भारतीय संस्कृति और सभ्यता में मौन का उल्लेख किया गया है । मौन मानसिक , शारीरिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान और समृद्धि के विकास का मूल मंत्र तथा यंत्र है ।वैदिक तथा शास्त्रों में इंसान को मौन को प्रति वर्ष अमावस्या को धारण करना चाहिये जिसे मौनी अमावस्या कहा गया है ।शास्त्रों में उल्लेख है कि इंसान को भोजन करने के समय , जल ग्रहण करने , शौचादि क्रिया करने , मंदिरों , देव मूर्तियों , उपासना , योग , स्नान करने , महायात्रा और श्मशान के समय मौन रहना चाहिये । प्रत्येक सप्ताह के सोमवार , तिथि में अमावस्या , या पूर्णिमा को मौन ब्रत वर्ष का मौनी अमावस्या के दिन रखना चाहिये । मौन ब्रत से मानसिक तनाव दूर , शारिरिक विकास , स्मरण शक्ति का विकास होता है । प्रत्येक वर्ष का माघ मास की अमावस्या जिसे मौनी अमावस्या योग पर आधारित महाव्रत है। शास्त्रों के अनुसार अमावस्या का दिन पवित्र संगम में देवताओं का निवास होने के कारण गंगा स्नान का विशेष महत्व है। माघ मास को कार्तिक के समान पुण्य मास कहा गया है। सागर मंथन से भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए उस समय देवताओं एवं असुरों में अमृत कलश के लिए खींचा-तान से अमृत की कुछ बूंदें छलक कर इलाहाबाद , हरिद्वार , नासिक और उज्जैन में सोमवार के दिन पतन होने के कारण महत्व कई गुणा बढ़ जाता है। सोमवार और महाकुम्भ लगाने पर तब कुम्भ का महत्व अनन्त गुणा हो जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि सत युग में पुण्य तप से , त्रेता में ज्ञान से, द्वापर में हरि भक्ति से और कलियुग में दान से, माघ मास में संगम स्नान हर युग में अन्नंत पुण्यदायी होगा। इस तिथि को पवित्र नदियों में स्नान के पश्चात अपने सामर्थ के अनुसार अन्न, वस्त्र, धन, गौ, भूमि, तथा स्वर्ण जो भी आपकी इच्छा हो दान देना चाहिए। इस दिन तिल दान भी उत्तम कहा गया है। इस तिथि को मौनी अमावस्या के नाम से जाना जाता है । शास्त्रों में वर्णित है कि होंठों से ईश्वर का जाप करने से जितना पुण्य मिलता है, उससे कई गुणा अधिक पुण्य मन का मनका फेरकर हरि का नाम लेने से मिलता है। भगवान विष्णु और शिव जी दोनों की पूजा का विधान है। वास्तव में शिव और विष्णु दोनों एक ही हैं जो भक्तो के कल्याण हेतु दो स्वरूप धारण करते हैं इस बात का उल्लेख स्वयं भगवान कृष्ण ने किया है। मौनी अमावस्या के दिन पीपल में आर्घ्य देकर परिक्रमा करें और दीप दान कर मीठा भोजन करे । विष्णु जी की रोज़ाना की तरह पूजा कर तुलसी की 108 बार परिक्रमा लें ।पूजा के बाद दान दें. अन्न, वस्त्र या धन को दान में दें । सुबह स्नान से ही मौन रहें । इस मंत्र का जाप करते रहें ।गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति। नर्मदे सिन्धु कावेरि जलऽस्मिन्सन्निधिं कुरु।। मानसिक शांति के लिए माघ महीने की अमावस्या के दिन मौन रहा जाता है । पौराणिक कथा के अनुसार कांचीपुरी में एक ब्राह्मण अपनी पत्नी धनवती और सात पुत्रों-एक पुत्री के साथ रहता था. पुत्री का नाम गुणवती था. ब्राह्मण ने अपने सभी पुत्रो की शादी के बाद अपनी पुत्री का वर ढूंढना चाहा. ब्राह्मण ने पुत्री की कुंडली पंडित को दिखाई. कुंडली देख पंडित बोला कि पुत्री के जीवन में बैधव्य दोष है. यानी वो विधवा हो जाएगी. पंडित ने वैधव्य दोष के निवारण के लिए एक उपाय बताया ।उन्होंने बताया कि कन्या अलग सोमा (धोबिन) का पूजन करने से दोष दूर हो जाएगी । गुणवती को सोमा को अपनी सेवा से खुश करना होगा । ये उपाय जान ब्राह्मण ने अपने छोटे पुत्र और पुत्री को सोमा को लेने भेजा. सोमा सागर पार सिंहल द्वीप पर रहती थी. छोटा पुत्र सागर पार करने की चिंता में एक पेड़ की छाया के नीचे बैठ गया. उस पेड़ पर गिद्ध का परिवार रहता था. शाम होते ही गिद्ध के बच्चों की मां अपने घोसले में वापस आई तो उसे पता चला कि उसके गिद्ध बच्चों ने भोजन नहीं किया ।