गुरुवार, मई 13, 2021

शक्ति , ज्ञान और समृद्धि का ज्योतिपुंज ज्योतिर्लिंग...


          सम्पूर्ण सृष्टि और तीर्थ स्थल लिंगमय है ।भगवान शिव ने देव ,दानव, मानव , असुर  और  दैत्य और जीव जंतुओं सहित तीनों लोकों को लिंग रूप से व्याप्त कर रखा है ।शिव लिंग की पूजा और उपासना कर के मानव अवश्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है । भूतल पर संपूर्ण सिद्धियों का फल प्राप्ति के लिए ज्योतिर्लिंगों का स्मरण और उपासना आवश्यक है । शिवपुरण के कोटि रुद्र संहिता का अध्याय - और लिंग पुराण के अनुसार 12 ज्योतिर्लिंग का उल्लेख किया गया है ।सोमनाथ ज्योतिर्लिंग -  काठियावाड़ प्रदेश के प्रभास क्षेत्र में सोमनाथ ज्योतिर्लिंग स्थापित है । इनका उप ज्योतिर्लिंग माही और समुद्र के संगम पर स्थित है । ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग - मालवा प्रान्त के नर्मदा नदी के किनारे ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित है । इनका उप लिंग बिंदु सरोवर के किनारे कर्दमेश्वर स्थित है ।श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग -  असम के कामरूप जिले का गोहाटी के ब्रह्मपुर पर्वत पर भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग स्थित है । इनका उप लिंग पुना से उतर सह्य पर्वत से उद्गम भीमा नदी के किनारे सह्य शिखर पर उप लिंग भीमेश्वर  स्थित है ।
01* रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु -  तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले का रामेश्वर में  रामेश्वर ज्योतिर्लिंग  स्थित है।रामेश्वरम हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है। बहुत पहले यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि के साथ जुड़ा हुआ था, परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया। यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिसपर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची व वहां विजय पाई।भगवान  राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था। आज भी इस ३० मील (४८ कि.मी) लंबे आदि-सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। यहां के मंदिर के तीसरे प्रकार का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है। जिस स्थान पर यह टापु मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ था, वहां इस समय ढाई मील चौड़ी एक खाड़ी है। शुरू में इस खाड़ी को नावों से पार किया जाता था। बताया जाता है, कि बहुत पहले धनुष्कोटि से मन्नार द्वीप तक पैदल चलकर भी लोग जाते थे। लेकिन १४८० ई में एक चक्रवाती तूफान ने इसे तोड़ दिया। चार सौ वर्ष पहले कृष्णप्पनायकन नाम के एक राजा ने उस पर पत्थर का बहुत बड़ा पुल बनवाया। अंग्रेजो के आने के बाद उस पुल की जगह पर रेल का पुल बनाने का विचार हुआ। उस समय तक पुराना पत्थर का पुल लहरों की टक्कर से हिलकर टूट चुका था। एक जर्मन इंजीनियर की मदद से उस टूटे पुल का रेल का एक सुंदर पुल बनवाया गया। इस समय यही पुल रामेश्वरम् को भारत से रेल सेवा द्वारा जोड़ता है। यह पुल पहले बीच में से जहाजों के निकलने के लिए खुला करता था। (देखें:चित्र) इस स्थान पर दक्षिण से उत्तर की और हिंद महासागर का पानी बहता दिखाई देता है। उथले सागर एवं संकरे जलडमरूमध्य के कारण समुद्र में लहरे बहुत कम होती है। शांत बहाव को देखकर यात्रियों को ऐसा लगता है, मानो वह किसी बड़ी नदी को पार कर रहे है। रामेश्वरम् से दक्षिण में कन्याकुमारी नामक प्रसिद्ध तीर्थ है। रत्नाकर कहलानेवाली बंगाल की खाडी यहीं पर हिंद महासागर से मिलती है। रामेश्वरम् और सेतु बहुत प्राचीन है। परंतु रामनाथ का मंदिर उतना पुराना नहीं है। दक्षिण के कुछ और मंदिर डेढ़-दो हजार साल पहले के बने है, जबकि रामनाथ के मंदिर को बने अभी कुल आठ सौ वर्ष से भी कम हुए है। इस मंदिर के बहुत से भाग पचास-साठ साल पहले के है।रामेश्वरम का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है। यह उत्तर-दक्षिणमें १९७ मी. एवं पूर्व-पश्चिम १३३ मी. है। इसके परकोटे की चौड़ाई ६ मी. तथा ऊंचाई ९ मी. है। मंदिर के प्रवेशद्वार का गोपुरम ३८.४ मी. ऊंचा है। यह मंदिर लगभग ६ हेक्टेयर में बना हुआ है ।मंदिर में विशालाक्षी जी के गर्भ-गृह के निकट ही नौ ज्योतिर्लिंग हैं, जो लंकापति विभीषण द्वारा स्थापित बताए जाते हैं। रामनाथ के मंदिर में जो ताम्रपट है, उनसे पता चलता है कि ११७३ ईस्वी में श्रीलंका के राजा पराक्रम बाहु ने मूल लिंग वाले गर्भगृह का निर्माण करवाया था। उस मंदिर में अकेले शिवलिंग की स्थापना की गई थी। देवी की मूर्ति नहीं रखी गई थी, इस कारण वह नि:संगेश्वर का मंदिर कहलाया।  पंद्रहवीं शताब्दी में राजा उडैयान सेतुपति और निकटस्थ नागूर निवासी वैश्य ने १४५० में इसका ७८ फीट ऊंचा गोपुरम निर्माण करवाया था। बाद में मदुरई के एक देवी-भक्त ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। सोलहवीं शताब्दी में दक्षिणी भाग के द्वितीय परकोटे की दीवार का निर्माण तिरुमलय सेतुपति ने करवाया था। इनकी व इनके पुत्र की मूर्ति द्वार पर भी विराजमान है। इसी शताब्दी में मदुरई के राजा विश्वनाथ नायक के एक अधीनस्थ राजा उडैयन सेतुपति कट्टत्तेश्वर ने नंदी मण्डप आदि निर्माण करवाए। नंदी मण्डप २२ फीट लंबा, १२ फीट चौड़ा व १७ फीट ऊंचा है। रामनाथ के मंदिर के साथ सेतुमाधव का मंदिर आज से पांच सौ वर्ष पहले रामनाथपुरम् के राजा उडैयान सेतुपति और एक धनी वैश्य ने मिलकर बनवाया था। सत्रहवीं शताब्दी में दलवाय सेतुपति ने पूर्वी गोपुरम आरंभ किया। १८वीं शताब्दी में रविविजय सेतुपति ने देवी-देवताओं के शयन-गृह व एक मंडप बनवाया। बाद में मुत्तु रामलिंग सेतुपति ने बाहरी परकोटे का निर्माण करवाया। १८९७ – १९०४ के बीच मध्य देवकोट्टई से एक परिवार ने १२६ फीट ऊंचा नौ द्वार सहित पूर्वीगोपुरम निर्माण करवाया। इसी परिवार ने १९०७-१९२५ में गर्भ-गृह की मरम्मत करवाई। बाद में इन्होंने १९४७ में महाकुम्भाभिषेक भी करवाया। रामेश्वरम् का मंदिर भारतीय निर्माण-कला और शिल्पकला का एक सुंदर नमूना है। इसके प्रवेश-द्वार चालीस फीट ऊंचा है। प्राकार में और मंदिर के अंदर सैकड़ौ विशाल खंभें है, जो देखने में एक-जैसे लगते है ; परंतु पास जाकर जरा बारीकी से देखा जाय तो मालूम होगा कि हर खंभे पर बेल-बूटे की अलग-अलग कारीगरी है।
रामनाथ की मूर्ति के चारों और परिक्रमा करने के लिए तीन प्राकार बने हुए है। इनमें तीसरा प्राकार सौ साल पहले पूरा हुआ। इस प्राकार की लंबाई चार सौ फुट से अधिक है। दोनों और पांच फुट ऊंचा और करीब आठ फुट चौड़ा चबूतरा बना हुआ है। चबूतरों के एक ओर पत्थर के बड़े-बड़े खंभो की लम्बी कतारे खड़ी है। प्राकार के एक सिरे पर खडे होकर देखने पर ऐसा लगता है मारो सैकड़ों तोरण-द्वार का स्वागत करने के लिए बनाए गये है। इन खंभों की अद्भुत कारीगरी देखकर विदेशी भी दंग रह जाते है। यहां का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है।रामनाथ के मंदिर के चारों और दूर तक कोई पहाड़ नहीं है, जहां से पत्थर आसानी से लाये जा सकें। गंधमादन पर्वत तो नाममात्र का है। यह वास्तव में एक टीला है और उसमें से एक विशाल मंदिर के लिए जरूरी पत्थर नहीं निकल सकते। रामेश्वरम् के मंदिर में जो कई लाख टन के पत्थर लगे है, वे सब बहुत दूर-दूर से नावों में लादकर लाये गये है। रामनाथ जी के मंदिर के भीतरी भाग में एक तरह का चिकना काला पत्थर लगा है। कहते है, ये सब पत्थर लंका से लाये गये थे।रामेश्वरम् के विशाल मंदिर को बनवाने और उसकी रक्षा करने में रामनाथपुरम् नामक छोटी रियासत के राजाओं का बड़ा हाथ रहा। अब तो यह रियासत तमिल नाडु राज्य में मिल गई हैं। रामनाथपुरम् के राजभवन में एक पुराना काला पत्थर रखा हुआ है। कहा जाता है, यह पत्थर राम ने केवटराज को राजतिलक के समय उसके चिह्न के रूप में दिया था। रामेश्वरम् की यात्रा करने वाले लोग इस काले पत्थर को देखने के लिए रामनाथपुरम् जाते है। रामनाथपुरम् रामेश्वरम् से लगभग तैंतीस मील दूर है । राम ने पहले सागर से प्रार्थना की, कार्य सिद्ध ना होने पर धनुष चढ़ाया, तो सागर प्रकट हुआ था ।रामेश्वरम् के विख्यात मंदिर की स्थापना के बारें में यह रोचक कथाऐ कही जाती है। सीताजी को छुड़ाने के लिए राम ने लंका पर चढ़ाई की थी। उन्होने युद्ध के बिना सीताजी को छुड़वाने का बहुत प्रयत्न किया, पर जब रावण के न मानने पर विवश होकर उन्होने युद्ध किया।  युद्ध हेतु राम को वानर सेना सहित सागर पार करना था, जो अत्यधिक कठिन कार्य था। तब श्री राम ने, युद्ध कार्य में सफलता ओर विजय के पश्र्चात कृतज्ञता हेतु उनके आराध्य भगवान शिव की आराधना के लिए समुद्र किनारे की रेत से शिवलिंग का अपने हाथों से निर्माण कीया, तभी भगवान शिव सव्यम् ज्योति स्वरुप प्रकट हुए ओर उन्होंने इस लिंग को श्री रामेश्वरम की उपमा दी। इस युद्ध में रावण के साथ, उसका पुरा राक्षस वंश समाप्त हो गया और अन्ततः सीताजी को मुक्त कराकर श्रीराम वापस लौटे। रावण भी साधारण राक्षस नहीं था। वह महर्षि पुलस्त्य का वंशज ओर वेदों का ज्ञानी ओर शिवजी का बड़ा भक्त भी । श्रीराम को उसे मारने के बाद बड़ा खेद हुआ। ब्रह्मा-हत्या के पाप प्रायस्चित के लिए श्री राम ने युुद्ध विजय पश्र्चात भी यहां रामेश्वरम् जाकर पुुुजन किया। शिवलिंग की स्थापना करने के पश्र्चात, इस लिंंग को काशी विश्वनाथ के समान मान्यता देनेे हेतु, उन्होंनेे हनुमानजी को काशी से एक शिवलिंग लाने कहा।हनुमान पवन-सुत थे। बड़े वेग से आकाश मार्ग से चल पड़े। और शिवलिंग लेे आए। यह देखकर राम बहुत प्रसन्न हुए और रामेश्वर ज्योतिलििंंग के साथ काशी के लिंंग कि भी स्थापना कर दी। छोटे आकार का यही शिवलिंग रामनाथ स्वामी भी कहलाता है। ये दोनों शिवलिंग इस तीर्थ के मुख्य मंदिर में आज भी पूजित हैं। यही मुख्य शिवलिंग ज्योतिर्लिंग है। दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के देशों में  राम के बनाए  पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का जिक्र आया है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। अनेक पुराणों में भी श्रीरामसेतु का विवरण आता है।[ख] एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में इसे राम सेतु कहा गया है।[6] नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। इसी पुल को बाद में एडम्स ब्रिज का नाम मिला। यह सेतु तब पांच दिनों में ही बन गया था। इसकी लंबाई १०० योजन व चौड़ाई १० योजन थी। इसे बनाने में उच्च तकनीक का प्रयोग किया गया था । रामेश्वरम् शहर और रामनाथजी का प्रसिद्ध मंदिर इस टापू के उत्तर के छोर पर है। टापू के दक्षिणी कोने में धनुषकोटि नामक तीर्थ है, जहां हिंद महासागर से बंगाल की खाड़ी मिलती है। इसी स्थान को सेतुबंध कहते है। लोगों का विश्वास है कि श्रीराम ने लंका पर चढाई करने के लिए समुद्र पर जो सेतु बांधा था, वह इसी स्थान से आरंभ हुआ। इस कारण धनुष-कोटि का धार्मिक महत्व बहुत है। यही से कोलम्बो को जहाज जाते थे ।भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव/शहर है।। इसी स्थान को सेतुबंध कहते है।धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है। पंबन से प्रारंभ होने वाली धनुषकोडी रेल लाइन 1964 के तूफान में नष्‍ट हो गया था और 100 से अधिक यात्रियों वाली रेलगाड़ी समुद में डूब गई थी। 1964 का चक्रवात   हालांकि रामेश्‍वरम और धनुषकोडी के बीच एक रेलवे लाहन थी और एक यात्री रेलगाड़ी नियमित रूप से चलती थी, तूफान के बाद रेल की पटारियां क्षतिग्रस्‍त हो गईं और कालांतर में, बालू के टीलों से ढ़क गईं और इस प्रकार विलुप्‍त हो गई। कोई व्‍यक्ति धनुषकोडी या तो बालू के टीलों पर समुद तट के किनारे से पैदल, मछुआरों की जीप या टेम्‍पो से पहुंच सकते है। भगवान राम से संबंधित यहां कई मंदिर हैं। यह सलाह दी जाती है कि गांव में समूहों में दिन के दौरान जाएं और सूर्यास्‍त से पहले रामेश्‍वरम लौट आएं क्‍योंकि पूरा 15 किमी का रास्‍ता सुनसान और रहस्‍यमय है! पर्यटन इस क्षेत्र में उभर रहा है। भारतीय नौसेना ने भी अग्रगामी पर्यवेक्षण चौकी की स्‍थापना समुद्र की रक्षा के लिए की है। और हैं और यात्रियों की सुरक्षा के लिए पुलिस की उपस्‍थिति महत्‍वपूर्ण है। धनुषकोडी में हम भारतीय महासागर के गहरे और उथले पानी को बंगाल की खाड़ी के छिछले और शांत पानी से मिलते हुए देख सकता है। चूंकि समुद यहां छिछला है, तो आप बंगाल की खाड़ी में जा सकते हैं और रंगीन मूंगों, मछलियों, समुद्री शैवाल, स्टार मछलियों और समुद्र ककड़ी आदि को देख सकते हैं।