शनिवार, अक्तूबर 16, 2021

दश महाविद्या की प्राप्ति का द्योतक विजयादशमी...


जीवन के चतुर्दिक विकास का महानतम दशहरा दस पापों को हरनेवाला, दस शक्तियों को विकसित करनेवाला, दसों दिशाओं में मंगल करनेवाला और दस प्रकार की विजय देनेवाला  है । अधर्म पर धर्म की विजय, असत्य पर सत्य की विजय, दुराचार पर सदाचार की विजय, बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता की विजय, अन्याय पर न्याय की विजय, तमोगुण पर सत्त्वगुण की विजय, दुष्कर्म पर सत्कर्म की विजय, भोग-वासना पर संयम की विजय, आसुरी तत्त्वों पर दैवी तत्त्वों की विजय, जीवत्व पर शिवत्व की और पशुत्व पर मानवता की विजय का पर्व है। त्रेतायुग में  भगवान श्री राम के पूर्वज अयोध्या के राजा रघु ने विश्वजीत यज्ञ में संपत्ति दान कर पर्णकुटी में रहने लगे। यज्ञ में ब्राह्मण   कौत्स ने राजा रघु को बताया कि अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देने के लिए 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की आवश्यकता है । ब्राह्मण वत्स को दक्षिणा के लिए राजा रघु द्वारा धन का स्वामी  कुबेर पर आक्रमण करने के लिए तैयार हो गए। डरकर कुबेर राजा रघु की शरण में आए तथा उन्होंने अश्मंतक एवं शमी के वृक्षों पर स्वर्णमुद्राओं की वर्षा की। उनमें से कौत्स ने केवल 14 करोड़ स्वर्णमुद्राएं ली थी । स्वर्णमुद्राएं कौत्स ने नहीं ली, वह सब राजा रघु ने आश्विन शुक्ल दशमी को बचे स्वर्णमुद्राएँ बांट दी । दशहरे के दिन एक दूसरे को सोने के रूप में लोग अश्मंतक के पत्ते देते हैं। त्रेतायुग में प्रभु श्री राम ने रावण वध के लिए प्रस्थान किया था। श्री रामचंद्र ने रावण पर विजयप्राप्ति की, रावण का वध अश्विन शुक्ल दशमी  को किया। ‘विजयादशमी’ का नाम प्राप्त हुआ। तब से असत्य पर सत्य, अधर्म पर धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। द्वापरयुग में अज्ञातवास समाप्त होते ही, पांडवों ने शक्तिपूजन कर शमी के वृक्ष में रखे अपने शस्त्र पुनः हाथों में लिए एवं विराट की गायें चुराने वाली कौरव सेना पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की थी । दशहरे में इष्टमित्रों को सोना अश्मंतक के पत्ते के रूप में देने की प्रथा महाराष्ट्र में है। मराठा वीर शत्रु के देश पर मुहिम चलाकर उनका प्रदेश लूटकर सोने-चांदी की संपत्ति घर लाते थे। जब ये विजयी वीर अथवा सिपाही मुहिम से लौटते, तब उनकी पत्नी अथवा बहन द्वार पर उनकी आरती उतारती फिर परदेश से लूटकर लाई संपत्ति की एक-दो मुद्रा वे आरती की थाली में डालते थे। घर लौटने पर लाई हुई संपत्ति को वे भगवान के समक्ष रखते थे तदुपरांत देवता तथा अपने बुजुर्गों को नमस्कार कर उनका आशीर्वाद लेते थे। वर्तमान काल में इस घटना की स्मृति अश्मंतक के पत्तों को सोने के रूप में बांटने के रूप में शेष रह गई है। नवरात्रि में घटस्थापना के दिन कलश के स्थंडिल (वेदी) पर नौ प्रकार के अनाज बोते हैं एवं दशहरे के दिन उनके अंकुरों को निकालकर देवता को चढ़ाते हैं। अनेक स्थानों पर अनाज की बालियां तोड़कर प्रवेशद्वार पर उन्हें बंदनवार के समान बांधते हैं। यह प्रथा भी इस त्यौहार का कृषि संबंधी स्वरूप ही व्यक्त करती है। शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीनकाल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे।
