मंगलवार, जुलाई 13, 2021

मयूरभट्ट और सूर्य शतक...

औरंगाबाद जिले का दाउदनगर अनुमंडल के मायर स्थित शमशेरनागर का विरासत
 
                        

        राजनैतिक और सामाजिक चक्रवातों ने देववाणी संस्कृत की सांस्कृतिक की पीयूसधारा कल की कठोरता में सुख रही है जिससे संस्कृत साहित्य के अद्भुत रचनाकार मयूरभट्ट की रचनाएं अपेक्षित रही है । मयूर भट्ट सर्प विद्या के ज्ञाता थे ।मयूर भट्ट के माता पिता बचपन में सिधारने के बाद बहन के साथ रहते थे ।अपनी बहन की शादी बाण भट्ट से की थी ।बाण भट्ट की पत्नी और मयूरभट्ट की बहन के शाप के कारण मयूर कुष्टरोग से पीड़ित हो गए थे । मयूर ने अपनी कुष्ट के निवारण के लिए भगवान सूर्य की उपासना के दौरान सूर्य शतक की रचना कर कुष्ट से मुक्ति पाई थी । मयूर भट्ट मंगल काव्य के  प्रथम लेखक एवं  हर्षवर्धन के सभा के कवि मयूरभट्ट का जन्म औरंगाबाद जिले का दाउदनगर अनुमंडल के मायर का शाकद्वीपीय ब्राह्मण  में  सप्तम शताब्दी में हुआ  है। मयूर भट्ट काशी के पूर्ववर्ती प्रदेश गोरखपुर ज़िले के शाकद्वीपीय ब्राह्मण  मयूर भट्ट का वंशज  हैं। तान्त्रिक बौद्ध धर्म के अवसान ने बंगाल तथा उड़ीसा के हिन्दू धर्म पर पर्याप्त प्रभाव डाला। बौद्ध त्रिरत्न बुद्ध, धर्म एवं संध से एक नये हिन्दू देवता की कल्पना हुई, जिसका नाम धर्म पड़ा। धर्म ठाकुर की भक्ति दूर-दूर तक फैली। इस नये देवता सम्बन्धी एक महत्त्वपूर्ण साहित्य की उत्पत्ति प्रारम्भिक बांग्ला में हुई। इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित 'शून्य पुराण' एवं लाउसेन नामक मैन (बंगाल) के राजा के नाम आता है, जिसने धर्म की पूजा की और जिसके वीरतापूर्ण कार्यों की प्रसिद्धि-गाथा प्रारम्भ हुई। कथाओं के आधार पर 'धर्ममंगल' आदि नामों से बंगला की मंगल काव्य माला का प्रारम्भ से 12वीं शताब्दी से लिखी जाने लगी। मंगल काव्य के सबसे प्रथम लेखक मयूर भट्ट माने जाते हैं। मयूर भट्ट् दक्षिण पंचवटी वासी थे। मयूर भट्ट  उत्तर प्रदेश के तपोभूमि गोरखपुर में सरयू किनारे स्थित ककरियाकीट में निवासी रहे है । मयूर भट्ट की संतानें   प्यासी के मिश्र और मझोली के मिश्र तथा विशेन वंश की उत्पत्ति हुई है। पयासी के मिश्र  ब्रह्य वर्ग में मझोली के मिश्र कहलाते हैं। पुष्यभूति द्वारा वर्द्धन वंश की स्थापना के बाद मगध देश का राजा प्रभाकर वर्द्धन भगवान सूर्य के उपासक था । मगध साम्राज्य का राजा प्रभाकर वर्द्धन की पत्नी यशोमति ने राज्यवर्द्धन और हर्षवर्द्धन पुत्र तथा राज्यश्री पुत्री का जन्म दिया था । राज्यवर्द्धन के मृत्यु के बाद 606 ई. में  मगध का राजा  बनाने के बाद पंजाब ,कान्यकुब्ज ,बंगाल , मिथिला और उड़ीसा पर। विजय प्राप्त किया था ।हर्षवर्द्धन के दरबार में राज कवियों में बाण भट्ट , मयूर भट्ट , मतंग, दिवाकर और मित्र प्रसिद्ध विद्वान थे ।
