सनातन धर्म की वाङ्गमय शास्त्रों में संतान की सुरक्षा एवं दीर्घायु का पर्व जीवित्पुत्रिका का उल्लेख है । जितिया निर्जला उपवास कर माताओं द्वारा अपने पुत्रों की भलाई के लिए मनाया जाता है। भारत के बिहार , झारखंड , उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल, नेपाल के पूर्वी थारू और सुदूर-पूर्वी मधेसी लोगों द्वारा मानाया जाता है । बिक्रम संवत के अश्विन माह में कृष्ण पक्ष के सातवें से नौवें चंद्र दिवस तक तीन दिन तक चलने वाला पर्व है। जिवितपुत्रिका के प्रथम दिन माताएं स्नान करने के बाद पवित्र भोजन ग्रहण करती हैं। जिवितपुत्रिका द्वितीय दिवस पर, निर्जला उपवास,और तीसरे दिन व्रत का पारन के साथ समापन होता है । जितिया को जिउतिया , जीवित्पुत्रिका , जितिया , खुर जितिया , खरजिटिया , खैरजीतिया कहा गया है । जितिया ब्रतधारी माताएं जितिया पर्व के प्रथम दिन मडुआ की रोटी , नोनी की साग , सत्पुतिया की सब्जी , कोहड़े या परोर की पत्ती का प्रयोग एवं चावल कढ़ी का प्रयोग करती है । द्वितीय दिन निर्जला रहकर कुश से निर्मित जीमूतवाहन की पूजा उपासना और समापन के दिन चावल , चने और चावल के आटे से बना तोड़ा कढ़ी , नोनी की साग , मडुआ की रोटी , सत्पुतिया की सब्जी चील्ह पक्षी और सियार को अर्पित कर माताएं अपनी पुत्र की दीर्घायु पुत्र के अनुसार चना , नोनी की साग , खरे की बीज के साथ गाय की कच्चे दूध के साथ पारण करती है । चील्ह पक्षी और मादा लोमड़ी नर्मदा नदी के समीप हिमालय के जंगल में महिलाओं को पूजा करते और उपवास करते देखने के बाद उपवास कर जितिया ब्रत की थी । उपवास के दौरान, लोमड़ी भूख के कारण बेहोश हो गई और चुपके से भोजन किया। दूसरी ओर, चील ने पूरे समर्पण के साथ व्रत का पालन किया था । परिणामस्वरूप, लोमड़ी से पैदा हुए सभी बच्चे जन्म के कुछ दिन बाद ही खत्म हो गए और चील की संतान लंबी आयु के लिए धन्य हो गई थी । गंधर्व के बुद्धिमान राज जीमूतवाहन शासक से संतुष्ट नहीं थे और परिणामस्वरूप जीमूत अपने भाइयों को अपने राज्य की जिम्मेदारियाँ दीं और अपने पिता की सेवा के लिए जंगल चले गए। जंगल में भटकते हुए जीमूतवाहन को बुढ़िया विलाप करती हुई मिली थी । जीमूतवाहन ने बुढ़िया से रोने का कारण पूछा, जिस पर उसने उसे बताया कि वह नागवंशी के परिवार से है और उसका एक बेटा है। संकल्प के रूप में, प्रत्येक दिन, नागवंशी के पुत्र को पक्षी राज गरुड़ को भोजन के लिए भेजा जाता है । उसकी समस्या सुनने के बाद, जिमुतवाहन ने उसे सांत्वना दी और वादा किया कि वह अपने बेटे को जीवित वापस ले आएगा और गरुड़ से उसकी रक्षा करेगा। जीमूतवाहन ने चारा के लिए गरुड़ को भेंट की जाने वाली चट्टानों के बिस्तर पर लेटने का फैसला करता है। गरुड़ अपनी अंगुलियों से लाल कपड़े से ढंके जिमुतवाहन को पकड़कर चट्टान पर चढ़ जाता है। गरुड़ को आश्चर्य होता है जब वह जिस व्यक्ति को फंसाता है वह प्रतिक्रिया नहीं देता है। वह जिमुतवाहन से उसकी पहचान पूछता है जिस पर वह गरुड़ को पूरे दृश्य का वर्णन करता है। गरुड़, जीमूतवाहन की वीरता और परोपकार से प्रसन्न होकर, नागवंशियों से कोई और बलिदान नहीं लेने का वादा करता है। जिमुतवाहन की बहादुरी और उदारता के कारण, नागवंशियों की दौड़ बच गई थी । बच्चों के कल्याण और लंबे जीवन के लिए उपवास मनाया जाता है।
