शनिवार, मई 08, 2021

भूतलपर भगवान शिव का वाङ्गमय स्वरूप ...

 
भगवान शिव के अवतार में सातवें मनु वैवस्वतमनु का मन्वन्तर में श्वेत , सुतार ,मदन , सुहोत्र ,कंकलौगाक्षी ,महामायावी , महानिल ,जैगीषव्य , दधिवाह , ऋषभ मुनि , उग्र , अत्रि ,सुपलक ,गौतम , वेदशिरा ,गोकर्ण , गुहवासी , शिखंडी ,जटामाली ,अट्टहास , दारुक , लांगुली ,माहाकाल , शूली ,डंडी , मुंडिश , सहिष्णु , सोमशर्मा ,और नकुलीश्वर है ।  सृष्टि की उत्पत्ति का प्रारंभ आकार एल्लिप्स यानी दीर्घवृताकार के रूप में हुआ है । पूर्ण दीर्घवृत्त या इल्लिप्स को  एक लिंग कहते हैं। सृष्टि की  शुरुआत  एक दीर्घवृत्त या  लिंग के रूप में हुई और उसके बाद ये कई रूपों में प्रकट हुई थी ।
पत्थर के टुकड़े को दिव्य जीवंतता में तब्दील कर  ईश्वरत्व को स्थापित करने की प्रक्रिया है।
शिवलिंग प्रतिष्ठा का अर्थ ईश्वरत्व को स्थापित करना है । प्राण-प्रतिष्ठा ऐसी प्रक्रिया नहीं है। जब एक आकार की प्रतिष्ठा या स्थापना जीवन ऊर्जाओं के माध्यम से की जाती है, न कि मंत्रों या अनुष्ठानों से,जब यह एक बार स्थापित हो जाए तब हमेशा के लिए रहता है।लिंग को बनाने का विज्ञान एक अनुभव से जन्मा विज्ञान है । नौ सौ सालों में, खासतौर पर जब भारत में भक्ति आंदोलन की लहर फैली, मंदिर निर्माण का विज्ञान खो गया था । ऊर्जा तंत्र में वे स्थान होते हैं जहां प्राण की नाड़ियाँ मिलती हैं और ऊर्जा का एक भंवर बनता है।  शरीर में 114 चक्र होते हैं । भारत में अधिकतर लिंगों में केवल एक या दो चक्र ही स्थापित है। ईशा योग केंद्र में मौजूद ध्यानलिंग की खासियत  है कि इसमें सातों चक्रों को अपने चरम तक ऊर्जावान बनाकर स्थापित किया गया है। यह ऊर्जा की सबसे उच्चतम संभव अभिव्यक्ति है । 
योग की सबसे बुनियादी साधना है भूतशुद्धि। पंचभूत, प्रकृति के पांच तत्व हैं। अगर आप खुद को देखें तो आपका शरीर पांच तत्वों का बना हुआ है। ये हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश। ये आपस में एक खास तरीके से मिलकर भौतिक शरीर के रूप में प्रकट होते हैं। आध्यात्मिक प्रक्रिया, भौतिक प्रकृति और इन पंच तत्वों से परे जाने की प्रक्रिया है। इन तत्वों की उन सभी चीज़ों पर बहुत ही मज़बूत पकड़ है जिन्हें आप अनुभव करते हैं। इनसे परे जाने के लिए योग का एक बुनियादी अभ्यास है, जिसे भूत शुद्धि कहते हैं। हर एक तत्त्व के लिए एक खास तरह का अभ्यास है, जिसे आप कर सकते हैं और उस तत्त्व के मुक्त हो सकते हैं।दक्षिण भारत में पांच भव्य मंदिरों की रचना की गई थी। हर एक मंदिर में एक लिंग स्थापित किया गया था, जो पंचतत्वों में से एक तत्व को दर्शाता है। अगर आप “जल” तत्व के लिए साधना करना चाहते हैं तो आप तिरुवनईकवल जाएं। आकाश तत्व के लिए आप चिदंबरम जाएं, वायु तत्व के लिए कालाहस्ती, पृथ्वी तत्व के लिए कांचीपुरम और अग्नि तत्व की साधना करने के लिए आप थिरुवन्नामलई जा सकते हैं।
