पुरणों और शास्त्रों में देवर्षि को नारद ब्रह्मांड और भू - लोक , विश्व में समन्वय कार्य और संबाद प्रेषण का प्रवर्तक की उल्लेख किया गया है । भगवान विष्णु के महान भक्त , ब्रह्मा जी का मानस पुत्र और भगवान शिव का प्रिय है । पुराणों के अनुसार ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को ब्रह्मा जी का मानस पुत्र नारद जी का जन्म हुआ है । ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करने के पश्चात सात मानस पुत्रों में नारद सबसे चंचल स्वभाववाले थे । ब्रह्मा जी ने नारद से सृष्टि के निर्माण में सहयोग करने के लिए विवाह करने की चर्चा के दौरान नारद ने अपने पिता ब्रह्मा जी को साफ मना कर दिया। भगवान ब्रह्मा ने क्रोधित होते हुए नारद जी को आजीवन अविवाहित रहने का श्राप दे दिया। नारद मुनि को श्राप देते हुए ब्रह्मा ने कहा नारद हमेशा अपनी जिम्मेदारियों से भागते हो अब पूरी जिंदगी इधर उधर भागते रहोगे। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहने के कारण ईश्वर का मन कहा गया है। युगों में, लोकों में, विद्याओं में, समाज के वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। देवताओं ने , दैत्यों , राक्षसों , आर्यो ,अनार्यों दानवों ने देवर्षि नारद जी को सदैव आदर तथा समय-समय पर सभ परामर्श लिया है।
श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के 26 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि देवर्षीणाम्चनारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार सृष्टि में भगवान विष्णु ने देवर्षि नारद के रूप में अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र का उपदेश देकर सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया है। वायुपुराण में उल्लेख किया गया है कि देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-, कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने सिद्धियों के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियोंसे घिरे हुए देवता, द्विज और देवर्षि नारद कहे जाते हैं। धर्म, पुलस्त्य, क्रतु, पुलह, प्रत्यूष, प्रभास और कश्यप के पुत्रों को देवर्षिका पद प्राप्त हुआ है । धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण, पुलह के पुत्र कर्दम, पुलस्त्यके पुत्र कुबेर, प्रत्यूषके पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए है । वायुपुराण मे उल्लेख किया गया है कि देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णत:घटित होते हैं। महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में उल्लेख है कि देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति महाविद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबलसे समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण प्रख्यात है। मत्स्यपुराण के अनुसार देवर्षि नारदजी का बृहत्कल्प-प्रसंग मे धर्म-आख्यायिकाओं को , 25,000 श्लोकों का महाग्रन्थ नारद महापुराण है। वर्तमान समय में उपलब्ध नारदपुराण 22,000 श्लोकों में नारदपुराण में 750 श्लोक ज्योतिषशास्त्र हैं। ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वागीण विवेचना की गई है। नारदसंहिता से उपलब्ध तथा अन्य ग्रन्थ में ज्योतिषशास्त्र के विषयों का सुविस्तृत वर्णन मिलता है। देवर्षि नारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के प्रधान आचार्य हैं। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारदजी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता हैं। देवर्षि नारद द्वारा भक और भगवान से जुड़ाव कराने के लिये सेतु का काम करते है । अथर्ववेद के अनुसार नारद ऋषि है ।।ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार हरिशचंद्र के पुरोहित सोमक, साहदेव्य के गुरु तथा आग्वष्टय एवं युधाश्रौष्ठि को अभिशप्त करने वाले नारद थे।