मंगलवार, अप्रैल 25, 2023

अद्वैतवाद के प्रवर्तक आदि शंकराचार्य....

दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक , अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान करने वाले आदिशंकराचार्य थे । भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी टीकाएँ की रचना और  सांख्य दर्शन का प्रधानकारणवाद और मीमांसा दर्शन के ज्ञान-कर्मसमुच्चयवाद का खण्डन किया था । विभिन्न ग्रंथों  के अनुसार आदिशंकराचार्य का जन्म  केरल राज्य का चेर साम्राज्य के कालड़ी निवासी त्वष्टसार ब्राह्मण वैशाख शुक्ल पंचमी   508-9 ई . पू . तथा 32 वर्षीय शंकराचार्य की  महासमाधि केदारनाथ में  477 ई. पू .  हुई थी। आदि शंकराचार्य द्वारा ने भारतवर्ष के उत्तर में उत्तराखण्ड राज्य का चमोली जिले के  ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ,  द्वारिका शारदा पीठ और पुरी गोवर्धन पीठ की स्थापना की थी । आदिशंकराचार्य के गुरु आचार्य गोविन्द भगवत्पाद , सम्मान शिवावतार, आदिगुरु, श्रीमज्जगदगुरु, धर्मचक्रप्रवर्तक कहा गया है। आदि शंकराचार्य के विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारतवर्ष में की थी । कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरुप भगवत्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है ।
कृतयुग ( सतयुग) में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किय‍ा। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की संरचनाकर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षितकर धर्म तथा आध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य ने भाष्य , प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना कर , विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ , परकायप्रवेशकर , नारदकुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकटकर तथा प्रस्थापित कर , सुधन्वा सार्वभौम को राजसिंहासन समर्पित कर एवं चतुराम्नाय - चतुष्पीठों की स्थापना कर अहर्निश अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया था । व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र , कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म , उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामंजस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की।  शंकराचार्य ने भारत में मंदिरों और शक्तिपीठों की नील पर्वत पर स्थित चंडी देवी मंदिर , शिवालिक पर्वत श्रृंखला की पहाड़ियों के मध्य स्थित माता शाकंभरी देवी शक्तिपीठ  और शाकंभरी देवी के साथ तीन देवियां भीमा, भ्रामरी और शताक्षी देवी की प्रतिमाओं एवं  कामाक्षी देवी मंदिर  स्थापित किया  है । केरल का  कालपी में शिव भक्त ब्राह्मण शिवगुरु भट्ट की पत्नी  सुभद्रा के गर्भ से वैशाख शुक्ल पंचमी  507 ई. पू. को शंकर भट्ट  का जन्म हुआ था  । शंकर भट्ट के तीन वर्षीय शंकर भट्ट के पिता शिवगुरु भट्ट का देहांत हो गया था ।  छह वर्ष की अवस्था में  प्रकांड व8विद्वान और आठ वर्ष की अवस्था में शंकर भट्ट ने संन्यास ग्रहण किया था।  नदीकिनारे मगरमच्छ ने शंकराचार्य का पैर पकड़ लिया तब वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्यजी ने अपने माँ से कहा " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नही तो हे मगरमच्छ मुझे खा जायेगी ", इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान प्राप्त होते ही  मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया था । गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण शंकरभट्ट ने किया था । शंकरभट्ट को शंकराचार्य से अलंकृत होने के पश्चात काशी में रहेने के बाद बिहार के दरभंगा जिले का विजिलबिंदु के तालवन में मण्डन मिश्र को सपत्नीक भारती  शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण कर सनातन धर्म ,  वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया था । शकराचार्य ३२ वर्ष की अल्प आयु में सम्वत ४७७ ई . पू.में केदारनाथ के समीप शिवलोक गमन कर गए थे। भारतीय संस्कृति के विकास एवं संरक्षण में आद्य शंकराचार्य का जन्म पश्चिम के सुधन्वा चौहान के  ताम्रपत्र अभिलेख में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) सर्वमान्य है। आदिशंकराचार्य द्वारा उत्तर में युधिष्ठिर संबत 2641को उत्तराखण्ड राज्य का चमोली जिले के बद्रिकाश्रम जोशीमठ , पश्चिम में द्वारिका शारदापीठ- यु.सं. 2648 , दक्षिण शृंगेरीपीठ- यु.सं. 2648 , उड़ीसा राज्य का पूरी जिले के  पूर्व दिशा जगन्नाथपुरी गोवर्द्धनपीठ - यु.सं. 2655 में स्थापित कर आदिशंकर जी अंतिम दिनों में कांची कामकोटि पीठ 2658 यु.सं. में निवास कर रहे थे। शारदा पीठ के अनुसार "युधिष्ठिर शके 2631 वैशाखशुक्लापंचम्यां श्रीमच्ठछंकरावतार: । तदनु 2663 कार्तिकशुक्लपूर्णिमायांश्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादा…… निजदेहेनैव…… निजधाम प्राविशन्निति। अर्थात् युधिष्ठिर संवत् 2631 में वैशाखमासके शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ और युधि. सं.2663 कार्तिकशुक्ल पूर्णिमा को देहत्याग हुआ। [युधिष्ठिर संवत् 3139 B.C. में प्रवर्तित हुआ था । राजा सुधन्वा के ताम्रपत्र का लेख द्वारिकापीठके एक आचार्य ने "विमर्श"  में उल्लेख है- 'निखिलयोगिचक्रवर्त्त श्रीमच्छंकरभगवत्पादपद्मयोर्भ्र मरायमाणसुधन्वनो मम सोमवंशचूडामणियुधिष्ठिरपारम्पर् यपरिप्राप्तभारतवर्षस्यांजलिबद्धपूर्वकेयं राजन्यस्य विज्ञप्ति:………युधिष्ठिरशके 2663 आश्विन शुक्ल 15। ताम्रपत्र संस्कृतचंद्रिका (कोल्हापुर) के खण्ड 14, संख्या 2-3 के अनुसार गुजरात के राजा सर्वजित् वर्मा ने द्वारिकाशारदापीठ के प्रथम आचार्य श्री सुरेश्वराचार्य (पूर्व नाम-मंडनमिश्र) से लेकर 29वें आचार्य श्री नृसिंहाश्रम तक सभी आचार्यों का उल्लेख हैं। सर्वज्ञसदाशिवकृत "पुण्यश्लोकमंजरी" आत्मबोध द्वारा रचित "गुरुरत्नमालिका" तथा"सुषमा" के अनुसार  तिष्ये प्रयात्यनलशेवधिबाणनेत्रे, ये नन्दने दिनमणावुदगध्वभाजि




