रविवार, अक्तूबर 31, 2021

जीवन का मूल्यांकनकर्ता भगवान चित्रगुप्त...


मानवीय कार्यों का मूल्रायांकन करने वाले चित्रगुप्त की पूजा की जाती है।  स्वर्ग में श्री धर्मराज का लेखा-जोखा रखने वाले श्री चित्रगुप्त जी का पूजन सामूहिक रूप से तस्वीरों अथवा मूर्तियों के माध्यम से करते हैं। कार्तिक शुक्ल द्वितीया को  चित्रगुप्त पूजा मनाया जाता है।  प्राणी धरती पर जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है । विधि के इस विधान से स्वयं भगवान भी नहीं बच पाये और मृत्यु की गोद में उन्हें भी सोना पड़ा। चाहे भगवान राम हों, कृष्ण हों, बुध और जैन सभी को निश्चित समय पर पृथ्वी लोक आ त्याग करना पड़ता है। मृत्युपरान्त क्या होता है और जीवन से पहले क्या है यह एक ऐसा रहस्य है जिसे कोई नहीं सुलझा सकता।  वेदों एवं पुराणों और ऋषि मुनियों के अनुसार मृत्युलोक के ऊपर एक दिव्य लोक है जहां न जीवन का हर्ष है और न मृत्यु का शोक वह लोक जीवन मृत्यु से परे है। दिव्य लोक में देवताओं का निवास है और फिर उनसे भी ऊपर विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक है। जीवात्मा जब अपने प्राप्त शरीर के कर्मों के अनुसार विभिन्न लोकों को जाता है। जो जीवात्मा विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक में स्थान पा जाता है उन्हें जीवन चक्र में आवागमन यानी जन्म मरण से मुक्ति मिल जाती है और वे ब्रह्म में विलीन हो जाता हैं अर्थात आत्मा परमात्मा से मिलकर परमलक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। जीवात्मा कर्म बंधन में फंसकर पाप कर्म से दूषित हो जाता हैं उन्हें यमलोक जाना पड़ता है। मृत्यु काल में इन्हे आपने साथ ले जाने के लिए यमलोक से यमदूत आते हैं जिन्हें देखकर ये जीवात्मा कांप उठता है रोने लगता है परंतु दूत बड़ी निर्ममता से उन्हें बांध कर घसीटते हुए यमलोक ले जाते हैं। इन आत्माओं को यमदूत भयंकर कष्ट देते हैं और ले जाकर यमराज के समक्ष खड़ा कर देते हैं। इसी प्रकार की बहुत सी बातें गरूड़ पुराण में वर्णित है।यमराज के दरवार में उस जीवात्मा के कर्मों का लेखा जोखा होता है। कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले  भगवान चित्रगुप्त जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवों के सभी कर्मों को अपनी पुस्तक में लिखते रहते हैं और जब जीवात्मा मृत्यु के पश्चात यमराज के समझ पहुचता है । उनके कर्मों को एक एक कर सुनाते हैं और उन्हें अपने कर्मों के अनुसार क्रूर नर्क में भेज देते हैं। भगवान चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न हुए हैं और यमराज के सहयोगी हैं। इनकी कथा इस प्रकार है कि सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से जब भगवान विष्णु ने अपनी योग माया से सृष्टि की कल्पना की तो उनकी नाभि से एक कमल निकला जिस पर एक पुरूष आसीन था चुंकि इनकी उत्पत्ति ब्रह्माण्ड की रचना और सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से हुआ था अत: ये ब्रह्मा कहलाये। इन्होंने सृष्ट की रचना के क्रम में देव-असुर, गंधर्व, अप्सरा, स्त्री-पुरूष पशु-पक्षी को जन्म दिया। इसी क्रम में यमराज का भी जन्म हुआ जिन्हें धर्मराज की संज्ञा प्राप्त हुई थी ।  धर्मानुसार यमराज को जीवों  को सजा देने का कार्य प्राप्त हुआ था। धर्मराज ने जब एक योग्य सहयोगी की मांग ब्रह्मा जी से की तो ब्रह्मा जी ध्यानलीन हो गये और एक हजार वर्ष की तपस्या के  ब्रह्मा जी की काया से चित्रगुप्त का अवतरण  हुआ था ।  चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल है। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलती है। कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है।  यमराज और चित्रगुप्त की पूजा एवं उनसे अपने बुरे कर्मों के लिए क्षमा मांगने से नरक का फल भोगना नहीं पड़ता है। इस संदर्भ में एक कथा का यहां उल्लेखनीय है। सौराष्ट्र के राजा  सौदास अधर्मी और पाप कर्म करने वाला था। राजा ने कभी को पुण्य का काम नहीं किया था। एक बार शिकार खेलते समय जंगल में भटक गया। वहां उन्हें एक ब्रह्मण दिखा जो पूजा कर रहे थे। राजा उत्सुकतावश ब्रह्ममण के समीप गया और उनसे पूछा कि यहां आप किनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मण ने कहा आज कार्तिक शुक्ल द्वितीया है इस दिन मैं यमराज और चित्रगुप्त महाराज की पूजा कर रहा हूं। इनकी पूजा नरक से मुक्ति प्रदान करने वाली है। राजा ने तब पूजा का विधान पूछकर वहीं चित्रगुप्त और यमराज की पूजा की। काल की गति से एक दिन यमदूत राजा के प्राण लेने आ गये। दूत राजा की आत्मा को जंजीरों में बांधकर घसीटते हुए ले गये। लहुलुहान राजा यमराज के दरबार में जब पहुंचा तब चित्रगुप्त ने राजा के कर्मों की पुस्तिका खोली और कहा कि हे यमराज यूं तो यह राजा बड़ा ही पापी है इसने सदा पाप कर्म ही किए हैं परंतु इसने कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को हमारा और आपका व्रत पूजन किया है अत: इसके पाप कट गये हैं और अब इसे धर्मानुसार नरक नहीं भेजा जा सकता। इस प्रकार राजा को नरक से मुक्ति मिल गयी। भारतवर्ष में भगवान चित्रगुप्त जी के अनेक मंदिर हैं  । मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले के अंकपात में भगवान चित्रगुप्त शिला मंदिर  -  श्री चित्रगुप्त जी का प्रादुर्भाव, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को, पौराणिक अवनितका अथवा उज्जयिनी के अंक-पात क्षेत्र में हुआ था। यहीं पर उन्होंने देव गुरु बृहस्पति तथा दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य से सभी शिक्षायें प्राप्त करके, धर्मराज के सहायक का पदभार ग्रहण किया था। पदमपुराण के सृषिट खंड में आख्यान है कि सृषिट की रचना के समय उत्पन्न तमाम जीवधारियों के कर्मानुसार फल देने का दायित्व,   यम को धर्मराज की उपाधि से विभूषित किया गया था । उज्जैन, जहा सिंहस्थ सूर्य के कुम्भ के आयोजन के लिये जाना जाता है, वहीं शिव के चौदह ज्योतिर्लिगों में से एक महाकालेश्वर (महाकाल) के पावन मंदिर के लिये,  महत्वपूर्ण स्थान भी रखता है। उत्तर वैदिक और पौराणिक इतिहास में दक्षिणा के पथ पर सिथत होने के कारण उज्जैन एक प्राचीन व्यापारिक केन्द्र के रुप में भी प्रसिद्व था। क्षिप्रा नदी के तट पर सिथत, अवनितका अथवा उज्जयिनी हैै। पुराणों में एक पवित्र मोक्षदाता तीर्थ बताया गया है और अंकपात क्षेत्र, जहा चित्रगुप्त जी ने तपस्या करके सर्वज्ञता की थी, उज्जैन नगर से लगभग 12 किमी. उत्तर दिशा में सिथत है। सन 1985 र्इ. में क्षिप्रा नदी के किनारे, इसी अंकपात के वन क्षेत्र में एक चौकोर शिला स्थापित थी जिसके एक ओर संभवत: धर्मराजजी और दूसरी ओर श्री चित्रगुप्त जी के चित्र उकेरे हुए थे।