सनातन धर्म की संस्कृति और मानव सभ्यता का विकास स्थल के रूप में गया का उल्लेख है । पुरणों, स्मृतियों , उपनिषदों तथा इतिहास के पन्नो में गया के पुरातात्विक , व्रात्य , प्राच्य , आर्य सभ्यता का उदय स्थल और दर्शन स्थल का वर्णन किया गया है । भारतीय गणराज्य के बिहार राज्य का मगध प्रमंडल का गया सृष्टि के प्रथम मन्वन्तर में स्वायम्भुव मनु की भर्या शतरूपा वंशीय कीकट द्वारा कीकट प्रदेश की राजधानी गया में स्थापित की गई थी । कीकट प्रदेश में व्रात्य सभ्यता , प्राच्य सभ्यता प्रचलित थी । सातवीं मन्वन्तर में वैवस्वत मनु की मैत्रावरुण द्वारा यज्ञ से उत्पन्न इला का विवाह देवगुरु बृहस्पति की भर्या तारा तथा चंद्रमा के सम्पर्क से उत्पन्न बुध वंशीय गय द्वारा गया नगर की स्थापना की । बुध ने कीकट का नाम परिवर्तित कर मगध की नींव डाला था । अंग वंशी राजा पृथु काल में मगध साम्राज्य का राजा मागध द्वारा मगध का विकास किया गया था । मगध में असुर , राक्षस , दैत्य , दानव , नाग , मरुत , गंधर्व , देव संस्कृति विकसित थी । श्री मद भागवत पुराण तथा संबत्सरावली के अनुसार 14 मनुमय सृष्टि का 1955885122 वर्ष ब्रह्मा जी द्वारा पाद्म कल्प के श्वेत वाराह कल्प के प्रथम सत्य युग में गया पूरी की स्थापना की गई थी । वायु पुराण , रामायण , ब्रह्मवैवर्त , भविष्य तथा गरुड़ पुराणों , स्मृतियों संहिताओं के अनुसार श्वेत वाराह कल्प के प्रथम त्रेता युग में अयोधया के राजा दशरथनन्दन श्री राम जी ने पत्नी सीता सह भ्राता लक्ष्मण , द्वापरयुग में पांडवों ने अपने भाइयों के साथ गया में अपने पिता श्री दशरथ जी एवं पूर्वजों का गया श्राद्ध क्रिया सम्पन्न की थी । विक्रम संबत 2078 में श्वेत वाराह कल्प का अठाईसवां चतुर्युग चल रहा है । गया में भगवान विष्णु अमूर्तजा पितर के रूप में विराजमान है । श्री ब्रह्मा जी के मानस पुत्र मरीची ऋषि की पत्नी धर्म की पुत्री धर्मब्रता हुईं । मरीची ऋषि के श्राप से धर्मब्रता शिला हो गई । धर्मशिला को धुन्ध दैत्य की सन्तान , त्रिपुरासुर के पुत्र ख्यात गयासुर के सिर पर रखी गई । शिला का नाम गया स्थित करशिल्ली में विश्व प्रसिद्ध विष्णु पद वेदी एवं करशिल्ली स्थित अनेकों सुप्रसिद्ध वेदियां अवस्थित हैं । विष्णुपद - इदं विष्णुर्विचक्रमें त्रेधा निदधे पदम्म इत्यौर्णाभ: । महर्षि और्णाभ " महर्षि और्णाभ के अनुसार भगवान विष्णु के अवतार अदिति पुत्र वामन द्वारा अपना एक पैर गया सिर पर रखा गया था । गया का उल्लेख सामवेद संहिता , अत्री स्मृति , कल्याण स्मृति ; शंख स्मृति ; याज्ञवल्क स्मृति , महाभारत ; वाल्मीकीय रामायण ; आनन्द रामायण एवं आध्यात्म्य रामायण , ब्रह्म पुराण ; पद्म पुराण , श्री विष्णु पुराण ; वायु पुराण ; श्रीमद् भागवत महापुराण , नारद पुराण ; वराह पुराण ; स्कन्द पुराण , कुर्म पुराण ; मत्स्य पुराण , गरुड़ पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण में है । गयासुर के पवित्र शरीर पर यज्ञ के लिए श्री ब्रह्मा जी द्वारा चौदह ऋत्विजों में ( १) गौतम ; ( २) काश्यप ; ,( ३) कौत्स ; ( ४) कौशिक ; ( ५) कण्व ; ,( ६) भारद्वाज ; ,( ७) औसनस ; ( ८) वात्स्य , ( ९) पारासर ; (१०) हरित्कुमार ; (११) माण्डव्य ; (१२) लौंगाक्षि ; (१३) वाशिष्ठ एवं (१४) आत्रेय को उत्पन्न किया गया था । 14 ऋत्विजों को गयापाल कहा गया । गया सिर की मान्यता एक कोस में है । इसी एक कोस की परिधि में गयापालों का निवास स्थल है । इन्हीं चौदह ऋत्विजों को चौदह सैय्या भी कहते हैं । इनके चौदह सौ घर थे , चौदह मोहल्ले , चौदह पंच , चौदह गोत्र तथा चौदह बैठकें हुआ करते थे । प्राचीन काल में विष्णुपद वेदी का जिर्णोद्धार गुप्त काल में विष्णुपद वेदी शिखर विहीन एवं सपाट छत का वेदी स्थल को महीपाल के पुत्र नयपाल ने ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वेदी का जिर्णोद्धार कराया , श्री श्री चैतन्य - चरितावली के पृष्ठ संख्या १२६ के अनुसार " १५०८ ईस्वी में निमाई पण्डित ( चैतन्य महाप्रभु ) अपने साथियों सहित ब्रह्मकुण्ड में स्नान और देव - पितृ - श्राद्धादि करने के पश्चात चक्रबेड़ा के भीतर विष्णु - पाद - पद्मों के दर्शन किये । ब्राह्मणों ने पाद - पद्मों पर माला - पुष्प चढ़ाने को कहा । गया धाम के तीर्थ - पण्डा जोरों से पाद - पद्मों का प्रभाव वर्णन कर रहे थे । इन्हीं चरणों का लक्ष्मी जी बड़ी हीं श्रद्धा के साथ निरंतर सेवन करती रहती हैं । १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राजपुत राजाओं ने इसे मजबुत सुन्दर पत्थरों को चुने से जोड़ कर बनवाया । संवाद ' १७८७ ईस्वी में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर ने निर्माण करवायी थी । पूर्व दरवाजा : - सूर्य कुंड के पूर्वी रास्ते से देवघाट जाने वाली