सनातन धर्म एवं शाक्त सम्प्रदाय के ग्रंथों तथा स्मृतियों में शक्ति उपासना का महत्वपूर्ण उल्लेख है ।
शारदीय नवरात्र प्रारंभ, घट- स्थापन, चंद्र- दर्शन, महाराजा अग्रसेन जयंती (ति.अ.) , विशेष - प्रतिपदा को कूष्माण्ड( कुम्हड़ा, पेठा) नही खाये, क्योंकि धन का नाश करने वाला है।(ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्म खंडः 27.29-3 , के प्रत्येक दिन माँ भगवती के एक स्वरुप श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है। यह क्रम शारदीय शुक्ल प्रतिपदा को प्रातःकाल शुरू होता है। प्रतिदिन जल्दी स्नान करके माँ भगवती का ध्यान तथा पूजन करना चाहिए। सर्वप्रथम कलश स् पुराण के अनुसार मां भगवती की पूजा-अर्चना करते समय सर्वप्रथम कलश / घट की स्थापना की जाती है। घट स्थापना करना अर्थात नवरात्रि की कालावधि में ब्रह्मांड में कार्यरत शक्ति तत्त्व का घट में आवाहन कर उसे कार्यरत करना । कार्यरत शक्ति तत्त्व के कारण वास्तु में विद्यमान कष्टदायक तरंगें समूल नष्ट हो जाती है। धर्मशास्त्रों के अनुसार कलश को सुख-समृद्धि, वैभव और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना गया है। कलश के मुख में विष्णुजी का निवास, कंठ में रुद्र तथा मूल में ब्रह्मा स्थित हैं और कलश के मध्य में दैवीय मातृशक्तियां निवास करती हैं। उपासना सामग्री: जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र* , जौ बोने के लिए शुद्ध साफ़ की हुई मिटटी , पात्र में बोने के लिए जौ , घट स्थापना के लिए मिट्टी का कलश (“हैमो वा राजतस्ताम्रो मृण्मयो वापि ह्यव्रणः” अर्थात 'कलश' सोने, चांदी, तांबे या मिट्टी का छेद रहित और सुदृढ़ उत्तम माना गया है । वह मङ्गलकार्योंमें मङ्गलकारी होता है । कलश में भरने के लिए शुद्ध जल, गंगाजल , मौली , इत्र , सबूत सुपारी ,दूर्वा ,सिक्के ,पंचरत्न ,आम के पत्ते , चावल , नारियल ,लाल कपड़ा , पुष्प पुष्पमाला आवश्यक है । सबसे पहले जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र लें। इस पात्र में मिट्टी की एक परत बिछाएं। अब एक परत जौ की बिछाएं। इसके ऊपर फिर मिट्टी की एक परत बिछाएं। अब फिर एक परत जौ की बिछाएं। जौ के बीच चारों तरफ बिछाएं ताकि जौ कलश के नीचे न दबे। इसके ऊपर फिर मिट्टी की एक परत बिछाएं। अब कलश के कंठ पर मौली बाँध दें। कलश के ऊपर रोली से ॐ और स्वास्तिक लिखें। अब कलश में शुद्ध जल, गंगाजल कंठ तक भर दें। कलश में साबुत सुपारी, दूर्वा, फूल डालें। कलश में थोडा सा इत्र डाल दें। कलश में पंचरत्न डालें। कलश में कुछ सिक्के रख दें। कलश में अशोक या आम के पांच पत्ते रख दें। अब कलश का मुख ढक्कन से बंद कर दें। ढक्कन में चावल भर दें। श्रीमद्देवीभागवत पुराण के अनुसार “पञ्चपल्लवसंयुक्तं वेदमन्त्रैः सुसंस्कृतम्। सुतीर्थजलसम्पूर्णं हेमरत्नैः समन्वितम्॥” अर्थात कलश पंचपल्लवयुक्त, वैदिक मन्त्रों से भली भाँति संस्कृत, उत्तम तीर्थ के जल से पूर्ण और सुवर्ण तथा पंचरत्न मई होना चाहिए। नारियल पर लाल कपडा लपेट कर मौली लपेट दें। अब नारियल को कलश पर रखें। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है: “अधोमुखं शत्रु विवर्धनाय,ऊर्ध्वस्य वस्त्रं बहुरोग वृध्यै। प्राचीमुखं वित विनाशनाय,तस्तमात् शुभं संमुख्यं नारीकेलं”। अर्थात् नारियल का मुख नीचे की तरफ रखने से शत्रु में वृद्धि होती है।