मैत्रायणी संहिता में नारद के आचार्य हुए हैं। सामविधान ब्राह्मण में बृहस्पति के शिष्य के रूप में नारद है । छान्दोग्यपनिषद् में नारद सनत्कुमारों के साथ है। महाभारत में मोक्ष धर्म के नारायणी आख्यान में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा का विवरण के अनुसार देवर्षि नारद ने नर-नारायण ऋषियों की तपश्चर्या देखकर उनसे प्रश्न किया और बाद में उन्होंने नारद को पांचरात्र धर्म का श्रवण कराया। नारद पंचरात्र के वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें दस महाविद्याओं की कथा है। नारद पंचतंत्र के अनुसार हरी का भजन ही मुक्ति का परम कारण माना गया है।नारद पुराण के पूर्वखंड में 125 अघ्याय और उत्तरखण्ड में 182 अघ्याय हैं। स्मृतिकारों ने नारद का नाम सर्वप्रथम स्मृतिकार के रू प में माना है।नारद स्मृति में व्यवहार मातृका यानी अदालती कार्रवाई और सभा अर्थात न्यायालय सर्वोपरि माना गया है। स्मृति में ऋणाधान ऋण वापस प्राप्त करना, उपनिधि यानी जमानत, संभुय, समुत्थान यानी सहकारिता, दत्ताप्रदानिक यानी करार करके भी उसे नहीं मानने, अभ्युपेत्य-असुश्रुषा यानी सेवा अनुबंध को तोड़ना है। वेतनस्य अनपाकर्म यानी काम करवाके भी वेतन का भुगतान नहीं करना शामिल है। नारद स्मृति में अस्वामी विक्रय यानी बिना स्वामित्व के किसी चीज का विक्रय कर देने को दंडनीय अपराध माना है। विक्रिया संप्रदान यानी बेच कर सामान न देना भी अपराध की कोटि में है। इसके अतिरिक्त क्रितानुशय यानी खरीदकर भी सामान न लेना, समस्यानपाकर्म यानी निगम श्रेणी आदि के नियमों का भंग करना, सीमाबंद यानी सीमा का विवाद और स्त्रीपुंश योग यानी वैवाहिक संबंध के बारे में भी नियम-कायदों की चर्चा मिलती है। नारद स्मृति में दायभाग यानी पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकार और विभाजन की चर्चा भी मिलती है। इसमें साहस यानी बल प्रयोग द्वारा अपराधी को दंडित करने का विधान भी है। नारद स्मृति वाक्पारूष्य यानी मानहानि करने, गाली देने और दण्ड पारूष्य यानी चोट और क्षति पहुँचाने का वर्णन भी करती है। नारद स्मृति के प्रकीर्णक में विविध अपराधों और परिशिष्ट में चौर्य एवं दिव्य परिणाम का निरू पण किया गया है। देवर्षि नारद को वेदों के संदेशवाहक , देवताओं के संवाद वाहक और वीणा का आविष्कारक कहा गया है । ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार मेरू के बीस पर्वतों में नारद पर्वत है।मत्स्य पुराण के अनुसार वास्तुकला विशारद अठारह आचार्यो में नारद वही शक्ति देवियों में से एक शक्ति देवी नारदा है।रघुवंश के अनुसार लोहे के बाण को नाराच , जल के हाथी को नाराच , स्वर्णकार की तराजू अथवा कसौटी का नाराची है।मनुस्मृति के अनुसार ऋषि का नारायण नर के साथी थे। नारायण ने अपनी जंघा से उर्वशी को उत्पन्न किया था।
नारद मुनि निरंतर नारायण नारायण का मंत्र जपते रहते थे। राजा दक्ष की पत्नी आसक्ति ने 10 हज़ार पुत्रों को जन्म दिया था। नारद जी ने आसक्ति के पुत्रों को मोक्ष की राह पर चलना सीखा दिया था। दक्ष ने पंचजनी से विवाह किया और उन्होंने एक हजार पुत्रों को जन्म दिया। नारद जी ने दक्ष के पंचजनी के पुत्रों को मोह माया से दूर रहना सीखा दिया। नारद जी द्वारा आसक्ति के 10 हजार पुत्रों को मोक्ष और पंचजनी के एक हजार पुत्रों को माया की शिक्षा तथा दीक्षा दिए जाने के कारण नारद जी पर राजा दक्ष को बहुत क्रोध में नारद को हमेशा इधर-उधर भटकते रहने का शाप दिया ।ब्रह्मा जी की सभा में सभी देवता और गन्धर्व भगवान्नाम का संकीर्तन करने के लिये आये। गंधर्व के देव देवर्षि नारद जी अपनी स्त्रियों के साथ सभा में संकीर्तन में विनोद करते हुए देखकर ब्रह्मा जी द्वारा शुद्र के शाप के प्रभाव से नारद जी का जन्म एक शूद्रकुल में हुआ। नारद जी का शुद्र में जन्म लेने के बाद इनके पिता की मृत्यु हो गयी। नारद की माता दासी का कार्य करके नारद को भरण-पोषण करने लगी थी ।महात्मा आये और चातुर्मास्य बिताने के लिये नारद जी के जन्म भूमि पर ठहर गये। नारद जी बचपन से अत्यन्त सुशील थे। वे खेलकूद छोड़कर उन साधुओं के पास बैठे रहते थे और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा बड़े मन से करते थे। संत-सभा में भगवत्कथा तन्मय होकर सुना करते थे । नारद को संतों द्वारा अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिये दिया जाता था । नारद के मन मे साधुसेवा और सत्संग अमोघ फल प्रदान करने वाला विचार होता है। संतो के प्रभाव से नारद जी का हृदय पवित्र समस्त पाप मुक्त होने पर महात्माओं ने प्रसन्न होकर नारद जी को भगवन्नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया।