पुराने रास्ते पर सीख संगत उदासी संप्रदाय है , जहां पर इधर से जाने वाली प्रत्येक हिन्दू अर्थी ( लाश ) को अल्पविराम एवं सीख संगत को अन्तिम प्रणाम के साथ चढ़ावा चढ़ाया जाता है , ठीक उसी के दिवाल से सटे अन्दर गया का पूर्वी द्वार है । यह एकलौता पूराना विशाल द्वार है जहां अब तक पूराने चौखट एवं कीवाड़ मौजुद हैं । दरवाजे के ऊपर साज - सज्जा के साथ शहनाई वादक सुवह - शाम वादन प्रस्तुत करते थे आरती के समय । ये शहनाई वादक तथा अन्य सहयोगी मुस्लिम समुदाय से होते थे । पूराने लैंप पोस्टों पर मशालचियों द्वारा प्रत्येक चौक चौराहों पर दीपक रात में जलाये व सुवह में बुझाये जाते थे । ये मशालची भी मुस्लिम होते थे । पश्चिम दरवाजा : - बहुआर चौरा से टिल्हा धर्मशाला मुख्य सड़क पहुंचने के ठीक पहले जहां संकरा स्थान है । दक्षिण दरवाजा : - दक्षिण दरवाजा मोहल्ले का दक्षिणी छोर जहां यह सड़क गोराबादी मोहल्ले से मिलती है , और वहीं पर गोरैया बाबा का मन्दिर है , ठीक उसी संधी - स्थल पर दक्षिण दरवाजा हुआ करता था । उत्तर दरवाजा : - श्री सेन जी के ठाकुरबाड़ी के उत्तरी छोर पर जहां रास्ता संकरा हो जाती है तथा ठीक उसके बाद ब्राह्मणी घाट के रास्ते की शुरुआत होती है , यही स्थल उत्तरी दरवाजे का है । यहां भी पूराने दरवाजे का स्तित्व नहीं है । सेन जी का ठाकुरबाड़ी : - उत्तर फाटक से सटे श्री बाल गोविन्द सेन जी गयापाल द्वारा निर्मित ' सेन जी का ठाकुरबाड़ी अवस्थित है । ये वही श्री बाल गोविन्द सेन जी गयापाल हैं , जिन्होंने फसली वर्ष १३०० ( १८९३ ईस्वी ) में विष्णुपद वेदी ( मन्दिर ) के शिखर पर सवा मन सोने का ध्वज एवं गुम्बद सह कलश की स्थापना करवाई थी तथा फसली वर्ष १३१४ ( १९०७ ईस्वी ) में विष्णुपद वेदी ( मन्दिर ) को चांदी का हौज एवं छतरी समर्पण किया था । श्री बाल गोविन्द सेन जी गयापाल अपने ' सेन जी के ठाकुरबाड़ी ' के शिखर पर भी सवा मन सोने का ध्वज एवं गुम्बद सह कलश लगवाया था । ठाकुरबाड़ी के गर्भ गृह में श्री राम - दरवार की प्रतिमायें , त्रियुगी नाथ श्री हनुमान जी ( दक्षिण मुखी ) तथा राधा - कृष्ण की मूर्तियां पूजित हैं । सेन जी के ठाकुरबाड़ी से प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भारत प्रसिद्ध रथ यात्रा उत्सव का आयोजन हुआ करता था । गया में एक मात्र चांदी के भव्य रथ पर भगवान् जगन्नाथ , अग्रज बलराम और बहन सुभद्रा के साथ सवार होकर नगर भ्रमण किया करते थे । सेन जी के उत्तराधिकारी रथ पर चंवर सेवा करते हुए चांद चौरा स्थित मेला स्थली पर शाम तक पूजित होते थे । उत्तर दरवाजा के उत्तर में नगर के प्रकृति झरने का जल स्रोत संगम स्थल है । पूर्व काल में प्राकृतिक रुप से शहर के पश्चिम - दक्षिण पर्वतीय प्रदेश से निकलने वाली झरने का पानी प्रविहित था । दक्षिण - पश्चिम तथा उत्तर दिशा से आने वाले नद नालों का संगम स्थल रहा है । इसे ' त्रिवेणी 'की संज्ञा दी गई है । कान्हू लाल गुरदा गयावाल की 1906 ई . में प्रकाशित पुस्तक " बृहद गया महात्म्य और गया पाल शिशु शिक्षक " के अनुसार वेदी , देवता , पर्वत , झरना , नदी , तालाब के स्थान है ।डुमरिया के जैन मन्दिर के रास्ता में अष्टभुजीय सिद्धेश्वरी देवी का मन्दिर अवस्थित है । मौलगंज का स्वर्णकार मन्दिर - अखाड़ा के समीप जीतन शाह द्वारा सुकना पहादेव मन्दिर का निर्माण 1886 ई. में किया गया था । दक्षिण - पूर्व स्थित पुराने मंडप के केन्द्र विन्दु में नर्मदेश्वर महादेव तथा पूर्व - उत्तर मंडप के केन्द्र में ११ रुद्रों सहित विशाल काले एकल कसौटी पत्थर का शिव लिंग 15 इंच की परिधि एवं 18 इंच ऊची में स्थापित है । यह शिवलिंग अद्भूत है । मंडपों में संयुक्त रुप से श्री गणेश जी ; देवी सरस्वति जी ; मां दुर्गा जी , देवी संतोषी मां के संग अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां है । ब्राह्मणी घाट - श्वेत वाराह कल्प के प्रथम सत्ययुग में धर्मशिला पर यज्ञादि की पूर्णाहुति पश्चात श्री ब्रह्मा जी अपनी ब्रह्माणी सरस्वती जी संग फल्गु नदी के तट पर ब्रह्मेष्टि यज्ञ अनुष्ठान करने के कारण ब्रह्मेष्ठी यज्ञ स्थल का नाम ब्राह्मी घाट , ब्रह्माणी घाट व ब्राह्मणीघाट की ख्याति प्राप्त हुई है ।। ब्राह्मणी घाट पर अभी भी जिर्ण शिर्ण अवस्था में यज्ञ - कुण्ड - मण्डप अवस्थित है । पाषाण खम्भों एवं शस्तिरों पर नवाग्रह एवं बारहों राशियों का चित्रण पाया जाता है । ब्रह्माणी वीणा धारिणी भगवती सरस्वती की प्राचीन छोटे काले पत्थर की मूर्ति विरंचिनारायण मन्दिर के परिक्रमा स्थल के उत्तरी दीवार में स्थापित हैं । ब्रह्म पुराण एवं ब्रह्मस्मृति ग्रन्थों के अनुसार ब्रह्मा की भर्या सरस्वती के साथ गया स्थित ब्रह्मवर्त क्षेत्र का फल्गु नदी के तट पर ब्रह्मेष्टि यज्ञ करने का स्थल को ब्राह्मी