भारतीय संस्कृति के उन्नायक भारत रत्न महामना मदनमोहन मालवीय का जन्म प्रयागराज के निवासी पंडित ब्रजनाथ मालवीय की पत्नी मुना देवी के गर्भ से 25 दिसम्बर 1861 ई. को हुआ एवं 85 वर्षीय मालवीय जी का निधन 12 नवंबर 1946 ई. में हुआ था । मदनमोहन मालवीय जी भारत के पहले और अन्तिम व्यक्ति , काशी विश्वविद्यालय के प्रणेता , महामना की सम्मानजनक उपाधि से विभूषित , पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार, मातृ भाषा तथा भारतमाता की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वाले महामानव और युग का आदर्श पुरुष थे । मालवीयजी सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, देशभक्ति तथा आत्मत्याग में अद्वितीय और मृदुभाषी थे। भारतीय संसद भवन में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा मालवीय जी का तैलचित्र का विमोचन 19 दिसंबर 1957 ई. को किया गया था ।भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के पद पर 1909–10; 1918–19; 1930-1931; 1932-1933 एवं बनारस, ब्रिटिश भारत राष्ट्रीयता भारतीय राजनैतिक पार्टी हिन्दू महासभा , भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ,विद्या अर्जन , प्रयाग विश्वविद्यालय कलकत्ता विश्वविद्यालय , धर्म हिन्दू अनेक संस्थाओं के जनक एवं सफल संचालक के रूप में उनकी अपनी विधि व्यवस्था का सुचारु सम्पादन की थी । भारत सरकार ने २४ दिसम्बर २०१४ को उन्हें भारत रत्न से अलंकृत किया।[ मालवीयजी अपने माता-पिता से उत्पन्न कुल सात भाई बहनों में पाँचवें पुत्र थे। मालवीय जी का परिवार भारत के मालवा प्रान्त से प्रयाग आए थे । संस्कृत साहित्य के विद्वान एवं श्रीमद भागवत के वाचक पिता पंडित ब्रजनाथ द्वारा मदनमोहन मालवीय को पंडित की उपाधि दिया गया था । पाँच वर्ष की आयु में उन्हें उनके माँ-बाप ने संस्कृत भाषा में प्रारम्भिक शिक्षा लेने हेतु पण्डित हरदेव धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में भर्ती होने के बाद प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण के पश्चात विद्यालय में भेज दिये गये थे । प्रयाग की विद्यावर्धिनी सभा से शिक्षा पूर्ण कर इलाहाबाद के जिला स्कूल पढने के दौरान मकरन्द के उपनाम से कवितायें लिखनी प्रारम्भ की। उनकी कवितायें पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपती थीं। 1879 में म्योर सेण्ट्रल कॉलेज इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मैट्रीकुलेशन उत्तीर्ण करने के बाद हैरिसन स्कूल के प्रिंसपल ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1884 ई० में बी०ए० की उपाधि प्राप्त की थी । हृदय की महानता के कारण भारतवर्ष में 'महामना' से पूज्य मालवीयजी को संसार में सत्य, दया और न्याय पर आधारित सनातन धर्म सर्वाधिक प्रिय था। करुणामय हृदय, भूतानुकम्पा, मनुष्यमात्र में अद्वेष, शरीर, मन और वाणी के संयम, धर्म और देश के लिये सर्वस्व त्याग, उत्साह और धैर्य, नैराश्यपूर्ण परिस्थितियों में भी आत्मविश्वासपूर्वक दूसरों को असम्भव प्रतीत होने वाले कर्मों का संपादन, वेशभूषा और आचार विचार में मालवीयजी