नारद जी वन में बैठकर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे,अचानक इनके हृदय में भगवान प्रकट हो गये और थोड़ी देर तक अपने दिव्यस्वरूप की झलक दिखाकर अन्तर्धान हो गये। भगवान का दोबारा दर्शन करने के लिये नारद जी के मन में परम व्याकुलता पैदा हो गयी।वे बार-बार अपने मन को समेटकर भगवान के ध्यान का प्रयास करने लगे,किन्तु सफल नहीं हुए। उसी समय आकाशवाणी हुई- ''हे नारद तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।'' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। ॐ विष्णवे नम: । का मंत्र दिया गस्य । ननारद जी ने कठिन तपस्या से देवर्षि पद प्राप्त किया । देवर्षि नारद भगवान विष्णु के अनन्य भक्त है। देवर्षि नारद समाचार के देवता , संबाद प्रेषण देव का निवास ब्रह्मलोक में पिता ब्रह्मा जी और माता सरस्वती है ।इनका अस्त्र और सस्त्र वीणा , भाई दक्ष और सनक , सनातन , सनत , कुमार वाहन मायावी बादल तथा ?मंत्र नारायण , नारायण है । देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सभी लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारद जी का सदा से एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर किया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - देवर्षीणाम् च नारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र (जिसे नारद-पांचरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है। नारद जी मुनियों के देवता थे और इस प्रकार, उन्हें ऋषिराज के नाम से भी जाना जाता था। वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले ऋषिगण देवर्षि नाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता, द्विज और देवर्षि नारद कहे जाते हैं। पुराण में उल्लेख है कि धर्म, पुलस्त्य, क्रतु, पुलह, प्रत्यूष, प्रभास और कश्यप - इनके पुत्रों को देवर्षि का पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण, पुलह के पुत्र कर्दम, पुलस्त्य के पुत्र कुबेर, प्रत्यूष के पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए, जनसाधारण देवर्षि के रूप में नारद जी को जानता है। देवर्षि नारद की प्रसिद्धि को नहीं मिली। वायुपुराण में देवर्षि नारदजी का उल्लेख हैं।
महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबल से समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। अट्ठारह महापुराणों में एक नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। मत्स्यपुराण में वर्णित है कि श्री नारद जी ने बृहत्कल्प-प्रसंग में जिन अनेक धर्म-आख्यायिकाओं को कहा है, २५,००० श्लोकों का वह महाग्रन्थ ही नारद महापुराण है। नारदपुराण २२,००० श्लोकों में नारदपुराण में लगभग ७५० श्लोक ज्योतिषशास्त्र पर हैं। ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वांगीण विवेचना की गई है। नारदसंहिता के नाम से उपलब्ध इनके एक अन्य ग्रन्थ में भी ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृत वर्णन है। देवर्षिनारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारद जी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता हैं। अथर्ववेद के अनुसार नारद नाम के एक ऋषि हुए हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार हरिशचंद्र के पुरोहित सोमक, साहदेव्य के गुरु तथा आग्वष्टय एवं युधाश्रौष्ठि को अभिशप्त करने वाले नारद थे। मैत्रायणी संहिता में नारद आचार्य , सामविधान ब्राह्मण में बृहस्पति के शिष्य , छान्दोग्यपनिषद् में सनत्कुमारों के मित्र , महाभारत में मोक्ष धर्म के नारायणी आख्यान में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा का विवरण है। महाभारत अनुसार नारद ने नर-नारायण ऋषियों की तपश्चर्या देखकर उनसे प्रश्न किया और बाद में उन्होंने नारद को पांचरात्र धर्म का श्रवण कराया।