गिद्ध के बच्चे अपनी मां से बोले की पेड़ के नीचे दो प्राणी सुबह से भूखे-प्यासे बैठे हैं. जब तक वो कुछ नहीं खा लेते, तब तक हम भी कुछ नहीं खाएंगे. ये बात सुन गिद्धों की मां उस दो प्राणियों के पास गई और बोली - मैं आपकी इच्छा को जान गई हूं. मैं आपको सुबह सागर पार करा दूंगी. लेकिन उससे पहले कुछ खा लीजिए, मैं आपके लिए भोजन लाती हूं ।दोनों भाई-बहन को अगले दिन सुबह गिद्ध ने सागर पार कराया. दोनों सोमा के घर पहुंचे और बिना कुछ बताए उसकी सेवा करने लगे. उसका घर लीपने लगे. सोमा ने एक दिन अपनी बहुओं से पूछा, कि हमारे घर को रोज़ाना सुबह कौन लीपता है? सबने कहा कि कोई नहीं हम ही घर लीपते-पोतते हैं. लेकिन सोमा को अपने परिवार वालों की बातों का भरोसा नही हुआ । एक रात को इस रहस्य को जानने के लिए सुबह तक जागी और उसने पता लगा लिया कि ये भाई-बहन उसके घर को लीपते हैं. सोमा ने दोनों से बात की और दोनों ने सोमा को बहन के दोष और निवारण की बात बताई. सोमा ने गुणवती को उस दोष से निवारण का वचन दे दिया, लेकिन गुणवती के भाई ने उन्हें घर आने का आग्रह किया. सोमा ने ना नहीं किया वो दोनों के साथ ब्राह्मण के घर पहुंची ।सोमा ने अपनी बहुओं से कहा कि उसकी अनुपस्थिति में यदि किसी देहांत हो जाए तो उसके शरीर को नष्ट ना करें, मेरा इंतज़ार करें. ये बोलकर वो गुणवती के साथ उसके घर चई गई. गुणवती के विवाह का कार्यक्रम तय हुआ. लेकिन सप्तपदी होते ही उसका पति मर गया. सोमा ने तुरंत अपने पुण्यों का फल गुणवती को दिया । उसका पति तुरंत जीवित हो गया. सोमा ने दोनों को आशार्वाद देकर चली गई. गुणवती को पुण्य-फल देने से सोमा के पुत्र, जमाता और पति की मृत्यु हो गई । सोमा ने पुण्य फल को संचित करने के लिए रास्ते में पीपल की छाया में विष्णुजी का पूजन करके 108 परिक्रमाएं की और व्रत रखा. परिक्रमा पूर्ण होते ही उसके परिवार के मृतक जन जीवित हो उठे. निष्काम भाव से सेवा का फल उसे मिला है ।
भर्तृहरि ने ‘नीतिशतक’ के अनुसार ‘‘मौनं मूर्खस्य भूषणम्’’। मौन मूर्ख का आभूषण है, अर्थात् मौन वह आच्छादन है जिससे मूर्ख अपनी मूर्खता को ढंके रख सकता है, ऐसी मूर्खता को, वाणी के जरिए कभी प्रकट होकर उसे सभा में हास्यास्पद बना सकती है। मौन का यह रक्षात्मक उपयोग मौन की महिमा को पूरी तरह से व्यंजित नहीं करता। मौन साधकों की साधना और योगियों का योग है । किसी इमारत का कंगूरा इठलाता, इतराता अपनी शोभा का जयगान भले कर ले, वह टिका हुआ जिस नींव की ईंट पर है, वह मौन रहते हुए कंगूरे समेत पूरी इमारत का बोझ उठाए रहती है,। ‘मौन’ मात्र श्रद्धांजलि-स्वरूप रखे जाने वाले ‘दो मिनिट के मौन’ के रूप में ही पहचाना जा रहा है। ऐसी परिस्थिति जब ध्वनि-प्रदूषण अपने सुरक्षित मानदंडों को पर कर सहनशीलता की सीमा को भी लांघने लगा है, तब मौन और अधिक महत्त्वपूर्ण हाकर उभरा है । मौन मन और आत्मा की युग में सर्वाधिक उपेक्षित हैं ।
