भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी राजेन्द्र प्रसाद का जन्म बिहार का सिवान जिले के जीरादेई के कायस्थ परिवार संस्कृत एवं फारसी के विद्वान महादेव सहाय की पत्नी धर्मपरायण कमलेश्वरी के पुत्र 03 दिसंबर 1884 ई.एवं पटना में 28 फरवरी 19 28 ई. में निधन हुआ था । राजेन्द्र प्रसाद ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं , भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष , भारतीय संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने भारत के पहले मंत्रिमंडल में 1946 एवं 1947 मेें कृषि और खाद्यमंत्री का दायित्व निभाया था।भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद 26 जनवरी 1950 से 14 मई1962 ई. तक राष्ट्रपति थे । राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज उत्तरप्रदेश के अमोढ़ा का कुआँगाँव निवासी थे। हथुआ की रियासत जीरादेई की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे । राजेन्द्र बाबू को प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनते थे । पाँच वर्ष की उम्र में राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेन्द्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सन् 1902 में कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। राजेन्द्र बाबू की प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास बिहार के भागलपुर में किया करते थे। राजेन्द्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरू हुई परंतु बी० ए० में हिंदी ली थी । वे अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और साहित्य से पूरी तरह परिचित थे तथा इन भाषाओं में सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान था। एम० एल० परीक्षा के लिए हिन्दू कानून का संस्कृत ग्रंथों से अध्ययन किया था। हिन्दी के प्रति उनका अगाध प्रेम था। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में भारत मित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे।1912 ई. में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मन्त्री थे। 1920 ई. में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटना में हुआ तब वे प्रधान मन्त्री थे। 1923 ई. में सम्मेलन का अधिवेशन काकीनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे परन्तु रुग्णता के कारण वे उसमें उपस्थित नही शामिल हुए लेकिन उनका भाषण जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। 1926 ई० में वे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई० में उत्तर प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिन्दी में उनकी आत्मकथा बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उन्होंने हिन्दी के 'देश' और अंग्रेजी के 'पटना लॉ वीकली' समाचार पत्र का सम्पादन किया था।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत था। चम्पारण में गान्धीजी ने तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयं सेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और 1928 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की थी । उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद,को कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने 'सर्चलाईट' और 'देश' पत्रिकाओं में इस विषय पर अनेक लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ़ में उन्होंने काफी बढ़चढ़ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था।
1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में सँभाला था। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर राजेन्द्र प्रसाद ने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांTग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े , उनके परवर्तियों के लिए उदाहरण बन गए है । भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया,। भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया था । इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा राजेन्द्र प्रसाद को डाक्टर ऑफ ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था - "बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया।"सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था - "उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।" देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद महान शिक्षाविद्, कुशल प्रशासक और देश के पहले राष्ट्रपति थे ।। राजेन्द्र बाबू का जन्म बिहार के सिवान जिले के जीरादेई में 3 दिसम्बर, 1884 को हुआ था। डॉ राजेंद्र प्रसाद 26 जनवरी 1950 से 13 मई 1962 तक राष्ट्रपति पद पर रहे। आजादी में लड़ाई मे शामिल होने से पहले वह बिहार के शीर्ष वकीलों में से एक थे। राजेंद्र प्रसाद को हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली और फारसी भाषा का ज्ञान था। कलकत्ता यूनिवर्सिटी के एंट्रेंस एग्जाम में पहला स्थान हासिल किया। इसके लिए उन्हें 30 रुपये प्रति माह की स्कॉलरशिप मिली थी। साल 1915 में राजेंद्र बाबू ने कानून में मास्टर की डिग्री विशिष्टता के साथ हासिल की और इसके लिए स्वर्ण पदक मिला था। कानून में डाक्टरेट किया। महज 13 वर्ष की उम्र में उनका विवाह राजवंशी देवी से हुआ।कानून की पढ़ाई करके वकील बने राजेंद्र प्रसाद भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और बिहार प्रदेश के एक बड़े नेता के रूप में उभर गए थे ।राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित राजेंद्र प्रसाद ने आजादी की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाई। ब्रिटिश प्रशासन ने 1931 के 'नमक सत्याग्रह' और 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान जेल में डाल दिया था। राजेंद्र प्रसाद पढ़ाई लिखाई में काफी अच्छे थे, उन्हें अच्छा स्टूडेंट माना जाता था। उनकी एग्जाम शीट को देखकर एक एग्जामिनर ने कहा था कि ‘दी स्टूडेंट एग्जामिनी इज बेटर दैन एक्जामिनर कहा था । राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष और पंडित नेहरु के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनने के बाद खाद्य एवं कृषि मंत्रालय की जिम्मेदारी थी। 17 नवंबर 1947 को जेबी कृपलानी के इस्तीफे के बाद तीसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। आजादी के बाद 26 जनवरी 1950 को भारत को गणतंत्र राष्ट्र का दर्जा मिलने के साथ राजेंद्र प्रसाद देश के प्रथम राष्ट्रपति बने। साल 1957 में वह दोबारा राष्ट्रपति चुने गए।1962 में राजेन्द्र बाबू को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया. 1962 में उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिने के बाद ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। राजेंद्र प्रसाद ने अपने जीवन के आखिरी समय में पटना के पास सदाकत आश्रम में 28 फरवरी 1963 को उनका निधन हो गया है । राजेन्द्र बाबू बिहार के गांधी और हिंदी के विकास में अभूतपूर्व कार्य याद किया जाता है ।
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