नारद पंचरात्र के नाम से एक प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ भी है जिसमें दस महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गई है। इस कथा के अनुसार हरी का भजन ही मुक्ति का परम कारण माना गया है। नारद पुराण के पूर्वखंड में 125 अघ्याय और उत्तरखण्ड में 182 अघ्याय हैं।स्मृतिकारों ने नारद का नाम सर्वप्रथम स्मृतिकार के रू प में माना है। नारद स्मृति में व्यवहार मातृका यानी अदालती कार्रवाई और सभा अर्थात न्यायालय सर्वोपरि माना गया है। स्मृति में ऋणाधान ऋण वापस प्राप्त करना, उपनिधि यानी जमानत, संभुय, समुत्थान यानी सहकारिता, दत्ताप्रदानिक यानी करार करके भी उसे नहीं मानने, अभ्युपेत्य-असुश्रुषा यानी सेवा अनुबंध को तोड़ना है। वेतनस्य अनपाकर्म यानी काम करवाके वेतन का भुगतान नहीं करना शामिल है। नारद स्मृति में अस्वामी विक्रय यानी बिना स्वामित्व के किसी चीज का विक्रय कर देने को दंडनीय अपराध माना है। विक्रिया संप्रदान यानी बेच कर सामान न देना भी अपराध की कोटि में है। इसके अतिरिक्त क्रितानुशय यानी खरीदकर भी सामान न लेना, समस्यानपाकर्म यानी निगम श्रेणी आदि के नियमों का भंग करना, सीमाबंद यानी सीमा का विवाद और स्त्रीपुंश योग यानी वैवाहिक संबंध के बारे में भी नियम-कायदों की चर्चा मिलती है। नारद स्मृति में दायभाग यानी पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकार और विभाजन की चर्चा भी मिलती है। इसमें साहस यानी बल प्रयोग द्वारा अपराधी को दंडित करने का विधान भी है। नारद स्मृति वाक्पारूष्य यानी मानहानि करने, गाली देने और दण्ड पारूष्य यानी चोट और क्षति पहुँचाने का वर्णन भी करती है। नारद स्मृति के प्रकीर्णक में विविध अपराधों और परिशिष्ट में चौर्य एवं दिव्य परिणाम का निरू पण किया गया है। नारद स्मृति की इन व्यवस्थाओं पर मनु स्मृति का पूर्ण प्रभाव दिखाई देता है। श्रीमद्भागवत और वायुपुराण के अनुसार देवर्षि नारद का नाम दिव्य ऋषि के रू प में भी वर्णित है। ये ब्रह्मधा के मानस पुत्र थे। नारद का जन्म ब्रह्मधा की जंघा से हुआ था। इन्हें वेदों के संदेशवाहक के रू प में और देवताओं के संवाद वाहक के रू प में भी चित्रित किया गया है। नारद देवताओं और मनुष्यों में कलह के बीज बोने से कलिप्रिय अथवा कलहप्रिय कहलाते हैं। मान्यता के अनुसार वीणा का आविष्कार भी नारद ने ही किया था।ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार मेरू के चारों ओर स्थित बीस पर्वतों में से एक का नाम नारद है।मत्स्य पुराण के अनुसार वास्तुकला विशारद अठारह आचार्यो में से एक का नाम भी नारद है। चार शक्ति देवियों में से एक शक्ति देवी का नाम नारदा है।रघुवंश के अनुसार लोहे के बाण को नाराच कहते हैं। जल के हाथी को भी नाराच कहा जाता है। स्वर्णकार की तराजू अथवा कसौटी का नाम नाराचिका अथवा नाराची है।मनुस्मृति के अनुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम नारायण है जो नर के साथी थे। नारायण ने ही अपनी जंघा से उर्वशी को उत्पन्न किया था। विष्णु के एक विशेषण के रू प में भी नारायण शब्द का प्रयोग किया जाता है। देवर्षि नारद ब्रह्मांड , लोको , त्रिभुवनो , मानव की प्रवृत्तियों में समन्वय स्थापित करने की ओर प्रेरित करते है । मानवीय मूल्यों में चेतना जागृत और समाधान कराने का मूल देवर्षि नारद है । सत्य की कसौटी पर , भक्ति , समन्वय स्थापित करने , संबाद , कूटनीति और ज्योतिष , संगीत के प्रवर्तक देवर्षि नारद जी है । देवर्षि नारद का मंदिर उत्तरप्रदेश के गोरखपुर के गीत वटिका में , मथुरा वृन्दावन गोवर्धन मार्ग का छतरपुर में देवर्षि नारद जी द्वारा दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पत्नी कयादू के गर्भ में पल रहे भक्तराज प्रहलाद को भक्ति की शिक्षा दिया गया और भक्त ध्रुव को शिक्षा प्रदान किया गया था वह स्थल छतरपुर में , राजस्थान का पुष्कर , प्रयाग ,पुलु , भिंड जिले के रुचि , पुना में नारद मंदिर और बद्रीनाथ में नारद कुंड है ।
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