मानवीय जीवन में भगवान शिव की उपासना आवश्यक है । पुरणों और शास्त्रों में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की उपासना श्रेष्ठकर कहा गया है ।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर
गुजरात प्रान्त के द्वारकापुरी से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर नागेश्वर ज्योतिर्लिंग अवस्थित है। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग शिवलिंग की स्थापना धर्मात्मा, सदाचारी और शिव जी का अनन्य वैश्य भक्त सुप्रिय’ द्वारा किया गया था। दारूकावन का राजा राक्षस राज दारूक की पत्नी दारूका ने माता पार्वती की उपासना कर शक्ति प्राप्त कर दारुक वन में रह रहे ऋषियों , सदाचारियों को कष्ट पहुचता था । राक्षस दारुक की पत्नी दारूका द्वारा पश्चिम समुद्र के तट पर 16 योजन वन की देख रेख करने के लिए दारुक को नियुक्त किया गया तहस । वैन का नामकरण दारूका वन रखा गया था ।दारुका के गुरु ऋषि और्व ने दारूका के घमंड को नियंत्रण करने के बाद दारूका ने समुद्र में अपना आवास बनाया । शिव भक्त वैश्य सुप्रिय पर भयंकर बलशाली राक्षस ने आक्रमण कर राक्षस दारूक ने सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण करने के बाद समुद्र में बने पुरी में ले जाकर बन्दी बना लिया। दरुका के कारागार में वैश्य सुप्रिय की आराधना बन्द नहीं हुई और उसने अपने अन्य साथियों को भी शंकर जी की आराधना के प्रति जागरूक कर दिया। कारागार रह रहे शिवभक्त बन गये। कारागार में शिवभक्ति की सूचना राक्षस दारूक को मिलने के बाद दारुक क्रोध में उबल उठने के बाद दारुक ने सुप्रिय को डाँटते हुए बोला– ‘अरे वैश्य! तू आँखें बन्द करके मेरे विरुद्ध कौन-सा षड्यन्त्र रच रहा है?’ वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हुआ धमका रहा था, इसलिए उस पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा।घमंडी राक्षस दारूक ने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि सुप्रिय को मार डालो। अपनी हत्या के भय से सुप्रिय डरा नहीं और वह भयहारी, संकटमोचक भगवान शिव को पुकारने में लगा रहा। उस समय अपने भक्त की पुकार पर भगवान शिव ने उसे कारागार में दर्शन दिया। कारागार में एक ऊँचे स्थान पर चमकीले सिंहासन पर स्थित भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में उसे दिखाई दिये। भगवान शिव ने उस समय सुप्रिय वैश्य को अपना पाशुपतास्त्र देने के बाद वे अन्तर्धान हो गये। पाशुपतास्त्र प्राप्ति करने के बाद सुप्रिय ने पाशुपास्त्र से राक्षसों का संहार कर डाला और अन्त में वह स्वयं शिवलोक को प्राप्त हुआ। भगवान शिव के निर्देशानुसार शिवलिंग का नाम ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ पड़ा है । य: श्रृणुयान्नित्यं नागेशद्भवमादरात्। सर्वान् कामनियाद् धीमान् महापातकनशनान्। भगवान शिव ने शिव भक्त सुप्रिय की भक्ति से चार दरवाजे वाला शिव मंदिर के मध्य में भगवान शिव ज्योतिर्लिङ्ग के साथ माता पार्वती के साथ निवास बनाये थे । शिव पुराण के अनुसार दारूका के सभी राक्षस मारे जाने के बाद दारुक ने माता पार्वती की उपासना की और माता पार्वती को दारूका वैन में रहने के लिए वर मांगई थी । दारुक वैन में भगवान शिव का नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग और माता पार्वती नागेश्वरी के रूप में स्थित है । दारूका वन का राजा दारूका के पुत्र महासेन और और वीरसेन हुआ था । द्वापर युग में दारूका वन को द्वारिका की स्थापना द्वापरयुग में भगवान कृष्ण द्वारा किया गया था । समुद्र के किनारे द्वारका