मयूर भट्ट संस्कृत कवि थे। इनकी सुप्रसिद्ध रचना "सूर्यशतक" है। व्याकरण, कोश तथा अलंकार के विद्वानों में इस ग्रंथ की बड़ी प्रतिष्ठा रही है। मयूर भट्ट महाकवि बाण के  साले  हैं।  एक समय बाण की पत्नी ने मान किया और सारी रात मान किए रही। प्रभात होने को हुआ, चंद्रमा का तेज विशीर्ण होने लगा, दीप की लौ हिलने लगी, किंतु मान न टूटा। अधीर हो बाण न एक श्लोक बनाया और सविनय निवेदन किया। श्लोक के तीन चरण इस प्रकार थे। गतप्राया रात्रि: कृशतनु शशी शीर्यत इव । प्रदीपोऽयं निद्रा वशमुपगतो घूर्णन इव। प्रणामांतो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहो ।इतने में वहाँ कवि मयूर भट्ट आ गए थे। उन्होंने इन तीन चरणों को सुना। कवि काव्यानंद में डूब गया। संबंध की मर्यादा भूल गया और जब तक बाण चौथा चरण सोचते स्वयं परोक्ष से बोल उठा--कुंचप्रत्यासत्त्या हृदयमपि ते चंडि कठिनतम्॥ पंक्ति की चोट से बाण और उनकी पत्नी दोनों घायल हो उठे। विशेषत: उनकी पत्नी को अपने रहस्य में इस प्रकार अनधिकार हस्तक्षेप करनेवाले मर्यादाविहीन संबंधी पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने उसे कुष्टी होने का शाप दे दिया। दु:खी कवि मयूर ने भगवान सूर्य की स्तुति में एक अतिशय प्रौढ़ एवं ललित श्लोकशतक की रचना ग्राम मायर में रहकर  "सूर्यशतक"  की रचना की है । मयूर की रोग मुक्ति वाली घटना को आचार्य मम्मट ने  काव्यप्रकाश में किया है--"आदित्यादेर्मयूरादीनामिवानर्थ निवारणम्" (प्रथम उल्लास)। क्रुद्ध हो मयूर ने बाण को प्रतिशाप दिया, जिससे मुक्ति के लिये बाण ने भगवती दुर्गा की स्तुति में "चंडीशतक" की रचना की। कन्नौज के महाराज हर्षवर्धन की सभा में जिस प्रकार बाण की प्रतिष्ठा थी, उसी प्रकार मयूर की स्थिति हो गयी थी । राजशेखर के शारंगधर  अनुसार -अहो प्रभावो वाग्देव्या: यन्मातंगदिवाकरा:। श्रीहर्षस्याभवन् सभ्या: समा: बाणमयूरयो:॥ (शार्ंगधरपद्धति ) ।  मयूर काशी के पूर्ववर्ती प्रदेश के  गोरखपुर जिले के शाकद्वीपीय  ब्राह्मण अपने को मयूर भट्ट का वंशज बताते हैं।मयूर भट्ट की  श्रंगाररस  रचना "मयूराष्टक" है । मयूराष्टक में प्रिय के पास से लौटी प्रेयसी का वर्णन किया गया है। मयूर की  सुप्रसिद्ध रचना "सूर्यशतक" है। संस्कृत के सबसे बड़े छंद स्रग्धरा में, लंबे समस्त पदों की गौडी रीति में श्लेष एवं अनुप्रास अलंकार से सुसज्जित अतिशय प्रौढ़ भाषा में पूर्ण वैदग्ध्य के साथ रचे गए इन सौ श्लोकों ने ही काव्यजगत् में मयूर की कवित्वशक्ति की ऐसी धाक जमा दी कि मयूर कविता कामिनी के कर्णपूर बन गए--"कर्णपूरा मयूरक"।  