भारतीय संस्कृति के प्रतीक तथा ऋषियों के प्राणवान स्मारक थे। मालवीयजी का बचपन में अपने पितामह प्रेमधर श्रीवास्तव ने 108 दिन निरन्तर 108 बार श्रीमद्भागवत का पारायण किया था, से राधा-कृष्ण की अनन्य भक्ति, पिता ब्रजनाथजी की भागवत-कथा से धर्म-प्रचार एवं माता मूनादेवी से दुखियों की सेवा करने का स्वभाव प्राप्त हुआ था। धनहीन किन्तु निर्लोभी परिवार में पलते हुए भी देश की दरिद्रता तथा अर्थार्थी छात्रों के कष्ट निवारण के स्वभाव से उनका जीवन ओतप्रोत था। मालवीय जी ने प्रयाग की धर्म ज्ञानोपदेश तथा विद्याधर्म प्रवर्द्धिनी पाठशालाओं में संस्कृत का अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् म्योर सेंट्रल कालेज से 1884 ई० में कलकत्ता विश्वविद्यालय की बी० ए० की उपाधि ली। इस बीच अखाड़े में व्यायाम और सितार पर शास्त्रीय संगीत की शिक्षा वे बराबर देते रहे। उनका व्यायाम करने का नियम इतना अद्भुत था कि साठ वर्ष की अवस्था तक वे नियमित व्यायाम करते ही रहे। सात वर्ष के मदनमोहन को धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला के देवकीनन्दन मालवीय माघ मेले में ले जाकर मूढ़े पर खड़ा करके व्याख्यान दिलवाते थे। कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में अंग्रेजी के प्रथम भाषण से प्रतिनिधियों को मन्त्रमुग्ध कर देने वाले मृदुभाषी मालवीयजी भारत देश के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के व्याख्यान वाचस्पतियों में प्रसिद्ध हुए थे । हिन्दू धर्मोपदेश, मन्त्रदीक्षा और सनातन धर्म प्रदीप ग्रथों में परतन्त्र भारत देश की विभिन्न समस्याओं पर बड़ी कौंसिल से लेकर असंख्य सभा सम्मेलनों में दिये गये हजारों व्याख्यानों के रूप में भावी पीढ़ियों के उपयोगार्थ प्रेरणा और ज्ञान के अमित भण्डार हैं। उनके बड़ी कौंसिल में रौलट बिल के विरोध में निरन्तर साढ़े चार घण्टे और अपराध निर्मोचन इंडेमनिटी बिल पर पाँच घण्टे के भाषण निर्भयता और गम्भीरतापूर्ण दीर्घवक्तृता के लिये स्मरणीय हैं। म्योर कालेज के मानसगुरु महामहोपाध्याय पं० आदित्यराम भट्टाचार्य के साथ 1880 ई० में स्थापित हिन्दू समाज में मालवीयजी भाग लेने के दसूरण प्रयाग में वाइसराय लार्ड रिपन का आगमन हुआ। रिपन स्थानीय स्वायत्त शासन स्थापित करने के कारण भारतवासियों में जितने लोकप्रिय थे। प्रिसिपल हैरिसन के कहने पर मालवीय जी का स्वागत संगठित करके मालवीयजी ने प्रयाग वासियों के हृदय में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। कालाकाँकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह के अनुरोध पर मालवीयजी ने हिन्दी अंग्रेजी समाचार पत्र हिन्दुस्तान का 1887 से सम्पादन करके दो ढाई साल तक जनता को जगाया। उन्होंने कांग्रेस के ही एक अन्य नेता पं0 अयोध्यानाथ का उनके इण्डियन ओपीनियन के सम्पादन में हाथ बँटाया और 1907 ई0 में साप्ताहिक अभ्युदय को निकालकर सम्पादित किया। सरकार समर्थक समाचार पत्र पायोनियर के समकक्ष 1909 में दैनिक 'लीडर' अखबार निकालकर लोकमत निर्माण का महान कार्य सम्पन्न किया तथा दूसरे वर्ष मर्यादा पत्रिका भी प्रकाशित की। 1924 ई0 में दिल्ली आकर हिन्दुस्तान टाइम्स को सुव्यवस्थित किया तथा सनातन धर्म को गति प्रदान करने हेतु लाहौर से विश्वबन्द्य पत्र को प्रकाशित करवाया था ।