ये मंदिर पूजा के लिए नहीं, साधना के लिए बनाए गए थे।भारतीय संस्कृति, धरती की उन  संस्कृतियों में से एक है, जिसमें हजारों बरसों से लोगों ने केवल मानव जाति के परम कल्याण पर  ध्यान दिया है। ज्योतिर्लिंगों में ज़बरदस्त शक्ति होती है, क्योंकि  खास तरीके से बनाया गया है। इन्हें बनाने में न केवल मानव क्षमताओं का बल्कि प्राकृतिक शक्तियों का भी उपयोग किया गया।पूरी दुनिया में सिर्फ बारह ज्योतिर्लिंग हैं। भूगोल और खगोलशास्त्र की नजर से वे महत्वपूर्ण स्थानों पर स्थित हैं। इन स्थानों पर एक तरह की शक्ति है। काफी समय पहले कुछ खास तरह की समझ रखने वाले लोगों ने इन स्थानों को बारीकी से जांचा और खगोलीय गतिविधि के आधार पर इन जगहों का चुनाव किया था। ज्योतिर्लिंग में बहुत शक्तिशाली यन्त्र की तरह है ।  मंडल में कुछ मिनट तक मौन होकर बैठते हैं  वे ध्यान की गहरी अवस्था का अनुभव करते हैं। संस्कृत में ध्यान का अर्थ है “मैडिटेशन” और लिंग का अर्थ है “आकार”। सद्गुरु ने अपनी प्राण ऊर्जाओं का प्रयोग करके प्राण प्रतिष्ठा नामक एक दिव्य प्रक्रिया द्वारा लिंग को उसके चरम पर स्थापित किया है।
शिव का शाब्दिक अर्थ है- वो नहीं है या कुछ-नहीं। शि अक्षर से  ‘कुछ’ और व अक्षर से  ‘नहीं’  है।  परमाणु और पूरे ब्रह्मांड का निन्यानवे फीसदी से ज्यादा हिस्सा खाली है। एक शब्द “काल”, समय और स्पेस दोनों के लिए इस्तेमाल किया जाता है और शिव का एक रूप काल भैरव भी है। काल भैरव अंधकार की एक दिव्य स्थिति है लेकिन जब वो एकदम स्थिर  हैं, तब महाकाल का रूप ले लेते हैं। महाकाल समय का परम स्वरुप है।उज्जैन का महाकाल मंदिर एक ज़बरदस्त प्राण-प्रतिष्ठित स्थान है। यह शक्तिशाली अभिव्यक्ति यक़ीनन कमज़ोर दिल वालों के लिए नहीं है। यह ज़बरदस्त शक्ति वाला स्थान है ।1500 सालों में दुनिया भर में धर्म का बहुत आक्रामक तरीके से प्रसार होने की वजह से अतीत की ज़्यादातर महान संस्कृतियां जैसे प्राचीन मेसोपोटामिया की सभ्यता, मध्य एशियाई सभ्यताएं और उत्तरी अफ़्रीकी सभ्यताएं गायब हो चुकी हैं।  1500 सालों में विश्व के अन्य हिस्सों में एक बड़े स्तर पर इनका पतन हुआ है। लिंग जो प्राकृतिक तरीके से बने हैं, उन्हें स्वयं निर्मित या स्वयम्भू लिंग कहते हैं। जम्मू के उत्तरी क्षेत्र में अमरनाथ में एक गुफा है। इस गुफा के अन्दर हर साल बर्फ का एक शिव लिंग बनता है। यह लिंग प्राकृतिक तरीके से स्टैलैगमाईट से बनता है ।गुफा की छत से टपकता रहता है। यह देखना एकदम अद्भुत है कि गुफा के ऊपरी हिस्से से पानी की छोटी छोटी बूंदे गिर रही होती हैं और नीचे गिरते ही बर्फ बन जाती हैं। लिंग पत्थर, लकड़ी या मणि/रत्न को तराश कर बनाए गए होते हैं। लिंग मिट्टी, बालू या किसी धातु से गढ़े होते हैं। ये प्रतिष्ठित लिंग होते हैं। कई लिंग धातु की एक परत से ढके होते हैं और उन्हें एक चेहरे की आकृति दी जाती है ताकि भक्त उनसे ज्यादा बेहतर तरीके से जुड़ सकें। इन्हें मुखलिंग कहते हैं। कुछ लिंग में शिव की पूरी छवि सतह पर तराशी हुई होती है।