नारियल का मुख ऊपर की तरफ रखने से रोग बढ़ते हैं, जबकि पूर्व की तरफ नारियल का मुख रखने से धन का विनाश होता है। इसलिए नारियल की स्थापना सदैव इस प्रकार करनी चाहिए कि उसका मुख साधक की तरफ रहे। ध्यान रहे कि नारियल का मुख उस सिरे पर होता है, जिस तरफ से वह पेड़ की टहनी से जुड़ा होता है। कलश को उठाकर जौ के पात्र में बीचो बीच रख दें। अब कलश में सभी देवी देवताओं का आवाहन करें। "हे सभी देवी देवता और माँ दुर्गा आप सभी नौ दिनों के लिए इसमें पधारें।" अब दीपक जलाकर कलश का पूजन करें। धूपबत्ती कलश को दिखाएं। कलश को माला अर्पित करें। कलश को फल मिठाई अर्पित करें। कलश को इत्र समर्पित करें।कलश स्थापना के बाद माँ दुर्गा की चौकी स्थापित की जाती है। नवरात्रि के प्रथम दिन एक लकड़ी की चौकी की स्थापना करनी चाहिए। इसको गंगाजल से पवित्र करके इसके ऊपर सुन्दर लाल वस्त्र बिछाना चाहिए। इसको कलश के दायीं ओर रखना चाहिए। उसके बाद माँ भगवती की धातु की मूर्ति अथवा नवदुर्गा का फ्रेम किया हुआ फोटो स्थापित करना चाहिए। मूर्ति के अभाव में नवार्णमन्त्र युक्त यन्त्र को स्थापित करें। माँ दुर्गा को लाल चुनरी उड़ानी चाहिए। माँ दुर्गा से प्रार्थना करें "हे माँ दुर्गा आप नौ दिन के लिए इस चौकी में विराजिये।" उसके बाद सबसे पहले माँ को दीपक दिखाइए। उसके बाद धूप, फूलमाला, इत्र समर्पित करें। फल, मिठाई अर्पित करें। नवरात्रि में नौ दिन मां भगवती का व्रत रखने का तथा प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करने का विशेष महत्व है। हर एक मनोकामना पूरी हो जाती है। सभी कष्टों से छुटकारा दिलाता है। नवरात्रि के प्रथम दिन ही अखंड ज्योत जलाई जाती है जो नौ दिन तक जलती रहती है। दीपक के नीचे "चावल" रखने से माँ लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है तथा "सप्तधान्य" रखने से सभी प्रकार के कष्ट दूर होते है । माता की पूजा "लाल रंग के कम्बल" के आसन पर बैठकर करना उत्तम माना गया है ।नवरात्रि के प्रतिदिन माता रानी को फूलों का हार चढ़ाना चाहिए। प्रतिदिन घी का दीपक (माता के पूजन हेतु सोने, चाँदी, कांसे के दीपक का उपयोग उत्तम होता है) जलाकर माँ भगवती को मिष्ठान का भोग लगाना चाहिए। मान भगवती को इत्र/अत्तर विशेष प्रिय है।नवरात्रि के प्रतिदिन कंडे की धुनी जलाकर उसमें घी, हवन सामग्री, बताशा, लौंग का जोड़ा, पान, सुपारी, कर्पूर, गूगल, इलायची, किसमिस, कमलगट्टा जरूर अर्पित करना चाहिए। लक्ष्मी प्राप्ति के लिए नवरात्रि में पान और गुलाब की ७ पंखुरियां रखें तथा मां भगवती को अर्पित कर दें*मां दुर्गा को प्रतिदिन विशेष भोग लगाया जाता है। किस दिन किस चीज़ का भोग लगाना है ये हम विस्तार में आगे बताएँगे। प्रतिदिन कन्याओं का विशेष पूजन किया जाता है। श्रीमद्देवीभागवत पुराण के अनुसार “एकैकां पूजयेत् कन्यामेकवृद्ध्या तथैव च। द्विगुणं त्रिगुणं वापि प्रत्येकं नवकन्तु वा॥” अर्थात नित्य ही एक कुमारी का पूजन करें अथवा प्रतिदिन एक-एक-कुमारी की संख्या के वृद्धिक्रम से पूजन करें अथवा प्रतिदिन दुगुने-तिगुने के वृद्धिक्रम से और या तो प्रत्येक दिन नौ कुमारी कन्याओं का पूजन करें। किस दिन क्या सामग्री गिफ्ट देनी चाहिए ये भी आगे बताएँगे। यदि कोई व्यक्ति नवरात्रि पर्यन्त प्रतिदिन पूजा करने में असमर्थ हैं तो उसे अष्टमी तिथि को विशेष रूप से अवश्य पूजा करनी चाहिए। प्राचीन काल में दक्ष के यज्ञ का विध्वंश करने वाली महाभयानक भगवती भद्रकाली करोङों योगिनियों सहित अष्टमी तिथि को ही प्रकट हुई थीं ।