वर्तमान में, औसनत, करीब 500 तीर्थयात्री प्रतिदिन धनुषकोडी आते हैं और त्‍योहार और पूर्णिमा के दिनों में यह संख्‍या हजारों में हो जाती है, जैसे नए . निश्‍चित दूरी तक नियमित रूप से बस की सुविधा रामेश्वरम से कोढ़ान्‍डा राम कोविल (मंदिर) होते हुए उपलब्ध है और कई तीर्थयात्री को, जो धनुषकोडी में पूर्जा अर्चना करना चाहते हैं, निजी वैनों पर निर्भर होना पड़ता है जो यात्रियों की संख्‍या के आधार पर 50 से 100 रूपयों तक का शुल्‍क लेते हैं। संपूर्ण देश से रामेश्‍वरम जाने वाले तीर्थयात्रियों की मांग के अनुसार, 2003 में, दक्षिण रेलवे ने रेल मंत्रालय को रामेश्‍वरम से धनुषकोडी के लिए 16 किमी के रेलवे लाइन को बिछाने का प्रोजेक्‍ट रिपोर्ट भेजा है।धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच केवल स्‍थलीय सीमा है जो जलसन्धि में बालू के टीले पर सिर्फ 50 गज की लंबाई में विश्‍व के लघुतम स्‍थानों में से एक है। 1964 के चक्रवात से पहले, धनुषकोडी एक उभरता हुआ पर्यटन और तीर्थ स्‍थल था। चूंकि सीलोन (अब श्रीलंका) केवल 18 मील दूर है, धनुषकोडी और सिलोन के थलइमन्‍नार के बीच यात्रियों और सामान को समुद्र के पार ढ़ोने के लिए कई साप्‍ताहिक फेरी सेवाएं थीं। इन तीर्थयात्रियों और यात्रियों की आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिए वहां होटल, कपड़ों की दुकानें और धर्मशालाएं थी। धनुषकोडी के लिए रेल लाइन- जो तब रामेश्‍वरम नहीं जाती थी और जो 1964 के चक्रवात में नष्‍ट हो गई- सीधे मंडपम से धनुषकोडी जाती थी। उन दिनों धनुषकोडी में रेलवे स्‍टेशन, एक लघु रेलवे अस्‍पताल, एक पोस्‍ट ऑफिस और कुछ सरकारी विभाग जैसे मत्‍स्‍य पालन आदि थे। यह इस द्वीप पर जनवरी 1897में तब तक था, जब स्‍वामी विवेकानंद सितंबर 1893 में यूएसए में आयोजित धर्म संसद में भाग लने के लेकर पश्‍चिम की विजय यात्रा के बाद अपने चरण कोलंबो से आकर इस भारतीय भूमि पर रखे । रामेश्वरम् शहर से करीब डेढ़ मील उत्तर-पूर्व में गंधमादन पर्वत नाम की एक छोटी पहाड़ी है। हनुमानजी ने इसी पर्वत से समुद्र को लांघने के लिए छलांग मारी थी। बाद में राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए यहीं पर विशाल सेना संगठित की थी। इस पर्वत पर एक सुंदर मंदिर बना हुआ है, जहां श्रीराम के चरण-चिन्हों की पूजा की जाती है। इसे पादुका मंदिर कहते हैं ।रामेश्वरम् की यात्रा करनेवालों को हर जगह राम-कहानी की गूंज सुनाई देती है। रामेश्वरम् के विशाल टापू का चप्पा-चप्पा भूमि राम की कहानी से जुड़ी हुई है। किसी जगह पर राम ने सीता जी की प्यास बुझाने के लिए धनुष की नोंक से कुआं खोदा था, तो कहीं पर उन्होनें सेनानायकों से सलाह की थी। कहीं पर सीताजी ने अग्नि-प्रवेश किया था तो किसी अन्य स्थान पर श्रीराम ने जटाओं से मुक्ति पायी थी। ऐसी सैकड़ों कहानियां प्रचलित है। यहां राम-सेतु के निर्माण में लगे ऐसे पत्थर भी मिलते हैं, जो पानी पर तैरते हैं। मान्यता अनुसार नल-नील नामक दो वानरों ने उनको मिले वरदान के कारण जिस पाषाण शिला को छूआ, वो पानी पर तैरने लगी और सेतु के काम आयी। रामेश्वर  मंदिर में शिवजी की दो मूर्तियां और  देवी पार्वती की  मूर्तियां अलग-अलग स्थापित की गई है। देवी की एक मूर्ति पर्वतवर्द्धिनी कहलाती है, दूसरी विशालाक्षी। मंदिर के पूर्व द्वार के बाहर हनुमान की एक विशाल मूर्ति अलग मंदिर में स्थापित है। रामेश्वरम मन्दिर के अंदर कई अन्य मंदिर है। सेतुमाधव का कहलानेवाले भगवान विष्णु का मंदिर इनमें प्रमुख है। रामनाथ के मंदिर के अंदर और परिसर में अनेक पवित्र तीर्थ है। ‘कोटि तीर्थ’ जैसे एक दो तालाब भी है। रामनाथ स्वामी मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां स्थित अग्नि तीर्थम में जो भी श्रद्धालु स्नान करते है उनके सारे पाप धुल जाते हैं। इस तीर्थम से निकलने वाले पानी को चमत्कारिक गुणों से युक्त माना जाता है। यह 274 पादल पत्र स्थलम् में से एक है, जहाँ तीनो श्रद्धेय नारायण अप्पर, सुन्दरर और तिरुग्नना सम्बंदर ने अपने गीतों से मंदिर को जागृत किया था। जो शैव, वैष्णव और समर्थ लोगो के लिए एक पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। भारत के तमिलनाडु राज्य के रामेश्वरम द्वीप पर और इसके आस-पास कुल मिलाकर 64 तीर्थ है। स्कंद पुराण के अनुसार, इनमे से 24 ही महत्वपूर्ण तीर्थ है। इनमे से 22 तीर्थ तो केवल रामानाथस्वामी मंदिर के भीतर ही है। 22 संख्या को भगवान की 22 तीर तरकशो के समान माना गया है। मंदिर के पहले और सबसे मुख्य तीर्थ को अग्नि तीर्थं नाम दिया गया है। इन तीर्थो में स्नान करना बड़ा फलदायक पाप-निवारक समझा जाता है। जिसमें श्रद्धालु पूजा से पहले स्नान करते हैं। हालांकि ऐसा करना अनिवार्य नहीं है।रामेश्वरम के इन तीर्थो में नहाना काफी शुभ माना जाता है और इन तीर्थो को भी प्राचीन समय से काफी प्रसिद्ध माना गया है। वैज्ञानिक का कहना है कि इन तीर्थो में अलग-अलग धातुएं मिली हुई है। इस कारण उनमें नहाने से शरीर के रोग दूर हो जाते है और नई ताकत आ जाती है। रामेश्वरम् के मंदिर के बाहर भी दूर-दूर तक कई तीर्थ है। प्रत्येक तीर्थ के बारें में अलग-अलग कथाएं है। यहां से करीब तीन मील पूर्व में एक गांव है, जिसका नाम तंगचिमडम है। यह गांव रेल मार्ग के किनारे  बसा है। 
02 * सोमनाथ मंदिर गुजरात - सोमनाथ मन्दिर भूमंडल में दक्षिण एशिया स्थित भारतवर्ष के पश्चिमी छोर पर गुजरात नामक प्रदेश स्थित, अत्यन्त प्राचीन व ऐतिहासिक सूर्य मन्दिर का नाम है। यह भारतीय इतिहास तथा हिन्दुओं के चुनिन्दा और महत्वपूर्ण मन्दिरों में से एक है। इसे आज भी भारत के १२ ज्योतिर्लिंगों में सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में माना व जाना जाता है। गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के वेरावल बंदरगाह में स्थित इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण स्वयं चन्द्रदेव ने किया था, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में स्पष्ट है ।सोमनाथ  मंदिर हिंदू धर्म के उत्थान-पतन के इतिहास का प्रतीक रहा है। अत्यंत वैभवशाली होने के कारण इतिहास में कई बार यह मंदिर तोड़ा तथा पुनर्निर्मित किया गया । सोमनाथ  भवन के पुनर्निर्माण का आरंभ भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने करवाया और पहली दिसंबर 1955 को भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया। सोमनाथ मंदिर विश्व प्रसिद्ध धार्मिक व पर्यटन स्थल है। शास्त्रों के अनुसार यहीं श्रीकृष्ण ने देहत्याग किया था। इस कारण इस क्षेत्र का और भी महत्त्व बढ़ गया। सोमनाथजी के मंदिर की व्यवस्था और संचालन का कार्य सोमनाथ ट्रस्ट के अधीन है। सरकार ने ट्रस्ट को जमीन, बाग-बगीचे देकर आय का प्रबन्ध किया है। यह तीर्थ पितृगणों के श्राद्ध, नारायण बलि आदि कर्मो के लिए भी प्रसिद्ध है। चैत्र, भाद्रपद, कार्तिक माह में यहां श्राद्ध करने का विशेष महत्त्व बताया गया है। इन तीन महीनों में यहां श्रद्धालुओं की बडी भीड़ लगती है। इसके अलावा यहां तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्त्व है । पुरणों और शास्त्रों  के अनुसार सोम अर्थात् चन्द्र ने, दक्षप्रजापति राजा की २७ कन्याओं से विवाह किया था। लेकिन उनमें से रोहिणी नामक अपनी पत्नी को अधिक प्यार व सम्मान दिया कर होते हुए अन्याय को देखकर क्रोध में आकर दक्ष ने चंद्रदेव को शाप दे दिया कि अब से हर दिन तुम्हारा तेज (काँति, चमक) क्षीण होता रहेगा। फलस्वरूप हर दूसरे दिन चंद्र का तेज घटने लगा। शाप से विचलित और दु:खी सोम ने भगवान शिव की आराधना शुरू कर दी। अंततः शिव प्रसन्न हुए और सोम-चंद्र के शाप का निवारण किया। सोम के कष्ट को दूर करने वाले प्रभु शिव का स्थापन यहाँ करवाकर उनका नामकरण हुआ "सोमनाथ"।  श्रीकृष्ण भालुका तीर्थ पर विश्राम कर रहे थे। तब ही शिकारी ने उनके पैर के तलुए में पद्मचिह्न को हिरण की आँख जानकर अनजाने में तीर मारा था। तब ही कृष्ण ने देह त्यागकर यहीं से वैकुंठ गमन किया। इस स्थान पर बड़ा ही सुन्दर कृष्ण मंदिर बना हुआ है।१८६९ में सोमनाथ मंदिर अस्तिव में था । सोमनाथ मंदिर ईसा के पूर्व में अस्तित्व में था जिस जगह पर द्वितीय बार मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया। आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी। गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया। इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी। अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन १०२४ में कुछ ५,००० साथियों के साथ सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया। ५०,००० लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे, प्रायः सभी कत्ल कर दिये गये। इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया। सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया। मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया। इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।१९४८ में प्रभासतीर्थ, 'प्रभास पाटण' के नाम से जाना जाता था। इसी नाम से इसकी तहसील और नगर पालिका थी। यह जूनागढ़ रियासत का मुख्य नगर था। लेकिन १९४८ के बाद इसकी तहसील, नगर पालिका और तहसील कचहरी का वेरावल में विलय हो गया। मंदिर का बार-बार खंडन और जीर्णोद्धार होता रहा पर शिवलिंग यथावत रहा। लेकिन सन १०२६ में महमूद गजनी ने जो शिवलिंग खंडित किया, वह यही आदि शिवलिंग था। इसके बाद प्रतिष्ठित किए गए शिवलिंग को १३०० में अलाउद्दीन की सेना ने खंडित किया। इसके बाद कई बार मंदिर और शिवलिंग को खंडित किया गया। बताया जाता है आगरा के किले में रखे देवद्वार सोमनाथ मंदिर के हैं। महमूद गजनी सन १०२६ में लूटपाट के दौरान इन द्वारों को अपने साथ ले गया था।सोमनाथ मंदिर के मूल मंदिर स्थल पर मंदिर ट्रस्ट द्वारा निर्मित नवीन मंदिर स्थापित है। राजा कुमार पाल द्वारा इसी स्थान पर अन्तिम मंदिर बनवाया गया था। सौराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उच्छंगराय नवलशंकर ढेबर ने १९ अप्रैल १९४० को यहां उत्खनन कराया था। इसके बाद भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन द्वारा प्राप्त ब्रह्मशिला पर शिव का ज्योतिर्लिग स्थापित किया है।
सौराष्ट्र के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने ८ मई १९५० को मंदिर की आधारशिला रखी तथा ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर में ज्योतिर्लिग स्थापित किया।[3] नवीन सोमनाथ मंदिर १९६२ में पूर्ण निर्मित हो गया। १९७० में जामनगर की राजमाता ने अपने पति की स्मृति में उनके नाम से 'दिग्विजय द्वार' बनवाया। इस द्वार के पास राजमार्ग है और पूर्व गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा है। सोमनाथ मंदिर निर्माण में पटेल का बड़ा योगदान रहा।मंदिर के दक्षिण में समुद्र के किनारे एक स्तंभ है। उसके ऊपर एक तीर रखकर संकेत किया गया है कि सोमनाथ मंदिर और दक्षिण ध्रुव के बीच में पृथ्वी का कोई भूभाग नहीं है (आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत अबाधितs ज्योतिर्मार्ग)। इस स्तम्भ को 'बाणस्तम्भ' कहते हैं ।मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित प्राचीन मंदिर के विषय में मान्यता है कि यह पार्वती जी का मंदिर है।जवाहरलाल नेहरू ने सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण के प्रस्ताव का ‘हिन्दू पुनरुत्थानवाद’ कहकर विरोध भी किया। उस समय नेहरू से हुई बहस को कन्हैयालाल मुंशी ने अपनी पुस्तक ‘पिलग्रिमेज टू फ्रीडम’ में दर्ज किया है। वे लिखते हैं-भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल ने  दिसम्बर 1922 में मैं उस भग्न मंदिर की तीर्थ यात्रा पर निकला। वहां पहुंचकर मैंने मंदिर में भयंकर दुरवस्था देखी—अपवित्र, जला हुआ और ध्वस्त! पर फिर भी वह दृढ़ खड़ा था, मानो हमारे साथ की गई कृतघ्नता और अपमान को न भूलने का संदेश दे रहा हो। उस दिन सुबह जब मैंने पवित्र सभामण्डप की ओर कदम बढ़ाए तो मंदिर के खंभों के भग्नावशेषों और बिखरे पत्थरों को देखकर मेरे अन्दर अपमान की कैसी अग्निशिखा प्रज्जवलित हो उठी थी ।