गंधर्व राज जीमूतकेतु का पुत्र जीमूतवाहन की पत्नी मलयवती थी । कथासरित्सार के अनुसार पर्वतराज हिमालय पर कांचनपुर में विद्याधरों का राजा जीमूतकेतु का पुत्र जीमूतवाहन का जन्म आश्विन कृष्ण अष्टमी तिथि को हुआ था । कंचनपुर में कुलपरम्परा से प्राप्त, सब मनोरथों को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष की कृपा से गंधर्व राज जीमूतकेतु को जीमूतवाहन नामक परम दानी, कृपालु महापुरुष, धर्मात्मा पुत्र की प्राप्ति हुई थी । जीमूतवाहन के युवावस्था प्राप्त करने पर गंधर्वराज जीमूतकेतु ने सिंहासनारूढ़ कर तपस्या के लिए हाल दिए थे ।युवराज होने पर जीमूतवाहन ने कल्पवृक्ष के सम्बन्ध में सोचा- ''हमारे पूर्वजों ने अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के अतिरिक्त इस वृक्ष से कोई लाभ नहीं उठाया । मैं इससे अपना मनोरथ पूरा करूँगा ।'' यह विचार कर उसने कल्पवृक्ष से कहा- -''देव! मेरी एक कामना पूरी करें । मैं इस समस्त संसार को दरिद्रता से मुक्त देखना चाहता हूँ; इसलिए, भद्र, जाओ, मैं तुम्हें संसार को देता हूँ ।'' यह कहना था कि क्षण में ही कल्पवृक्ष ने आकाश में उठकर इतनी धन-वर्षा की कि पृथ्वी पर दरिद्र नही रहा था । प्राणियों पर दया दिखाने के कारण जीमूतवाहन का तीनों लोकों यश फैल गया । तब ईर्ष्या के कारण असहिष्णु हुए, उसके कुल-बन्धुओं ने जीमूतवाहन के राज्य को हथियाने के लिये युद्ध की तैयारी की । यह देखकर जीमूतवाहन ने अपने पिता को कहा-तात, आपके शस्त्र धारण करने पर किस शत्रु की शक्ति ठहर सकती है? किन्तु इस' नाशवान् पापी शरीर के लिये बन्धुओं को मारकर कौन राज्य की इच्छा करे? इसलिए कहीं अन्यत्र जाकर हम दोनों लोकों का सुख देने वाले धर्म का ही आचरण करें । राज्य के लोभी ये बन्धु-बान्धव आनन्द करें ।'' पिता ने कहा-''पुत्र, तेरे लिए ही राज्य है । यदि तू ही दया करके उसे छोड़ रहा है, तो मुझ वृद्ध को इससे क्या? '' इस प्रकार दयार्द्र होकर-जीमूतवाहन राज्य को त्याग कर मलयाचल पर चला गया, वहां आश्रम बना कर रहने लगा और माता-पिता की सेवा करने लगा । एक बार जीमूतवाहन एक मुनिपुत्र के साथ घूमता हुआ जंगल में देवि- मन्दिर देखने गया । वहाँ उसने भगवती पार्वती की आराधना के लिए आई हुई, अपनी सखियों के साथ बैठी वीणा बजाती हुई किसी सुन्दरी कन्या को देखा । कन्या उसके प्रति आकर्षित हुई । जीमूतवाहन के पूछने पर, उसकी एक सखी ने उसका नाम और वंश बताते हुए कहा-यह मित्रावसु की बहन और सिद्धराज विश्वावसु की पुत्री मलयवती है ।'' सखी के पूछने पर मुनि-पुत्र ने भी जीमूतवाहन का नाम, वंश बता दिया । दूसरी सखी जीमूतवाहन का आतिथ्य-सत्कार करती हुई उसके लिए एक पुष्पमाला लाई । उसने प्रेम में भरकर उस माला को मलयवती के गले में डाल दिया । इतने में एक दासी ने आकर कहा-''राजकुमारी, तुझे माता ने बुलाया है ।'' यह संदेश पाकर मलयवती ने अपने प्रिय जीमूतवाहन के मुख से अपनी दृष्टि को बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार हटाया और घर को चली । जीमूतवाहन उसका ही ध्यान मन में रखे अपने आश्रम में आ गया । तब से दोनों प्रेम-पाश में बन्ध गए । सिद्धराज विश्वावसु यह जानकर बड़ा प्रसन्न हुआ कि महात्मा जीमूतवाहन यहाँ मलयाचल पर आकर रह रहा है । उसने अपने पुत्र मित्रावसु को जीमूतवाहन के पिता के पास भेजकर अपनी कन्या को जीमूतवाहन के साथ मलयवती का विवाह कर दिया गया । एक दिन जीमूतवाहन अपने साले मित्रावसु के साथ मलयपर्वत से .भ्रमण करता हुआ समुद्र-वेला देखने गया । भ्रमण करने के दौरान अस्थियों का ढेर देख कर उसने मित्रावसु से पूछा-यह किन प्राणियों की .अस्थियों का ढेर है ।'' मित्रावसु ने कहा -''पक्षिराज गरुड़ द्वेष के कारण पाताल में प्रविष्ट होकर सदा नागों को खाता था । नागों खाता, कुचलता और डर के मारे अपने आप मर जाते । यह देखकर नागराज वासुकी ने सब नागों की समाप्ति की आशंका से गरुड़ को विनय- पूर्वक कहा-' 'पक्षिराज, मैं आपके आहार के लिए हर रोज एक-एक नाग को दक्षिण सागर के तट पर भेज दूंगा, आप पाताल में प्रवेश न करें । एकदम -ही सब नागों का नाश करने में आपका क्या लाभ है । '' स्वार्थदर्शी गरुड़ ने स्वीकार कर लिया । उसके बाद नित्यप्रति वासुकी द्वारा भेजे गये एक-एक नाग को खाने के कारण तथा खाए हुए नागों की ये अस्थियां काल-क्रम से संचित होने के कारण इतनी एकत्र पड़ी हैं ।''यह सुनकर दयानिधि जीमूतवाहन को बहुत दुःख हुआ । उसने मन में सोचा-यह कुटिल वासुकी कैसा है, जिसने-''मुझे ही पहले खालो' '-ऐसा न कहकर प्रतिदिन एक-एक नाग को शत्रु का आहार बनाया । और यह निर्दयी गरुड़ भी कैसा है, जो नित्य ऐसा पाप करता है । मैं आज ही अपने इस निस्सार शरीर से किसी नाग के प्राणों की रक्षा करूँ गा ।''इतने में उन दोनों को बुलाने के लिये दूत आया । ' मित्रावसु, तुम चलो । मैं पीछे आऊँगा,' ' यह कहकर और उसे घर की ओर भेजकर जब 'जीमूतवाहन स्वयं अकेला घूम रहा था तो उसने दूर से एक रोदनध्वनि सुनी । -वहां जाकर उसने देखा कि एक वृद्धा एक सुन्दर युवक के पास बैठी-है। पुत्र, शंखचूड़, मैं तुझे अब कहां देखूँगी । इस प्रकार वह विलाप कर रही थी ।' जीमूतवाहन ने शीघ्र जान लिया कि यह गरुड़ का बलि नाग है । उस दयावान्. महासत्व ने मन में कहा-''यदि इस नाशवान् देह से मैं इस दुःखी नाग को न बचाऊं मुझे धिक्कार है, मेरा जन्म निष्फल है ।'' यह विचार कर उसने वृद्धा से कहा-''माता, मत रो । मैं अपना शरीर देकर तेरे पुत्र को बचाऊँगा ।'' जीमूतवाहन के इतना कहने पर शंखचूड़ ने उसे कहा-''ऐ महात्मा, निश्चय ही आपने बड़ी कृपालुता प्रकट की है । मैं भी तो आपके शरीर के बदले अपने शरीर को बचाना नहीं चाहता । रत्न को खोकर पत्थर की कौन रक्षा करना चाहेगा । इस प्रकार मना करके वह अपनी माता को कहने लगा-' 'माता, तुम भी लौट जाओ । और जबतक वह गरुड़ नहीं आता, तब तक मैं समुद्र के तट पर जाकर भगवान् गोकर्ण को नमस्कार करके आता हूए ।'' शंखचूड़ गोकर्ण देव को प्रणाम करने के लिये चला गया । अचानक वायु की तीव्रता से वृक्षों को हिलता देखकर जीमूतवाहन ने सोचा कि गरुड़ के आगमन का समय आ गया है । वह स्वयं वध्यशिला