शुक्रवार, अक्तूबर 01, 2021

स्वतंत्रता संग्राम के अमर शहीद ...

स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी शहीदों के  कर्तव्य और क्रांतिकारी आंदोलन की याद गौरवमयी है ।  भारत के स्वतन्त्रता सेनानी एवं महान क्रान्तिकारी प्रफुल्ल चाकी का जन्म 10 दिसंबर 1888 ई. को बांग्ला देश का बोगरा जिले के बिहारी ग्राम  में ब्राह्मण कुल। के रामनारायण रॉय के पुत्र के रूप में हुए थे ।रामनारायण रॉय के पुत्र  दिनेश चंद्र रॉय के  बचपन  में  पिता जी का निधन होने के बाद  माता ने अत्यन्त कठिनाई से दिनेश  का पालन-पोषण किया।  स्वामी महेश्वरानन्द द्वारा दिनेश चंद्र रॉय का नामकरण प्रफुल्ल चाकी कर  गुप्त क्रांतिकारी संगठन से जुड़ाव किया गया था । प्रफुल्ल ने स्वामी विवेकानंद के साहित्य का अध्ययन से बहुत प्रभावित हुए। अनेक क्रांतिकारियों के विचारों का भी प्रफुल्ल ने अध्ययन किया इससे उनके अन्दर देश को स्वतंत्र कराने की भावना बलवती हो गई थी । बंगाल विभाजन के समय दिनेश चंद्र रॉय उर्फ प्रफुल्ल चाकी रंगपुर जिला स्कूल में कक्षा ९ के छात्र थे। प्रफुल्ल को आन्दोलन में भाग लेने के कारण उनके विद्यालय से निकालने के बाद प्रफुल्ल का सम्पर्क क्रांतिकारियों की युगान्तर पार्टी से हुआ था । कोलकाता का चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों को अपमानित करने और उन्हें दण्ड देने के लिए बहुत बदनाम था। क्रांतिकारियों ने किंग्सफोर्ड को जान से मार डालने का  कार्य प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपा गया। ब्रिटिश सरकार ने किंग्सफोर्ड के प्रति जनता के आक्रोश को भाँप कर उसकी सुरक्षा की दृष्टि से उसे किंग्सफोर्ड को सेशन जज बनाकर बिहार के मुजफ्फरपुर भेज दिया था।  क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस ने किंग्सफोर्ड के पीछा करते हुए बिहार का मुजफ्फरपुर पहुँच गए। प्रफुल्ल चाकी और खुद राम बोष  ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का बारीकी से अध्ययन करने के बाद 30  अप्रैल 1908   ई० को मुजफ्फरपुर बिहार का सेशन जज किंग्सफोर्ड पर उस समय बम फेंक दिया जब किंग्फोर्ड बग्घी पर सवार होकर यूरोपियन क्लब से बाहर निकल रहा था। लेकिन जिस बग्घी पर बम फेंका गया था उस पर किंग्सफोर्ड नहीं था बल्कि बग्घी पर दो यूरोपियन महिलाएँ सवार थीं। वे दोनों इस हमले में मारी गईं। दोनों क्रांतिकारियों ने समझ लिया कि वे किंग्सफोर्ड को मारने में सफल हो गए हैं। वे दोनों घटनास्थल से भाग निकले। प्रफुल्ल चाकी ने समस्तीपुर पहुँच कर कपड़े बदले और टिकिट खरीद कर रेलगाड़ी में बैठ गए। दुर्भाग्य से उसी में पुलिस का सब इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी बैठा था। उसने प्रफुल्ल चाकी को गिरफ्तार करने के उद्देश्य से अगली स्टेशन को सूचना दे दी। मोकामा ( बिहार ) स्टेशन पर रेलगाड़ी के रुकते ही प्रफुल्ल को पुलिस ने पकड़ना चाहा लेकिन वे बचने के लिए दौड़े। परन्तु जब 01 मई 1908 को   20 वर्षीय क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी  ने देखा कि वे चारों ओर से घिरने के कारण  अपनी रिवाल्वर से अपने ऊपर गोली चलाकर अपनी जान दे दी थी । बिहार के मोकामा स्टेशन के पास प्रफुल्ल चाकी की मौत के बाद पुलिस उपनिरीक्षक एन . एन . बनर्जी ने प्रफुल्ल चाकी का सिर काट कर उसे सबूत के तौर पर मुजफ्फरपुर की अदालत में पेश किया था । यह अंग्रेज शासन की जघन्यतम घटनाओं में शामिल है। क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी का प्रिय क्रांतिकारी  खुदीराम को बाद में गिरफ्तार किया गया था व उन्हें फांसी दे दी ।