सनातन और विश्व संस्कृति में गणेश की प्रधानता है । वेदों , स्मृति , उपनिषदों में गणेश जी का उल्लेख किया गया है । भगवान गणेश देव के देव महादेव शिव के पुत्र हैं। भगवान गणेश की पत्नी का नाम रिद्धि और सिद्धि है। रिद्धि और सिद्धि भगवान विश्वकर्मा की पुत्रियां है । भगवान शिव और भगवान विश्वकर्मा का संबंध अत्यंत घनिष्ठ है । गणपति आदिदेव हैं । शिवमानस पूजा में श्री गणेश को प्रणव (ॐ) कहा गया है। एकाक्षर ब्रह्म में ऊपर वाला भाग गणेश का मस्तक, नीचे का भाग उदर, चंद्रबिंदु लड्डू और मात्रा सूँड है।चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता की प्रतीक उनकी चार भुजाएँ हैं। वे लंबोदर हैं क्योंकि समस्त चराचर सृष्टि उनके उदर में विचरती है। बड़े कान अधिक ग्राह्यशक्ति व छोटी-पैनी आँखें सूक्ष्म-तीक्ष्ण दृष्टि की सूचक हैं। उनकी लंबी नाक (सूंड) महाबुद्धित्व का प्रतीक है।प्राचीन समय में सुमेरू पर्वत पर सौभरि ऋषि का अत्यंत मनोरम आश्रम था। उनकी अत्यंत रूपवती और पतिव्रता पत्नी का नाम मनोमयी था। एक दिन ऋषि लकड़ी लेने के लिए वन में गए और मनोमयी गृह-कार्य में लग गई। उसी समय एक दुष्ट कौंच नामक गंधर्व आया और उसने अनुपम लावण्यवती मनोमयी को देख कर व्याकुल हो गया।कौंच ने ऋषि-पत्नी का हाथ पकड़ लिया। रोती और काँपती हुई ऋषि पत्नी उससे दया की भीख माँगने लगी। उसी समय सौभरि ऋषि आ गए। उन्होंने गंधर्व को श्राप देते हुए कहा 'तूने चोर की तरह मेरी सहधर्मिणी का हाथ पकड़ा है, इस कारण तू मूषक होकर धरती के नीचे और चोरी करके अपना पेट भरेगा। काँपते हुए गंधर्व ने मुनि से प्रार्थना की-'दयालु मुनि, अविवेक के कारण मैंने आपकी पत्नी के हाथ का स्पर्श किया था। मुझे क्षमा कर दें। ऋषि ने कहा मेरा श्राप व्यर्थ नहीं होगा, तथापि द्वापर में महर्षि पराशर के यहाँ गणपति देव गजमुख पुत्र रूप में प्रकट होंगे । हर युग में गणेशजी ने अलग-अलग अवतार लिए तब तू उनका डिंक नामक वाहन बन जाएगा, जिससे देवगण भी तुम्हारा सम्मान करने लगेंगे। विश्व तब तुझें श्रीडिंकजी कहकर वंदन करेंगे।गणेश को जन्म न देते हुए माता पार्वती ने उनके शरीर की रचना की। उस समय उनका मुख सामान्य था। माता पार्वती के स्नानागार में गणेश की रचना के बाद माता ने उनको घर की पहरेदारी करने का आदेश दिया। माता ने कहा कि जब तक वह स्नान कर रही हैं तब तक के लिये गणेश किसी को घर में प्रवेश नही करने दे। तभी द्वार पर भगवान शंकर आए और बोले "पुत्र यह मेरा घर है मुझे प्रवेश करने दो।" गणेश के रोकने पर भगवान शिव ने गणेश का सर धड़ से अलग कर दिया। गणेश को भूमि में निर्जीव पड़ा देख माता पार्वती व्याकुल हो उठीं। तब शिव को उनकी त्रुटि का बोध हुआ और उन्होंने गणेश के धड़ पर गज का सर लगा दिया। उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले का सोन प्रयाग से केदारनाथ जाने पर गौरी कुंड के पहले बिना सिर का गणेश जी की मूर्ति गणेश मंदिर में स्थित है । गणेश जी प्रथम पूज्य का वरदान मिला इसीलिए सर्वप्रथम गणेश की पूजा होती है।शास्त्रों के अनुसार गणेश जी की रिद्धि और सिद्धि पत्नियां तथा पुत्र शुभ और लाभ है ।गणेश जी की पूजा करने से केवल सिद्धियाँ प्राप्त होती है लेकिन इनकी भक्ति से पूर्ण मोक्ष संभव नहीं है।
