मंगलवार, अक्तूबर 20, 2020

आत्मीय शक्ति का द्योतक नवरात्र...


भारतीय धर्म ग्रंथ में शाक्त संमप्रदाय में शक्ति पूजन का महत्वपूर्ण उलेख है । प्रत्येक माह में नवरात्र होते हैं जिसमे  प्रत्येक वर्ष के छ: रीतुओं की नवरात्रि का महत्व और धार्मिक के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। शास्त्रों तथा विक्रम पंचांग के अनुसार वसंत रीतु में वासंती  नवरात्रि चैत्र मास , वर्षा रीतु का आषाढ मास में आषाढी गुप्त नवरात्र  , शरद् रीतु का आश्विन मास की शारदीय नवरात्रि , शिशिर तथा हेमंत रीतु का माघ मास मे माघीय नवरात्र जिसे गुप्त नवरात्रि के दौरान की गई प्रार्थना, जप और ध्यान से मन मस्तिष्क शांत रहते हैं। मन तथा  आत्मा से संपर्क होने पर भीतर सकारात्मक गुणों का संचार होता है और आलस्य दूर होता है । सभी शुभ कामों की शुरुआत होता है। हवन और पूजा पाठ करने से न केवल मानसिक शक्ति मिलती विचारों में भी शुद्धि आती है। नवरात्रि का वैज्ञानिक कारण - नवारात्रि का त्योहार प्रत्येक साल बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस त्योहार पर लोग वैदिक परंपरा से पूजा करते हैं और हजारों लोग माता दुर्गा के दर्शनों के लिए जाते हैं। नवरात्रि पर 1005 कुंभाभिषेक और 2100 से अधिक चंडी होम आयोजित किए जाते हैं। नवरात्रि पर यज्ञ का भी आयोजन किया जाता है। इस समय में किया गया हवन, पूजा और यज्ञ बहुत अधिक लाभ पहुंचाता है। हवन और यज्ञ करने से शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहते हैं। इसी कारण से नवरात्रि को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।नवरात्रि का त्योहार साल में दो बार मनाया जाता है। एक तो चैत्र मास के महिने में जिसे चैत्र नवरात्रि कहा जाता है और दूसरा शारदीय नवरात्रि जो कुंवार मास में मनाया जाता है। चैत्र नवरात्रि और शारदिय नवरात्रि उत्तर भारत में मुख्य रूप से मनाया जाता है। लेकिन शारदीय नवरात्रि दक्षिण भारत में भी मनाया जाता है। नवरात्रि का समय अत्यंत ही महत्वपूर्ण और शुभ समय माना जाता है। इस समय में सभी प्रकार के शुभ कामों का आरंभ होता है। यही वह समय भी होता है जब मौसम अपनी करवट बदलता है यानी मौसम में बदलाव आता है।नवरात्रि पर राशि के अनुसार मां दुर्गा को लगाएं इन चीजों का भोग, जीवन के दूर हो जाएंगे रोग । नवारत्रि को त्योहार प्रत्येक जीव के लिए कल्याण, शांति और समृद्धि के लिए होता है। नवरात्रि का समय वह समय होता है जब ऋतु बदलती है। शास्त्रों के अनुसार इस समय असुरी शक्तियों को नष्ट करने के लिए हवन और पूजन किया जाता है। नवरात्रि पर हवन पूजन करने से स्वास्थय भी ठीक रहता है। यही कारण हैं कि साल में आने वाले सभी नवरात्र ऋतुओं के संधिकाल में होते हैं। यही वह समय होता है जब मौसम बदलता है। जिससे शरीर और मानसिकता में कमीं आती है। इसलिए शरीर और दिमाग को स्वस्थ रखने के लिए व्रत और पूजा की जाती है।नवरात्रि को स्वास्थय के दृष्टिकोण से अत्याधिक महत्व दिया जाता है। इस समय व्रत करने से न केवल मानसिक शक्ति प्राप्त होती है। बल्कि शरीर और विचारों की भी शुद्धि होती है। जिस प्रकार से हम नहाकर अपने शरीर की सफाई करते हैं। उसी प्रकार नवरात्रि के इस पावन अवसर पर शरीर के साथ - साथ विचारों की शुद्धि की जाती है। जो अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। जिस समय मौसम बदलता है। उस समय शरीर को रोगों से लड़ने के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाना पड़ता है। नवरात्रि पर व्रत करने से शरीक की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। नाकारात्मक उर्जा का रोक लगाने के लिए देवी मंदिर के परिसर में नीम का पेड लगाने तथा नवरात्र मे समी पेड लगाने का महत्व है ।
