सनातन संस्कृति और विश्व की धार्मिक परंपराओं से मानव जीवन संक्रमण मुक्ति का साधन है । वेदों , शास्त्रों तथा विश्व के धर्म ग्रंथ में संक्रमण से मुक्ति होने का महत्वपूर्ण उल्लेख है । कोरोना विषाणुओं (वायरस) का समूह स्तनधारियों और पक्षियों में रोग उत्पन्न करता है। आरएनए वायरस होने के कारण मानवों में श्वास तंत्र संक्रमण पैदा हो सकता है जिसकी गहनता सर्दी-जुकाम से लेकर अति गम्भीर मृत्यु तक हो सकती है। गाय और सूअर पक्षियों में इनके कारण अतिसार होता है । मुर्गियों के ऊपरी श्वास तंत्र के रोग उत्पन्न हो सकते हैं। इनकी रोकथाम के लिए कोई टीका (वैक्सीन) या विषाणुरोधी उपलब्ध है और उपचार के लिए प्राणी की अपने प्रतिरक्षा प्रणाली पर निर्भर करता है। अभी तक रोगलक्षणों निर्जलीकरण या डीहाइड्रेशन, ज्वर, आदि का उपचार किया जाता है। संक्रमण से लड़ते हुए शरीर की शक्ति बना है। चीन के वूहान शहर से उत्पन्न होने वाला 2019 नोवेल कोरोनावायरस समूह के वायरसों का एक संक्रमण सन् 2019-20 काल में तेज़ी से उभरकर 2019–20 वुहान कोरोना वायरस प्रकोप के रूप में फैलता रहा है। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसका नाम कोविद -19 रखा है । लातीनी ( लैटिन ) भाषा में "कोरोना" का अर्थ "मुकुट" होता है और इस वायरस के कणों के इर्द-गिर्द उभरे हुए कांटे ढाँचों से इलेक्ट्रान सूक्षमदर्शी में मुकुट आकार दिखता है, जिस पर इसका नाम रखा गया था। सूर्य ग्रहण के समय चंद्रमा सूर्य को ढक लेता है । चन्द्रमा के चारों ओर किरण निकलती प्रतीत होती है उसको भी कोरोना कहते हैं।यह विषाणु भी प्राणियों से आया है। अधिकतर लोग जो चीन शहर के केंद्र में स्थित हुआनन सीफ़ूड होलसेल मार्केट में खरीदारी के लिए आते हैं या फिर प्रायः काम करने वाले लोग जो जीवित या नव वध किए गए प्राणियों को बेचते थे । वायरस से संक्रमित थे। चूँकि यह वुहान, चीन से आरम्भ हुआ, इसलिये इसे वुहान कोरोनावायरस के नाम से भी जाना जाता है। हालाँकि डब्ल्यूएचओ ने इसका नाम सार्स-कोव २ रखा है।ये बड़े गोलाकार कणों के रूप में होते हैं। वायरस के कणों का व्यास लगभग 120 नैनोमीटर होता है। वायरल कैप्सूल में एक लिपिड बाईलेयर होती है। जहां मेम्ब्रेन(झिल्ली), आवरण, और स्पाइक संरचनात्मक प्रोटीन डले होते हैं। कोरोना वायरस का एक उपसमूह, हेमग्लगुटिनिन एस्टरेज़ नामक एक छोटा स्पाइक जैसी सतह प्रोटीन है।कैप्सूल के अंदर न्यूक्लियोकैप्सिड होते है, न्यूक्लियोकैप्सिड (एन) प्रोटीन की कई प्रतियों से बनता है। ये RNA युक्त विषाणु होते हैं। जब यह होस्ट सेल के बाहर होता है तो लिपिड बाईलेयर कैप्सूल, झिल्ली प्रोटीन और न्यूक्लियोकैप्सिड वायरस की रक्षा करते हैं।जीनोम विषाणु में एकल आरएनए युक्त जीनोम पाया जाता है। कोरोना वायरस के जीनोम का आकार लगभग 27 से 34 किलोबेस तक होता है।भारत में रोकथाम के लिये सभी गैर आवश्यक कार्य रोक दिये गये हैं, और लोगों को अपने घरों में रहने के निर्देश दिये गये हैं। वर्तमान में बचाव ही इसका उपाय है। इसी को देखते हुए भारत सरकार ने पूरे देश में १७ मई तक लॉकडाउन की घोषणा कर दी थी, जिसे बढ़ा कर ३१ मई कर दिया गया।इसके बाद अभी भी कुछ छूट के साथ ३१ जुलाई तक लॉकडाउन जारी है।