पेड़ बिना बोले अपनी टहनियों से, पत्तियों से हवा के चलने की दिशा के साथ-साथ बासंती हवा की मस्ती, पतझड़ की शुष्कता और बारिश की स्निग्धता हमें संप्रेषित कर देते हैं। फूल बिना बोले अपने शोख रंगों और खुशबू से हमें आकर्षित करते हैं। हिरण, गाय, गिलहरी जैसे बेजुबान जानवर भी बिना बोले भी अपने भाव अभिव्यक्त कर सकते हैं; यह जानने के लिए महादेवी वर्मा के जैसा संवेदनशील हृदय चाहिए एवं सीता और शकुंतला की तरह उनसे साहचर्य-जन्य लगाव। प्रकृति का कण-कण अपनी मूक भाषा में अपनी कहानी सुना सकता है ।बशर्ते कि हम इस कोलाहलपूर्ण जगत् में उसके मौन को समझने की संवेदनशीलता अर्जित करें। शाब्दिक अभिव्यक्ति मनुष्य की अर्जित क्षमता है, किन्तु मौन की भाषा उसकी प्राकृतिक अभिव्यक्ति। कहा भी गया है कि ईश्वर मौन प्रार्थनाएं सबसे पहले सुनता है ।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार ‘हे सागर तेरी भाषा क्या है ?’ ‘अनन्त प्रश्न की भाषा’ ‘हे आकाश, तेरे उत्तर की भाषा क्या है ?’ ‘अनन्त मौन की भाषा।’जिस प्रकार सागर द्वारा गरज-गरज कर पूछे गये अनन्त प्रश्नों का समाधान आकाश अपने एकमात्र अस्त्र - ‘मौन’ से कर देता है, उसी प्रकार मौन अनेक मर्जों की एकमात्र दवा है। भगवान बुद्ध से जब उनके शिष्य आनन्द ने पूछा कि भगवन्! जगत् क्या है ? आत्मा क्या है ? ईश्वर क्या है ? तो भगवान बुद्ध का मौन ही इन प्रश्नों का मौन था। सृष्टि के मूल तत्त्व, आत्मा और ईश्वर से संबंधित जिन प्रश्नों पर हजारों वर्षों के वाद-विवाद के बाद भी भारतीय दार्शनिक ‘नेति, नेति’ कहने को बाध्य हुए और पाश्चात्य दार्शनिक ह्यूम अज्ञेयवाद और संदेहवाद के भंवर में जा फंसे, उस समस्या का कितना आसान समाधान भगवान बुद्ध के एक मौन ने कर दिया ! संत कबीर ने परब्रह्म की सत्ता को अव्याख्येय मानते हुए समाधि के सुख को ‘गूंगे का गुड़’ अर्थात् ‘मौन’ से अभिव्यक्त किया -‘पारब्रह्म के तेज का कैसा है उनमान, कबिे को सोभा नहीं, देख्यां ही परमान’’ । तुलसीदास जी ने ‘गिरा अनयन, नयन बिनु बानी’ कहकर भाषिक अभिव्यक्ति की सीमा बतलाई है। जहां पहुंच कर भाषिक अभिव्यक्ति लाचार हो जाती है, वहां मौन की महिमा आरंभ होती है। महात्मा गांधी से जब उनका संदेश पूछा गया तो उन्होंने लम्बे-चौड़े भाषण के बजाए एक वाक्य कहा - ‘‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’’। यह मौन की महिमा ही है कि उनके मौन आचरण से दुनिया ने समझ लिया कि गांधी जी क्या कहना चाहते हैं ? गांधी जी जब नमक कानून दांडी यात्रा पर निकले तो देशी-विदेशी मीडिया समेत सरकारी हलके में भी इसका उपहास हुआ कि एक मुठ्ठी नमक से क्या होना है ? मगर दांडी के समुद्र तट पर बापू द्वारा उठाये गये एक मुठ्ठी नमक ने विदेशी सरकार की नींव हिला दी; यह भी मौन की महिमा थी। यहां ‘मौन’ से तात्पर्य केवल गांधी जी के मौन-व्रत या मितभाषण नहीं है, बल्कि पूरे भारत-राष्ट्र के व्यापक मौन से है, जिसने ‘नमक कानून’ को तोड़कर विदेशी पराधीनता से मुक्ति पाने की अपनी आकांक्षा को अभिव्यक्ति दी। रहीम के अनुसार ‘‘रहिमन चुप व्है बैठिये देखि दिनन का फेर। जब नीके दिन आइहें बनत न लागिहें देर।।’’ विपरीत परिस्थिति में लाचार होकर चुप होकर बैठ जाना ‘मौन’ नहीं है। ‘चुप’ केवल वाणी का निरोध है, किन्तु ‘मौन’ केवल वाणी का निरोध नहीं है; यह मन की समस्त वृत्तियों का अनुशासन है। कहा गया है - ‘‘योगश्चित्तवृत्ति-निरोधः’’। अतः ‘मौन’ भी एक योग है। कौरव-राजसभा में द्रौपदी के चीर-हरण के समय भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र का किंकर्तव्य-विमूढ़ होना ‘चुप’ है, कायरता है, ‘मौन’ नहीं। दीपक को अंधकार से लड़ने के लिए किसी भाषणबाजी की जरूरत नहीं है। उसका जलना ही अपने आप में पर्याप्त है। इस आत्म-बलिदान का गुणगान दीपक को स्वयं नहीं करना पड़ता, उसकी रोशनी में राह देखने वाले पथिक अपनी मंज़िल पर पहुंच जाएं, यही उसकी सफलता है और सार्थकता भी। पथिकों की लक्ष्य-प्राप्ति स्वयं दिये का यशोगान है।
