बुधवार, अक्तूबर 28, 2020

चन्द्रमा और औषधियें का दिवस शरद् पूर्णिमा

चंद्रमा की सोलह कला से परिपूर्ण शरद पूर्णिमा 
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय शास्त्रों मे प्रत्येक मास की पूर्णिमा में आश्विन मास की पूर्णिमा चंद्रमा की सोलह कलाओं को समर्पित है ।
जीवन मंत्र तथा ज्योतिष ग्रंथ और पंचांग के अनुसार अश्विन माह की शुरुआत से कार्तिक महीने के अंत तक शरद ऋतु रहती है। शरद ऋतु में 2 पूर्णिमा पड़ती है। इनमें अश्विन माह की पूर्णिमा महत्वपूर्ण मानी गई हैं। इसी पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है। शरद पूर्णिमा कोजगार पूर्णिमा , जागृति पूर्णिमा तथा कुमार पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। पुराणों के अनुसार  रातों का  महत्व है  । नवरात्रि, शिवरात्रि और शरद पूर्णिमा है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार चन्द्रमा को औषधि का देवता माना जाता है। इस दिन चांद अपनी 16 कलाओं से पूरा होकर अमृत की वर्षा करता है। मान्यताओं से अलग वैज्ञानिकों ने भी इस पूर्णिमा को खास बताया है, जिसके पीछे कई सैद्धांतिक और वैज्ञानिक तथ्य छिपे हुए हैं। इस पूर्णिमा पर चावल और दूध से बनी खीर को चांदनी रात में रखकर प्रात: 4 बजे सेवन किया जाता है। इससे रोग खत्म हो जाते हैं । वैज्ञानिक शोध के अनुसार इस दिन दूध से बने उत्पाद का चांदी के पात्र में सेवन करना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा का स्नान करना चाहिए। इस दिन बनने वाला वातावरण दमा के रोगियों के लिए विशेषकर लाभकारी माना गया है।  
आयुर्वेद के अनुसार शरद पूर्णिमा पर औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। औषधियों का प्रभाव बढ़ जाता है रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।  वैज्ञानिकों के अनुसार दूध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और भी आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है और इस खीर का सेवन सेहत के लिए महत्वपूर्ण बताया है। इससे पुनर्योवन शक्ति और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है।
चंद्रमा  औषधियों के देव है ।ज्‍योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है।हिन्दू धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है।
शरद पूर्णिमा कथा - एक साहुकार के दो पुत्रियाँ थी। दोनो पुत्रियाँ पुर्णिमा का व्रत रखती थी। परन्तु बडी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधुरा व्रत करती थी। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान पैदा ही मर जाती थी। उसने पंडितो से इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी सन्तान पैदा होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पुरा विधिपुर्वक करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती है। उसने पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। उसके लडका हुआ परन्तु शीघ्र ही मर गया। उसने लडके को पीढे पर लिटाकर ऊपर से पकडा ढक दिया। फिर बडी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पीढा दे दिया। बडी बहन जब पीढे पर बैठने लगी जो उसका घाघरा बच्चे का छू गया। बच्चा घाघरा छुते ही रोने लगा। बडी बहन बोली-” तु मुझे कंलक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता।“ तब छोटी बहन बोली, ” यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। “उसके बाद नगर में उसने पुर्णिमा का पूरा व्रत करने की परंपरा कायम हो गयी ।