-सम्मान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी। दो दिवसीय तीज सवारी के अवसर पर विभिन्न प्रकार के जन मनोरंजन कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते थे । कजरी तीज व्रत में शाम के समय में चद्रंमा को अर्ध्य देने के बाद ही कुछ खाया पीया जाता हैं। व्रत को सुहागन स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र के लिए एवं कुंवारी कन्याएं सुयोग्य वर पाने के लिए करती हैं। पौराणिक कथा के अनुसार भारत के मध्य भाग में कजली नाम का एक वन का राजा दादुरै  था। राज्य में लोग अपने राज्य के नाम कजली पर गीत गाया करते थे। राज दादुरै की मृत्यु हो गई।जिसके बाद रानी नागमती सती हो गई। राजा और रानी के बाद उनकी प्रजा पूरी तरह से दुख में डूब गई। इसी कारण कजली के गीत पति और पत्नि के जन्म- जन्म के साथ के लिए गाए जाते हैं। लोकप्रिय कथा के अनुसार माता पार्वती भगवान शिव को पति रूप में पाना चाहती थी।लेकिन भगवान शिव ने उनके सामने एक शर्त रखी। जिसके अनुसार माता पार्वती को अपनी भक्ति और प्रेम सिद्ध करना था।जिसके बाद माता पार्वती ने 108 सालों तक भगवान शिव की तपस्या की और भगवान शिव को परीक्षा दी।जिसके बाद भगवान शिव ने माता पार्वती को इसी तीज पर अपनी पत्नी स्वीकार किया था। इसी कारण से इसे कजरी तीज भी कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार बुढ़ी तीज पर सभी देवी- देवता माता पार्वती और भगवान शिव की आराधना करते हैं। कजरी तीज में महिलाएं झूला झूलकर अपनी खुशी व्यक्त करती हैं। कजरी तीज के दिन सभी औरतें एक साथ  होकर नाचती है और कजरी तीज के गीत गाती हैं। वाराणासी और मिर्जापुर में कजरी तीज के गीतों को वर्षागीतों के साथ गाया जाता है।  राजस्थान के बूंदी शहर में तो इसे बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन ऊंट और हाथी की सवारी की जाती है। इसके साथ ही यहां पर लोक गीत कजरी तीज के दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी आयू के लिए व्रत रखती है और अविवाहित लड़कियां इस पर्व पर अच्छा वर पाने के लिए व्रत रखती हैं। इस दिन जौ, चने, चावल और गेंहूं के सत्तू बनाये जाते है और उसमें घी और मेवा मिलाकर कई प्रकार के भोजन बनाते हैं। चंद्रमा की पूजा करने के बाद उपवास तोड़ते हैं। कजरी तीज के दिन गायों की पूजा की जाती है। साथ ही इस दिन घर में झूले लगाते है और महिलाएं इकठ्ठा होकर नाचती है और गाने गाती हैं। कजरी  उत्सव पर नीम की पूजा कर  चाँद को अर्घ्य  देने की परंपरा हैं । भाद्रपद कृष्ण पक्ष तृतीय को कजरी तीज , बड़ी तीज, सातुड़ी तीज , कृष्ण तीज महिलाएं एवं लड़कियों द्वारा मनाई जाती है । माता  पार्वती  की पूजा कर महिलाएं कजरी तीज पर अखंड सौभाग्यवती एवं कुँवारी लड़कियां अच्छे वर के लिये , चतुर्दिक विकास  प्राप्ति के  लिए ब्रत रखती है । 108 जन्म लेने के बाद देवी पार्वती भगवान शिव से शादी करने में सफल हुई। कजरी तीज निस्वार्थ प्रेम के सम्मान के रूप में मनाया जाता है ।पौराणिकता के अनुसार, कजली घने जंगल क्षेत्र का राजा दादूरई द्वारा शासित था। कजली के लोग  कजली  गाने गाते थे ।कजली का  राजा दादूरई का निधन होने के बाद उनकी पत्नी रानी नागमती ने खुद को सती  में अर्पित कर दिया। नागमती द्वारा अपने पति कजली का राजा दादुरई के सती होने के स्थान कजली स्थान पर लोगों ने रानी नागमती को सम्मानित करने के लिए राग कजरी मनाना प्रारम्भ कर दिया था ।