कालिदास ने अपनी किसी कृति में अपने मूल नाम, अपने जन्म-स्थान या जीवन के बारे में बिलकुल मौन हैं। इन्होंने अपनी पहचान और स्थिति का कोई चिह्न नहीं छोड़ा, किन्तु ‘मेघदूत’, ‘रघुवंश’, ‘कुमारसंभव’ और ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ का रचयिता अपने नाम या जन्म-स्थान से नहीं, अपनी कृतियों से पहचाना गया; पहचाना ही नहीं गया, अमर हो
गीता में मानस तप के प्रकरण के अनुसार मौनमात्म विनिग्रहः, भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसः उच्यते।’ मन को शुद्ध करने के लिए मानसिक आवश्यकता है। मानसिक तप का प्रधान अंग मौनव्रत है। देवर्षि नारद ने प. उप. में इसी ब्रह्मनिष्ठा के प्रकरण में कहा है ‘न कुर्यात् वदेत्किंचित्’ अर्थात् ब्रह्म-विकासी को मौन व्रत करना आवश्यक है। उपनिषदों में ‘अवाकी’ शब्द मौनव्रत को प्रकाश देता है? धर्मशास्त्र में कर्मांग में भी मौनव्रत बताया है। ‘उच्चारे जप काले च षट्सुमौनं समाचरेत’। जपकाल, भोजनकाल, स्नान, शौचकर्म में मौन रहना चाहिए। आचार प्रकरण में कहा गया है ----‘यावदुष्णं भवेदन्नं या वदश्नन्ति वाग्यतः , पितरस्नाव दस्मिनियावन्नोक्ताः हविर्गुणाः।’ भोजन करते समय जब तक मौनपूर्वक भोजन करो, वह भोजन देवता पितरों को पहुँचता है। गीता में कहा गया है ---‘वाचोवेगं मनसः क्रोध वेगं.... एतान् वेगान् योसहमे।’ वाणी के, मन के, इन्द्रियों के वेग को रोकता है वह ऋषि और ब्राह्मण है। चरक ऋषि ने विमानस्थान में आरोग्य की शिक्षा में कहा है कि ‘काले हितमितवादी’। वटु तरोः मूले वृद्धा शिष्याः गुरुर्युवा । गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्न संशयः’ कहते हैं कि एक वट वृक्ष के नीचे आश्चर्यप्रद बात देखी, जहाँ वृद्ध-वृद्ध पुरुष शिष्य थे और युवा गुरु था। गुरु ने मौनव्रत कर दिखाके सारे संशय दूर कर दिये। अर्थात् मौनव्रत से मनोबल होकर ब्राह्मी स्थिति हो जाती है। सब प्रकार के कलह शाँति के लिए मौनव्रत परमौषधि है- ‘मौनेन कलहोनास्ति।’ मौनव्रत वाले को कलह से भय नहीं रहता है। मौन न रखने से पहला दोष शास्त्र दृष्टि का यह है कि असत्य के आभास रूप संसार की सत्यवत् बात करना जो पाप है क्योंकि यह संसार परिणाम संधात, नहीं है, यह विवृत है। योन्यथा सन्नमात्मा न अन्यथा प्रणिपत्तये , किं तेन नत्कर्श पापं चौरेणात्मपहारिणा।’ संसार को सभ्य व्यवहार करना ही आत्मा का अन्यथा ज्ञान है। देह, वृद्धि, दृश्य को सत्य कहना यही अन्यथावाद है।शास्त्र कहता है कि अपनी वाणी से संसार को सत्य कहा, आत्मा को उल्टा ज्ञान बताया वह चोर पापी है। इस पाप से बचने को भी मौनव्रत उपकारक है। चातुर्मास्य व्रतों में मौनव्रत की प्रतिष्ठा मानी गयी है। माधवाचार्य ने शंकर दिग्विजय लिखने के आरंभ में कह दिया। ‘वन्ध्यासूनु खरी विषाण सदृश क्षुद्र क्षितीन्द्र क्षमा मद्वाणि मधिपा संयामि यस्मिन् त्रैलोक्य रंगस्थली’ अर्थात् मैंने राजाओं की झूठी प्रशंसा करने से जो अपनी जिह्वा पर पाप लगा दिया है उसकी शुद्धि करने के निमित्त आज भगवान शंकराचार्य के सच्चे वर्णन को कहता हूँ। इससे भी संसार की झूठी बातों से पाप बताया। उसका उपाय भी मौनव्रत है।उपनिषद्- ‘यद्वाचा नाभ्युदिते।’ ब्रह्म वह है जो वाणी से नहीं कहा जाता। तब अब्रह्म शब्दों को रोकने के लिए मौनव्रत है।‘मुनिमौन परो भवेत्’ मौनव्रत में ही मुनि की प्रतिष्ठा है। वाणी तेज का विषय है, तेज ही रवि अर्थात् प्राण है। इसके क्षरण न करने से तेजोमात्रा संचित होकर तेजस्वी दीर्घायु होता है। इन्द्रियों से तेजोमात्रा का क्षरण होता है। उनके निग्रह से एक महान शक्ति का संचय हो जाता है। गाँधारी के नेत्रों के द्वारा जो तेजीमात्रा क्षरित होती थी उसका संयमन करके उसने अपने पुत्र दुर्योधन का शरीर अच्छेद्य, अभेद, वज्रमय बना दिया था, इसी तरह वाणी का संयमन जो मौनव्रत है, उसके प्रभाव से वाणी में शक्ति आ जाती थी। द्रोणाचार्य ने ‘उभयोरपि सामर्थ्य शापादपि शरादपि’ इसको चरितार्थ किया।जिसने मौनव्रत धारण कर वाणी के वेग का संयमन कर लिया वह वाणी से कदाचित शाप या अनुग्रह करना चाहे तो कर सकता है। उसकी वाणी इतनी बलवती और सफला हो जाती है वह जो कहता है, चाहे शाप या अनुग्रह दोनों कर सकता है।