‘चित्रगुप्त शिला’ पर एक मंदिर का निर्माण कार्य बैसाख मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को कराया था, जो अब ”श्री चित्रगुप्त शिला मंदिर” कहा जाता है । श्री धर्महरि चित्रगुप्त मंदिर सरजु  नदी के दक्षिण, नयाघाट से फैजाबाद, राजमार्ग पर सिथत तुलसी उद्यान से लगभग 500 मीटर पूर्व दिशा में, डेरा बीबी मोहल्ले में, बेतिया राज्य के मंदिर के निकट है। वैसे नयाघाट से मंदिर की सीधी दूरी लगभग एक किमी. होगी। पौराणिक गाथाओं के अनुसार, स्वंय भगवान विष्णु ने इस मंदिर की स्थापना की थी और धर्मराज जी को दिये गये वरदान के फलस्वरुप ही धर्मराज जी के साथ इनका नाम जोड़ कर इस मंदिर को ‘श्री धर्म-हरि मंदिर’ का नाम दिया है। श्री अयोध्या महात्मय में भी इसे श्री धर्म हरि मंदिर कहा गया है। किवदंति है कि विवाह के बाद जनकपुर से वापिस आने पर श्रीराम-सीता ने सर्वप्रथम धर्महरि जी के ही दर्शन किये थे। धार्मिक मान्यता है कि अयोध्या आने वाले सभी तीर्थयात्रियों को अनिवार्यत: श्री धर्म-हरि जी के दर्शन करना चाहिये, अन्यथा उसे इस तीर्थ यात्रा का पुण्यफल प्राप्त नहीं होता। अयोध्या के इतिहास में उल्लेख है कि सरयू के जल प्रलय से अयोध्या नगरी पूर्णतया नष्ट हो गर्इ थी और विक्रमी संवत के प्रवर्तक सम्राट विक्रमादित्य ने जब अयोध्या नगरी की पुनस्र्थापना की तो सर्वप्रथम श्री धर्म हरि जी के मंदिर की स्थापना करार्इ थी। सन 1882 में अयोध्या के चित्रगुपत मंदिर को चित्रगुत धाम की स्थापना की गई है । . तमिलनाडु के कांचीपुरम (पौराणिक कांचीपुरी) का श्री चित्रगुप्त स्वामी मंदिर :- दक्षिण भारत के तमिलग्रन्थ करणीगर पुराणम के साथ ही ”विष्णु धर्मोत्तर पुराण” में भी श्री चित्रगुप्त स्वामी के नाम से ज्ञात श्री चित्रगुप्त वशंज माने गये ”करुणीगर कायस्थों” का उल्लेख मिलता है। इन्हीं श्री चित्रगुप्त स्वामी का एक भव्य मंदिर, मंदिरों की नगरी काचीपुरम में नगर के मध्य में सिथत है। दक्षिण भारत के तमिल क्षेत्र में इन करणीगरों की मान्यता वैसी ही है जैसी उत्तर भारत के बारह चित्रगुप्तवंशी कायस्थों की। परन्तु, ”करुणीगर पुराणम” के अनुसार श्री चित्रगुप्त स्वामी एक नीला देवी से भगवान सूर्य के पुत्र हैं। श्री चित्रगुप्त स्वामी का मंदिर, काचीपुरम नगर के मध्य में, श्री रामकृष्ण आश्रम से लगभग एक फलाग की दूरी पर एक ऊचे चबूतरे पर सिथत है। यह चबूतरा इतना ऊचा है कि कोर्इ भी दर्शनार्थी नीचे खड़े होकर, मंदिर के गर्भगृह में स्थापित मूर्ति के दर्शन नहीं कर सकता, उसे चबूतरे पर ऊपर चढ़ने के बाद ही श्री चित्रगुप्त स्वामी के दर्शन प्राप्त हो सकते हैं। मंदिर का स्थापत्य बहुत सुन्दर, भव्य और गरिमामय है। मंदिर के गर्भ गृह में, हाथों में कलम दवात लिये हुये भगवान चित्रगुप्त स्वामी के साथ ही देवी कार्नकी की कास्य प्रतिमा स्थापित है। . बिहार के पटना सिटी के दीवान मोहल्ले में, नौजरघाट सिथत ”श्री चित्रगुप्त आदि मंदिर पटना” मगघ की प्राचीन राजधानी पाटलिपुत्र तथा बिहार राज्य के आधुनिक मुख्यालय पटना में, पतित पावनी गंगा के तट पर, दीवान मोहल्ला के नौजरघाट पर सिथत इस ऐतिहासिक चित्रगुप्त मंदिर को पटना के कायस्थों ने श्री चित्रगुप्त आदि की संज्ञा क्यों दी ? यह स्पष्ट नहीं किया गया है। बताया जाता है कि सर्वप्रथम इस मंदिर का निर्माण, नंद वंश के अंतिम मगध सम्राट धनानन्द ने इतिहास प्रसिद्व महामंत्री, चित्रगुप्तवंशी ”राक्षस” ने र्इसा पूर्व कराया था। यह भी कहा जाता है कि इस मंदिर का पुर्ननिर्माण, मुगल सम्राट के नौरत्नों में से