 अपनी सीमा के पार जाकर औरंगजेब के दाँत खट्टेे करने के लिए शिवाजी ने दशहरे का दिन चुना था। दशहरे के दिन वीरतापूर्ण काम करनेवाला सफल होता है। दशहरे  दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। दशहरे की सूर्यास्त होने से लेकर आकाश में तारे उदय होने तक का समय सर्व सिद्धिदायी विजयकाल है। दशहरा पर्व व्यक्ति में क्षात्रभाव का संवर्धन एवं शस्त्रों का पूजन क्षात्रतेज कार्यशील करने के प्रतीकस्वरूप किया जाता है। इस दिन शस्त्रपूजन कर देवताओं की मारक शक्ति का आवाहन किया जाता है।जीवन में नित्य उपयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं का शस्त्र के रूप में पूजन करता है। किसान एवं कारीगर अपने उपकरणोें एवं शस्त्रों की पूजा करते हैं। लेखनी व पुस्तक, विद्यार्थियों के शस्त्र ही हैं इसलिए विद्यार्थी उनका पूजन करते हैं। “दश हरति इति दशहरा”। ‘दश’ कर्म उपपद होने पर ‘हृञ् हरणे’ धातु से “हरतेरनुद्यमनेऽच्” (३.२.९) सूत्र से ‘अच्’ प्रत्यय होकर ‘दश + हृ + अच्’ हुआ, अनुबन्धलोप होकर ‘दश + हृ + अ’, “सार्वधातुकार्धधातुकयोः” (७.३.८४) से गुण और ‘उरण् रपरः’ (१.१.५१) से रपरत्व होकर ‘दश + हर् + अ’ से ‘दशहर’ शब्द बना और स्त्रीत्व की विवक्षा में ‘अजाद्यतष्टाप्‌’ से ‘टाप्’ (आ) प्रत्यय होकर ‘दशहर + आ’ = ‘दशहरा’ शब्द बना है ।‘स्कन्द पुराण’ ‘गङ्गास्तुति’ के अनुसार ‘दशहरा’ दस पापों का हरण करने वाली है । स्कन्द  पुराण के अनुसार ये दस पाप में “अदत्तानामुपादानम्” अर्थात् जो वस्तु न दी गयी हो उसे अपने लिये ले लेना , “हिंसा चैवाविधानतः” अर्थात् ऐसी अनुचित हिंसा करना जिसका विधान न हो , “परदारोपसेवा च” अर्थात् परस्त्रीगमन , “कायिकं त्रिविधं स्मृतम्” अर्थात् तीन शरीर-संबन्धी पाप में “पारुष्यम्” अर्थात् कठोर शब्द या दुर्वचन कहना , अनृतम् चैव” अर्थात् असत्य कहना ,पैशुन्यं चापि सर्वशः” अर्थात् सब-ओर कान भरना , “असम्बद्धप्रलापश्च” अर्थात् ऐसा प्रलाप करना , “वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्” अर्थात् चार वाणी-संबन्धी पाप में “परद्रव्येष्वभिध्यानम्” अर्थात् दूसरे के धन का  चिन्तन करना , “मनसानिष्टचिन्तनम्” अर्थात् मन के द्वारा किसी के अनिष्ट का चिन्तन करना , वितथाभिनिवेशश्च” अर्थात् असत्य का निश्चय करना, झूठ में मन को लगाए रखना , “मानसं त्रिविधं स्मृतम्” अर्थात् तीन मन-संबन्धी पाप हैं। दस पापों का हरण करने के कारण ,   यद्वा ‘दश रावणशिरांसि रामबाणैः हारयति इति दशहरा’ तिथि रावण के दस सिरों का श्रीराम के बाणों द्वारा हरण करने के कारण दशहरा है।