भारतीय और मागधीय संस्कृति एवं सभ्यताएं प्राचीन काल से अरवल जिले के करपी का जगदम्बा मंदिर में स्थापित माता जगदम्बा, शिव लिंग, चतुर्भुज भगवान, भगवान शिव - पार्वती विहार की मूर्तियां महाभारत कालीन है । कारूष प्रदेश के राजा करूष ने कारूषी नगर की स्थापित किया था । वे शाक्त धर्म के अनुयायी थे । हिरण्यबाहू नदी के किनारे कालपी में शाक्त धर्म के अनुयायी ने जादू-टोना तथा माता जगदम्बा, शिव - पार्वती विहार, शिव लिंग, चतुर्भुज, आदि देवताओं की अराधना के लिए केंद्र स्थली बनाया । दिव्य ज्ञान योगनी कुरंगी ने तंत्र - मंत्र - यंत्र , जादू-टोना की उपासाना करती थी । यहां चारो दिशाओं में मठ कायम था, कलान्तर इसके नाम मठिया के नाम से प्रसिद्ध है ।करपी गढ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल में स्थापित अनेक प्रकार की मूर्ति जिसे उत्खनन विभाग ने करपी वासियों को समर्पित कर दिया । प्राचीन काल में प्रकृति आपदा के कारण शाक्त धर्म की मूर्तियां भूगर्भ में समाहित हो गई थी । गढ़ की उत्खनन के दौरान मिले प्राचीन काल का मूर्तिया ।विभिन्न काल के राजाओं ने करपी के लिए 05 कूपों का निर्माण, तलाव का निर्माण कराया था । साहित्यकार एवं इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की प्रचीन परम्पराओं में शाक्त धर्म एवं सौर , शैव धर्म, वैष्णव धर्म, ब्राह्मण धर्म, भागवत धर्म का करपी का जगदम्बा स्थान है । करपी जगदम्बा स्थान की चर्चा मगधांचल में महत्व पूर्ण रूप से की गई है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना 1861 ई. में हुई है के बाद पुरातात्विक उत्खनन सर्वेक्षण के दौरान करपी गढ के भूगर्भ में समाहित हो गई मूर्तिया को भूगर्भ से निकाल दिया गया था । करपी का सती स्थान, ब्रह्म स्थली प्राचीन धरोहर है । करपी का नाम कारूषी, कुरंगी, करखी, कुरखी, कालपी था ।
वैवस्वत मनु के पुत्र राजा करूष एवं शर्याती सोन प्रदेश और हिरण्यवाहू प्रदेश की नीव रखा था । राजा करूष ने कारूष प्रदेश की राजधानी कारुषी नगर में सौर धर्म की स्थापना कर भगवान् सूर्य की उपासना का रूप दिया। कारूषि हिरण्यबाहू की पूर्वी और पश्चिमी 11 वीं धारा के मध्य में भगवान् विष्णु आदित्य एवं षष्टी माता और शाक्त धर्म, शैव धर्म, वैष्णव धर्म की स्थापना किया गया था। बाद में अरवल जिले के करपी कहा जाने लगा। वर्तमान में करपी जगदम्बा स्थान मंदिर में दर्जनों मूर्तियां के अलावा भगवान् चतुर्भुज, माता जगदम्बा , शिवलिंग, भगवान् शिव एवं माता पार्वती विहार स्थापित है। सभी मूर्तियां करपी गढ़ की उत्खनन के तहत प्राप्त हुई है। इतिहासकार तथा साहित्यकार सत्येन्द्र कुमार पाठक के अनुसार करपी का स्थल प्राचीन काल में शाक्त संप्रदाय का था । करपी की भूमि पवित्र और वैदिक नदी हिरणयबाहु आधुनिक बह प्रवाहित है । करपी का सती स्थान प्रसिद्ध है । सती स्थल पर पांच पतिव्रता की प्राचीन काल की पहचान है । करपी शेरपुर वंशी पथ जम्भोरा के किनारे स्थित करपी का सतीआढा या सती स्थल नाम से ख्याति है वहीं करपी कुर्था पथ के किनारे स्थित करपी का ब्रह्म स्थान प्रसिद्ध है । प्राचीन काल में करपी सौर धर्म का स्थल था जहां पर भगवान् सूर्य की पूजा कर चतुर्दिक विकास होता था। यहां की रखवाली के लिए चार मठ थे जिसका नाम उतर की ओर उतरवारी मठिया ( गुलजारबाग ) , दक्षिण दिशा में दक्षिणवारी मठिया , पूरब में पुरवारी मठिया और ब्रह्म स्थान तथा पश्चिम में पछिमवारी मठिया वर्तमान में फुलवाहन विगहा तथा पाठक बिगहा के नाम है जहां भगवान् सूर्य की मूर्ति एवं मंदिर और तलाव स्थापित है। करपी ऐतिहासिक सम्पदा के लिए विशिष्ट महत्व रखता है। पूर्व ऐतिहासिक काल से विकसित होने वाली संस्कृतियों और विभिन्न युगों में सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लगभग एक लाख वर्ष पूर्व विकसित होने वाली आरंभिक पूर्व प्रस्तर युगीन अवशेष मूर्तियां उपलब्ध हुई है। मध्यवर्ती और परवर्ती पूर्व प्रस्तर युगीन 40000 से 10000 ई. पू. के अवशेष मूर्तिया मिले हैं और भू गर्भ में है। करपी के दक्षिण की ओर कभी भटौली ( आराधना ) स्थल था जहां वर्तमान में भटोलिया कहा जाता है और पूरब में गोराधौवा ( पैर धोने का स्थल) , तलाव को बेरौवा था। उतर की ओर पिंडी स्थापित तथा तलाव भी है। यहां विभिन्न राजाओं ने तलाव निर्माण और 05 कूपो का निर्माण कराया था । दक्षिण में यम स्थल था जिसे जम्म भोरा जहां 05 सतियों की पिंडी स्थापित है। राजा हर्षवर्धन काल 606 ई. पू. में सूर्योपासना का केंद्र था। 300 ई. पू. भीषण बाढ़ और आपदा एवं अाकाल पड़ने के कारण कारुषी नगर भू गर्भ में समाहित हो गई थी बाद में यह स्थल कारुशी, करुषी, कुरंगी, कुरपी कर्पी बाद में करपी नाम से विख्यात हुआ है। 1400 ई. पू. एशिया मईनर का बेगाज कोई से वैदिक देवता मित्र, वरुण, इन्द्र और नसत्य ( अश्विनी कुमार) थे जिन्होंने सूर्य उपासना तथा ब्रह्मऋषि विश्वामित्र रचित ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में सूर्यदेव सावित्री को समर्पित गायत्री मंत्र है। विश्वामित्र करूष प्रदेश के ऋषि थे। 1921 ई. में पुरातत्व वेता दयाराम साहनी एवं मधोस्वरूप वत्स के समय करपी गढ़ का उत्खनन से भू गर्भ में समाहित प्राचीन काल की महत्वपूर्ण मूर्तियां प्राप्त हुई जिसे निवासियों को दे दिए गए हैं । करपी से दो किलो मीटर पर पुनपुन नदी के किनारे कात्यायनी ( कोइलीघाट) है । करपी में प्राचीन काल में राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या ने भगवान् सूर्य की भार्या संज्ञा के पुत्र देववैद्य अश्विनी कुमार के परामर्श से सूर्योपासना की नीव रखा और बाद में देवकुंड और मदसरावा के वधुसरोवर में भगवान् सूर्य को अर्घ्य समर्पित कर अपनी मनोकामाएं पूर्ण की है। करपी , पंतित , कुर्था बेलसार, अरवल , किंजर, खटांगी, शेरपुर आदि जगहों पर सूर्य की मूर्ति, तलाव का निर्माण, तथा मंदिर बनाए गए है साथ ही साथ पुनपुन नदी, सोन नद, वैदिक काल की नदी हिरण्यबाहु ( बह ) में अर्घ्य दे कर भगवान् सूर्य की उपासना करते है। करपी का बेरौआ तलाव प्राचीन है। यह तलाव को जल जीवन हरियाली योजना के तहत जीर्णोद्धार किया जाता है प्राचीन धरोहर सुरक्षित रहेगा। वर्तमान में यह तलाव अतिक्रमण युक्त और गंदगी युक्त है।