एक और वर्तमान जिला औरंगाबाद के मूल निवासी और इतिहास प्रसिद्व शेरशाह सूरी के भी मत्री रह चुके, राजा टोडरमल तथा उनके नायब रहे कुवर किशोर बहादुर ने करवाकर, कसौटी पत्थर की भगवान चित्रगुप्तजी की मूर्ति, हिजरी सन 980 तदानुसार र्इसवीं सन 1574 में स्थापित करार्इ थी। र्इसवीं सन 1766 में राजा सिताबराय ने मंदिर के चारों ओर की भूमि, मंदिर के नाम करवाकर चारदीवारी बनवार्इ थी। बाद में राजा सिताबराय के पौत्र, महाराज भूपनारायण सिंहं ने, जयपुर से मंगवाये गये, नक्काशीदार पत्थरों से मंदिर को भव्यता प्रदान की थी। परन्तु देख-रेख के अभाव में, मंदिर जीर्ण-शीर्ण ही नहीं हो गया, वरन मंदिर में स्थापित कसौटी पत्थर की मूर्ति तस्करों द्वारा चुरा ली गर्इ थी। तत्पश्चात संवत 2019, तदानुसार र्इसवीं सन 1962 में, पटना सिटी निवासी, चित्रगुप्तवंशी राजा रामनारायण वंशज राय मथुरा प्रसाद जी ने मंदिर में, स्फटिक पत्थर की मूर्ति स्थापित करवाकर, मंदिर को मंदिर की प्रतिष्ठा दिलार्इ थी। यही मूर्ति 11.11.2007 तक इस मंदिर में शोभायमान थी। इस मंदिर में एक शिव मंदिर भी है। अव्यवस्था के कारण अराजक तत्वों ने उपेक्षित मंदिर परिसर पर अवैध कब्जा करके परिसर को बहुत छोटा कर दिया था। बिहार के पटना में राजा टोडरमल द्वारा कसौटी पत्थर की भगवान चित्रगुप्त जी की गई  थी । भाईदूज के दिन श्री चित्रगुप्त जयंती पर  कलम-दवात पूजा (कलम, स्याही और तलवार पूजा) करते हैं जिसमें पेन, कागज और पुस्तकों की पूजा होती है। यह वह दिन है, जब भगवान श्री चित्रगुप्त का उद्भव ब्रह्माजी के द्वारा हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि चित्रगुप्त के अम्बष्ट, माथुर तथा गौड़ आदि नाम से कुल 12 पुत्र माने गए हैं। मतांतर से चित्रगुप्त के पिता मित्त नामक कायस्थ थे। इनकी बहन का नाम चित्रा था। पिता के देहावसान के उपरांत प्रभास क्षेत्र में जाकर सूर्य की तपस्या की जिसके फल से इन्हें ज्ञान हुआ। वर्तमान समय में कायस्थ जाति के लोग चित्रगुप्त के ही वंशज कहे जाते हैं। कश्मीर में दुर्लभ बर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ वंश, गुजरात में बल्लभी कायस्थ राजवंश, दक्षिण में चालुक्य कायस्थ राजवंश, उत्तर भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश तथा मध्यभारत में सतवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश सत्ता में रहे हैं। कायस्थों को मूलत: 12 उपवर्गों में विभाजित किया गया है। यह 12 वर्ग श्री चित्रगुप्त की पत्नियों देवी शोभावती और देवी नंदिनी के 12 सुपुत्रों के वंश के आधार पर है। भानु, विभानु, विश्वभानु, वीर्यभानु, चारु, सुचारु, चित्र (चित्राख्य), मतिभान (हस्तीवर्ण), हिमवान (हिमवर्ण), चित्रचारु, चित्रचरण और अतीन्द्रिय ।पुत्रों के वंश अनुसार कायस्थ की 12 शाखाएं हो गईं- श्रीवास्तव, सूर्यध्वज, वाल्मीकि, अष्ठाना, माथुर, गौड़, भटनागर, सक्सेना, अम्बष्ठ, निगम, कर्ण और कुलश्रेष्ठ। श्री चित्रगुप्तजी के 12 पुत्रों का विवाह नागराज वासुकि की 12 कन्याओं से हुआ जिससे कि कायस्थों की ननिहाल नागवंशी मानी जाती है। माता नंदिनी के 4 पुत्र कश्मीर में जाकर बसे तथा ऐरावती एवं शोभावती के 8 पुत्र गौड़ देश के आसपास बिहार, ओडिशा तथा बंगाल में जा बसे। बंगाल उस समय गौड़ देश कहलाता था।
                                  भगवान चित्रगुप्त मन्दिर

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