लिंग, पौरुष और स्त्रैण ऊर्जा के मिलन को दर्शाते हैं। लिंग का आधार स्त्रैण को सूचित करता है जिसे गौरीपीठम या आवुदैयार कहते हैं। लिंग और उसका आधार दोनों मिलकर शिव और शक्ति के मिलन को दर्शाते हैं । शिवलिंग पौरुष और स्त्रैण ऊर्जा के सूचक हैं।योग विज्ञान ऊर्जा की जिन विभिन्न स्थितियों पर काम करता है ।  मार्गदर्शन की इच्छा को पूरा करने के लिए कुछ दूरदर्शी गुरुओं ने ऐसे ऊर्जा स्थानों का निर्माण किया है जो एक गुरु की उपस्थिति और उसकी ऊर्जा जैसा ही हैं।ध्यानलिंग, एक गुरु की परम अभिव्यक्ति है। यह यौगिक विज्ञान का प्रतिष्ठित सार है । भीतरी ऊर्जा को उसके चरम पर अभिव्यक्त करता है।ऐसा कहा जाता है कि एक बार ब्रह्मा और विष्णु के सामने एक विशाल अग्नि स्तम्भ अवतरित हुआ। तेज़ रौशनी के इस अनंत स्तम्भ से ॐ की ध्वनि उत्पन्न हो रही थी। वो मंत्रमुग्ध हो गये और उन्होंने इसका पता लगाने का फैसला किया। ब्रह्मा ने इस स्तम्भ का ऊपरी सिरा खोजने के लिए एक हंस का रूप धारण किया और नीले आकाश में काफी ऊंचाई तक उड़ गये। जबकि विष्णु इस स्तम्भ की बुनियाद को ढूंढने के लिए वाराह का रूप धारण करके ब्रह्मांड की गहराई में उतर गये।दोनों हार गये।  विराट स्तम्भ कोई और नहीं बल्कि खुद शिव है । जब विष्णु वापस लौटे, तब उन्होंने अपनी हार मान ली। जबकि ब्रह्मा हार स्वीकार नहीं करना चाह रहे थे और उन्होंने यह दावा किया कि उन्होंने इस स्तम्भ का शिखर ढूँढ लिया। प्रमाण के तौर पर उन्होंने एक सफ़ेद केतकी का फूल दिखाया और दावा किया कि ये उन्हें ऊपर शिखर पर मिला।जैसे ही यह झूठ बोला गया, शिव, आदियोगी  के रूप में प्रकट हो गये। ये दोनों भगवान विष्णु और ब्रह्मा उनके पैरों पर गिर पड़े। ब्रह्मा के इस झूठ के लिए शिव ने यह घोषित किया कि वो पूजा किये जाने के सौभाग्य से वंचित रहेंगे। इस फूल ने ब्रम्हा के इस अपराध में साथी बनने की वजह से अपना सम्मान खो दिया। आदियोगी ने इसके बाद इसे अर्पण के रूप में स्वीकार करने से मना कर दिया। हालांकि महाशिवरात्रि की पावन रात्रि के लिए एक अपवाद है। इस दिन, वर्ष की सबसे ज्यादा अंधेरी रात, महाशिवरात्रि की रात में केतकी के सफ़ेद फूल को पूजा के लिए अर्पण किया जाता है। महाशिवरात्रि की  रात को असीम आध्यात्मिक संभावनाओं की रात माना जाता है।