माता पार्वती भगवान् शिव की उपासना की थी। भगवान शिव ने पार्वती की भक्ति साबित करने के लिए कहा। पार्वती ने शिव द्वारा स्वीकार करने से पहले, 108 साल एक तपस्या करके माता पार्वती द्वारा भक्ति साबित की गयी थी ।भगवन शिव और पार्वती का दिव्य ज्ञान भाद्रपद कृष्ण तृतीया पक्ष को  हुआ था।  बूंदी रियासत में गोठडा के राजा ठाकुर बलवंत सिंह के भरोसे वाले  जांबाज सैनिक भावना से ओतप्रोत थे। राजा ठाकुर बलवंत सिंह द्वारा जयपुर के चहल-पहल वाले मैदान से तीज की सवारी, शाही तौर-तरीकों से निकल रही थी। ठाकुर बलवंत सिंह हाडा अपने जांबाज साथियों के पराक्रम से जयपुर की तीज को गोठडा ले आए थे ।कजली  तीज माता की सवारी गोठडा में निकलने लगी। ठाकुर बलवंत सिंह की मृत्यु के बाद बूंदी के राव राजा रामसिंह उसे बूंदी ले आए और केवल से उनके शासन काल में तीज की सवारी भव्य रूप से निकलने लगी। इस सवारी को भव्यता प्रदान करने के लिए शाही सवारी भी निकलती थी। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया गया था। सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झील के सुंदरघाट से तीजाइड प्रमुख रेस्तरां से होती हुई रानी जी की बावड़ी तक जाती थी। वहाँ पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। नृत्यांगनाएँ अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। करतब दिखाने वाले कलाकारों को सम्मानित किया जाता था और प्रशिक्षण का आत्मीय स्वागत किया जाता था। मान-सम्मान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी।  बूंदी रियासत के जागीरदार, ठाकुर व धनाढय लोग अपनी परम्परागत पोशाक पहनकर पूरी शानो-शौकत के साथ भाग लिया करते थे। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया गया था।सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झील के सुंदरघाट से तीजाइड प्रमुख रेस्तरां से होती हुई रानी जी की बावड़ी तक जाती थी। नृत्यांगनाएँ अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। मान-सम्मान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी।  कजरी तीज व्रत में शाम के समय में चद्रंमा को अर्ध्य देने के बाद अन्न ग्रहण किया जाता हैं। व्रत को सुहागन स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र के हेतु एवं कुंवारी कन्याएं सुयोग्य वर पाने के लिए करती है ।शास्त्रों के अनुसार बुढ़ी तीज पर  देवी- देवता माता पार्वती और भगवान शिव की आराधना करते हैं। कजरी तीज में महिलाएं झूला झूलकर खुशी व्यक्त करती हैं। कजरी तीज के दिन औरतें एक साथ  होकर नाचती है और कजरी तीज के गीत गाती हैं। कजली गानों को विशेष महत्व दिया जाता है। कजली गीत के गाने ढोलक और मंजीरे के साथ गाए जाते हैं।  कजरी तीज के दिन गाय की विशेष पूजा और  आंटे की 7 रोटियां बनाकर गाय को गुड़ और चने के साथ खिलाई जाती है । राजस्थान , झारखंड ,छत्तीसगढ़ , उतरप्रदेश,बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड ,आदि राज्यों में मनाया जाता है। बिहार और उत्तर प्रदेश में कजरी गीत को नाव पर एवं वाराणासी और मिर्जापुर में कजरी तीज के गीतों को वर्षागीतों के साथ गाया जाता है।  राजस्थान में कजरी त्यौहार को  बूंदी शहर में  ऊंट और हाथी की सवारी एवं  लोक गीत और नृत्य  किया जाता है ।




शनिवार, अगस्त 21, 2021

संस्कृत : संस्कृति का द्योतक...