मौनव्रत कम प्रातःकाल में जब तक शौचाचार, भजन होता है तब तक अर्थात् ८-९ बजे तक मौनपूर्वक अपने आपको रखना सीखिए। भोजनादि तथा ऊपर वर्णित कार्यकाल में मौनव्रत रखिए। महीने में किसी एक या दो पुण्य दिन निश्चित कर लीजिए, जैसे- एकादशी या पूर्णिमा या रविवार। इन सब या इनमें से किसी दिन भी मौनव्रत रखिए। इस प्रकार मौनव्रत का अभ्यास पड़ जाने से आप में स्वतः विद्या का प्रकाश और आत्मानुसंधान होने लगेगा और आप मौनव्रत के महात्म्य को स्वयं अनुभव कर लेंगेमौनव्रत महान पुण्यदायी पापहारि है। इससे मनोबल का संचार होने लगे जायेगा। पर गूँगा रहना मौनव्रत नहीं है। मौनव्रती को मिताहारी, प्रणवजापी होना चाहिए। ऐसा जप करें कि अर्द्धमात्रा का अनुभव हो जाए, जिससे निर्वाण कला की जागृति हो।मौन व्रत भारतीय संस्कृति में सत्य व्रत, सदाचार व्रत, संयम व्रत, अस्तेय व्रत, एकादशी व्रत व प्रदोष व्रत आदि बहुत से व्रत हैं, परंतु मौनव्रत अपने आप में एक अनूठा व्रत है। इस व्रत का प्रभाव दीर्घगामी होता है। इस व्रत का पालन समयानुसार किसी भी दिन, तिथि व क्षण से किया जा सकता है। अपनी इच्छाओं व समय की मर्यादाओं के अंदर व उनसे बंधकर किया जा सकता है। यह कष्टसाध्य अवश्य है, क्योंकि आज के इस युग में मनुष्य इतना वाचाल हो गया है कि बिना बोले रह ही नहीं सकता। उल्टा-सीधा, सत्य-असत्य वाचन करता ही रहता है। यदि कष्ट सहकर मौनव्रत का पालन किया जाए तो क्या नहीं प्राप्त कर सकता? अर्थात् सब कुछ पा सकता है। कहा भी गया है- ‘कष्ट से सब कुछ मिले, बिन कष्ट कुछ मिलता नहीं। समुद्र में कूदे बिना, मोती कभी मिलता नही।।’ जैसे- जप से तन की, विचार से मन की, दान से धन की तथा तप से इंद्रियों की शुद्धि होती है। सत्य से वाणी की शुद्धि होनी-शास्त्रों तथा ऋषियों द्वारा प्रतिपादित है, परंतु मौन व्रत से तन, मन, इंद्रियों तथा वाणी-सभी की शुद्धि बहुत शीघ्र होती है। यह एक विलक्षण रहस्य है।
व्रत से तात्पर्य है- कुछ करने या कुछ न करने का दृढ़ संकल्प। लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति दृढ़ संकल्प से ही होती है। यह संसार भी सत्य स्वरूप भगवान के संकल्प से ही प्रकट हुआ है। मौन-व्रत से मनुष्य मस्तिष्क या मन में जो संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, उन पर नियंत्रण होता है। यदि संकल्प-विकल्प भगवन्निष्ठ हों तो सार्थक होता है, परंतु सदैव ऐसा नहीं होता। भगवान की माया शक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव है- यह जगत्। मनुष्य इस संसार की महानतम भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए ही नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करता रहता है। फलतः मन की चंचलता निरंतर बनी रहती है। जितने क्षण मन कामना (संकल्प-विकल्प)- शून्य हो जाता है उतने क्षण ही योग की अवस्था रहती है। मौन-व्रत द्वारा निश्चित रूप से मन को स्थिर किया जा सकता है। ऋणात्मक ऊर्जा को धनात्मक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। मौन-व्रत रखने से भौतिक कामनाओं से मुक्ति के साथ-साथ परस्पर अनावश्यक वाद-विवाद से भी बचा जा सकता है। राग और द्वेष पर तो विजय मिल ही जाती है। जितने समय तक साधक मौन-व्रत रखता है, उतने काल तक