शिव पुराण और लिङ्ग पुराण और शास्त्रों , उपनिषदों तथा इस विभिन्न पुरणों में काशी का उल्लेख महत्वपूर्ण रूप में किया गया है ।वेदों और पुरणों के अनुसार काशी भगवान शिव द्वारा अपने त्रिशूल पर काशी की स्थापना की थी । काशी में अपना निवास स्थान बनाकर रहते है । काशी आध्यात्मिक , शैक्षणिक , ज्योतिष , आयुर्वेद की भूमि रही है ।
(काशी की माँ गंगा )
वाराणसी शहर का काशी के पुरानी नगरों में माना जाता है। भारत की यह जगत्प्रसिद्ध प्राचीन नगरी गंगा के वाम (उत्तर) तट पर उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगासंगमों के बीच बसी हुई है। इस स्थान पर गंगा ने प्राय: चार मील का दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाव लिया है और इसी घुमाव के ऊपर इस नगरी की स्थिति है। इस नगर का प्राचीन 'वाराणसी' नाम लोकोच्चारण से 'बनारस' हो गया था जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने शासकीय रूप से पूर्ववत् 'वाराणसी' कर दिया है । विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है - 'काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:'। पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर भी वह सिर उन से अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थ कहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गया। हरिवंशपुराण के अनुसार काशी को बसानेवाले भरतवंशी राजा 'काश' थे। कुछ विद्वानों के मत में काशी वैदिक काल से भी पूर्व की नगरी है। शिव की उपासना का प्राचीनतम केंद्र होने के कारण ही इस धारणा का जन्म हुआ जान पड़ता है; क्योंकि सामान्य रूप से शिवोपासना को पूर्ववैदिककालीन माना जाता है। वैसे, काशी जनपद के निवासियों का सर्वप्रथम उल्लेख हमें अर्थर्ववेद की पैप्पलादसंहिता में (५, २२, १४) मिलता है। शुक्लयजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण (१३५, ४, १९) में काशिराज धृतराष्ट्र का उल्लेख है जिसे शतानीक सत्राजित् ने पराजित किया था। बृहदारण्यकोपनिषद् (२, १, १, ३, ८, २) में काशिराज अजातशत्रु का भी उल्लेख है। कौषीतकी उपनिषद् (४, १) और बौधायन श्रौतसूत्र में काशी और विदेह तथा गोपथ ब्राह्मण में काशी और कोसल जनपदों का साथ-साथ वर्णन है। इसी प्रकार काशी, कोसल और विदेह के सामान्य पुरोहित जलजातूकर्ण्य का नाम शांखायन श्रौतसूत्र में प्राप्य है। काशी जनपद की प्राचीनता तथा इसकी स्थिति इन उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट हो जाती है। वाल्मीकि रामायण में (किष्किंधा कांड ४०, २२) सुग्रीव द्वारा वानरसेना को पूर्वदिशा की ओर भेजे जाने के संदर्भ में काशी और कोसल जनपद के निवासियों का एक साथ उल्लेख किया गया है– महीं कालमहीं चापि शैलकानन शोभिंता। ब्रह्ममालन्विदेहांश्च मालवान्काशिक सलान्।महाभारत में काशी जनपद के अनेक उल्लेख हैं और काशिराज की कन्याओं के भीष्म द्वारा अपहरण की कथा तो सर्वविदित ही है (आदि पूर्व, अध्याय १०२)। महाभारत के युद्ध में काशिराज ने पांडवों का साथ दिया था।बौद्ध काल में, गौतम बुद्ध के जन्म के पूर्व तथा उनके समय में काशी को बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हो चुकी थी। अंगुत्तरनिकाय में काशी की भारत के १६ महाजनपदों में गणना की गई है। जातक कथाओं में काशी जनपद का अनेक बार उल्लेख आया है, जिससे ज्ञात होता है कि काशी उस समय विद्या तथा व्यापार दोनों का ही केंद्र थी। अक्तिजातक में बोधिसत्व के १६ वर्ष की आयु में वहाँ जाकर विद्या ग्रहण करने का उल्लेख है। खंडहालजातक में काशी के सुंदर और मूल्यवान रेशमी कपड़ों का वर्णन है। भीमसेनजातक में यहाँ के उत्तम सुगंधित द्रव्यों का भी उल्लेख है। जातककथाओं से स्पष्ट है कि बुद्धपूर्वकाल में काशी देश पर ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का बहुत दिनों तक राज्य रहा। इन कहानियों से यह भी प्रकट है कि 'काशी' नगरनाम के अतिरिक्त एक देश या जनपद का नाम भी था। उसका दूसरा नगरनाम 'वाराणसी' था। इस प्रकार काशी जनपद की राजधानी के रूप में वाराणसी का नाम धीरे-धीरे प्रसिद्ध हो गया और कालांतर में काशी और वाराणसी ये दोनों अभिधान समानार्थक हो गए। काशी और वहाँ प्रचलित शिवोपासना का उल्लेख महाभारत में भी है– ततो वाराणसीं गत्वा अर्चयित्वा वषध्वजम (वनपर्व, ८४, ७८)। कहा जाता है 'वाराणसी' नाम वरुणा और असी नदियों पर इस नगरी की स्थिति होने से पड़ा है। कीथ के अनुसार वरुणा नदी का उल्लेख अर्थर्ववेद के इस मंत्र में है– वारिद वारयातै वरुणावत्यामधि। तत्रामृतस्यासिक्तं तेना ते वारये विषम् (४, ७, १)। युवजयजातक में वाराणसी के ब्रह्मवद्धन (उब्रह्मवर्धन), सुरूंधन, सुदस्सन (उसुदर्शन), पुप्फवती (उपुष्पवती) और रम्म (उरम्या?) एवं संखजातक में मालिनी आदि नाम मिलते हैं। लोसकजातक में वाराणसी के चारों ओर की खाई या परिखा, का वर्णन है।गौतम बुद्ध के समय में काशी राज्य कोसल जनपद के अंतर्गत था। कोसल की राजकुमारी का मगधराज बिंबिसार के साथ विवाह होने के समय काशी को दहेज में दे दिया गया था। बुद्ध ने अपना सर्वप्रथम उपदेश वाराणसी के संनिकट सारनाथ में दिया था जिससे उसके तत्कालीन धार्मिक तथा सांस्कृतिक महत्व का पता चलता है। बिंबिसार के पुत्र अजातशत्रु ने काशी को मगध राज्य का अभिन्न भाग बना लिया और तत्पश्चात् मगध के उत्कर्षकाल में इसकी यही स्थिति बनी रही। बौद्ध धर्म की अवनति तथा हिंदू धर्म के पुनर्जागरण काल में काशी का महत्व संस्कृत भाषा तथा हिंदू संस्कृति के केंद्र के रूप में निरंतर बढ़ता ही गया, जिसका प्रमाण उस काल में लिखे गए या पुन: संपादित पुराणों द्वारा प्राप्त होता है। स्कंदपुराण में तो स्वतंत्र रूप से काशी के माहात्म्य पर 'काशीखंड' नामक अध्याय लिखा गया। पुराणों में काशी को मोक्षदायिनी पुरियों में स्थान दिया गया है। चीनी यात्री फ़ाह्यान (चौथी शती ई.) और युवानच्वांग अपनी यात्रा के दौरान काशी आए थे। युवानच्यांग ने सातवीं शताब्दी ई. के पूर्वार्ध में यहाँ लगभग ३० बौद्ध बिहार और १०० हिंदू मंदिर देखे थे। नवीं शताब्दी ई. में जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपने विद्याप्रचार से काशी को भारतीय संस्कृति तथा नवोदित आर्य धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया। काशी की यह सांस्कृतिक परंपरा आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है।