विजया-दशमी या दशहारा में शक्ति के १० रूप शक्ति की पूजा है। क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः शब्दस्य अर्थः भुवनेषु रूढः। (रघुवंश, २/५३) । वेद में १० आयाम के विश्व का वर्णन है अतः दश, दशा, दिशा-ये समान शब्द हैं। १० आयाम कई प्रकार से हैं- ५ तन्मात्रा = भौतिक विज्ञान में माप की ५ मूल इकाइयां। इनके सीमित और अनन्त रूप ५-५ प्रकार के हैं। आकाश के ३ आयाम, पदार्थ, काल, चेतना या चिति, ऋषि (रस्सी-दो पदार्थों में सम्बन्ध), वृत्र या नाग (गोल आवरण), रन्ध्र (घनत्व में कमी-बेशी, आनन्द या रस। ३ गुणों (सत्व, रज, तम) के १० प्रकार के समन्वय-क, ख, ग,कख, खक, कग, गक, खग, गख, कखग। महाविद्या-१० आयाम की तरह १० महा-विद्या हैं, जो ५ जोड़े हैं-काली-काला रंग, तारा-श्वेत। त्रिपुरा के २ रूप-सुन्दरी, भैरवी (शान्त, उग्र)। कमला-विष्णु-पत्नी, स्थायी सम्पत्ति, युवती, सुन्दर, रोहिणी नक्षत्र, इन्द्र-लक्ष्मी-कुबेर धूमावती-विधवा, चञ्चल-दुष्ट, वृद्धा, कुरूप, ज्येष्ठा नक्षत्र, वरुण-अलक्ष्मी-यम। भुवनेश्वरी भुवन का निर्माण करती है, छिन्नमस्ता काटती है।मातङ्गी वाणी को निकालती है, बगलामुखी (वल्गा = लगाम) रोकती है।महाविद्या के आयाम हैं-तारा-शून्य विन्दु, इसकी दिशा रेखा रूप में प्रथम आयाम।भैरवी-उग्र रूप-सतह रूप में दूसरा आयाम। त्रिपुरा-३ आयाम।भुवनेश्वरी-भुवन का निर्माण-४ मुख के ब्रह्मा की तरह।काली-काल रूप में ५वां आयाम। परिवर्तन का आभास काल है।कमला-विष्णु चेतना रूप में ६ठा आयाम, उनकी पत्नी। बगलामुखी-वल्गा, रस्सी, एक रोकता है, दूसरा जोड़ता है।मातङ्गी=हाथी, वृत्र घेरकर कता है, हाथी को रोकना (वारण) कठिन है।छिन्नमस्ता-काटना रन्ध्र बनाता है। धूमावती-१०वां आयाम अस्पष्ट है । विश्व के  रूप  काली-पूर्ण विश्व, जिसमें  ब्रह्माण्ड तैर रहे हैं। तारा-ब्रह्माण्ड के तारा।त्रिपुरा

(षोड़शी)-सूर्य के तेज से यज्ञ हो रहा है, यह १६ कला का पुरुष है, क्रिया षोड़शी है।भुवनेश्वरी-क्रन्दसी (ब्रह्माण्ड) तथा रोदसी (सौर मण्डल) के बीच में सूर्य। छिन्नमस्ता-सूर्य से निकला तेज।भैरवी-निर्माण में लगी शक्ति।धूमावती-बिखरी शक्ति जिसका प्रयोग नहीं हुआ।बगलामुखी-पृथ्वी द्वारा रोकी या शोषित शक्ति।मातङ्गी-सूर्य के विपरीत दिशा में पृथ्वी का रात्रि भाग।कमला-पृथ्वी पर की सृष्टि है ।आध्यात्मिक रूप-शरीर के चक्र है- काली-यह मूलाधार में सोयी हुई कुण्डलिनी शक्ति है। तारा-स्वाधिष्ठान चक्र का समुद्र और चन्द्रमा है। पश्यन्ती वाक् के रूप में यह तारा है। इसका देवता राकिनी है जो तारक मन्त्र रं (राम) है। त्रिपुर सुन्दरी-यह सहस्रार में १६ कला के चन्द्र जैसा विहार करती है। वहां सुधा-सिन्धु है (भौतिक रूप में मस्तिष्क का द्रव)।भुवनेश्वरी-बीज मन्त्र ह्रीं है जिसका अर्थ हृदय है। यह हृदय के अनाहत चक्र के नीचे चिन्तामणि पीठ पर विराजमान है, ।भुवनेश्वर के नगर का  है- सुधा-सिन्धोर्मध्ये सुर-विटप-वाटी परिवृते, मणिद्वीपे नीपो-पवन-वति चिन्तामणि गृहे।शिवाकारे मञ्चे परम शिव पर्यङ्क निलयां, भजन्ति त्वां धन्याः कतिचन चिदानन्द लहरीम्॥ (सौन्दर्य लहरी, ८)सुधा-सिन्धु = बिन्दुसागर। मणिद्वीप-उसके निकट लिङ्गराज। नीप (वट वृक्ष) का उपवन-मूल = बरगढ़, तना -यज्ञाम्र = जगामरा, मुण्ड = बरमुण्डा, द्रुम से द्रुम = दुमदुमा। चिन्तामणि गृह = चिन्तामणीश्वर। शिव रूपी मञ्च = मञ्चेश्वर। परमशिव = लिङ्गराज है ।त्रिपुरा भैरवी-मूलाधार में कुण्डलिनी का जाग्रत रूप। छिन्नमस्ता-आज्ञा चक्र में ३ नाड़ियों का मिलन-इड़ा, पिङ्गला, सुषुम्ना।धूमावती-मूलाधार के धूम्र रूप स्वयम्भू लिङ्ग को घेरे हुये।