असत्य बोलने से मुक्त रहता है। साथ ही मन तथा इंद्रियों पर संयम रहने से साधन-भजन में सफलता मिलती है। भजन में एकाग्रता एवं भाव का अधिक महत्व है। भाव सिद्ध होने पर क्रिया गौण तथा भाव प्रधान हो जाता है। मौन-व्रत से आत्मबल में बहुत अधिक वृद्धि होती है। संसार में अनेक प्रकार के बल हैं यथा-शारीरिक, आर्थिक, सौंदर्य, विद्या तथा पद (सत्ता) का बल। लौकिक दृष्टि से उपर्युक्त सभी प्रकार के बल अपना महत्व रखते हैं, परंतु आत्म बल इन सभी बलों में सर्वोपरि है। अभौतिक और जागतिक सभी प्रकार की उन्नति के लिए आत्म बल की परम आवश्यकता होती है। मौन-व्रत से आत्म बल में निरंतर वृद्धि होती है। मनुष्य सत्य वस्तु की ओर बढ़ता हैं भगवान् सत्यस्वरूप हैं और उनका विधान भी सत्य है। शरीर, धन, रूप, विद्या तथा सत्ता का बल मनुष्य को मदांध कर देता है। इनमें से एक भी बल हो तो मनुष्य दूसरे लोगों के साथ अनीतिमय व्यवहार करने लगता है। जरा सोचें, जिनके पास ये पांचों बल हों उसकी गति क्या होगी! मौन-व्रत ही ऐसा साधन है जिससे व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है। मौन व्रत के पालन से वाणी की कर्कशता दूर होती है, मृदु भाषा का उद्गम बनता है। अंतरात्मा में सुख की वृद्धि होती है फिर विषय का त्याग करता हुआ जीवन के अद्वितीय रस भगवद् रस को प्राप्त करने लगता है। साधक को मौन-व्रत के पालन में अंदर तथा बाहर से चुप होकर निष्ठापूर्वक एकांत में रहकर भगवान नाम-जप करना चाहिए। ऐसा करने से ही आत्म बल में वृद्धि तथा नाम-जप में कई गुना सिद्धि प्राप्त होती है। प्रत्येक साधक को दिन में एक घंटे, सप्ताह में एक दिन एकांत वास कर मौन-व्रत धारण कर भगवद्भजन करना चाहिए। यह बड़ा ही श्रेयष्कर साधन है। यूं भी साधक को नियमित जीवन में उतना ही बोलना चाहिए जितना आवश्यक हो। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। निरंतर निष्ठा पूर्वक भगवन्नाम जप से वाकसिद्धि हो जाती है। मौन-व्रत का पालन बहुत सावधानी पूर्वक करना चाहिए। प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनि मौन-व्रत तथा सत्य भाषण के कारण ही वाक्सिद्ध थे। यदि हमारी इंद्रियां तथा मन चलायमान रहें तो मौन-व्रत पालन करना छलावा मात्र ही रहेगा। मूल रूप से वाणी संयम तो आवश्यक है ही, किंतु उससे भी अधिक आवश्यक है चित्तवृत्तियों का संयम। चित्तवृत्तियों का संयम ही वास्तव में मुख्य मौन-व्रत है । यह साधनावस्था की उच्चभूमि है जहां पहुंचकर ब्रह्मानंद, परमानंद, आत्मानंद की स्वतः अनुभूति होने लगती है। अतः धीरे-धीरे वाक् संयम का अभ्यास करते हुए मौन व्रत की मर्यादा में प्रतिष्ठित होने का प्रयत्न करना चाहिए। मनुष्य के शरीर में कुदरत की अजब कारीगरी समाई हुई है। योगशास्त्र कहता है कि जो मनुष्य शरीर रूपी पिंड को बराबर जानता है उस मनुष्य को समष्टी रूप ब्रह्माण्ड जानना कुछ मुश्किल नहीं है ।शरीर में चार वाणी हैं। जैसे कि:- परावाणी नाभि में, पश्यन्तिवाणी छाती में, मध्यमावाणी कण्ठ , और वैखरी वाणी मुँह में है। शब्द की उत्पत्ति परावाणी में होती हैं परन्तु जब शब्द स्थूल रूप धारण करता है, तब मुँह में रही हुई वैखरी वाणी द्वारा बाहर निकलता है । वाणी से और मन से। वाणी को वश में रखना, कम बोलना, नहीं बोलना, जरूरत के अनुसार शब्दोच्चार करना आदि वाणी के मौन कहे जाते हैं। मन को स्थिर करना, मन में बुरे विचार नहीं लाना, अनात्म विचारों को हटा कर आत्म (अध्यात्म) विचार करना, बाह्य सुख की इच्छा से मुक्त होकर अंतर सुख में मस्त होना, और मन को आत्मा के वश रखना वगैरह मन का मौनव्रत कहलाता है ।