नवरात्रि में 9 टोटके भर देंगे खुशियों और बेशुमार दौलत से परिपूर्ण होते है ।अच्छे और बुरे कर्मों के आधार पर जीवन में सुख और दुख मिलता है , परन्तु  कभी-कभी जाने अंजाने में ऐसे कार्य कर जाते हैं जिससे हावी हो जाता है. । नकारात्मक ऊर्जा जीवन को बहुत प्रभावित करती है । नाकारात्मक उर्जा से बचने के लिए घरेलू टोटकों को अपना लेने पर चारों तरफ सकारात्मक ऊर्जा होगी और सोई हुई किस्मत भी जाग जाती है ।नवरात्रों के  दिनों में टोटके अपनाने से  मन शांत होगा बल्कि सुख-सुविधाओं में भी वृद्धि होगी । तंत्र मंत्र सिद्धि के लिए नवरात्र है । टोटके का रूप - साबुत काले उड़द में हरी मेहंदी मिलाकर जिस दिशा में वर-वधु का घर हो,  वहां फेंक दें, दोनों के बीच परस्पर प्रेम बढ़ जाएगा और दोनों ही सुखी रहेंगे । कन्या 7 साबुत हल्दी की गांठें, पीतल का एक टुकड़ा, थोड़ा सा गुड लेकर ससुराल की तरफ फेंक दें तब कन्या को ससुराल में सुख ही सुख मिलता है.शादी के बाद जब कन्या विदा हो रही हो तो एक लोटे में गंगाजल, थोड़ी सी हल्दी, एक पीला सिक्का लेकर कन्या के सिर के ऊपर से 7 बार उसार कर  उसके आगे फेंक दें. उसका वैवाहिक जीवन सदा सुखी रहेगा । निरोगता - सूर्य जब मेष राशि में प्रवेश करें तो नीम की नवीन कोपलें, गुड़ व मसूर के साथ पीसकर खाने से व्यक्ति पूरे वर्ष निरोग तथा स्वस्थ रहता है । यदि व्यक्ति चिड़चिढ़ा हो रहा है तथा बात-बात पर गुस्सा हो रहा है तो उसके ऊपर से राई-मिर्ची उसार कर जला दें. तथा पीडि़त व्यक्ति को उसे देखते रहने के लिए कहें । सुबह कुल्ला किए बिना पानी, दूध अथवा चाय न पिएं. साथ ही उठते ही सबसे पहले अपनी दोनों हथेलियों के दर्शन करें. इससे स्वास्थ्य तो सही रहेगा ही, भाग्य भी चमक उठेगा ।यदि किसी के साथ बार-बार दुर्घटना होती है तो शुक्ल पक्ष (अमावस्या के तुरंत बाद का पहला) के प्रथम मंगलवार को 400 ग्राम दूध से चावल धोकर बहती नदी अथवा झरने में प्रवाहित करें. यह उपाय लगातार सात मंगलवार करें, दुर्घटना होना बंद हो जाएगा । यदि कोई पुराना रोग ठीक नहीं हो रहा हो तो गोमती चक्र को लेकर एक चांदी की तार में पिरोएं तथा पलंग के सिरहाने बांध दें. रोग जल्दी ही पीछा छोड़ देगा । कोई असाध्य रोग हो जाए तथा दवाईयां काम करना बंद कर दें तो पीडि़त व्यक्ति के सिरहाने रात को एक तांबे का सिक्का रख दें तथा सुबह इस सिक्के को किसी श्मशान में फेंक दें. दवाईयां असर दिखाना शुरू कर देंगी और रोग जल्दी ही दूर हो जाएगा । महाभारत में गांधारी ने इस कारण दूसरी बार  अपनी आंखों से पट्टी नवरात्र में उतारी थी । असम के कामख्या मंदिर ,बंगाल के दछिणेश्वर काली मंदिर , बिहार के  गया  बांग्ला तथा मंगलागौरी तथा भारत के सात मंदिरों में पूजा-पाठ और तांत्रिक साधनाएं भी की जाती है ।