नवंबर 1947 के मध्य में सरदार प्रभास पाटन के दौरे पर थे जहां उन्होंने मंदिर का दर्शन किया। एक सार्वजनिक सभा में सरदार ने घोषणा की: ‘नए साल के इस शुभ अवसर पर हमने फैसला किया है कि सोमनाथ का पुनर्निर्माण करना चाहिए। सौराष्ट्र के लोगों को अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देना होगा। यह एक पवित्र कार्य है जिसमें सभी को भाग लेना चाहिए।’ ...कुछ लोगों ने प्राचीन मंदिर के भग्नावशेषों को प्राचीन स्मारक के रूप में संजोकर रखने का सुझाव दिया जिन्हें मृत पत्थर जीवन्त स्वरूप की तुलना में अधिक प्राणवान लगते थे। लेकिन मेरा स्पष्ट मानना था कि सोमनाथ का मंदिर कोई प्राचीन स्मारक नहीं, बल्कि प्रत्येक भारतीय के हृदय में स्थित पूजा स्थल था जिसका पुनर्निर्माण करने के लिए अखिल राष्ट्र प्रतिबद्ध था । मन्दिर संख्या १ के प्रांगण में हनुमानजी का मंदिर, पर्दी विनायक, नवदुर्गा खोडीयार, महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा स्थापित सोमनाथ ज्योतिर्लिग, अहिल्येश्वर, अन्नपूर्णा, गणपति और काशी विश्वनाथ के मंदिर हैं। अघोरेश्वर मंदिर नं. ६ के समीप भैरवेश्वर मंदिर, महाकाली मंदिर, दुखहरण जी की जल समाधि स्थित है। पंचमुखी महादेव मंदिर कुमार वाडा में, विलेश्वर मंदिर नं. १२ के नजदीक और नं. १५ के समीप राममंदिर स्थित है। नागरों के इष्टदेव हाटकेश्वर मंदिर, देवी हिंगलाज का मंदिर, कालिका मंदिर, बालाजी मंदिर, नरसिंह मंदिर, नागनाथ मंदिर समेत कुल ४२ मंदिर नगर के लगभग दस किलो मीटर क्षेत्र में स्थापित है ।वेरावल प्रभास क्षेत्र के मध्य में समुद्र के किनारे मंदिर बने हुए हैं ।शशिभूषण मंदिर, भीड़भंजन गणपति, बाणेश्वर, चंद्रेश्वर-रत्नेश्वर, कपिलेश्वर, रोटलेश्वर, भालुका तीर्थ है। भालकेश्वर, प्रागटेश्वर, पद्म कुंड, पांडव कूप, द्वारिकानाथ मंदिर, बालाजी मंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर, रूदे्रश्वर मंदिर, सूर्य मंदिर, हिंगलाज गुफा, गीता मंदिर, बल्लभाचार्य महाप्रभु की ६५वीं बैठक के अलावा कई अन्य प्रमुख मंदिर है।प्रभास खंड में विवरण है कि सोमनाथ मंदिर के समयकाल में अन्य देव मंदिर भी थे।इनमें शिवजी के १३५, विष्णु भगवान के ५, देवी के २५, सूर्यदेव के १६, गणेशजी के ५, नाग मंदिर १, क्षेत्रपाल मंदिर १, कुंड १९ और नदियां ९ बताई जाती हैं। एक शिलालेख में विवरण है कि महमूद के हमले के बाद इक्कीस मंदिरोंo का निर्माण किया गया। संभवत: इसके पश्चात भी अनेक मंदिर बने होंगे।सोमनाथ से करीब दो सौ किलोमीटर दूरी पर प्रमुख तीर्थ श्रीकृष्ण की द्वारिका है। यहां भी प्रतिदिन द्वारिकाधीश के दर्शन के लिए देश-विदेश से हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। यहां गोमती नदी है। इसके स्नान का विशेष महत्त्व बताया गया है। इस नदी का जल सूर्योदय पर बढ़ता जाता है और सूर्यास्त पर घटता जाता है, जो सुबह सूरज निकलने से पहले मात्र एक डेढ फीट ही रह जाता है।
03 * नागेश्वर ज्योतिर्लिंग द्वारिका , गुजरात    -  नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रान्त के द्वारकापुरी से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग शिवलिंग की स्थापना  धर्मात्मा, सदाचारी और शिव जी का अनन्य वैश्य भक्त सुप्रिय’ द्वारा किया गया था। जब वह नौका (नाव) पर सवार होकर समुद्र के जलमार्ग से कहीं जा रहा था, उस समय ‘दारूक’ नामक एक भयंकर बलशाली राक्षस ने उस पर आक्रमण कर दिया। राक्षस दारूक ने सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण कर लिया और अपनी पुरी में ले जाकर उसे बन्दी बना लिया।  सुप्रिय शिव जी का अनन्य भक्त था, इसलिए वह हमेशा शिव जी की आराधना में तन्मय रहता था। कारागार में भी उसकी आराधना बन्द नहीं हुई और उसने अपने अन्य साथियों को भी शंकर जी की आराधना के प्रति जागरूक कर दिया। वे सभी शिवभक्त बन गये। कारागार में शिवभक्ति का ही बोल-बाला हो गया।जब इसकी सूचना राक्षस दारूक को मिली, तो वह क्रोध में उबल उठा। उसने देखा कि कारागार में सुप्रिय ध्यान लगाए बैठा है  दारुक ने सुप्रिय को डाँटते हुए बोला– ‘अरे वैश्य! तू आँखें बन्द करके मेरे विरुद्ध कौन-सा षड्यन्त्र रच रहा है?’ वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हुआ धमका रहा था, इसलिए उस पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा।घमंडी राक्षस दारूक ने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि सुप्रिय को मार डालो। अपनी हत्या के भय से भी सुप्रिय डरा नहीं और वह भयहारी, संकटमोचक भगवान शिव को पुकारने में ही लगा रहा। उस समय अपने भक्त की पुकार पर भगवान शिव ने उसे कारागार में  दर्शन दिया। कारागार में एक ऊँचे स्थान पर चमकीले सिंहासन पर स्थित भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में उसे दिखाई दिये। शंकरजी ने उस समय सुप्रिय वैश्य का अपना एक पाशुपतास्त्र भी दिया और उसके बाद वे अन्तर्धान (लुप्त) हो गये। पाशुपतास्त्र (अस्त्र) प्राप्त करने के बाद सुप्रिय ने उसक बल से समचे राक्षसों का संहार कर डाला और अन्त में वह स्वयं शिवलोक को प्राप्त हुआ। भगवान शिव के निर्देशानुसार ही उस शिवलिंग का नाम ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ पड़ा। ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ के दर्शन करने के बाद  मनुष्य उसकी उत्पत्ति और माहात्म्य सम्बन्धी कथा को सुनता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा सम्पूर्ण भौतिक और आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करता है- एतद् य: श्रृणुयान्नित्यं नागेशद्भवमादरात्। सर्वान् कामनियाद् धीमान् महापातकनशनान्।।उपर्युक्त ज्योतिर्लिंग के अतिरिक्त नागेश्वर नाम से दो अन्य शिवलिंगों की भी चर्चा ग्रन्थों में प्राप्त होती है। मतान्तर से इन लिंगों को भी कुछ लोग ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कहते हैं । शिव पुराण के अनुसार समुद्र के किनारे द्वारका पुरी के पास स्थित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग  है। कश्मीर प्रान्त के पहाड़ियों तथा विभिन्न मैदानी क्षेत्रों से अनेक में पौण्ड्रक, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक पल्लव, राद, किरात, दरद, नाग और खस आदि प्रमुख थीं। महाभारत के अनुसार ये सभी जातियाँ बहुत पराक्रमी तथा सभ्यता-सम्पन्न थीं। जब पाण्डवों को इन लोगों से संघर्ष करना पड़ा तब उन्हें ज्ञान हुआ कि ये सभी क्षत्रिय धर्म और उसके गुणों से सम्पन्न हैं।इतिहास के पन्नों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि कुमाऊँ की अनार्य जातियों ने भी ब्राह्मण धर्म में प्रवेश पाने का प्रयास किया, किन्तु असफल रहीं। वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच वर्षो तक चला संघर्ष इसी आशय का प्रतीक है। श्री ओकले साहब ने उपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पवित्र हिमालय’ में लिखा है कि कश्मीर और हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में नाग लोगों की एक जाति रहती है। ओकले के अनुसार सर्प की पूजा करने के कारण ही उन्हें ‘नाग’ कहा जाता है।राई डेविडस् प्रसिद्ध बौद्ध लेखक के अनुसार  बौद्ध काल में चित्रों और मूर्तियों में मनुष्य तथा साँप के जुड़े हुए स्वरूप में नाग पूजा को अंकित किया गया है। यह प्रथा आज भी गढ़वाल तथा कुमाऊँ में प्रचलित है। एटकिंट का ‘हिमालय डिस्ट्रिट्रिक के अनुसार गढ़वाल के अधिकांशत: मन्दिरों में आज भी नागपूजा होती चली आ रही है। जागेश्वर शिवमन्दिर के आसपास में आज भी वेरीनाग, धौलेनाग, कालियनाग आदि स्थान विद्यमान हैं, जिनमें ‘नाग’ शब्द उस नाग जाति की याद दिलाता है। उनके आधार पर यह बात तर्क संगत लगती है कि इन नाग-मन्दिरों के बीच ‘नागेश’ नामक कोई बड़ा मन्दिर प्राचीनकाल से कुमाऊँ में विद्यमान है। पौराणिक धर्म और भूत-प्रेतों की पूजा की भी शिवोपासना में गणना की गई है।आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के मत और सिद्धान्त के प्रचार से पहले कुमाऊँ के लोगों को ‘पाशुपतेश्वर’ का नाम नहीं मालूम था। इन देवों की बलि पूजा होती थी या नहीं, यह कहना कठिन है, किन्तु इतिहास के पृष्ठों से इतना तो निश्चित है कि काठमाण्डू, नेपाल के ‘पाशुपतिनाथ, और कुमाऊँ में ‘यागेश्वर’ के ‘पाशुपतेश्वर’ दोनों वैदिक काल से पूजनीय देवस्थान हैं। पवित्र हिमालय की सम्पूर्ण चोटियों को तपस्वी भगवान शिवमूर्तियों के रूप में स्वीकार किया जाता है, किन्तु कैलास पर्वत को तो आदि काल से नैसर्गिक शिव मन्दिर बताया गया है।आख्यायिका के अनुसार ‘यागेश्वर मन्दिर’ हिमालय के उत्तर पश्चिम की ओर अवस्थित है तथा यहाँ सघन देवदार का वन है। इस मन्दिर का निर्माण तिब्बतीय और आर्य शैली का मिला जुला स्वरूप है। जागेश्वर-मन्दिर के अवलोकन से पता चलता है कि इसका निर्माण कम से कम 2500 वर्षों पूर्व का है। इसके समीप मृत्युंजय और डिण्डेश्वर-मन्दिर भी उतने ही पुराने हैं। जागेश्वर-मन्दिर शिव-शक्ति की प्रतिमाएँ और दरवाजों के द्वारपालों की मूर्तियाँ भी उक्त प्रकार की अत्यन्त प्राचीन हैं। जागेश्वर-मन्दिर में राजा दीपचन्द की चाँदी की मूर्ति भी स्थापित है।
स्कन्द पुराण के अनुसार कुमाऊँ कोसल राज्य का ही एक भाग था। कुमाऊँ में वैदिक तथा बौद्ध धर्म समानान्तर रूप से प्रचलित थे। मल्ल राजाओं ने भी पाशुपतेश्वर या जागेश्वर के दर्शन किये थे तथा जागेश्वर को कुछ गाँव उपहार में समर्पित किये थे। चन्द राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटूट श्रृद्धा थी। इनका राज्य कुमाऊँ की पहाड़ियों तथा तराईभाँवर के बीच था। देवीचन्द, कल्याणचन्द, रतनचन्द, रुद्रचन्द्र आदि राजाओं ने जागेश्वर-मन्दिर को गाँव तथा बहुत-सा धन दान में दिये थे। सन 1740 में अलीमुहम्मद ख़ाँ ने अपने रूहेला सैनिकों के साथ कुमाऊँ पर आक्रमण किया था। उसके सैनिकों ने भारी तबाही मचाई और अल्मोड़ा तक के मन्दिरों को भ्रष्ट कर उनकी मूर्तियों को तोड़ डाला। उन दुष्टों ने जागेश्वर-मन्दिर पर भी धावा बोला था, किन्तु ईश्वर इच्छा से वे असफल रहे। सघन देवदार के जंगल से लाखों बर्र निकलकर उन सैनिकों पर टूट पड़े और वे सभी भाग खड़े हुए। उनमें से कुछ कुमाऊँ निवासियों द्वारा मार दिये गये, तो कुछ सर्दी से मर गये। दिग्विजय-यात्रा के दौरान आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने पुन: मूर्तियों को स्थापित किया और जागेश्वर-मन्दिर की पूजा का दायित्त्व दक्षिण भारतीय कुमारस्वामी को सौंप दिया।इस प्रकार प्राचीन इतिहास का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि, जागेश्वर-मन्दिर अत्यन्त प्राचीन काल का है और नाग जातियों के द्वारा इस शिवलिंग की पूजा होने के कारण इसे ‘यागेश’ या ‘नागेश’ कहा जाने लगा। इसी के कारण इसे ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ मानने के पर्याप्त आधार मिल जाता है ।‘दारूका’ नाम की एक प्रसिद्ध राक्षसी थी, जो पार्वती जी से वरदान प्राप्त कर अहंकार में चूर रहती थी। उसका पति ‘दारूका’ महान् बलशाली राक्षस था। उसने बहुत से राक्षसों को अपने साथ लेकर समाज में आतंक फैलाया हुआ था। वह यज्ञ आदि शुभ कर्मों को नष्ट करता हुआ सन्त-महात्माओं का संहार करता था। वह प्रसिद्ध धर्मनाशक राक्षस था। पश्चिम समुद्र के किनारे सभी प्रकार की सम्पदाओं से भरपूर सोलह योजन विस्तार पर उसका एक वन था, जिसमें वह निवास करता था।दारूका जहाँ भी जाती थी, वृक्षों तथा विविध उपकरणों से सुसज्जित वह वनभूमि अपने विलास के लिए साथ-साथ ले जाती थी। महादेवी पार्वती ने उस वन की देखभाल का दायित्त्व दारूका को ही सौंपा था, जो उनके वरदान के प्रभाव से उसके ही पास रहता था। उससे पीड़ित आम जनता ने महर्षि और्व के पास जाकर अपना कष्ट सुनाया। शरणागतों की रक्षा का धर्म पालन करते हुए महर्षि और्व ने राक्षसों को शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि ‘जो राक्षस इस पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा और यज्ञों का विनाश करेगा, उसी समय वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। महर्षि और्व द्वारा दिये गये शाप की सूचना जब देवताओं को मालूम हुई, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर चढ़ाई कर दी। राक्षसों पर भारी संकट आ पड़ा। यदि वे युद्ध में देवताओं को मरते हैं, तो शाप के कारण स्वयं मर जाएँगे और यदि उन्हें नहीं मारते हैं, तो पराजित होकर स्वयं भूखों मर जाएँगे। उस समय दारूका ने राक्षसों को सहारा दिया और भवानी के वरदान का प्रयोग करते हुए वह सम्पूर्ण वन को लेकर समुद्र में जा बसी। इस प्रकार राक्षसों ने धरती को छोड़ दिया और निर्भयतापूर्वक समुद्र में निवास करते हुए वहाँ भी प्राणियों को सताने लगे।