मनुष्य विधिपूर्वक स्नान करके उपवास रखे और जितेन्द्रिय भाव से रहे। धनवान व्यक्ति ताँबे अथवा मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढँकी हुई स्वर्णमयी लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारों से उनकी पूजा करें, तदनंतर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के घी से भरे हुए १०० दीपक जलाए। इसके बाद घी मिश्रित खीर तैयार करे और बहुत-से पात्रों में डालकर उसे चन्द्रमा की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर (३ घंटे) बीत जाएँ, तब लक्ष्मीजी को सारी खीर अर्पण करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक ग़रीबों को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएँ और उनके साथ ही मांगलिक गीत गाकर तथा मंगलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनंतर अरुणोदय काल में स्नान करके लक्ष्मीजी की वह स्वर्णमयी प्रतिमा किसी दीन दुःखी को अर्पित करें। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूँगी। प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं। शरं ददाति इति शरदः ॥ शरद का अर्थ है कि जिस ऋतु में शर (बाण) प्राप्त हों वह शरद है। शर किसलिये? अपनी सुरक्षा के लिये। यही वह ऋतु है जब सरकण्डा मिलता है जिसका उपयोग बाण बनाने में किया जाता था। शर या इषु , मास इष ऋतु शरद । यही शर थे जिन्हें भूमि पर बिछाकर भीष्म को लेटाया गया था और एक गट्ठर सिर रखने के लिये भी दिया गया था।बिना अच्छे आयुधों के युद्ध नहीं जीता जा सकता है। उस काल में धनुष-बाण ही सबसे अच्छा आयुध था, शत्रु को दूर से ही मारने के लिये इससे अच्छा कुछ नहीं था। शत्रु से दूरी बनाकर प्रहार करने से स्वयं को हानि होने की संभावना नहीं रहती है। शरद ऋतु की ही देन था आहार अर्थात् चावल । साठिया चावल और इसके साथ ही उगने वाला समा (सावां)। समा अर्थात् सम्वत्सर , एक वर्ष पूर्ण होने का काल । समा का एक अर्थ और भी है दिन-रात्रि के सम होने का काल अर्थात् विषुव । शरद में भी विषुव दिवस होता है। शरद और सम्वत्सर एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुये। पश्येम शरदः शतम् ।।१।। जीवेम शरदः शतम् ।।२।। बुध्येम शरदः शतम् ।।३।। रोहेम शरदः शतम् ।।४।। पूषेम शरदः शतम् ।।५।। भवेम शरदः शतम् ।।६।। भूयेम शरदः शतम् ।।७।। भूयसीः शरदः शतात् ।।८।। (अथर्वसंहिता, काण्ड १९, सूक्त ६७)
मैत्रायणीयमानवगृह्यसूत्र के द्वितीय पुरुष के पन्द्रहवें खण्ड में 'कर्त का उल्लेख है।कार्तिक मास कृत्तिका नक्षत्रयुक्त पूर्णमासी होने से होता है। कृत्तिका अर्थात् कर्तन करने वाली। कपास का कर्तन अर्थात् कपास काटना और फिर सूत कातना।कर्तन शब्द कताई कार्य हेतु भी प्रयुक्त होता है। वेदमन्त्रों में कर्तवे क्रतु शब्दों को कपास कर्तन के सन्दर्भ में देखने से यह स्पष्ट होता है कि शतक्रतु उसे कह सकते हैं जिसने कपास की सौ फसलें उगा लीं। शरद में तैयार होने वाली कपास और जीवेम शरदः शतम्।दीपावली में दीप प्रज्वलन हेतु जिस तेल और बाती(वर्तिका) की आवश्यकता है वह अभी प्राप्त होने वाली तिल और कपास की उपज से ही आती है। धान से खीलें मिलती हैं और ईख भी अभी आती है।
कार्तिक मास से कर्तन कार्य होने लगता है, जाड़ों के लिये रुई भरकर रजाई और गद्दों का तैयार किया जाना आरम्भ हो जाता है।इन्वका को खोजते यहाँ तक पहुँचे । इन्वका मृगशीर्ष है, ओरॉयन के पाँच तारे। इल्वलारि अगस्त्य हैं। सम्भवतः पहले मार्गशीर्ष की समाप्ति पर अगस्त्योदय होता होगा । शरद ऋतु का मास । शर का अर्थ ५ भी होता है। इळा , इला , ऐळ ऐल । ऐला ? इलायची का देश । इलविला  ,भविष्यपुराण ३.३.१२.१०१( ऐलविली : योग सिद्धि युक्त कामी राक्षस, चित्र राक्षस का अवतार, कृष्णांश आदि द्वारा वध ), ३.४.१५.१( इल्वला : विश्रवा मुनि की तामसी शक्ति, यक्षशर्मा द्वारा आराधना, जन्मान्तर में यक्षशर्मा का कर्णाटक - राजा व इल्वला - पुत्र कुबेर बनना ), भागवत पुराण ४.