इण्डोनेशिया के बाली द्वीप में समुद्र तट पर स्थित एक गणेश मन्दिर है । गणेशजी के अनेक नाम हैं लेकिन ये 12 नाम प्रमुख हैं- सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्णक, लंबोदर, विकट, विघ्न-नाश, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र, गजानन। उपरोक्त द्वादश नाम नारद पुराण में पहली बार गणेश के द्वादश नामवलि में आया है।[4] विद्यारम्भ तथा विवाह के पूजन के प्रथम में इन नामो से गणपति की अराधना का विधान है।भगवान शंकर तथा माता- भगवती पार्वती के पुत्र गणेश जी के बड़े भाई- श्री कार्तिकेय , बहन- अशोकसुन्दरी , पत्नी- ऋद्धि और सिद्धि , पुत्र- . शुभ तथा लाभ हैं । गणेश जी का प्रिय भोग मोदक, लड्डू , प्रिय पुष्प- लाल रंग , प्रिय वस्तु- दुर्वा (दूब), शमी-पत्र ,अधिपति- जल तत्व के , प्रमुख अस्त्र- पाश, अंकुश , वाहन - मूषक है । ज्योतिष्शास्त्र के अनुसार गणेशजी को केतु के रूप में जाना जाता है। केतु एक छाया ग्रह है, जो राहु नामक छाया ग्रह से हमेशा विरोध में रहता है, बिना विरोध के ज्ञान नहीं आता है और बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं है। गणेशजी को मानने वालों का मुख्य प्रयोजन उनको सर्वत्र देखना है, गणेश अगर साधन है तो संसार के प्रत्येक कण में विद्यमान है। गणेश जी, शिवजी और पार्वती के पुत्र हैं। उनका वाहन मूषक है। गणों के स्वामी होने के कारण उनका एक नाम गणपति भी है। सभी देवताओं में इनकी पूजा-अर्चना सर्वप्रथम की जाती है। श्री गणेश जी विघ्न विनायक हैं। भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी बुधवार सतयुग को मध्याह्न में गणेश जी का जन्म हुआ था। भगवान गणेश का स्वरूप अत्यन्त ही मनोहर एवं मंगलदायक है। वे एकदन्त और चतुर्बाहु हैं। अपने चारों हाथों में पाश, अंकुश, मोदकपात्र तथा वरमुद्रा धारण करते हैं। रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा पीतवस्त्रधारी गणेश जी का प्रिय रक्त चन्दन , रक्तवर्ण के पुष्प हैं। गणेश जी अपने उपासकों पर शीघ्र प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं।ज्योतिष में गणेश जी को केतु का देवता माना जाता है और संसार के साधन के स्वामी श्री गणेशजी हैं। हाथी जैसा सिर होने के कारण उन्हें गजानन कहते हैं। गणेश जी का नाम हिन्दू शास्त्रो के अनुसार किसी कार्य के लिये पहले पूज्य है। इसलिए इन्हें आदिपूज्य भी कहते है। गणेश कि उपसना करने वाला सम्प्रदाय गाणपतेय कहलाते है। पुराणों में गणेश के संबंध में अनेक आख्यान वर्णित है। पुरणों के अनुसार एक बार भगवान शिव के शिष्य शनि देव कैलाश पर्वत पर आए। उस समय शिव ध्यान में थे तो शनिदेव सीधे पार्वती के दर्शन के लिए पहुंच गए। पार्वती बालक गणेश के साथ बैठी थीं। बालक गणेश का मुख सुंदर और हर तरह के कष्ट को भुला देने वाला था। शनिदेव आंखें नीची किए पार्वती से बात करने लगे।