घाट कालांतर ब्राह्मणी घाट के नाम प्रचलित हुआ त है । ब्रह्मा जी अपनी प्रथम पत्नी सावित्री के साथ ब्रह्मेष्टि यज्ञ के पूर्व माता सावित्री द्वारा ब्रह्मयोनि पर्वत के समीप वरगद अर्थात वट वृक्ष लगाई गई थी । उस स्थल को अक्षवट के नाम से ख्याति है । ब्राह्मणी घाट पर ऐतिहासिक एवं पूरातात्विक महत्व के अवशेष एवं मन्दिर और फल्गु नदी के पश्चिम स्थित घाट पर तीनों शाक्त , सौर और शैव तांत्रिक पीठ है । शैव धर्म , शाक्त धर्म , सौर धर्म , वैष्णव धर्म और नाथ सम्प्रदाय का अग्नि प्रज्वलित स्थल है । ब्राह्मणी घाट गया जी का प्राचीन श्मशान क्षेत्र रहा है । विष्णुपद श्मशान के स्थापना पूर्व इसी घाट पर शवदाह की क्रिया सम्पन्न होती थी । फल्गु नदी के किनारे विरंचिनारायण मन्दिर ( उत्तरादित्य ) ; द्वादशादित्य मन्दिर , काली मन्दिर ; शिव मन्दिर ; गंगेश्वर महादेव ; विष्णुपद मंदिर , दक्षिण मुखी हनुमान ; फलग्वीश्वर महादेव , पितामहेश्वर ,
;गयादित्य ; राधा कृष्ण ; लक्ष्मी - नारायण ; काल भैरव ; बटुक भैरव ; श्मशान भैरव है । श्मशान काली के समीप घाट से सम्बन्धीत शिला लेख उपलब्ध है ।मानभूम ( झारखंड ) के राजा मानसिंह के द्वारा ब्राह्मणी घाट के जिर्णोद्धार के संबंध शिलालेख में उपलब्ध है । मान सिंह के द्वारा फल्गु नदी के पूर्व मानपुर बसाया गया था । विरंचिनारायण मन्दिर - फल्गु नदी के तट पर ब्राह्मणी घाट पर भगवान् विरंचिनारायण ( उत्तरादित्य ) पूर्वांमुखी मन्दिर में विराजमान हैं । ये अपने पूरे परिवार के साथ शोभायमान हैं । प्रमुख विग्रह के पैर के बीच सूर्य पत्नी संज्ञा , दाहिनी ओर ज्येष्ठ पुत्र शनि , बायीं ओर कनिष्ठ पुत्र यम , नीचे सारथी अरुण रथ संचालन की मुद्रा में , सात घोड़े एवं एक चक्के का रथ विद्यमान है । बीच में दायें - बायें चारण एवं सशस्त्र सेवक सेविकायें , नीचे दायें - बायें चंवर डुलाते प्रहरीगण हैं । ऊपर बायें तरफ प्रत्युषा तथा दायीं ओर उषा देवी शोभायमान हैं । सूर्य पुराण में उषा एवं प्रत्युषा को अन्धकार रुपी तमस को दूर भगाने वाली देवियों के रुप में मान्यता प्राप्त है । शालिग्राम काले शिला से निर्मित लगभग ७' ( सात फीट ) उंची प्रतिमा एकल शिला में रथ समेत सभी मूर्त्तियां सन्निहित हैं । उत्तरादित्य ( सूर्य मन्दिर ) के चतुर्दिक विशाल सभा मंडप एवं परिक्रमा स्थल है जो बारह काले पत्थर से निर्मित नक्काशीदार खंभों पर आच्छादित है । गर्भ गृह में ऊपर की छत में अष्टदल कमल भी निर्मित है । १५ फरवरी १८६२ ईस्वी को गया के तत्तकालीन जमींदार भुना दाई चौधराईन गयावालिन के द्वारा विरंचिनारायण मन्दिर दानपत्र के साथ श्री राम मिश्र के पुत्र श्री रमापत मिश्र को दिया गया है ।
विष्णुपद - पितरों को मुक्ति विष्णु पद में गया श्राध्द करने से मिलती है । विष्णुपद गिरी पर भगवान विष्णु का चरण है । प्रोफेसर डा• गणेश दास सिंघल की पिलीगरिम प्लीग्रीमेज जियोग्राफी ऑफ ग्रेटर गया के अनुसार गया 24° 25' 16" से 24° 50' 30" उत्तरी अक्षांश एवं 84° 57' 58" से 85° 3' 18" पूर्वी देशांतर रेखाओं के मध्य में अवस्थिति है । वृहद् गया की स्थिति 24°23' से 25°14' उत्तरी अक्षांश एवं 84°18'30" से 85°38' पूर्वी देशांतर रेखाओं के मध्य है । गया में अक्षांश और देशांतर दोनो रेखाएं का सीधा संबंध भगवान् सूर्य के साथ है । भगवान् सूर्य के 12 नामों में विष्णु है । अक्षांश और देशांतर रेखाएं मिलने के स्थान विष्णुपदी केंद्र विंदू है । विष्णुपदी एक वृत्त बन जाती है , जिसे 360 अंशों में विभाजन कर सूर्य एवं उसकी गति को निश्चित किया जाता है । प्रात: कालीन सूर्य सविता एवं पृथ्वी को अमृत प्राण देते हुए एक धक्का देता है और सायं कालीन आदित्य पृथ्वी के प्राणों का आहरण करता है। उससे पृथ्वी को आकर्षण शक्ति के कारण धक्का लगता है । दोनो धक्कों के कारण पृथ्वी अपने क्रांति वृत्त पर घूमने लगती है और सूर्य की परिक्रमा करना प्रारंभ कर देती है । पृथ्वी और सूर्य की गति के कारण जहाँ सूर्य लोक से प्राण तत्व जीव यहाँ आते हैं , वहाँ पृथ्वी से जीव पुन: सूर्यलोक पहुंचते हैं । मध्यस्थ चंद्रलोक एक सेतू का काम करता है । जहाँ विष्णुपदी होती है , वहाँ 360 भागों में विभक्त एक वृत्त होता है या बन जाता है , जो जीवों को क्षिप्रगति से सूर्य लोक की ओर आकर्षित कर लेता है । फलत: जीव सूर्य , चंद्र और पृथ्वी की गति के साथ स्वर्गलोक या विष्णुलोक पहुंच जाता है । यही कार्य गया - श्राद्ध करता है । एक ओर श्राद्ध कर्म जहाँ जीवों के बंधनों को खोल कर प्रेतत्व से विमुक्त करता है , वहीं दूसरी ओर विष्णुपदी जीवों को स्वर्गलोक भेजने में सक्षम होकर सहायता प्रदान करती है । 