      विश्व वाङ्गमय और भारतीय मानवीयता की आईना संस्कृत में मिलती है । संस्कृति चेतना एवं भाषा विकास का मूल संस्कृत है ।श्रावण शुक्ल  पूर्णिमा को विश्व संस्कृत दिवस मनाया जाता है । संस्कृत की प्राचीन भाषा और सांस्कृतिक चेतना की भाषा है । भारत सरकार ने वर्ष 1969 में श्रवण शुक्ल पूर्णिमा व  रक्षा बंधन के अवसर पर विश्व संस्कृत दिवस मनाने का फैसला किया था ।  विश्व की  पुरानी भाषाओं में संस्कृत भाषा  हिंदी, गुजराती और बंगाली सहित संस्कृत में मिलती हैं। इंडो-आर्य भाषा संस्कृत की  उत्पत्ति 3500 ई.पू.  भारत में  हुई थी।संस्कृत  लिखित रूप में संस्कृत भाषा की उत्पत्ति 2 वीं सहस्त्राब्दी ई. पू . ऋग्वेद, भजनों का संग्रह लिखा गया था। भारत में प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा के पावन अवसर को संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है।  रक्षा बन्धन ऋषियों के स्मरण तथा पूजा और समर्पण का पर्व माना जाता है। वैदिक साहित्य में श्रावणी कहा जाता था।  गुरुकुलों में वेदाध्ययन कराने से पहले यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है। इस संस्कार को उपनयन अथवा उपाकर्म संस्कार कहते हैं । ऋषि ही संस्कृत साहित्य के आदि स्रोत हैं, इसलिए श्रावणी पूर्णिमा को ऋषि पर्व और संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है। राज्य तथा जिला स्तरों पर संस्कृत दिवस आयोजित किए जाते हैं।  1969 ई.  में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के आदेश से केन्द्रीय तथा राज्य स्तर पर संस्कृत दिवस मनाने का निर्देश जारी किया गया था।  भारत में संस्कृत दिवस श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। प्राचीन भारत में शिक्षण सत्र शुरू ,  वेद पाठ का आरंभ और  छात्र शास्त्रों के अध्ययन का प्रारंभ किया करते थे।  गुरुकुलों में श्रावण पूर्णिमा से वेदाध्ययन प्रारम्भ किया जाता है । संस्कृत दिवस के रूप से मनाया जाता है। आजकल देश में ही नहीं, विदेश में भी संस्कृत उत्सव बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। इसमें केन्द्र तथा राज्य सरकारों का भी योगदान उल्लेखनीय है। जिस सप्ताह संस्कृत दिवस आता है, वह सप्ताह कुछ वर्षों से संस्कृत सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। सीबीएसई विद्यालयों और देश के समस्त विद्यालयों में इसे धूमधाम से मनाया जाता है। उत्तराखण्ड में संस्कृत आधिकारिक भाषा घोषित होने से संस्कृत सप्ताह में प्रतिदिन संस्कृत भाषा में अलग अलग कार्यक्रम व प्रतियोगिताएं होती हैं। संस्कृत के छात्र-छात्राओं द्वारा ग्रामों अथवा शहरों में झांकियाँ निकाली जाती हैं। संस्कृत दिवस एवं संस्कृत सप्ताह मनाने का मूल उद्देश्य संस्कृत भाषा का प्रचार प्रसार करना है। संस्कृत दिवस प्रत्येक  वर्ष श्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस वर्ष संस्कृत दिवस 2021 में 22 अगस्त को मनाया जाएगा। संस्कृत दिवस और रक्षा बंधन का त्योहार एक साथ मनाया जाता है। भारत में संस्कृत भाषा