रात्रोदितेरुडुविनिर्गतमंगलग्नेत्याहूतवान् शिवगुरु: स च शंकरेति ॥ अर्थ- अनल=3 , शेवधि=निधि=9, बाण=5,नेत्र=2 , अर्थात् 3952 'अंकानां वामतोगति:' इस नियमसे अंक विपरीत क्रम से रखने पर 2593 कलिसंवत् बना है । कलिसंवत् 3102  ई.पू.. में प्रारम्भ हुआ । तदनुसार 3102-2593=509 ई.पू.में आदि शंकराचार्य जी का जन्म वर्ष निश्चित  है। कुमारिल भट्ट का , जैनग्रंथ जिनविजय के अनुसार ऋषिर्वारस्तथा पूर्ण मर्त्याक्षौ वाममेलनात्। एकीकृत्य लभेतांक:क्रोधीस्यात्तत्र वत्सर:। । भट्टाचार्यस्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिन:। ज्ञेय: प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके।। जैन लोग युधिष्ठिरसंवत् को 468 कलिसंवत् से प्रारम्भ हुआ मानते हैं। श्लोकार्थ- ऋषि=7,वार=7,पूर्ण=0, मर्त्याक्षौ=2, 7702 "अंकानांवामतोगति" 2077 युधिष्ठिर संवत् आया अर्थात् 557 B.C. कुमारिल 48 वर्ष बड़े थे => 509 B.C. श्रीशंकराचार्य जी का जन्मवर्ष है।

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