कोरोना के कारण अमेरिका को सबसे अधिक नुकसान का सामना करना पड़ा।
रोगों में कुछ रोग ऐसे पीड़ित व्यक्तियों के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संपर्क, या उनके रोगोत्पादक, विशिष्ट तत्वों से दूषित पदार्थों से विशेष महत्व है, क्योंकि विशिष्ट उपचार एवं अनागत बाधाप्रतिषेध की सुविधाओं के अभाव में इनसे महामार फैलती है । कभी-कभी फैलकर सार्वदेशिक वैश्विक रूप भी धारण करती है।
19वीं शताब्दी में पाश्चात्य वैज्ञानिक लूई पास्चर ने अपने प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित किया कि जीवाणुओं द्वारा विशिष्ट व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। कॉक नामक वैज्ञानिक ने बैक्टीरिया अध्ययन की कतिपय प्रयोगशालीय पद्वतियों पर प्रकाश डाला। तत्पश्चात् इस प्रकाश से प्रेरणा लेकर अनेक वैज्ञानिक संहारक रोगों के जनक इन जीवाणुओं की खोज में लग गए और 19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में वैज्ञानिकों ने रोगजनक जीवाणुओं की खोज यथा पूयोत्पादक, राजयक्ष्मा, रोहिणी , आंत्र ज्वर , विसूचिका , धनुस्तंभ , ताऊन , एवं प्रवाहिका आदि संक्रामक रोगों के विशिष्ट जीवाणुओं का पता लगाकर इनके गुणधर्म, संक्रमण एवं नैदानिक पद्धतियों पर भी प्रकाश डाला है। ।अब इस दिशा में अत्यधिक सफलता प्राप्त की गई है तथा इस प्रकार के अधिकांश रोगों के जीवाणुओं का निश्चित रूप से पता लगा लिया गया है। परिणामत: इनके संक्रमण की रोकथाम की तथा चिकित्सा में भी पर्याप्त सफलता मिली है। रोगजनक जीवाणु अत्यंत सूक्ष्म होते हैं और केवल सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही देख सकते हैं। सूक्ष्माकार के कारण इनकी लंबाई माइक्रोन में बतलाई जाती है। ये जीव वर्ग के एक कोशिकावाले अतिसूक्ष्म जीव होते हैं।रोगजनक, संक्रमण में किसी न किसी जीवाणु का प्राय: हाथ होता है। ये जीवाणु वायु, जल, भूमि तथा प्राणियों के शरीर में कहीं कम, कहीं अधिक तथा समय विशेष एवं विशेष जलवायु क्षेत्र में न्यूनाधिक संख्या में पाए जाते हैं। प्राय: एक विशिष्ट प्रकार की विकृति तथा लक्षण उत्पन्न करनेवाले संक्रमण में एक विशिष्ट प्रकार का जीवाणु उत्तरदायी होता है, किंतु कभी-कभी एक से अधिक प्रकार के जीवाणुओं का संक्रमण एक साथ भी होता है, जिसे मिश्र संक्रमण कहते हैं और कभी एक ही प्रकार की विकृति अनेक भिन्न प्रकार के जीवाणुसंक्रमण से भी होती है।संक्रामी व्यक्ति से अन्य स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में संक्रमण भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। फिरंग , सूजाक तथा विसर्प एवं मसूरिका आदि रोगों का संक्रमण मृत, संक्रांत या वाहक मनुष्य या पशु के प्रत्यक्ष संसर्ग से होता है। कुछ संक्रमण, जलसत्रास आदि, कुत्ते, स्यार तथा चूहे के काटने से होते हैं। श्वसनतंत्र के कुछ रोगों का संक्रमण खाँसने, छींकने या जोर से बोलते समय छोटे छोटे बिंदुओं के बाहर निकलने से समीप में बैठनेवालों को हो जाता है। संक्रांत, व्याधित या वाहक व्यक्ति के दूषित वस्त्र, पात्र, खाद्य, पेय, हाथ, यंत्र, शस्त्र, वायु एवं मुख संबंधी वस्तुओं के सेवन से अप्रत्यक्ष संक्रमण होता है। पाचन तंत्र के संक्रामक रोगों को फैलाने में घरेलू मक्खी एक प्रमुख यांत्रिक वाहक है। कुछ रोग जैसे मलेरिया, कालाजार, श्लीपद, प्लेग आदि का संक्रमण कीटाणुओं के वाहक मच्छर, पिस्सू, भुनगे, जूँ और किलनी के दंश से होता है।