नवरात्रि में ज्यादातर लोगों के घरों में प्याज-लहसुन नहीं खाया जाता है । ये बात आपको अच्छी तरह से मालूम होगा. इतना ही नहीं लोग नवरात्र शुरू होने से दो-तीन दिन पहले से ही बाजार से प्याज लाना बंद कर देते हैं, लेकिन कभी आपने सोचा है आखिर ऐसा क्यों होता है ।बहुत से लोगों धार्म का हवाला देकर कह देते हैं कि ये तामसिक भोजन है, इसलिए पूजा-पाठ के मौके पर लहसुन और प्याज से दूर रहा जाता है ।चलिए आज हम आपको वैज्ञानिक कारण बताते हैं कि आखिर क्यों पूजा-पाठ या व्रत के मौके पर लहसुन-प्याज का सेवन नहीं किया जाता ।वैज्ञानिकों के मुताबिक, प्याज और लहसुन खाने से हमारी कामुक ऊर्जा जागृत होती है. इसके साथ ही पेट में गर्मी पैदा होने लगती है, जो हमारी डाइजेशन सिस्टम के लिए सही नहीं माना जाता. व्यक्ति नवरात्र के अवसर पर अपनी कामुक इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहता है, इसलिए पूजा-पाठ के दौरान लहसुन-प्याज खाना मना होता है.खो देता है. जो उपासना के मार्ग से भटका सकता है. । इसके साथ ही इसके पीछे एक पौराणिक मान्यता भी है. पौराणिक मान्यता अनुसार, समुंद्र मंथन से निकले अमृत जब भगवान विष्णु देवताओं में बांट रहे थे. इसी दौरान राक्षस राहु और केतू ने द्वारा धोखे से अमृत का सेवन कर लिया गया था. ये बात भगवान विष्णु को जैसे ही मालूम हुआ. उन्होंने क्रोधित होकर दोनों का सर धड़ से अलग कर दिया. राहू और केतु के मुंह में अमृत पहुंच चुका था, इसलिए उसका मुख अमर हो गया, लेकिन घड़ जमीन पर गिर पड़ा. इस दौरान दोनों राक्षसों के मुख से अमृत की कुछ बूंदें जमीन पर गिर गई, जो प्याज और लहसुन के रूप में उपज गई । प्याज और लहसुन अमृत से उपजे हैं, इसलिए ये रोगों में फायदेमंद साबित होते हैं. क्योंकि ये अमृत राक्षसों के मुख होकर बना है । लहसुन तथा प्याज  में  नाकारात्मक उर्जा  से तेज गंध  और अपवित्र है । पूजा-पाठ के दौरान सेवन नहीं किया जाता है । नवरात्र में मद्यपान , तामसी खद्यान निषेद है । नाकारात्मक उर्जा का समन्वय मांस , मदीरा , लहसुन ,प्याज कराता है । नाकारात्मक उर्जा का पान करने वाला व्यक्ति को तामसी व्यक्ति कहे जाते है । शाक्त धर्म के अनुसार शक्ति की उपासना स्थल शक्ति पिंड के रूप में  शैल पुत्री , ब्रह्मचारिणी , चंद्रघंटा , कुष्माण्डा ,स्कंदमाता , कत्यायनि , कालरात्रि ,गौरी तथा सिद्धदात्री माता को स्थापित करते है । नौ देवियों से साकारात्मक उर्जा प्राप्ति के लिए स्थापित देवी पिंडी तथा मंदिर को शीतल जल से पखार कर  दीप प्रज्ज्वलित कर उपासना करते है और नीम पेड तथा समी पेड नाकारात्मक उर्जा को समाप्त करता है। प्राचीन काल में देवीकी उपासना देवी पिंड स्थापित की जाती थी । मानव सभ्यता का विकास के बाद नौ दवी की मूर्तियां की स्थापना कर उपासना का स्थल का रूप हुआ है ।
 गया जिला मुख्यालय गया से 35 किमी और टिकारी अनुमंडल टिकारी  से 11 किमी. उत्तर  केसपा ग्राम में मां तारा देवी  मंदिर स्थित है। चैत्र मास की वासंती नवरात्र तथा आश्विन माह  की शारदीय नवरात्र में मां तारा देवी की विशेष पूजा अर्चना की जाती है। नवरात्र के  अवसर पर श्रद्धालुओं व भक्तजनों द्वारामाता तारा देवी के समक्ष घी के दिए 9 दिनों  तक निरंतर जलाते हैं ।  नवमी के मध्य रात्रि में यहाँ निसवाली पूजा होती है ।  तारा मंदिर में माता तारा की मूर्ति धार्मिक और लोक आस्था का महाकेन्द्र माना जाता है।  समुद्र मंथन से निकले विष को लोक कल्याण के लिए भगवान शिव पी लिए और उसके प्रभाव से अचेतन हो गए तब तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। तभी मां तारा देवी प्रकट हुई और भगवान शिव को अपनी गोद में लेकर अपना दूध पिलाने लगी। दूध के प्रभाव से विष समाप्त हो गया और तभी से मां तारा की जय जयकार तीनों लोकों में होने लगी और उनकी पूजा अर्चना होने लगी।  