4766 वर्गमील क्षेत्रफल में विकसित मगध प्रमंडल का उत्तरी अकांक्ष 24 डिग्री 17 सेंटीग्रेड और पश्चमी देशान्तर 84 डिग्री और 86 डिग्री पर अवस्थित है । मागध प्रमंडल के उत्तर में पटना , पश्चिम में मुंगेर दक्षिण में झारखंड और पूरब में सोननदी भोजपुर जिले की दिमाओ से घिरी हुई है। मगध प्रमंडल की 1901 ई. के जनगणना के अनुसार 2061857 आवादी 7871 गाँवों में रहती थी । मगध प्रमंडल में गया , औरंगाबाद , जहानाबाद , नवादा और अरवल जिले है । मागध प्रमंडल का मुख्यालय गया भारतीय और मागधीय संस्कृति का मूल केंद्र है । 4976 वर्ग कि. मि . क्षेत्रफल का गया जिले की स्थापना 1865 ई . में हुई है । गया जिले की 2011 के जनगणना के अनुसार 43 79383 आवादी वाले 24 प्रखंडों में निवास करती है ।गया जिले के प्रमुख नदियों में फल्गु , मोरहर , सोरहर , निरंजना , मोहाना है । ऐतिहासिक तथा वैदिक पहाड़ों में ब्रह्मयोनि , कौवाडोल , डुंगेश्वरी , रामशिला , प्रेतशिला , भष्म गिरि है । प्राचीन स्थलों में बकरौर , बोधगया ,है। गया परगना की स्थापना कलेक्टर मि. ग्राहम द्वारा 1802 ई. में मुरारपुर और पहसी , रामशिला , 1808 ई. में साहेबगंज , आलमगीरपुर की गई थी । परगना गया को शेरचाँद के अधीन था। 1911 ई. में रेवेन्यू थाना गया टाउन का 11 गाँव की निगरानी के लिये कोतवाली ,सिविल लाइंस , गया मुफ़्सील में 676 गाँव पर निगरानी के लिये गया मोफसील ,बोधगया ,परैया ,वजीरगंज , शेरघाटी राजस्व थाने के 865 गाँव में शेरघाटी , गुरुआ ,इमामगंज ,डुमरिया , बाराचट्टी राजस्व थाने के 666 गाँव में बाराचट्टी , फतेहपुर , टेकरी राजस्व थाने के 435 गाँव का निगरानी के लिये टेकरी , कोच , बेला और अतरी रेवेन्यू थाने के 272 गाँव मे अतरी और खिजरसराय में पुलिस स्टेशन की स्थापना की गई थी । 1901 के जनगणना में गया जिले की जनसंख्या 751711 आवादी वाले 1909 वर्गमील में 2465 गांव , 17 पुलिस स्टेशन थे । मगध प्रमंडल का मुख्यालय गया 11.75 वर्गमील में विकसित है । गया नगरपालिका का गठन 1865 ई. में 195 मोहल्ले को शामिल कर 10 वार्डों को शामिल कर किया गया था ।ओल्ड डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर 1905 के अनुसार गया 8 वर्गमील क्षेत्रफल में फैले विरासत थी ।गया के उत्तर रामशिला , मुरली पर्वत , दक्षिण में ब्रह्मयोनि पर्वत , पूरब में कटारी पहाड़ी और पश्चिम में फल्गु नदी प्रकृति से घीरा है ।प्राचीन शहर गया को सहेबगंज व अंदर गया कहा जाता है । जर्मन रोमन कैथोलिक मिशनरी के टिफ्फेनथैलर , बुकानन हैमिल्टन , फाह्यान द्वारा 399 - 413 ई. , ची यात्री ह्वेनसांग ने 629- 645 ई. में गया का भ्रमण किया है । नायपाल का गवर्नर वज्रपाणि ने 1060 ई. और राजपूत मंत्री द्वारा 1242 ई. में गया को इंडिया का अमरावती कहा है । गया का छठी शताब्दी ई. पू. आर्य सभ्यता तथा व्रात्य सभ्यता कल्प सूत्र में वर्णित है । गया का विकास शिशुनाग , अजातशत्रु ,उदयी ,नंद ,मौर्य ,चंद्रगुप्त ,अशोक ,पुष्यमित्र ,खरवार,, गुप्त ,मौखरि ,पाल काल में हुआ था । 1197 ई. में मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी द्वारा गया का विकास अवरुद्ध किया गया था ।नेपाल का राजा का मंत्री रंजीत पांडे और 15 जनवरी 1790 ई. में मि. फ्रांसिस गिललैंडर्स द्वारा विष्णुपद का विकास किया गया ।हैमिल्टन बुकानन ने 1815 ई. में ईस्टर्न गजेटियर , थोर्टन्स गजेटियर हंटर्स गजेटियर 1877 ई. डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट गे डॉ ग्रियर्सन 1888 ई. , ओ मॉली ने गया गजेटियर का प्रकाशन 1906 ई. तथा पी .सी. राय चौधरी द्वारा बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर का प्रकाशन 1957 ई. में गया के ऐतिहासिक , सामाजिक , आर्थिक , पुरातत्विक स्थलों की उल्लेख किया गया है । गया के प्रमुख स्थलों में विष्णुपद मंदिर , मंगल गौरी , ब्रह्मयोनि , अक्षयवट , बंगला स्थान , दुखःर्णी फाटक स्थित दुखःर्णी माता मंदिर , रामशिला , विरंचि मंदिर , वागेश्वरी , रामशिला , प्रेतशिला , भैरव स्थान , पितामहेश्वर , काली स्थल , फल्गु नदी प्रमुख है । मुगल शासन में निर्मित जुम्मा मस्जिद ,है ।गया गांधी मैदान के समीप चर्च है । उदयपुर के राजा राणा सांगा के देख रेख में गया विकसित था परंतु 160 ई. में औरंगजेब द्वारा गया के शहर चाँद चौधरी को गया के 4000 विघा जागीर का मालिक बनाया गया था । शहर चाँद द्वारा दक्षिण दरवाजा ,उतर दरवाजा और पश्चिम दरवाजा का निर्माण कराया था । गया में प्रत्येक वर्ष अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक पितृपक्ष में सनातन धर्म के लोग अपनी पूर्वजो की मोक्ष और पितृऋण से मुक्ति के लिये गया श्राद्ध , पिंड देने के लिए आते है ।