भारतीय इतिहास के मध्य युग में मुसलमानों के आक्रमण के पश्चात् उस समय के अन्य सांस्कृतिक केंद्रों की भाँति काशी को भी दुर्दिन देखना पड़ा था । ११९३ ई में मुहम्मद गोरी ने कन्नौज को जीत लिया, जिससे काशी का प्रदेश कन्नौज के राठौड़ राजाओं के अधीन था, मुसलमानों के अधिकार में आ गया। दिल्ली के सुल्तानों के आधिपत्यकाल में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को काशी के अंग में शरण मिली। कबीर और रामानंद के धार्मिक और लोकमानस के प्रेरक विचारों ने उसे जीता-जागता रखने में पर्याप्त सहायता दी। मुगल सम्राट् अकबर ने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति जो उदारता और अनुराग दिखाया, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की धारा, मध्य काल में कुछ क्षीण हो चली थी, पुन: वेगवती हो गई और उसने तुलसीदास,महाकवियों और पंडितों को जन्म दिया एवं काशी पुन: अपने प्राचीन गौरव की अधिकारिणी बन गई। किंतु शीघ्र ही इतिहास के अनेक उलटफेरों के देखनेवाली इस नगरी को औरंगजेब की धर्मांधता का शिकार बनना पड़ा। उसने हिंदू धर्म के अन्य पवित्र स्थानों की भाँति काशी के प्राचीन मंदिरों को विध्वस्त करा दिया। मूल विश्वनाथ के मंदिर को तुड़वाकर उसके स्थान पर एक बड़ी मसजिद है । मुगल साम्राज्य की अवनति होने पर अवध के नवाब सफ़दरजंग ने काशी पर अधिकार कर लिया; किंतु उसके पौत्र ने उसे ईस्ट इंडिया कंपनी को दे डाला। काशीनरेश के पूर्वज बलवंतसिंह ने अवध के नवाब से अपना संबंधविच्छेद कर लिया था। इस प्रकार काशी की रियासत का जन्म हुआ। चेतसिंह, ने वारेन हेस्टिंग्ज़ से लोहा लिया था । स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् काशी की रियासत भारत राज्य का अविच्छिन्न अंग बन गई है ।
काशी के मंदिर और घाट - काशी में इस समय लगभग १, ५०० मंदिर हैं, जिनमें से बहुतों की परंपरा इतिहास के विविध कालों से जुड़ी हुई है। इनमें विश्वनाथ, संकटमोचन और दुर्गा के मंदिर भारत भर में प्रसिद्ध हैं। विश्वनाथ के मूल मंदिर की परंपरा अतीत के इतिहास के अज्ञात युगों तक चली गई है। वर्तमान मंदिर अधिक प्राचीन नहीं है। इसके शिखर पर महाराजा रणजीत सिंह ने सोने के पत्तर चढ़वा दिए थे। संकटमोचन मंदिर की स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने की थी। दुर्गा के मंदिर को १७वीं शती में मराठों ने बनवाया था। घाटों के तट पर भी अनेक मंदिर बने हुए हैं। इनमें सबसे प्राचीन गहड़वालों का बनवाया राजघाट का 'आदिकेशव' मंदिर है। प्रसिद्ध घाटों में दशाश्वमेध, मणिकार्णिंका, हरिश्चंद्र और तुलसीघाट की गिनती की जा सकती है। दशाश्वमेध घाट पर ही जयपुर नरेश जयसिंह द्वितीय का बनवाया हुआ मानमंदिर या वेधशाला है। दशाश्वमेध घाट तीसरी सदी के भारशिव नागों के पराक्रम का स्मारक है। उन्होंने जब-जब अपने शत्रुओं को पराजित किया तब-तब यहीं अपने यज्ञ का अवभृथ स्नान किया। इस प्रकार के दस विजय यज्ञों से संबंधित काशी का यह घाट दशाश्वमेध नाम से विख्यात हुआ। नवीन मंदिरों में भारतमाता का मंदिर तथा तुलसीमानस मंदिर प्रसिद्ध हैं। आधुनिक शिक्षा के केंद्र काशी विश्वविद्यालय की स्थापना महामना मदनमोहन मालवीय ने १९१६ ई. में की। वैसे, प्राचीन परंपरा की संस्कृत पाठशालाएँ तो यहाँ सैकड़ों ही हैं जो संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी (संस्थापित १९५८ ई.) से संबद्ध है। इसके अतिरिक्त यहाँ काशी विद्यापीठ (संस्थापित १९२१) नामक विश्वविद्यालय में व्यावहारिक समाजशास्त्र की शिक्षा की भी व्यवस्था है। भारत की सांस्कृतिक राजधानी होने का गौरव इस प्राचीन नगरी को आज भी प्राप्त है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि काशी ने भारत की सांस्कृतिक एकता के निर्माण तथा संरक्षण में भारी योग दिया है। भारतेंदु आदि साहित्यकारों तथा नागरीप्रचारिणी सभा जैसी संस्थाओं को जन्म देकर काशी ने आधुनिक हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया है। वाराणसी के घाटों का दृश्य बड़ा ही मनोरम है। भागीरथी के धनुषाकार तट पर इन घाटों की पंक्तियाँ दूर तक चली गई हैं। प्रात: काल तो इनकी छटा अपूर्व ही होती है। पुरानी कहावत के अनुसार शामे अवध अर्थात् लखनऊ की शाम और सुबहे बनारस यानी वाराणसी का प्रात:काल देखने योग्य होता है। यहाँ की छोटी-छोटी और असाधारण रूप से सँकरी गलियाँ तथा उनमें स्वच्छंद विचरनेवाले साँड़ अपरिचितों के लिए कुतूहल बना हुआ था । महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगा-तट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता काशी में आ कर रहने लगे। राजा दिवोदास अपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ने के लिए विवश होना पडा। शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह कम नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन: बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया। गणेशजी के सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदासविरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिंग की स्थापना करके उस की अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए। स्कन्दमहापुराण में काशीखण्ड के नाम उल्लेख है। इस पुरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तप:स्थली, मुक्तिभूमि, शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरीऔर विश्वनाथनगरी हैं। भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापिया , या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:। या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यते , सा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥ भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है, जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली (मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोकपावनी गंगा के तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवित है, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे। सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अत: प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं। काशी नाम का अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्र सुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूप प्रकाशित हो जाता है। शास्त्रों का उद्घोष है-यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वर:। जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्॥
काशी में कहीं पर भी मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर (विश्वनाथजी) प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं। तारकमन्त्र सुन कर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह मान्यता है कि केवल काशी ही सीधे मुक्ति देती है, जबकि अन्य तीर्थस्थान काशी की प्राप्ति कराके मोक्ष प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में काशीखण्ड में लिखा भी है-
अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच। काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोट पांच कोस की संपूर्ण काशी विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड पूरी काशी को ज्योतिर्लिंग का स्वरूप मानता है-
अविमुक्तंमहत्क्षेत्रं पंचक्रोशपरीमितम्।"ज्योतिलंगम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराभिधम्॥
पांच कोस परिमाण के अविमुक्त (काशी) नामक क्षेत्र को विश्वेश्वर (विश्वनाथ) संज्ञक ज्योतिर्लिंग-स्वरूप मानना चाहिए प्रकाण्ड विद्वानों ने काशी मरणान्मुक्ति:के सिद्धांत का समर्थन करते हुए बहुत कुछ लिखा और कहा है। रामकृष्ण मिशन के स्वामी शारदानंदजी द्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण-लीलाप्रसंग नामक पुस्तक में श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का इस विषय में प्रत्यक्ष अनुभव वर्णित है। वह दृष्टांत बाबा विश्वनाथ द्वारा काशी में मृतक को तारकमन्त्र प्रदान करने का सत्य उजागर करता है। लेकिन यहां यह भी बात ध्यान रहे कि काशी में पाप करने वाले को मरणोपरांत मुक्ति मिलने से पहले अतिभयंकर भैरवी यातना भी भोगनी पडती है। सहस्रों वर्षो तक रुद्र पिशाच बन कर कुकर्मो का प्रायश्चित्त करने के उपरांत ही उसे मुक्ति मिलती है। किंतु काशी में प्राण त्यागने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता।
फाल्गुन शुक्ल-एकादशी को काशी में रंगभरी एकादशी कहा जाता है। इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार होता है और काशी में होली का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है।मुक्तिदायिनीकाशी की यात्रा, यहां निवास और मरण तथा दाह-संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से ही प्राप्त होता है। तभी तो काशी की स्तुति में कहा गया है- यत्रदेहपतनेऽपिदेहिनांमुक्तिरेवभवतीतिनिश्चितम्पूर्वपुण्यनिचयेनलभ्यतेविश्वनाथनगरीगरीयसी॥
विश्वनाथजी की अति-श्रेष्ठ नगरी काशी पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप से ही प्राप्त होती है। यहां शरीर छोडने पर प्राणियों को मुक्ति अवश्य मिलती है। काशी बाबा विश्वनाथ की नगरी है। काशी के अधिपति भगवान विश्वनाथ कहते हैं- इदं मम प्रियंक्षेत्रं पंचक्रोशीपरीमितम्। पांच कोस तक विस्तृत यह क्षेत्र (काशी) मुझे अत्यंत प्रिय है। पतित-पावनी काशी में स्थित विश्वेश्वर (विश्वनाथ) ज्योतिर्लिंग सनातनकाल से हिंदुओं के लिए परम आराध्य है, किंतु जनसाधारण इस तथ्य से प्राय: अनभिज्ञ ही है कि यह ज्योतिर्लिंग पांच कोस तक विस्तार लिए हुए है- पंचक्रोशात्मकं लिंगंज्योतिरूपंसनातनम्। ज्ञानरूपा पंचक्रोशात्मक | यह पुण्यक्षेत्र काशी के नाम से भी जाना जाता है-ज्ञानरूपा तुकाशीयं पंचक्रोशपरिमिता। पद्मपुराण में लिखा है कि सृष्टि के प्रारंभ में जिस ज्योतिर्लिगका ब्रह्मा और विष्णुजी ने दर्शन किया, उसे ही वेद और संसार में काशी नाम से पुकारा गया- यल्लिंगंदृष्टवन्तौहि नारायणपितामहौ।तदेवलोकेवेदेचकाशीतिपरिगीयते॥
पांच कोस की काशी चैतन्यरूप है। इसलिए यह प्रलय के समय भी नष्ट नहीं होती। प्राचीन ब्रह्मवैक्र्त्तपुराणमें इस संदर्भ में स्पष्ट उल्लेख है कि अमर ऋषिगण प्रलयकाल में श्री सनातन महाविष्णुसे पूछते हैं- हे भगवन्!वह छत्र के आकार की ज्योति जल के ऊपर कैसे प्रकाशित है, जो प्रलय के समय पृथ्वी के डूबने पर भी नहीं डूबती? महाविष्णुजी बोले-हे ऋषियो! लिंगरूपधारीसदाशिवमहादेव का हमने (सृष्टि के आरम्भ में) तीनों लोकों के कल्याण के लिए जब स्मरण किया, तब वे शम्भु एक बित्ता परिमाण के लिंग-रूप में हमारे हृदय से बाहर आए और फिर वे बढ़ते हुए अतिशय वृद्धि के साथ पांच कोस के हो गए- लिंगरूपधर:शम्भुहर्दयाद्बहिरागत:। महतींवृद्धिमासाद्य पंचक्रोशात्मकोऽभवत्॥