जीवाणु संक्रमण और विषाणु-संक्रमण दोनो के लक्षण हैं। संक्रमण का कारण बैक्टीरिया है या वाइरस, यह पता करना बहुत महत्व का है क्योंकि विषाणुजनित संक्रमण को प्रतिजैविकों के द्वारा ठीक नहीं किया जा सकता।सामान्य लक्षण सामान्यतः विषाणु के कारण पैदा संक्रमण शरीर के कई अंगों को प्रभावित करता है। बहुत कम विषाणुजनित संक्रमणों के होने पर दर्द होता है। विषाणु द्वारा उत्पन्न संक्रमणों में खुजली या 'जलन' होती है ।
कोरोना वायरस के कारण अस्तित्व में आई कोविड - 19 महामारी का सामना कर रहा है । तीन महीनों में करोना वायरस ने दुनिया की पूरी आबादी को घेर लिया है. वैज्ञानिक के अनुसार मानव समाज को झकझोर देने वाले कोरोना वायरस का यदि वज़न तोला जाएगा । सभ्य समाज के रूप में, ऐसे कर्म करना अब बंद करें, जो इन वायरसों और बैक्टीरिया को महामारी फैलाने के लिए मजबूर करते हैं । साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा है कि महामारियों और वायरस स्रोतों के इतिहास के बारे मे वायरस के प्रकोप पहले प्लेग द्वारा एशिया, यूरोप और अफ्रीका को प्रभावित किया है. मानव इतिहास के साथ कई महामारियां भी जुडी हुई है । महामारियों के स्रोत पारिस्थितिकी तंत्र और मानव समाज की व्यापारिक गतिविधियों के साथ भी जुड़े हुए हैं ।चूहे या गंदे पानी या चमगादड़ या मच्छर कुछ ख़ास वायरसों और बैक्टीरिया के संवाहक होते हैं । मानवीय गतिविधियों और उसकी गतिशीलता के कारण ये वायरस और बैक्टीरिया मानव तक पहुँचते रहे हैं. पिछले 20 सालों का अनुभव बताता है कि मानव जितना जंगलों और वन्य जीवन को प्रभावित करने लगा है, उतना ही वायरस प्रकोप बढ़ने लगा है ।पुरातन काल में जब भी कोई महामारी फैलती थी, उसे प्लेग ही कहा जाता था. प्लेग को महामारी, देवीय कोप, विपत्ति, उत्पाद आचार भ्रष्टता के पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है । मानव इतिहास में महामारियां फैलती रही हैं. चिकित्सा इतिहासकारों के मुताबिक ईसा पूर्व के समय में 41 महामारियों के दस्तावेज मिले हैं । ईसा पश्चात विश्व में महामारियां फैलती रही हैं । इनके उपचार नहीं होने के कारण हर बार महामारियों में कुछ लाख से कुछ करोड़ लोगों तक की मृत्यु हुई है ।एक तरह की कहावत रही है कि प्लेग सिन्धु नदी पार नहीं कर सकता यानी महामारियां भारत को प्रभावित नहीं करती थीं। 19वीं शताब्दी में उपनिवेशवाद भारत में प्लेग और हैजा सरीखी महामारियां भी ले आया. आज़ादी के बाद हमें केवल आर्थिक सम्पन्नता की जरूरत भर नहीं थी, बल्कि स्वस्थ जीवन का लक्ष्य भी तय किया जाना था । महामारियां वायरस (विषाणु) के कारण भी फैलती हैं और बैक्टीरिया (जीवाणु) के कारण वायरस अपने आप में एक सूक्ष्म अकोशिकीय जीव होता हहै । हज़ार सालों तक सुसुप्तावस्था में रह सकता है. इसका व्यवहार एक बीज की तरह होता है, जब बीज को मिटटी-नमी-पानी-हवा-सूरज की रौशनी में मिलती है । वायरस मानव की लार, खून या