सनातन धर्म की संस्कृति और मानव सभ्यता का विकास स्थल के रूप में गया का उल्लेख है । पुरणों, स्मृतियों , उपनिषदों तथा इतिहास के पन्नो में गया के पुरातात्विक , व्रात्य , प्राच्य , आर्य सभ्यता का उदय स्थल और दर्शन स्थल का वर्णन किया गया है । भारतीय गणराज्य के बिहार राज्य का मगध प्रमंडल का गया सृष्टि के प्रथम मन्वन्तर में स्वायम्भुव मनु की भर्या शतरूपा वंशीय कीकट द्वारा कीकट प्रदेश की राजधानी गया में स्थाHपित की गई थी । कीकट प्रदेश में व्रात्य सभ्यता , प्राच्य सभ्यता प्रचलित थी । सातवीं मन्वन्तर में वैवस्वत मनु की मैत्रावरुण द्वारा यज्ञ से उत्पन्न इला का विवाह देवगुरु बृहस्पति की भर्या तारा तथा चंद्रमा के सम्पर्क से उत्पन्न बुध वंशीय गय द्वारा गया नगर की स्थापना की । बुध ने कीकट का नाम परिवर्तित कर मगध की नींव डाला था । अंग वंशी राजा पृथु काल में मगध साम्राज्य का राजा मागध द्वारा मगध का विकास किया गया था । मगध में असुर , राक्षस , दैत्य , दानव , नाग , मरुत , गंधर्व , देव संस्कृति विकसित थी । श्री मद भागवत पुराण तथा संबत्सरावली के अनुसार 14 मनुमय सृष्टि का 1955885122 वर्ष ब्रह्मा जी द्वारा पाद्म कल्प के श्वेत वाराह कल्प के प्रथम सत्य युग में गया पूरी की स्थापना की गई थी । वायु पुराण , रामायण , ब्रह्मवैवर्त , भविष्य तथा गरुड़ पुराणों , स्मृतियों संहिताओं के अनुसार श्वेत वाराह कल्प के प्रथम त्रेता युग में अयोधया के राजा दशरथनन्दन श्री राम जी ने पत्नी सीता सह भ्राता लक्ष्मण , द्वापरयुग में पांडवों ने अपने भाइयों के साथ गया में अपने पिता श्री दशरथ जी एवं पूर्वजों का गया श्राद्ध क्रिया सम्पन्न की थी । विक्रम संबत 2078 में श्वेत वाराह कल्प का अठाईसवां चतुर्युग चल रहा है । गया में भगवान विष्णु अमूर्तजा पितर के रूप में विराजमान है । श्री ब्रह्मा जी के मानस पुत्र मरीची ऋषि की पत्नी धर्म की पुत्री धर्मब्रता हुईं । मरीची ऋषि के श्राप से धर्मब्रता शिला हो गई । धर्मशिला को धुन्ध दैत्य की सन्तान , त्रिपुरासुर के पुत्र ख्यात गयासुर के सिर पर रखी गई । शिला का नाम गया स्थित करशिल्ली में विश्व प्रसिद्ध विष्णु पद वेदी एवं करशिल्ली स्थित अनेकों सुप्रसिद्ध वेदियां अवस्थित हैं । विष्णुपद - इदं विष्णुर्विचक्रमें त्रेधा निदधे पदम्म इत्यौर्णाभ: । महर्षि और्णाभ " महर्षि और्णाभ के अनुसार भगवान विष्णु के अवतार अदिति पुत्र वामन द्वारा अपना एक पैर गया सिर पर रखा गया था । गया का उल्लेख सामवेद संहिता , अत्री स्मृति , कल्याण स्मृति ; शंख स्मृति ; याज्ञवल्क स्मृति , महाभारत ; वाल्मीकीय रामायण ; आनन्द रामायण एवं आध्यात्म्य रामायण , ब्रह्म पुराण ; पद्म पुराण , श्री विष्णु पुराण ; वायु पुराण ; श्रीमद् भागवत महापुराण , नारद पुराण ; वराह पुराण ; स्कन्द पुराण , कुर्म पुराण ; मत्स्य पुराण , गरुड़ पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण में है । गयासुर के पवित्र शरीर पर यज्ञ के लिए श्री ब्रह्मा जी द्वारा चौदह ऋत्विजों में ( १) गौतम ; ( २) काश्यप ; ,( ३) कौत्स ; ( ४) कौशिक ; ( ५) कण्व ; ,( ६) भारद्वाज ; ,( ७) औसनस ; ( ८) वात्स्य , ( ९) पारासर ; (१०) हरित्कुमार ; (११) माण्डव्य ; (१२) लौंगाक्षि ; (१३) वाशिष्ठ एवं (१४) आत्रेय को उत्पन्न किया गया था । 14 ऋत्विजों को गयापाल कहा गया । गया सिर की मान्यता एक कोस में है । इसी एक कोस की परिधि में गयापालों का निवास स्थल है । इन्हीं चौदह ऋत्विजों को चौदह सैय्या भी कहते हैं । इनके चौदह सौ घर थे , चौदह मोहल्ले , चौदह पंच , चौदह गोत्र तथा चौदह बैठकें हुआ करते थे । प्राचीन काल में विष्णुपद वेदी का जिर्णोद्धार गुप्त काल में विष्णुपद वेदी शिखर विहीन एवं सपाट छत का वेदी स्थल को महीपाल के पुत्र नयपाल ने ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वेदी का जिर्णोद्धार कराया , श्री श्री चैतन्य - चरितावली के पृष्ठ संख्या १२६ के अनुसार " १५०८ ईस्वी में निमाई पण्डित ( चैतन्य महाप्रभु ) अपने साथियों सहित ब्रह्मकुण्ड में स्नान और देव - पितृ - श्राद्धादि करने के पश्चात चक्रबेड़ा के भीतर विष्णु - पाद - पद्मों के दर्शन किये । ब्राह्मणों ने पाद - पद्मों पर माला - पुष्प चढ़ाने को कहा । गया धाम के तीर्थ - पण्डा जोरों से पाद - पद्मों का प्रभाव वर्णन कर रहे थे । इन्हीं चरणों का लक्ष्मी जी बड़ी हीं श्रद्धा के साथ निरंतर सेवन करती रहती हैं । १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राजपुत राजाओं ने इसे मजबुत सुन्दर पत्थरों को चुने से जोड़ कर बनवाया । संवाद ' १७८७ ईस्वी में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर ने निर्माण करवायी थी । पूर्व दरवाजा : - सूर्य कुंड के पूर्वी रास्ते से देवघाट जाने वाली पुराने रास्ते पर सीख संगत उदासी संप्रदाय है , जहां पर इधर से जाने वाली प्रत्येक हिन्दू अर्थी ( लाश ) को अल्पविराम एवं सीख संगत को अन्तिम प्रणाम के साथ चढ़ावा चढ़ाया