यह काशी वही पंचक्रोशात्मकज्योतिर्लिगहै। काशीरहस्य के दूसरे अध्याय में यह कथानक मिलता है। स्कन्दपुराणके काशीखण्डमें स्वयं भगवान शिव यह घोषणा करते हैं- अविमुक्तं महत्क्षेत्रं पंचक्रोशपरिमितम्। ज्योतिर्लिंगम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराऽभिधम्।।पांच कोस परिमाण का अविमुक्त (काशी) नामक जो महाक्षेत्र है, उस सम्पूर्ण पंचक्रोशात्मकक्षेत्र को विश्वेश्वर नामक एक ज्योतिर्लिंग ही मानें। इसी कारण काशी प्रलय होने पर भी नष्ट नहीं होती। काशीखण्डमें भगवान शंकर पांच कोस की पूरी काशी में बाबा विश्वनाथ का वास बताते हैं-एकदेशस्थितमपियथा मार्तण्डमण्डलम्।
दृश्यतेसवर्गसर्वै:काश्यांविश्वेश्वरस्तथा॥ जैसे सूर्यदेव एक जगह स्थित होने पर भी सब को दिखाई देते हैं, वैसे ही संपूर्ण काशी में सर्वत्र बाबा विश्वनाथ का ही दर्शन होता है।स्वयं विश्वेश्वर (विश्वनाथ) भी पांच कोस की अपनी पुरी (काशी) को अपना ही रूप कहते हैं- पंचक्रोश्या परिमितातनुरेषापुरी मम। काशी की सीमा के विषय में शास्त्रों का कथन है-असी- वरणयोर्मध्ये पंचक्रोशमहत्तरम। असी और वरुणा नदियों के मध्य स्थित पांच कोस के क्षेत्र (काशी) की बड़ी महिमा है। महादेव माता पार्वती से काशी का इस प्रकार गुणगान करते हैं-सर्वक्षेत्रेषु भूपृष्ठेकाशीक्षेत्रंचमेवपु:। भूलोक के समस्त क्षेत्रों में काशी साक्षात् मेरा शरीर है।
पंचक्रोशात् मकज्योतिर्लिग-स्वरूपाकाशी सम्पूर्ण विश्व के स्वामी श्री विश्वनाथ का निवास-स्थान होने से भव-बंधन से मुक्तिदायिनी है। धर्मग्रन्थों में कहा भी गया है-काशी मरणान्मुक्ति:। काशी की परिक्रमा करने से सम्पूर्ण पृथ्वी की प्रदक्षिणा का पुण्यफल प्राप्त होता है। भक्त सब पापों से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है। तीन पंचक्रोशी-परिक्रमा करने वाले के जन्म-जन्मान्तर के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। काशीवासियोंको कम से कम वर्ष में एक बार पंचकोसी-परिक्रमाअवश्य करनी चाहिए क्योंकि अन्य स्थानों पर किए गए पाप तो काशी की तीर्थयात्रा से उत्पन्न पुण्याग्नि में भस्म हो जाते हैं, परन्तु काशी में हुए पाप का नाश केवल पंचकोसी-प्रदक्षिणा से ही संभव है। काशी में सदाचार-संयम के साथ धर्म का पालन करना चाहिए। यह पर्यटन की नहीं वरन् तीर्थाटन की पावन स्थली है।
वस्तुत:काशी और विश्वेश्वर ज्योतिर्लिगमें तत्त्वत:कोई भेद नहीं है। नि:संदेह सम्पूर्ण काशी ही बाबा विश्वनाथ का स्वरूप है। काशी-महात्म्य में ऋषियों का उद्घोष है-काशी सर्वाऽपिविश्वेशरूपिणीनात्रसंशय:। अतएव काशी को विश्वनाथजी का रूप मानने में कोई संशय न करें और भक्ति-भाव से नित्य जप करें- शिव: काशी शिव: काशी, काशी काशी शिव: शिव:। ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि (निर्जला एकादशी) के दिन श्री काशीविश्वनाथ की वार्षिक कलश-यात्रा वाराणसी में बडी धूमधाम एवं श्रद्धा के साथ आयोजित होती है, जिसमें बाबा का पंचमहानदियोंके जल से अभिषेक होता है।काशी की महिमा विभिन्न धर्मग्रन्थों में गायी गयी है। काशी शब्द का अर्थ है, प्रकाश देने वाली नगरी। जिस स्थान से ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है, उसे काशी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि काशी-क्षेत्र में देहान्त होने पर जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है, काश्यांमरणान्मुक्ति:। काशी-क्षेत्र की सीमा निर्धारित करने के लिए पुराकालमें पंचक्रोशीमार्ग का निर्माण किया गया। जिस वर्ष अधिमास (अधिक मास) लगता है, उस वर्ष इस महीने में पंचक्रोशीयात्रा की जाती है। पंचक्रोशी (पंचकोसी) यात्रा करके भक्तगण भगवान शिव और उनकी नगरी काशी के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हैं। लोक में ऐसी मान्यता है कि पंचक्रोशीयात्रा से लौकिक और पारलौकिक अभीष्टिकी सिद्धि होती है। अधिमास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। लोक-भाषा में इसे मलमास कहा जाता है। इस वर्ष मलमास प्रथम-ज्येष्ठ शुक्ल (अधिक) प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर द्वितीय-ज्येष्ठ कृष्णपक्ष (अधिक) अमावस्या तिथि को समाप्त होगा।
पंचक्रोशीयात्रा के कुछ नियम है, जिनका पालन यात्रियों को करना पड़ता है। परिक्रमा नंगे पांव की जाती है। वाहन से परिक्रमा करने पर पंचक्रोशी-यात्राका पुण्य नहीं मिलता। शौचादिक्रिया काशी-क्षेत्र से बाहर करने का विधान है। परिक्रमा करते समय शिव-विषयक भजन-कीर्तन करने का विधान है। कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं, जो सम्पूर्ण परिक्रमा दण्डवत करते हैं। यात्री हर-हर महादेव शम्भो, काशी विश्वनाथ गंगे, काशी विश्वनाथ गंगे, माता पार्वती संगेका मधुर गान करते हुए परिक्रमा करते हैं। साधु, महात्मा एवं संस्कृतज्ञयात्री महिम्नस्त्रोत, शिवताण्डव एवं रुद्राष्टकका सस्वर गायन करते हुए परिक्रमा करते हैं। महिलाएं सामूहिक रूप से शिव-विषयक लोक गीतों का गायन करती हैं। परिक्रमा अवधि में शाकाहारी भोजन करने का विधान है। पंचक्रोशीयात्रा मणिकर्णिकाघाट से प्रारम्भ होती है। सर्वप्रथम यात्रीगणमणिकर्णिकाकुण्ड एवं गंगा जी में स्नान करते हैं। इसके बाद परिक्रमा-संकल्प लेने के लिए ज्ञानवापी जाते हैं। यहां पर पंडे यात्रियों को संकल्प दिलाते हैं। संकल्प लेने के उपरांत यात्री श्रृंगार गौरी, बाबा विश्वनाथ एवं अन्नपूर्णा जी का दर्शन करके पुन:मणिकर्णिकाघाट लौट आते हैं। यहां वे मणिकर्णिकेश्वरमहादेव एवं सिद्धि विनायक का दर्शन-पूजन करके पंचक्रोशीयात्रा का प्रारम्भ करते हैं। गंगा के किनारे-किनारे चलकर यात्री अस्सी घाट आते है। यहां से वे नगर में