आंसू के संपर्क में आकर यह सक्रिय हो जाता है और अपना वंश बढाने लगता है. ये जिस कोशिका से जुड़ते हैं, उसे संक्रमित कर देते हैं. वायरस लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ होता है लसलसा तरह या जहरीला है । बैक्टीरिया का मतलब है जीवाणु यानी जीवित अणु या कोशिकीय जीव; ये शरीर के भीतर रहते हैं और बाहर भी. हमारे पाचन तंत्र में करोड़ों बैक्टीरिया होते हैं, जो पाचन में मदद भी करते हैं. ज्यादातर बैक्टीरिया अच्छे होते हैं, लेकिन कुछ बैक्टीरिया मानव के लिए घातक भी होते है. मसलन प्लेग की बीमारी बैक्टीरिया से फैलती है. इसका मतलब है कि जब संतुलन बिगड़ा और मानव ने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया है
एंटोनाइन प्लेग - 165 ई. से 180 ई. के बीच एशिया मिनोर , दक्षिण-पूर्वी एशिया और टर्की, मिस्र, ग्रीस और इटली में एक किस्म का बैक्टीरिया संक्रमण फैला था, जिसे एंटोनियन प्लेग या गेलें प्लेग की महामारी कहा गया. इसके बारे में यह पता नहीं चला कि यह कौन सी बीमारी थी किन्तु इसे चेचक या खसरा माना गया है। तथ्य बताते हैं कि जब रोम की सेनायें मेसोपोटामिया से वापस लौटीं, तब यह संक्रमण रोम में आया. किसी को इसके बारे में कोई अंदाज़ ही नहीं लग पाया और यह फ़ैलता गया. इस संक्रमण ने तब 50 लाख लोगों की जान ली थी और रोम की पूरी सेना को लगभग नष्ट कर दिया था. इस संक्रमण की व्याख्या करने वाले रोमन चिकित्सक गेलें के नाम पर इसे “गेलें प्लेग” कहा जाने लगा. इस संक्रमण से रोमन सम्राट लूसियस वेरस की वर्ष 169 में मृत्यु हो गयी थी. वे मार्कस औरेलियस एंटोनिनस के सह-राजप्रतिनिधि थे. इसीलिए उस वक्त फैली महामारी को एंटोनाइन प्लेग महामारी नाम दे दिया गया । रोमन इतिहासकार डियो कैसियस के मुताबिक़ नौ साल बाद यह महामारी फिर से फैली. इससे हर रोज़ लगभग 2000 लोगों की मृत्यु हुई. बीमारी से संक्रमित एक चौथाई लोगों की मृत्यु हुई. कुछ क्षेत्रों में तो एक तिहाई जनसंख्या समाप्त हो गयी थी.जस्टिनियन प्लेग - 541-42 ई. में जस्टिनियन प्लेग ने यूरोप की एक बड़ी आबादी को ख़तम कर दिया था. आंकलनों के अनुसार इससे 2.5 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी. इस ब्युबोनिक प्लेग के संक्रमण ने बयजैंटाईन साम्राज्य और मेडीटेरेनेनियन के तटीय शहरों को बहुत प्रभावित किया था. आधुनिक और प्राचीन यर्सिनिया पेस्टिस डीएनए के आनुवंशिक अध्ययनों से पता चलता है कि जस्टिनियन प्लेग की उत्पत्ति मध्य एशिया में हुई थी. इस पिस्सू के डीएनए के अध्ययन से पता चला कि इसकी जड़ें चीन के किंगहाई में थीं, फिर इसकी जड़ें तिआन शान पर्वत श्रंखला में भी पायी गयीं. यह माना जा सकता है कि मानवीय गतिशीलता के कारण बैक्टीरिया और इसके संवाहक भी एक स्थान से दूसरे स्थान की तरफ गए. व्यापारियों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले जहाज़ों से ही चूहे भी सफ़र करते थे. इन चूहों पर प्लेग से संक्रमित पिस्सू सवार रहते थे. जब चूहों की मृत्यु होती, तो ये पिस्सू इंसानों पर सवार होने लगते. जो प्लेग का मुख्य कारण बने । ब्लेक डेथ - 1346 ई. से 1353 ई. के बीच में फैले ब्युबोनिक प्लेग ने यूरोप, अफ्रीका और एशिया को