पार्वती ने देखा कि शनिदेव किसी को देख नहीं रहे हैं। वे लगातार अपनी निगाहें नीची किए हुए हैं। पार्वती ने शनि देव से पूछा कि वे किसी को देख क्यों नहीं रहे हैं? क्या उनको कोई दृष्टिदोष हो गया है? शनिदेव ने कारण बताते हुए कहा कि उन्हें उनकी पत्नी ने शाप दिया है कि वो जिसे देखेंगे उसका विनाश हो जाएगा। पार्वती ने पूछा कि उनकी पत्नी ने ऐसा शाप क्यों दिया है तो शनिदेव कहने लगे कि मैं लगातार भगवान शिव के ध्यान में रहता हूं। एक बार में ध्यान में था और मेरी पत्नी ऋतुकाल से निवृत्त होकर मेरे समीप आई लेकिन ध्यान में होने के कारण मैंने उसकी ओर देखा नहीं।उसने इसे अपना अपमान समझा और मुझे शाप दे दिया कि मैं जिसकी ओर देखूंगा, उसका विनाश हो जाएगा। ये बात सुन कर पार्वती ने कहा कि आप मेरे पुत्र गणेश की ओर देखिए, उसके मुख का तेज समस्त कष्टों को हरने वाला है। शनिदेव गणेश पर दृष्टि डालना नहीं चाहते थे लेकिन वे माता पार्वती के आदेश की अवहेलना भी नहीं कर सकते थे, सो उन्होंने तिरछी निगाह थे गणेश की ओर धीरे से देखा। शनि देव की दृष्टि पड़ते ही बालक गणेश का सिर धड़ से कटकर नीचे गिर गया। तभी भगवान विष्णु एक गजबालक का सिर लेकर पहुंचे और गणेश के सिर पर उसे स्थापित कर दिया।
पार्वती शिव के साथ उत्सव क्रीड़ा कर रहीं थीं, तब उन पर थोड़ा मैल लग गया। जब उन्हें इस बात की अनुभूति हुई, तब उन्होंने अपने शरीर से उस मैल को निकाल दिया और उससे एक बालक बना दिया और उसका नाम रखा गणेश। माता पार्वती नें गणेश से आदेश दिया की, वे स्नान कर रहीं हैं, उनकी अनुमति के बिना किसी को भी घर के अंदर ना आने दिया जाये।जब शिवजी वापस लौटे तो उन्होंने देखा की द्वार पर एक एक बालक खड़ा है। जब वे अन्दर जाने लगे तो उस बालक नें उन्हें रोक लिया और नहीं जाने दिया। यह देख शिवजी क्रोधित हुए और अपने सवारी बैल नंदी को उस बालक से युद्ध करने को कहाँ। पर युद्ध में उस छोटे बालक नें नंदी को हरा दिया। यह देख कर भगवान शिव जी नें क्रोधित हो कर उस बालक गणेश के सर को काट दिया।अब माता पार्वती वापस लौटी तो वो बहुत दुखी हुई और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। शिवजी को जब पता चला की वह उनका स्वयं का पुत्र था तो उन्हें भी अपनी गलती का एहसास हुआ। शिवजी नें पार्वती को बहुत समझाने का कोशिश किया पर वह नहीं मानी और गणेश का नाम लेते लेते और दुखित होने लगी।अंत में माता पार्वती नें क्रोधित हो कर शिवजी को अपनी शक्ति से गणेश को दोबारा जीवित करने के लिए कहा। शिवजी बोले – हे पार्वती में गणेश को जीवित तो कर सकता हूँ पर किसी भी अन्य जीवित प्राणी के सीर को जोड़ने पर ही। माता पार्वती रोते-रोते बोल उठी – मुझे अपना पुत्र किसी भी हाल में जीवित चाहिए।