प्रवेश करते है। लंका, नरिया, करौंदी, आदित्यनगर, चितईपुरहोते हुए यात्री प्रथम पडाव कन्दवा पर पहुंचते हैं। यहां वे कर्दमेश्वरमहादेव का दर्शन-पूजन करके रात्रि-विश्राम करते हैं। रास्ते में पडने वाले सभी मंदिरों में यात्री देव-पूजन करते हैं। अक्षत और द्रव्य दान करते हैं। रास्ते में स्थान-स्थान पर भिक्षार्थी यात्रियों को नंदी के प्रतीक के रूप में सजे हुए वृषभ का दर्शन कराते हैं और यात्री उन्हें दान-दक्षिणा देते हैं। कुछ भिक्षार्थी शिव की सर्पमालाके प्रतीक रूप में यात्रियों को सर्प-दर्शन कराते हैं और बदले में अक्षत और द्रव्य-दान प्राप्त करते हैं। कुछ सड़क पर चद्दर बिछाए बैठे रहते हैं। यात्रीगण उन्हें भी निराश नहीं करते। अधिकांश यात्री अपनी गठरी अपने सिर पर रखकर पंचक्रोशीयात्रा करते हैं। परिक्रमा-अवधि में यात्री अपनी पारिवारिक और व्यक्तिगत चिन्ताओं से मुक्त होकर पांच दिनों के लिए शिवमय, काशीमय हो जाते हैं। दूसरे दिन भोर में यात्री कन्दवा से अगले पड़ाव के लिए चलते हैं। अगला पड़ाव है भीमचण्डी। यहां यात्री दुर्गामंदिर में दुर्गा जी की पूजा करते हैं और पहले पड़ाव के सारे कर्मकाण्ड को दुहराते हैं। पंचक्रोशीयात्रा का तीसरा पडाव रामेश्वर है। यहां शिव-मंदिर में यात्रीगणशिव-पूजा करते हैं। चौथा पड़ाव पांचों-पण्डवा है। यह पड़ाव शिवपुर क्षेत्र में पडता है। यहां पांचों पाण्डव (युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल तथा सहदेव) की मूर्तियां हैं। द्रौपदीकुण्ड में स्नान करके यात्रीगणपांचों पाण्डवों का दर्शन करते हैं। रात्रि-विश्राम के उपरांत यात्री पांचवें दिन अंतिम पड़ाव के लिए प्रस्थान करते हैं। अंतिम पड़ाव कपिलधारा है। यात्रीगणयहां कपिलेश्वर महादेव की पूजा करते हैं। काशी परिक्रमा में पांच की प्रधानता है। यात्री प्रतिदिन पांच कोस की यात्रा करते हैं। पड़ाव संख्या भी पांच है। परिक्रमा पांच दिनों तक चलती है। कपिलधारा से यात्रीगण मणिकर्णिका घाट आते हैं। यहां वे साक्षी विनायक (गणेश जी) का दर्शन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि गणेश जी भगवान शंकर के सम्मुख इस बात का साक्ष्य देते हैं कि अमुक यात्री ने पंचक्रोशीयात्रा कर काशी की परिक्रमा की है। इसके उपरांत यात्री काशी विश्वनाथ एवं काल-भैरव का दर्शन कर यात्रा-संकल्प पूर्ण करते हैं।
काशी के मन्दिर - विश्वनाथ मन्दिर , अन्नपूर्णा मन्दिर , काल भैरव मन्दिर , तुलसी मानस मन्दिर , संकटमोचन मन्दिर , दुर्गा मन्दिर, दुर्गाकुण्ड , भारत माता मन्दिर , (पाप मोचनेश्वर महादेव)नउवा पेखरा तेलियाना , काशी में काशी खंडोकत मन्दिर के दर्शन यात्रा से मोक्ष की प्राप्ति होती है , काशी खंडोकत छप्पन विनायक मन्दिर , काशी खंडोकत बारह सूर्यदेव मन्दिर , काशी खंडोकत एक सौ बावन शिव मन्दिर , काशी खंडोकत सेत्तीस देवी मन्दिर , काशी खंडोकत अट्ठाइस विष्णु मन्दिर और काशी खंडोकत नों भैरव मन्दिर है । काशी के घाट - असीसंगम घाट , दशाश्वमेघ घाट , मणिकर्णिका घाट , पंचगंगा घाट , वरुणासंगम घाट ,तुलसी घाट, शिवाला घाट , दंडी घाट , हनुमान घाट , हरिश्चंद्र घाट , राज घाट , केदार घाट , सोमेश्वर घाट , मानसरोवर घाट , रानामहल घाट ,मुनशी घाट ,अहिल्याबाई घाट , मानमन्दिर घाट , त्रिपुर-भैरवी घाट , मीर घाट , दत्तात्रेय घाट ,सिंधिया घाट , ग्वालियर घाट , पंचगंगा घाट , प्रह्लाद घाट ,सराय मोहना घाट है । श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग उत्तर प्रदेश के वाराणसी जनपद के काशी नगर में अवस्थित है ।काशी तीनों लोकों में न्यारी नगरी भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजती है। काशी को आनन्दवन, आनन्दकानन, अविमुक्त क्षेत्र तथा काशी आदि अनेक नामों से स्मरण किया गया है। काशी साक्षात सर्वतीर्थमयी, सर्वसन्तापहरिणी तथा मुक्तिदायिनी नगरी है। निराकर महेश्वर ही यहाँ भोलानाथ श्री विश्वनाथ के रूप में साक्षात अवस्थित हैं। इस काशी क्षेत्र में स्थितश्री दशाश्वमेध , श्री लोलार्क , श्री बिन्दुमाधव , श्री केशव और , श्री मणिकर्णिका है ।
काशी को ‘अविमुक्त क्षेत्र’ कहा जाता है। काशी के उत्तर में ओंकारखण्ड, दक्षिण में केदारखण्ड और मध्य में विश्वेश्वरखण्ड में बाबा विश्वनाथ का मन्दिर की पुन: स्थापना आदि जगत गुरु शंकरचार्य जी ने अपने हाथों से की थी। श्री विश्वनाथ मन्दिर को मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने नष्ट करके उस स्थान पर मस्जिद बनवा दी मस्जिद के परिसर को ज्ञानवाणी' कहा जाता है। प्राचीन शिवलिंग ज्ञानवापी' कहा जाता है। भगवान शिव की परम भक्त महारानी अहल्याबाई ने ज्ञानवापी से कुछ हटकर श्री विश्वनाथ के एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया था। महाराजा रणजीत सिंह जी ने मन्दिर पर स्वर्ण कलश (सोने का शिखर) चढ़वाया था। काशी में अनेक विशिष्ट तीर्थ हैं, जिनके विषय में लिखा है–विश्वेशं माधवं ढुण्ढिं दण्डपाणिं च भैरवम्। वन्दे काशीं गुहां गंगा भवानीं मणिकर्णिकाम्।।अर्थात ‘विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग बिन्दुमाधव, ढुण्ढिराज गणेश, दण्डपाणि कालभैरव, गुहा गंगा (उत्तरवाहिनी गंगा), माता अन्नपूर्णा तथा मणिकर्णिक आदि मुख्य तीर्थ हैं।काशी क्षेत्र में मरने वाले किसी भी प्राणी को निश्चित ही मुक्ति प्राप्त होती है। जब कोई मर रहा होता है, उस समय भगवान श्री विश्वनाथ उसके कानों में तारक मन्त्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन के चक्कर से छूट जाता है, अर्थात इस संसार से मुक्त हो जाता है।