भारतीय और मागधीय संस्कृति का उल्लेख वेदों , पुरणों , समृतियो में किया गया है । 1841 - 42 में हिमिल्टन बुकानन ने वेस्टर्न गजेटियर , ग्रियर्सन द्वारा गया टुडे में , बिहार गजेटियर गया में मदसर्वां और देवकुंड का उल्लेख किया है । पुरणों और संबत्सर संहिता के अनुसार सातवें मन्वन्तर काल में वैवस्वत मनु के पुत्र शर्याति द्वारा आनर्त देश की स्थापना कर वैदिक हिरण्यबाहु नदी और मधुश्रवा नदी का संगम पर मधुश्रवा मरण आनर्त देश की राजधानी बनाई गई थी । हिरण्य वैन में ऋषि भृगु की पत्नी पुलोमा के गर्भ से च्यवन ने तपोस्थल बनाया था ।मधुश्रवा , मदसर्वां मनसरवा,मधुस्त्रवा ,मधुकुल्या ,धृतकुल्या ,देविका और महादेवी कहा गया है । नारद पुराण 2 /47 के अनुसार मदश्रवा में स्नान , तर्पण ,सपिण्ड दान तथा श्राद्ध करने पर मनोवांक्षित फल की प्राप्ति होती है ।अग्निपुराण में मधुस्त्रवा को अग्निधारा वायुपुराण , गरुड़ पुराण , ब्रह्मपुराण , स्मृतियों , संहिताओं इन मधुश्रवा तीर्थ कहा गया है । गया श्राद्ध के प्रमुख 365 पिंड वेदियों में मदसर्वां पिंडवेदी है । बिहार राज्य का अरवल जिलान्तर्गत कलेर प्रखंड के पटना औरंगाबाद पथ महेंदिया के समीप मदसर्वां तीर्थ और आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित मदसर्वां मठ है । पुरणों और संबत्सर संहिता के अनुसार 14 मनुमय सृष्टि के 1955885122 कल्पारम्भ तथा 7वें मन्वन्तर के प्रणेता वैवस्वतमनु ने सौर वर्ष 3893122 वर्ष पूर्व और 16वें द्वापर युग में गोकर्ण व्यास ने गोकर्ण वन के ऋषि च्यवन द्वारा मदसर्वां में स्थापित च्यावनेश्वर चौकोर शिवलिंग सर्वार्थ सिद्धि कहा है । राजा शर्याति , अश्विनीकुमार , ऋषि च्यवन और सुकन्या की चर्चा ऋग्वेद प्रथम , द्वितीय मंडल में चर्चा किया गया है ।च्यवन ऋषि की प्रथम पत्नी आरुषी से और्व ऋषि तथा दूसरी पत्नी राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से प्रमति थे । प्रमति का पौत्र और रु रु का पुत्र शुनक हुए थे । महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 156 में च्यवन ऋषि की गाथा है । महाभारत , लिंगपुराण ,शिवपुराण विधेश्वर संहिता और सहस्त्र संहिता के अनुसार च्यवन ऋषि को च्यावन ,सिवाना , कहा गया है । शोण नद की 10 धाराएं वृहस्पति के मकर राशि मे आने पर पवित्र होता है । मदसर्वां में रात्रि विश्राम और वधूसरोवर में स्नान तथा च्यावनेश्वर की पुपसन करने से सर्वार्थ सिद्धि और वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है । राजा शर्याति के परामर्श से ऋषि च्यावन द्वारा मदसर्वां में परुषोत्तम मास अधिकमास में वाजपेय यज्ञ और रुद्रेष्टि यज्ञ कराया गया था ।इस यज्ञ में च्यावन ऋषि ने भगवान शिव की चकोर शिव लिंग की स्थापना की थी । यज्ञ के समीप सुकन्या ने तलाव का निर्माण कराई थी ।