यह सुनते ही शिवजी नें नंदी को आदेश दिया – जाओ नंदी इस संसार में जिस किसी भी जीवित प्राणी का सीर तुमको मिले काट लाना। जब नंदी सीर खोज रहा था तब सबसे पहले उससे एक हाथी दिखा तो वो उसका सीर काट कर ले आया। भगवान शिव नें उस सीर को गणेश के शारीर से जोड़ दिया और गणेश को जीवन दान दे दिया। शिवजी नें इसीलिए गणेश जी का नाम गणपति रखा और बाकि सभी देवताओं नें उन्हें वरदान दिया की इस दुनिया में जो भी कुछ नया कार्य करेगा ।ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु के अवतार परशुराम शिव के शिष्य थे। जिस फरसे से उन्होंने 17 बार क्षत्रियों को धरती से समाप्त किया था, वो अमोघ फरसा शिव ने ही उन्हें प्रदान किया था। 17 बार क्षत्रियों को हराने के बाद ब्राह्मण परशुराम शिव और पार्वती के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर गए। उस समय भगवान शिव शयन कर रहे थे और पहरे पर स्वयं गणेश थे। गणेश ने परशुराम को रोक लिया। परशुराम को क्रोध बहुत जल्दी आता था। भगवान परसुराम के रोके जाने पर गणेश से झगड़ने लगे। बात-बात में झगड़ा इतना बढ़ गया कि परशुराम ने गणेश को धक्का दे दिया। गिरते ही गणेश को भी क्रोध आ गया। परशुराम ब्राह्मण थे । गणेश उन पर प्रहार नहीं करना चाहते थे। गणेश जी ने परशुराम को अपनी सूंड से पकड़ लिया और चारों दिशाओं में गोल-गोल घूमा दिया। घूमते-घूमते ही गणेश ने परशुराम को अपने कृष्ण रूप के दर्शन करवा दिए। कुछ पल घुमाने के बाद गणेश ने उन्हें छोड़ दिया।छोड़े जाने के थोड़ी देर तक तो परशुराम शांत रहे। बाद में परशुराम को अपने अपमान का आभास हुआ तो उन्होंने अपने फरसे से गणेश पर वार किया। फरसा शिव का दिया हुआ था सो गणेश उसके वार को विफल जाने नहीं देना चाहते थे, ये सोचकर उस वार को उन्होंने अपने एक दांत पर झेल लिया। फरसा लगते ही दांत टूटकर गिर गया। इस बीच कोलाहल सुन कर शिव भी शयन से बाहर आ गए और उन्होंने दोनों को शांत करवाया। तब से गणेश को एक ही दांत रह गया और वे एकदंत कहलाने लगे है । महर्षि वेदव्यास महाभारत लिखने के लिए बैठे, तो उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो उनके मुख से निकले हुए महाभारत की कहानी को लिखे। इस कार्य के लिए उन्होंने श्री गणेश जी को चुना। गणेश जी इस बात के लिए मान गए पर उनकी एक शर्त थी कि पूरा महाभारत लेखन को एक पल ले लिए बिना रुके पूरा करना होना है ।। गणेश जी बोले – अगर आप एक बार भी रुकेंगे तो मैं लिकना बंद कर दूंगा।महर्षि वेदव्यास नें गणेश जी की इस शर्त को मान लिया। लेकिन वेदव्यास ने गणेश जी के सामने भी एक शर्त रखा और कहा – गणेश आप जो भी लिखोगे समझ कर ही लिखोगे। गणेश जी भी उनकी शर्त मान गए। दोनों महाभारत के महाकाव्य को लिखने के लिए बैठ गए। वेदव्यास जी महाकाव्य को अपने मुहँ से बोलने लगे और गणेश जी समझ-समझ कर जल्दी-जल्दी लिखने लगे। कुछ देर लिखने के बाद अचानक से गणेश जी का कलम टूट गया। कलम महर्षि के बोलने की तेजी को संभाल ना सका।गणेश जी समझ गए की उन्हें थोडा से गर्व हो गया था और उन्होंने महर्षि के शक्ति और ज्ञान को ना समझा। उसके बाद उन्होंने धीरे से अपने एक दांत को तोड़ दिया और स्याही में डूबा कर दोबारा महाभारत की कथा लिखने लगे। लिंग पुराण के अनुसार एक बार देवताओं ने भगवान शिव की उपासना करके उनसे सुरद्रोही दानवों के दुष्टकर्म में विघ्न उपस्थित करने के लिये वर माँगा। आशुतोष शिव ने ‘तथास्तु’ कहकर देवताओं को संतुष्ट कर दिया। समय आने पर गणेश जी का प्राकट्य हुआ। उनका