की उत्पत्ति लगभग 4 हजार साल पहले हुई। सनातन  संस्कृति में संस्कृत के मंत्रों को उपयोग सैकड़ों वर्षों से किया जा रहा है। संस्कृत का अर्थ दो शब्दों से मिलकर बना है, 'सम' का अर्थ है 'संपूर्ण' और 'कृत' का अर्थ है 'किया हुआ' को  शब्द मिलकर संस्कृत शब्द की उतपत्ति करते हैं। भारत में वेदों की रचना 1000 से 500 ईसा पूर्व की अवधि में हुई। वैदिक संस्कृति में ऋग्वेद, पुराणों और उपनिषदों का बहुत महत्व है। वेद अलग-अलग चार खंडों में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद शामिल है । पुराण, महापुराण और उपनिषद है। संस्कृत बहुत प्राचीन और व्यापक है । विश्व संस्कृत दिवस व  संस्कृत दिवस को विश्व संस्कृत दिनम से जाना जाता है । संस्कृत भाषा को देव वाणी  कहा जाता है। संस्कृत भाषा का पता दूसरी सहस्राब्दी ई.  पू. से है । संस्कृत भाषा को उत्तराखंड की दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में घोषित किया गया था। संस्कृत भाषा में 102 अरब 78 करोड़ 50 लाख शब्दों की सबसे बड़ी शब्दावली है। विश्व संस्कृत दिवस या संस्कृत दिवस पहली बार 1969 में मनाया गया था। यह प्राचीन भारतीय भाषा को जागरूकता फैलाने, बढ़ावा देने और पुनर्जीवित करने के लिए मनाया जाता है। यह भारत की समृद्ध संस्कृति को दर्शाता है। जैसा कि हम जानते हैं कि हिंदू संस्कृति में पूजा और मंत्रों का उच्चारण संस्कृत में किया जाता है। संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी है और भारत में बोली जाने वाली प्राचीन भाषाओं में पहली है। संस्कृत सबसे अधिक कंप्यूटर के अनुकूल भाषा है।संस्कृत दिवस में कई कार्यक्रम और पूरे दिन के सेमिनार शामिल होते हैं जो संस्कृत भाषा के महत्व, इसके प्रभाव और इस खूबसूरत भाषा संस्कृत को बढ़ावा देने के बारे में बात करते हैं। संस्कृत दिवसपर सेमिनार सहित कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। संस्कृत  भारत की समृद्ध संस्कृति का प्रतीक है।  भारत की लोक कथाएं, कहानियां संस्कृत भाषा में हैं। संस्कृत भाषा के बारे में मुख्य तथ्यइस भाषा की एक संगठित व्याकरणिक संरचना है। यहां तक ​​कि स्वर और व्यंजन भी वैज्ञानिक पैटर्न में व्यवस्थित होते हैं ।कर्नाटक का शिमोगा जिले के मत्तूर के निवासी  संस्कृत में बात करते है।संस्कृत को उत्तराखंड की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया है।शास्त्रीय संगीत  कर्नाटक और हिंदुस्तानी में   संस्कृत का प्रयोग किया जाता है।संस्कृतका  उपयोग बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सिख धर्म के साथ-साथ हिंदू धर्म के दार्शनिक प्रवचनों के लिए किया जाता था। संस्कृत भाषा का प्रयोग सुसंस्कृत, परिष्कृत और समझदार लोगों द्वारा किया जाता था। शोधकर्ताओं ने संस्कृत को दो खंडों में वैदिक संस्कृत और शास्त्रीय संस्कृत वर्गीकृत किया है ।। संस्कृत में  पारंगत संस्कृति तथा मानवीय जीवन की वास्तविक रूप  और समन्वय का द्योतक है ।

सोमवार, अगस्त 16, 2021

रक्षा सूत्र : मानवीय जीवन की सुरक्षा ....