एक बार उस समुद्र में मनुष्यों से भरी बहुत-सारी नौकाएँ जा रही थीं, जिन्हें उन राक्षसों ने पकड़ लिया। सभी लोगों को बेड़ियों से बाँधकर उन्हें कारागार में बन्द कर दिया गया। राक्षस उन यात्रियों को बार-बार धमकाने लगे। एक ‘सुप्रिय’ नामक वैश्य उस यात्री दल का अगुवा (नेता) था, जो बड़ा ही सदाचारी था। वह ललाट पर भस्म, गले में रुद्राक्ष की माला डालकर भगवान शिव की भक्ति करता था। सुप्रिय बिना शिव जी की पूजा किये कभी भी भोजन नहीं करता था। उसने अपने बहुत से साथियों को भी शिव जी का भजन-पूजन सिखला दिया था। उसके सभी साथी ‘नम: शिवाय’ का जप करते थे तथा शिव जी का ध्यान भी करते थे। सुप्रिय परम भक्त था, इसलिए उसे शिव जी का दर्शन प्राप्त होता था। इस विषय की सूचना जब राक्षस दारूका को मिली, तो वह करागार में आकर सुप्रिय सहित सभी को धमकाने लगा और मारने के लिए दौड़ पड़ा। मारने के लिए आये राक्षसों को देखकर भयभीत सुप्रिय ने कातरस्वर से भगवान शिव को पुकारा, उनका चिन्तन किया और वह उनके नाम-मन्त्र का जप करने लगा। उसने कहा- देवेश्वर शिव! हमारी रक्षा करें, हमें इन दुष्ट राक्षसों से बचाइए। देव! आप ही हमारे सर्वस्व हैं, आप ही मेरे जीवन और प्राण हैं। इस प्रकार सुप्रिय वैश्य की प्रार्थना को सुनकर भगवान शिव एक 'विवर'अर्थात् बिल से प्रकट हो गये। उनके साथ ही चार दरवाजों का एक सुन्दर मन्दिर प्रकट हुआ।उस मन्दिर के मध्यभाग में (गर्भगृह) में एक दिव्य ज्योतिर्लिंग प्रकाशित हो रहा था तथा शिव परिवार के सभी सदस्य भी उसके साथ विद्यमान थे। सुप्रिय के पूजन से प्रसन्न भगवान शिव ने स्वयं पाशुपतास्त्र लेकर प्रमुख राक्षसों को, उनके अनुचरों को तथा उनके सारे संसाधनों (अस्त्र-शस्त्र) को नष्ट कर दिया। लीला करने के लिए स्वयं शरीर धारण करने वाले भगवान शिव ने अपने भक्त सुप्रिय आदि की रक्षा करने के बाद उस वन को भी यह वर दिया कि ‘आज से इस वन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, इन चारों वर्णों के धर्मों का पालन किया जाएगा। इस वन में शिव धर्म के प्रचारक श्रेष्ठ ऋषि-मुनि निवास करेंगे और यहाँ तामसिक दुष्ट राक्षसों के लिए कोई स्थान न होगा।’राक्षसों पर आये इसी भारी संकट को देखकर राक्षसी दारूका ने दैन्यभाव (दीनता के साथ) से देवी पार्वती की स्तुति, विनती आदि की। उसकी प्रार्थना से प्रसन्न माता पार्वती ने पूछा– ‘बताओ, मैं तेरा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’! दारूका ने कहा– ‘माँ! आप मेरे कुल (वंश) की रक्षा करें।’ माता पार्वती ने उसके कुल की रक्षा का आश्वासन देते हुए भगवान भगवान शिव से कहा– ‘नाथ! आपकी कही हुई बात इस युग के अन्त में सत्य होगी, तब तक यह तामसिक सृष्टि भी चलती रहे, ऐसा मेरा विचार है।’ माता पार्वती शिव से आग्रह करती हुईं बोलीं कि ‘मैं भी आपके आश्रय में रहने वाली हूँ, आपकी ही हूँ, इसलिए मेरे द्वारा दिये गये वचन को भी आप सत्य (प्रमाणित) करें। यह राक्षसी दारूका राक्षसियों में बलिष्ठ, मेरी ही शक्ति तथा देवी है। इसलिए यह राक्षसों के राज्य का शासन करेगी। ये राक्षसों की पत्नियाँ अपने राक्षसपुत्रों को पैदा करेगी, जो मिल-जुलकर इस वन में निवास करेंगे-ऐसा मेरा विचार है।’माता पार्वती के उक्त प्रकार के आग्रह को सुनकर भगवान शिव ने उनसे कहा– ‘प्रिय! तुम मेरी भी बात सुनो। मैं भक्तों का पालन तथा उनकी सुरक्षा के लिए प्रसन्नतापूर्वक इस वन में निवास करूँगा। जो मनुष्य वर्णाश्रम-धर्म का पालन करते हुए श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा बनेगा। कलि युग के अन्त में तथा सत युग के प्रारम्भ में महासेन का पुत्र वीरसेन राजाओं का महाराज होगा। वह मेरा परम भक्त तथा बड़ा पराक्रमी होगा। जब वह इस वन में आकर मेरा दर्शन करेगा। उसके बाद वह चक्रवर्ती सम्राट हो जाएगा।’ तत्पश्चात् बड़ी-बड़ी लीलाएँ करने वाले शिव-दम्पत्ति ने आपस में हास्य-विलास की बातें की और वहीं पर स्थित है।
04 *  महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग : जीवन का चतुर्दिक विकास  - मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग  का प्रमुख मंदिर है। पुराणों, महाभारत और कालिदास और महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यन्त पुण्यदायी महत्ता है। महाकवि कालिदास ने मेघदूत में उज्जयिनी की चर्चा करते हुए इस मंदिर की प्रशंसा की है।  १२३५ ई. में इल्तुत्मिश के द्वारा इस प्राचीन मंदिर का विध्वंस किए जाने के बाद से यहां के शासक ने महाकालेश्वर मंदिर के जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण किया है ।उज्जैन में सन् ११०७ से १७२८ ई. तक यवनों का शासनकाल में अवंति की लगभग ४५०० वर्षों में स्थापित हिन्दुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराएं प्राय: नष्ट हो चुकी थी। १६९० ई. में मराठों ने मालवा क्षेत्र में आक्रमण कर दिया और २९ नवंबर १७२८ को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में  अधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौटा और सन १७३१ से १८०९ तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी रही। मराठों के शासनकाल में यहाँ दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं - पहला, महाकालेश्वर मंदिर का पुनिर्नर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना हुई  थी। राजा भोज ने महाकालेश्वर मंदिर का विस्तार कराया है ।मंदिर एक परकोटे के भीतर स्थित है। गर्भगृह तक पहुँचने के लिए एक सीढ़ीदार रास्ता है। इसके ठीक उपर एक दूसरा कक्ष है जिसमें ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित है। मंदिर का क्षेत्रफल १०.७७ x १०.७७ वर्गमीटर और ऊंचाई २८.७१ मीटर है। वक्र: पंथा यदपि भवन प्रस्थिताचोत्तराशाम, सौधोत्संग प्रणयोविमखोमास्म भरूज्जयिन्या:। विद्युद्दामेस्फरित चकितैस्त्र पौराड़गनानाम, लीलापांगैर्यदि न रमते लोचननैर्विंचितोसि॥ - कालिदास
  भगवान शिव शंकर के अनेक मंदिर हैं। वहीं भगवान शिव को ही महादेव के नाम से भी जाना जाता है। ऐसे में आज हम आपको देवों के देव महादेव भगवान शंकर की नगरी कही जाने वाली अवंतिका नगरी यानि उज्जैन के बारे में कुछ खास बताने जा रहे हैं, जिनमें से कई बातें शायद आपमें से कई लोग जानते भी नहीं होंगे। दरअसल महादेव/महाकाल की नगरी अवंतिका नगरी यानि उज्जैन अपने आप में बहुत अद्भुत है। शिप्रा नदी के किनारे बसे और मंदिरों से सजी इस नगरी को सदियों से महाकाल की नगरी के तौर पर जाना जाता है।उज्जयिनी और अवन्तिका नाम से भी यह नगरी प्राचीनकाल में जानी जाती थी। स्कन्दपुराण के अवन्तिखंड में अवन्ति प्रदेश का महात्म्य वर्णित है। उज्जैन के अंगारेश्वर मंदिर को मंगल गृह का जन्मस्थान माना जाता है, और यहीं से कर्क रेखा भी गुजरती है। मध्य प्रदेश का उज्जैन एक प्राचीनतम शहर है जो शिप्रा नदी के किनारे स्थित है और शिवरात्रि, कुंभ और अर्ध कुंभ जैसे प्रमुख मेलों के लिए प्रसिद्ध है। प्राचीनकाल में इस शहर को उज्जयिनी के नाम से भी जाना जाता है “उज्जयिनी” का अर्थ होता है एक गौरवशाली विजेता। उज्जैन धार्मिक गतिविधियों का केंद्र है और मुख्य रूप से अपने प्रसिद्ध प्राचीन मंदिरों के लिए देशभर के पर्यटकों को आकर्षित करता है।हजारों लाखों साल से उज्जैन नगरी को भले ही कभी अवंतिका तो कभी कनकश्रृंगा या कुशस्थली या भोगस्थली या अमरावती जैसे कई नामों से जाना गया। लेकिन इन सभी नामों के बावजूद यह सदैव महाकाल की ही नगरी कहलाई। देश भर में भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग हैं, उनमें से एक उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में महाकाल के रूप में विराजमान है, ये दुनिया का इकलौता ज्योतिर्लिंग है जो दक्षिणमुखी है। माना जाता है कि दक्षिण दिशा मृत्यु यानी काल की दिशा है और काल को वश में करने वाले महाकाल हैं।दक्षिण दिशा का स्वामी भगवान यमराज है। दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से ही जीवन स्वर्ग तो बनता ही है मृत्यु के उपरांत भी यमराज के दंड से मुक्ति पाता है। महाकालेश्वर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में दक्षिणमुखी होने के कारण प्रमुख स्थान रखता है, महाकालेश्वर मंदिर में अनेकों मंत्र जप जल अभिषेक एवं पूजा होती हैं। महाकालेश्वर में ही महामृत्युँजय जाप भी होता है। महाकालेश्वर मंदिर एक विशाल परिसर में स्थित है, जहाँ कई देवी-देवताओं के छोटे-बड़े मंदिर हैं। मंदिर में प्रवेश करने के लिए मुख्य द्वार से गर्भगृह तक की दूरी तय करनी पड़ती है। इस मार्ग में कई सारे पक्के चढ़ाव उतरने पड़ते हैं परंतु चौड़ा मार्ग होने से यात्रियों को दर्शनार्थियों को अधिक ‍परेशानियाँ नहीं आती है। गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए पक्की सीढ़ियां बनी हैं।महाकाल की इस भूमि यानि उज्जैन को लेकर तमाम रहस्य आज भी मौजूद हैं। कहा जाता है कि उज्जैन पूरे आकाश का मध्य स्थान यानी यहीं आकाश का केंद्र है। साथ ही उज्जैन पृथ्वी का भी केंद्र भी है, यानी यहीं वो जगह है जहां से पूरे ब्रह्माण्ड का समय निर्धारित होता है। इसी जगह से ब्रह्माण्ड की कालगणना होती है, साथ ही समय का केंद्र मानी जाने वाली इस धरती को महाकाल की धरती भी कहा जाता है। महाकाल की महिमा का वर्णन इस प्रकार से भी किया गया है – आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम् ।भूलोके च महाकालो लिंड्गत्रय नमोस्तु ते ॥
आकाश में तारक लिंग, पाताल में हाटकेश्वर-लिंग और पृथ्वी पर महाकालेश्वर ही मान्य शिवलिंग है।शास्त्रों के अनुसार महाकाल पृथ्वी लोक के अधिपति हैं, साथ ही तीनों लोकों के और सम्पूर्ण जगत के अधिष्ठाता भी है। कई धार्मिक ग्रंथों जैसे शास्त्रों और पुराणों में उनका ज़िक्र इस प्रकार किया गया है कि उनसे ही कालखंड, काल सीमा और काल विभाजन जन्म लेता है और उन्हीं से इसका निर्धारण भी होता है। इसका अर्थ ये है कि उज्जैन से ही समय का चक्र चलता है, पूरे ब्रह्माण्ड में सभी चक्र यहीं से चलते हैं। फिर चाहे पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमना हो, चंद्रमा का पृथ्वी का चक्कर लगाना, पृथ्वी का सूर्य का चक्कर लगाना हो या फिर आसमान में किसी प्रकार का चक्र हो यह सब क्रियाएं महाकाल को साक्षी मानकर ही होती हैं। शिव महापुराण के 22वें अध्याय के अनुसार दूषण नमक एक दैत्य से भक्तो की रक्षा करने के लिए भगवान शिव ज्योति के रूप में उज्जैन में प्रकट हुए थे । दूषण संसार का काल था और शिव शंकर ने उसे खत्म कर दिया इसलिए शंकर भोलेनाथ महाकाल के नाम से पूज्य हुए। अतः दुष्ट दूषण का वध करने के पश्चात् भगवान शिव कहलाये कालों के काल महाकाल उज्जैन में महाकाल का वास होने से पुराने साहित्य में उज्जैन को महाकालपुरम भी कहा गया है। उज्जैन में एक कहावत प्रसिद्ध है “अकाल मृत्यु वो मरे जो काम करे चांडाल का, काल भी उसका क्या बिगाड़े जो भक्त हो महाकाल का” ।पुराणों में मोक्ष देनेवाली यानी जीवन और मृत्यु के चक्र से छुटकारा दिलाने वाली जिस सप्तनगरी का ज़िक्र है और उन सात नगरों में एक नाम उज्जैन का भी है। जबकि दूसरी तरफ महादेव का वो आयाम है जिसे महाकाल कहते हैं, जो मुक्ति की ओर ले जाता है। उज्जैन में कालभैरव व गढ़कालिका भी हैं, जिसमें काल का ज़िक्र आता है और काल यानी समय, जो उस समय के भी स्वामी महाकाल है । उज्जैन में भस्म से स्नान करनेवाले महाकाल की विशिष्ट आराधना भी होती है। आदिदेव शंकर को भस्म रमाना बेहद पसंद है, इसके पीछे का राज़ भी बेहद गहरा है। एक तरफ महाकाल रूप में अगर शिव समय के स्वामी हैं, तो काल भैरव के रूप में वो समय के विनाशक हैं। इन्ही सब के आसपस वो रहस्य छिपा है जिसमें पता चलता है कि महादेव को राख या भस्म क्यों पसंद है, क्यों उनकी आराधना में भस्म का स्नान या भस्म का तिलक इस्तेमाल होता है। महाकाल की ऐसी आराधना कहीं और देखने को नहीं मिलती। भस्म और महादेव का क्या नाता है? हालांकि ये रहस्य आज भी रहस्य है, लेकिन भस्म को लेकर कुछ सिद्धांत ज़रूर दिए गए हैं।हिन्दू धर्म के तमाम पंथों का प्रेरणास्रोत उज्जैन नगरी को माना जाता है। उन्ही में से एक संप्रदाय जो मच्छेन्द्र नाथ और गोरखनाथ से होते हुए नवनाथ के रूप में प्रचलित हुआ। इस संप्रदाय के साधु भी अक्सर भस्म रमाये मिलते हैं। शिव की पसंदीदा भस्म साधु सन्यासियों के लिए प्रसाद है और वो अपनी जटाओं से लेकर पूरे शरीर में धुणे की भस्म लगाए मिलते हैं।वहीं शिव के बारे में एक अन्स मान्यता ये भी है कि भगवान शंकर की पहली पत्नी सती के पिता ने भगवान शंकर का अपमान किया जिससे आहत होकर सती यज्ञ के हवनकुंड में कूद गईं, जिससे शिव क्रोधित हो गए। शिव सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रह्माण्ड में घूमने लगे। ऐसा लगा कि शिव के क्रोध से ब्रह्माण्ड का अस्तित्व खतरे में है। तब श्री हरि विष्णु ने शिव को शांत करने के लिए सती को भस्म में बदल दिया और शिव ने अपनी पत्नी को हमेशा अपने साथ रमा लेने के लिए उस भस्म को अपने तन पर मल लिया।इसके अलवा महादेव की पहली पत्नी सती को लेकर एक अलग मान्यता भी है। जिसके अनुसार श्री हरि विष्णु ने देवी सती के शरीर को भस्म में नहीं बदला, बल्कि उसे छिन्न भिन्न कर दिया। कहते हैं पृथ्वी पर 51 जगहों पर उनके अंग गिरे, इन्हीं स्थानों पर शक्तिपीठों की स्थापना हुई। जिसमें से एक शक्तिपीठ उज्जैन में भी है। जिसे वर्तमान काल में हरिसिद्धी माता के मंदिर के नाम से जाना जाता है।शिव अपने शरीर पर चिता की राख मलते हैं और संदेश देते हैं कि आखिर में सब कुछ राख हो जाना है, ऐसे में सांसारिक चीज़ों को लेकर मोह-माया के वश में ना रहें और भस्म की तरह बनकर स्वयं को प्रभु को समर्पित है । ब्रह्मा सृष्टि के निर्माणकर्ता और विष्णु पालनकर्त तथा  महेश को सृष्टि का विनाशक माना जाता है। सृष्टि में नकारात्मकता बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है तो शिव संहारक के रूप में आते हैं और सब कुछ विध्वंस कर डालते हैं। इससे एक अन्य मान्यता ये भी है कि भस्म उस विध्वंस का प्रतीक है जिसकी याद शिव सबको दिलाते हैं कि सभी सद्कर्म करें अन्यथा अंत में वो सब राख कर देंगे।भस्म से शिव का ये रिश्ता सिर्फ मान्यताओं में है, क्योंकि इसका रहस्य आज भी बरकरार है, हालांकि महाकाल को उज्जैन नगरी का राजा मानते है ।विक्रम- बेताल और सिंहासन बत्तीसी की प्रचलित कथा में भी उज्जैन के राजा विक्रमादित्य से जुड़े ऐसे कई रहस्यों को इस नगरी ने समेट रखा है। कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य ने जब से 32 बोलने वाली पुतलियों से जड़े हुए अपने सिंहासन को छोड़ा, तो उनके शासन के बाद से यहां कोई भी राजा रात में रुक नहीं सकता। उज्जैन के राजा  कालों के काल महाकाल है । व्यक्ति बाबा के दर्शन इसलिए भी करते है ताकि वन अपनी अनिश्चित मृत्यु को टाल सके, एवं मोक्ष को प्राप्त हो सके। यहाँ आकर सच्चे मन से मांगी गई दुआ कभी खाली नहीं जाती। यहाँ आने से हर मनोकामना पूर्ण होती हैं। बाबा के दर्शन करने के लिए देश विदेश से भी व्यक्ति आते है। कई विद्वानों का कहना है की महाकाल उज्जैन से ही दुनिया का भरण-पोषण करते हैं।भगवान महाकाल का सच्चे मन से पूजन करने से सभी कष्टो से मुक्ति मिल जाती है ।हिन्दू धर्म के अनुसार भगवान शंकर को मृत्यु लोक के देवता माना जाता है, इसलिए वो अवतार न होते हुए स्वयं साक्षात ईश्वर है और कालों के काल होने के कारण उन्हें महाकाल कहा जाता है जिसका न आरम्भ है न ही अंत है ।महाकाल को काल का अधिपति माना गया है तथा खासतौर पर भगवान शंकर का पूजन करने से मृत्यु का भय दूर हो जाता है एवं अगर सच्चे मन से भगवान शंकर की पूजा की जाये तो मृत्यु के बाद यमराज द्वारा दी गई यातनाओ से भी मुक्ति मिल जाता है ।बहुत ही कम महाकाल स्तोत्रं के बारे में जानते हैं, जिसे स्वयं भगवान शिव ने भैरवी को बताया था। इस स्तोत्रं में भगवान शिव के विभिन्न स्वरूपों की स्तुति की गई है। धार्मिक ग्रंथों की मानें तो यह स्तोत्रं भगवान शिव के भक्तों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।प्रतिदिन बस एक बार इस स्तोत्रं का जाप भक्त के भीतर नई ऊर्जा और शक्ति का संचार कर सकता है। इस स्तोत्रं का जाप आपको सफलता के बहुत निकट लेकर जा सकता है।महाकाल स्तोत्रं -ॐ महाकाल महाकाय महाकाल जगत्पत।महाकाल महायोगिन महाकाल नमोस्तुते।।महाकाल महादेव महाकाल महा प्रभो।महाकाल महारुद्र महाकाल नमोस्तुते।।'अनेकानेक प्राचीन वांग्मय महाकाल की व्यापक महिमा से आपूरित हैं क्योंकि वे कालखंड, काल सीमा, काल-विभाजन आदि के प्रथम उपदेशक व अधिष्ठाता हैं।अवन्तिकायां विहितावतारं , मुक्ति प्रदानाय च सज्जनानाम्‌ ,अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं ,वन्दे महाकाल महासुरेशम॥'अर्थात जिन्होंने अवन्तिका नगरी (उज्जैन) में संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए अवतार धारण किया है, अकाल मृत्यु से बचने हेतु मैं उन 'महाकाल' नाम से सुप्रतिष्ठित भगवान आशुतोष शंकर की आराधना, अर्चना, उपासना, वंदना करता हूँ।कालभैरव मंदिर की कहानी बड़ी दिलचस्प है। स्कंद पुराण के मुताबिक चारों वेदों के रचियता ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना करने का फैसला किया तो परेशान देवता उन्हें रोकने के लिए महादेव की शरण में गए। उनका मानना था कि सृष्टि के लिए पांचवे वेद की रचना ठीक नहीं है, लेकिन ब्रह्मा जी ने महादेव की भी बात नहीं मानी।शिव क्रोधित हो गए। गुस्से के कारण उनके तीसरे नेत्र से एक ज्वाला प्रकट हुई। इस ज्योति ने कालभैरव का रौद्ररूप धारण किया, और ब्रह्माजी के पांचवे सिर को धड़ से अलग कर दिया। कालभैरव ने ब्रह्माजी का घमंड तो दूर कर दिया लेकिन उन पर ब्रह्महत्या का दोष लग गया. इस दोष से मुक्ति पाने के लिए भैरव दर दर भटके लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली. फिर उन्होंने अपने आराध्य शिव की आराधना की। शिव ने उन्हें शिप्रा नदी में स्नान कर तपस्या करने को कहा. ऐसा करने पर कालभैरव को दोष से मुक्ति मिली और वो सदा के लिए उज्जैन में ही विराजमान हो गए। काल भैरव के इस मंदिर में पैर रखते ही मन में एक अजीब सी शांति का एहसास होता है, लगता है मानो सारे दुख दूर हो गए लेकिन कालभैरव को ग्रहों की बाधाएं दूर करने के लिए जाना जाता है. खास तौर पर जन्म कुंडली में राहु से पीड़ित होने वाला व्यक्ति विचारों के जाल में फंसा रहता है. वो अगर इस मंदिर में आकर भगवान को भोग लगाता है तो उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती है। बिल्कुल वैसे ही जैसे कालभैरव को शिव की आराधना से मिली थी।
05 * मनोवांछित फल प्राप्त का साधन ज्योतिर्लिंग श्री मल्लिकार्जुन -  आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा ज़िले में कृष्णा नदी के किनारे श्रीशैल पर्वत पर श्रीमल्लिकार्जुन विराजमान हैं। महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है।  श्रीशैल के शिखर के दर्शन मात्र करने से दर्शको के सभी प्रकार के कष्ट दूर भाग जाते हैं, उसे अनन्त सुखों की प्राप्ति होती है और आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है । शिव पार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिकेय और गणेश दोनों भाई विवाह के लिए आपस में कलह करने लगे। कार्तिकेय का कहना था कि वे बड़े हैं, इसलिए उनका विवाह पहले होना चाहिए, किन्तु श्री गणेश अपना विवाह पहले करना चाहते थे। इस झगड़े पर फैसला देने के लिए दोनों अपने माता-पिता भवानी और शंकर के पास पहुँचे। उनके माता-पिता ने कहा कि तुम दोनों में कोई इस पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले यहाँ आ जाएगा, उसी का विवाह पहले होगा। शर्त सुनते ही कार्तिकेय जी पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए दौड़ पड़े। इधर स्थूलकाय श्री गणेश जी और उनका वाहन चूहा, भला इतनी शीघ्रता से वे परिक्रमा कैसे कर सकते थे। गणेश जी के सामने भारी समस्या उपस्थित थी। श्रीगणेश जी शरीर से ज़रूर स्थूल  और बुद्धि के सागर हैं। गणेश जी ने  माता पार्वती तथा पिता देवाधिदेव महेश्वर से एक आसन पर बैठने का आग्रह किया। उन दोनों के आसन पर बैठ जाने के बाद श्रीगणेश ने उनकी सात परिक्रमा की, फिर विधिवत् पूजन किया- पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति यः।तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम्।। श्रीगणेश माता-पिता की परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होने वाले फल की प्राप्ति के अधिकारी बन गये। उनकी चतुर बुद्धि को देख कर शिव और पार्वती दोनों बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीगणेश का विवाह भी करा दिया। जिस समय स्वामी कार्तिकेय सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके वापस आये, उस समय श्रीगणेश जी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि के साथ हो चुका था। इतना ही नहीं श्री गणेशजी को उनकी ‘सिद्धि’ नामक पत्नी से ‘क्षेम’ तथा बुद्धि नामक पत्नी से ‘लाभ’, ये दो पुत्ररत्न भी मिल गये थे। भ्रमणशील और जगत् का कल्याण करने वाले देवर्षि नारद ने स्वामी कार्तिकेय से यह सारा वृत्तांत कहा सुनाया। श्रीगणेश का विवाह और उन्हें पुत्र लाभ का समाचार सुनकर स्वामी कार्तिकेय जल उठे। इस प्रकरण से नाराज़ कार्तिक ने शिष्टाचार का पालन करते हुए अपने माता-पिता के चरण छुए और वहाँ से चल दिये।माता-पिता से अलग होकर कार्तिक स्वामी क्रौंच पर्वत पर रहने लगे। शिव और पार्वती ने अपने पुत्र कार्तिकेय को समझा-बुझाकर बुलाने हेतु देवर्षि नारद को क्रौंचपर्वत पर भेजा। देवर्षि नारद ने बहुत प्रकार से स्वामी को मनाने का प्रयास किया, किन्तु वे वापस नहीं आये। उसके बाद कोमल हृदय माता पार्वती पुत्र स्नेह में व्याकुल हो उठीं। वे भगवान शिव जी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुँच गईं। इधर स्वामी कार्तिकेय को क्रौंच पर्वत अपने माता-पिता के आगमन की सूचना मिल गई और वे वहाँ से तीन योजन अर्थात् छत्तीस किलोमीटर दूर चले गये। कार्तिकेय के चले जाने पर भगवान शिव क्रौंच पर्वत पर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गये थे । तभी से वे ‘मल्लिकार्जुन’ ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। ‘मल्लिका’ माता पार्वती का नाम है, जबकि ‘अर्जुन’ भगवान शंकर को कहा जाता है। इस प्रकार सम्मिलित रूप से ‘मल्लिकार्जुन’ नाम उक्त ज्योतिर्लिंग का जगत् में प्रसिद्ध हुआ।
कौंच पर्वत के समीप में ही चन्द्रगुप्त नामक किसी राजा की राजधानी थी। उनकी राजकन्या किसी संकट में उलझ गई थी। उस विपत्ति से बचने के लिए वह अपने पिता के राजमहल से भागकर पर्वतराज की शरण में पहुँच गई। वह कन्या ग्वालों के साथ कन्दमूल खाती और दूध पीती थी। इस प्रकार उसका जीवन-निर्वाह उस पर्वत पर होने लगा। उस कन्या के पास एक श्यामा (काली) गौ थी, जिसकी सेवा वह स्वयं करती थी। उस गौ के साथ विचित्र घटना घटित होने लगी। कोई व्यक्ति छिपकर प्रतिदिन उस श्यामा का दूध निकाल लेता था। एक दिन उस कन्या ने किसी चोर को श्यामा का दूध दुहते हुए देख लिया, तब वह क्रोध में आगबबूला हो उसको मारने के लिए दौड़ पड़ी। जब वह गौ के समीप पहुँची, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, क्योंकि वहाँ उसे एक शिवलिंग के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दिया। आगे चलकर उस राजकुमारी ने उस शिवलिंग के ऊपर एक सुन्दर सा मन्दिर बनवा दिया। वही प्राचीन शिवलिंग आज ‘मल्लिकार्जुन’ ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध है। इस मन्दिर का भलीभाँति सर्वेक्षण करने के बाद पुरातत्त्ववेत्ताओं ने ऐसा अनुमान किया है कि इसका निर्माणकार्य लगभग दो हज़ार वर्ष प्राचीन है। इस ऐतिहासिक मन्दिर के दर्शनार्थ बड़े-बड़े राजा-महाराजा समय-समय पर आते रहे हैं। मुख्य मंदिर के बाहर पीपल पाकर का सम्मिलित वृक्ष है। उसके आस-पास चबूतरा है। दक्षिण भारत के दूसरे मंदिरों के समान यहाँ भी मूर्ति तक जाने का टिकट कार्यालय से लेना पड़ता है। पूजा का शुल्क टिकट भी पृथक् होता है। यहाँ लिंग मूर्ति का स्पर्श प्राप्त होता है। मल्लिकार्जुन मंदिर के पीछे पार्वती मंदिर है। इन्हें मल्लिका देवी कहते हैं। सभा मंडप में नन्दी की विशाल मूर्ति है।पातालगंगा- मंदिर के पूर्वद्वार से लगभग दो मील पर पातालगंगा है। इसका मार्ग कठिन है। एक मील उतार और फिर 852 सीढ़ियाँ हैं। पर्वत के नीचे कृष्णा नदी है। यात्री स्नान करके वहाँ से चढ़ाने के लिए जल लाते हैं। वहाँ कृष्णा नदी में दो नाले मिलते हैं। वह स्थान त्रिवेणी कहा जाता है। उसके समीप पूर्व की ओर एक गुफा में भैरवादि मूर्तियाँ हैं। यह गुफा कई मील गहरी कही जाती है। अब यात्री मोटर बस से 4 मील आकर कृष्णा में स्नान करते हैं। पाँच सौ वर्ष पूर्व श्री विजयनगर के महाराजा कृष्णराय यहाँ पहुँचे थे। उन्होंने यहाँ एक सुन्दर मण्डप का भी निर्माण कराया था, जिसका शिखर सोने का बना हुआ था। उनके डेढ़ सौ वर्षों बाद महाराज शिवाजी भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतु क्रौंच पर्वत पर पहुँचे थे। उन्होंने मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर यात्रियों के लिए एक उत्तम धर्मशाला बनवायी थी। इस पर्वत पर बहुत से शिवलिंग मिलते हैं।यहाँ पर महाशिवरात्रि के दिन मेला लगता है। मन्दिर के पास जगदम्बा का भी एक स्थान है। यहाँ माँ पार्वती को ‘भ्रमराम्बा’ कहा जाता है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की पहाड़ी से पाँच किलोमीटर नीचे पातालगंगा के नाम से प्रसिद्ध कृष्णा नदी हैं, जिसमें स्नान करने का महत्त्व शास्त्रों में वर्णित है।श्रावण मास भोलेनाथ का सबसे प्रिय महीना है। इस दौरान शिव की आराधना की जाती है। श्रावण मास में भोले शंकर की अगर पूरी श्रद्धा से अर्चना की जाए तो भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। कहते हैं अगर आप भोलेनाथ के 12 ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करते हैं तो आपको शुभ फल प्राप्त होता है। इससे पहले के आर्टिकल में हमने आपको भगवान शिव के पहले ज्योतिर्लिंग के बारे में बताया था जिसे दोबारा पढ़ने के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं। वहीं, आज हम आपको दूसरे ज्योतिर्लिंग यानी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के बारे में बताएंगे। यह ज्योतिर्लिंग आंध्रप्रदेश के में स्थित हैं। कहा जाता है कि यहां महादेव मां पार्वती के साथ विराजते हैं। 
शिवपुराण के अनुसार, यह कथा शिव जी के परिवार से जुड़ी हुई है। भगवान शिव के छोटे पुत्र गणेश जी, कार्तिकेय से पहले विवाह करने चाहते थे। जब यह बात शिव जी और माता पार्वती को पता चली तो उन्होंने इस समस्या को सुलझाने के बारे में विचार किया। उन्होंने दोनों के सामने एक शर्त रखी। उन्होंने कहा कि दोनों में से जो कोई भी पृथ्वी की पूरी परिक्रमा कर पहले लौटेगा उनका विवाह पहले कराया जाएगा। जैसे ही कार्तिकेय ने यह बात सुनी वो पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए निकल गए। लेकिन गणेश जी ठस से मस नहीं हुए। वो बुद्धि के तेज थे तो उन्होंने अपने माता-पिता यानि माता पार्वती और भगवान शिव को ही पृथ्वी के समान बताकर उनकी परिक्रमा कर ली।
इस बात से प्रसन्न होकर और गणेश की चतुर बुद्धि को देखकर माता पार्वती और शिव जी ने उनका विवाह करा दिया। जब कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा कर वापस आए तो उन्होंने देखा की गणेश जी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पुत्रियों के साथ हो चुका था जिनका नाम सिद्धि और बुद्धि था। इनसे गणेश जी को क्षेम और लाभ दो पुत्र भी प्राप्त हुए थे। कार्तिकेय को देवर्षि नारद ने सारी बात बताई। इस कार्तिकेय जी नारा हो गए और माता-पिता के चरण छुकर वहां से चले गए। कार्तिकेय क्रौंच पर्वत पर जाकर निवास करने लगे। उन्हें मनाने के लिए शिव-पार्वती ने नारद जी को वहां भेजा लेकिन कार्तिकेय नहीं माने। फिर पुत्रमोह में माता पार्वती भी उनके पास उन्हें लेने गईं तो उन्हें देखकर कार्तिकेय पलायन कर गए। इस बात से हताश माता पार्वती वहीं बैठ गईं। वहीं, भगवान शिव भी ज्योतिर्लिंग के रूप में यहां प्रकट हुए। इसके बाद से ही इस जगह को मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाने लगा। इसका नाम मल्लिकार्जुन ऐसे पड़ा क्योंकि माता पार्वती के नाम से मल्लिका और भगवान शिव का नाम अर्जुन से जाना जाता है।
06 *  त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर - त्र्यम्बकेश्वर ज्योर्तिलिंग मन्दिर महाराष्ट्र-प्रांत के नासिक जिले में त्रयंबक गांव में हैं। यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। इन्हीं पुण्यतोया गोदावरी के उद्गम-स्थान के समीप स्थित त्रयम्बकेश्वर-भगवान की भी बड़ी महिमा हैं गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विख्यात हुए। मंदिर के अंदर एक छोटे से गढ्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिये चौड़ी-चौड़ी सात सौ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद 'रामकुण्ड' और 'लष्मणकुण्ड' मिलते हैं और शिखर के ऊपर पहुँचने पर गोमुख से निकलती हुई भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं।
त्र्यंबकेश्‍वरज्योर्तिलिंग में ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश तीनों ही विराजित हैं यही इस ज्‍योतिर्लिंग की सबसे बड़ी विशेषता है। अन्‍य सभी ज्‍योतिर्लिंगों में केवल भगवान शिव ही विराजित हैं।गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्‍वर मंदिर काले पत्‍थरों से बना है। मंदिर का स्‍थापत्‍य अद्भुत है। इस मंदिर के पंचक्रोशी में कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्‍न होती है। जिन्‍हें भक्‍तजन अलग-अलग मुराद पूरी होने के लिए करवाते हैं।इस प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण तीसरे पेशवा बालाजी अर्थात नाना साहब पेशवा ने करवाया था। इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1755 में शुरू हुआ था और 31 साल के लंबे समय के बाद 1786 में जाकर पूरा हुआ। कहा जाता है कि इस भव्य मंदिर के निर्माण में करीब 16 लाख रुपए खर्च किए गए थे, जो उस समय काफी बड़ी रकम मानी जाती थी । त्र्यंबकेश्वर मंदिर की भव्य इमारत सिंधु-आर्य शैली का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रवेश करने के बाद शिवलिंग की केवल आर्घा दिखाई देती है, लिंग नहीं। गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। इन लिंगों को त्रिदेव- ब्रह्मा-विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है। भोर के समय होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है।त्र्यंबकेश्वर मंदिर और गाँव ब्रह्मगिरि नामक पहाड़ी की तलहटी में स्थित है। इस गिरि को शिव का साक्षात रूप माना जाता है। इसी पर्वत पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गमस्थल है। प्राचीनकाल में त्र्यंबक गौतम ऋषि की तपोभूमि थी। अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर शिव से गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान माँगा। फलस्वरूप दक्षिण की गंगा अर्थात गोदावरी नदी का उद्गम हुआ।गोदावरी के उद्गम के साथ ही गौतम ऋषि के अनुनय-विनय के उपरांत शिवजी ने इस मंदिर में विराजमान होना स्वीकार कर लिया। तीन नेत्रों वाले शिवशंभु के यहाँ विराजमान होने के कारण इस जगह को त्र्यंबक (तीन नेत्रों वाले) कहा जाने लगा। उज्जैन और ओंकारेश्वर की ही तरह त्र्यंबकेश्वर महाराज को इस गाँव का राजा माना जाता है, इसलिए हर सोमवार को त्र्यंबकेश्वर के राजा अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं।ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में शिवपुराण में यह कथा वर्णित है- एक बार महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो गईं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का अपमान करने के लिए प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त भगवान्‌ श्रीगणेशजी की आराधना की।
उनकी आराधना से प्रसन्न हो गणेशजी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा उन ब्राह्मणों ने कहा- 'प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो किसी प्रकार ऋषि गौतम को इस आश्रम से बाहर निकाल दें।' उनकी यह बात सुनकर गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर न माँगने के लिए समझाया। किंतु वे अपने आग्रह पर अटल रहे।अंततः गणेशजी को विवश होकर उनकी बात माननी पड़ी। अपने भक्तों का मन रखने के लिए वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत में जाकर रहने लगे। गाय को फसल चरते देखकर ऋषि बड़ी नरमी के साथ हाथ में तृण लेकर उसे हाँकने के लिए लपके। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मचा। सारे ब्राह्मण एकत्र हो गो-हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्यचकित और दुःखी थे। अब उन सारे ब्राह्मणों ने कहा कि तुम्हें यह आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाना चाहिए। गो-हत्यारे के निकट रहने से हमें भी पाप लगेगा। विवश होकर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे। किंतु उन ब्राह्मणों ने वहाँ भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे- 'गो-हत्या के कारण तुम्हें अब वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया।' अत्यंत अनुनय भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि आप लोग मेरे प्रायश्चित और उद्धार का कोई उपाय बताएँ।तब उन्होंने कहा- 'गौतम! तुम अपने पाप को सर्वत्र सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। इसके बाद 'ब्रह्मगिरी' की 101 परिक्रमा करने के बाद तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके एक करोड़ पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरि की 11 बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा।
ब्राह्मणों के कथनानुसार महर्षि गौतम वे सारे कार्य पूरे करके पत्नी के साथ पूर्णतः तल्लीन होकर भगवान शिव की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न हो भगवान शिव ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा। महर्षि गौतम ने उनसे कहा- 'भगवान्‌ मैं यही चाहता हूँ कि आप मुझे गो-हत्या के पाप से मुक्त कर दें।' भगवान्‌ शिव ने कहा- 'गौतम ! तुम सर्वथा निष्पाप हो। गो-हत्या का अपराध तुम पर छल पूर्वक लगाया गया था। छल पूर्वक ऐसा करवाने वाले तुम्हारे आश्रम के ब्राह्मणों को मैं दण्ड देना चाहता हूँ।'इस पर महर्षि गौतम ने कहा कि प्रभु! उन्हीं के निमित्त से तो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। अब उन्हें मेरा परमहित समझकर उन पर आप क्रोध न करें।' बहुत से ऋषियों, मुनियों और देव गणों ने वहाँ एकत्र हो गौतम की बात का अनुमोदन करते हुए भगवान्‌ शिव से सदा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात मानकर वहाँ त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतमजी द्वारा लाई गई गंगाजी भी वहाँ पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगीं। यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है।इस भ्रमण के समय त्र्यंबकेश्वर महाराज के पंचमुखी सोने के मुखौटे को पालकी में बैठाकर गाँव में घुमाया जाता है। फिर कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान कराया जाता है। इसके बाद मुखौटे को वापस मंदिर में लाकर हीरेजड़ित स्वर्ण मुकुट पहनाया जाता है। यह पूरा दृश्य त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक-सा महसूस होता है। इस यात्रा को देखना बेहद अलौकिक अनुभव है।‘कुशावर्त तीर्थ की जन्मकथा काफी रोचक है। कहते हैं ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाती थी। गोदावरी के पलायन को रोकने के लिए गौतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंधन में बाँध दिया। उसके बाद से ही इस कुंड में हमेशा लबालब पानी रहता है। इस कुंड को ही कुशावर्त तीर्थ के नाम से जाना जाता है। कुंभ स्नान के समय शैव अखाड़े इसी कुंड में शाही स्नान करते हैं।’शिवरात्रि और सावन सोमवार के दिन त्र्यंबकेश्वर मंदिर में भक्तों का ताँता लगा रहता है। भक्त भोर के समय स्नान करके अपने आराध्य के दर्शन करते हैं। यहाँ कालसर्प योग और नारायण नागबलि नामक खास पूजा-अर्चना होती है ।
श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग तीन छोटे-छोटे लिंग ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रतीक स्वरूप, त्रि-नेत्रों वाले भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रायः शिवलिंग दिखाई नहीं देता है, गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। सुवह होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है।त्र्यंबकेश्वर मंदिर का निर्माण पेशवा बालाजी बाजीराव तृतीय ने पुराने मंदिर स्थल पर ही करवाया था। मंदिर का निर्माण कार्य 1755 में प्रारंभ होकर 31 साल के लंबे समय के बाद सन् 1786 में पूर्ण हुआ। त्र्यंबकेश्वर मंदिर तीन पहाड़ियों ब्रह्मगिरी, नीलगिरि और कालगिरि के बीच स्थित है। मंदिर के चारों तरफ चार प्रवेश द्वार हैं, आध्यात्मिक दृष्टि के अनुसार पूर्व दिशा प्रारंभ, पश्चिम परिपक्वता, दक्षिण पूर्णता तथा उत्तर रहस्योद्घाटन को दर्शाती है। श्री त्र्यंबकेश्वर देवस्थान ट्रस्ट सन् 1954 को सार्वजनिक पंजीकृत किया गया था। मंदिर में दैनिक तीन समय की पूजन का विधान है।त्रंबकेश्वर महाराज को त्रायम्ब का राजा माना जाता है, अतः प्रत्येक सोमवार को चाँदी के पंचमुखी मुकुट को पालकी में बैठाकर गाँव में प्रजा का हाल जानने हेतु भ्रमण कराया जाता है। फिर कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान के उपरांत वापस मंदिर में शिवलिंग पर पहनाया जाता है। यह पूरा दृश्य त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक जैसा प्रतीत होता है, तथा इस अलौकिक यात्रा में सामिल होना अत्यंत सुखद अनुभव है।कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि पूजन केवल श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग पर ही संपन्‍न किया जाता है। मंदिर के गर्भ-ग्रह में स्त्रियों का प्रवेश पूर्णतया वर्जित है। शिव ज्योतिर्लिंग!शिवरात्रि / त्रयोदशीसावन के सोमवारश्री रुद्राष्टकम् - श्री गोस्वामितुलसीदासकृतं शिव आरती श्री शिव चालीसा , महामृत्युंजय मंत्र, संजीवनी मंत्र प्रसिद्ध मंदिर पुणे शहर के प्रसिद्ध मंदिर है । श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के संस्थापक स्वयंभू द्वारा स्थापना सतयुग मे कर कर भगवान शिव को समर्पित किया था । 
07 * केदारनाथ मन्दिर - केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ चार धाम[क] और पंच केदार[ख] में से भी एक है। यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अप्रैल से नवंबर माह के मध्‍य ही दर्शन के लिए खुलता है। पत्‍थरों से बने कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पाण्डव वंश के जनमेजय ने कराया था। यहाँ स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है। आदि शंकराचार्य ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। केदारनाथ मंदिर  (भगवान वृषभनाथ ) का निर्माण कत्यूरी शैली में राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय  द्वारा कराया गया था । जून २०१३ के दौरान भारत के उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश राज्यों में अचानक आई बाढ़ और भूस्खलन के कारण केदारनाथ सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र रहा। मंदिर की दीवारें गिर गई और बाढ़ में बह गयी। इस ऐतिहासिक मन्दिर का मुख्य हिस्सा और सदियों पुराना गुंबद सुरक्षित रहे लेकिन मन्दिर का प्रवेश द्वार और उसके आस-पास का इलाका पूरी तरह तबाह हो गया। केदारनाथ की बड़ी महिमा है। उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ और केदारनाथ-ये दो प्रधान तीर्थ हैं, दोनो के दर्शनों का बड़ा ही माहात्म्य है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनापथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश पूर्वक जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है। केदारनाथ मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा रहा है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये १२-१३वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाय हुआ है जो १०७६-९९ काल  थे। ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है। फिर भी इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल मानते है कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं। १८८२ के इतिहास के अनुसार साफ अग्रभाग के साथ मंदिर एक भव्य भवन था जिसके दोनों ओर पूजन मुद्रा में मूर्तियाँ हैं। “पीछे भूरे पत्थर से निर्मित एक टॉवर है इसके गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है। मंदिर के सामने तीर्थयात्रियों के आवास के लिए पण्डों के पक्के मकान है। जबकि पूजारी या पुरोहित भवन के दक्षिणी ओर रहते हैं। श्री ट्रेल के अनुसार वर्तमान ढांचा हाल ही निर्मित है जबकि मूल भवन गिरकर नष्ट हो गये।”[5][6] केदारनाथ मन्दिर रुद्रप्रयाग जिले में है । यह मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन हाँ ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी। मन्दिर की पूजा श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं। केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही होते हैं। ज्योतिर्लिंग की स्थापना का इतिहास  है कि हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित हैं।पंचकेदार की कथा ऐसी मानी जाती है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे। दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था। अत: भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतध्र्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।चौरीबारी हिमनद के कुंड से निकलती मंदाकिनी नदी के समीप, केदारनाथ पर्वत शिखर के पाद में, कत्यूरी शैली द्वारा निर्मित, विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर (३,५६२ मीटर) की ऊँचाई पर अवस्थित है। इसे १००० वर्ष से भी पूर्व का निर्मित माना जाता है। जनश्रुति है कि इसका निर्माण पांडवों या उनके वंशज जन्मेजय द्वारा करवाया गया था। साथ ही यह भी प्रचलित है कि मंदिर का जीर्णोद्धार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य[ ने करवाया था। मंदिर के पृष्ठभाग में शंकराचार्य जी की समाधि है। राहुल सांकृत्यायन द्वारा इस मंदिर का निर्माणकाल १०वीं व १२वीं शताब्दी के मध्य बताया गया है। यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत व आकर्षक नमूना है। मंदिर के गर्भ गृह में नुकीली चट्टान भगवान शिव के सदाशिव रूप में पूजी जाती है। केदारनाथ मंदिर के कपाट मेष संक्रांति से पंद्रह दिन पूर्व खुलते हैं और अगहन संक्रांति के निकट बलराज की रात्रि चारों पहर की पूजा और भइया दूज के दिन, प्रातः चार बजे, श्री केदार को घृत कमल व वस्त्रादि की समाधि के साथ ही, कपाट बंद हो जाते हैं। केदारनाथ के निकट ही गाँधी सरोवर व वासुकीताल हैं। केदारनाथ पहुँचने के लिए, रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी होकर, २० किलोमीटर आगे गौरीकुंड तक, मोटरमार्ग से और १४ किलोमीटर की यात्रा, मध्यम व तीव्र ढाल से होकर गुज़रनेवाले, पैदल मार्ग द्वारा करनी पड़ती है।
मंदिर मंदाकिनी के घाट पर बना हुआ हैं भीतर घारे अन्धकार रहता है और दीपक के सहारे ही शंकर जी के दर्शन होते हैं। शिवलिंग स्वयंभू है। सम्मुख की ओर यात्री जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं और दूसरी ओर भगवान को घृत अर्पित कर बाँह भरकर मिलते हैं, मूर्ति चार हाथ लम्बी और डेढ़ हाथ मोटी है। मंदिर के जगमोहन में द्रौपदी सहित पाँच पाण्डवों की विशाल मूर्तियाँ हैं। मंदिर के पीछे कई कुण्ड हैं, जिनमें आचमन तथा तर्पण किया जा सकता है।केदारनाथ धाम की यात्रा उत्तराखंड की पवित्र छोटा चार धाम यात्रा के महत्वपूर्ण चार मंदिरों में से एक है। छोटा चार धाम यात्रा हर वर्ष आयोजित की जाती है। केदारनाथ यात्रा के अलावा अन्य मदिर बद्रीनाथ, गंगोत्री, और यमुनोत्री हैं। केदारनाथ यात्रा में शामिल होने के लिए हर वर्ष मदिर के खुलने की तिथि तय की जाती है। मंदिर के खुलने की तिथि हिंदू पंचांग की गणना के बाद ऊखीमठ में स्थित ओंकारेश्वर मंदिर के पुजारियों द्वारा तय की जाती है।केदारनाथ मंदिर की उद्घाटन तिथि अक्षय तृतीया के शुभ दिन और महा शिवरात्रि पर हर साल घोषित की जाती है। और केदारनाथ मंदिर की समापन तिथि हर वर्ष नवंबर के आसपास दिवाली त्योहार के बाद भाई दूज के दिन होती है। इसके बाद मंदिर के द्वार शीत काल के लिए बंद कर दिए जाते हैं। केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। केदार बाबा  के भक्तों के लिए यह कपाट 6 महीने तक खुले रहेंगे । मंदिर के कपाट खुलने की प्रक्रिया सुबह चार बजे से ही हो गई थी। केदारनाथ में मुख्य रुप से भगवान शिव को पूजा जाता है। केदारानाथ के दक्षिण द्वार पर केदारनाथ के रावल भीमाशंकर लिंग  केदारनाथ के पुजारी केदार लिंग वेदपाठियों ने कपाट खुलने की रस्मों को विधि-विधान से निभाया। मंदिर के कपाट खुलने के बाद से ही श्रद्धालु चार धाम की यात्रा भी कर सकेंगे। कपाट खुलने की प्रक्रिया से पहले 6 मई को शीतकालीन गद्दीस्थल से केदारनाथ जी की चल विग्रह पंचमुखी मुर्ति को प्रस्थान कराया गया। जिसके बाद विधिवत स्नान कराके मुर्ति को फूल मालाओं से सजाकर डोली में विराजित किया गया था। इसके बाद भगवान श्री केदार जी की पुजारियों द्वारा विधिवत पूजा- अर्चना की गई थी। जिसके बाद श्रद्धालुओं ने हर -हर महादेव और जय केदार के जयकारों के साथ डोली को प्रस्थान कराया। भगवान श्री केदार ने 7 मई को गौरीकुंड में विश्राम किया । जिसके बाद 8 मई को भगवान केदार केदारनाथ पहुंचे और आज यानी 9 मई को कपाट खोल दिए गए। केदारनाथ मंदिर केदारनाथ मंदिर की बात करें तो यह 85 फीट ऊंचा, 187 फीट लंबा और 80 फीट चौड़ा है। इसकी दीवारें 12 फीट मोटी है और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। इस मंदिर के अंदर मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। मंदिर के बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने की थी।केदारनाथ मंदिर श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। केदारनाथ धाम में होने वाली पूजा केदारनाथ मन्दिर में पूजा का बात करें तो श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। प्रात:काल ब्रह्ममुहूर्त में शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर घी-लेपन किया जाता है। जिसके बाद धूप-दीप जलाकर भगवान केदार जी की आरती उतारी जाती है। इस समय भक्त मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है।जिस समय सिर्फ पूजारी और अन्य कुछ सहायक के अलावा मंदिर में किसी और को आने की अनुमति नहीं है। भगवान केदार को चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं। माना जाता है केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही होते है। केदारनाथ कुंड में स्थित जल केदारनाथ मंदिर के पीछे की तरफ एक कुंड बना है । जिसमें भगवान केदार के अभिषेक का जल रहता है। माना जाता है इस कुंड में स्थित जल अमृत के समान है। जिसे श्रद्धालु न केवल ग्रहण करते हैं बल्कि अपने साथ घर भी ले जाते हैं। मान्यता को यह भी है कि इस जल से लोगों का बड़े से बड़ा रोग ठीक हो जाता है। हिंदू धर्म में इस जल को गंगा के समान ही पवित्र माना गया है। सावन के महिने में खिलता है अद्भुत ब्रह्मकमल केदारनाथ से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित वासुकी ताल है जिसकी महिमा अद्भुत है। स्कंद पुराण की माने तो श्रवण मास की पूर्णिमा के दिन इस ताल में मणि युक्त वासुकी नाग के अलौकिक दर्शन भी होते है। इसके साथ ही एक और कथा भी प्रचलित है। माना जाता है इसी ताल में भगवान विष्णु ने स्नान किया था। जिसकी वजह से इसका नाम वासुकी ताल पड़ गया। सावन के महिने में यहां अद्भुत ब्रह्मकमल भी खिलता है। जिसे भगवान शिव को चढ़ाने से सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है।