मुख हाथी के समान था और उनके एक हाथ में त्रिशूल तथा दूसरे में पाश था। देवताओं ने सुमन-वृष्टि करते हुए गजानन के चरणों में बार-बार प्रणाम किया। भगवान शिव ने गणेश जी को दैत्यों के कार्यों में विघ्न उपस्थित करके देवताओं और ब्राह्मणों का उपकार करने का आदेश दिया। इसी तरह से ब्रह्म वैवर्त पुराण, स्कन्द पुराण तथा शिव पुराण में भी भगवान गणेश जी के अवतार की भिन्न-भिन्न कथाएँ मिलती हैं प्रजापति विश्वकर्मा की सिद्धि-बुद्धि नामक दो कन्याएँ गणेश जी की पत्नियाँ हैं। सिद्धि से क्षेम और बुद्धि से लाभ नाम के शोभा सम्पन्न दो पुत्र हुए। शास्त्रों और पुराणों में सिंह, मयूर और मूषक को गणेश जी का वाहन बताया गया है।
भगवान गणपति के प्राकट्य उनकी लीलाओं तथा उनके मनोरम विग्रह के विभिन्न रूपों का वर्णन पुराणों और शास्त्रों में प्राप्त होता है। कल्पभेद से उनके अनेक अवतार हुए हैं। उनके सभी चरित्र अनन्त हैं। *पद्म पुराण के अनुसार एक बार श्री पार्वती जी ने अपने शरीर के मैल से एक पुरुषाकृति बनायी, जिसका मुख हाथी के समान था। फिर उस आकृति को उन्होंने गंगा में डाल दिया। गंगाजी में पड़ते ही वह आकृति विशालकाय हो गयी। पार्वती जी ने उसे पुत्र कहकर पुकारा। देवों ने गणेश जी को गांगेय और ब्रह्मा जी ने गणों का आधिपत्य प्रदान करके गणेश नामकारण किया है ।
गणेश जी के बारह नाम - सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्णक, लंबोदर, विकट, विघ्न-नाश,विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र, गजानन। उप्रोक्त द्वादश नाम नारद पुरान मे पहली बार गणेश के द्वादश नामवलि मे आया है| विद्यारम्भ तथ विवाह के पूजन के प्रथम मे इन नामो से गणपति के अराधना का विधान है।भगवान गणेश की शास्त्रीय विधि भी इस प्रकार है। इनके क्रमों की संख्या 16 है। आह्वान, आसन, पाद्य, अध्र्य, आचमनीय, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, गंधपुष्प, पुष्पमाला, धूप-दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, आरती-प्रदक्षिणा और पुष्पांजलि आदि। गणेश गायत्री मन्त्र से ही इनकी आराधना कर सकते हैं। भगवान गणेश की पूजा के लिए ऋग्वेद के गणेश अथर्व सूत्र में कहा गया है कि रक्त पुष्पै सुपूजितम अर्थात लाल फूल से विनायक की पूजा का विशेष महत्त्व है। स्नानादि करके सामग्री के साथ अपने घर के मंदिर में बैठे, अपने आपको पवित्रीकरण मन्त्र पढ़कर घी का दीप जलाएं और दीपस्थ देवतायै नम: कहकर उन्हें अग्निकोण में स्थापित कर दें। इसके बाद गणेशजी की पूजा करें। अगर कोई मन्त्र न आता हो, तो ‘गं गणपतये नम:’ मन्त्र को पढ़ते हुए पूजन में लाई गई सामग्री गणपति पर चढाएं, यहीं से आपकी पूजा स्वीकार होगी और आपको शुभ-लाभ की अनुभूति मिलेगी। गणेश जी की आरती और पूजा किसी कार्य को प्रारम्भ करने से पहले की जाती है और प्रार्थना करते हैं कि कार्य निर्विघ्न पूरा हो। हिंदू शास्त्रों में बुधवार का दिन गणपति बप्पा का बताया गया है. इसलिए बुधवार के दिन भगवान गणेश को खुश करने के लिए उनकी आराधना की जाती है. इस दिन उनकी पूजा करने से जातकों के