हिन्दी के उत्थान में मालवीय जी की भूमिका ऐतिहासिक है। भारतेंदु हरिश्चंद्र के नेतृत्व में हिन्दी गद्य के निर्माण में संलग्न मनीषियों में 'मकरंद' तथा 'झक्कड़सिंह' के उपनाम से विद्यार्थी जीवन में रसात्मक काव्य रचना के लिये ख्यातिलब्ध मालवीयजी ने देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा को पश्चिमोत्तर प्रदेश व अवध के गवर्नर सर एंटोनी मैकडोनेल के सम्मुख 1898 ई0 में विविध प्रमाण प्रस्तुत करके कचहरियों में प्रवेश दिलाया। 1910 ई. में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन काशी के अध्यक्षीय अभिभाषण में हिन्दी के स्वरूप निरूपण में मालवीय जी कहा कि "उसे फारसी-अरबी के बड़े बड़े शब्दों से लादना जैसे बुरा है, वैसे ही अकारण संस्कृत शब्दों से गूँथना भी अच्छा नहीं और भविष्यवाणी की कि एक दिन यही भाषा राष्ट्रभाषा होगी।" सम्मेलन के एक अन्य वार्षिक अधिवेशन (बम्बई-1919) के सभापति पद से उन्होंने हिन्दी उर्दू के प्रश्न को, धर्म का नहीं अपितु राष्ट्रीयता का प्रश्न बतलाते हुए उद्घोष किया कि साहित्य और देश की उन्नति अपने देश की भाषा द्वारा ही हो सकती है। समस्त देश की प्रान्तीय भाषाओं के विकास के साथ-साथ हिन्दी को अपनाने के आग्रह के साथ यह भविष्यवाणी भी की कि कोई दिन ऐसा भी आयेगा कि जिस भाँति अंग्रेजी विश्वभाषा हो रही है उसी भाँति हिन्दी का भी सर्वत्र प्रचार होगा। इस प्रकार उन्होंने हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय रूप का लक्ष्य दिया था । कांग्रेस के निर्माताओं में मालवीयजी ने द्वितीय अधिवेशन कलकत्ता-1886 से लेकर अन्तिम साँस तक स्वराज्य के लिये कठोर तप किया। एनी बेसेंट ने कहा था कि "मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि विभिन्न मतों के बीच, केवल मालवीयजी भारतीय एकता की मूर्ति बने खड़े हुए हैं।" असहयोग आन्दोलन के आरम्भ तक नरम दल के नेताओं के कांग्रेस को छोड़ देने पर मालवीयजी उसमें डटे रहे और कांग्रेस ने उन्हें चार बार सभापति निर्वाचित करके सम्मानित किया- लाहौर (1909 में), दिल्ली 1918 और 1931 तथा कलकत्ता 1933 हुए है । अन्तिम दोनों बार सत्याग्रह के कारण पहले ही गिरफ्तार कर लिये गये। स्वतन्त्रता के लिये उनकी तड़प और प्रयासों के परिचायक फैजपुर कांग्रेस (1936) में राष्ट्रीय सरकार और चुनाव प्रस्ताव के समर्थन में मालवीयजी के ये शब्द स्मरणीय हैं कि मैं पचास वर्ष से कांग्रेस के साथ हूँ। सम्भव है मैं बहुत दिन न जियूँ और अपने जी में यह कसक लेकर मरूँ कि भारत अब पराधीन है। किंतु फिर भी मैं यह आशा करता हूँ कि मैं इस भारत को स्वतन्त्र देख सकूँगा। 