वेदों तथा स्मृतियों और पुरणो में पौधों , वृक्षों टाटा कुश का महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । कुश शांति और सुख-समृद्धि का वास होता है। सनातन धर्म संस्कृति एवं पितृपक्ष में श्राद्ध के दौरान कुशा का उपयोग जरूरी है । कुशा की अंगूठी बनाकर तीसरी उंगली में पहनी जाती है। वेदों और पुराणों में कुश घास को पवित्र माना गया है। कुश को पवित्री , कुशा, दर्भ , डाभ कहा गया है। मत्स्य पुराण के अनुसार भगवान विष्णु के वराह अवतार के शरीर से कुशा की उत्पत्ति है। कुश का उपयोग से मानसिक और शारीरिक पवित्रता होती है। पूजा-पाठ के लिए जगह पवित्र करने के लिए कुश से जल छिड़का जाता है। ग्रहण काल के दौरान खाना खराब न हो और पवित्र बना रहे, इसलिए ऐसा किया जाता है। तमिलनाडु की शास्त्र एकेडमी की रिसर्च के अनुसार कुश नेचुरल प्रिजर्वेटिव के कारण उपयोग दवाईयों में किया जाता है। अथर्ववेद, मत्स्य पुराण और महाभारत में कुशा का उल्लेख है ।अथर्ववेद में कुश उपयोग से गुस्से पर कंट्रोल और अशुभ निवारक औषधि कहा गया है। चाणक्य के अनुसार कुश का तेल निकाला जाता था और उसका उपयोग दवाई के तौर पर किया जाता था। मत्स्य पुराण में उल्लेख है कि कुश घास भगवान विष्णु के शरीर से बनी होने के कारण पवित्र मानी गई है।मत्स्य पुराण की कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध कर के पृथ्वी को स्थापित किया। उसके बाद अपने शरीर पर लगे पानी को झाड़ा तब उनके शरीर से बाल पृथ्वी पर गिरे और कुशा के रूप में बदल गए थे ।महाभारत के अनुसार, गरुड़देव स्वर्ग से अमृत कलश लेकर आए तब उन्होंने वह कलश थोड़ी देर के लिए कुशा पर रख दिया। कुशा पर अमृत कलश रखे जाने से कुशा को पवित्र माना जाने लगा। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार राहु की महादशा में कुशा वाले पानी से नहाना चाहिए। राहु के अशुभ प्रभाव से राहत मिलती है। कर्ण अपने पितरों का श्राद्ध में कुश का उपयोग किया था । कुश पहनकर किया गया श्राद्ध पितरों को तृप्त करता है।ऋग्वेद में बताया गया है कि अनुष्ठान और पूजा-पाठ के दौरान कुश के आसन का इस्तेमाल होता था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बोधि वृक्ष के नीचे बुद्ध ने कुश के आसान पर बैठकर तप किया और ज्ञान प्राप्त किया। श्री कृष्ण ने कुश के आसन को ध्यान के लिए आदर्श माना है। शरीर की ऊर्जा को जमीन में जाने से रोकने का कार्य एवं पूजा-पाठ और ध्यान के दौरान शरीर में ऊर्जा पैदा होती है। कुश के आसन पर बैठकर पूजा-पाठ और ध्यान किया जाए तो वो उर्जा पैर के जरिये जमीन में नहीं जा पाती है। इसके अलावा धार्मिक कामों में कुश की अंगूठी बनाकर तीसरी उंगली में पहनने का विधान है। आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए। रिंग फिंगर यानी अनामिका के नीचे सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश मिलता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूल से हाथ जमीन पर लग जाए, तो बीच में कुशा आ जाएगी और ऊर्जा की रक्षा होगी। इसलिए कुशा की अंगूठी बनाकर हाथ में पहनी जाती है । कुश की पत्तियाँ नुकीली, तीखी और कड़ी होती है। धार्मिक दृष्टि से यह बहुत पवित्र समझा जाता है और इसकी चटाई पर राजा लोग भी सोते थे। वैदिक साहित्य में इसका अनेक स्थलों पर उल्लेख है। अर्थवेद में इसे क्रोधशामक और अशुभनिवारक बताया गया है। आज भी नित्यनैमित्तिक धार्मिक कृत्यों और श्राद्ध आदि कर्मों में कुश का उपयोग होता है। कुश से तेल निकाला जाता था, ऐसा कौटिल्य के उल्लेख से ज्ञात होता है। भावप्रकाश के मतानुसार कुश त्रिदोषघ्न और शैत्य-गुण-विशिष्ट है। कुश की जड़ से मूत्रकृच्छ, अश्मरी, तृष्णा, वस्ति और प्रदर रोग को लाभ होता है। गरुड़ जी अपनी माता की दासत्व से मुक्ति के लिए स्वर्ग से अमृत कलश लाये थे, उसको उन्होंने कुशों पर रखा था। अमृत का संसर्ग होने से कुश को पवित्री कहा जाता है(महाभारत आदिपर्व के अध्याय 23 में जब जातक के जन्म कुंडली या लग्न कुण्डली में राहु महादशा की कुश के पानी मे ड़ालकर स्नान करने से राहु की कृपा प्राप्त होती है ।पितृपक्ष में लोग अपने पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए उन्हें तर्पण और भोग लगाते हैं। पितृपक्ष में पितरों को बिना तर्पण दिए श्राद्ध कर्म पूरा नहीं होता है। पितरों को तर्पण देने में कुश का विशेष महत्व होता है। कुशा एक प्रकार की घास होती है शास्त्रों में कुश को बहुत ही पवित्र माना गया है। हिंदू धर्म में किसी भी शुभ कार्य या धार्मिक अनुष्ठान को संपन्न करते समय कुशा का प्रयोग जरूर किया जाता है।पितृपक्ष में किए जाने वाले श्राद्ध में तिल और कुश की महत्ता इस मंत्र के द्वारा बताई गई है। जिसमें भगवान विष्णु के पसीने से तील और शरीर के रोम से कुश उत्पन्न हुए हैं। कुश का मूल ब्रह्मा, मध्य विष्णु और अग्रभाग शिव का जानना चाहिए। ये देव कुश में प्रतिष्ठित माने गए हैं। ब्राह्मण, मंत्र, कुश, अग्नि और तुलसी बार-बार प्रयोग किया जाता है ।
दर्भ मूले स्थितो ब्रह्मा मध्ये देवो जनार्दनः। दर्भाग्रे शंकरं विद्यात त्रयो देवाः कुशे स्मृताः।।
विप्रा मन्त्राः कुशा वह्निस्तुलसी च खगेश्वर। नैते निर्माल्यताम क्रियमाणाः पुनः पुनः।।
तुलसी ब्राह्मणा गावो विष्णुरेकाद्शी खग। पञ्च प्रवहणान्येव भवाब्धौ मज्ज्ताम न्रिणाम।।
विष्णु एकादशी गीता तुलसी विप्रधनेवः। आसारे दुर्ग संसारे षट्पदी मुक्तिदायनी।।
कुश को अनुष्ठान करते समय उसे अंगूठी की भांति तैयार कर हथेली की बीच वाली उंगली में पहनी जाती है। अंगुठी के अलावा कुश से पवित्र जल का छिडकाव भी किया जाता है। मानसिक और शारीरिक पवित्रता के लिए कुश का उपयोग पूजा में बहुत ही जरूरी होता है। कुश का प्रयोग ग्रहण के दौरान भी उपयोग में लाया जाता है। ग्रहण से पहले और ग्रहण के दौरान खाने-पीने की चीजों में कुश डाल कर रख दिया जाता है। ताकि खाने की चीजों की पवित्रता और उसमें किसी भी तरह के कीटाणु प्रवेश न कर सके। कुश घास को लेकर रिसर्च में भी पाया गया है कि कुश घास प्राकृतिक रूप से छोटे-छोटे कीटाणुओं को दूर करने में बहुत ही सहायक होती है। कुश एक तरह से प्यूरिफिकेशन का काम करता है। पानी में कुश रखने से छोटे- छोटे सूक्ष्म कीटाणु कुश घास के समीप एकत्रित हो जाते है ।सनातन धर्म में धार्मिक अनुष्ठान में कुश निर्मित पवित्री धारण करने का विधान है। इस लेख में हम कुश की उत्पत्ति एवं उसके महत्व के बारें मैं जानेंगे। शास्त्रों में दस प्रकार के कुशों का वर्णन मिलता है-कुशा: काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:। गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:।। मत्स्य पुराण(22/89) में ऐसा वर्णित है की कुशा भगवान् विष्णु के शरीर से उत्पन्न से उत्पन्न हुई है , इसी कारणवश कुश को अत्यन्त पवित्र हैं। उसमे उल्लेखित एक कथा के अनुसार जब भगवान् श्रीहरि ने वराह अवतार धारण किया, तब हिरण्याक्ष का वध करने के बाद जब पृथ्वी को जल से बाहर निकाला और उसको अपने निर्धारित स्थान पर स्थापित किया, उसके बाद वराह भगवान् ने भी पशु प्रवृत्ति के अनुसार अपने शरीर पर लगे जल को झाड़ा तब उंके शरीर के रोम (बाल) पृथ्वी पर गिरे और कुश के रूप में बदल गये। कुश की उत्त्पत्ति को ले करके एक मान्यता यह भी है कि जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं, तो श्री राम जी ने जल्दी से दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। यह केश ही कुशा के रूप में परिणत हो गई। शास्त्र में कहा गया है कि,“दर्भो य उग्र औषधिस्तं ते बध्नामि आयुषे”,अर्थात कुशा या दर्भ तत्काल फल देने वाली औषधि है,उसे आयु वृद्धि के निमित्त धारण करना चाहिये।मनुष्य दर्भ धारण कर कल्याण युक्त कार्य करता है,उसके बाल नहीं झड़ते और ह्रदय में आघात नहीं पहुँचता है। दर्भ दैवी गुणों से उत्पन्न एवं युक्त है,इसलिए दैवी कार्यों में दैवी वातावरण की प्राप्ति कराता है। दायें हाथ में दो कुशा से निर्मित पवित्री धारण करनी चाहिये। बायें हाथ में तीन कुशा से निर्मित पवित्री धारण करनी चाहिये। कुशा यज्ञोपवीत में,एक कुशा शिखा में और दोनो पावों के नीचे कुशा रखना चाहिये।कुशा ऋतुओं से सूर्य चन्द्रमा पृथ्वी और अंतरिक्ष से होने वाले गर्मी सर्दी आदि के प्रभाव से हाथ,पाँव और मस्तिष्क की रक्षा करता है। वैज्ञानिक भाषा में कुशा को विद्युत् प्रवाह के संक्रमण में बाधक बताया गया है,अर्थात यह बाहरी विद्युत् प्रवाह से शरीर की रक्षा करता है। शरीर के पञ्च भागों अर्थात दोनों हाथ,पाँव और मस्तिष्क की विद्युत् प्रभाव से रक्षा करता है ।सनातन धर्म में धार्मिक अनुष्ठान में कुश निर्मित पवित्री धारण करने का विधान है। कुश की उत्पत्ति वराह कल्प में भगवान विष्णु के वराह अवतार में हुआ था । स्मृतियों के अनुसार भगवान विष्णु के रोम से कुश और पसीने से तील की उत्पत्ति हुई है ।
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