सारे संकट दूर हो जाते हैं. भगवान गणेश को भारतीय धर्म और संस्कृति में प्रथम पूज्य देवता माना जाता है. उनकी पूजा के बगैर कोई भी मंगल कार्य शुरू नहीं होता. सभी मांगलिक कार्य में पहले गणेश जी की स्थापना और स्तुति की जाती है । कहते हैं कि माता पार्वती द्वारा पुण्यक व्रत के फलस्वरूप गणेशजी का जन्म हुआ था. पुराणों में उनके जन्म के संबंध में कहा गया है माता ने अपनी सखी जया और विजया के कहने पर एक गण की उत्पति अपने मैल से की थी. माथुर ब्राह्मणों के इतिहास अनुसार अनुमानत 9938 विक्रम संवत पूर्व भाद्रपद माह की शुक्ल चतुर्थी को भगवान गणेश का मध्याह्न के समय जन्म हुआ था. पौराणिक मत के अनुसार उनका जन्म सतुयग में हुआ था ।उत्तरकाशी जिले के डोडीताल को गणेशजी का जन्म स्थान माना जाता है. यहां पर माता अन्नपूर्णा का प्राचीन मंदिर है जहां गणेशजी अपनी माता के साथ विराजमान हैं. डोडीताल जो कि मूल रूप से बुग्याल के बीच में काफी लंबी-चौड़ी झील है, वहीं गणेश का जन्म हुआ था. यह भी कहा जाता है कि केलसू, जो मूल रूप से एक पट्टी है (पहाड़ों में गांवों के समूह को पट्टी के रूप में जाना जाता है) का मूल नाम कैलाशू है. इसे स्थानीय लोग भगवान शिव का कैलाश बताते हैं. केलशू क्षेत्र असी गंगा नदी घाटी के सात गांवों को मिलाकर बना है. भगवान गणेश को स्थानीय बोली में डोडी राजा कहा जाता हैं जो केदारखंड में गणेश के लिए प्रचलित नाम डुंडीसर का अपभ्रंश है ।मान्यता अनुसार डोडीताल क्षेत्र मध्य कैलाश में आता था और डोडीताल भगवान गणेश की माता और शिवजी की पत्नी पार्वती का स्नान स्थल था. स्वामी चिद्मयानंद के गुरु रहे स्वामी तपोवन ने मुद्गल ऋषि की लिखी मुद्गल पुराण के हवाले से अपनी किताब हिमगिरी विहार में भी डोडीताल को गणेश का जन्मस्थल होने की बात लिखी है. वैसे कैलाश पर्वत तो यहां से सैंकड़ों मील दूर है लेकिन स्थानीय लोग मानते हैं कि एक समय यहां माता पार्वती विहार करने आई थीं तभी गणेशजी का जन्म हुआ थाभगवान गणेश प्रथम पूज्यनीय गणेश जी की मूर्ति विश्व के लगभग हर लेखक, कलाकार, बिजनेसमैन के पास होती है ।
जापान में भगवान गणेश के 250 मंदिर हैं। जापान में कंजितें ( गणेश जी ) की उपासना करते है ।द्वापरयुग में भगवान गणेश द्वारा लिखे गए महाभारत के अध्याय भारत के उत्तराखंड का चमोली जिले के बद्रीनाथ के समीप माना ग्राम का नारायणी पर्वत की व्यास गुफा में कृष्ण द्वैपायन व्यास जी तथा गणेश गुफा में गणेश जी ने महाभारत की रचना की थी ।भगवान भी सुख, शांति और समृद्दि प्रदान करते हैं, जो कि भगवान गणेश भी किया करते हैं। कुछ दिनों पहले ऑक्सफोर्ड पब्लिकेशन के अनुसार वर्षो पूर्व मध्य एशिया में गणेश की पूजा होती थी। गणेश भगवान की मूर्तियां आपको म्यमार, अफगानिस्तान,श्रीलंका, नेपाल, थाईलैंड, चीन, मंगोलिया, वियतनाम, बुल्गारिया,अमेरिका और मैक्सिको में भी देखने मिलती हैं। ऑक्सफोर्ड की एक न्यूज एजेंसी के अनुसार श्रीगणेश प्राचीन समय में सेंट्रल एशिया और विश्व की अन्य जगहों पर पूजे जाते थे। गणेशजी की मूर्तियां अफगानिस्तान, ईरान, म्यान्मार, श्रीलंका, नेपाल, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया, वियतनाम, चाईना, मंगोलिया, जापान, इंडोनेशिया, ब्रुनेई, बुल्गारिया, मेक्सिको और अन्य लेटिन अमेरिकी देशों में मिल चुकी हैं।