काशी नगरी की उत्पत्ति तथा उसकी भगवान शिव की प्रियतमा बनने की कथा स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में वर्णित है। काशी उत्पत्ति के विषय में अगस्त्य जी ने श्रीस्कन्द से पूछा था, जिसका उत्तर देते हुए श्री स्कन्द ने उन्हें बताया कि इस प्रश्न का उत्तर हमारे पिता महादेव जी ने माता पार्वती जी को दिया था। उन्होंने कहा था कि ‘महाप्रलय के समय जगत के सम्पूर्ण प्राणी नष्ट हो चुके थे, सर्वत्र घोर अन्धकार छाया हुआ था। उस समय 'सत्' स्वरूप ब्रह्म के अतिरिक्त सूर्य, नक्षत्र, ग्रह,तारे आदि कुछ भी नहीं थे। केवल एक ब्रह्म का अस्तित्त्व था, जिसे शास्त्रों में ‘एकमेवाद्वितीयम्’ कहा गया है। ‘ब्रह्म’ का ना तो कोई नाम है और न रूप, इसलिए वह मन, वाणी आदि इन्द्रियों का विषय नहीं बनता है। वह तो सत्य है, ज्ञानमय है, अनन्त है, आनन्दस्वरूप और परम प्रकाशमान है। वह निर्विकार, निराकार, निर्गुण, निर्विकल्प तथा सर्वव्यापी, माया से परे तथा उपद्रव से रहित परमात्मा कल्प के अन्त में अकेला था।
कल्प के आदि में उस परमात्मा के मन में ऐसा संकल्प उठा कि ‘मैं एक से दो हो जाऊँ’। यद्यपि वह निराकार है, किन्तु अपनी लीला शक्ति का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने साकार रूप धारण कर लिया। परमेश्वर के संकल्प से प्रकट हुई वह ऐश्वर्य गुणों से भरपूर, सर्वज्ञानमयी, सर्वस्वरूप द्वितीय मूर्ति सबके लिए वन्दनीय थी। महादेव ने पार्वती जी से कहा– ‘प्रिये! निराकार परब्रह्म की वह द्वितीय मूर्ति मैं ही हूँ।सभी शास्त्र और विद्वान मुझे ही ‘ईश्वर ’ कहते हैं। साकार रूप में प्रकट होने पर भी मैं अकेला ही अपनी इच्छा के अनुसार विचरण करता हूँ। मैंने ही अपने शरीर से कभी अलग न होने वाली 'तुम' प्रकृति को प्रकट किया है। तुम ही गुणवती माया और प्रधान प्रकृति हो। तुम प्रकृति को ही बुद्धि तत्त्व को जन्म देने वाली तथा विकार रहित कहा जाता है। काल स्वरूप आदि पुरुष मैंने ही एक साथ तुम शक्ति को और इस काशी क्षेत्र को प्रकट किया है। शक्ति को प्रकृति और ईश्वर को परम पुरुष कहा गया है। वे दोनों शक्ति और परम पुरुष परमानन्दमय स्वरूप में होकर काशी क्षेत्र में रमण करने लगे। पाँच कोस के क्षेत्रफल वाले काशी क्षेत्र को शिव और पार्वती ने प्रलयकाल में भी कभी त्याग नहीं किया है। इसी कारण उस क्षेत्र को ‘अविमुक्त’ क्षेत्र कहा गया है। जिस समय इस भूमण्डल की, जल की तथा अन्य प्राकृतिक पदार्थों की सत्ता (अस्तित्त्व) नहीं रह जाती है, उस समय में अपने विहार के लिए भगवान जगदीश्वर शिव ने इस काशी क्षेत्र का निर्माण किया था। स्कन्द (कार्तिकेय) ने अगस्त्य जी को बताया कि यह काशी क्षेत्र भगवान शिव के आनन्द का कारण है, इसीलिए पहले उन्होंने इसका नाम ‘आनन्दवन’ रखा था।
काशी क्षेत्र के रहस्य को ठीक-ठीक कोई नहीं जान पाता है। उन्होंने कहा कि उस आनन्दकानन में जो यत्र-तत्र (इधर-उधर) सम्पूर्ण शिवलिंग हैं, उन्हें ऐसा समझना चाहिए कि वे सभी लिंग आनन्दकन्द रूपी बीजो से अंकुरित (उगे) हुए हैं।उसके बाद भगवान शिव ने माँ जगदम्बा के साथ अपने बायें अंग में अमृत बरसाने वाली अपनी दृष्टि डाली। उस दृष्टि से अत्यन्त तेजस्वी तीनो लोकों में अतिशय सुन्दर एक पुरुष प्रकट हुआ। वह अत्यन्त शान्त, सतो गुण से परिपूर्ण तथा सागर से भी अधिक गम्भीर और पृथ्वी के समान श्यामल था तथा उसके बड़े-बड़े नेत्र कमल के समान सुन्दर थे। अत्यन्त कमनीय और रमणीय होते हुए भी प्रचण्ड बाहुओं से सुशोभित वह पुरुष सुर्वण रंग के दो पीताम्बरों से अपने शरीर को ढँके हुए था। उसके नाभि कमल से बहुत ही मनमोहक सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी। देखने में वह अकेले ही सम्पूर्ण गुणों की खान तथा समस्त कलाओं का ख़ज़ाना प्रतीत होता था। वह एकाकी ही जगत के सभी पुरुषों में उत्तम था, इसलिए उसे ‘पुरुषोत्तम’ कहा गया।सब गुणों से विभूषित उस महान् पुरुष को देखकर महादेव जी ने उससे कहा– ‘अच्युत! तुम महाविष्णु हो। तुम्हारे नि:श्वास (सांस) से वेद प्रकट होंगे, जिनके द्वारा तुम्हें सब कुछ ज्ञान हो जाएगा अर्थात तुम सर्वज्ञ बन जाओगे।’ इस प्रकार महाविष्णु को कहने के बाद भगवान शंकर (पार्वती) के साथ विचरण करने हेतु आनन्दवन में प्रवेश कर गये। पुरुषोत्तम भगवान विष्णु जब ध्यान में बैठे, तो उनका मन तपस्या में लग गया। उन्होंने अपने चक्र से एक सुन्दर पुष्करिणी (सरोवर) खोदकर उसे अपने शरीर के पसीने से भर दिया। उसके बाद उस सरोवर के किनारे उन्होंने कठिन तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर पार्वती के साथ भगवान शिव वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने महाविष्णु से वर माँगने के लिए कहा, तो विष्णु ने भवानी सहित हमेशा उनके दर्शन की इच्छा व्यक्त की। भगवान शिव सदा दर्शन देने के वचन को स्वीकार करते हुए बोले कि मेरी मणिमय कर्णिका[1]यहाँ गिर पड़ी है, इसलिए यह स्थान 'मणिकर्णिका तीर्थ' के नाम से निवेदन किया कि चूँकि मुक्तामय (मणिमय) कुण्डल यहाँ गिरा है, इसलिए यह मुक्ति का प्रधान क्षेत्र माना जाये अर्थात अकथनीय ज्योति प्रकाशित होती रहे। इन कारणों से इसका दूसरा नाम ‘काशी’ भी स्वीकार हो। विष्णु ने आगे निवेदन किया कि ब्रह्मा से लेकर कीट-पतंग जितने भी प्रकार के जीव हैं, उन सबके काशी क्षेत्र में मरने पर मोक्ष की प्राप्ति अवश्य हो। उस मणिकर्णिका तीर्थ में स्नान, सन्ध्या, जप, हवन, पूजन, वेदाध्ययन, तर्पण, पिण्ड दान, दशमहादान, कन्यादान, अनेक प्रकार के यज्ञों, व्रतोद्यापन[2] वृषोत्सर्ग तथा शिवलिंग स्थापना आदि शुभ कर्मों का फल मोक्ष के रूप में प्राप्त होवे। जगत में जितने भी क्षेत्र हैं, उनमें सर्वाधिक सुन्दर और शुभकारी हो तथा इस काशी का नाम लेने वाले भी पाप से मुक्त हो जायें।’