जाता है , ठीक उसी के दिवाल से सटे अन्दर गया का पूर्वी द्वार है । यह एकलौता पूराना विशाल द्वार है जहां अब तक पूराने चौखट एवं कीवाड़ मौजुद हैं । दरवाजे के ऊपर साज - सज्जा के साथ शहनाई वादक सुवह - शाम वादन प्रस्तुत करते थे आरती के समय । ये शहनाई वादक तथा अन्य सहयोगी मुस्लिम समुदाय से होते थे । पूराने लैंप पोस्टों पर मशालचियों द्वारा प्रत्येक चौक चौराहों पर दीपक रात में जलाये व सुवह में बुझाये जाते थे । ये मशालची भी मुस्लिम होते थे । पश्चिम दरवाजा : - बहुआर चौरा से टिल्हा धर्मशाला मुख्य सड़क पहुंचने के ठीक पहले जहां संकरा स्थान है । दक्षिण दरवाजा : - दक्षिण दरवाजा मोहल्ले का दक्षिणी छोर जहां यह सड़क गोराबादी मोहल्ले से मिलती है , और वहीं पर गोरैया बाबा का मन्दिर है , ठीक उसी संधी - स्थल पर दक्षिण दरवाजा हुआ करता था । उत्तर दरवाजा : - श्री सेन जी के ठाकुरबाड़ी के उत्तरी छोर पर जहां रास्ता संकरा हो जाती है तथा ठीक उसके बाद ब्राह्मणी घाट के रास्ते की शुरुआत होती है , यही स्थल उत्तरी दरवाजे का है । यहां भी पूराने दरवाजे का स्तित्व नहीं है । सेन जी का ठाकुरबाड़ी : - उत्तर फाटक से सटे श्री बाल गोविन्द सेन जी गयापाल द्वारा निर्मित ' सेन जी का ठाकुरबाड़ी अवस्थित है । ये वही श्री बाल गोविन्द सेन जी गयापाल हैं , जिन्होंने फसली वर्ष १३०० ( १८९३ ईस्वी ) में विष्णुपद वेदी ( मन्दिर ) के शिखर पर सवा मन सोने का ध्वज एवं गुम्बद सह कलश की स्थापना करवाई थी तथा फसली वर्ष १३१४ ( १९०७ ईस्वी ) में विष्णुपद वेदी ( मन्दिर ) को चांदी का हौज एवं छतरी समर्पण किया था । श्री बाल गोविन्द सेन जी गयापाल अपने ' सेन जी के ठाकुरबाड़ी ' के शिखर पर भी सवा मन सोने का ध्वज एवं गुम्बद सह कलश लगवाया था । ठाकुरबाड़ी के गर्भ गृह में श्री राम - दरवार की प्रतिमायें , त्रियुगी नाथ श्री हनुमान जी ( दक्षिण मुखी ) तथा राधा - कृष्ण की मूर्तियां पूजित हैं । सेन जी के ठाकुरबाड़ी से प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भारत प्रसिद्ध रथ यात्रा उत्सव का आयोजन हुआ करता था । गया में एक मात्र चांदी के भव्य रथ पर भगवान् जगन्नाथ , अग्रज बलराम और बहन सुभद्रा के साथ सवार होकर नगर भ्रमण किया करते थे । सेन जी के उत्तराधिकारी रथ पर चंवर सेवा करते हुए चांद चौरा स्थित मेला स्थली पर शाम तक पूजित होते थे । उत्तर दरवाजा के उत्तर में नगर के प्रकृति झरने का जल स्रोत संगम स्थल है । पूर्व काल में प्राकृतिक रुप से शहर के पश्चिम - दक्षिण पर्वतीय प्रदेश से निकलने वाली झरने का पानी प्रविहित था । दक्षिण - पश्चिम तथा उत्तर दिशा से आने वाले नद नालों का संगम स्थल रहा है । इसे ' त्रिवेणी 'की संज्ञा दी गई है । कान्हू लाल गुरदा गयावाल की 1906 ई . में प्रकाशित पुस्तक " बृहद गया महात्म्य और गया पाल शिशु शिक्षक " के अनुसार वेदी , देवता , पर्वत , झरना , नदी , तालाब के स्थान है ।डुमरिया के जैन मन्दिर के रास्ता में अष्टभुजीय सिद्धेश्वरी देवी का मन्दिर अवस्थित है । मौलगंज का स्वर्णकार मन्दिर - अखाड़ा के समीप जीतन शाह द्वारा सुकना पहादेव मन्दिर का निर्माण 1886 ई. में किया गया था । दक्षिण - पूर्व स्थित पुराने मंडप के केन्द्र विन्दु में नर्मदेश्वर महादेव तथा पूर्व - उत्तर मंडप के केन्द्र में ११ रुद्रों सहित विशाल काले एकल कसौटी पत्थर का शिव लिंग 15 इंच की परिधि एवं 18 इंच ऊची में स्थापित है । यह शिवलिंग अद्भूत है । मंडपों में संयुक्त रुप से श्री गणेश जी ; देवी सरस्वति जी ; मां दुर्गा जी , देवी संतोषी मां के संग अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां है । ब्राह्मणी घाट - श्वेत वाराह कल्प के प्रथम सत्ययुग में धर्मशिला पर यज्ञादि की पूर्णाहुति पश्चात श्री ब्रह्मा जी अपनी ब्रह्माणी सरस्वती जी संग फल्गु नदी के तट पर ब्रह्मेष्टि यज्ञ अनुष्ठान करने के कारण ब्रह्मेष्ठी यज्ञ स्थल का नाम ब्राह्मी घाट , ब्रह्माणी घाट व ब्राह्मणीघाट की ख्याति प्राप्त हुई है ।। ब्राह्मणी घाट पर अभी भी जिर्ण शिर्ण अवस्था में यज्ञ - कुण्ड - मण्डप अवस्थित है । पाषाण खम्भों एवं शस्तिरों पर नवाग्रह एवं बारहों राशियों का चित्रण पाया जाता है । ब्रह्माणी वीणा धारिणी भगवती सरस्वती की प्राचीन छोटे काले पत्थर की मूर्ति विरंचिनारायण मन्दिर के परिक्रमा स्थल के उत्तरी दीवार में स्थापित हैं । ब्रह्म पुराण एवं ब्रह्मस्मृति ग्रन्थों के अनुसार ब्रह्मा की भर्या सरस्वती के साथ गया स्थित ब्रह्मवर्त क्षेत्र का फल्गु नदी के तट पर ब्रह्मेष्टि यज्ञ करने का स्थल को ब्राह्मी घाट कालांतर ब्राह्मणी घाट के नाम प्रचलित हुआ त है । ब्रह्मा जी अपनी प्रथम पत्नी सावित्री के साथ ब्रह्मेष्टि यज्ञ के पूर्व माता सावित्री द्वारा ब्रह्मयोनि पर्वत के समीप वरगद अर्थात वट वृक्ष लगाई गई थी । उस स्थल को अक्षवट के नाम से ख्याति है । ब्राह्मणी घाट पर ऐतिहासिक एवं पूरातात्विक महत्व के अवशेष एवं मन्दिर और फल्गु नदी के पश्चिम स्थित घाट पर तीनों शाक्त , सौर और शैव तांत्रिक पीठ है । शैव धर्म , शाक्त धर्म , सौर धर्म , वैष्णव धर्म और नाथ सम्प्रदाय का अग्नि प्रज्वलित स्थल है । ब्राह्मणी घाट गया जी का प्राचीन श्मशान क्षेत्र रहा है । विष्णुपद श्मशान के स्थापना पूर्व इसी घाट पर शवदाह की क्रिया सम्पन्न होती थी । फल्गु नदी के किनारे विरंचिनारायण मन्दिर ( उत्तरादित्य ) ; द्वादशादित्य मन्दिर , काली मन्दिर ; शिव मन्दिर ; गंगेश्वर महादेव ; विष्णुपद मंदिर , दक्षिण मुखी हनुमान ; फलग्वीश्वर महादेव , पितामहेश्वर ,
;गयादित्य ; राधा कृष्ण ; लक्ष्मी - नारायण ; काल भैरव ; बटुक भैरव ; श्मशान भैरव है । श्मशान काली के समीप घाट से सम्बन्धीत शिला लेख उपलब्ध है ।मानभूम ( झारखंड ) के राजा मानसिंह के द्वारा ब्राह्मणी घाट के जिर्णोद्धार के संबंध शिलालेख में उपलब्ध है । मान सिंह के द्वारा फल्गु नदी के पूर्व मानपुर बसाया गया था । विरंचिनारायण मन्दिर - फल्गु नदी के तट पर ब्राह्मणी घाट पर भगवान् विरंचिनारायण ( उत्तरादित्य ) पूर्वांमुखी मन्दिर में विराजमान हैं । ये अपने पूरे परिवार के साथ शोभायमान हैं । प्रमुख विग्रह के पैर के बीच सूर्य पत्नी संज्ञा , दाहिनी ओर ज्येष्ठ पुत्र शनि , बायीं ओर कनिष्ठ पुत्र यम , नीचे सारथी अरुण रथ संचालन की मुद्रा में , सात घोड़े एवं एक चक्के का रथ विद्यमान है । बीच में दायें - बायें चारण एवं सशस्त्र सेवक सेविकायें , नीचे दायें - बायें चंवर डुलाते प्रहरीगण हैं । ऊपर बायें तरफ प्रत्युषा तथा दायीं ओर उषा देवी शोभायमान हैं । सूर्य पुराण में उषा एवं प्रत्युषा को अन्धकार रुपी तमस को दूर भगाने वाली देवियों के रुप में मान्यता प्राप्त है । शालिग्राम काले शिला से निर्मित लगभग ७' ( सात फीट ) उंची प्रतिमा एकल शिला में रथ समेत सभी मूर्त्तियां सन्निहित हैं । उत्तरादित्य ( सूर्य मन्दिर ) के चतुर्दिक विशाल सभा मंडप एवं परिक्रमा स्थल है जो बारह काले पत्थर से निर्मित नक्काशीदार खंभों पर आच्छादित है । गर्भ गृह में ऊपर की छत में अष्टदल कमल भी निर्मित है । १५ फरवरी १८६२ ईस्वी को गया के तत्तकालीन जमींदार भुना दाई चौधराईन गयावालिन के द्वारा विरंचिनारायण मन्दिर दानपत्र के साथ श्री राम मिश्र के पुत्र श्री रमापत मिश्र को दिया गया है ।
विष्णुपद - पितरों को मुक्ति विष्णु पद में गया श्राध्द करने से मिलती है । विष्णुपद गिरी पर भगवान विष्णु का चरण है । प्रोफेसर डा• गणेश दास सिंघल की पिलीगरिम प्लीग्रीमेज जियोग्राफी ऑफ ग्रेटर गया के अनुसार गया 24° 25' 16" से 24° 50' 30" उत्तरी अक्षांश एवं 84° 57' 58" से 85° 3' 18" पूर्वी देशांतर रेखाओं के मध्य में अवस्थिति है । वृहद् गया की स्थिति 24°23' से 25°14' उत्तरी अक्षांश एवं 84°18'30" से 85°38' पूर्वी देशांतर रेखाओं के मध्य है । गया में अक्षांश और देशांतर दोनो रेखाएं का सीधा संबंध भगवान् सूर्य के साथ है । भगवान् सूर्य के 12 नामों में विष्णु है । अक्षांश और देशांतर रेखाएं मिलने के स्थान विष्णुपदी केंद्र विंदू है । विष्णुपदी एक वृत्त बन जाती है , जिसे 360 अंशों में विभाजन कर सूर्य एवं उसकी गति को निश्चित किया जाता है । प्रात: कालीन सूर्य सविता एवं पृथ्वी को अमृत प्राण देते हुए एक धक्का देता है और सायं कालीन आदित्य पृथ्वी के प्राणों का आहरण करता है। उससे पृथ्वी को आकर्षण शक्ति के कारण धक्का लगता है । दोनो धक्कों के कारण पृथ्वी अपने क्रांति वृत्त पर घूमने लगती है और सूर्य की परिक्रमा करना प्रारंभ कर देती है । पृथ्वी और सूर्य की गति के कारण जहाँ सूर्य लोक से प्राण तत्व जीव यहाँ आते हैं , वहाँ पृथ्वी से जीव पुन: सूर्यलोक पहुंचते हैं । मध्यस्थ चंद्रलोक एक सेतू का काम करता है । जहाँ विष्णुपदी होती है , वहाँ 360 भागों में विभक्त एक वृत्त होता है या बन जाता है , जो जीवों को क्षिप्रगति से सूर्य लोक की ओर आकर्षित कर लेता है । फलत: जीव सूर्य , चंद्र और पृथ्वी की गति के साथ स्वर्गलोक या विष्णुलोक पहुंच जाता है । यही कार्य गया - श्राद्ध करता है । एक ओर श्राद्ध कर्म जहाँ जीवों के बंधनों को खोल कर प्रेतत्व से विमुक्त करता है , वहीं दूसरी ओर विष्णुपदी जीवों को स्वर्गलोक भेजने में सक्षम होकर सहायता प्रदान करती है । 4766 वर्गमील क्षेत्रफल में विकसित मगध प्रमंडल का उत्तरी अकांक्ष 24 डिग्री 17 सेंटीग्रेड और पश्चमी देशान्तर 84 डिग्री और 86 डिग्री पर अवस्थित है । मागध प्रमंडल के उत्तर में पटना , पश्चिम में मुंगेर दक्षिण में झारखंड और पूरब में सोननदी भोजपुर जिले की दिमाओ से घिरी हुई है। मगध प्रमंडल की 1901 ई. के जनगणना के अनुसार 2061857 आवादी 7871 गाँवों में रहती थी । मगध प्रमंडल में गया , औरंगाबाद , जहानाबाद , नवादा और अरवल जिले है । मागध प्रमंडल का मुख्यालय गया भारतीय और मागधीय संस्कृति का मूल केंद्र है । 