* .हंसनाथ मंदिर , सोहगरा धाम सिवान - सीवान का सोहगरा धाम. ?इन  बाबा हंस नाथ मंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग की पूजा अर्चना और जलाभिषेक करने पर  मनचाही मुरादें पूरी होती है बल्कि सुयोग्य वर यानि की पति और संतान की प्राप्ति भी होती है। सीवान जिले के गुठनी प्रखंड स्थित सोहगरा धाम में सावन के मौके पर श्रद्धालुओं खासकर महिलाएं और कुंवारी युवतियों का पूजा करने के लिए तांता लग जाता है. बिहार-उत्तर प्रदेश की सीमा स्थित सोहगरा धाम स्थित बाबा हंस नाथ मंदिर में भगवान शिव का शिवलिंग है । हंसनाथ मंदिर मनचाहे पति और संतान प्राप्ति के लिए विख्यात है। यहां सबसे ज्यादा महिलाएं और युवतियां पूजा अर्चना के लिए आती हैं।  मंदिर से जुड़ी कई किवदंतियां है कहां जाता है कि मंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग अपने आप प्रकट हुआ है । काशी नरेश राजा हंस ध्वज ने संतान उत्पत्ति के लिए यहां आकर मन्नत मांगी थी और उनकी मुराद पूरी हो गई. इसके बाद राजा हंसनाथ ने इस विशाल मंदिर का निर्माण कराया तबसे मंदिर का नाम बाबा हंस नाथ हो गया और मंदिर संतानहीन दंपत्तियों व कुंवारियों के पूजा का केंद्र बन गया. वहीं सोहगरा धाम के पुजारी भी लोगों की आस्था और मंदिर से जुड़ी कहानियों को सही बताते हैं. पुजारियों की माने तो यह मंदिर द्वापर युग का है जहां पूर्व में विशाल जंगल हुआ करता था । राक्षस राज रावण के मित्र बाणासुर की पुत्री उषा को भ्रमण के दौरान यहां विशाल शिवलिंग मिला था । सावन के दूसरी  सोमवार को लेकर पूरा सुहागरात धाम शिवमय हो गया है और चारो तरफ हर हर महादेव, जय भोले नाथ व बोल-बम के नारे सुनाई पड़ रहे हैं । 
* .महेन्द्रनाथ मंदिर , सिवान - बिहार राज्य के सीवान जिला से लगभग 35 किमी दूर सिसवन प्रखण्ड के अतिप्रसिद्ध मेंहदार गांव में स्थित भगवान शिव के प्राचीन महेंद्रनाथ मन्दिर का निर्माण नेपाल नरेश महेंद्रवीर विक्रम सहदेव सत्रहवीं शताब्दी में करवाया था और इसका नाम महेंद्रनाथ रखा था। ऐसी मान्यता है कि मेंहदार के शिवलिंग पर जलाभिषेक करने पर नि:संतानों को संतान व चर्म रोगियों को चर्म रोग रोग से निजात मिल जाती है ।महेन्द्रनाथ मंदिर के इस प्राचीन शिवालय स्थित शिवलिंग पर जलाभिषेक करने से सारी मनोकमानएं पूरी होती है। नि:संतानों को संतान तथा चर्मरोगियों को भी उसकी बीमारी से निजात मिल जाती है । कहा जाता है कि लगभग ५०० वर्ष पूर्व नेपाल नरेश महेंद्रवीर विक्रम सहदेव को कुष्ठरोग हो गया था । वह अपने कुष्ठरोग का इलाज़ कराने वाराणसी जा रहे थे और अपनी वाराणसी यात्रा के दौरान घने जंगल में विश्राम करने हेतु एक पीपल के वृक्ष के निचे रूके। विश्राम करने से पहले हाथ मुंह धोने के लिए पानी की तलाश रहे थे। काफी तलाशने के बाद उन्हें एक छोटे गड्ढे में पानी मिला। राजा विवश हो उसी से हाथ मुंह धोने लगे। जैसे ही गड्ढे का पानी कुष्ठरोग से ग्रसित हाथ पर पड़ा, हाथ का घाव व कुष्ठरोग गायब हो गया । उसके बाद राजा ने उसी पानी से स्नान कर लिया और उनका कुष्ठरोग समाप्त हो गया। विश्राम करते हुए राजा वही सो गए और उन्हें स्वप्न मे भगवान शिव आये और पीपल के वृक्ष के नीचे  होने के संकेत दिए। फिर राजा शिवलिंग को ढूंढने के लिए लिए उस स्थान पर मिट्टी खुदवाया और उन्हें उस स्थान