१.३७( इडविडा : विश्रवा - पत्नी, कुबेर - माता ), ९.२.३१( इडविडा : तृणबिन्दु व अलम्बुषा की कन्या, विश्रवा - भार्या, कुबेर - माता ), वायु पुराण ७०.३१/२.९.३१( इडिविला : तृणबिन्दु - कन्या, विश्रवा - भार्या, कुबेर - माता ), ८६.१६/२.२४.१६(द्रविडा  : तृणबिन्दु - पुत्री, विश्रवा - माता, विशाल - भगिनी ; तुलनीय : इडविडा), विष्णु पुराण ४.१.४७( तृणबिन्दु व अलम्बुषा की कन्या ), विष्णुधर्मोत्तर ३.१०४.५९( मृगशिरा नक्षत्र का नाम, आवाहन मन्त्र ), लक्ष्मीनारायण संहिता २.८४+( पुलस्त्य - पत्नी ऐलविला ।इडविड और द्रविड एक ही क्रिया धातु 'ऋ' से ऋत शब्द की उत्पत्ति है। ऋ का अर्थ है उदात्त अर्थात ऊर्ध्व गति। 'त' जुड़ने के साथ ही इसमें स्थैतिक भाव आ जाता है - सुसम्बद्ध क्रमिक गति। प्रकृति की चक्रीय गति ऐसी ही है और इसी के साथ जुड़ कर जीने में उत्थान है। इसी भाव के साथ वेदों में विराट प्राकृतिक योजना को ऋत कहा गया। क्रमिक होने के कारण वर्ष भर में होने वाले जलवायु परिवर्तन वर्ष दर वर्ष स्थैतिक हैं। प्रभाव में समान वर्ष के कालखंडों की सर्वनिष्ठ संज्ञा हुई 'ऋतु'  । उनका कारक विष्णु अर्थात धरा को तीन पगों से मापने वाला वामन 'ऋत का हिरण्यगर्भ' हुआ और प्रजा का पालक पति प्रथम व्यंजन 'क' कहलाया। आश्चर्य नहीं कि हर चन्द्र महीने रजस्वला होती स्त्री 'ऋतुमती' कहलायी जिसका सम्बन्ध सृजन की नियत व्यवस्था से होने के कारण यह अनुशासन दिया गया - ऋतुदान अर्थात गर्भधारण को तैयार स्त्री द्वारा संयोग की माँग का निरादर 'अधर्म' है। इसी से आगे बढ़ कर गृह्स्थों के लिये धर्म व्यवस्था बनी - केवल ऋतुस्नान के पश्चात संतानोत्पत्ति हेतु युगनद्ध होने वाले दम्पति ब्रह्मचारियों के तुल्य होते हैं।आयुर्वेद का ऋतु अनुसार आहार विहार हो या ग्रामीण उक्तियाँ - चइते चना, बइसाखे बेल  सबमें ऋत अनुकूलन द्वारा जीवन को सुखी और परिवेश को गतिशील बनाये रखने का भाव ही छिपा हुआ है।  ऋत को समान धर्मी अंग्रेजी शब्द Rhythm से समझा जा सकता है - लय। निश्चित योजना और क्रम की ध्वनि जो ग्राह्य भी हो, संगीत का सृजन करती है। लयबद्ध गायन विराट ऋत से अनुकूलन है। देवताओं के आच्छादन 'छन्द' की वार्णिक और मात्रिक सुव्यवस्था भी ऋतपथ है। धार्मिक कर्मकांडों में भी एक सुनिश्चित क्रम और लय द्वारा इसी ऋत का अनुसरण किया जाता है। 'रीति रिवाज' यहीं से आते हैं। लैटिन ritus परम्परा से जुड़ता है। परम्परा है क्या - एक निश्चित विधि से बारम्बार किये काम की परिपाटी जो कि जनमानस में पैठ कर घर बना लेती है।कर्मकांड' में 'कर्म' शब्द क्यों है? कर्म जो करणीय है वह ऋत का अनुकरण है। कर्मकांडों के दौरान ऋत व्यवहार को एक्ट किया जाता है।शतपथ ब्राह्मण ८.३.४.१० में , इष, ऊर्ज, रयि व पोष, क्वांर/आश्विन , कार्तिक , अग्रहायण/मार्गशीर्ष ,  पौष  चार मास को अन्न रूपी पशु के चार पाद कहा गया है. इष और ऊर्ज  शरद ऋतु के मास हैं . ,ज्वार, बाजरा , तिल आदि की प्राप्ति .रयि (सम्पदा, समृद्धि) मार्गशीर्ष में धान की फसल आ जाने से होती है । पौष मास  पुष्य , पुष्टिकर्ता होने से . ,वेदमन्त्रों में अश्विन के साथ इष की , ऊर्ज के साथ नपात्  शब्द की बहुधा आवृत्ति है । नपात् का सम्बन्ध शरद सम्पात से है . ।हो भी या नहीं भी । स्थूल विभाग से धान के दो प्रकार हैं। १.वसहन   २.जड़हन। जो धान  शरद विषुव के पूर्व  पुष्पित हो जाते हैं और अक्टूबर, नवंबर में तैयार होते हैं। उनको वसहन कहा जाता है। शरद विषुव के बाद पुष्पित होने वाले जड़हन कहे जाते हैं। सुगन्धित धान जड़हन में आते हैं।