महाविष्णु की बातों को स्वीकार करते हुए शिव ने उन्हें आदेश दिया कि ‘आप विविध प्रकार की यथायोग्य सृष्टि करो और उनमें जो कुमार्ग पर चलने वाले दुष्टात्मा हैं, उनके संहार में भी कारण बनो। पाँच कोस के क्षेत्रफल में फैला यह काशीधाम मुझे अतिशय प्रिय है। मैं यहाँ सदा निवास करता हूँ, इसलिए इस क्षेत्र में सिर्फ़ मेरी ही आज्ञा चलती है, यमराज आदि किसी अन्य की नहीं। इस 'अविमुक्त' क्षेत्र में रहने वाला पापी हो अथवा धर्मात्मा उन सबका शासक अकेला मैं ही हूँ। काशी से दूर रहकर भी जो मनुष्य मानसिक रूप से इस क्षेत्र का स्मरण करता है, उसे पाप स्पर्श नहीं करता है और वह काशी क्षेत्र में पहुँच कर उसके पुण्य के प्रभाव से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जो कोई संयमपूर्वक काशी में बहुत दिनों तक निवास करता है, किन्तु संयोगवश उसकी मृत्यु काशी से बाहर हो जाती है, तो वह भी स्वर्गीय सुख को प्राप्त करता है और अन्त में पुन: काशी में जन्म लेकर मोक्ष पद को प्राप्त करता है।
जो मनुष्य श्री काशी विश्वनाथ की प्रसन्नता के लिए इस क्षेत्र में दान देता है, वह धर्मात्मा भी अपने जीवन को धन्य बना लेता है। पंचक्रोशी (पाँच कोस की) अविमुक्त क्षेत्र विश्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध एक ज्योतिर्लिंग का स्वरूप ही जानना और मानना चाहिए। भगवान विश्वनाथ काशी में स्थित होते हुए भी सर्वव्यापी होने के कारण सूर्य की तरह सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। जो कोई उस क्षेत्र की महिमा से अनजान है अथवा उसमें श्रद्धा नहीं है, फिर भी वह जब काशीक्षेत्र में प्रवेश करता है या उसकी मृत्यु हो जाती है, तो वह निष्पाप होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यदि कोई मनुष्य काशी में रहते हुए पापकर्म करता है, तो मरने के बाद वह पहले 'रुद्र पिशाच' बनता है, 'उसके बाद उसकी मुक्ति होती है’
स्कन्द पुराण के अनुसार श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग किसी मनुष्य की पूजा, तपस्या आदि से प्रकट नहीं हुआ, बल्कि यहाँ निराकार परब्रह्म परमेश्वर महेश्वर ही शिव बनकर विश्वनाथ के रूप में साक्षात प्रकट हुए। उन्होंने दूसरी बार महाविष्णु की तपस्या के फलस्वरूप प्रकृति और पुरुष (शक्ति और शिव) के रूप में उपस्थित होकर आदेश दिया। महाविष्णु के आग्रह पर ही भगवान शिव ने काशी क्षेत्र को अविमुक्त कर दिया। उनकी लीलाओं पर ध्यान देने से काशी के साथ उनकी अतिशय प्रियशीलता स्पष्ट मालूम होती है। इस प्रकार द्वादश ज्योतिर्लिंग में श्री विश्वेश्वर भगवान विश्वनाथ का शिवलिंग सर्वाधिक प्रभावशाली तथा अद्भुत शक्तिसम्पन्न लगता है। माँ अन्नापूर्णा (पार्वती) के साथ भगवान शिव अपने त्रिशूल पर काशी को धारण करते हैं और कल्प के प्रारम्भ में अर्थात सृष्टि रचना के प्रारम्भ में उसे त्रिशूल से पुन: भूतल पर उतार देते हैं। शिव महापुराण में श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा कुछ इस प्रकार बतायी गई है– 'परमेश्वर शिव ने माँ पार्वती के पूछने पर स्वयं अपने मुँह से श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा कही थी। उन्होंने कहा कि वाराणसी पुरी हमेशा के लिए गुह्यतम अर्थात अत्यन्त रहस्यात्मक है तथा सभी प्रकार के जीवों की मुक्ति का कारण है। इस पवित्र क्षेत्र में सिद्धगण शिव-आराधना का व्रत लेकर अनेक स्वरूप बनाकर संयमपूर्वक मेरे लोक की प्राप्ति हेतु महायोग का नाम 'पाशुपत योग' है। पाशुपतयोग भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रकार का फल प्रदान करता है। भगवान शिव ने कहा कि मुझे काशी पुरी में रहना सबसे अच्छा लगता है, इसलिए मैं सब कुछ छोड़कर इसी पुरी में निवास करता हूँ। जो कोई भी मेरा भक्त है और जो कोई मेरे शिवतत्त्व का ज्ञानी है, ऐसे दोनों प्रकार के लोग मोक्षपद के भागी बनते हैं, अर्थात उन्हें मुक्ति अवश्य प्राप्त होती है। इस प्रकार के लोगों को न तो तीर्थ की अपेक्षा रहती है और न विहित अविहित कर्मों का प्रतिबन्ध। इसका तात्पर्य यह है कि उक्त दोनों प्रकार के लोगों को जीवन्मुक्त मानना चाहिए। वे जहाँ भी मरते हैं, उन्हें तत्काल मुक्ति प्राप्त होती है। भगवान शिव ने माँ पार्वती को बताया कि बालक, वृद्ध या जवान हो, वह किसी भी वर्ण, जाति या आश्रम का हो, यदि अविमुक्त क्षेत्र में मृत्यु होती है, तो उसे अवश्य ही मुक्ति मिल जाती है। स्त्री यदि अपवित्र हो या पवित्र हो, वह कुमारी हो, विवाहिता हो, विधवा हो, बन्ध्या, रजस्वला, प्रसूता हो अथवा उसमें संस्कारहीनता हो, चाहे वह किसी भी स्थिति में हो, यदि उसकी मृत्यु काशी क्षेत्र में होती है, तो वह अवश्य ही मोक्ष की भागीदार बनती है।
शिव पुराण के अनुसार पृथ्वी पर जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्गुण, निर्विकार तथा सनातन ब्रह्मस्वरूप ही है। अपने कैवल्य (अकेला) भाव में रमण करने वाले अद्वितीय परमात्मा में जब एक से दो बनने की इच्छा हुई, तो वही सगुणरूप में ‘शिव’ कहलाने लगा। शिव ही पुरुष और स्त्री, इन दो हिस्सों में प्रकट हुए और उस पुरुष भाग को शिव तथा स्त्रीभाग को ‘शक्ति’ कहा गया। उन्हीं सच्चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्ति ने अदृश्य रहते हुए स्वभाववश प्रकृति और पुरुषरूपी चेतन की सृष्टि की। प्रकृति और पुरुष सृष्टिकर्त्ता अपने माता-पिता को न देखते हुए संशय में पड़ गये। उस समय उन्हें निर्गुण ब्रह्म की आकाशवाणी सुनाई पड़ी– ‘तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिए, जिससे कि बाद में उत्तम सृष्टि का विस्तार होगा।’ उसके बाद भगवान शिव ने तप:स्थली के रूप में तेजोमय पाँच कोस के शुभ और सुन्दर एक नगर का निर्माण किया, जो उनका ही साक्षात रूप था। उसके बाद उन्होंने उस नगर को प्रकृति और पुरुष के पास भेजा, जो उनके समीप पहुँच कर आकाश में ही स्थित हो गया। तब उस पुरुष (श्री हरि) ने उस नगर में भगवान शिव का ध्यान करते हुए सृष्टि की कामना से वर्षों तपस्या की। तपस्या में श्रम होने के कारण श्री हरि (पुरुष) के शरीर से श्वेतजल की अनेक धाराएँ फूट पड़ीं, जिनसे सम्पूर्ण आकाश भर गया। वहाँ उसके अतिरकित कुछ भी दिखाई नहीं देता था। उसके बाद भगवान विष्णु (श्री हरि) मन ही मन विचार करने लगे कि यह कैसी विचित्र वस्तु दिखाई देती है। उस आश्चर्यमय दृश्य को देखते हुए जब उन्होंने अपना सिर हिलाया, तो उनके एक कान से मणि खिसककर गिर पड़ी। मणि के गिरने से वह स्थान ‘मणिकर्णिका-तीर्थ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।उस महान् जलराशि में जब पंचक्रोशी डूबने लगी, तब निर्गुण निर्विकार भगवान शिव ने उसे शीघ्र ही अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया। तदनन्तर विष्णु (श्रीहरि) अपनी पत्नी (प्रकृति) के साथ वहीं सो गये। उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ, जिससे ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति में भी निराकार शिव का निर्देश ही कारण था। उसके बाद ब्रह्मा जी ने शिव के आदेश से विलक्षण सृष्टि की रचना प्रारम्भ कर दी। ब्रह्मा जी ने ब्रह्माण्ड का विस्तार (विभाजन) चौदह भुवनों में किया, जबकि ब्रह्माण्ड का क्षेत्रफल पचास करोड़ योजन बताया गया है। भगवान शिव ने विचार किया कि ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत कर्मपाश (कर्बन्धन) में फँसे प्राणी मुझे कैसे प्राप्त हो सकेंगे? उस प्रकार विचार करते हुए उन्होंने पंचक्रोशी को अपने त्रिशूल से उतार कर इस जगत में छोड़ दिया।काशी में स्वयं परमेश्वर ने अविमुक्त लिंग की स्थापना की थी, इसलिए उन्होंने अपने अंशभूत हर (शिव) को यह निर्देश दिया कि तुम्हें उस क्षेत्र का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए। यह पंचक्रोशी लोक का कल्याण करने वाली, कर्मबन्धनों को नष्ट करने वाली, ज्ञान प्रकाश करने वाली तथा प्राणियों के लिए मोक्षदायिनी है। यद्यपि ऐसा बताया गया है कि ब्रह्मा जी का एक दिन पूरा हो जाने पर इस जगत् का प्रलय हो जाता है, फिर भी अविमुक्त काशी क्षेत्र का नाश नहीं होता है, क्योंकि उसे भगवान परमेश्वर शिव अपने त्रिशूल पर उठा लेते हैं। ब्रह्मा जी जब नई सृष्टि प्रारम्भ करते हैं, उस समय भगवान शिव काशी को पुन: भूतल पर स्थापित कर देते हैं। कर्मों का कर्षण (नष्ट) करने के कारण ही उस क्षेत्र का नाम ‘काशी’ है, जहाँ अविमुक्तेश्वरलिंग हमेशा विराजमान रहता है। संसार में जिसको कहीं गति नहीं मिलती है, उसे वाराणसी में गति मिलती है। महापुण्यमयी पंचक्रोशी करोड़ों हत्याओं के दुष्फल का विनाश करने वाली है। भगवान शंकर की यह प्रिय नगरी समानरूप से भोग ओर मोक्ष को प्रदान करती है। कालाग्नि रुद्र के नाम से विख्यात कैलासपति शिव अन्दर से सतोगुणी तथा बाहर से तमोगुणी कहलाते हैं। यद्यपि वे निर्गुण हैं, किन्तु जब सगुण रूप में प्रकट होते हैं, तो ‘शिव’ कहलाते हैं। रुद्र ने पुन: पुन: प्रणाम करके निर्गुण शिव से कहा– ‘विश्वनाथ’ महेश्वर! निस्सन्देह मैं आपका ही हूँ। मुझ आत्मज (पुत्र) पर आप कृपा कीजिए। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, आप लोककल्याण की कामना से जीवों का उद्धार करने के लिए यहीं विराजमान हों।’ इसी प्रकार स्वयं अविमुक्त क्षेत्र ने भी शंकर जी से प्रार्थना की है। उसने कहा– ‘देवाधिदेव’ महादेव वास्तव में आप ही तीनों लोकों के स्वामी हैं और ब्रह्मा तथा विष्णु आदि के द्वारा पूजनीय हैं। आप काशीपुरी को अपनी राजधानी के रूप में स्वीकार करें। मैं यहाँ स्थिर भाव से बैठा हुआ सदा आपका ध्यान करता रहूँगा। सदाशिव! आप उमा सहित यहाँ सदा विराजमान रहें और अपने भक्तों का कार्य सिद्ध करते हुए समस्त जीवों के संसार सागर से पार करें। इस प्रकार भगवान शिव अपने गणों सहित काशी में विराजमान हो गये। तभी से काशी पुरी सर्वश्रेष्ठ हो गई। उक्त आशय को ही शिव पुराण में इस प्रकार कहा गया है–देवदेव महादेव कालामयसुभेषज। त्वं त्रिलोकपति: सत्यं सेव्यो ब्रह्माच्युतादिभि:।।काश्यां पुर्यां त्वया देव राजधानी प्रगृह्यताम्। मया ध्यानतया स्थेयमचिन्त्यसुखहेतवे।। मुक्तिदाता भवानेव कामदश्च न चापर:। तस्मात्त्वमुपकाराय तिष्ठोमासहित: सदा।।जीवान्भवाष्धेरखिलास्तारय त्वं सदाशिव। भक्तकार्य्यं कुरू हर प्रार्थयामि पुन: पुन:।।इत्येवं प्रार्थितस्तेन विश्वनाथेन शंकर:। लोकानामुपकारार्थं तस्थौ तत्रापि सर्वराट् ।काशी नगरी में निवास कर रहा हो और उसकी आर्थिक स्थिति डाँवाडोल हो गई हो, फिर भी वह काशी छोड़कर दूर नहीं जाना चाहता है। शास्त्रकारों ने लिखा है कि जिस स्थान पर मृत्यु मंगलदायक, भस्म का त्रिपुण्ड अलंकार है, लंगोटी रेशमी वस्त्र के समान है । मरणं मंगलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम्। कौपीनं यत्र कौशेयं सा काशी केन मीयते।। गंगा के किनारे दशाश्वमेध-घाट पर सामान्य व्यक्ति कहते मिल जाता है कि– चना चबेना गंगजल, जो पूरवे करतार।काशी कभी न छोड़ियो, बाबा विश्वनाथ दरबार।। माँ गंगा के किनारे बसी हुई श्री माँ अन्नपूर्णा सहित भोलेनाथ बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी अतीव दिव्य है, मोक्षदायिका और तीनों लोकों से विलक्षण है। श्री विश्वेश्वर विश्वनाथ का ज्योतिर्लिंग साक्षात भगवान परमेश्वर महेश्वर का स्वरूप है । काशी में भगवान शिव सदा विराजमान रहते हैं। काशी में भगवान शिव स्वयं विराजमान हैं और काशी के द्वारपाल काल भैरव , विद्या की देवी माता सरस्वती , माहा लक्ष्मी , माहाकाली , , अन्नपूर्णा और मोक्षदायिनी गंगा निरंतर प्रविहित होती है ।
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