भारतीय धर्म ग्रंथ में शाक्त संमप्रदाय में शक्ति पूजन का महत्वपूर्ण उलेख है । प्रत्येक माह में नवरात्र होते हैं जिसमे प्रत्येक वर्ष के छ: रीतुओं की नवरात्रि का महत्व और धार्मिक के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। शास्त्रों तथा विक्रम पंचांग के अनुसार वसंत रीतु में वासंती नवरात्रि चैत्र मास , वर्षा रीतु का आषाढ मास में आषाढी गुप्त नवरात्र , शरद् रीतु का आश्विन मास की शारदीय नवरात्रि , शिशिर तथा हेमंत रीतु का माघ मास मे माघीय नवरात्र जिसे गुप्त नवरात्रि के दौरान की गई प्रार्थना, जप और ध्यान से मन मस्तिष्क शांत रहते हैं। मन तथा आत्मा से संपर्क होने पर भीतर सकारात्मक गुणों का संचार होता है और आलस्य दूर होता है । सभी शुभ कामों की शुरुआत होता है। हवन और पूजा पाठ करने से न केवल मानसिक शक्ति मिलती विचारों में भी शुद्धि आती है। नवरात्रि का वैज्ञानिक कारण - नवारात्रि का त्योहार प्रत्येक साल बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस त्योहार पर लोग वैदिक परंपरा से पूजा करते हैं और हजारों लोग माता दुर्गा के दर्शनों के लिए जाते हैं। नवरात्रि पर 1005 कुंभाभिषेक और 2100 से अधिक चंडी होम आयोजित किए जाते हैं। नवरात्रि पर यज्ञ का भी आयोजन किया जाता है। इस समय में किया गया हवन, पूजा और यज्ञ बहुत अधिक लाभ पहुंचाता है। हवन और यज्ञ करने से शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहते हैं। इसी कारण से नवरात्रि को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।नवरात्रि का त्योहार साल में दो बार मनाया जाता है। एक तो चैत्र मास के महिने में जिसे चैत्र नवरात्रि कहा जाता है और दूसरा शारदीय नवरात्रि जो कुंवार मास में मनाया जाता है। चैत्र नवरात्रि और शारदिय नवरात्रि उत्तर भारत में मुख्य रूप से मनाया जाता है। लेकिन शारदीय नवरात्रि दक्षिण भारत में भी मनाया जाता है। नवरात्रि का समय अत्यंत ही महत्वपूर्ण और शुभ समय माना जाता है। इस समय में सभी प्रकार के शुभ कामों का आरंभ होता है। यही वह समय भी होता है जब मौसम अपनी करवट बदलता है यानी मौसम में बदलाव आता है।नवरात्रि पर राशि के अनुसार मां दुर्गा को लगाएं इन चीजों का भोग, जीवन के दूर हो जाएंगे रोग । नवारत्रि को त्योहार प्रत्येक जीव के लिए कल्याण, शांति और समृद्धि के लिए होता है। नवरात्रि का समय वह समय होता है जब ऋतु बदलती है। शास्त्रों के अनुसार इस समय असुरी शक्तियों को नष्ट करने के लिए हवन और पूजन किया जाता है। नवरात्रि पर हवन पूजन करने से स्वास्थय भी ठीक रहता है। यही कारण हैं कि साल में आने वाले सभी नवरात्र ऋतुओं के संधिकाल में होते हैं। यही वह समय होता है जब मौसम बदलता है। जिससे शरीर और मानसिकता में कमीं आती है। इसलिए शरीर और दिमाग को स्वस्थ रखने के लिए व्रत और पूजा की जाती है।