         
        धर्म संस्कृति के अनुसार रक्षाबन्धन का त्योहार श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह त्योहार भाई-बहन को स्नेह की डोर में बांधता है। इस दिन बहन अपने भाई के मस्तक पर टीका लगाकर रक्षा का बन्धन बांधती है, जिसे राखी कहते हैं। एक हिन्दू व जैन त्योहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है ।श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। रक्षाबन्धन में राखी , रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। रक्षाबंधन भाई बहन के रिश्ते का प्रसिद्ध त्योहार है, रक्षा का मतलब सुरक्षा और बंधन का मतलब बाध्य है। रक्षाबंधन के दिन बहने भगवान से अपने भाईयों की तरक्की के लिए भगवान से प्रार्थना करती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों को बाँधी जाती है । रक्षाबंधन के दिन भाई अपने बहन को राखी के बदले कुछ उपहार देते है। रक्षाबंधन एक ऐसा त्योहार है जो भाई बहन के प्यार को और मजबूत बनाता है, इस त्योहार के दिन सभी परिवार एक हो जाते है और राखी, उपहार और मिठाई देकर अपना प्यार साझा करते है। रक्षाबंधन को  रक्षाबन्धन , राखी, सलूनो, श्रावणी , चूड़ा राखी  का उद्देश्य भ्रातृभावना और सहयोग उत्सव राखी बाँधना, उपहार, भोज अनुष्ठान पूजा, प्रसाद आरम्भ पौराणिक काल से श्रावण पूर्णिमा मानते है ।धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बाँधते समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए रक्षा किया था । गणपति जी को उनकी बहन ने पूर्णिमा को राखी बांधकर मनोकामना पूर्ण की थी । संस्कृत भाषा में वेदों की रचना प्रारम्भ हुई थी । येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥ अर्थात  "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)" नेपाल  में ब्राह्मण एवं क्षेत्रीय समुदाय में रक्षा बन्धन गुरू और भागिनेय के हाथ से बाँधा जाता है। नेपाल के  दक्षिण सीमा में रहने वाले भारतीय मूल के नेपाली भारतीयों की तरह बहन से राखी बँधवाते हैं।भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिये भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबन्धन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर 1905 ई. में मातृभूमि वंदना कविता लिख कर  त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया। सन् 1905 में लॉर्ड कर्ज़न ने बंग भंग करके वन्दे मातरम् के आन्दोलन से भड़की एक छोटी सी चिंगारी को शोलों में बदल दिया। 16 अक्टूबर 1905 को बंग भंग की नियत घोषणा के दिन रक्षा बन्धन की योजना साकार हुई थी । उत्तरांचल में श्रावणी को यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं। अमरनाथ की  यात्रा गुरु पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर रक्षाबन्धन के दिन सम्पूर्ण होती है।  हिमानी शिवलिंग  अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होता है। महाराष्ट्र राज्य में  नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है।
मौली , रक्षा बंधन , रखी , रक्षा सूत्र , मणिबंध  वैदिक परंपरा है। यज्ञ या किसी भी त्योहार में रक्षा सूत्र  बांधने की परंपरा  संकल्प सूत्र व  रक्षा-सूत्र के रूप में  बांधा जाने लगा, जबसे असुरों के दानवीर  राजा बलि की अमरता के लिए भगवान वामन ने उनकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधा था। माता  लक्ष्मी ने राजा बलि के हाथों में अपने पति की रक्षा के लिए रक्षा  बंधन बांधा था।शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा विराजमान है ।कच्चे धागे (सूत) से रक्षा सूत्र 5  रंग के धागे में लाल, पीला और हरा, नीला और सफेद सूत   पंचदेव देव का प्रतीक है । रक्षा सूत्र  को हाथ की कलाई, गले और कमर में बांधा जाता है। इसके अलावा मन्नत के लिए किसी देवी-देवता के स्थान पर  बांधा जाता है और जब मन्नत पूरी होने पर रक्षा सूत्र को  खोल दिया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पुरुषों एवं अविवाहित कन्याओं को दाएं हाथ में कलावा बांधना चाहिए। विवाहित स्त्रियों के लिए बाएं हाथ में कलावा बांधने का नियम है। कलावा बंधवाते समय जिस हाथ में कलावा बंधवा रहे हों, उसकी मुट्ठी बंधी होनी चाहिए और दूसरा हाथ सिर पर होना चाहिए। पर्व-त्योहार के अलावा किसी अन्य दिन कलावा बांधने के लिए मंगलवार और शनिवार का दिन शुभ माना जाता है। हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है। उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल के वृक्ष के पास रख दें या किसी बहते हुए जल में बहा दें। प्रतिवर्ष की संक्रांति के दिन, यज्ञ की शुरुआत में, कोई इच्छित कार्य के प्रारंभ में, मांगलिक कार्य, विवाह आदि हिन्दू संस्कारों के दौरान रक्षा सूत्र बांधी जाती है। रक्षा सूत्र  को  अच्छे कार्य की शुरुआत में संकल्प के लिए बांधते हैं।  