1921 ई0 में कांग्रेस के नेताओं ने जेल भर जाने पर किंकर्तव्यविमूढ़ वाइसराय लॉर्ड रीडिंग को प्रान्तों में स्वशासन देकर गान्धीजी से सन्धि कर लेने को मालवीयजी ने भी सहमत कर लिया था परन्तु 4 फ़रवरी 1922 के चौरीचौरा काण्ड ने इतिहास को पलट दिया। गान्धीजी ने बारदौली की कार्यकारिणी में बिना किसी से परामर्श किये सत्याग्रह को अचानक रोक दिया। इससे कांग्रेस जनों में असन्तोष फैल गया और यह खुसुरपुसुर होने लगी कि बड़ा भाई के कहने में आकर गान्धीजी ने यह भयंकर भूल की है। गान्धीजी स्वयं भी पाँच साल के लिये जेल भेज दिये गये। इसके परिणामस्वरूप चिलचिलाती धूप में इकसठ वर्ष के बूढ़े मालवीय ने पेशावर से डिब्रूगढ़ तक तूफानी दौरा करके राष्ट्रीय चेतना को जीवित रखा। इस भ्रमण में उन्होंने धारा 144 का उल्लंघन भी किया जिसे सरकार खून का घूँट समझकर पी गयी। परन्तु 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में उसी ब्रिटिश सरकार ने उन्हें बम्बई में गिरफ्तार कर लिया जिस पर श्रीयुत् भगवान दास भारतरत्न
ने कहा था कि मालवीयजी का पकड़ा जाना राष्ट्रीय यज्ञ की पूर्णाहुति समझी जानी चाहिये। उसी साल दिल्ली में अवैध घोषित कार्यसमिति की बैठक में मालवीयजी को पुन: बन्दी बनाकर नैनी जेल भेज दिया गया। यह उनकी जीवनचर्या तथा वृद्धावस्था के कारण यथार्थ में एक प्रकार की तपस्या थी। परन्तु सैद्धान्तिक मतभेद के कारण हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रिंस ऑव वेल्स का स्वागत और कांग्रेस स्वराज पार्टी के समकक्ष कांग्रेस स्वतंत्र दल व रैमजे मैकडॉनल्ड के साम्प्रदायिक निर्णय पर, जिसकी स्वीकृति को मालवीयजी ने राष्ट्रीय आत्महत्या माना था । सनातन धर्म व हिन्दूसंस्कृति की रक्षा और संवर्धन में मालवीयजी का योगदान अनन्य है। जनबल तथा मनोबल में नित्यश: क्षयशील हिन्दू जाति को विनाश से बचाने के लिये उन्होंने हिन्दू संगठन का शक्तिशाली आन्दोलन चलाया और स्वयं अनुदार सहधर्मियों के तीव्र प्रतिवाद झेलते हुए भी कलकत्ता, काशी, प्रयाग और नासिक में भंगियों को धर्मोपदेश और मन्त्रदीक्षा दी। राष्ट्रनेता मालवीयजी ने, स्वयं पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है, अपने नेतृत्वकाल में हिन्दू महासभा को राजनीतिक प्रतिक्रियावादिता से मुक्त रखा और अनेक बार धर्मों के सहअस्तित्व में अपनी आस्था को अभिव्यक्त किया है । प्रयाग के भारती भवन पुस्तकालय, मैकडोनेल यूनिवर्सिटी हिन्दू छात्रालय और मिण्टो पार्क के जन्मदाता, बाढ़, भूकम्प, सांप्रदायिक दंगों व मार्शल ला से त्रस्त दुःखियों के आँसू पोंछने वाले मालवीयजी को ऋषिकुल हरिद्वार, गोरक्षा और आयुर्वेद सम्मेलन तथा सेवा समिति, ब्वॉय स्काउट तथा अन्य कई संस्थाओं को स्थापित अथवा प्रोत्साहित करने का श्रेय प्राप्त हुआ, किन्तु उनका अक्षय-र्कीति-स्तम्भ तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उनकी विशाल बुद्धि, संकल्प, देशप्रेम, क्रियाशक्ति तथा तप और त्याग साक्षात् मूर्तिमान हैं। विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में हिन्दू समाज और संसार के हित के लिये भारत की प्राचीन सभ्यता और महत्ता की रक्षा, संस्कृत विद्या के विकास एवं पाश्चात्य विज्ञान के साथ भारत की विविध विद्याओं और कलाओं की शिक्षा को प्राथमिकता दी गयी है । मैदान मोहन मालवीय भारतीय संस्कृति के उन्नायक और राष्ट्रीय सांस्कृतिक विरासत के प्रणेता थे ।
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