मौन व्रतधारी व्यक्तियों को मुनि के नाम से सम्बोधन करते हैं---मुनेर्भावं मौनम्। मौन व्रतधारियों में महान् शक्ति होती है, यह बात सत्य है। उदाहरण---- देखिये कि जब ज्यादा प्रमाण में बोलने में आता है, तब गले की आवाज बैठ जाती है, प्यास अधिक लगती है, कण्ठ सूखता है, छाती में दर्द होता है, और बेचैनी सी मालूम पड़ती है, अर्थात् सख्त मेहनत करने वाले मजदूर वर्ग से भी अधिक परिश्रम बोलने में पड़ता है। इसलिये जितने प्रमाण में बोला जाय उतने ही प्रमाण में शरीर की शक्ति व्यय होती है। हमेशा के व्यवहार में आवश्यकतानुसार ही वाणी का उपयोग किया जावे, तो भी बहुत सी शक्ति का अपव्यय बचेगा।दुनिया में महान् व्यक्ति होने के लिये कुदरत के कुछ नियम पालने पड़ते हैं। उन नियमों में ‘वाणी स्वातंत्र्य’ भी एक नियम है किन्तु वर्तमान समय की संसार व्यापी अव्यवस्था के कारण साधारण जीवन बिताने के लिये भी बहुत बोलना पड़ता है। लोगों को इसमें कमी करने के लिये निम्न नियमों का पालन करना चाहिये। कोई कोई स्त्री पुरुषों को ऐसी आदत होती है कि बिना कारण ही बोला करते हैं उन्हें बोलने का प्रमाण कम करना चाहिये। बिना कारण (हँसी, दिल्लगी या दूसरे किसी के साथ) बोलने की इच्छा हो तब दोनों नासिका द्वारा श्वास खींच कर छाती के फेफड़ों में भर रखना और धीरे धीरे निकाल देना, भरते समय ईश्वर का ध्यान या अपने धर्म गुरु के बताये हुए मन्त्र का जाप करना। पखवाड़े भर में एक दिन सुबह या शाम को पौन घण्टे मौन धारण करना। उस समय “मेरा मन पवित्र होता जाता है” “मेरी जिन्दगी सुधरती जाती है” “व्यवहार या परमार्थ के लिये जो भी शुभकार्य करता हूँ वे सब कर्म लाभकारक होते हैं” । ज्यादा समय मिल सकता हो तो अठवारे में एक वक्त या ४ दिन में एक वक्त ३ से ६ घण्टे मौन रहना चाहिय ।मौन धारण करते समय दूध या फलों पर रहना। हो सके तो बगीचे आदि रम्य स्थान में घूमने जाना। वायु प्रधान शरीर वाले को अधिक बोलने की आदत होती है, वास्ते उनके पेट में से और सिर में से वायु दोष निवारण करने के लिये रोज सबेरे ताँबे के लोटे में रक्खा हुआ पानी १२ या १४ ओंस पी जाना, पानी पीकर आधे घण्टे बाद सण्डास (मल विसर्जन करने) जाना चाहिये। मौन से अन्तरशक्ति बढ़ती है । अन्तःकरण, मन, बुद्धि, चित्त अहंकार में रहे हुए छह रिपु (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) का नाश होता है, सुख और दुःख के समय सौम्य दृष्टि व संतोषवृत्ति उत्पन्न होती है, ज्ञानेन्द्रियों की स्थिरता जाती रहती है, नाभि में रही हुई परावाणी में से शब्द गुप्त रूप से प्रकट होते हैं ।
गीता में मानस तप के प्रकरण में एक सूत्र वाक्य आया है, वह है ‘मौनमात्म विनिग्रहः, भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसः उच्यते।’ अर्थात मन को शुद्ध करने के लिए मानसिक तप की आवश्यकता होती है। मानसिक तप का प्रधान अंग मौनव्रत है। नारद ने प. उप. में इसी ब्रह्मनिष्ठा के प्रकरण में कहा है ‘न कुर्यात् वदेत्किंचित्’ अर्थात् ब्रह्म-विकासी को मौन व्रत करना आवश्यक है। उपनिषदों में ‘अवाकी’ शब्द मौनव्रत को प्रकाश देता है। धर्मशास्त्र में कर्मांग में भी मौनव्रत बताया है। ‘उच्चारे जप काले च षट्सुमौनं समाचरेत’। जपकाल, भोजनकाल, स्नान, शौचकर्म में मौन रहना चाहिए। आचार प्रकरण में आता है ‘यावदुष्णं भवेदन्नं या वदश्नन्ति वाग्यतः पितरस्नाव दस्मिनियावन्नोक्ताः हविर्गुणाः।’ भोजन करते समय जब तक मौनपूर्वक भोजन करो तब वह भोजन देवता पितरों को पहुंचता है। इसी पर सनक जुजात गीता में कहा है ‘वाचोवेगं मनसः क्रोध वेगं… एतान् वेगान् योसहमे।’ इसका अर्थ है कि वाणी के, मन के, इंद्रियों के वेग को जो रोकता है वह ऋषि और ब्राह्मण है। चरक ऋषि ने विमानस्थान में आरोग्य की शिक्षा में कहा है ‘काले हितमितवादी’। जब कहने का अवसर हो तब संक्षिप्त शब्द और हितप्रद बात बोले।