नवरात्रि को स्वास्थय के दृष्टिकोण से अत्याधिक महत्व दिया जाता है। इस समय व्रत करने से न केवल मानसिक शक्ति प्राप्त होती है। बल्कि शरीर और विचारों की भी शुद्धि होती है। जिस प्रकार से हम नहाकर अपने शरीर की सफाई करते हैं। उसी प्रकार नवरात्रि के इस पावन अवसर पर शरीर के साथ - साथ विचारों की शुद्धि की जाती है। जो अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। जिस समय मौसम बदलता है। उस समय शरीर को रोगों से लड़ने के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाना पड़ता है। नवरात्रि पर व्रत करने से शरीक की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। नाकारात्मक उर्जा का रोक लगाने के लिए देवी मंदिर के परिसर में नीम का पेड लगाने तथा नवरात्र मे समी पेड लगाने का महत्व है । नवरात्रि में 9 टोटके भर देंगे खुशियों और बेशुमार दौलत से परिपूर्ण होते है ।अच्छे और बुरे कर्मों के आधार पर जीवन में सुख और दुख मिलता है , परन्तु कभी-कभी जाने अंजाने में ऐसे कार्य कर जाते हैं जिससे हावी हो जाता है. । नकारात्मक ऊर्जा जीवन को बहुत प्रभावित करती है । नाकारात्मक उर्जा से बचने के लिए घरेलू टोटकों को अपना लेने पर चारों तरफ सकारात्मक ऊर्जा होगी और सोई हुई किस्मत भी जाग जाती है ।नवरात्रों के दिनों में टोटके अपनाने से मन शांत होगा बल्कि सुख-सुविधाओं में भी वृद्धि होगी । तंत्र मंत्र सिद्धि के लिए नवरात्र है । टोटके का रूप - साबुत काले उड़द में हरी मेहंदी मिलाकर जिस दिशा में वर-वधु का घर हो, वहां फेंक दें, दोनों के बीच परस्पर प्रेम बढ़ जाएगा और दोनों ही सुखी रहेंगे । कन्या 7 साबुत हल्दी की गांठें, पीतल का एक टुकड़ा, थोड़ा सा गुड लेकर ससुराल की तरफ फेंक दें तब कन्या को ससुराल में सुख ही सुख मिलता है.शादी के बाद जब कन्या विदा हो रही हो तो एक लोटे में गंगाजल, थोड़ी सी हल्दी, एक पीला सिक्का लेकर कन्या के सिर के ऊपर से 7 बार उसार कर उसके आगे फेंक दें. उसका वैवाहिक जीवन सदा सुखी रहेगा । निरोगता - सूर्य जब मेष राशि में प्रवेश करें तो नीम की नवीन कोपलें, गुड़ व मसूर के साथ पीसकर खाने से व्यक्ति पूरे वर्ष निरोग तथा स्वस्थ रहता है । यदि व्यक्ति चिड़चिढ़ा हो रहा है तथा बात-बात पर गुस्सा हो रहा है तो उसके ऊपर से राई-मिर्ची उसार कर जला दें. तथा पीडि़त व्यक्ति को उसे देखते रहने के लिए कहें । सुबह कुल्ला किए बिना पानी, दूध अथवा चाय न पिएं. साथ ही उठते ही सबसे पहले अपनी दोनों हथेलियों के दर्शन करें. इससे स्वास्थ्य तो सही रहेगा ही, भाग्य भी चमक उठेगा ।यदि किसी के साथ बार-बार दुर्घटना होती है शुक्ल पक्ष प्रथम मंगलवार को 400 ग्राम दूध से चावल धोकर बहती नदी अथवा झरने में प्रवाहित करें. यह उपाय लगातार सात मंगलवार करें, दुर्घटना होना बंद हो जाएगा । यदि कोई पुराना रोग ठीक नहीं हो रहा हो तो गोमती चक्र को लेकर एक चांदी की तार में पिरोएं तथा पलंग के सिरहाने बांध दें. रोग जल्दी ही पीछा छोड़ देगा । कोई असाध्य रोग हो जाए तथा दवाईयां काम करना बंद कर दें तो पीडि़त व्यक्ति के सिरहाने रात को एक तांबे का सिक्का रख दें तथा सुबह इस सिक्के को किसी श्मशान में फेंक दें. दवाईयां असर दिखाना शुरू कर देंगी और रोग जल्दी ही दूर हो जाएगा । महाभारत में गांधारी ने इस कारण दूसरी बार अपनी आंखों से पट्टी नवरात्र में उतारी थी । असम के कामख्या मंदिर ,बंगाल के दछिणेश्वर काली मंदिर , बिहार के गया बांग्ला तथा मंगलागौरी तथा भारत के सात मंदिरों में पूजा-पाठ और तांत्रिक साधनाएं की जाती है ।