सूर्य शतक में कवि का संरभ देव विषयक भक्ति से अधिक अलंकारादि योजना के प्रति  है। प्श्लोक के अंत में आशीर्वाद सा दिया गया है। सूर्य के रथ, घोड़े, बिंब आदि के प्रति बड़ी अनूठी कल्पनाएँ की गई हैं। प्रतिभा के साथ कवि की पांडित्य ने सूर्य शतक का महत्व बढ़ा दिया है।  औरंगाबाद जिला मुख्‍यालय से ४२ कि0 मी0 की दूरी पर तथा दाउदनगर अनुमंडल मुख्‍यालय से १२ कि0 मी0 उतर की ओर अवस्थित मायर  में मयूरभट्ट की जन्मभूमि थी । बिहार के सूबेदार शमशेर खां ने मायर में   वृहत आयताकार संरचना समतल भूमि से ४’६’’ ऊची प्‍लेटफॉर्म पर ९१.५ वर्ग फीट में बना मकबरा में शमशेर खॉ और उनकी पत्‍नी की कब्र हैा शमशेर खॉ का मूल नाम इबा्रहीम खॉ था । शमशेर खां शाहाबाद के फौजदार होने के  बाद  अजिमाबाद के सुबेदार नियुक्‍त किये गये ।  शमशेर खॉ ने अपने जीवन काल में  मकबरे का निर्माण करवाया के बाद  में मृत्यु शमशेर खां की मृत्यु 1712 ई. के पश्चात दफनाया गया था । सातवीं शताब्दी में  मायर को 1712 ई. में  शमशेर नगर नामकरण किया गया । मयूर भट्ट द्वारा मायर वसया गया । मायर में सूर्योपासना का केंद्र  और शाकद्वीपीय ब्राह्मण सूर्योपासक तथा सौर धर्म का प्रमुख स्थल था । मयूर भट्ट द्वारा सूर्य शतक , मयूराष्टक रचना किया गया है ।मयूर भट्ट द्वारा रचित संस्कृत साहित्य के पुस्तक  मयूराष्टक को जे .पी. क्वेकेन्बॉस और ए . वी . विलियम्स जैक्सन ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से प्रकाशित  करायी है । अयोधया नरेश के सेनानायक और अयोधया नरेश की पुत्री सुप्रभा मयूरभट्ट की पत्नी थी । हरित स्मृति के अनुसार मयूरभट्ट की पत्नियों में अयोध्या की राजपुरोहित की पुत्री नाग सनी और कनौज के पल्लव वंशीय महेंद्र पाल की पुत्री हय कुमारी थी । महेंद्र पाल द्वारा मयूरभट्ट को मगध साम्राज्य का क्षेत्र दान में दिया गया था । मयूर द्वारा अपने नाम पर मायर नगर की स्थापना कर सूर्योपासना का केंद्र स्थापित किया गया था । मायर में शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का स्थल है । 590 ई. से 647 ई. तक मायर विकशित और सौर धर्म का केंद्र रहा है । अरवल और दाउदनगर का क्षेत्र मयूर के अधीन था ।  मयूरभट्ट के वंशज भट्ट , भट , मिश्र मायर , गया , नवादा , औरंगाबाद , नालंदा , पटना अरवल ,  ,मिथिला  , गोरखपुर , छपरा ,  मगध क्षेत्रों  में कहलाते है । पटना - औरंगाबाद पथ और सोन नहर के मध्य में स्थित मायर को शमशेरनागर के नाम सुविख्यात है । हर्षवर्द्धन काल में अचिरावती नदी के तट पर राप्ती नगर में मायर नगर की नींव डाली गई थी ।
         
      

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