मंगलवार, मई 25, 2021

ज्योतिर्लिंग : जीवन का चतुर्दिक विकास ...



        भारतीय संस्कृति और सभ्यता मानवीय जीवन के लिए चतुर्दिक विकास का स्रोत है । पुरणों , वेदों तथा उपनिषदों में भगवान शिव के ज्योतिर्लिंगों का महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है । क्षिप्रा नदी के किनारे उज्जैन का महाकाल इंसान का आरंभ और अंत का रूप है ।शिव पुराण कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 1 , 15, 16 के अनुसार मालवा प्रदेश की राजधानी अवंतिका में महाकाल है । अवंति में ब्राह्मणों द्वारा अग्नि की स्थापना कर अग्निहोत्र और भगवान शिव की पार्थिव शिवलिंग बना कर उपासना करते थे । वेद प्रिय ब्राह्मण वेदप्रिय ब्राह्मण के पुत्रों में देवप्रिय ,प्रियमेघा ,सुकृत और सुब्रत के प्रभाव से अवंति ब्रह्मतेज से परिपूर्ण हो गयी थी ।ब्रह्मतेज से परिपूर्ण अवनति पर रत्नमाला पर्वत पर असुरराज दूषण ने ब्रह्मा जी से वर प्राप्त करने के बाद शिब भक्त पर चढ़ाई कर दी । भगवान शिव द्वारा अधर्मी असुर राज दूषण सहित असुरों को ब्राह्मणों द्वारा स्थापित एवं पूजित पार्थिव शिवलिंग से प्रकट हो कर असुरों को भष्म कर अवंति सुरक्षित किया  । पार्थिव शिव लिंग के स्थान से भगवान शिव की बड़ी आवाज से गड्डा होने पर भगवान शिव ज्योतिर्लिंग प्रगट हो गए थे और असुरों , दैत्यों को भष्म कर अवंति की रक्षा की गई । अवनति का राजा चंद्रसेन महाकाल का भक्त और उपासक थे ।शिव पार्षदों में प्रधान मणिभद्र चंद्रसेन के मित्र थे । भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग महाकाल के नाम से विख्यात है । से कर  मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग   मंदिर है। पुराणों, महाभारत और कालिदास और महाकवियों की रचनाओं में महाकाल मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यन्त पुण्यदायी  है। महाकवि कालिदास ने मेघदूत में उज्जयिनी की चर्चा करते हुए  मंदिर की प्रशंसा की है।  १२३५ ई. में इल्तुत्मिश के द्वारा ममहाकाल मंदिर का विध्वंस किए जाने के बाद से यहां के शासक ने महाकालेश्वर मंदिर के जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण किया है । उज्जैन में सन् ११०७ से १७२८ ई. तक यवनों का शासनकाल में अवंति की लगभग ४५०० वर्षों में स्थापित हिन्दुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराएं प्राय: नष्ट हो चुकी थी। १६९० ई. में मराठों ने मालवा क्षेत्र में आक्रमण कर दिया और २९ नवंबर १७२८ को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में  अधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौटा और सन १७३१ से १८०९ तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी थी ।, महाकालेश्वर मंदिर का पुनिर्नर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना हुई  थी। राजा भोज ने महाकालेश्वर मंदिर का विस्तार कराया है ।
मंदिर एक परकोटे के भीतर स्थित है। गर्भगृह तक पहुँचने के लिए एक सीढ़ीदार रास्ता है। इसके ठीक उपर एक दूसरा कक्ष है जिसमें ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित है। मंदिर का क्षेत्रफल १०.७७ x १०.७७ वर्गमीटर और ऊंचाई २८.७१ मीटर है। वक्र: पंथा यदपि भवन प्रस्थिताचोत्तराशाम, सौधोत्संग प्रणयोविमखोमास्म भरूज्जयिन्या:। विद्युद्दामेस्फरित चकितैस्त्र पौराड़गनानाम, लीलापांगैर्यदि न रमते लोचननैर्विंचितोसि॥ - कालिदास । शिप्रा नदी के किनारे बसे और मंदिरों से उज्जैन  नगरी को सदियों से महाकाल की नगरी के तौर पर जाना जाता है।उज्जयिनी और अवन्तिका से नगरी प्राचीनकाल में जानी जाती थी। स्कन्दपुराण के अवन्तिखंड में अवन्ति प्रदेश का उल्लेख है। उज्जैन के अंगारेश्वर मंदिर को मंगल गृह का जन्मस्थान माना जाता है, और कर्क रेखा  गुजरती है। मध्य प्रदेश का उज्जैन एक प्राचीनतम शहर  शिप्रा नदी के किनारे स्थित और शिवरात्रि, कुंभ और अर्ध कुंभ  प्रमुख मेलों के लिए प्रसिद्ध है। प्राचीनकाल में उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से  जाना जाता है “उज्जयिनी” का अर्थ  गौरवशाली विजेता है ।   उज्जैन नगरी को  अवंतिका ,  कनकश्रृंगा , कुशस्थली ,  भोगस्थली , अमरावती नामों से जाना गया है ।   उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में महाकाल के रूप में विराजमान और  दक्षिणमुखी है।  दक्षिण दिशा मृत्यु यानी काल की दिशा है और काल को वश में करने वाले महाकाल हैं।दक्षिण दिशा का स्वामी भगवान यमराज है। दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग के दर्शन  से जीवन स्वर्ग तथा मृत्यु के उपरांत  यमराज के दंड से मुक्ति पाता है। महाकालेश्वर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में दक्षिणमुखी होने के कारण प्रमुख स्थान रखता है, महाकालेश्वर मंदिर में अनेकों मंत्र जप जल अभिषेक एवं पूजा होती है । महाकालेश्वर मंदिर एक विशाल परिसर में स्थित है ।मंदिर में प्रवेश करने के लिए मुख्य द्वार से गर्भगृह तक की दूरी तय करनी पड़ती है। 
महाकाल की भूमि उज्जैन को लेकर रहस्य मौजूद हैं।  उज्जैन पूरे आकाश का मध्य स्थान आकाश और  पृथ्वी का  केंद्र  है ।  महाकाल की महिमा का वर्णन किया  गया है – आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम् ।भूलोके च महाकालो लिंड्गत्रय नमोस्तु ते ॥ आकाश में तारक लिंग, पाताल में हाटकेश्वर-लिंग और पृथ्वी पर महाकालेश्वर ही मान्य शिवलिंग है।शास्त्रों के अनुसार महाकाल पृथ्वी लोक के अधिपति हैं, साथ ही तीनों लोकों के और सम्पूर्ण जगत के अधिष्ठाता  है।   पुराणों में कालखंड, काल सीमा और काल विभाजन जन्म लेता है और उन्हीं से इसका निर्धारण होता है । पूरे ब्रह्माण्ड में सभी चक्र महाकाल 
 चलते हैं ।शिव महापुराण के 22वें अध्याय के अनुसार दूषण नमक एक दैत्य से भक्तो की रक्षा करने के लिए भगवान शिव ज्योति के रूप में उज्जैन में प्रकट हुए थे । दूषण संसार का काल था और शिव शंकर ने उसे खत्म कर दिया इसलिए शंकर भोलेनाथ महाकाल के नाम से पूज्य हुए। अतः दुष्ट दूषण का वध करने के पश्चात् भगवान शिव कहलाये कालों के काल महाकाल उज्जैन में महाकाल का वास होने से पुराने साहित्य में उज्जैन को महाकालपुरम भी कहा गया है। उज्जैन में एक कहावत प्रसिद्ध है “अकाल मृत्यु वो मरे जो काम करे चांडाल का, काल भी उसका क्या बिगाड़े जो भक्त हो महाकाल का” ।पुराणों में मोक्ष देनेवाली यानी जीवन और मृत्यु के चक्र से छुटकारा दिलाने वाली जिस सप्तनगरी का ज़िक्र है और उन सात नगरों में एक नाम उज्जैन का भी है। जबकि दूसरी तरफ महादेव का वो आयाम में  मुक्ति की ओर ले जाता है। उज्जैन में कालभैरव व गढ़कालिका  हैं । काल यानी समय स्वामी  महाकाल है । उज्जैन में भस्म से स्नान करनेवाले महाकाल की विशिष्ट आराधना  होती है। आदिदेव शंकर को भस्म रमाना बेहद पसंद है, इसके पीछे का राज़ भी बेहद गहरा है। एक तरफ महाकाल रूप में अगर शिव समय के स्वामी हैं, तो काल भैरव के रूप में वो समय के विनाशक हैं। इन्ही सब के आसपस वो रहस्य छिपा है जिसमें पता चलता है कि महादेव को राख या भस्म क्यों पसंद है, क्यों उनकी आराधना में भस्म का स्नान या भस्म का तिलक इस्तेमाल होता है। नाथ संप्रदाय  मच्छेन्द्र नाथ और गोरखनाथ से होते हुए नवनाथ के रूप में प्रचलित हुआ। नाथ  संप्रदाय के साधक अक्सर भस्म रमाये मिलते हैं। शिव की पसंदीदा भस्म  सन्यासियों के लिए प्रसाद और वो अपनी जटाओं से लेकर पूरे शरीर में धुणे की भस्म लगाए मिलते हैं। भगवान शंकर की पहली पत्नी सती के पिता ने भगवान शंकर का अपमान किया जिससे आहत होकर सती यज्ञ के हवनकुंड में कूद गईं, जिससे शिव क्रोधित हो गए थे । शिव सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रह्माण्ड में घूमने लगे। ऐसा लगा कि शिव के क्रोध से ब्रह्माण्ड का अस्तित्व खतरे में है।  श्री हरि विष्णु ने शिव को शांत करने के लिए सती को भस्म में बदल दिया और शिव ने अपनी पत्नी को हमेशा अपने साथ रमा लेने के लिए भस्म को अपने तन पर मल लिया है ।महादेव की पत्नी सती को लेकर  श्री हरि विष्णु ने देवी सती के शरीर को भस्म में नहीं बदला, बल्कि उसे छिन्न भिन्न कर दिया।  पृथ्वी पर 51 जगहों पर उनके अंग गिरे, इन्हीं स्थानों पर शक्तिपीठों की स्थापना हुई। जिसमें से एक शक्तिपीठ उज्जैन में भी है। जिसे वर्तमान काल में हरिसिद्धी माता के मंदिर के नाम से जाना जाता है।शिव अपने शरीर पर चिता की राख मलते हैं और संदेश देते हैं कि आखिर में सब कुछ राख हो जाना है, ऐसे में सांसारिक चीज़ों को लेकर मोह-माया के वश में नही  रहें और भस्म की तरह बनकर स्वयं को प्रभु को समर्पित कर दें। भस्म विध्वंस का भी प्रतीक है। क्योंकि ब्रह्मा अगर सृष्टि के निर्माणकर्ता हैं और विष्णु पालनकर्ता तो महेश को सृष्टि का विनाशक माना जाता है। मान्यता के अनुसार जब सृष्टि में नकारात्मकता बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है तो शिव संहारक के रूप में आते हैं और सब कुछ विध्वंस कर डालते हैं। इससे एक अन्य मान्यता ये भी है कि भस्म उस विध्वंस का प्रतीक है जिसकी याद शिव सबको दिलाते हैं कि सभी सद्कर्म करें अन्यथा अंत में वो सब राख कर देंगे। भस्म से शिव का ये रिश्ता सिर्फ मान्यताओं में है, क्योंकि इसका रहस्य आज भी बरकरार है, हालांकि महाकाल को उज्जैन नगरी का राजा मानते हैं और इसे भी लेकर एक ऐसा राज़ है जिसे आज भी अवंतिका के लोग महसूस करते हैं । विक्रम- बेताल और सिंहासन बत्तीसी की प्रचलित कथा में भी उज्जैन के राजा विक्रमादित्य से जुड़े ऐसे कई रहस्यों को इस नगरी ने समेट रखा है। कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य ने जब से 32 बोलने वाली पुतलियों से जड़े हुए अपने सिंहासन को छोड़ा था ।उनके शासन के बाद से यहां कोई भी राजा रात में रुक नहीं सकता।उज्जैन के  राजा और  कालों के काल महाकाल  का नही आरम्भ और  नही अंत है । 
महाकाल स्तोत्रं - ॐ महाकाल महाकाय महाकाल जगत्पत। महाकाल महायोगिन महाकाल नमोस्तुते।। महाकाल महादेव महाकाल महा प्रभो। महाकाल महारुद्र महाकाल नमोस्तुते।।
अवन्तिकायां विहितावतारं , मुक्ति प्रदानाय च सज्जनानाम्‌ ,अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं ,वन्दे महाकाल महासुरेशम॥ अवन्तिका नगरी (उज्जैन) में संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए भगवान  अवतार धारण किया है, अकाल मृत्यु से बचने हेतु मैं उन 'महाकाल' नाम से सुप्रतिष्ठित भगवान आशुतोष शंकर की आराधना, अर्चना, उपासना, वंदना करता हूँ। स्कंद पुराण के अनुसार चारों वेदों के रचियता ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना करने का फैसला किया तो परेशान देवता उन्हें रोकने के लिए महादेव की शरण में गए। उनका मानना था कि सृष्टि के लिए पांचवे वेद की रचना ठीक नहीं है, लेकिन ब्रह्मा जी ने महादेव की  बात नहीं मानी। भगवान शिव क्रोधित हो गए। गुस्से के कारण उनके तीसरे नेत्र से एक ज्वाला प्रकट हुई। इस ज्योति ने कालभैरव का रौद्ररूप धारण किया, और ब्रह्माजी के पांचवे सिर को धड़ से अलग कर दिया। कालभैरव ने ब्रह्माजी का घमंड तो दूर कर दिया लेकिन उन पर ब्रह्महत्या का दोष लग गया. इस दोष से मुक्ति पाने के लिए भैरव दर दर भटके लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली. फिर उन्होंने अपने आराध्य शिव की आराधना की। शिव ने उन्हें शिप्रा नदी में स्नान कर तपस्या करने को कहा. ऐसा करने पर कालभैरव को दोष से मुक्ति मिली और भगवान शिव  सदा के लिए उज्जैन में ही विराजमान हो गए है ।कालभैरव को ग्रहों की बाधाएं दूर करने के लिए ख्याति  है । भगवान माहकाल भक्तों के रक्षक और दुष्टों के संहारकर्ता है । भगवान शिव ने अवनति का राजा चंद्रसेन की रक्षा के लिये भक्त शिरोमणि हनुमान जी तत्पर रहने के लिए भेजे थे । महाकाल दुष्टों का सर्वथा हनन और भक्तों का आश्रयदाता है ।

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