लगभग तबाह कर दिया था. माना जाता है कि इसके कारण 7.50 करोड़ से 20 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी. यह प्लेग अक्टूबर 1347 में यूरोप पहुंचा, जब “ब्लेक सी” (काले सागर) के तट पर मेस्सिना के सिसिलियन बंदरगाह पर 12 जहाज़ आकर रुके. जो लोग बंदरगाह पर मौजूद थे, वे जहाज़ का दृश्य देख कर भोंचक रह गए. जहाज पर यात्रा कर रहे ज्यादातर सैलानी मरे हुए थे. और जो जीवित थे उनके शरीर काले फफोलों से भरे हुए थे, जिनमें से खून और मवाद रिस रहा था. सिसिलियन के अधिकारियों ने तत्काल इन जहाज़ों को बंदरगाह छोड़ने का आदेश दिया, किन्तु तब तक देर हो चुकी थी. प्लेग का बैक्टीरिया अपना स्थान बना चुका था और अगले पांच सालों में इसने यूरोप की एक तिहाई जनसँख्या यानी लगभग 2 करोड़ लोगों की जान ले ली । चूहों के साथ सफ़र करते हुए संक्रमित पिस्सुओं ने अपना प्रभाव दिखाया था. चूहों के मरने के बाद वे इंसानों पर आक्रमण करने लगे थे. बहरहाल इन जहाज़ों के आने से पहले ही यूरोपीय समुदाय इस संक्रमित महामारी के बारे में सुन रखा था, जो व्यापार मार्ग के जरिये दुनिया के दूसरे हिस्सों में अपनी पहुँच बढ़ा रहा था. इस प्लेग का वायरस 2000 साल पहले एशिया में पाया गया और व्यापारिक परिवहन के जरिये फैलता गया. हांलाकि अध्ययन यह भी बता रहे हैं कि प्लेग का रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया यूरोप में 3000 साल पहले विद्दमान रहे हैं। इटालियन कवि जियोवानी बोकासीको ने “इन मेन एंड वीमेन अलाइक” में लिखा - कुरूपता की शुरुआत में, कुछ सूजन, या तो कमर पर या कांख के नीचे ... कहीं आम के तो कहीं अंडे के आकार के फोड़े, जिन्हें नाम दिया गया – प्लेग फफोले; । वर्ष 1664-65 में लन्दन में महामारी फैली थी. उस वक्त लन्दन की 4 लाख की आबादी में से दो-तिहाई आबादी ने लन्दन छोड़ दिया था. और बचे हुए लोगों में से 69 हज़ार लोगों की मृत्यु हो गयी थी. महामारी ने 1894 में हांगकांग में कहर बरपाया, 1896 में इसने रूस को अपने शिकंजे में लिया । प्लेग की तीसरी महामारी वर्ष 1855 में फैली. इसकी शुरुआत चीन के युन्नान प्रांत से हुई और पूरे महाद्वीप में फ़ैल गयी. तब भारत और चीन में 1.2 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक यह बैक्टीरिया वर्ष 1960 तक सक्रिय था । हैजा - 1852-60 ई. में हैजे की सात महामारियां फैली हैं, जिनमें से तीसरी सबसे भयावह मानी जाती है. इसने 10 लाख लोगों का जीवन लील लिया था. पहली और दूसरी हैजा महामारी की तरह ही तीसरी भी भारत में ही पैदा हुई थी. गंगा नदी के डेल्टा से उभर कर यह एशिया के अन्य भागों, यूरोप, उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका तक पहुंची. ब्रिटिश चिकित्सक जान स्नो ने लन्दन की गरीब बस्तियों में अध्ययन करते हुए यह पाया कि हैजा दूषित पानी के कारण फैलता है. उसी साल में (वर्ष 1854 में) ब्रिटेन में यह महामारी फैली और 23 हज़ार लोगों की मृत्यु हो गयी। हैजे की छठी महामारी ने 1910-11ई . में भारत में 8 लाख से ज्यादा लोगों की जान ली थी. इसके बाद यह मध्य-पूर्व, उत्तर अफ्रीका, पूर्वी यूरोप और रूस तक फैला है । स्पेनिश फ्लू , इन्फ़्ल्युएन्जा (श्लैष्मिक