बगलामुखी-कण्ठ में वाणी तथा प्राण का नियन्त्रण-जालन्धर बन्ध द्वारा।मातङ्गी-यह कण्ठ के ऊपरी भाग में है, जहां से वाणी निकलती है।कमला-यह नाभि का मणिपूर चक्र है जिसे मणि-पद्म कहते हैं।  नवरात्रि- नवम आयाम रन्ध्र या कमी है जिसके कारण नयी सृष्टि होती है, अतः नव का अर्थ नया, ९-दोनों है-नवो नवो भवति जायमानो ऽह्ना केतुरूपं मामेत्यग्रम्। (ऋक् १०/८५/१९) सृष्टि का स्रोत अव्यक्त से मिलाकर सृष्टि के १० स्तर हैं , जिनक् दश-होता, दशाह, दश-रात्रि आदि  है- यज्ञो वै दश होता। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/१/६)  ।विराट् वा एषा समृद्धा, यद् दशाहानि। (ताण्ड्य महाब्राह्मण ४/८/६)  ।विराट् वै यज्ञः। ...दशाक्षरा वै विराट् । (शतपथ ब्राह्मण १/१/१/२२, २/३/१/१८, ४/४/५/१९) । अन्तो वा एष यज्ञस्य यद् दशममहः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/६/१) ।अथ यद् दशरात्रमुपयन्ति। विश्वानेव देवान्देवतां यजन्ते। (शतपथ ब्राह्मण १२/१/३/१७ ) प्राणा वै दशवीराः। (यजु १९/४८, शतपथ ब्राह्मण १२/८/१/२२) ।यद् गृह्णाति तस्माद् ग्रहः। (शतपथ ब्राह्मण १०/१/१/५) षट् त्रिंशाश्च चतुरः कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम्। यज्ञं विमाय कवयो मनीष ऋक् सामाभ्यां प्र रथं वर्त्तयन्ति। (ऋक् १०/११४/६) ४० नवरात्रके लिये महाभारत में युद्ध के बाद ४० दिन का शोक बनाया गया था, जो आज भी इस्लाम में चल रहा है। आजकल वर्ष में चन्द्रमा की १३ परिक्रमा के लिये १३ दिन का शोक मनाते हैं। ४० नवरात्रों में ४ मुख्य हैं- दैव नवरात्र-उत्तरायण के आरम्भ में जो प्रायः २२ दिसम्बर को होता है। भीष्म ने इसी दिन देह त्याग किया था। वे ५८ दिन शर-शय्या पर थे-युद्ध के ८ दिन बाकी थे, ४० दिन का शोक, ५ दिन राज्याभिषेक, ५ दिन उपदेश है ।शरत् काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी। (दुर्गा सप्तशती १२/१२) । अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः। कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः॥८॥ पुत्रदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः। विहीनश्च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम्॥२२॥ (दुर्गा सप्तशती, १) ।सुमेधा ऋषि को ही बौद्ध ग्रन्थों में सुमेधा बुद्ध कहा गया है, जिनका स्थान ओड़िशा में बौध जिला है। १० महाविद्या को बौद्ध १० प्रज्ञा-पारमिता कहते हैं। अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः। निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥११॥अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्। ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्त दिगन्तरम्॥१२॥अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्। एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥१३॥ (सप्तशती, अध्याय २) बलावलेपाद्दुष्टे त्वं मा दुर्गे गर्वमावह्। अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे यातिमानिनी॥३॥ दस माह विद्याओं की प्राप्ति और दस माह पापों से मुक्ति का रूप विजयादशमी या दशहरा है ।

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