सस्य में कीटनाशक रसायन का प्रयोग—अङ्गिरसों ने कठिनाई से वृष्टि द्वारा ओषधियों को उत्पन्न किया। पितरों ने विष से उसका लिम्पन कर दिया । तब पितरों को भाग देने से ओषधियां स्वादिष्ट बनी । अङ्गिरसो वै सत्रमासत। तेषां पृश्निर्घर्मधुगासीत्। सर्जीषेणाजीवत्। तेऽब्रुवन्। कस्मै नु सत्रमास्महे। येस्या ओषधीर्न जनयाम इति।ते दिवोवृष्टिमसृजन्त। यावन्तः स्तोका अवापद्यन्त। तावतीरोषधयोऽजायन्त। ता जाताः पितरो विषेणालिम्पन्। कौषीतकीब्राह्मण में आग्रयणेष्टि में स्पष वर्षा से उत्पन्न होने वाले 'श्यामाक'धान का उल्लेख है, शरद-ऋतु में नवसस्येष्टि यज्ञ होता है।आग्रयणेन अन्न अद्य कामो यजेत वर्षास् आगते श्यामाक सस्ये । इससे भी स्पष्ट है कि "श्यामाक" धान की विधिवत् कृषि की जाती थी।इषे त्वा ऊर्जे त्वा ॥ भारत में एक ऋतु दो माह की कही जाती है, उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र के लिये यही अनुभव में भी है।इष और ऊर्ज मास शरद ऋतु के मास कहे जाते हैं, भारत की कृषि वर्षा पर आधारित रही है। वर्षा ऋतु के भी दो मास होना चाहिये,लेकिन हम पाते हैं कि वर्षा ऋतु को चौमासा कहा जाने लगा है,वर्षा दो ही मास होती है, फिर चार मास कैसे हो गये?वर्षारम्भ पर किसान आनन्दित होता है, अन्य जन लेखक कवि बाल युवा युवती भी आनन्दित होते हैं लेकिन इनका आनन्दित होना अभौतिक है।किसान का आनन्दित होना ही वास्तविक आनन्द है, अन्नदा धरती,  अन्नद कृषक और इसमें हेतु होती है वर्षा ।क्वांर और कार्तिक माह वर्षा ऋतु के दो मास होते थे, इसे बरतने वाले लोग परम्परा से इन मासों के साथ वर्षा ऋतु का व्यवहार करते चले आ रहे थे,४००० - ५००० वर्ष बीत गयेतब लगा कि क्वांर कार्तिक (इष ऊर्ज) से बहुत पहले ही वर्षा होने लगी है, सावन भादों में । सावन से शुरू होकर छिटपुट क्वांर कार्तिक तक .... तो वर्षाकाल सम्बन्धी बातों का समन्वय सावन भादों (श्रावण - श्रविष्ठा) से करते हुये क्वांर कार्तिक को भी स्मृति में बनाये रखा ।ऋतुचक्र भ्रमणशील है सो यहाँ पर भी वह रुक नहीं सकता था..और पीछे सरक कर यह आषाढ़ में आया और एक पैर जेठ की ओर उठा दिया।घाघ कहते हैं कि ऋतु को एक महीना पहले ही आया जानो, जेठ में ही आषाढ़ के कृत्य करो.. जेठ में ही खेत की जुताई कर डालो।घाघ यह भी कहते हैं कि खेत को दोबार जोतना तभी फसल अच्छी होगी।तो बात है वर्ष के सबसे बड़े दिन की, जब दक्षिणायनारम्भ होता हैपुराने विवरण यह बताते हैं कि इस दिवस में रात्रि होती है १२ मुहूर्त की और दिन होता है १८ मुहूर्त का यानी १४ घण्टे से भी कुछ अधिक का ।भारत में दक्षिणायनारम्भ दिवस पर छाया मापन और दिवस प्रमाण ज्ञात करने की प्राचीन परम्परा रही है। यदि आप साढ़े तेइस अंश उत्तरी अक्षांश के दक्षिण में हैं तो ठीक मध्याह्न होने पर आपकी छाया पृथ्वी पर नहीं बनेगी । एक पल के लिये ही सही आप अपने आपको देवता फील कर सकते हैं, क्योंकि देवों की भी छाया नहीं बनती है।आर्य्यभट, वराहमिहिर ने ऋतु  पर विचार किया है । ज्योतिषचार्यों और गर्ग तथा नारद जैसे ऋषियों के वचनों को ध्यान में रखकर ही इन दोनों ने अयन की गति और अयन के समायोजन हेतु गणितीय सूत्र दिये । जिनकी चर्चा आगे होगी.वराहमिहिर और आर्य्यभट से कम से कम पाँच हजार वर्ष पहले से चली आ रही चान्द्रमास और सौरवर्ष पर आधारित व्यवस्था में ऋतुवर्ष का देश में ही नहीं विदेशों में   विचार और ज्ञान का विनिमय हुआ।रामायण और महाभारत में विनिमय को श्रद्धा कहा गया है । शरद पूर्णिमा औषधियों स्त्रष्टा और स्वामी  चन्द्रमा द्वारा 16 कलाओं का उत्पन्न कर मानव जीवन की निरोगता कार्य किया गया है । प्रत्ये क वर्ष आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा को स्वर्ग से भू तथा जल पर अम्टत गिराये जने से ब्रमाण्ड प्रफुल्लित होता है । औषधियों का दिवस शरद् पूर्णिमा हैचंद्रमा की सोलह कला से परिपूर्ण शरद पूर्णिमा 
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय शास्त्रों मे प्रत्येक मास की पूर्णिमा में आश्विन मास की पूर्णिमा चंद्रमा की सोलह कलाओं को समर्पित है ।
जीवन मंत्र तथा ज्योतिष ग्रंथ और पंचांग के अनुसार अश्विन माह की शुरुआत से कार्तिक महीने के अंत तक शरद ऋतु रहती है। शरद ऋतु में 2 पूर्णिमा पड़ती है। इनमें अश्विन माह की पूर्णिमा महत्वपूर्ण मानी गई हैं। इसी पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है। शरद पूर्णिमा कोजगार पूर्णिमा , जागृति पूर्णिमा तथा कुमार पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। पुराणों के अनुसार  रातों का  महत्व है  । नवरात्रि, शिवरात्रि और शरद पूर्णिमा है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार चन्द्रमा को औषधि का देवता माना जाता है। इस दिन चांद अपनी 16 कलाओं से पूरा होकर अमृत की वर्षा करता है। मान्यताओं से अलग वैज्ञानिकों ने भी इस पूर्णिमा को खास बताया है, जिसके पीछे कई सैद्धांतिक और वैज्ञानिक तथ्य छिपे हुए हैं। इस पूर्णिमा पर चावल और दूध से बनी खीर को चांदनी रात में रखकर प्रात: 4 बजे सेवन किया जाता है। इससे रोग खत्म हो जाते हैं । वैज्ञानिक शोध के अनुसार इस दिन दूध से बने उत्पाद का चांदी के पात्र में सेवन करना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा का स्नान करना चाहिए। इस दिन बनने वाला वातावरण दमा के रोगियों के लिए विशेषकर लाभकारी माना गया है।  
आयुर्वेद के अनुसार शरद पूर्णिमा पर औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। औषधियों का प्रभाव बढ़ जाता है रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।  वैज्ञानिकों के अनुसार दूध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और भी आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है और इस खीर का सेवन सेहत के लिए महत्वपूर्ण बताया है। इससे पुनर्योवन शक्ति और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है।
चंद्रमा  औषधियों के देव है ।ज्‍योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है।हिन्दू धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है।
शरद पूर्णिमा कथा - एक साहुकार के दो पुत्रियाँ थी। दोनो पुत्रियाँ पुर्णिमा का व्रत रखती थी। परन्तु बडी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधुरा व्रत करती थी। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान पैदा ही मर जाती थी। उसने पंडितो से इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी सन्तान पैदा होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पुरा विधिपुर्वक करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती है। उसने पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। उसके लडका हुआ परन्तु शीघ्र ही मर गया। उसने लडके को पीढे पर लिटाकर ऊपर से पकडा ढक दिया। फिर बडी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पीढा दे दिया। बडी बहन जब पीढे पर बैठने लगी जो उसका घाघरा बच्चे का छू गया। बच्चा घाघरा छुते ही रोने लगा। बडी बहन बोली-” तु मुझे कंलक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता।“ तब छोटी बहन बोली, ” यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। “उसके बाद नगर में उसने पुर्णिमा का पूरा व्रत करने की परंपरा कायम हो गयी ।