देवी या देवता के मंदिर में मन्नत के लिए बांधते हैं। रक्षा सूत्र  बांधने से आध्यात्मिक,  चिकित्सीय और  मनोवैज्ञानिक ,  शुभ कार्य की शुरुआत करते समय , नई वस्तु खरीदने पर  हमारे जीवन में शुभ लाभ मिलता है । हिन्दू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानी पूजा-पाठ, उद्घाटन, यज्ञ, हवन, संस्कार आदि के पूर्व पुरोहितों द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली बांधी जाती है। इसके अलावा पालतू पशुओं में हमारे गाय, बैल और भैंस को  पड़वा, गोवर्धन और होली के दिन रक्षा सूत्र  बांधी जाती है।भाग्य व जीवनरेखा का उद्गम स्थल भी मणिबंध  है। इन तीनों रेखाओं में दैहिक, दैविक व भौतिक  त्रिविध तापों को देने व मुक्त करने की शक्ति रहती है।  मणिबंधों के नाम शिव, विष्णु व ब्रह्मा हैं। इसी तरह शक्ति, लक्ष्मी व सरस्वती का  साक्षात वास रहता है। रक्षा-सूत्र धारण करने वाले प्राणी की सब प्रकार से रक्षा होती है। इस रक्षा-सूत्र को संकल्पपूर्वक बांधने से व्यक्ति पर मारण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन, भूत-प्रेत और जादू-टोने का असर नहीं होता। शास्त्रों के अनुसार रक्षा सूत्र व  मौली बांधने से  भगवान  ब्रह्मा, विष्णु ,  महेश ,  लक्ष्मी, पार्वती एवं  सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। भगवान  ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु की कृपा से रक्षा तथा शिव की कृपा से दुर्गुणों का नाश ,  लक्ष्मी से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त और रक्षा निहित होता है। रक्षा सूत्र से  सूक्ष्म शरीर स्थिर  और बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों के  कमर व पैर में कला सूत्र मौली बांधी जाती है। काला धागा से  पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते है ।प्राचीन काल में  कलाई, पैर, कमर और गले में  सूत बांधे जाने की परंपरा थी । शरीर विज्ञान के अनुसार कला सूत से  वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहता है। पुराने वैद्य और घर-परिवार के बुजुर्ग लोग हाथ, कमर, गले व पैर के अंगूठे में मौली का उपयोग कर शरीर के लिए लाभ करते थे । ब्लड प्रेशर, हार्टअटैक, डायबिटीज और लकवा  रोगों से बचाव के लिए कला सूत्र  बांधना हितकर  है। शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में  मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। उसकी ऊर्जा का ज्यादा क्षय नहीं होता है। आयुर्वेद चिकित्सा  विज्ञान के अनुसार शरीर के कई प्रमुख अंगों तक पहुंचने वाली नसें कलाई से होकर गुजरती हैं। कलाई पर कलावा बांधने से  नसों की क्रिया नियंत्रित रहती है। कमर पर बांधी  मौली से  सूक्ष्म शरीर में  बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों को अक्सर कमर में कला सूत बांधी जाती है। ,मौली बांधने से उसके पवित्र और मन में शांति और पवित्रता बनी रहती है। व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में बुरे विचार नहीं आते और  गलत रास्तों पर नहीं भटकता है। रक्षा सूत्र बांधने से मानसिक , शारिरिक शांति , सकारात्मक ऊर्जा का संचार और नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है ।
 श्रावण  की पूर्णिमा को ब्राह्मण अपने यजमानों के दाहिने हाथ पर एक सूत्र बांधने की परंपरा को रक्षासूत्र कहा जाता था।  भगवान विष्णु के वामनावतार ने  राजा बलि के रक्षासूत्र बांधा था और उसके बाद  उन्हें पाताल जाने का आदेश दिया था। कृष्ण व युधिष्ठिर के संवाद के रूप में भविष्य पुराण के अनुसार  राक्षसों से इंद्रलोक को बचाने के लिए गुरु बृहस्पति ने इंद्राणी को एक उपाय बतलाया था जिसमें श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को इंद्राणी ने इंद्र के तिलक लगाकर उसके रक्षासूत्र बांधा था जिससे इंद्र विजयी हुए थे । द्रोपदी द्वारा श्री कृष्ण को रक्षाबंधन कर अपनी सुरक्षा प्राप्त की थी । महारानी कर्णावती द्वारा मुगल बादशाह हुमायु को रक्षा सूत्र रखी भेज कर सुरक्षित हुई थी । रक्षा बंधन के दिन वेदों पुरणों , स्मृतियों , संहिताओं का संस्कृत में ल्क्षोंइखी गयी थी ।
रक्षाबंधन को संस्कृत दिवस कहा गया है । पर्यावरण रक्षा के लिए वृक्षों को रक्षासूत्र तथा परिवार की रक्षा के लिए माँ को रक्षासूत्र बाँधने के दृष्टांत  हैं। जनेन विधिना यस्तु रक्षाबंधनमाचरेत। स सर्वदोष रहित, सुखी संवतसरे भवेत्।।
                   





शुक्रवार, अगस्त 13, 2021

मैना मठ : तंत्र साधना स्थल...