वैज्ञानिक के अनुसार , प्याज और लहसुन खाने से हमारी कामुक ऊर्जा जागृत होती है. इसके साथ ही पेट में गर्मी पैदा होने लगती है, जो हमारी डाइजेशन सिस्टम के लिए सही नहीं माना जाता. व्यक्ति नवरात्र के अवसर पर अपनी कामुक इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहता है, इसलिए पूजा-पाठ के दौरान लहसुन-प्याज खाना मना होता है.खो देता है. जो उपासना के मार्ग से भटका सकता है. । पौराणिक मान्यता अनुसार, समुंद्र मंथन से निकले अमृत जब भगवान विष्णु देवताओं में बांट रहे थे. इसी दौरान राक्षस राहु और केतू ने द्वारा धोखे से अमृत का सेवन कर लिया गया था. ये बात भगवान विष्णु को जैसे ही मालूम हुआ. उन्होंने क्रोधित होकर दोनों का सर धड़ से अलग कर दिया. राहू और केतु के मुंह में अमृत पहुंच चुका था, इसलिए उसका मुख अमर हो गया, लेकिन घड़ जमीन पर गिर पड़ा. इस दौरान दोनों राक्षसों के मुख से अमृत की कुछ बूंदें जमीन पर गिर गई, जो प्याज और लहसुन के रूप में उपज गई । प्याज और लहसुन अमृत से उपजे हैं, इसलिए ये रोगों में फायदेमंद साबित होते हैं. क्योंकि ये अमृत राक्षसों के मुख होकर बना है । लहसुन तथा प्याज में नाकारात्मक उर्जा से तेज गंध और अपवित्र है । पूजा-पाठ के दौरान सेवन नहीं किया जाता है । नवरात्र में मद्यपान , तामसी खद्यान निषेद है । नाकारात्मक उर्जा का समन्वय मांस , मदीरा , लहसुन ,प्याज कराता है । नाकारात्मक उर्जा का पान करने वाला व्यक्ति को तामसी व्यक्ति कहे जाते है । शाक्त धर्म के अनुसार शक्ति की उपासना स्थल शक्ति पिंड के रूप में शैल पुत्री , ब्रह्मचारिणी , चंद्रघंटा , कुष्माण्डा ,स्कंदमाता , कत्यायनि , कालरात्रि ,गौरी तथा सिद्धदात्री माता को स्थापित करते है । नौ देवियों से साकारात्मक उर्जा प्राप्ति के लिए स्थापित देवी पिंडी तथा मंदिर को शीतल जल से पखार कर दीप प्रज्ज्वलित कर उपासना करते है और नीम पेड तथा समी पेड नाकारात्मक उर्जा को समाप्त करता है। प्राचीन काल में देवीकी उपासना देवी पिंड स्थापित की जाती थी । मानव सभ्यता का विकास के बाद नौ दवी की मूर्तियां की स्थापना कर उपासना का स्थल का रूप हुआ है ।गया जिले का के टिकारी अनुमंडल के केसपा गाँव मे स्थित माँ तारा देवी की मंदिर है । मां तारा स्थल को लोक आस्था तथा शक्तिपीठ माना जाता है । केसपा गाँव महर्षि कश्यप मुनि का साधना और कर्म स्थल और कश्यप ऋषि के अराध्य देवी माता तारा थी । महर्षि कश्यप मुनि के द्वारा ही माता तारा का मंदिर बनवाया गया है । केसपा स्थल महर्षि कश्यप से जुड़ाव है । केसपा गांव का प्राचीन नाम कश्यप पुरी , कश्यपा रहा है । गया जिला से लगभग 37 किमी और टिकारी शहर से 12 किमी. उतर अवस्थित प्रसिद्ध मां तारा देवी के मंदिर अवस्थित है ।ब्रह्माण्ड कल्याण के लिए समुद्र मंथन आरम्भ हुआ था । भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा । समुद्र मंथन से हलाहल विष निकला था । विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे, उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी और मूर्क्षित होने लगे थे । हलाहल को रोकने के लिए देव तथा दानवों द्वारा भगवान शंकर की प्रार्थना कीगई थी । उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उन्होंने उस विष को कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया । उस विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया और वह अर्ध निद्रा में हो गए ।अब क्या होगा. उस समय पुरे जगत में चारों ओर हाहाकार मच गया की महादेव को क्या हो गया है मानव ,दानव देव , जीव , जंतु विह्वल थे । तभी मां तारा प्रकट हुईं. माता आईं और छोटे बालक की तरह महादेव को गोद में उठा लिया । फिर मां तारा ने महादेव को अपना दूध पिलाया । दूध पीते ही महादेव की अर्ध निद्रा टूट गई और महादेव ने मां तारा को प्रणाम किया. इस तरह मां तारा महादेव शिव शंकर की मां हो गईं । पौराणिक अख्यान के अनुसार देव गुरू व्टहस्पति की भार्या तारा तथा चंद्रमा के पुत्र बुध मगध के राजा थे । मगध के राजा बुध की भार्या तथा वैवस्वत मनु की पुत्री इला से पुरूरवा ,गय , उत्कल तथा विशाल हुए । कपीलवस्तु के राजा सुद्धो की पत्नि महामाया के पुत्र भगवान बुद्ध की आराध्या देवी माता तारा थी । केसपा मंदिर में मां तारा की पौराणिक मूर्ति आठ फीट से भी ऊंची है. इस मूर्ति के सामने खड़े होकर नवरात्र में जो हाथ जोड़ लेता है, माता उसके सारे दुख हर लेती हैं। पुरातत्वविदों को मंदिर की दीवारें भी बहुत कुछ बता सकती हैं. यहां की दीवारें चार फीट से ज्यादा चौड़ी हैं ।कच्ची मिट्टी और गदहिया ईट से निर्मित मंदिर के गर्भ गृह की दीवार 4-5 फीट मोटी है । गर्भ गृह की सुन्दर नक्काशिया मंदिर में प्रवेश करने वाले श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है. गर्भ गृह में विराजमान मां तारा देवी की वरद हस्त मुद्रा में उतर विमुख 8 फीट उंची आदमकद प्रतिमा काले पत्थर की बनी है । मां तारा के दोनों ओर दो योगिनी खड़ी है ।मंदिर के चारों ओर एक बड़ा चबूतरा है ।सन 1812 में स्कॉटलैंड के मि. फ्रांसिस बुचनन- भूगोलिक, जीव विज्ञानी और वनस्पति-विज्ञानिक,मि. फ्रांसिस बुकनन केसपा और मां के मंदिर में 4 फरबरी 1812 आये थे. वह लिखते है की उस समय मंदिर मिटटी, ब्रिक्स और स्टोन की बनी हुई थी. मंदिर में बहुत से चित्र दिवार पर बनी हुई थी और मंदिर के दरवाज़े के पास बहुत सी चित्र नष्ट है । मंदिर के दीवार पर प्लास्टर नहीं किया हुआ था. उस समय वहां पर तीन पुजारी पूजा कर रहे थे ।फ्रांसिस बुचनन के अनुसार मंदिर के बीच में मानव आकृति में माँ तारा की प्रतिमा सर से लेकर पैर तक एक साड़ी में ढकी हुई खडी थी । सन 1872 में अमेरिकन-भारतीय इंजिनियर, पुरातत्ववेत्ता मि. जोसेफ डेविड बेलगर, माँ के मंदिर आये.बेलगर के अनुसार यह मंदिर मध्यकालीन युग 9 वीं, 10 वीं शताब्दी में बना गांव के चारो तरफ मंदिर है जो की प्राचीनतम है भगवान बुद्ध की प्रतिमा भी गांव के बिच मे स्थित है । गाँव में बहुत से प्रतिमा जगह जगह दिखाई पड़े है । डेनमार्क के पुरातत्ववेत्ता मि. थिओडोर बलोच द्वारा 1992 ई. में केसपा तारा मंदिर को पुरातात्विक सर्वे कर चुके है । थिओडोर द्वारा मां तारा को आस्था और धार्मिक का केंद्र माना गया है । माँ तारा द्वारा मगध के विदूषक देवन मिश्र को आशिर्वचन दिया गया था । टिकारी राज सात आना के दरबारी विदुषक देवन मिश्र को माँ ने साक्षात् प्रकट होकर आशिर्वचन दी थी । शाक्त धर्म का प्राचीन स्थल में जहानाबाद जिले का बराबर पर्वत समूह की सूर्यांक श्रीखला पर माता सिद्धेश्वरी , वगेश्वरी , मैना मठ के चरूई एवं बेला का का काली स्थान प्राचीन है ।
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