कश्यप ऋषि के नाम पर केसपा है। कश्यप ऋषि का प्राचीन  आश्रम  तथा माता तारा की मूर्ति स्थापित कर शाक्त संप्रदाय का उपासना स्थल था । मां तारा देवी और मंदिर की स्थापना स्कंद गुप्त काल में कच्ची मिट्टी और गदहिया ईट से निर्मित मंदिर के गर्भ गृह की दीवार 4-5 फीट मोटी है। गर्भ गृह की सुन्दर नक्काशिया मंदिर में प्रवेश करने वाले श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है। गर्भ गृह में विराजमान मां तारा देवी की उतर विमुख 8 फीट उंची आदमकद प्रतिमा काले पत्थर की बनी  अद्भुत कलाकृति है। मां तारा के दोनों ओर दो यागिनिया खड़ी है। प्रतिमा पर प्राकृत भाषा में कई लेख उत्कीर्ण है जिसे आज तक पढ़ा नही जा सका है। मंदिर के चारों ओर एक बड़ा चबूतरा है। केसपा में स्थित माता वाम तारा विराजमान है । आश्विन में शारदीय नवरात्र और चैत में बसंती नवरात्र के अवसर पर श्रद्धालुओं की अपार भीड़ यहा जुटती है। बाहर से आए श्रद्धालु 9 दिनों तक मंदिर परिसर में रहकर नवरात्र का पाठ करते हैं। इस दौरान बहुत सारे श्रद्धालु अपने जीवन में सुख, शाति और समृद्धि के लिए अखण्ड दीप जलाते हैं। जो नौ दिनों तक अनवरत जलते रहता है। यहा एक त्रिभुजाकार विषाल हवन कुण्ड है जिसमें सालों भर आहुति डाली जाती है। लेकिन वो भरता कभी नही है। यही कारण है कि आस्था और विश्वास का केन्द्र माना जाने वाली मां तारा देवी के दर्शन हेतु श्रद्धालुओं की अपार भीड़ लगी रहती है। केसपा गाँव मे स्थित माँ तारा देवी की मंदिर है । मां तारा स्थल को  लोक आस्था तथा  शक्तिपीठ माना जाता है । केसपा गाँव महर्षि कश्यप मुनि का साधना और कर्म स्थल और  कश्यप ऋषि के अराध्य देवी माता तारा  थी । महर्षि कश्यप मुनि के द्वारा ही माता तारा का मंदिर बनवाया गया है । केसपा  महर्षि कश्यप  का स्थल है। । केसपा  गांव का प्राचीन नाम कश्यप पुरी , कश्यपा रहा है । गया जिला से लगभग 37 किमी और टिकारी शहर से 12 किमी. उतर अवस्थित प्रसिद्ध मां तारा देवी के मंदिर  अवस्थित है ।ब्रह्माण्ड कल्याण के लिए  समुद्र मंथन आरम्भ हुआ था । भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा ।  समुद्र मंथन से हलाहल विष निकला था । विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे, उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी और मूर्क्षित होने लगे थे । हलाहल को रोकने के लिए देव तथा दानवों द्वारा  भगवान शंकर की प्रार्थना कीगई थी । उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उन्होंने उस विष को कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया । उस विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया और वह अर्ध निद्रा में हो गए ।अब क्या होगा. उस समय पुरे जगत में चारों ओर हाहाकार मच गया की महादेव को क्या हो गया है मानव ,दानव देव , जीव , जंतु विह्वल थे । तभी मां तारा प्रकट हुईं. माता आईं और छोटे बालक की तरह महादेव को गोद में उठा लिया । फिर मां तारा ने महादेव को अपना दूध पिलाया । दूध पीते ही महादेव की अर्ध निद्रा टूट गई और महादेव ने मां तारा को प्रणाम किया. इस तरह मां तारा महादेव शिव शंकर की मां हो गईं । पौराणिक अख्यान के अनुसार देव गुरू व्टहस्पति की भार्या तारा तथा चंद्रमा के पुत्र बुध मगध के राजा थे । मगध के राजा बुध की भार्या तथा वैवस्वत मनु की पुत्री इला से पुरूरवा ,गय , उत्कल तथा विशाल हुए ।  कपीलवस्तु के राजा सुद्धो की पत्नि महामाया के पुत्र भगवान बुद्ध की आराध्या देवी माता तारा थी । केसपा मंदिर में मां तारा की पौराणिक मूर्ति आठ फीट से भी ऊंची है. इस मूर्ति के सामने खड़े होकर नवरात्र में जो हाथ जोड़ लेता है, माता उसके सारे दुख हर लेती हैं। मां तारा की मूर्ति पर किसी लिपि में बहुत कुछ लिखा हुआ है, पर इसे आजतक नहीं पढ़ा जा सका है. पुरातत्वविदों को इस मंदिर की दीवारें भी बहुत कुछ बता सकती हैं. यहां की दीवारें चार फीट से ज्यादा चौड़ी हैं ।कच्ची मिट्टी और गदहिया ईट से निर्मित मंदिर के गर्भ गृह की दीवार 4-5 फीट मोटी है. गर्भ गृह की सुन्दर नक्काशिया मंदिर में प्रवेश करने वाले श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है. गर्भ गृह में विराजमान मां तारा देवी की वरद हस्त मुद्रा में उतर विमुख 8 फीट उंची आदमकद प्रतिमा काले पत्थर की बनी है. मां तारा के दोनों ओर दो योगिनी खड़ी है. मंदिर के चारों ओर एक बड़ा चबूतरा है ।मां तारा देवी के मंदिर को देखने और सर्वे करने तीन विदेशी पुरातत्ववेत्ता केसपा आ चुके है ।सन 1812 में स्कॉटलैंड के मि. फ्रांसिस बुचनन- भूगोलिक, जीव विज्ञानी और वनस्पति-विज्ञानिक,मि. फ्रांसिस बुचनन केसपा और मां के मंदिर में 4 फरबरी 1812 आये थे. वह लिखते है की उस समय मंदिर मिटटी, ब्रिक्स और स्टोन की बनी हुई थी. मंदिर में बहुत से चित्र दिवार पर बनी हुई थी और मंदिर के दरवाज़े के पास बहुत सी चित्र नष्ट हो चुकी थी. मंदिर के दीवार पर प्लास्टर नहीं किया हुआ था. उस समय वहां पर तीन पुजारी पूजा कर रहे थे. मैंने जब उनलोगों से पूछा की मंदिर कब बना है तो उनमें से एक पुजारी गुस्सा हो कर कहा की यह मंदिर सतियुग में बना है. इसके बाद मैंने विवेक पूर्ण तरीके से मंदिर क देखा तो उनसे आगे पूछना बेकार समझा की मंदिर कब बना है.फ्रांसिस बुचनन बताते है की मंदिर के बीच में मानव आकृति में माँ तारा की प्रतिमा सर से लेकर पैर तक एक साड़ी में ढकी हुई खडी थी. मै यह समझा की भगवान वासुदेव स्त्री के कपड़े में सजे हुए है. मैंने इस बारें में पूछना उचित नहीं समझा. यह जगह बहुत बड़ा धार्मिक आस्था का जगह है । सन 1872 में अमेरिकन-भारतीय इंजिनियर, पुरातत्ववेत्ता, फोटोग्राफर मि. जोसेफ डेविड बेलगर, माँ के मंदिर आये.बेलगर के अनुसार यह मंदिर मध्यकालीन युग 9 वीं, 10 वीं शताब्दी में बना है, वह आगे लिखते है गांव के चारो तरफ मंदिर है जो की प्राचीनतम है भगवान बुद्ध की प्रतिमा भी गांव के बिच मे स्थित है. गाँव में बहुत से प्रतिमा जगह जगह दिखाई पड़े है । डेनमार्क के पुरातत्ववेत्ता, फोटोग्राफर मि. थिओडोर बलोच द्वारा 1992 ई. में केसपा तारा मंदिर को पुरातात्विक सर्वे के लिए आ चुके है. थिओडोर द्वारा मां तारा को आस्था और धार्मिक का केंद्र माना गया है । माँ  तारा द्वारा मगध के विदूषक देवन मिश्र को आशिर्वचन दिया गया था । टिकारी राज सात आना के दरबारी विदुषक देवन मिश्र को माँ ने साक्षात् प्रकट होकर  आशिर्वचन दी थी.। प्रराचीन काल में महर्षि कश्यप द्वारा वैदिक संस्था स्थापित की गयी थी ।
गया में माता बांग्ला , माता मंगला माता शीतला  , बेला की काली , नवादा के रूपौ की चामु्णडा , बराबर की माता सिद्धेश्वरी , वागेश्वरी , करपी का माता जगदंबा , पटना की माता पटनदेवी , मुजफ्फरपुर जिले का कटरा की चामुणा भवानी , झारखण्ड के रामगढ जिले की माता छिन्नमस्तिका शाक्त धर्म का महान स्थल था ।

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