पर शिवलिंग मिला । पीपल के वृक्ष के निचे से शिवलिंग को निकालकर राजा ने शिवलिंग को अपने राज्य में ले जाने की योजना बनाई तो उसी रात भगवान शिव जी ने राजा को पुन: स्वप्न में आकर कहा कि तुम शिवलिंग की स्थापना इसी स्थान पर करो और मन्दिर का निर्माण करवाओ। बाद में स्वप्न में आए शिव जी के मार्गदर्शन अनुसार राजा ने वहीं 552 बीघा में पोखरा खोदवाया और शिव मन्दिर का निर्माण करवाया जो आगे चलकर  मेंहदार शिवमंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मन्दिर में छोटे-बड़े आकार की सैकड़ो की संख्या में घंटियां बहुत नीचे से ऊपर तक टंगी है । हर-हर महादेव के उद्घोष और घंट- शंख की ध्वनि से मन्दिर परिसर से लेकर सड़कों पर भगवान शिव की महिमा गूंजती रहती है। दशहरा के पर्व में 10 दिनों तक अखंड भजन , संकीर्तन का पाठ होता है। इसके अलावा सावन में महाशिवरात्रि पर लाखों भक्त जलाभिषेक करते हैं। सालों भर पर्यटक का आना जाना लगा रहता है।  भगवान गणेश की एक प्रतिमा भी परिसर में रखा गया है। उत्तर में मां पार्वती की एक छोटा सा मन्दिर भी है। हनुमान जी की एक अलग मन्दिर है, जबकि गर्भगृह के दक्षिण में भगवान राम, सीता का मंदिर है। काल भैरव, बटूक भैरव और महादेव की मूर्तियां मंदिर परिसर के दक्षिण में है। मंदिर परिसर से 300 मीटर की दूरी पर भगवान विश्वकर्मा का एक मंदिर है। मंदिर के उत्तर में एक तालाब है जिसे कमलदाह सरोवर के रूप में जाना जाता है जो 551 बीघा क्षेत्र में फैला हुआ है। इस सरोवर से भक्तगण भगवान शिव को जलाभिषेक करने के लिए जल ले जाते हैं और सरोवर की परिक्रमा भी करते है । इस सरोवर में नवंबर में कमल खिलते है और बहुत सारे प्रवासी पक्षी यहां आते हैं जो मार्च तक रहते है। महाशिवरात्रि पर यहां लाखों भक्त आते हैं। उत्सव पूरे दिन चलता रहता है और भगवान शिव व मां पार्वती की एक विशेष विवाह समारोह आयोजित होता है। इस दौरान शिव बारात मुख्य आकर्षण होता है ।बाबा महेन्द्रनाथ के मंदिर में पूरे श्रावण मास, शारदीय नवरात्रि, प्रत्येक महीने के कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को शिवभक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। सावन महीने में प्रत्येक सोमवारी को शिवभक्तों की आस्था देखते ही बनती है। भोलेनाथ के श्रृंगार को देखने के लिए मंदिर में श्रद्धालु और पर्यटक खास तौर पर आते हैं। यहां शिवलिंग का शहद ,चन्दन,बेलपत्र और फूल से विशेष श्रृंगार किया जाता है। पहले शहद से शिवलिंग का मालिश करने के बाद चंदन का लेप लगाया जाता है। उसी लेप का शिवलिंग पर हाथों से डिजाइन बनाया जाता है। राम और ऊं लिखा बेलपत्र, धतूरा और फूलों से भगवान शिव का श्रृंगार होता है । मंदिर परिसर के उत्तर में दिशा में कमलदाह सरोवर , परिसर में और आस पास अनेको मंदिर, हवन , भजन कीर्तन, चारो तरफ हरा भरा और शांत वातावरण , परिसर के आस पास उछल