पुरी के पास स्थित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग है। कश्मीर प्रान्त के पहाड़ियों तथा विभिन्न मैदानी क्षेत्रों से अनेक में पौण्ड्रक, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक पल्लव, राद, किरात, दरद, नाग और खस आदि प्रमुख थीं। महाभारत के अनुसार ये सभी पराक्रमी तथा सभ्यता-सम्पन्न थीं। जब पाण्डवों को इन लोगों से संघर्ष करना पड़ा तब उन्हें ज्ञान हुआ कि ये सभी क्षत्रिय धर्म और उसके गुणों से सम्पन्न हैं। कुमाऊँ की अनार्य जातियों ने भी ब्राह्मण धर्म में प्रवेश पाने का प्रयास किया था । वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच वर्षो तक चला संघर्ष इसी आशय का प्रतीक है। श्री ओकले साहब ने उपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पवित्र हिमालय’ के अनुसार कश्मीर और हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में नाग लोगों की एक जाति रहती है। ओकले के अनुसार सर्प की पूजा करने के कारण ही उन्हें ‘नाग’ कहा जाता है।
राई डेविडस् के अनुसार पुराने बौद्ध काल में चित्रों और मूर्तियों में मनुष्य तथा साँप के जुड़े हुए स्वरूप में नाग पूजा को अंकित किया गया है। यह प्रथा गढ़वाल तथा कुमाऊँ में प्रचलित है।
एटकिंशन के ‘हिमालय डिस्ट्रिक्स’ में उल्लेख है कि , गढ़वाल के अधिकांशत: मन्दिरों में नागपूजा होती चली आ रही है।
जागेश्वर शिवमन्दिर के आसपास में वेरीनाग, धौलेनाग, कालियनाग आदि स्थान विद्यमान हैं, जिनमें ‘नाग’ शब्द उस नाग जाति की याद दिलाता है। -मन्दिरों के बीच ‘नागेश’ मन्दिर प्राचीनकाल से कुमाऊँ में विद्यमान है। धर्म और भूत-प्रेतों की पूजा की शिवोपासना में गणना की गई है।
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के मत और सिद्धान्त के प्रचार से पहले कुमाऊँ के लोगों को ‘पाशुपतेश्वर’ का नाम नहीं मालूम था। काठमाण्डू, नेपाल के ‘पाशुपतिनाथ, और कुमाऊँ में ‘यागेश्वर’ के ‘पाशुपतेश्वर’ वैदिक काल से पूजनीय देवस्थान हैं। पवित्र हिमालय की सम्पूर्ण चोटियों को तपस्वी भगवान शिवमूर्तियों के रूप में स्वीकार किया जाता है । कैलास पर्वत को तो आदि काल से नैसर्गिक शिव मन्दिर है।
‘यागेश्वर मन्दिर’ हिमालय के उत्तर पश्चिम की ओर अवस्थित है तथा सघन देवदार का वन है। इस मन्दिर का निर्माण तिब्बतीय और आर्य शैली का मिला जुला स्वरूप है। जागेश्वर-मन्दिर 2500 वर्षों पूर्व का है। इसके समीप मृत्युंजय और डिण्डेश्वर-मन्दिर पुराने हैं। जागेश्वर-मन्दिर शिव-शक्ति की प्रतिमाएँ और दरवाजों के द्वारपालों की मूर्तियाँ अत्यन्त प्राचीन हैं। जागेश्वर-मन्दिर में राजा दीपचन्द की चाँदी की मूर्ति भी स्थापित है।
स्कन्द पुराण के अनुसार कुमाऊँ कोसल राज्य का भाग था। कुमाऊँ में वैदिक तथा बौद्ध धर्म समानान्तर रूप से प्रचलित थे। मल्ल राजाओं ने भी पाशुपतेश्वर या जागेश्वर के दर्शन किये थे तथा जागेश्वर को कुछ गाँव उपहार में समर्पित किये थे। चन्द राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटूट श्रृद्धा थी। इनका राज्य कुमाऊँ की पहाड़ियों तथा तराईभाँवर के बीच था। देवीचन्द, कल्याणचन्द, रतनचन्द, रुद्रचन्द्र आदि राजाओं ने जागेश्वर-मन्दिर को गाँव तथा बहुत-सा धन दान में दिये थे।
सन 1740 में अलीमुहम्मद ख़ाँ ने अपने रूहेला सैनिकों के साथ कुमाऊँ पर आक्रमण किया था। उसके सैनिकों ने भारी तबाही मचाई और अल्मोड़ा तक के मन्दिरों को भ्रष्ट कर उनकी मूर्तियों को तोड़ डाला। उन दुष्टों ने जागेश्वर-मन्दिर पर भी धावा बोला था, किन्तु ईश्वर इच्छा से वे असफल रहे। सघन देवदार के जंगल से लाखों बर्र निकलकर उन सैनिकों पर टूट पड़े और वे सभी भाग खड़े हुए। उनमें से कुछ कुमाऊँ निवासियों द्वारा मार दिये गये, तो कुछ सर्दी से मर गये।