ज्वर) - इन्फ़्ल्युएन्जा एक वायरस (एच1 एन1, 2, 3) के कारण पैदा होने वाली स्वास्थ्य स्थिति है. फ्लू की महामारी 1889-90 में भी फैली थी. तब इसे एशियाटिक या राशियन फ्लू भी कहा गया था. इसके मामले दुनिया में एक साथ तीन जगहों पर मिले थे – बुखारा (तुर्केस्तान), अथाबास्का (उत्तर-पश्चिम कनाडा) और ग्रीन लैंड. जनसँख्या की सघनता ने इसे फैलने में मदद की. इसके कारण 10 लाख लोगों की मृत्यु हुई. । वर्ष 1918-20 की महामारी को स्पेनिश फ्लू की महामारी के नाम से भी जाना जाता है. तीन सालों में इसने 50 करोड़ लोगों को संक्रमित किया था. अनुमान लगाया जाता है कि इसके कारण 2 करोड़ से 10 करोड़ लोगों की मौत हुई थी. चूंकि वह पहले विश्व युद्ध का दौर था इसलिए महामारी की ख़बरें सार्वजनिक करने पर रोक थी. केवल स्पेन ने महामारी के बारे में जानकारियाँ देने की पहल की है। आम तौर पर इन्फ्लूएंजा के कारण बच्चों और बुजुर्गों की मृत्यु ज्यादा होती रही है, किन्तु स्पेनिश फ्लू ने युवाओं की मृत्यु दर को बढ़ा दिया था. वर्ष 2007 में हुए अध्ययनों के आधार पर बताया गया कि इन्फ्लूएंजा का संक्रमण इतना घातक नहीं था किन्तु स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, कुपोषण, बस्तियों के सघन होने के कारण यह महामारी घातक हो गयी थी । संक्रमण ने लम्बे समय तक व्यक्तियों को बीमार बनाए रखा और मृत्यु का बड़ा कारण साबित हुआ. इसने भारत में भी 1.2 करोड़ लोगों की जीवन ले लिया है । इन्फ़्ल्युएन्जा (श्लैष्मिक ज्वर) एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संक्रमित हो सकता है. इस बीमारी में मुख्य रूप से बुखार, सर्दी/नाक बहना, गले में खराश, बदन दर्द सरीखे ही लक्षण होते हैं. आशंका है कि फ्लू की ऐसी ही महामारी मानव समाज में फिर से कभी भी फैल सकती है. वर्ष 1918-20 की अवधि में जब यह महामारी फैली थी तब शुरू के 25 हफ़्तों में ही 2.50 करोड़ लोगों की मृत्यु हो गयी थी. इस महामारी के पहले इन्फ़्ल्युएन्ज़ा से बच्चों और बुजुर्गों की मृत्यु ज्यादा होती थी, किन्तु इस महामारी के दौरान युवा उम्र के स्वस्थ लोगों की भी बहुत मौतें हुईं, जबकि जिनकी प्रतिरोधक क्षमता बेहतर थी, वे जीवित बचे रहे. यहाँ तक कि वंचित तबकों में मज़बूत प्रतिरोधक क्षमता वाले बच्चों की मृत्यु दर कम रही है ।ढाई हजार साल पुराने जैन धर्म और सनातन संस्कृति के सिद्धांतों से हारेगा कोरोना । कोरोना महामारी से बचाव के लिए तरीके अपनाए जा रहे हैं, जैन धर्म में ढाई हजार वर्ष पहले ही ऐसे सिद्धांत बना दिए गए थे । इसको लेकर जैन आचार्य विजय दर्शन रत्न ने बताया कि 2500 साल पहले जैन धर्म में बताए गए सिद्धांतों के जरिए ही कोरोना से बचाव हो सकता है । झुंझुनू. ज्ञान और सभ्यता में विश्व गुरु कहे जाने वाले भारत में करीब ढाई हजार वर्ष पुराने जैन धर्म में जो आचार-विचार और परंपराएं हैं, उनको आज कोरोना महामारी ने पूरे विश्व को अपनाने के लिए मजबूर कर दिया है. जैन मुनि जिन सिद्धांतों का पालन करते हैं, वे कोरोना महामारी से बचाव के लिए अब पूरे विश्व में प्रथम साधन बन गए हैं ।