कूद करते बंदरो का झुण्ड,सरोवर किनारे देशी व प्रवासी पक्षियों का झुण्ड धार्मिक और मनोहर दृश्य एक अलग अनुभव देते है। परिसर में अनेको छोटे और बड़े घंटियों से भरा हुआ हुआ अलग भवन जिसमे लोग अपने मनोकामना पूरी होने पे घंटिया बांधते है विशेष आकर्षण है। बाबा महेन्द्रनाथ के भक्तगण यहाँ खड़े होकर अपनी तस्वीर लेते है। शादी विवाह के मुहूर्त वाले दिनो में अनेको वर- वधु पक्ष के परिजन आकर एक दूसरे से मिलते है तथा अनेको जोड़े बाबा महेन्द्रनाथ मंदिर में अपने परिजनों की उपस्थति में  परिणय सूत्र में बंधते है ।
* . सिंहेश्वर स्थान, मधेपुरा -  शृंगी ऋषि द्वारा स्थापित भगवान सिंहेश्वर  शिवलिंग  है । सिंहेश्वर स्थान में मनोकामना लिंग के रूप में तीन भागों में विभक्त हैं।  यहां का शिवलिंग हिरण के सींग के तीन टुकड़े से बना है। सबसे प्रबल साक्ष्य रामायण काल में ऋष्य शृंग आश्रम व महाभारत में चम्पारण्य तीर्थ से है। शृंगी ऋषि ने ही दशरथ को पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया था और उसी ऋषि शृंगी के इष्ट महादेव हैं। कालांतर में शिवलिंग की गढ़ी उठाने के लिए खुदाई की गई थी। देखा गया कि शिवलिंग एक चट्टान से जुड़ा है। मंदिर की व्यवस्था सिंहेश्वर मंदिर न्यास समिति करती है।
04 . गुप्ता धाम, चेनारी, रोहतास - भस्मासुर से बचने के लिए भगवान शिव ने जिस गुफा में शरण ली, आज वही गुप्ता धाम है। यहां गुफा में ठोस चूना पत्थर का प्राकृतिक शिवलिंग है। धाम जाने का रास्ता काफी दुर्गम है। अंदर अलग-अलग सभागार, नाचघर, घुड़दौड़ के नाम से मशहूर गुफाएं हैं। कहा जाता है कि प्रवास के दौरान भगवान शिव ने इनका निर्माण किया। बिहार में एकमात्र मंदिर, जहां आम आदमी के अलावा अपराधी भी जलाभिषेक करने आते हैं और मंदिर के आसपास के इलाके में अपराध भी नहीं करते। धाम की असली संपत्ति दान में मिली 40 गायें हैं जिनके दूध से शिव का रोज अभिषेक होता है।
* . गरीबनाथ धाम, मुजफ्फरपुर - बाबा गरीब नाथ मनोकामना पूर्ण करने वाले व स्वयंभू शिवलिंग हैं। धाम का इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना है। साक्ष्यों के आधार 300 साल से अधिक का तो है ही। 1812 तक इस स्थान पर छोटे मंदिर में बाबा की पूजा होती थी। उस समय शिवदत्त राय ने सात धूर के भूखंड पर पहला मंदिर बनवाया। 1944 में ढाई कट्ठा जमीन देकर चाचान परिवार ने मंदिर का नवीनीकरण कराया। 2006 में डेढ कट्ठा जमीन और दी तो भव्य परिसर बना। बाबा भोलेनाथ पूरे परिवार के साथ यहां विराजते हैं। हजारों से अधिक श्रद्धालु बाबा गारीबनाथ बाबा पर जलाभिषेक कर मनोकामनाएं पूर्ण करते  हैं।