मनुष्य विधिपूर्वक स्नान करके उपवास रखे और जितेन्द्रिय भाव से रहे। धनवान व्यक्ति ताँबे अथवा मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढँकी हुई स्वर्णमयी लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारों से उनकी पूजा करें, तदनंतर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के घी से भरे हुए १०० दीपक जलाए। इसके बाद घी मिश्रित खीर तैयार करे और बहुत-से पात्रों में डालकर उसे चन्द्रमा की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर (३ घंटे) बीत जाएँ, तब लक्ष्मीजी को सारी खीर अर्पण करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक ग़रीबों को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएँ और उनके साथ ही मांगलिक गीत गाकर तथा मंगलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनंतर अरुणोदय काल में स्नान करके लक्ष्मीजी की वह स्वर्णमयी प्रतिमा किसी दीन दुःखी को अर्पित करें। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूँगी। प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं। शरं ददाति इति शरदः ॥ शरद का अर्थ है कि जिस ऋतु में शर (बाण) प्राप्त हों वह शरद है। शर किसलिये? अपनी सुरक्षा के लिये। यही वह ऋतु है जब सरकण्डा मिलता है जिसका उपयोग बाण बनाने में किया जाता था। शर या इषु , मास इष ऋतु शरद । यही शर थे जिन्हें भूमि पर बिछाकर भीष्म को लेटाया गया था और एक गट्ठर सिर रखने के लिये भी दिया गया था।बिना अच्छे आयुधों के युद्ध नहीं जीता जा सकता है। उस काल में धनुष-बाण ही सबसे अच्छा आयुध था, शत्रु को दूर से ही मारने के लिये इससे अच्छा कुछ नहीं था। शत्रु से दूरी बनाकर प्रहार करने से स्वयं को हानि होने की संभावना नहीं रहती है। शरद ऋतु की ही देन था आहार अर्थात् चावल । साठिया चावल और इसके साथ ही उगने वाला समा (सावां)। समा अर्थात् सम्वत्सर , एक वर्ष पूर्ण होने का काल । समा का एक अर्थ और भी है दिन-रात्रि के सम होने का काल अर्थात् विषुव । शरद में भी विषुव दिवस होता है। शरद और सम्वत्सर एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुये। पश्येम शरदः शतम् ।।१।। जीवेम शरदः शतम् ।।२।। बुध्येम शरदः शतम् ।।३।। रोहेम शरदः शतम् ।।४।। पूषेम शरदः शतम् ।।५।। भवेम शरदः शतम् ।।६।। भूयेम शरदः शतम् ।।७।। भूयसीः शरदः शतात् ।।८।। (अथर्वसंहिता, काण्ड १९, सूक्त ६७)
मैत्रायणीयमानवगृह्यसूत्र के द्वितीय पुरुष के पन्द्रहवें खण्ड में 'कर्त का उल्लेख है।कार्तिक मास कृत्तिका नक्षत्रयुक्त पूर्णमासी होने से होता है। कृत्तिका अर्थात् कर्तन करने वाली। कपास का कर्तन अर्थात् कपास काटना और फिर सूत कातना।कर्तन शब्द कताई कार्य हेतु भी प्रयुक्त होता है। वेदमन्त्रों में कर्तवे क्रतु शब्दों को कपास कर्तन के सन्दर्भ में देखने से यह स्पष्ट होता है कि शतक्रतु उसे कह सकते हैं जिसने कपास की सौ फसलें उगा लीं। शरद में तैयार होने वाली कपास और जीवेम शरदः शतम्।दीपावली में दीप प्रज्वलन हेतु जिस तेल और बाती(वर्तिका) की आवश्यकता है वह अभी प्राप्त होने वाली तिल और कपास की उपज से ही आती है। धान से खीलें मिलती हैं और ईख भी अभी आती है।
कार्तिक मास से कर्तन कार्य होने लगता है, जाड़ों के लिये रुई भरकर रजाई और गद्दों का तैयार किया जाना आरम्भ हो जाता है।इन्वका को खोजते यहाँ तक पहुँचे । इन्वका मृगशीर्ष है, ओरॉयन के पाँच तारे। इल्वलारि अगस्त्य हैं। सम्भवतः पहले मार्गशीर्ष की समाप्ति पर अगस्त्योदय होता होगा । शरद ऋतु का मास । शर का अर्थ ५ भी होता है। इळा , इला , ऐळ ऐल । ऐला ? इलायची का देश । इलविला  ,भविष्यपुराण ३.३.१२.१०१( ऐलविली : योग सिद्धि युक्त कामी राक्षस, चित्र राक्षस का अवतार, कृष्णांश आदि द्वारा वध ), ३.४.१५.१( इल्वला : विश्रवा मुनि की तामसी शक्ति, यक्षशर्मा द्वारा आराधना, जन्मान्तर में यक्षशर्मा का कर्णाटक - राजा व इल्वला - पुत्र कुबेर बनना ), भागवत पुराण ४.