बोगुरा के नवाब के यहां नौकरी करने वाले प्रफुल्ल चाकी के पिता और मां ने  सोचा न होगा कि उनका बेटा इंकलाब के रास्ते पर चलते हुए देश की आजादी के लिए कम उम्र में ही शहीदों की टोली में जा मिलेगा। चाकी जब सत्रह वर्ष के थे, तभी बंगाल का विभाजन हुआ और वह उसके विरोध में उठ खड़े हुए। आंदोलन का हिस्सेदार बनने के कारण उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। फिर वह ‘युगांतर’ दल से जुड़कर क्रांति कर्म में संलग्न हो गए। उसके बाद ही किंग्सफोर्ड पर हमले के बड़े विप्लवी अभियान में उन्हें खुदीराम बोस का साथ मिला था। कोलकाता के विनय-बादल-दिनेश बाग और मुजफ्फरपुर ( बिहार )  में  प्रफुल्ल चाकी की प्रतिमा स्थापित है।  पुलिस उपनिरीक्षक एनएन बनर्जी द्वारा शाही प्रफुल्ल चाकी  का सिर काटकर उसे पहले मुजफ्फरपुर जेल में बंद खुदीराम के पास ले गए थे। वह पुलिस के हिंदुस्तानी सिपाही की निर्ममता का जघन्य नमूना था। खुदीराम ने देखते ही चाकी के सिर को प्रणाम किया। बस, शिनाख्त पूरी हो गई। फिर उस सिर को सबूत के तौर पर मुजफ्फरपुर की अदालत में  पेश किया गया। 1919 के रॉलेट बिल के सिलसिले में बगावत फैलाने और अस्थायी भारत सरकार का काम सुचारु रूप से चलाने के लिए एक कार्यसमिति बनाई गई थी, जिसका नाम ‘अंजुम-ए-इत्तिहाद व तरक्की-ए-हिंद’ रखा गया। उसमें कोई डॉ. घोष कांग्रेस के नाम से कार्य करते थे। वह 1917 में बिहार में गांधी से मिल चुके थे और हर साल कलकत्ता जाते हुए मोकामा में उस जगह फूलों का हार रखते थे, जहां पुलिस के हाथों गिरफ्तार होने से पहले चाकी ने अपने ऊपर प्रहार कर लिया था। चाकी का जो एक चित्र उपलब्ध है, उसमें उनका शांत चेहरा, आंखें मुंदी और होंठ जैसे दृढ़ संकल्प से कसे हुए हैं। कंधे से कुछ नीचे तक का शरीर नग्न दिखाई पड़ रहा है। गले पर कटे का निशान है। शायद उनके शव का चित्र लिया गया होगा। चाकी तो अमर हो गए और उनके जुनून का वह निर्णायक पल भी इतिहास में सुर्खरू होकर दर्ज हो गया, जब क्रांति के उस संग्रामी ने रण के मध्य जीवन और मरण में से किसी एक का चुनाव कर लिया था। निश्चय ही तब उसे मृत्यु अधिक सार्थक लगी होगी। उसके भीतर की क्रांतिकारी चेतना ने ही उसे इस शक्ति से समृद्ध किया होगा कि वह अपने समय का निर्णायक हो सके। स्टेशन पर आवाजाही और यात्रियों का शोर-गुल चरम पर है। ट्रेन आने-जाने की आवाजें कोलाहल रच रही हैं। पर मेरे भीतर चाकी की स्वयं पर चलाई गई अंतिम गोली का विस्फोट गूंजता है और इतिहास का वह लम्हा मानो हवा में स्पंदित होने लगा है। ट्रेन प्रस्थान करने लगी है। दूर छूटती जा रही मोकामा की धरती को मैं प्रणाम करता हूं।