श्रीगणेश की मूर्तियों और चित्रों की प्रदर्शनी दुनिया के लगभग सभी खास म्यूजियम और आर्ट गैलरियों में लग चुकी है। खासतौर पर यूके, जर्मनी, फ्रांस और स्वीट्जरलैंड में , यूरोप के कई देशों, कनाडाऔर यूएसए में कई सफल बिजनेसमैन, लेखक और आर्टिस्ट अपने ऑफिस और घरों में भगवान गणेश की प्रतिमाएं और चित्र रखते हैं। बुल्गारिया के सोफिया के पास एक गांव की जमीन में भगवान गणेशजी की एक प्रतिमा मिली।भारतीयों की तरह रोमन लोग भी श्रीगणेश की पूजा के साथ काम शुरू करते थे। आयरिश लोगों में विश्वास है कि गणेशजी भाग्य अच्छा रखते हैं। दिल्ली स्थित आयरलैंड एंबेसी में प्रवेश द्वार पर ही श्रीगणेश की मूर्ति स्थापित की गई है। आयरलैंड की एंबेसी पहली ऐसी एंबेसी है जहां श्रीगणेशजी का आशीर्वाद लिया जाता है। गणेशजी ग्रीक सिक्के पर भी हैं। हाथी के सिर वाले भगवानों की तस्वीरें भारतीय-ग्रीक सिक्कों पर मिलीं। ये सिक्के प्रथम और तीसरी शताब्दी ई. पू . थे। इंडोनेशिया के करेंसी के नोटों पर भी श्रीगणेश की तस्वीर होती हैं। वैदिक के अनुसार,श्रीगणेशजी करीब 10,000 वर्ष पूर्व प्रकट हुए है । वेदों में गणेशजी को 'नमो गणेभयो गणपति' के साथ पुकारा गया। वे मुश्किलें खत्म करने वाले देवता हैं। महाभारत में उनके स्वरूप और उपनिषदों में उनकी शक्ति का वर्णन किया गया है। यूएसए की सिलीकॉन वेली में श्रीगणेश को सायबरस्पेस टेक्नोलॉजी का देवता माना गया है। श्रीगणेश ज्ञान के देव हैं और उनका वाहन मूषक है। सॉफ्टवेयर इंजीनियर भी माउस (मूषक) का इस्तेमाल करते हैं। इसके माध्यम से ही उनके विचार और आइडिया मूर्त रूप लेते हैं। इस वजह से कम्प्यूटर इंडस्ट्री ने गणेशजी को सिलीकॉन वेली में मुख्य देवता माना।जापान में भगवान गणपतिजी के 250 मंदिर हैं। जापान में श्रीगणेश को 'कंजीटेन' के नाम से जाना जाता है। वे वहां सौभाग्य और खुशियां लाने वाले देवता हैं।थाईलैंड के ना मुआंग जिले में भगवान गणेश की करीब 128 फीट (39 मीटर) प्रतिमा है। भगवान के दर्शन करने दूर-दूर से लोग आते हैं। भारतीय संस्कृति में किसी देवो , देवियों की उपासना , विद्या अध्ययन , व्यापार और कार्यों के आरंभ के पूर्व विधायक , गणपति , गणेश की आराधना की जाती है । गणेश जी को गणपति बप्पा , गणपति , एकदंत , गजानन , लंबोदर , गणेश , गणपति ,सिध्दिदात्री , मंगलमूर्ति , शिव नंदन , पार्वती नंदन गणपति वप्पा मौर्या के नाम से पूजे जाते है । भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि को महाराष्ट्र में विशेष पूजा और पर्व मानते है वही समूर्ण देश गणपत्य सम्प्रदाय के लोग गणपति की पूजा करते है ।प्रत्येक वर्ष के माघ मास , फाल्गुन मास , वैशाख , जेष्ठ , आषाढ़ , सावन भाद्रपद , आश्विन अगहन , पौष का शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि को
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें