सोमवार, जुलाई 12, 2021

जगन्नाथ पूरी : आध्यात्म और मोक्ष स्थल...

       

    भारतीय संस्कृति ,  सभ्यता,  पुरणों और स्मृतियों में जगन्नाथ पुरी का  उल्लेख है । उड़ीसा राज्य का पुरी जिले पूरी क्षेत्र को   पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र में भगवान श्री जगन्नाथ की भूमि है। उत्कल प्रदेश या कलिंग प्रदेश  के प्रधान भगवान श्री जगन्नाथ  हैं। पूरी का क्षेत्र  श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है । भगवान श्री जगन्नाथ  रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है।भगवान जगन्नाथ की मूर्ति, स्थापत्य कला और समुद्र का मनोरम किनारा पर है। उत्कल प्रदेश की कोणार्क का अद्भुत सूर्य मन्दिर, भगवान बुद्ध की अनुपम मूर्तियों से सजा धौल-गिरि और उदय-गिरि की गुफाएँ, जैन मुनियों की तपस्थली खंड-गिरि की गुफाएँ, लिंग-राज, साक्षी गोपाल और भगवान जगन्नाथ के मन्दिर , पुरी और चन्द्रभागा का मनोरम समुद्री किनारा, चन्दन तालाब, जनकपुर और नन्दनकानन अभ्यारण्य है। स्कन्द पुराण के अनुसार  रथ-यात्रा मे  श्री जगन्नाथ का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है । भगवान जगन्नाथ रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अन्त में गरुण ध्वज पर या नन्दीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ ६५ फीट लंबा, ६५ फीट चौड़ा और ४५ फीट ऊँचाई में ७ फीट व्यास के १७ पहिये लगे रहते  हैं। बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं। सन्ध्या तक ये तीनों ही रथ मन्दिर में जा पहुँचते हैं। अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मन्दिर में प्रवेश कर सात दिन रहते हैं। गुंडीचा मन्दिर में नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन  है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला है ।  महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मन्दिर में किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद मिलता है।जनकपुर मौसी का घर - जनकपुर में भगवान जगन्नाथ दसों अवतार का रूप धारण करते हैं। जनकपुर  स्थान जगन्नाथ जी की मौसी के घर  पकवान खाकर भगवान जगन्नाथ बीमार हो जाते हैं । जनकपुर में  पथ्य का भोग लगाया जाता है जिससे भगवान शीघ्र ठीक हो जाते हैं। रथयात्रा के तीसरे दिन पंचमी को लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ को ढूँढ़ते हुए जनकपुर में  द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं जिससे लक्ष्मी जी नाराज़ होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और हेरा गोहिरी साही पुरी का एक मुहल्ला जहाँ लक्ष्मी जी का मन्दिर है, वहाँ लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ लक्ष्मी जी को मनाने जाते हैं। उनसे क्षमा माँगकर और अनेक प्रकार के उपहार देकर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। इस आयोजन में एक ओर द्वैताधिपति भगवान जगन्नाथ की भूमिका में संवाद बोलते हैं । दूसरी ओर देवदासी लक्ष्मी जी की भूमिका में संवाद करती है।  लक्ष्मी जी को भगवान जगन्नाथ के द्वारा मना लिए जाने को विजय का प्रतीक मानकर वापसी को बोहतड़ी गोंचा कहा जाता है। रथयात्रा में पारम्परिक सद्भाव, सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अद्भुत समन्वय मिलता है। देवर्षि नारद को वरदान .श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्री कृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं बल्कि बलराम और सुभद्रा होते हैं। द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े थे । जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से बाटे करने लगी वृन्दावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की। पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलरम अचानक अन्त:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया। अन्त:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर किसी के  हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। सुदर्शन चक्र विगलित हो गया। उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया। यह माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था।अचानक नारद के आगमन से वे तीनों पूर्व वत हो गए। नारद ने  श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। भगवान कृष्ण ने तथास्तु कह दिया था ।रथ यात्रा -  राजा इन्द्रद्युम्न सपरिवार नीलांचल सागर (उड़ीसा) के पास रहने पर समुद्र में  विशालकाय काष्ठ दिखा। राजा के उससे विष्णु मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय करते  वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हो गए थे । उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊँगा उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए। राजा के परिवारजनों को यह ज्ञात न था कि वह वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा। अब तक वह जीवित भी होगा या मर गया होगा। महारानी ने महाराजा को अपनी सहज शंका से अवगत करवाया। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ  मिली थी ।महाराजा और महारानी दुखी हो उठे। लेकिन उसी क्षण दोनों ने आकाशवाणी सुनी, 'व्यर्थ दु:खी मत हो, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।' जगन्नाथ मंदिर में अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियाँ पुरुषोत्तम पुरी की रथयात्रा और मन्दिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं। रथयात्रा माता सुभद्रा के द्वारिका भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर करवाई थी। रथयात्रा में जगन्नाथ जी को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध है । भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मो, मतों और विश्वासों का अद्भुत समन्वय है। भुवनेश्वर के भास्करेश्वर मन्दिर में अशोक स्तम्भ  है। भुवनेश्वर के  मुक्तेश्वर और सिद्धेश्वर मन्दिर की दीवारों में शिव मूर्तियों के साथ राम, कृष्ण और अन्य देवताओं ,  जैन और बुद्ध की भी मूर्तियाँ हैं । जगन्नाथ मन्दिर के समीप विमला देवी की मूर्ति के समीप पशुओं की बलि दी जाती है । मन्दिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियाँ है।  तांत्रिकों के प्रभाव के जीवंत हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर के 24 तत्वों के ऊपर आत्मा होती है। ये तत्व हैं- पंच महातत्व, पाँच तंत्र माताएँ, दस इन्द्रियां और मन के प्रतीक हैं। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं।  पुरी का श्री जगन्नाथ मन्दिर भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित  है। मन्दिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और  सुभद्रा अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा के लिए  निकलते हैं। भगवान श्री जगन्नथ को  नील माघव के रूप में  भील सरदार विश्वासु के द्वारा  आराध्य देव की उपासना किया जाता था  हजारों वर्ष पुर्व भील सरदार विष्वासु नील पर्वत की गुफा के अन्दर नील माघव जी की पुजा किया करते थे । मध्य-काल में वैष्णव कृष्ण मन्दिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है। जगन्नाथ मंदिर वैष्णव परम्पराओं और सन्त रामानन्द से जुड़ा हुआ है।  गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान के उपासक थे ।
श्री जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कलिंग शैली में कलिंग राजा अनंतवर्द्धन चोडगंग देव तथा जीर्णोद्धार ओडिशा के राजा अनंग भीमदेव द्वारा 1174 ई. में  कराया गया था । जगन्नाथ मंदिर के शिखर पर स्थित ध्वज और  चक्र सुदर्शन चक्र का प्रतीक तथा  लाल ध्वज भगवान जगन्नाथ  मंदिर के भीतर हैं । गंग वंश के ताम्र पत्रों के अनुसार  मन्दिर के निर्माण कार्य को कलिंग राजा अनन्तवर्मन चोडगंग देव ने आरम्भ कराया था। मन्दिर के जगमोहन और विमान भाग इनके शासन काल (१०७८ - ११४८) में बने थे। सन ११९७ में जाकर ओडिआ शासक अनंग भीम देव ने  मन्दिर रूप दिया था। मन्दिर में जगन्नाथ अर्चना सन १५५८ तक होती रही। अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला किया और मूर्तियां तथा मंदिर के भाग ध्वंस किए और पूजा बन्द करा दी, तथा विग्रहो को गुप्त मे चिलिका झील मे स्थित  द्वीप मे रखागया था। रामचन्द्र देब के खुर्दा में स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने पर, मन्दिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई । इतिहास में वर्णित तथ्यों  के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इन्द्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी।इन्द्रद्युम्न की  कड़ी तपस्या करने के बाद  भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। किन्तु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बन्द रहेंगे और राजा या कोई  उस कमरे के अन्दर नहीं आये। माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झाँका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियाँ अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियाँ ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ मन्दिर में स्थापित की गयीं। भगवान द्वारिकाधिश के अध जले शव प्राचि मे प्रान त्याग के बाद समुद्र किनारे अग्निदाह दिया गया । भगवान कृष्ण ,  बल्भद्र और शुभद्रा अग्नि संस्कार स्थल  पर  आते समुद्र उफान पर होकर  आधे जले शव को बहाकर ले गया था ।   पुरी  मे निकले शव को ,पुरि के राजा ने तिनो शव को अलग अलग रथ मे रख कर  पूरी नगर मे लोगो ने खुद रथो को खिंच कर घुमया और अंत मे जो दारु का लकडा शवो के साथ तैर कर आयाथा उशि कि पेटि बनवाके उसमे धरति माता को समर्पित किया था । बौद्ध इतिहासकारों के अनुसार जगन्नाथ मन्दिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप होता था। उस स्तूप में गौतम बुद्ध का एक दाँत रखा था। बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति, कैंडी, श्रीलंका पहुँचा दिया गया। दसवीं शताब्दी के उड़ीसा में सोमवंशी राज्य चल रहा था। महाराजा रणजीत सिंह, महान सिख सम्राट ने  मन्दिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था । पुरी जगन्नाथ मंदिर का वृहत क्षेत्र 400,000 वर्ग फुट (37,000 मी2) में फैला और चहारदीवारी से घिरा है। कलिंग शैली के मंदिर स्थापत्यकला और शिल्प के मंदिर वक्ररेखीय आकार का है । मंदिर के शिखर पर विष्णु का श्री सुदर्शन चक्र (आठ आरों का चक्र) मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढांचा एक 214 फीट (65 मी॰) ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। मंदिर के  गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है। इससे लगे घेरदार मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेर ेहुए अन्य छोटे पहाड़ियों, फिर छोटे टीलों के समूह रूपी बना है। मुख्य मढ़ी (भवन) एक 20 फीट (6.1 मी॰) ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित हैं। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, इस मंदिर के मुख्य देव हैं। इनकी मूर्तियां, एक रत्न मण्डित पाषाण चबूतरे पर गर्भ गृह में स्थापित हैं। इतिहास अनुसार इन मूर्तियों की अर्चना मंदिर निर्माण से कहीं पहले से की जाती है। सम्भव है, कि यह प्राचीन जनजातियों द्वारा भ  रथ यात्रा आषाढ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को आयोजित होता है। उत्सव में तीनों मूर्तियों को अति भव्य और विशाल रथों में सुसज्जित होकर, यात्रा पर निकालते हैं। थेन्नणगुर का पाण्डुरंग मंदिर, पुरी  है । जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहां की रसोई है।  विशाल रसोई घर में भगवान को चढाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए ५०० रसोईए तथा उनके ३०० सहयोगी काम करते हैं।  मंदिर में प्रविष्टि प्रतिबंधित है। इसमें गैर-हिन्दू लोगों का प्रवेश सर्वथा वर्जित है।
भारत के चार पवित्रतम स्थानों में  पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर को  समुद्र  धोता है। पुरी, भगवान जगन्नाथ , सुभद्रा और बलभद्र की पवित्र नगरी , हिंदुओं के पवित्र चार धामों में से एक पुरी स्थान को समुद्र के आनंद के साथ-साथ यहां के धार्मिक तटों और 'दर्शन' की धार्मिक भावना के साथ कुछ धार्मिक स्थलों का आनंद है। पुरी एक ऐसा स्थान हजारों वर्षों से  नीलगिरी, नीलाद्रि, नीलाचल, पुरुषोत्तम, शंखक्षेत्र, श्रीक्षेत्र, जगन्नाथ धाम, जगन्नाथ पुरी को जाना जाता है। पुरी में दो महाशक्तियों का प्रभुत्व है, एक भगवान द्वारा सृजित है और दूसरी मनुष्य द्वारा सृजित है। पुरी  भील शासकों द्वारा शासित क्षेत्र था , सरदार विश्वासु भील को सदियों पहले भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति प्राप्त हुई थी । पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर यह 65 मी. ऊंचा मंदिर पुरी के महत्वपूर्ण स्मारक है।  मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में चोड़गंग ने अपनी राजधानी दक्षिणी उड़ीसा से मध्य उड़ीसा में स्थानांतरित करने की खुशी में करवाया था।  मंदिर नीलगिरी पहाड़ी के आंगन में बना है। मंदिर के चारों ओर से 20 मी. ऊंची दीवार से घीरे मंदिर में कई छोट-छोटे मंदिर बने हैं। मंदिर के शेष भाग में पारंपरिक तरीके से बना सहन, गुफा, पूजा-कक्ष और नृत्य के लिए बना खंबों वाला एक हॉल है। सड़क के एक छोर पर गुंडिचा मंदिर के साथ भगवान जगन्नाथ का ग्रीष्मकालीन मंदिर है। यह मंदिर ग्रांड रोड के अंत में चार दीवारी के भीतर एक बाग में बना है। यहां एक सप्ताह के लिए मूर्ति को एक साधारण सिंहासन पर विराजमान कराया जाता है। जगन्नाथ मंदिर में  गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है। मंदिर परिसर के बाहर से गैर हिन्दू  दर्शन करते  हैं । भगवान साक्षीगोपाल मंदिर पुरी से केवल 20 कि॰मी॰ की दूरी पर है।  'आँवला नवमी' में श्री राधा जी के पवित्र पैरों के दर्शन किया जाता है । रथयात्रा में श्रद्धालु भगवान जगन्नाथ,  भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा की पूजा-अर्चना करते हैं। यह भव्य त्योहार नौ दिनों तक मनाया जाता है।रथयात्रा जगन्नाथ मन्दिर से प्रारम्भ होती है तथा गुंडिचा मन्दिर तक समाप्त होती है। भारत में चार धामों में से जगन्नाथ पुरी  है। पूरी  विश्व का सबसे बड़ा समुद्री तट स्थित है। जगन्नाथ मंदिर से एक कि. मि. पर भदावं राम द्वारा स्थापित लोकनाथ शिवलिंग स्थापित है । बालीघाई में  प्रसिद्ध सूर्य मन्दिर कोणार्क में स्थित है । कोणार्क सूर्यमंदिर 13वीं सदी की वास्तुकला और मूर्तिकला है । झारखंड राज्य का रांची जिले के जगन्नाथ पुर में भगवान जगन्नाथ मंदिर है ।जगन्नाथपुर से  रथयात्रा प्रतिवर्ष रांची के विभिन्न स्थानों में भ्रमण कर श्रद्धालुओं को दर्शन कराया जाता है । जय भगवान जगन्नाथ ।

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