तलाव वधूसरोवर के नाम से ख्याति है । अधिक मास में आयोजित बाजपेयी यज्ञ में 32 कोटि के देवता में 12 सूर्य , 11 रुद्र , 9 वसु एवं भगवान ब्रह्मा , विष्णु और शिव , ऋषि गण शामिल थे । भगवान सूर्य के पुत्र देव वैद्य अश्विनी कुमार यज्ञ में शामिल हो कर सोम पान में शामिल हुए थे । देव राज इंद्र ने अश्विनी कुमारों को सोमपान करने के कारण अपना बज्र अश्विनी कुमारों पर चलाने पर ऋषि च्यावन द्वारा मद दैत्य को उत्पन्न कर इंद्र सहित बज्र को स्तंभन कर दिया गया । फलत: इंद्र लज्जित हुए । देव वैद्य अश्विनी कुमारों के साथ सोमपान और जन कल्याण के लिए दयावान ऋषि द्वारा यज्ञ कराया गया था । च्यावन ऋषि द्वारा देवराज इंद्र के अस्त्र और शस्त्र के साथ उनके कार्यों के विरुद्ध अग्नि प्रज्वलित कर मद की उत्पत्ति की । मद द्वारा इंद्र को स्तंभन का दिया था । ऋषियों और देवों द्वारा ऋषि च्यवन से प्रार्थना किया कि इंद्र को मद से छुटकारा दे । ऋषियों के अनुरोध पर इंद्र को मद से छुटकारा मिला एवं ऋषि च्यवन द्वारा मद को जुआ , सोने, चांदी , शिकार , मदिरा और स्त्रियों में रहने के लिए स्थान दिया गया । देव राज इंद्र ने मद के उत्पन्न स्थल को मदसर्वा घोषित की तथा भगवान च्यावनेश्वर शिव लिंग की उपासना , वधु सरोवर की महत्ता बताया था । च्यवन ऋषि की पत्नी सुकन्या ने कार्तिक शुक्ल पक्ष और चैत्र शुक्ल पक्ष पंचमी से सप्तमी तक भगवान सूर्य की उपासना और अर्घ्य देकर मनोकामनाए प्राप्ति की है । ब्रह्म पुराण में देव ह्रद , कन्याश्रमहृद , पंचतीर्थ ,मधुवट पुलोमा तीर्थ और देवकुंड तीर्थ का उल्लेख है । अथर्ववेद में औषधि युक्त देव हृद और कन्या हृद था ।सैंधव सभ्यता , मागधीय सभ्यता , मौर्य काल , शुंग काल , गुप्त काल , पाल काल , सेन काल के समय मदसर्वां स्थल की प्रमुख प्रधानता थी । त्रेता युग में भगवान राम ने मधुस्त्रवा का च्यावनेश्वर और देवकुंड का दुग्धेश्वर नाथ की उपासना की साथ ही सोनप्रदेश का राजा शत्रुघ्न को राज्यभिषेक किया था । सोन प्रदेश का राजा मधु के पुत्र लवणासुर के अत्याचार को संपाप्त कर शत्रुघ्न मधुसर्वां का राजा बने थे । च्यवन ऋषि की चर्चा वाल्मीकि रामायण में महत्वपूर्ण है ।
भृगु मुनि की पत्नी पुलोमा के च्यवन पुत्र थे। तपस्या करने के कारण च्यवन ऋषि का शरीर पर दीमक-मिट्टी चढ़ गई और लता-पत्तों से ढँका था । आनर्त देश का राजा और वैवस्वतमनु के पुत्र शर्याति अपनी रानियों और रूपवती पुत्री सुकन्या एवं सैनिकों के साथ हिरण्यबाहु नदी के समीप हिरण्य वैन में आये। सुकन्या अपनी सहेलियों के साथ घूमते हुये दीमक-मिट्टी एवं लता-पत्तों से ढँके हुये तप करते च्यवन के पास पहुँच गई। उसने देखा कि दीमक-मिट्टी के टीले में दो गोल-गोल छिद्र दिखाई पड़ रहे हैं । आनर्त देश का राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या ने कौतूहलवश छिद्रों में काँटे गड़ा दिये। काँटों के गड़ते ही छिद्रों से रुधिर बहने लगा। जिसे देखकर सुकन्या भयभीत होकर चुपचाप वहाँ से चली गई। आँखों में काँटे गड़ जाने के कारण च्यवन ऋषि अन्धे हो गये। अपने अन्धे हो जाने पर च्यवन ऋषि द्वारा शर्याति की सेना का मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे दिया। राजा शर्याति ने घटना से अत्यन्त क्षुब्ध होकर पूछने पर सुकन्या ने सारी बातें अपने पिता को बता दी। राजा शर्याति ने च्यवन ऋषि के पास पहुँच कर क्षमायाचना करने के बाद ऋषि च्यवन की सेवा के लिये सुकन्या को सौप दी । सुकन्या द्वारा अन्धे च्यवन ऋषि की सेवा करते हुये अनेक वर्ष व्यतीत करने के बाद च्यवन ऋषि के आश्रम में भगवान सूर्य की भर्या संज्ञा के पुत्र देव वैद्य अश्वनीकुमार आ पहुँचे। सुकन्या ने उनका यथोचित आदर-सत्कार एवं पूजन किया। अश्वनीकुमार बोले, "कल्याणी! हम देवताओं के वैद्य हैं। तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर हम तुम्हारे पति की आँखों में पुनः दीप्ति प्रदान कर उन्हें यौवन भी प्रदान कर रहे हैं। तुम अपने पति को हमारे साथ सरोवर तक जाने के लिये कहो।" च्यवन ऋषि को साथ लेकर दोनों अश्वनीकुमारों ने सरोवर में डुबकी लगाई। डुबकी लगाकर निकलते ही च्यवन ऋषि की आँखें ठीक हो गईं और युवक बन गये। देव वैद्य अश्विनी कुमार ने सुकन्या से कहा कि देवि! तुम हममें से अपने पति को पहचान कर उसे अपने आश्रम ले जाओ। इस पर सुकन्या ने अपनी तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अपने पति को पहचान कर उनका हाथ पकड़ लिया। सुकन्या की तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अश्वनीकुमार अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन दोनों को आशीर्वाद देकर चले गये। राजा शर्याति को च्यवन ऋषि की आँखें ठीक होने नये यौवन प्राप्त करने का समाचार मिला तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्होंने च्यवन ऋषि से मिलकर उनसे यज्ञ कराने की बात की। च्यवन ऋषि ने उन्हें यज्ञ की दीक्षा दी। उस यज्ञ में जब अश्वनीकुमारों को भाग दिया जाने लगा तब देवराज इन्द्र ने आपत्ति की कि अश्वनीकुमार देवताओं के चिकित्सक हैं, इसलिये उन्हें यज्ञ का भाग लेने की पात्रता नहीं है। किन्तु च्यवन ऋषि इन्द्र की बातों को अनसुना कर अश्वनीकुमारों को सोमरस देने लगे। इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार किया लेकिन ऋषि ने अपने तपोबल से वज्र को बीच में ही रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न कर दिया। वह राक्षस इन्द्र को निगलने के लिये दौड़ पड़ा। इन्द्र ने भयभीत होकर अश्वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लिया और च्यवन ऋषि ने उस राक्षस को भस्म करके इन्द्र को उसके कष्ट से मुक्ति दिलई । पुरुषोत्तम मास अर्थात मलमास में मदसर्वां की वधु सरोवर में स्नान कर भगवान च्यावनेश्वर शिव की आराधना करने पर मनोवांक्षित फल की प्राप्ति होती है । उत्तरप्रदेश के मैनपुरी के औचा , , हरियाणा का महेंद्रगढ़ जिले के कुलताज ढोसी पहाड़ी पर ऋषि च्यवन आश्रम कहा है । देव वैद्य अश्विनीकुमारों द्वारा उत्पादित निरोगता औषधि ऋषि च्यवन के नाम च्यवनप्राश प्रभावित है ।
च्यवनेश्वर महादेेेव
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