ढाई हजार साल पुराने जैन धर्म के सिद्धांतों से ही हारेगा कोरोनाझुंझुनू में अभी चतुर्मास के लिए दादाबाड़ी में विराज रहे जैन धर्म के संत आचार्य विजय दर्शन रत्न से हमने इस बारे में चर्चा की. आचार्य बताते हैं कि जैन धर्म के अनुसार सभी जीवों को जीने का अधिकार है, और जाने अनजाने में भी उनकी हत्या महापाप है. उन्होंने कहा कि कोरोना जैसी भयानक बीमारियां जीवों की हत्या का ही परिणाम हैं.अभी कोरोना के बारे में तो बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है, लेकिन कौन नहीं जानता कि स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू और न जाने कितनी महामारी पशु और जानवरों से इंसान में आई और इंसान को प्रकृति के आगे झुकने को मजबूर कर दिया. इसलिए जैन धर्म के मुख्य सिद्धांत अहिंसा और संयम कोरोना से बचाव के लिए अब पूरे विश्व की मजबूरी बनता जा रहा है. गौरतलब है कि कोरोना महामारी के दौरान पशुओं की हत्या लगभग बंद हो गई थी और जहां पर हमेशा मांसाहार का उपयोग किया जाता है, वहां पर भी लोग शाकाहारी बन गए.अहिंसा से ही जुड़ा हुआ है मुंह पर मास्क लगानाजैन धर्म में माना जाता है कि वातावरण में करोड़ों वायरस या जीव विद्यमान हैं. मुंह खुला होने से अनजाने में ही मुंह के माध्यम से अंदर चले जाते हैं, जिससे जीव हत्या का पाप लगता है. इसलिए जैन साधु- संत हमेशा मुंह पर मास्क लगाकर ही रखते हैं. जैन धर्म में मुंह ढकने की ये परंपरा सैकड़ों सालों से चली आ रही है. आज मास्क लगाने की परंपरा कोरोना से बचाव में कारगर साबित हो रही है.उबला पानी पीनाकोरोना महामारी में बचाव के लिए हमेशा हमेशा उबले या गर्म पानी पीने की सलाह दी जाती है, लेकिन जैन धर्म के साधु-संत हजारों सालों से इसका उपयोग कर रहे हैं. जैन धर्म के साधु-संत अपने सिद्धांत के अनुसार कभी भी कच्चा पानी यानी ठंडा पानी नहीं पीते हैं. वे हमेशा उबालकर ही पानी पीते हैं. वे जब भी विहार करते हैं, तब भी कड़ी प्यास लगने के बावजूद भी साधारण पानी का उपयोग नहीं करते. पानी को उबालकर पीना उनके नियमों में है.जैन धर्म में भी होती है सोशल डिस्टेंसिंगकोरोना से बचाव के लिए सोशल डिस्टेंसिंग को भी एक हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है. इसके लिए दुनिया के तमाम देशों को लॉकडाउन जैसे फैसले लेने पड़े. जैन धर्म में अलगाव का सिद्धांत है. जैन धर्म में ध्यान लगाने के लिए अलगाव सिद्धांत का भी पालन किया जाता है. जैन धर्म में योग और ध्यान के लिए ऋषि-मुनि भी अलगाव में चले जाते हैं.जैन मुनि अपने को रखते हैं आइसोलेशन मेंसम्यक एकांत को सामान्य भाषा में आइसोलेशन कहा जाता है. जैन ऋषि और मुनि बाकी दुनिया से अलग एकांत में रहते हैं, ताकि बुराई या फिर किसी प्रकार का लालच उन्हें छू न सके । कोरोना के संक्रमण के डर से आइसोलेशन के नियमों को सारी दुनिया मान रही है. समाज से दूर लोग खुद को आइसोलेशन में रखना पसंद कर रहे है । ग्रंथों के अनुसार तुलसी के पौधे ,
नीम , आँवला, पीपल , बरगद , केला वायरस को समाप्त करने का अचुक दवा है वहीं गाय की दूध , दही , घी , मक्खन किसी भी प्रकार का वायरस मानव जीवन में प्रवेश नहीं होने नहीं देती है। दो गज दूरी : मास्क जरूरी का सिद्धांत का पालन करना आवश्यक है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें