भारतीय ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा जी का एक दिन में चौदह मनु शासन करते है । सातवें मनु वैवश्वत काल का अठाईसवां महायुग चल रहा है ।एक महायुग में सौर वर्ष 4323000 है।चौदह मनुमय स्टष्ठि 1955885121कल्पारंभ से कलियुग के 5121 वर्ष प्रारंभ है। श्वेत वाराह कल्प , सावर्णि मन्वन्तर का कलियुग संबत 5121 ,चैत्र शुक्ल प्रतिपदा , विक्रम संबत् 2077 तथा एक जनवरी से ईस्वी संबत 2020 प्रारंभ है ।
महर्षि कश्यप की भार्या अदिति के पुत्र भगवान सूर्य की पत्नि विश्वकर्मा की पुत्री संग्या के गर्भ से वैवश्वत मनु, यम पुत्र तथा यमी पुत्री हुई । संग्या से उत्पन्न छाया के गर्भ से सावर्णी , शनि पुत्र तथा तप्ती पुत्री हुई थी । भगवान सूर्य के पुत्र अश्विनी , कुमार ,रेवन्तक हुए । आठवें सावर्णी मनु के सावर्णी मन्वन्तर में सुतप,अमिताभ देवता , दीप्तिमान, , गालव ,राम ,क्टप , अश्वत्थामा , क्टष्णद्वपायन सप्तर्षि है ।विरोचन पुत्र बलि इंद्र और पुत्रों में विरजा ,उर्वरीवान,, निर्भोक राजा हुए है । नवें मनु दछ सावर्णि मन्वन्तर में पार, मरीचिगरभ ,सुशर्मा देवता तथा अद्भुत इंद्र है । सवन,द्युतिमान ,भब्य ,वसु ,मेधातिथि,ज्योतिषमान ,सत्य सप्तर्षि तथा पुत्रों में ध्टतकेतु ,दीप्तिकेतु, पंचहस्त ,निरामय, प्टथुश्रवा है।२८ व्यास -ब्रह्मजी व्यास प्रजापति व्यास , शुक्राचार्य व्यास , व्टहस्पति व्यास ,सूर्य व्यास ,म्टत्य व्यास ,इंद्र व्यास,वसिष्ट व्यास ,सारस्वत व्यास त्रिधामा व्यास ,त्रिशिख व्यास ,भारद्वाज व्यास ,अंतरिछ व्यास ,वर्णी व्यास ,त्रयारूण व्यास , धनंदजय,क्रतुंजय ,जय,भारद्वाज ,गौतम , ,हर्यात्मा ,वाजश्रवा ,त्टणबिंदु ,रीछ वालमीकि , , शक्ति तथा क्टष्णद्वैपायन हुए है।कलियुग में अश्वस्थामा व्यास है। सनातन धर्म के अनुसार मनु संसार के प्रथम पुरुष थे।वराह कल्प में सावर्णि मनु 19700 वि.सं. पूर्व जन्म हुआ था। प्रथम मनु का नाम स्वयंभुव मनु था, जिनके संग प्रथम स्त्री थी शतरूपा। ये 'स्वयं भू' (अर्थात स्वयं उत्पन्न ; बिना माता-पिता के उत्पन्न) होने के कारण ही स्वयंभू कहलाये। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव या मनुष्य कहलाए। स्वायंभुव मनु को आदि भी कहा जाता है। आदि का अर्थ होता है प्रारंभ। महाप्रलय के समय वैवस्वत मनु एवं सात ऋषियों की सनातन रक्षा करती है ।सभी भाषाओं क मनुष्य-वाची शब्द मैन, मनुज, मानव, आदम, आदमी आदि सभी मनु शब्द से प्रभावित है। यह समस्त मानव जाति के प्रथम संदेशवाहक हैं। इन्हें प्रथम मानने के कई कारण हैं। सभी मनु की संतानें हैं इसीलिए मनुष्य को मानव (=मनु से उत्पन्न) भी कहा जाता है। ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं। एक कल्प में 14 मनु हो जाते हैं। एक मनु के काल को मन्वन्तर कहते हैं। 7 वें मनु वैवस्वत मनु द्वारा साप्तम मन्वन्तर प्रारंभ हैं।