चित्रं वटु तरोः मूले वृद्धा शिष्याः गुरुर्युवा गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्न संशयः’ कहते हैं कि आज एक वट वृक्ष के नीचे आश्चर्यप्रद बात देखी, जहां वृद्ध-वृद्ध पुरुष शिष्य थे और युवा गुरु था। गुरु ने मौनव्रत कर दिखाया और सारे संशय दूर कर दिए। अर्थात् मौनव्रत से मनोबल होकर ब्राह्मी स्थिति हो जाती है। हां, जो गुलामी की जंजीर में जकड़े हुए हैं उनको तो ‘मौनान मूर्ख’ इस कहावत का भय रहता होगा। पर यह सत्य जानिए कि सब प्रकार की कलह शांति के लिए मौनव्रत परमौषधि है- ‘मौनेन कलहोनास्ति।’ मौनव्रत वाले को कलह से भय नहीं रहता है। मौन न रखने से पहला दोष शास्त्र दृष्टि का यह है कि असत्य के आभास रूप संसार की सत्यवत् बात करना जो पाप है क्योंकि यह संसार परिणाम संधात, नहीं है, यह विवृत है। इसलिए ‘योन्यथा सन्नमात्मा न अन्यथा प्रणिपत्तये किं तेन नत्कर्श पापं चौरेणात्मपहारिणा।’संसार को सभ्य व्यवहार करना ही आत्मा का अन्यथा ज्ञान है। देह, वृद्धि, दृश्य को सत्य कहना यही अन्यथावाद है। शास्त्र कहता है कि जिसने अपनी वाणी से संसार को सत्य कहा, आत्मा को उल्टा ज्ञान बताया वह चोर पापी है। इस पाप से बचने को भी मौनव्रत उपकारक है। चातुर्मास्य व्रतों में मौनव्रत की प्रतिष्ठा मानी गयी है। माधवाचार्य ने शंकर दिग्विजय लिखने के आरंभ में ही कह दिया। ‘वन्ध्यासूनु खरी विषाण सदृश क्षुद्र क्षितीन्द्र क्षमा, मद्वाणि मधिपा संयामि यस्मिन् त्रैलोक्य रंगस्थली’ अर्थात् मैंने राजाओं की झूठी प्रशंसा करने से जो अपनी जिह्वा पर पाप लगा दिया है उसकी शुद्धि करने के निमित्त आज भगवान शंकराचार्य के सच्चे वर्णन को कहता हूं। इससे भी संसार की झूठी बातों से पाप बताया। उसका उपाय भी मौनव्रत है।उपनिषद- ‘यद्वाचा नाभ्युदिते।’ ब्रह्म वह है, जो वाणी से नहीं कहा जाता। तब अब्रह्म शब्दों को रोकने के लिए मौनव्रत है। ‘मुनिमौन परो भवेत्’ मौनव्रत में ही मुनि की प्रतिष्ठा है। वाणी तेज का विषय है, तेज प्राण है। क्षरण नही करने से तेजोमात्रा संचित होकर तेजस्वी दीर्घायु होता है। आपको स्मरण रहे जिन इन्द्रियों से तेजोमात्रा का क्षरण होता है। उनके निग्रह से एक महान शक्ति का संचय हो जाता है। गांधारी के नेत्रों के द्वारा तेजीमात्रा क्षरित होती थी उसका संयमन करके उसने अपने पुत्र दुर्योधन का शरीर अच्छेद्य, अभेद, वज्रमय बना दिया था, इसी तरह वाणी का संयमन जो मौनव्रत है, उसके प्रभाव से वाणी में शक्ति आ जाती थी। द्रोणाचार्य ने अपने पूर्व वाणीव्रत से ‘उभयोरपि सामर्थ्य शापादपि शरादपि’ इसको चरितार्थ किया। मौनव्रत धारण कर वाणी के केओ प्रिय बनस्य जाता है । शांति चाहनेवालों को मौनव्रत पर ध्यान देना चाहिए।मनोबल और व्रत की प्रारंभिक भूमिका का ऐसा अभ्यास डालिए कि पहले मितवादी बनने की कोशिश कीजिए, गपबाजी से अपना पीछा छुड़ाइए। प्रातःकाल में जब तक शौचाचार, भजन होता है तब तक मौनपूर्वक अपने आपको रखना सीखिए। भोजनादि तथा वर्णित कार्यकाल में मौनव्रत रखिए। महीने में किसी एक या दो पुण्य दिन या एकादशी या पूर्णिमा या रविवार को मौ न रखना चाहिये । मौनव्रत का अभ्यास पड़ जाने से आप में स्वतः विद्या का प्रकाश और आत्मानुसंधान होने लगेगा और आप मौनव्रत के महात्म्य को स्वयं अनुभव कर लेंगे।मौनव्रत महान पुण्यदायी पापहारि है। मौन मिताहारी, ब्रह्मचारी, प्रणव जापी होना चाहिए। जप करें कि अर्द्धमात्रा का अनुभव और निर्वाण कला की जागृति की विकास करता है ।
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