बौद्धों के समय में भगवान 'बदरी विशाल' की प्रतिमा की तरह जागेश्वर की देव-प्रतिमाएँ सूर्य कुण्ड में कुछ दिनों तक पड़ी रहीं। जगद्गुरु शंकराचार्य ने पुन: मूर्तियों को स्थापित किया और जागेश्वर-मन्दिर की पूजा का दायित्त्व दक्षिण भारतीय कुमारस्वामी को सौंप दिया। जागेश्वर-मन्दिर अत्यन्त प्राचीन काल का है और नाग जातियों के द्वारा इस शिवलिंग की पूजा होने के कारण इसे ‘यागेश’ या ‘नागेश’ कहा जाने लगा। ‘दारूका’ पार्वती जी से वरदान प्राप्त कर अहंकार में चूर रहती थी। उसका पति ‘दारूक महान् बलशाली राक्षस था। उसने बहुत से राक्षसों को अपने साथ लेकर समाज में आतंक फैलाया हुआ था। वह यज्ञ आदि शुभ कर्मों को नष्ट करता हुआ सन्त-महात्माओं का संहार करता था। समुद्र के किनारे सभी प्रकार की सम्पदाओं से भरपूर सोलह योजन विस्तार पर उसका एक वन था, जिसमें वह निवास करता था।दारूका जहाँ भी जाती थी, वृक्षों तथा विविध उपकरणों से सुसज्जित वह वनभूमि अपने विलास के लिए साथ-साथ ले जाती थी। महादेवी पार्वती ने उस वन की देखभाल का दायित्त्व दारूका को सौंपा था, जो उनके वरदान के प्रभाव से उसके ही पास रहता था। उससे पीड़ित आम जनता ने महर्षि और्व के पास जाकर अपना कष्ट सुनाया। शरणागतों की रक्षा का धर्म पालन करते हुए महर्षि और्व ने राक्षसों को शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि ‘जो राक्षस इस पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा और यज्ञों का विनाश करेगा, उसी समय वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। महर्षि और्व द्वारा दिये गये शाप की सूचना जब देवताओं को मालूम हुई, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर चढ़ाई कर दी। राक्षसों पर भारी संकट आ पड़ा। यदि वे युद्ध में देवताओं को मरते हैं, शाप के कारण स्वयं मर जाएँगे और यदि उन्हें नहीं मारते हैं, पराजित होकर स्वयं भूखों मर जाएँगे। उस समय दारूका ने राक्षसों को सहारा दिया और भवानी के वरदान का प्रयोग करते हुए वह सम्पूर्ण वन को लेकर समुद्र में जा बसी। इस प्रकार राक्षसों ने धरती को छोड़ दिया और निर्भयतापूर्वक समुद्र में निवास करते हुए वहाँ भी प्राणियों को सताने लगे।
एक बार उस समुद्र में मनुष्यों से भरी बहुत-सारी नौकाएँ जा रही थीं, जिन्हें उन राक्षसों ने पकड़ लिया। सभी लोगों को बेड़ियों से बाँधकर उन्हें कारागार में बन्द कर दिया गया। राक्षस उन यात्रियों को बार-बार धमकाने लगे। वैश्य ‘सुप्रिय’ नामक वैश्य उस यात्री दल का अगुवा था, सदाचारी था। वह ललाट पर भस्म, गले में रुद्राक्ष की माला डालकर भगवान शिव की भक्ति करता था। सुप्रिय बिना शिव जी की पूजा किये कभी भी भोजन नहीं करता था। उसने अपने बहुत से साथियों को भी शिव जी का भजन-पूजन सिखला दिया था। उसके सभी साथी ‘नम: शिवाय’ का जप करते थे तथा शिव जी का ध्यान भी करते थे। सुप्रिय परम भक्त था, इसलिए उसे शिव जी का दर्शन भी प्राप्त होता था।