        तंत्र शास्त्र के अनुसार तंत्र और मंत्र मानसिक शांति का द्योतक है । बिहार का जहानाबाद जिले के मोदनगंज प्रखंडान्तर्गत फल्गु नदी के किनारे स्थित  मैना मठ और चरुई की काली मंदिर की  माता  कंकाली  विख्यात  है । मैना मठ की मां कंकाली की प्रतिमा मठ में तांत्रिक साधुओं द्वारा स्थापित की गई थी। 400 वर्षों से मैना मठ की भूमि तंत्र मंत्र साधना स्थल और श्मशान भूमि थी । 17वीं शताब्दी में मंदिर में प्रतिमा प्रतिष्ठापित हुई । ग्रामीणों के सहयोग से चरुई में काली मंदिर का निर्माण कर कंकाली  प्रतिमा तथा अन्य मूर्तियां स्थापित की है । 13वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी तक मैना मठ में माता कंकाली की पूजा तांत्रिक साधक द्वारा किये जाते  थे। 17वी शताब्दी में मठ से प्रतिमा मंदिर में स्थापित कर दी गई तथा  मठ में अस्त्र-शस्त्र रखा जाता था । कंकाली तांत्रिक साधक निहंग सम्प्रदाय के अनुयायी थे । तंत्र-मंत्र की सिद्धि के लिए  कंकाल, खोपड़ी, ढेर सारी जलती हुई अगरबत्तियां से उपासना करते थे । तंत्र विद्या ईश्‍वरीय शक्ति और मनुष्‍य की आत्‍मा के बीच संपर्क जोड़ने का साधन है । तंत्र अहंकार को पूरी तरह समाप्त करने की बात करता है, जिससे द्वैत का भाव पूर्णतया विलुप्त हो जाता है। तंत्र पूर्ण रूपांतरण की बात करता है। ऐसा रूपांतरण जिससे जीव और ईश्वर एक हो जाएँ। ऐसा करने के लिए तंत्र के विशेष सिद्दांत तथा पद्धतियां हैं, जो की जानने और समझने में जटिल मालूम होती हैं। तंत्र का जुडाव प्रायः मंत्र, योग तथा साधना के साथ देखने को मिलता है। तंत्र, गोपनीय है, इसलिए गोपनीयता बनाये रखने के लिए प्रायः तंत्र ग्रंथों में प्रतीकात्मकता का प्रयोग किया गया है। कुछ पश्च्यात देशों में तंत्र को शारीरिक आनंद के साथ जोड़ा जा रहा है, जो की सही नहीं है। यदपि तंत्र में काम शक्ति का रूपांतरण, दिव्य अवस्था प्राप्ति की लिए किया जाता है अपितु बिना योग्य गुरु के भयंकर भूल होने की पूर्ण संभावना रहती है। इतिहास तंत्र का भारत में तंत्र का इतिहास सदियों पुराना है। ऐसा मन जाता है सर्वप्रथम भगवन शिव ने देवी पारवती को विभिन अवसरों पर तंत्र का ज्ञान दिया है। योग में तंत्र का विशेष महत्व है। योग तथा तंत्र दोनों, अध्यात्मिक चक्रों की शक्ति को विकसित करने की विभिन्न पद्धतियों के बारे में बताते हैं। हठयोग और ध्यान उनमें से एक है। विज्ञानं भैरब तंत्र जो की 112 ध्यान की वैज्ञानिक पद्धति है भगवान शिव ने देवी पारवती को बताई है। जिसमें सामान्‍य जीवन की विभिन अवस्थाओं में ध्यान करने की विशेष पद्धति वर्णित है। तंत्र मंत्र का लिखित प्रमाण लगभाग मध्य कालीन इतिहास से मिलना शुरू हो जाता है। इसीलिए लगभग सभी धर्मों में जीवन की