08 *  वैद्यनाथ मन्दिर, देवघर , झारखण्ड - झारखंड में अतिप्रसिद्ध देवघर नामक स्‍थान पर अवस्थित है । पवित्र तीर्थ होने के कारण लोग इसे वैद्यनाथ धाम  कहते हैं। वैद्यनाथ मन्दिर स्थित है उस स्थान को "देवघर" अर्थात् देवताओं का घर कहते हैं। बैद्यनाथ स्थित होने के कारण इस स्‍थान को देवघर नाम मिला है। यह एक सिद्धपीठ है। देवघर  में आने वालों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। इस कारण इस लिंग को "कामना लिंग" भी कहा जाता हैं।  वैद्यनाथ मन्दिर, देवघर का निर्माण  ज़िला - देवघर राज्य - झारखण्ड में राजा पूरनमल  द्वारा कराया गया था ।राक्षस राज रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवाँ सिर भी काटने को ही था कि शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों-के-त्यों कर दिये और उससे वरदान माँगने को कहा। रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिये उसे ले जाने की आज्ञा माँगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ दी कि यदि मार्ग में इसे पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगा। अन्ततोगत्वा वही हुआ। रावण शिवलिंग लेकर चला पर मार्ग में एक चिताभूमि आने पर उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई। रावण उस लिंग को एक अहीर जिनका नाम बैजनाथ था , को थमा लघुशंका-निवृत्ति करने चला गया। इधर उन अहीर ने ज्योतिर्लिंग को बहुत अधिक भारी अनुभव कर भूमि पर रख दिया। फिर क्या था, लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे न उखाड़ सका और निराश होकर मूर्ति पर अपना अँगूठा गड़ाकर लंका को चला गया। इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की। शिवजी का दर्शन होते ही सभी देवी देवताओं ने शिवलिंग की वहीं उसी स्थान पर प्रतिस्थापना कर दी और शिव-स्तुति करते हुए वापस स्वर्ग को चले गये। जनश्रुति व लोक-मान्यता के अनुसार यह वैद्यनाथ-ज्योतिर्लिग मनोवांछित फल देने वाला है। देवघर का शाब्दिक अर्थ देवी-देवताओं का निवास स्थान है । देवघर में बाबा भोलेनाथ का अत्यन्त पवित्र और भव्य मन्दिर स्थित है। हर साल सावन के महीने में स्रावण मेला लगता है जिसमें लाखों श्रद्धालु "बोल-बम!" "बोल-बम!" का जयकारा लगाते हुए बाबा भोलेनाथ के दर्शन करने आते है। ये सभी श्रद्धालु सुल्तानगंज से पवित्र गंगा का जल लेकर लगभग सौ किलोमीटर की अत्यन्त कठिन पैदल यात्रा कर बाबा को जल चढाते हैं।मन्दिर के समीप विशाल तालाब शिव कुंड स्थित है। बाबा बैद्यनाथ का मुख्य मन्दिर सबसे पुराना है जिसके आसपास अनेक अन्य मन्दिर भी बने हुए हैं। बाबा भोलेनाथ का मन्दिर माँ पार्वती जी के मन्दिर से जुड़ा हुआ है।बैद्यनाथ धाम की पवित्र यात्रा श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) में शुरू होती है। सबसे पहले तीर्थ यात्री सुल्तानगंज में एकत्र होते हैं जहाँ वे अपने-अपने पात्रों में पवित्र गंगाजल भरते हैं। इसके बाद वे गंगाजल को अपनी-अपनी काँवर में रखकर बैद्यनाथ धाम और बासुकीनाथ की ओर बढ़ते हैं। पवित्र जल लेकर जाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वह पात्र जिसमें जल है, वह कहीं भी भूमि से न सटे।वासुकिनाथ अपने शिव मन्दिर के लिये जाना जाता है। वैद्यनाथ मन्दिर की यात्रा तब तक अधूरी मानी जाती है जब तक वासुकिनाथ में दर्शन नहीं किये जाते। (यह मान्यता हाल फ़िलहाल में प्रचलित हुई है। पहले ऐसी मान्यता का प्रचलन नहीं था। न ही पुराणों में ऐसा वर्णन है।) यह मन्दिर देवघर से 42 किलोमीटर दूर जरमुण्डी गाँव के पास स्थित है। यहाँ पर स्थानीय कला के विभिन्न रूपों को देखा जाता है । नोनीहाट के घाटवाल से जोड़ा जाता है। वासुकिनाथ मन्दिर परिसर में कई अन्य छोटे-छोटे मन्दिर हैं। बाबा बैद्यनाथ मन्दिर परिसर के पश्चिम में देवघर के मुख्य बाजार में तीन और मन्दिर भी हैं। इन्हें बैजू मन्दिर के नाम से जाना जाता है। इन मन्दिरों का निर्माण बाबा बैद्यनाथ मन्दिर के मुख्य पुजारी के वंशजों ने किसी जमाने में करवाया था। प्रत्येक मन्दिर में भगवान शिव का लिंग स्थापित है ।भारत में झारखण्ड के देवघर जिले में स्थित वैद्यनाथ  का मंदीर है। विश्व के सभी शिव मंदिरों के शीर्ष पर त्रिशूल लगा दीखता है मगर वैद्यनाथधाम परिसर के शिव, पार्वती, लक्ष्मी-नारायण व अन्य सभी मंदिरों के शीर्ष पर पंचशूल लगे हैं।
यहाँ प्रतिवर्रात्रि से 2 दिनों पूर्व बाबा मंदिर, माँ पार्वती व लक्ष्मी-नारायण के मंदिरों से पंचशूल उतारे जाते हैं। इस दौरान पंचशूल को स्पर्श करने के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। जैसा कि नीचे के चित्रों में आपको दिखाई पड़ेगा। वैद्यनाथधाम परिसर में स्थित अन्य मंदिरों के शीर्ष पर स्थित पंचशूलों को महाशिवरात्रि के कुछ दिनों पूर्व ही उतार लिया जाता है। सभी पंचशूलों को नीचे लाकर महाशिवरात्रि से एक दिन पूर्व विशेष रूप से उनकी पूजा की जाती है और तब सभी पंचशूलों को मंदिरों पर यथा स्थान स्थापित कर दिया जाता है। इस दौरान बाबा व पार्वती मंदिरों के गठबंधन को हटा दिया जाता है। महाशिवरात्रि के दिन नया गठबंधन किया जाता है। गठबंधन के लाल पवित्र कपड़े को प्राप्त करने के लिए भी भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। महाशिवरात्रि के दौरान बहुत-से श्रद्धालु सुल्तानगंज से कांवर में गंगाजल भरकर 105 किलोमीटर पैदल चलकर और ‘बोल बम’ का जयघोष करते हुए वैद्यनाथ बाबा पर जलाभीषेक करते हैं । 
 * ज्ञान और मुक्ति का स्थल काशी , बनारस , उत्तरप्रदेश - काशी नगरी वर्तमान वाराणसी शहर में स्थित पौराणिक नगरी है। इसे संसार के सबसे पुरानी नगरों में माना जाता है। भारत की जगत्प्रसिद्ध प्राचीन नगरी गंगा के वाम (उत्तर) तट पर उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगासंगमों के बीच बसी हुई है। इस स्थान पर गंगा ने प्राय: चार मील का दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाव लिया है और इसी घुमाव के ऊपर इस नगरी की स्थिति है। इस नगर का प्राचीन 'वाराणसी' नाम लोकोच्चारण से 'बनारस' हो गया था जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने शासकीय रूप से पूर्ववत् 'वाराणसी' कर दिया  है  । विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है - 'काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:'। पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर भी वह सिर उन से अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थ कहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गया।हरिवंशपुराण के अनुसार काशी को बसानेवाले भरतवंशी राजा 'काश' थे। कुछ विद्वानों के मत में काशी वैदिक काल से भी पूर्व की नगरी है। शिव की उपासना का प्राचीनतम केंद्र होने के कारण ही इस धारणा का जन्म हुआ जान पड़ता है; क्योंकि सामान्य रूप से शिवोपासना को पूर्ववैदिककालीन माना जाता है। वैसे, काशी जनपद के निवासियों का सर्वप्रथम उल्लेख हमें अर्थर्ववेद की पैप्पलादसंहिता में (५, २२, १४) मिलता है। शुक्लयजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में (१३५, ४, १९) काशिराज धृतराष्ट्र का उल्लेख है जिसे शतानीक सत्राजित् ने पराजित किया था। बृहदारण्यकोपनिषद् में (२, १, १, ३, ८, २) काशिराज अजातशत्रु का भी उल्लेख है। कौषीतकी उपनिषद् (४, १) और बौधायन श्रौतसूत्र में काशी और विदेह तथा गोपथ ब्राह्मण में काशी और कोसल जनपदों का साथ-साथ वर्णन है। इसी प्रकार काशी, कोसल और विदेह के सामान्य पुरोहित जलजातूकर्ण्य का नाम शांखायन श्रौतसूत्र में प्राप्य है। काशी जनपद की प्राचीनता तथा इसकी स्थिति इन उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट हो जाती है। वाल्मीकि रामायण में (किष्किंधा कांड ४०, २२) सुग्रीव द्वारा वानरसेना को पूर्वदिशा की ओर भेजे जाने के संदर्भ में काशी और कोसल जनपद के निवासियों का एक साथ उल्लेख किया गया है– महीं कालमहीं चापि शैलकानन शोभिंता। ब्रह्ममालन्विदेहांश्च मालवान्काशिक सलान्।
महाभारत में काशी जनपद के अनेक उल्लेख हैं और काशिराज की कन्याओं के भीष्म द्वारा अपहरण की कथा तो सर्वविदित ही है (आदि पूर्व, अध्याय १०२)। महाभारत के युद्ध में काशिराज ने पांडवों का साथ दिया था।बौद्ध काल में, गौतम बुद्ध के जन्म के पूर्व तथा उनके समय में काशी को बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हो चुकी थी। अंगुत्तरनिकाय में काशी की भारत के १६ महाजनपदों में गणना की गई है। जातक कथाओं में काशी जनपद का अनेक बार उल्लेख आया है, जिससे ज्ञात होता है कि काशी उस समय विद्या तथा व्यापार दोनों का ही केंद्र थी। अक्तिजातक में बोधिसत्व के १६ वर्ष की आयु में वहाँ जाकर विद्या ग्रहण करने का उल्लेख है। खंडहालजातक में काशी के सुंदर और मूल्यवान रेशमी कपड़ों का वर्णन है। भीमसेनजातक में यहाँ के उत्तम सुगंधित द्रव्यों का भी उल्लेख है। जातककथाओं से स्पष्ट है कि बुद्धपूर्वकाल में काशी देश पर ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का बहुत दिनों तक राज्य रहा। इन कहानियों से यह भी प्रकट है कि 'काशी' नगरनाम के अतिरिक्त एक देश या जनपद का नाम भी था। उसका दूसरा नगरनाम 'वाराणसी' था। इस प्रकार काशी जनपद की राजधानी के रूप में वाराणसी का नाम धीरे-धीरे प्रसिद्ध हो गया और कालांतर में काशी और वाराणसी ये दोनों अभिधान समानार्थक हो गए। काशी और वहाँ प्रचलित शिवोपासना का उल्लेख महाभारत में भी है– ततो वाराणसीं गत्वा अर्चयित्वा वषध्वजम (वनपर्व, ८४, ७८)। कहा जाता है 'वाराणसी' नाम वरुणा और असी नदियों पर इस नगरी की स्थिति होने से पड़ा है। कीथ के अनुसार वरुणा नदी का उल्लेख अर्थर्ववेद के इस मंत्र में है– वारिद वारयातै वरुणावत्यामधि। तत्रामृतस्यासिक्तं तेना ते वारये विषम् (४, ७, १)। युवजयजातक में वाराणसी के ब्रह्मवद्धन (उब्रह्मवर्धन), सुरूंधन, सुदस्सन (उसुदर्शन), पुप्फवती (उपुष्पवती) और रम्म (उरम्या?) एवं संखजातक में मालिनी आदि नाम मिलते हैं। लोसकजातक में वाराणसी के चारों ओर की खाई या परिखा, का वर्णन है।गौतम बुद्ध के समय में काशी राज्य कोसल जनपद के अंतर्गत था। कोसल की राजकुमारी का मगधराज बिंबिसार के साथ विवाह होने के समय काशी को दहेज में दे दिया गया था। बुद्ध ने अपना सर्वप्रथम उपदेश वाराणसी के संनिकट सारनाथ में दिया था जिससे उसके तत्कालीन धार्मिक तथा सांस्कृतिक महत्व का पता चलता है। बिंबिसार के पुत्र अजातशत्रु ने काशी को मगध राज्य का अभिन्न भाग बना लिया और तत्पश्चात् मगध के उत्कर्षकाल में इसकी यही स्थिति बनी रही। बौद्ध धर्म की अवनति तथा हिंदू धर्म के पुनर्जागरण काल में काशी का महत्व संस्कृत भाषा तथा हिंदू संस्कृति के केंद्र के रूप में निरंतर बढ़ता ही गया, जिसका प्रमाण उस काल में लिखे गए या पुन: संपादित पुराणों द्वारा प्राप्त होता है। स्कंदपुराण में तो स्वतंत्र रूप से काशी के माहात्म्य पर 'काशीखंड' नामक अध्याय लिखा गया। पुराणों में काशी को मोक्षदायिनी पुरियों में स्थान दिया गया है। चीनी यात्री फ़ाह्यान (चौथी शती ई.) और युवानच्वांग अपनी यात्रा के दौरान काशी आए थे। युवानच्यांग ने सातवीं शताब्दी ई. के पूर्वार्ध में यहाँ लगभग ३० बौद्ध बिहार और १०० हिंदू मंदिर देखे थे। नवीं शताब्दी ई. में जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपने विद्याप्रचार से काशी को भारतीय संस्कृति तथा नवोदित आर्य धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया। काशी की यह सांस्कृतिक परंपरा आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है।
भारतीय इतिहास के मध्य युग में मुसलमानों के आक्रमण के पश्चात् उस समय के अन्य सांस्कृतिक केंद्रों की भाँति काशी को भी दुर्दिन देखना पड़ा। ११९३ ई में मुहम्मद गोरी ने कन्नौज को जीत लिया, जिससे काशी का प्रदेश भी, जो इस समय कन्नौज के राठौड़ राजाओं के अधीन था, मुसलमानों के अधिकार में आ गया। दिल्ली के सुल्तानों के आधिपत्यकाल में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को काशी के ही अंक में शरण मिली। कबीर और रामानंद के धार्मिक और लोकमानस के प्रेरक विचारों ने उसे जीता-जागता रखने में पर्याप्त सहायता दी। मुगल सम्राट् अकबर ने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति जो उदारता और अनुराग दिखाया, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की धारा, जो बीच के काल में कुछ क्षीण हो चली थी, पुन: वेगवती हो गई और उसने तुलसीदास, मधुसूदन सरस्वती और पंडितराज जगन्नाथ जैसे महाकवियों और पंडितों को जन्म दिया एवं काशी पुन: अपने प्राचीन गौरव की अधिकारिणी बन गई। किंतु शीघ्र ही इतिहास के अनेक उलटफेरों के देखनेवाली इस नगरी को औरंगजेब की धर्मांधता का शिकार बनना पड़ा। उसने हिंदू धर्म के अन्य पवित्र स्थानों की भाँति काशी के भी प्राचीन मंदिरों को विध्वस्त करा दिया। मूल विश्वनाथ के मंदिर को तुड़वाकर उसके स्थान पर एक बड़ी मसजिद बनवाई जो आज भी वर्तमान है। मुगल साम्राज्य की अवनति होने पर अवध के नवाब सफ़दरजंग ने काशी पर अधिकार कर लिया; किंतु उसके पौत्र ने उसे ईस्ट इंडिया कंपनी को दे डाला। वर्तमान काशीनरेश के पूर्वज बलवंतसिंह ने अवध के नवाब से अपना संबंधविच्छेद कर लिया था। काशी की रियासत का जन्म हुआ। चेतसिंह, जिन्होंने वारेन हेस्टिंग्ज़ से लोहा लिया था ।
काशी के मंदिर और घाट - काशी मे १, ५०० मंदिर है ।

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