वेदों , पुरणों एवं सनातन धर्म संस्कृति में पुर्वजो की याद एवं समर्पण श्रद्धा का पक्ष पितरपख का उल्लेख है । पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध करने के लिए पितृ पक्ष सहस्त्रवर्ष से प्रारंभ है । 15 दिनों का पितृपक्ष में लोग अपने पूर्वजों को याद कर उनकी आत्मा की शांति के लिए पिंडदान, तर्पण, श्राद्ध कर्म कर पूर्वजों का आशीर्वाद पाकर जिंदगी में सफलता, सुख-समृद्धि पा सकें. वहीं पूर्वजों की नाराजगी कई मुसीबतों का कारण बनती है । पितृ पक्ष विधिमत पालन करना आवश्यक है । शास्त्र के अनुसार अश्विन कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक पितृ पक्ष के 15 दिनों में पूर्वज अपने परिजनों के पास रहने के लिए धरती पर आते हैं इसलिए व्यक्ति को ऐसे काम करने चाहिए जिससे पितृ प्रसन्न रहें । सूर्यास्त के बाद पितृ श्राद्ध करना अशुभ होता है. पितृपक्ष में पितृ श्राद्ध में बुरी आदतों, नशे, तामसिक भोजन , शराब-नॉनवेज, लहसुन-प्याज का सेवन नहीं करना , लौकी, खीरा, सरसों का साग और जीरा खाना चाहिए । पूर्वजों के प्रति सम्मान दिखाते हुए सादा जीवन जिएं. शुभ काम नहीं किया जाता है । व्यक्ति पिंडदान, तर्पण आदि करने वालों को ब्रह्मचर्य का पालन एवं बाल और नाखून नहीं काटने , पशु-पक्षी को न सताएं और पशु-पक्षी को भोजन देना आवश्यक है । ब्राह्राणों को पत्तल में भोजन कराएं और खुद भी पत्तल में भोजन करें । आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ = पिता) में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धया इदं श्राद्धम् (जो श्रद्धा से किया जाये, वह श्राद्ध है।) भावार्थ यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त, आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक अर्पित करने की प्रक्रिया श्राद्ध श्राद्ध है। सनातन धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत नही कर उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष में पूर्वजों की सेवा करते हैं।आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा सूक्ष्म शरीर धारण करती है परंतु मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पितरों में सम्मिलित है। पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या परिवार यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। पुरणों , रामायण में भगवान श्री राम के द्वारा श्री दशरथ को गोदावरी नदी इन जलांजलि एवं गया में पितृपक्ष में पितृ श्राद्ध और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र किया गया है। श्रीमद भागवत एवं महाभारत के यानुसर द्वापरयुग में पांडवों द्वारा गया में अपने पूर्वजो को जलांजलि ईवा गया श्राद्ध कर पूर्वजों को तृप्त किया गया है । धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण है । पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता , माता तथा पूर्वज सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया। गया श्राद्ध के संबंध में गरुड़ पुराण , भविष्यत पुराण में उल्लेख किया गया है कि ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने है। एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति। अर्थात् अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है।दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् स्व-पितृ तर्पण भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों तक तरपान की प्रक्रिया को को पितृपक्ष कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है सकल मनोरथ सिद्ध और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष में परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने , अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने , निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। पितृ दोष से परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ , मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हैं।मत्स्य पुराण में त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन है। नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से श्राद्ध को सम्पन्न किया जाता है। नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर श्राद्ध करने वालों को नैमित्तिक श्राद्ध , एकोद्दिष्ट है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता। काम्य श्राद्ध- कामना की पूर्ति के निमित्त श्राद्ध किया जाता है। वृद्धि श्राद्ध- पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में पितरों की प्रसन्नता हेतु श्राद्ध होता है उसेवृद्धि श्राद्ध कहते हैं। नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध कहा जाता है । दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।
पार्वण श्राद्ध- पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध है। पर्वन श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है। सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं। शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। कर्मागश्राद्ध- प्रधान कर्म के अंग के रूप में श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थ श्राद्ध है। पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। ' पुणादितिथियां ,'मन्वादि तिथियां , संक्रान्तियां वैधृति योग , व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ अवसर प्राप्त होते हैं।एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध हेतु विभिन्न संप्रदायों अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए। श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए। बिहार के गयाजिले का गया में श्राद्ध तर्पण हेतु विष्णुपद मंदिर स्थान स्वयं भगवान विष्णु के चरण पितर के रूप में अमूर्तजा उपस्थित है ।गया में फल्गु नदी , ब्रह्मयोनि , प्रेतशिला , कागबलि , अक्षयवट , बोधगया , , ब्रह्मसरोवर " है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। स्वायम्भुव मनु के मन्वन्तर के कीकट प्रदेश एवं सप्तम मनु वैवस्वत मनु के मन्वन्तर में वैवस्वतमनु की पुत्री की पुत्री इला तथा वृहस्पति की पत्नी एवं चंद्रमा के संसर्ग सेउत्पन्न बुध के पुत्र मागध देश का राजा ‘गय’ भगवान विष्णु का महान भक्त था । भगवान विष्णु ने गय द्वारा गया का का निर्माण किया गया था । भगवान विष्णु द्वारा यज्ञ अवतार लेकर गयासुर के वक्षस्थल पर स्थित राह कर यज्ञ किया गया था और वरदान दिया था कि गया में रहने वाले या पूर्वजों की श्रद्धा से श्राद्ध करेगा उसे सर्वांगी सुख की प्रति तथा पितृऋण से मुक्ति मिलेगी । गया में भगवान विष्णु ने अश्विन कृष्ण प्रतिपदा को भगवान यज्ञावतार और देवों द्वारा 15 दिनों तक यज्ञ करने , पूर्वजों का श्रद्धासुमन अर्पिपत किया गया था । गया में भगवान विष्णु यज्ञावतार , ब्रह्मा जी ने यज्ञ का आह्वान , भगवान शिव , धर्मराज , यमराज , माता काली , सरस्वती , काली , सभी देव , दानव , दैत्य , नाग ,अप्सराएं , गंधर्व ऋषि , महर्षि गयासुर के वक्ष स्थल पर विष्णु यज्ञ में शामिल हुए और गयासुर को वरदान दिया कि गया में यज्ञावतार , पितरों में अमूर्तजा कई उपासना तथा श्राद्ध करने वालों को पितृऋण , गुरु , ऋषि , देव ऋण से मुक्ति मिलेगी ।गया तीर्थस्थान को श्रद्धा और आदर से "गया जी" कहा गया है। पितृपक्ष में पूर्वजों के प्रति श्रध्दा और विश्वास तथा पितृ ऋण , देव ऋण , ऋषि ऋण , पितृ दोष से मुक्ति और भुक्ति , सर्वांग सुख प्राप्ति के लिए गया श्राद्ध कर्ता सर्व प्रथम पुनपुन नदी में छौर कर्म करने के पश्चात पुनपुन नदी में पूर्वजों को जलांजलि और पिंड अर्पित करने के बाद गया श्राद्ध करने का प्रावधान है । गया में गया श्राध्द करने के बाद अपने निवास पर भंडारे में श्रीमद्भागवत का सात दिन तक श्रवण कर परिवारों , इष्ट मित्रों के साथ भोजनादि करने का प्रावधान है ।
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