वेदों , पुराणों ,उपनिषद तथा ज्योतिष शास्त्र में स्वायंभुव मनु के बाद क्रमश: १४ मनु हुए। महाभारत में ८ मनुओं का उल्लेख मिलता है व श्वेतवराह कल्प में १४ मनुओं का उल्लेख है। जैन ग्रन्थों में १४ कुलकरों का वर्णन मिलता है।स्वयंभुव मनु , स्वरोचिष मनु , उत्तम मनु , तामस मनु या तापस मनु , रैवत मनु , चाक्षुषी मनु , वैवस्वत मनु या श्राद्धदेव मनु (वर्तमान मनु) , सावर्णि मनु ,दक्ष सावर्णि मनु , ब्रह्म सावर्णि मनु , धर्म सावर्णि मनु ,रुद्र सावर्णि मनु , देव सावर्णि मनु या रौच्य मनु ,इन्द्र सावर्णि मनु या भौत मनु है । वराह कल्प के स्वायम्भु मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तमास मनु, रेवत-मनु चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वन्तर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अन्तर्दशा चल रही है। सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रमी सम्वत प्रारम्भ होने से ५६३० वर्ष पूर्व हुआ था। स्वायंभुव मनु एवं शतरूपा के कुल पाँच सन्तानें हुईं थीं जिनमें से दो पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपाद तथा तीन कन्याएँ आकूति, देवहूति और प्रसूति थे। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति के साथ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। देवहूति का विवाह प्रजापति कर्दम के साथ हुआ। कपिल ऋषि देवहूति की संतान थे। हिंदू पुराणों अनुसार इन्हीं तीन कन्याओं से संसार के मानवों में वृद्धि हुई।स्वायंभुव मनु के दो पुत्रों प्रियव्रत और उत्तानपाद में से बड़े पुत्र उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नी थीं। उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुए। ध्रुव ने भगवान विष्णु की घोर तपस्या कर ब्रह्माण्ड में ऊंचा स्थान पाया। स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिससे उनको दस पुत्र हुए थे।महाभारत में वैवस्वत मनु का संबंध कामायनी के नायक से है। कामायनी में मनु का चित्रण देवताओं से इतर मानवीय सृष्टि के व्यवस्थापक के रूप में विशेषतः किया गया है। देव सृष्टि के संहार के बाद वे चिंता मग्न बैठे हुए हैं। श्रद्धा की प्रेरणा से वे जीवन में फिर से रुचि लेने लगते हैं पर कुछ काल के बाद श्रद्धा से असंतुष्ट होकर उसे छोड़कर वे चले जाते हैं। अपने भ्रमण में वे सारस्वत प्रदेश जा पहुँचते हैं, जहाँ की अधिष्ठात्री इड़ा थी। इड़ा के साथ वे एक नई वैज्ञानिक सभ्यता का नियोजन करते हैं। पर उनके मन की मूल अधिकर की लिपसा अभी गई नहीं है। वे इड़ा पर अपना अधिकार चाहते हैं। फलस्वरूप प्रजा विद्रोह करती है, जिसमें मनु घायल होकर मूर्छित हो जाते हैं। श्रद्धा अपने पुत्र मानव के लिए हुए मनु की खोज में सारस्वत प्रदेश तक आ जाती है, जहाँ दोने का मिलन होता है। मनु अपनी पिछली भूलों के लिए पश्चात्ताप करते हैं। श्रद्धा मानव को इड़ा के संरक्षण में छोड़कर मनु को लेकर हिमालय की उपत्यका में चली जाती है, जहाँ श्रद्धा की सहायता से मनु आनंद की स्थिति को प्राप्त होते हैं। महाभारत में ८ मनुओं का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में मनु को श्रद्धादेव कहकर संबोधित किया गया है। श्रीमद्भागवत में इन्हीं वैवस्वत मनु और श्रद्धा से मानवीय सृष्टि का प्रारंभ माना गया है। श्वेत वराह कल्प में १४ मनुओं का उल्लेख है। महाराज मनु ने बहुत दिनों तक इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। इन्हीं ने मनुस्मृति नामक ग्रन्थ की रचना की थी जो आज मूल रूप में उपलब्ध नहीं है। उसके अर्थ का अनर्थ ही होता रहा है। उस काल में वर्ण का अर्थ वरण होता था(वरण करना का अर्थ है धारण करना स्वीकार करना। अर्थात जिस व्यक्ति ने जो कार्य करना स्वीकार या धारण किया वह उसका वर्ण कहा गया है । प्रजा का पालन करते हुए जब महाराज मनु को मोक्ष की अभिलाषा हुई तो वे संपूर्ण राजपाट अपने बड़े पुत्र उत्तानपाद को सौंपकर एकान्त में अपनी पत्नी शतरूपा के साथ नैमिषारण्य तीर्थ चले गए लेकिन उत्तानपाद की अपेक्षा उनके दूसरे पुत्र राजा प्रियव्रत की प्रसिद्धि ही अधिक रही। स्वायम्भु मनु के काल के ऋषि मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलह, कृतु, पुलस्त्य और वशिष्ठ हुए। राजा मनु सहित उक्त ऋषियों ने ही मानव को सभ्य, सुविधा संपन्न, श्रमसाध्य बनाया है ।
सनातन पौराणिक वर्णित समय चक्र आश्चर्यजनक रूप से एक समान हैं। प्राचीन भारतीय मापन पद्धतियां हैं । ज्योतिष शास्त्र मॆं लम्बाई-क्षेत्र-भार मापन की भी इकाइयाँ परिमाण सहित उल्लेखित हैं।यह योग में भी प्रयोग में समय चक्र सूर्य सिद्धांत के पहले अध्याय के श्लोक 11–23 में आते हैं। सूर्य सिद्धांत का श्लोक 11 में श्वास (प्राण) से आरम्भ होता है, यथार्थ कहलाता है; और वह जो त्रुटि से आरम्भ होता है, अवास्तविक कहलाता है। छः श्वास से एक विनाड़ी बनती है। साठ श्वासों से एक नाड़ी बनती है और साठ नाड़ियों से एक दिवस (दिन और रात्रि) बनते हैं। तीस दिवसों से एक मास (महीना) बनता है। एक नागरिक (सावन) मास सूर्योदयों की संख्याओं के बराबर होता है। एक चंद्र मास, उतनी चंद्र तिथियों से बनता है। एक सौर मास सूर्य के राशि में प्रवेश से निश्चित होता है। बारह मास एक वर्ष बनाते हैं। एक वर्ष को देवताओं का एक दिवस कहते हैं। देवताओं और दैत्यों के दिन और रात्रि पारस्परिक उलटे होते हैं। उनके छः गुणा साठ देवताओं के (दिव्य) वर्ष होते हैं। ऐसे ही दैत्यों के भी होते हैं। बारह सहस्र (हज़ार) दिव्य वर्षों को एक चतुर्युग कहते हैं। यह तैंतालीस लाख बीस हज़ार सौर वर्षों का होता है। चतुर्युगी की उषा और संध्या काल होते हैं। कॄतयुग या सतयुग और अन्य युगों का अन्तर, जैसे मापा जाता है, वह इस प्रकार है, जो कि चरणों में होता है: एक चतुर्युगी का दशांश को क्रमशः चार, तीन, दो और एक से गुणा करने पर कॄतयुग और अन्य युगों की अवधि मिलती है। इन सभी का छठा भाग इनकी उषा और संध्या होता है। इकहत्तर चतुर्युगी एक मन्वन्तर या एक मनु की आयु होती हैं। इसके अन्त पर संध्या होती है, जिसकी अवधि एक सतयुग के बराबर होती है और यह प्रलय होती है। एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं, अपनी संध्याओं के साथ; प्रत्येक कल्प के आरम्भ में पंद्रहवीं संध्या/उषा होती है। यह भी सतयुग के बराबर ही होती है। एक कल्प में, एक हज़ार चतुर्युगी होते हैं और फ़िर एक प्रलय होती है। यह ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसके बाद इतनी ही लम्बी रात्रि भी होती है। इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु एक सौ वर्ष होती है; उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।इस कल्प में, छः मनु अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब सातवें मनु (वैवस्वत: विवस्वान (सूर्य) के पुत्र) की सत्ताईसवीं चतुर्युगी बीत चुकी है।अट्ठाईसवीं चतुर्युगी का द्वापर युग बीत चुका है तथा कलियुग का ५११९वां वर्ष प्रगतिशील है। कलियुग की कुल अवधि ४,३२,००० वर्ष है।
, भारतीय ज्योतिष का समय इकाइयाँ - एक परमाणु मानवीय चक्षु के पलक झपकने का समय = लगभग ४ सैकिण्ड , एक विघटि = ६ परमाणु = २४ सैकिण्ड , एक घटि या घड़ी = ६० विघटि = २४ मिनट , एक मुहूर्त = २ घड़ियां = ४८ मिनट , एक नक्षत्र अहोरात्रम या नाक्षत्रीय दिवस = ३० मुहूर्त (दिवस का आरम्भ सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक, न कि अर्धरात्रि से) , शतपथ ब्राह्मण के आधार पर वैदिक कालमानम् -शतपथ.१२|३|२|५ इस प्रकार है -द्वयोः (२) त्रुट्योः- एकः (१) लवः | द्वयोः (२) लवयोः- एकः (१) निमेषः | पंचशानाम् (१५) निमेषाणाम् एकम् (१) इदानि (कष्ठा) | पंचदशानाम् (१५) इदानिनाम् एकम् (१) एतर्हि | पंचदशानाम् (१५) एतर्हिणाम् एकम (१) क्षिप्रम् |पंचदशानाम् (१५) क्षिप्राणां एकः (१) मुहूर्तः| त्रिंशतः (३०) मुहूर्तानाम् एकः(१) मानुषोsहोरात्रः | पंचदशानाम् (१५) अहोरात्राणाम् (१) अर्धःमासः | त्रिंशतः (३०) अहोरात्राणाम् एकः (१) मासः | द्वादशानाम् (१२) मासानाम् एकः (१) संवत्सरः | पंचानाम् (५) संवत्सराणाम् एकम् (१) युगम् | द्वादशानाम् (१२) युगानाम् एकः (१) युगसंघः भवति | वैष्णवं प्रथमं तत्र बार्हस्पत्यं ततः परम् | ऐन्द्रमाग्नेयंचत्वाष्ट्रं आहिर्बुध्न्यं पित्र्यकम्|| वैश्वदेवं सौम्यंचऐन्द्राग्नं चाssश्विनं तथा| भाग्यं चेति द्वादशैवयुगानिकथितानि हि|| एके युगसंघे चान्द्राः षष्टिः संवत्सराः भवन्ति| समय का मापन प्रारम्भ एक सूर्योदयसे और अहोरात्र का मापन का समापन अपर सूर्योदय से होता है |अर्धरात्री से नहीं होता है| यथा
सूर्योदयप्रमाणेन अहःप्रामाणिको भवेत्।
अर्धरात्रप्रमाणेन प्रपश्यन्तीतरे जनाः ॥
विष्णु पुराण में दी गई एक अन्य वैकल्पिक पद्धति समय मापन पद्धति अनुभाग, विष्णु पुराण, भाग-१, अध्याय तॄतीय निम्न है: - १० पलक झपकने का समय = १ काष्ठा , ३५ काष्ठा= १ कला , २० कला= १ मुहूर्त , १० मुहूर्त= १ दिवस (२४ घंटे), ३० दिवस= १ मास, ६ मास= १ अयन ,२ अयन= १ वर्ष, = १ दिव्य दिवस । छोटी वैदिक समय इकाइयाँ - एक तॄसरेणु = 6 ब्रह्माण्डीय '., एक त्रुटि = 3 तॄसरेणु, या सैकिण्ड का 1/1687.5 भाग , एक वेध =100 त्रुटि. , एक लावा = 3 वेध. , एक निमेष = 3 लावा, या पलक झपकना , एक क्षण = 3 निमेष. ,एक काष्ठा = 5 क्षण, = 8 सैकिण्ड , एक लघु =15 काष्ठा, = 2 मिनट. , 15 लघु = एक नाड़ी, जिसे दण्ड भी कहते हैं। इसका मान उस समय के बराबर होता है, जिसमें कि छः पल भार के (चौदह आउन्स) के ताम्र पात्र से जल पूर्ण रूप से निकल जाये, जबकि उस पात्र में चार मासे की चार अंगुल लम्बी सूईं से छिद्र किया गया हो। ऐसा पात्र समय आकलन हेतु बनाया जाता है। 2 दण्ड = एक मुहूर्त., 6 या 7 मुहूर्त = एक याम, या एक चौथाई दिन या रत्रि. , 4 याम या प्रहर = एक दिन या रात्रि। चँद्रमान - एक तिथि वह समय होता है, जिसमें सूर्य और चंद्र के बीच का देशांतरीय कोण बारह अंश बढ़ जाता है। तिथिसिद्धान्त का खण्डतिथि और अखण्डतिथि के हिसाब से दो भेद है। वेदांगज्योतिष के अनुसार अखण्डतिथि माना जाता है। जिस दिन चान्द्रकला क्षीण हो जाता है उस दिन को अमावास्या माना जाता है। दुसरे दिन सूर्योदय होते ही शुक्लप्रतिपदा, तीसरे दिन सूर्योदय होते ही द्वितीया। इसी क्रम से १५ दिन में पूर्णिमा होती है। फिर दुसरे दिन सूर्योदय होते ही कृष्णप्रतिपदा। और फिर तीसरे दिन सूर्योदय होते ही द्वितीया,और इसी क्रम से तृतीया चतुर्थी आदि होते है। १४ वें दिन में ही चन्द्रकला क्षीण हो तो उसी दिन कृष्णचतुर्दशी टूटा हुआ मानकर दर्शश्राद्धादि कृत्य किया जाता है। ऐसा न होकर १५ वें दिन में ही चन्द्रकला क्षीण हो तो तिथियाँ टूटे बिना ही पक्ष समाप्त होता है | इस कारण कभी २९ दिन का और कभी ३० दिन का चान्द्रमास माना जाता है। वेदांगज्योतिष भिन्न सूर्यसिद्धान्तादि लौकिक ज्योतिष का आधार में खण्डतिथि माना जाता है। उनके मत मे तिथियाँ दिन में किसी भी समय आरम्भ हो सकती हैं और इनकी अवधि उन्नीस दिन से अधिक छब्बीस घंटे तक हो सकती है।एक पक्ष या पखवाड़ा - चान्द्रमास दो प्रकारका होता है -एक अमान्त और पूर्णिमान्त। पहला शुक्लप्रतिपदा से अमावास्या तक अर्थात् शुक्लादिकृष्णान्त मास वेदांग ज्योतिष मानता है। इसके अलावा सूर्यसिद्धान्तादि लौकिक ज्योतिष के पक्षधर दूसरा पक्ष मानते हैं पूर्णिमान्त। अर्थात् कृष्णप्रतिपदासे आरम्भ कर पूर्णिमा तक एक मास। एक मास = २ पक्ष (पूर्णिमा से अमावस्या तक कृष्ण पक्ष; और अमावस्या से पूर्णिमा तक शुक्ल पक्ष) एक ॠतु = २ मास, एक अयन = 3 ॠतुएं , एक वर्ष = 2 अयनका होता है | वेदांग ज्योतिष के आधार पर पंचवर्षात्मक युग माना जाता है | प्रत्येक ६० वर्ष में १२ युग व्यतीत हो जाते हैं। १२ युगों के नाम आगे बताया जा चुके हैं। शुक्लयजुर्वेदसंहिता के मन्त्रों २७|४५,३०|१५ ,२२|२८,२७|४५ ,२२|३१ मे पंचसंवत्सरात्मक युग का वर्णन है | ब्रह्माण्डपुराण १|२४|१३९-१४३ , लिंगपुराण १|६१|५०-५४, वायुपुराण १|५३|१११-११५ म.भारत.आश्वमेधिक पर्व४४|२,४४|१८ कौटलीय अर्थशास्त्र २|२० सुश्रुतसंहिता सूत्रस्थान-६|३-९ पूर्वोक्त ग्रन्थ वेदांग ज्योतिष के अनुगामी है |ऊष्ण कटिबन्धीय मापन - एक याम = 7½ घटि , 8 याम अर्ध दिवस = दिन या रात्रि ,एक अहोरात्र = नाक्षत्रीय दिवस (जो कि सूर्योदय से आरम्भ होता है) ,अन्य अस्तित्वों के सन्दर्भ में काल-गणना - पितरों की समय गणना ,15 मानव दिवस = एक पितृ दिवस ,30 पितृ दिवस = 1 पितृ मास ,12 पितृ मास = 1 पितृ वर्ष ,पितृ जीवन काल = 100 पितृ वर्ष= 1200 पितृ मास = 36000 पितृ दिवस= 18000 मानव मास = 1500 मानव वर्ष ,देवताओं की काल गणना ,1 मानव वर्ष = एक दिव्य दिवस , 30 दिव्य दिवस = 1 दिव्य मास ,12 दिव्य मास = 1 दिव्य वर्ष ,दिव्य जीवन काल = 100 दिव्य वर्ष= 36000 मानव वर्ष ,विष्णु पुराण के अनुसार काल-गणना विभाग, विष्णु पुराण भाग १, तॄतीय अध्याय के अनुसार: चार युग , 2 अयन (छः मास अवधि, ऊपर देखें) = 360 मानव वर्ष = एक दिव्य वर्ष ,4,000 + 400 + 400 = 4,800 दिव्य वर्ष = 1 सत युग, 3,000 + 300 + 300 = 3,600 दिव्य वर्ष = 1 त्रेता युग , 2,000 + 200 + 200 = 2,400 दिव्य वर्ष = 1 द्वापर युग , 1,000 + 100 + 100 = 1,200 दिव्य वर्ष = 1 कलि युग ,12,000 दिव्य वर्ष = 4 युग = 1 महायुग (दिव्य युग भी कहते हैं), ब्रह्मा की काल गणना, 1000 महायुग= 1 कल्प = ब्रह्मा का 1 दिवस (केवल दिन) (चार अरब बत्तीस करोड़ मानव वर्ष; और यही सूर्य की खगोलीय वैज्ञानिक आयु भी है). , (दो कल्प ब्रह्मा के एक दिन और रात बनाते हैं) , 30 ब्रह्मा के दिन = 1 ब्रह्मा का मास (दो खरब 59 अरब 20 करोड़ मानव वर्ष) ,12 ब्रह्मा के मास = 1 ब्रह्मा के वर्ष (31 खरब 10 अरब 4 करोड़ मानव वर्ष)50 ब्रह्मा के वर्ष = 1 परार्ध ,2 परार्ध= 100 ब्रह्मा के वर्ष= 1 महाकल्प (ब्रह्मा का जीवन काल)(31 शंख 10 खरब 40अरब मानव वर्ष) ,ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं:चारों युग - 4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष) सत युग , 3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग ,2 चरण (864,000 सौर वर्ष) द्वापर युग - 1 चरण (432,000 सौर वर्ष) कलि युग । यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैंएक उपरोक्त युगों का चक्र = एक महायुग (43 लाख 20 हजार सौर वर्ष) । श्रीमद्भग्वदगीता के अनुसार "सहस्र-युग अहर-यद ब्रह्मणो विदुः", अर्थात ब्रह्मा का एक दिवस = 1000 महायुग. इसके अनुसार ब्रह्मा का एक दिवस = 4 अरब 32 करोड़ सौर वर्ष. इसी प्रकार इतनी ही अवधि ब्रह्मा की रात्रि की भी है.एक मन्वन्तर में 71 महायुग (306,720,000 सौर वर्ष) होते हैं. प्रत्येक मन्वन्तर के शासक एक मनु होते हैं. ।प्रत्येक मन्वन्तर के बाद, एक संधि-काल होता है, जो कि कॄतयुग के बराबर का होता है (1,728,000 = 4 चरण) (इस संधि-काल में प्रलय होने से पूर्ण पॄथ्वी जलमग्न हो जाती है.) , एक कल्प में 864,000,0000 - ८ अरब ६४ करोड़ सौर वर्ष होते हैं, जिसे आदि संधि कहते हैं, जिसके बाद 14 मन्वन्तर और संधि काल आते हैं । ब्रह्मा का एक दिन बराबर है: , (14 गुणा 71 महायुग) + (15 x 4 चरण)= 994 महायुग + (60 चरण) = 994 महायुग + (6 x 10) चरण= 994 महायुग + 6 महायुग = 1,000 महायुग । 'पाल्या' समय की एक इकाई है. यह इकाई, भेड़ की ऊन का एक योजन ऊंचा घन (यदि प्रत्येक सूत्र एक शताब्दी में चढ़ाया गया हो) बनाने में लगे समय के बराबर है। दूसरी परिभाषा अनुसार, यह एक छोटी चिड़िया (यदि वह प्रत्येक रेशे को प्रति सौ वर्ष में उठाती है) द्वारा किसी एक वर्गमील के सूक्ष्म रेशों से भरे कुएं को रिक्त करने में लगे समय के बराबर है.
पाल्य इकाई भगवान आदिनाथ के अवतरण के समय की है। यथार्थ में यह 100,000,000,000,000 पाल्य पहले था। ब्रह्मा के इक्यावनवें वर्ष में सातवें मनु, वैवस्वत मनु के शासन में श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, अठ्ठाईसवें कलियुग के प्रथम वर्षदि में हैं। इस प्रकार अबतक १५ नील, ५५ खरब, २१ अरब, ९७ करोड़, १९ लाख, ६१ हज़ार, ६२5 वर्ष इस ब्रह्मा को सॄजित हुए हो गये हैं।ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार वर्तमान कलियुग दिनाँक 17 फरवरी / 18 फरवरी को 3102 ई० पू० में हुआ था। इस बात को वेदांग ज्योतिष के व्यख्याकार नहीं मानते। उनका कहना है कि यह समय महाभारत के युद्ध का है । इसके ३६ साल बाद यदुवंश का विनाश हुआ और उसी दिन से वास्तविक कलियुग प्रारम्भ हुुआ। इस गणित से आज वि॰ सं॰ २०७३|४|१५ दिनांक को कलिसंवत् ५०८१|८वें मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि चल रही है | ब्रह्मा जी के एक दिन में १४ इन्द्र मर जाते हैं और इनकी जगह नए देवता इन्द्र का स्थान लेते हैं। इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि होती है। दिन की इस गणना के आधार पर ब्रह्मा की आयु १०० वर्ष होती है फिर ब्रह्मा मर जाते है और दूसरा देवता ब्रह्मा का स्थान ग्रहण करते हैं। ब्रह्मा की आयु के बराबर विष्णु का एक दिन होता है। इस आधार पर विष्णु जी की आयु १०० वर्ष है। विष्णु जी १०० वर्ष का शंकर जी का एक दिन होता है। इस दिन और रात के अनुसार शंकर जी की आयु १०० वर्ष होती है। काल गणना के मानव का विकास निर्भर है ।शास्त्र के अनुसर मानव का उतार चढाव मे परिवर्तन होते रहेगें ।
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