पर चढ़ गया । शीघ्र ही अपने पंखों से आकाश को आच्छादित करता हुआ गरुड़ तेजी से आया । वह अपनी चोंच से जीमूतवाहन को पकड़ कर उठा ले गया और उसका सिर खाने' लगा । चोंच से उखाड़ने के कारण जीमूतवाहन का शिरोरत्न खून से भर गया । गरुड़ ने उसे फैंक दिया । संयोग से वह रत्न मलयवती के आगे आ गिरा । वह देखकर और सब कुछ समझकर बहुत व्याकुल हुई । उसने अपने सास-ससुर को दिखाया । पुत्र का शिरोरत्न देखकर बूढ़े मां-बाप भी आश्चर्य और शोक से भर गए । अपनी योग-विद्या से जीमूतकेतु ने सारा वृत्तान्त जान लिया, और अपनी पत्नी और पुत्र-वधू के साथ शीघ्र ही वहां पहुँच गया जहाँ गरुड़ जीमूतवाहन को खा रहा था । जब शंखचूड् गोकर्ण देव की वन्दना करके वापिस लौटा, उसने: वध्यशिला को रुधिर से भरा देखा । 'हा, महापाप हुआ है, मैं मारा गया! निश्चय ही उस दयालु महात्मा ने मेरे कारण निज को गरुड़ की भेंट चढ़ा दिया,-यह विचार कर वह बहुत दुःखी हुआ और लहू की धार का अनुसरण करता हुआ गरुड़ को ढूँढने लगा । जीमूतवाहन को हंसते-हंसते आत्मोत्सर्ग करते देखकर गरुड़ विचारने लगा-यह कोई अपूर्व प्राणी है, जौ इस प्रकार खाये जाने पर भी प्रसन्न है । यह नाग प्रतीत नहीं होता । पूछना चाहिये कि यह कौन है? '' गरुड़ को रुकते, देखकर जीमूतवाहन ने ही कहा-''पक्षीराज, खाना क्यों छोड़ दिया? अभी, मेरे शरीर पर मांस और रुधिर रहता है, इसे भी लो ।'' यह सुनकर गरूड़ ने बहुत आश्चर्य से पूछा-''तुम नाग नहीं हो, बताओ महात्मन् तुम कौन हो? '' जीमूतवाहन ने कहा 'मैं नाग ही हूँ । यह तुम्हारा कैसा प्रश्न है? तुम अपना काम करो ।'उन दोनों में यह बातचीत हो रही थी कि शंखचूड़ वहाँ आ पहुँचा । उसने दूर से ही पुकारा-''पक्षीराज, अनर्थ हो गया, मेरा अनर्थ हो गया! ?तुम्हें भी क्या भ्रम हुआ. नाग वस्तुत: मैं हूँ । क्या तुम मेरे फण और जिह्वा को नहीं देख रहे? क्या इस देवजाति विद्याधर की सौम्य-आकृति तुम्हें दिखाई नहीं देती है'' । जीमूतवाहन के माता-पिता और पत्नी भी बहुत जल्दी इसी समय आ पहुंचे । अपने पुत्रको खूनसे लत-पथ देखकर वृद्ध माता-पिता विलाप करने लगे- ही पुत्र, हा वत्स! हाय गरूड़, तू ने बिना सोचे-विचारे यह क्या किया? '' गरुड़ यह सब सुनकर बहुत दुखी हुआ । वह सोचने लगा-हा, इसकी तीनों लोकों में कीर्ति है । मोहवश मैंने इसका भक्षण कर लिया । मेरे पाप का प्रायश्चित्त मेरे अग्नि-प्रवेश से भी न होगा ।'' वह इस प्रकार विचार-मग्न था, कि घावों की पीड़ा से जीमूतवाहन के प्राण निकल गए । उसके माता-पिता भारी दुख से चिल्लाने लगे । शंखचूड़ आत्मभर्त्सना करता रहा और मलयवती - देवी गौरी को उपालम्भ देती हुई दुख प्रकट करने लगी ।. इसी समय देवी गौरी साक्षात् प्रकट हुई-''पुत्री, दुखी मत हो यह कह कर उसने अपने कमण्डल से जीमूतवाहन पर अमृत छिड़का । इससे जीमूतवाहन सम्पूर्ण अंगों सहित पहले से भी अधिक ज्योति पाकर उठ खड़ा हुआ । ' 'मैं इसे अपने ही हाथों से विद्याधरों के चक्रवर्ती राज-पद पर अभिषिक्त करूँगी' '-यह कह कर देवी ने अपने कलश के जल से उसका अभिषेक कर अन्तर्धान हो गई । आकाश से पुष्प-वृष्टि हुई, और आनन्द-ध्वनि से गगन मंडल गूँजने लगा ।तत्पश्चात् गरुड़ ने नम्रतापूर्वक जीमूतवाहन से कहा-' 'महाराज, मुझे आज्ञा करें । मुझ से वांछित वर मांगें । '' जीमूतवाहन ने कहा- '' आप नाग-भक्षण छोड़ दें और पहले: खाये हुए नाग भी जीवित हो जाये । '' गरुड़ ने 'एवमस्तु' कहा । वे नाग सब जी उठे, और गरूड़ ने नाग-भक्षण छोड़ दिया । जीमूतवाहन भगवती गौरी की कृपा से चिरकाल तक विद्याधरों का राजा रहे है ।
विक्रम पंचांग के अनुसार, आश्विन मास कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि मंगलवार 2078 दिनांक 28 सितंबर 2021 समय शाम 06 बजकर 16 मिनट से अष्टमी तिथि प्रारम्भ हो कर दिनांक 29 सितंबर 2021 बुधवार को समय रात्रि 08 बजकर 29 मिनट तक रहेगी और 08 बजकर 30 मिनट रात्रि से नवमी तिथि प्रारम्भ होकर दिनांक 30 सितंबर 2021 को समाप्त होगी । जीवित्पुत्रिका व्रतधारी माताएं संतान प्राप्ति , लंबी आयु एवं संतान की खुशहाली के लिए निराहार और निर्जला व्रत रखती हैं । जीवित्पुत्रिका व्रत 28 सितंबर को नहाए खाए के साथ प्रारम्भ होगा । 29 सितंबर को पूरे दिन निर्जला व्रत रखा जाएगा और 30 सितंबर को व्रत का पारण किया जाएगा । भविष्य पुराण , गरुड़पुराण एवं महाभारत के अनुसार जीवित्पुत्रिका व्रत को करने से संतान के सभी कष्ट दूर होते हैं । महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पुण्य कर्मों को अर्जित करके उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को जीवनदान दिया था । जीतिया ब्रती स्नान करने के बाद सूर्य नारायण की प्रतिमा को स्नान कराएं. धूप, दीप से आरती करें और इसके बाद भोग लगाने के बाद माताएं सप्तमी को खाना और जल ग्रहण कर व्रत की प्रारम्भ करती हैं । अष्टमी तिथि को पूरे दिन निर्जला व्रत रखने के बाद नवमी तिथि को व्रत का समापन किया जाता है । गन्धर्वराज जीमूतवाहन बड़े धर्मात्मा और त्यागी पुरुष थे. युवाकाल में ही राजपाट छोड़कर वन में पिता की सेवा करने चले गए थे । एक दिन भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन ने नागमाता के विलाप करने का कारण पूछा था । नागमाता ने बताया कि नागवंश गरुड़ से काफी परेशान है । वंश की रक्षा करने के लिए वंश ने गरुड़ से समझौता किया है कि वे प्रतिदिन उसे एक नाग खाने के लिए देंगे और इसके बदले वो हमारा सामूहिक शिकार नहीं करेगा । इस प्रक्रिया में आज उसके पुत्र को गरुड़ के सामने जाना है । नागमाता की पूरी बात सुनकर जीमूतवाहन ने उन्हें वचन दिया कि वे उनके पुत्र को कुछ नहीं होने देंगे और उसकी जगह कपड़े में लिपटकर खुद गरुड़ के सामने उस शिला पर लेट जाएंगे, जहां से गरुड़ अपना आहार उठाता है और उन्होंने ऐसा ही किया । गरुड़ ने जीमूतवाहन को अपने पंजों में दबाकर पहाड़ की तरफ उड़ चला । जब गरुड़ ने देखा कि हमेशा की तरह नाग चिल्लाने और रोने की जगह शांत है । उसने कपड़ा हटाकर जीमूतवाहन को पाया । जीमूतवाहन ने सारी कहानी गरुड़ को बता दी, जिसके बाद गरुड़ ने जीमूतवाहन को छोड़ दिया और नागों को न खाने का वचन दिया है । गरुड़ द्वारा अमृत से मरे हुए नागवंशियों को जीवित कर दिया गया था ।
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