१.३७( इडविडा : विश्रवा - पत्नी, कुबेर - माता ), ९.२.३१( इडविडा : तृणबिन्दु व अलम्बुषा की कन्या, विश्रवा - भार्या, कुबेर - माता ), वायु पुराण ७०.३१/२.९.३१( इडिविला : तृणबिन्दु - कन्या, विश्रवा - भार्या, कुबेर - माता ), ८६.१६/२.२४.१६(द्रविडा  : तृणबिन्दु - पुत्री, विश्रवा - माता, विशाल - भगिनी ; तुलनीय : इडविडा), विष्णु पुराण ४.१.४७( तृणबिन्दु व अलम्बुषा की कन्या ), विष्णुधर्मोत्तर ३.१०४.५९( मृगशिरा नक्षत्र का नाम, आवाहन मन्त्र ), लक्ष्मीनारायण संहिता २.८४+( पुलस्त्य - पत्नी ऐलविला ।इडविड और द्रविड एक ही क्रिया धातु 'ऋ' से ऋत शब्द की उत्पत्ति है। ऋ का अर्थ है उदात्त अर्थात ऊर्ध्व गति। 'त' जुड़ने के साथ ही इसमें स्थैतिक भाव आ जाता है - सुसम्बद्ध क्रमिक गति। प्रकृति की चक्रीय गति ऐसी ही है और इसी के साथ जुड़ कर जीने में उत्थान है। इसी भाव के साथ वेदों में विराट प्राकृतिक योजना को ऋत कहा गया। क्रमिक होने के कारण वर्ष भर में होने वाले जलवायु परिवर्तन वर्ष दर वर्ष स्थैतिक हैं। प्रभाव में समान वर्ष के कालखंडों की सर्वनिष्ठ संज्ञा हुई 'ऋतु'  । उनका कारक विष्णु अर्थात धरा को तीन पगों से मापने वाला वामन 'ऋत का हिरण्यगर्भ' हुआ और प्रजा का पालक पति प्रथम व्यंजन 'क' कहलाया। आश्चर्य नहीं कि हर चन्द्र महीने रजस्वला होती स्त्री 'ऋतुमती' कहलायी जिसका सम्बन्ध सृजन की नियत व्यवस्था से होने के कारण यह अनुशासन दिया गया - ऋतुदान अर्थात गर्भधारण को तैयार स्त्री द्वारा संयोग की माँग का निरादर 'अधर्म' है। इसी से आगे बढ़ कर गृह्स्थों के लिये धर्म व्यवस्था बनी - केवल ऋतुस्नान के पश्चात संतानोत्पत्ति हेतु युगनद्ध होने वाले दम्पति ब्रह्मचारियों के तुल्य होते हैं।आयुर्वेद का ऋतु अनुसार आहार विहार हो या ग्रामीण उक्तियाँ - चइते चना, बइसाखे बेल  सबमें ऋत अनुकूलन द्वारा जीवन को सुखी और परिवेश को गतिशील बनाये रखने का भाव ही छिपा हुआ है।  ऋत को समान धर्मी अंग्रेजी शब्द Rhythm से समझा जा सकता है - लय। निश्चित योजना और क्रम की ध्वनि जो ग्राह्य भी हो, संगीत का सृजन करती है। लयबद्ध गायन विराट ऋत से अनुकूलन है। देवताओं के आच्छादन 'छन्द' की वार्णिक और मात्रिक सुव्यवस्था भी ऋतपथ है। धार्मिक कर्मकांडों में भी एक सुनिश्चित क्रम और लय द्वारा इसी ऋत का अनुसरण किया जाता है। 'रीति रिवाज' यहीं से आते हैं। लैटिन ritus परम्परा से जुड़ता है। परम्परा है क्या - एक निश्चित विधि से बारम्बार किये काम की परिपाटी जो कि जनमानस में पैठ कर घर बना लेती है।कर्मकांड' में 'कर्म' शब्द क्यों है? कर्म जो करणीय है वह ऋत का अनुकरण है। कर्मकांडों के दौरान ऋत व्यवहार को एक्ट किया जाता है।शतपथ ब्राह्मण ८.३.४.१० में , इष, ऊर्ज, रयि व पोष, क्वांर/आश्विन , कार्तिक , अग्रहायण/मार्गशीर्ष ,  पौष  चार मास को अन्न रूपी पशु के चार पाद कहा गया है. इष और ऊर्ज  शरद ऋतु के मास हैं . ,ज्वार, बाजरा , तिल आदि की प्राप्ति .रयि (सम्पदा, समृद्धि) मार्गशीर्ष में धान की फसल आ जाने से होती है । पौष मास  पुष्य , पुष्टिकर्ता होने से . ,वेदमन्त्रों में अश्विन के साथ इष की , ऊर्ज के साथ नपात्  शब्द की बहुधा आवृत्ति है । नपात् का सम्बन्ध शरद सम्पात से है . ।हो भी या नहीं भी । स्थूल विभाग से धान के दो प्रकार हैं। १.वसहन   २.जड़हन। जो धान  शरद विषुव के पूर्व  पुष्पित हो जाते हैं और अक्टूबर, नवंबर में तैयार होते हैं। उनको वसहन कहा जाता है। शरद विषुव के बाद पुष्पित होने वाले जड़हन कहे जाते हैं। सुगन्धित धान जड़हन में आते हैं।