समस्याओं का हल तंत्र मंत्र के माध्यम से बताया गया है। अति गोपनीय तांत्रिक पद्धति में योनी तंत्र का विशेष महत्व है। इस ग्रन्थ में, दस महाविद्या (देवी के दस तांत्रिक विधिओं से उपासना) वर्णित है । तंत्र मंत्र की सभी तांत्रिक कियाएं जिनमें - सम्मोहन, वशीकरण, उचाटन मुख्य हैं, मंत्र महार्णव तथा मंत्र महोदधि नामक ग्रंथों में वर्णित हैं। तंत्र अहंकार को समाप्त कर द्वैत के भाव को समाप्त करता है, जिससे मनुष्य, सरल हो जाता है और चेतना के स्तर पर विकसित होता है। सरल होने पर इश्वर के संबंध सहजता से बन जाता है। 
जहानाबाद जिले का मोदनगंज प्रखण्ड के चरुई पंचायत में मैना मठ तंत्र विद्या का केंद्र था । बिहार गजेटियर  मैंना मठ  डायरी के लेखक सुबोध कुमार सिंह के अनुसार मैनामठ को राजस्व अभिलेख के आधार पर महम्मदपुर अब्दाल है । मठ के अधीन 10 एकड़ में तलाव के दक्षिण श्मशान था । बौद्ध मठ को मैना विकुक्षणि के नाम से समर्पित है ।मैना मठ फल्गु नदी के किनारे  पश्चिम में नालंदा जिले के एकंगरसराय , पूरब में जहानाबाद जिले के कको , दक्षिण में घोसी सीमा से घीरा है । मठ के मंदिरों में 1.4 कि. मि. पर अनंतपुर पेवता में हनुमान मंदिर , 1. 6 कि. मि. पर चरुई में काली मंदिर ,शिव मंदिर  है । विट्ज मैनकार्ट की पुस्तक  आई कॉन ऑफ क्राइस्ट एंड एंड अब्बोट मेना 1979 के अनुसार। 3 री से 7 वी शताब्दी में नाना साहब की पुत्री मैना राजा की पुत्री हे कि सहेली थी ।। मैना तंत्र और दिव्य ज्ञान रख कर भलाई करती थी ।परंतु राजा के सेनापति ने मैना को हत्या करा दी । 8 वी . शताब्दी में आइकन , 4 थी शताब्दी में संत मेनस  मैना के चरित्र पर प्रभावित थे । हरि गुप्त 240 - 280 ई. में मैना मठ खिल्य भूमि थी ।वैन्य गुप्त 495 - 507 ई. विजयालय 850 - 887 ई . में चोल वंश के स्थापना के बाद मैना मठ देव भूमि ,पडप्पर भूमि  थी । उत्तर वैदिक काल में भूत यज्ञ भूमि थी । अथर्ववेद में जादू टोना , शाप, वशीकरण ,औषधि , ब्रह्म ज्ञान , रोग निवारण , सैंधव सभ्यता में तंत्र मंत्र , जादू टोना सिद्धि का केंद्र था । द्वापर युग में तंत्र मंत्र के ज्ञाता और राक्षस संस्कृति के अनुयायी जरा का स्थल था । जरा द्वारा जरासन्ध की पुनर्जीवन दी गयी थी । 2500 ई. पू. से 887 ई. तक तंत्र मंत्र का केंद्र मैना मठ विकसित था । राजा चंद्रसेन द्वारा तंत्र मंत्र का साधना स्थल का विकास किया था । चेर वंश के चारु द्वारा विकास किया गया । 19 25 ई. में तालाब उत्खनन के दौरान माता कंकाली , शिव लिंग , गणेश जी मूर्ति , भगवान  विष्णु  आदित्य तथा कई मूर्तियां प्राप्त हुई थी । ग्रामीणों के सहयोग से चरुई में काली मंदिर का निर्माण कर उत्खनन से प्राप्त विभूक्षणि एवं मूर्तियों की प्रतिष्ठापित हुआ है ।