इस विषय की सूचना जब राक्षस दारूका को मिली, तो वह करागार में आकर सुप्रिय सहित सभी को धमकाने लगा और मारने के लिए दौड़ पड़ा। मारने के लिए आये राक्षसों को देखकर भयभीत सुप्रिय ने कातरस्वर से भगवान शिव को पुकारा, उनका चिन्तन किया और वह उनके नाम-मन्त्र का जप करने लगा। उसने कहा- देवेश्वर शिव! हमारी रक्षा करें, हमें इन दुष्ट राक्षसों से बचाइए। देव! आप ही हमारे सर्वस्व हैं, आप ही मेरे जीवन और प्राण हैं। इस प्रकार सुप्रिय वैश्य की प्रार्थना को सुनकर भगवान शिव एक 'विवर'अर्थात् बिल से प्रकट हो गये। उनके साथ ही चार दरवाजों का एक सुन्दर मन्दिर प्रकट हुआ।उस मन्दिर के मध्यभाग में (गर्भगृह) में एक दिव्य ज्योतिर्लिंग प्रकाशित हो रहा था तथा शिव परिवार के सभी सदस्य भी उसके साथ विद्यमान थे। सुप्रिय के पूजन से प्रसन्न भगवान शिव ने स्वयं पाशुपतास्त्र लेकर प्रमुख राक्षसों को, उनके अनुचरों को तथा उनके सारे संसाधनों (अस्त्र-शस्त्र) को नष्ट कर दिया। लीला करने के लिए स्वयं शरीर धारण करने वाले भगवान शिव ने अपने भक्त सुप्रिय आदि की रक्षा करने के बाद उस वन को भी यह वर दिया कि ‘आज से इस वन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, इन चारों वर्णों के धर्मों का पालन किया जाएगा। इस वन में शिव धर्म के प्रचारक श्रेष्ठ ऋषि-मुनि निवास करेंगे और यहाँ तामसिक दुष्ट राक्षसों के लिए कोई स्थान न होगा।’राक्षसों पर आये इसी भारी संकट को देखकर राक्षसी दारूका ने दैन्यभाव (दीनता के साथ) से देवी पार्वती की स्तुति, विनती आदि की। उसकी प्रार्थना से प्रसन्न माता पार्वती ने पूछा– ‘बताओ, मैं तेरा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’! दारूका ने कहा– ‘माँ! आप मेरे कुल (वंश) की रक्षा करें।’ पार्वती ने उसके कुल की रक्षा का आश्वासन देते हुए भगवान शिव से कहा– ‘नाथ! आपकी कही हुई बात इस युग के अन्त में सत्य होगी, तब तक यह तामसिक सृष्टि भी चलती रहे, ऐसा मेरा विचार है।’ माता पार्वती शिव से आग्रह करती हुईं बोलीं कि ‘मैं भी आपके आश्रय में रहने वाली हूँ, आपकी हूँ । राक्षसी दारूका राक्षसियों में बलिष्ठ, मेरी ही शक्ति तथा देवी है। इसलिए यह राक्षसों के राज्य का शासन करेगी। ये राक्षसों की पत्नियाँ अपने राक्षसपुत्रों को पैदा करेगी, जो मिल-जुलकर इस वन में निवास करेंगे-ऐसा मेरा विचार है।’माता पार्वती के उक्त प्रकार के आग्रह को सुनकर भगवान शिव ने उनसे कहा– ‘प्रिय! तुम मेरी भी बात सुनो। मैं भक्तों का पालन तथा उनकी सुरक्षा के लिए प्रसन्नतापूर्वक इस वन में निवास करूँगा। जो मनुष्य वर्णाश्रम-धर्म का पालन करते हुए श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा बनेगा। कलि युग के अन्त में तथा सतयुग के में महासेन का पुत्र वीरसेन राजाओं का महाराज होगा। वह मेरा परम भक्त तथा बड़ा पराक्रमी होगा। जब वह इस वन में आकर मेरा दर्शन करेगा। उसके बाद वह चक्रवर्ती सम्राट हो जाएगा।’ तत्पश्चात् बड़ी-बड़ी लीलाएँ करने वाले शिव-दम्पत्ति ने आपस में हास्य-विलास की बातें की और वहीं पर स्थित हो गये। इस प्रकार शिवभक्तों के प्रिय ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान शिव ‘नागेश्वर’ कहलाये और शिवा (पार्वती) देवी भी ‘नागेश्वरी’ के नाम से विख्यात तथा शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए हैं । पुरणों के अनुसार समुद्र के पश्चिम 16 योजन फैले वन में नाग का शासन बाद में माता पार्वती के वरदान प्राप्त करने के बाद दारूका वैन से ख्याति प्राप्त हुई थी तथा भगवान कृष्ण ने द्वारिका वन का निर्माण किया है । बड़ौदा राज्य के दारुक वन , हैदराबाद के औड़ा , अल्मोड़ा के यगेश में नागेश्वर मंदिर है । मल्लिका के सरस्वती नदी के तट पर नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग का उप ज्योतिर्लिङ्ग भूतेश्वर लिंग स्थापित है । नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग की उपासना से सर्वांगी विकास तथा भय मुक्त रहता है ।
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