सस्य में कीटनाशक रसायन का प्रयोग—अङ्गिरसों ने कठिनाई से वृष्टि द्वारा ओषधियों को उत्पन्न किया। पितरों ने विष से उसका लिम्पन कर दिया । तब पितरों को भाग देने से ओषधियां स्वादिष्ट बनी । अङ्गिरसो वै सत्रमासत। तेषां पृश्निर्घर्मधुगासीत्। सर्जीषेणाजीवत्। तेऽब्रुवन्। कस्मै नु सत्रमास्महे। येस्या ओषधीर्न जनयाम इति।ते दिवोवृष्टिमसृजन्त। यावन्तः स्तोका अवापद्यन्त। तावतीरोषधयोऽजायन्त। ता जाताः पितरो विषेणालिम्पन्। कौषीतकीब्राह्मण में आग्रयणेष्टि में स्पष वर्षा से उत्पन्न होने वाले 'श्यामाक'धान का उल्लेख है, शरद-ऋतु में नवसस्येष्टि यज्ञ होता है।आग्रयणेन अन्न अद्य कामो यजेत वर्षास् आगते श्यामाक सस्ये । इससे भी स्पष्ट है कि "श्यामाक" धान की विधिवत् कृषि की जाती थी।इषे त्वा ऊर्जे त्वा ॥ भारत में एक ऋतु दो माह की कही जाती है, उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र के लिये यही अनुभव में भी है।इष और ऊर्ज मास शरद ऋतु के मास कहे जाते हैं, भारत की कृषि वर्षा पर आधारित रही है। वर्षा ऋतु के भी दो मास होना चाहिये,लेकिन हम पाते हैं कि वर्षा ऋतु को चौमासा कहा जाने लगा है,वर्षा दो ही मास होती है, फिर चार मास कैसे हो गये?वर्षारम्भ पर किसान आनन्दित होता है, अन्य जन लेखक कवि बाल युवा युवती भी आनन्दित होते हैं लेकिन इनका आनन्दित होना अभौतिक है।किसान का आनन्दित होना ही वास्तविक आनन्द है, अन्नदा धरती,  अन्नद कृषक और इसमें हेतु होती है वर्षा ।क्वांर और कार्तिक माह वर्षा ऋतु के दो मास होते थे, इसे बरतने वाले लोग परम्परा से इन मासों के साथ वर्षा ऋतु का व्यवहार करते चले आ रहे थे,४००० - ५००० वर्ष बीत गयेतब लगा कि क्वांर कार्तिक (इष ऊर्ज) से बहुत पहले ही वर्षा होने लगी है, सावन भादों में । सावन से शुरू होकर छिटपुट क्वांर कार्तिक तक .... तो वर्षाकाल सम्बन्धी बातों का समन्वय सावन भादों (श्रावण - श्रविष्ठा) से करते हुये क्वांर कार्तिक को भी स्मृति में बनाये रखा ।ऋतुचक्र भ्रमणशील है सो यहाँ पर भी वह रुक नहीं सकता था..और पीछे सरक कर यह आषाढ़ में आया और एक पैर जेठ की ओर उठा दिया।घाघ कहते हैं कि ऋतु को एक महीना पहले ही आया जानो, जेठ में ही आषाढ़ के कृत्य करो.. जेठ में ही खेत की जुताई कर डालो।घाघ यह भी कहते हैं कि खेत को दोबार जोतना तभी फसल अच्छी होगी।तो बात है वर्ष के सबसे बड़े दिन की, जब दक्षिणायनारम्भ होता हैपुराने विवरण यह बताते हैं कि इस दिवस में रात्रि होती है १२ मुहूर्त की और दिन होता है १८ मुहूर्त का यानी १४ घण्टे से भी कुछ अधिक का ।भारत में दक्षिणायनारम्भ दिवस पर छाया मापन और दिवस प्रमाण ज्ञात करने की प्राचीन परम्परा रही है। यदि आप साढ़े तेइस अंश उत्तरी अक्षांश के दक्षिण में हैं तो ठीक मध्याह्न होने पर आपकी छाया पृथ्वी पर नहीं बनेगी । एक पल के लिये ही सही आप अपने आपको देवता फील कर सकते हैं, क्योंकि देवों की भी छाया नहीं बनती है।आर्य्यभट, वराहमिहिर ने ऋतु  पर विचार किया है । ज्योतिषचार्यों और गर्ग तथा नारद जैसे ऋषियों के वचनों को ध्यान में रखकर ही इन दोनों ने अयन की गति और अयन के समायोजन हेतु गणितीय सूत्र दिये । जिनकी चर्चा आगे होगी.वराहमिहिर और आर्य्यभट से कम से कम पाँच हजार वर्ष पहले से चली आ रही चान्द्रमास और सौरवर्ष पर आधारित व्यवस्था में ऋतुवर्ष का देश में ही नहीं विदेशों में   विचार और ज्ञान का विनिमय हुआ।रामायण और महाभारत में विनिमय को श्रद्धा कहा गया है । शरद पूर्णिमा औषधियों स्त्रष्टा और स्वामी  चन्द्रमा द्वारा 16 कलाओं का उत्पन्न कर मानव जीवन की निरोगता कार्य किया गया है । प्रत्ये क वर्ष आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा को स्वर्ग से भू तथा जल पर अम्टत गिराये जने से ब्रह्माण्ड प्रफुल्लित होता है

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