4976 वर्ग कि. मि . क्षेत्रफल का गया जिले की स्थापना 1865 ई . में हुई है । गया जिले की 2011 के जनगणना के अनुसार 43 79383 आवादी वाले 24 प्रखंडों में निवास करती है ।गया जिले के प्रमुख नदियों में फल्गु , मोरहर , सोरहर , निरंजना , मोहाना है । ऐतिहासिक तथा वैदिक पहाड़ों में ब्रह्मयोनि , कौवाडोल , डुंगेश्वरी , रामशिला , प्रेतशिला , भष्म गिरि है । प्राचीन स्थलों में बकरौर , बोधगया ,है। गया परगना की स्थापना कलेक्टर मि. ग्राहम द्वारा 1802 ई. में मुरारपुर और पहसी , रामशिला , 1808 ई. में साहेबगंज , आलमगीरपुर की गई थी । परगना गया को शेरचाँद के अधीन था। 1911 ई. में रेवेन्यू थाना गया टाउन का 11 गाँव की निगरानी के लिये कोतवाली ,सिविल लाइंस , गया मुफ़्सील में 676 गाँव पर निगरानी के लिये गया मोफसील ,बोधगया ,परैया ,वजीरगंज , शेरघाटी राजस्व थाने के 865 गाँव में शेरघाटी , गुरुआ ,इमामगंज ,डुमरिया , बाराचट्टी राजस्व थाने के 666 गाँव में बाराचट्टी , फतेहपुर , टेकरी राजस्व थाने के 435 गाँव का निगरानी के लिये टेकरी , कोच , बेला और अतरी रेवेन्यू थाने के 272 गाँव मे अतरी और खिजरसराय में पुलिस स्टेशन की स्थापना की गई थी । 1901 के जनगणना में गया जिले की जनसंख्या 751711 आवादी वाले 1909 वर्गमील में 2465 गांव , 17 पुलिस स्टेशन थे । मगध प्रमंडल का मुख्यालय गया 11.75 वर्गमील में विकसित है । गया नगरपालिका का गठन 1865 ई. में 195 मोहल्ले को शामिल कर 10 वार्डों को शामिल कर किया गया था ।ओल्ड डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर 1905 के अनुसार गया 8 वर्गमील क्षेत्रफल में फैले विरासत थी ।गया के उत्तर रामशिला , मुरली पर्वत , दक्षिण में ब्रह्मयोनि पर्वत , पूरब में कटारी पहाड़ी और पश्चिम में फल्गु नदी प्रकृति से घीरा है ।प्राचीन शहर गया को सहेबगंज व अंदर गया कहा जाता है । जर्मन रोमन कैथोलिक मिशनरी के टिफ्फेनथैलर , बुकानन हैमिल्टन , फाह्यान द्वारा 399 - 413 ई. , ची यात्री ह्वेनसांग ने 629- 645 ई. में गया का भ्रमण किया है । नायपाल का गवर्नर वज्रपाणि ने 1060 ई. और राजपूत मंत्री द्वारा 1242 ई. में गया को इंडिया का अमरावती कहा है । गया का छठी शताब्दी ई. पू. आर्य सभ्यता तथा व्रात्य सभ्यता कल्प सूत्र में वर्णित है । गया का विकास शिशुनाग , अजातशत्रु ,उदयी ,नंद ,मौर्य ,चंद्रगुप्त ,अशोक ,पुष्यमित्र ,खरवार,, गुप्त ,मौखरि ,पाल काल में हुआ था । 1197 ई. में मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी द्वारा गया का विकास अवरुद्ध किया गया था ।नेपाल का राजा का मंत्री रंजीत पांडे और 15 जनवरी 1790 ई. में मि. फ्रांसिस गिललैंडर्स द्वारा विष्णुपद का विकास किया गया ।हैमिल्टन बुकानन ने 1815 ई. में ईस्टर्न गजेटियर , थोर्टन्स गजेटियर हंटर्स गजेटियर 1877 ई. डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट गे डॉ ग्रियर्सन 1888 ई. , ओ मॉली ने गया गजेटियर का प्रकाशन 1906 ई. तथा पी .सी. राय चौधरी द्वारा बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर का प्रकाशन 1957 ई. में गया के ऐतिहासिक , सामाजिक , आर्थिक , पुरातत्विक स्थलों की उल्लेख किया गया है । गया के प्रमुख स्थलों में विष्णुपद मंदिर , मंगल गौरी , ब्रह्मयोनि , अक्षयवट , बंगला स्थान , दुखःर्णी फाटक स्थित दुखःर्णी माता मंदिर , रामशिला , विरंचि मंदिर , वागेश्वरी , रामशिला , प्रेतशिला , भैरव स्थान , पितामहेश्वर , काली स्थल , फल्गु नदी प्रमुख है । मुगल शासन में निर्मित जुम्मा मस्जिद ,है ।गया गांधी मैदान के समीप चर्च है । उदयपुर के राजा राणा सांगा के देख रेख में गया विकसित था परंतु 160 ई. में औरंगजेब द्वारा गया के शहर चाँद चौधरी को गया के 4000 विघा जागीर का मालिक बनाया गया था । शहर चाँद द्वारा दक्षिण दरवाजा ,उतर दरवाजा और पश्चिम दरवाजा का निर्माण कराया था । गया में प्रत्येक वर्ष अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक पितृपक्ष में सनातन धर्म के लोग अपनी पूर्वजो की मोक्ष और पितृऋण से मुक्ति के लिये गया श्राद्ध , पिंड देने के लिए आते है । गया परिभ्रमण 11 मई 2024 को करने के दौरान विष्णुपद मंदिर , फल्गु नदी एवं मंगलागौरी , भष्म गिरी पर्वत , आदि स्थलों का परिभ्रमण साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक , स्वंर्णिम कला केंद्र की राष्ट्रीय अध्यक्षा एवं लेखिका उषाकिरण श्रीवास्तव द्वारा किया गया ।
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