शहीद खुदीराम बोस - युवा क्रांतिकारी शहीद खुदीराम बोस के जन्म 03 दिसंबर 1889 ई. को बंगाल के मिदनापुर जिले के बहुवैनी ग्राम के कायस्थ परिवार का त्रैलोक्य नाथ की पत्नी लक्ष्मी प्रिया देवी के गर्भ से हुआ था । खुदीराम बोस का बचपन का नाम  क्षुदीराम बोस  था ।भारतीय स्वाधीनता के लिए  19 वर्षीय शहीद खुदीराम बोस 11 अगस्त 1908 ई. को मुजफ्फरपुर ( बिहार )  के बंगाल प्रेसिडेंसी में 11 अगस्त 1908 ई. को फांसी पर चढ़ गए थे । खुदीराम बोस ने देश के लिये फाँसी पर चढ़ने वाले सबसे कम उम्र के ज्वलन्त तथा युवा क्रान्तिकारी देशभक्त थे।  खुदीराम से पूर्व 17 जनवरी 1872 को 68 कूकाओं के सार्वजनिक नरसंहार के समय 13 वर्ष का एक बालक  शहीद हुआ था। उपलब्ध तथ्यानुसार उस बालक को, जिसका नंबर 50वाँ था, जैसे ही तोप के सामने लाया गया, उसने लुधियाना के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर कावन की दाढ़ी कसकर पकड़ ली और तब तक नहीं छोड़ी जब तक उसके दोनों हाथ तलवार से काट नहीं दिये गए बाद में उसे उसी तलवार से मौत दिया गया था । खुदीराम के मन में देश को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और स्वदेशी आन्दोलन में कूद पड़े थे । छात्र जीवन से ही ऐसी लगन मन में लिये इस नौजवान ने हिन्दुस्तान पर अत्याचारी सत्ता चलाने वाले ब्रिटिश साम्राज्य को ध्वस्त करने के संकल्प में अलौकिक धैर्य का परिचय देते हुए पहला बम फेंका और मात्र 19 वें वर्ष में हाथ में श्रीमद गीता लेकर हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे पर चढ़कर इतिहास रच दिया था । खुदीराम बोस ने  रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वन्दे मातरम् पम्पलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1905 में बंगाल के विभाजन बंग-भंग के विरोध में चलाये गये आन्दोलन में सक्रिय रहे थे । 1906 में मिदनापुर में एक औद्योगिक तथा कृषि प्रदर्शनी  में  क्रान्तिकारी सत्येन्द्रनाथ द्वारा लिखे ‘सोनार बांगला’ पत्रिका  की प्रतियां वितरण के दौरान ब्रिटिश पुलिस द्वारा खुदीराम  को  पकडने के लिये दौड़ लगाया परंतु   खुदीराम ने पुलिस  के मुँह पर घूँसा मारा और शेष पत्रक बगल में दबाकर भागने के कारण  राजद्रोह के आरोप में सरकार ने उन पर अभियोग चलाया परन्तु गवाह नही मिलने से खुदीराम निर्दोष छूट गये थे । इतिहासवेत्ता मालती मलिक के अनुसार 28 फरवरी 1906 को खुदीराम बोस गिरफ्तार कर लिये गये लेकिन वह कैद से भाग निकले।  अप्रैल में खुदीराम पुनः पकड़े गये। 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया। 6 दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया परन्तु गवर्नर बच गया। सन 1908 में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया लेकिन वे बच निकले। मिदनापुर में ‘युगान्तर’ नाम की क्रान्तिकारियों की गुप्त संस्था के माध्यम से खुदीराम क्रान्तिकार्यों  में जुट चुके थे। 1905 में लॉर्ड कर्जन ने जब बंगाल का विभाजन किया तब उसके विरोध में सड़कों पर उतरे अनेकों भारतीयों को उस समय के कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने क्रूर दण्ड दिया।  इसके परिणामस्वरूप किंग्जफोर्ड को पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश के पद पर भेजा। ‘युगान्तर’ समिति कि  गुप्त बैठक में किंग्जफोर्ड को  मारने का निश्चय हुआ। कार्य हेतु खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार चाकी का चयन किया गया। खुदीराम को  बम और पिस्तौल दी गयी। प्रफुल्लकुमार को  पिस्तौल दी गयी। मुजफ्फरपुर में आने पर प्रफुल्ल और खुदीराम  ने सबसे पहले किंग्जफोर्ड के बँगले की निगरानी की। उन्होंने उसकी बग्घी तथा उसके घोडे का रंग देख लिया। खुदीराम  किंग्जफोर्ड को उसके कार्यालय में जाकर ठीक से देख  आए थे । 30 अप्रैल 1908 को ये दोनों नियोजित काम के लिये बाहर निकले और किंग्जफोर्ड के बँगले के बाहर घोड़ागाड़ी से उसके आने की राह देखने लगे। बँगले की निगरानी हेतु वहाँ मौजूद पुलिस के गुप्तचरों ने उन्हें हटाना भी चाहा परन्तु वे दोनां उन्हें योग्य उत्तर देकर वहीं रुके रहे। रात में साढ़े आठ बजे के आसपास क्लब से किंग्जफोर्ड की बग्घी के समान दिखने वाली गाडी आते हुए देखकर खुदीराम गाडी के पीछे भागने लगे। रास्ते में बहुत ही अँधेरा था। गाडी किंग्जफोर्ड के बँगले के सामने आते ही खुदीराम ने अँधेरे में ही आगे वाली बग्घी पर निशाना लगाकर जोर से बम फेंका। हिन्दुस्तान में इस पहले बम विस्फोट की आवाज उस रात तीन मील तक सुनाई दी और कुछ दिनों बाद तो उसकी आवाज इंग्लैंड तथा यूरोप में  सुनी गयी जब वहाँ इस घटना की खबर ने तहलका मचा दिया।  खुदीराम ने किंग्जफोर्ड की गाड़ी समझकर बम फेंका था परन्तु उस दिन किंग्जफोर्ड थोड़ी देर से क्लब से बाहर आने के कारण बच गया। दैवयोग से गाडियाँ एक जैसी होने के कारण दो यूरोपीय स्त्रियों को अपने प्राण गँवाने पड़े। खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार दोनों ही रातों-रात नंगे पैर भागते हुए गये और 24 मील दूर स्थित वैनी रेलवे स्टेशन पर जाकर ही विश्राम किया। अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्लकुमार चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी जबकि खुदीराम पकड़े गये। 11 अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी दे दी गयी। उस समय उनकी उम्र मात्र 18


वर्ष थी। चाकी को पुलिस पकडने गयी, तब उन्होंने स्वयं पर गोली चलाकर अपने प्राणार्पण कर दिये। खुदीराम को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी का अन्त निश्चित था। 11 अगस्त 1908 को भगवद्गीता हाथ में लेकर खुदीराम धैर्य के साथ खुशी-खुशी फाँसी चढ़ गये। किंग्जफोर्ड ने घबराकर नौकरी छोड दी और जिन क्रान्तिकारियों को उसने कष्ट दिया था उनके भय से उसकी शीघ्र ही मौत हो गयी। शहीद खुदीराम के नाम  से  बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इतिहासवेत्ता शिरोल के अनुसार बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिये वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक स्कूल कालेज सभी बन्द रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे, जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था। क्रान्तिवीर खुदीराम बोस का स्मारक बनाने की योजना कानपुर के युवकों ने बनाई और उनके पीछे असंख्य युवक इस स्वतन्त्रता-यज्ञ में आत्मार्पण करने के लिये आगे आये। शहीद खुदीराम बोस की प्रतिमा मुजफ्फरपुर में स्थापित है ।

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