* . अजगैबीनाथ मंदिर, सुल्तानगंज - अजगैविनाथ मंदिर उत्तरवाहिनी गंगा के बीच पहाड़ी पर है। मंदिर की स्थापना के पूर्व इसे जहनु गिरि कहते थे। जहनु ऋषि का आश्रम यहीं था। आनंद रामायण के अनुसार यहां विलवेश्वर शिव का पवित्र धाम था। शिवपुराण के अनुसार शिवलिंग की स्थापना राजा शशांक ने की थी। 15वीं सदी आते शिवलिंग छिप गया था। ऋषि हरनाथ भारती को उनकी तपस्या स्थली में मृगचर्म के नीचे मिला। मंदिर पर स्वर्ण कलश है। सामने ढाई मन का घंटा है। मंदिर का विश्लेषण डॉ. अभयकांत चौधरी की पुस्तक ‘सुल्तानगंज की संस्कृति’ में है। अज एक संस्कृत शब्द है और शिव का नाम है। गैब का अर्थ है-परोक्ष। अर्थात जो सामने न हो। महंत प्रेमानंद गिरि बताते हैं कि त्रेता युग में राम ने यहां से देवघर तक की कांवर यात्रा की और जलाभिषेक किया था।
* . अशोक धाम, लखीसराय - इंद्रदमनेश्वर मंदिर, अशोकधाम का शिवलिंग काफी प्राचीन है। इसे मनोकामना शिवलिंग है। इतिहास त्रेता युग से जुड़ा है। मान्यता है कि यहां हर मनोकामना पूरी होती है। सावन में श्रद्धालु सिमरिया गंगा घाट से जल भर कर तीस किमी पैदल चलकर यहां जलाभिषेक करते हैं। महाशिवरात्रि पर मंदिर परिसर से लखीसराय अष्टघटी तालाब स्थित पार्वती मंदिर तक बारात निकलती है। मंदिर के मुख्य पुरोहित पंडित कमल नयन पांडेय बताते हैं कि शृंगी ऋषि आश्रम से ज्येष्ठ बहन शांता के जाने के क्रम में किल्लवी (किऊल) एवं गंगा के संगम तट पर श्रीराम ने खुद शिवलिंग की स्थापना कर पूजा की थी। अशोक धाम ऐसा धाम है, जहां शादी-विवाह से लेकर मुंडन संस्कार तक बगैर किसी लग्न-मुहूर्त के संपन्न होते हैं।
* . हरिहरनाथ मंदिर, सोनपुर - हरिहरनाथ शिवलिंग इकलौता के आधे भाग में शिव (हर) और शेष में विष्णु (हरि) की आकृति है। मान्यता है कि इसकी स्थापना ब्रह्मा ने शैव और वैष्णव संप्रदाय को एक-दूसरे के नजदीक लाने के लिए की थी। गज-ग्राह की पुराणकथा भी प्रमाण है।  इसी स्थल पर लंबे संघर्ष के बाद शैव व वैष्णव मतावलंबियों का संघर्ष विराम हुआ था। कथा के अनुसार राम ने गुरु विश्वामित्र के साथ जनकपुर जाने के दौरान यहां रूक कर हरि और हर की स्थापना की थी। उनके चरण चिह्न हाजीपुर स्थित रामचौरा में मौजूद हैं। इस क्षेत्र में शैव, वैष्णव और शाक्त संप्रदाय के लोग एक साथ कार्तिक पूर्णिमा का स्नान और जलाभिषेक करते हैं। 1757 के पहले मंदिर इमारती लकड़ियों और काले पत्थरों के शिला खंडों से बना था। पुनर्निर्माण मीरकासिम ने करवाया था।
* . सोमेश्वरनाथ मंदिर, अरेराज​​​​​​​ - मोतिहारी जिला मुख्यालय से 29 किलोमीटर दूर दक्षिण पश्चिम के कोने पर नारायणी के पार्श्व में अवस्थित है अरण्यराज, जिसे अरेराज के नाम से जाना जाता है। स्कन्दपुराण, नेपाल महात्म्य, रोटक व्रतकथा, तीर्थराज अरेराज, अरेराज धाम आदि पुस्तकों में इस स्थल का उल्लेख है। मंदिर रामायणकालीन है। साढ़े सात फीट गह्वर में भगवान सोम द्वारा स्थापित पंचमुखी शिवलिंग है। शास्त्रों में शिव के पांच अवतारों की परिकल्पना की गई है। एक-एक मुख एक-एक अवतार का प्रतीक है। मान्यता है कि चन्द्रमा/सोम ने पाप और शाप से मुक्ति व सुख-शांति के लिए सोमेश्वरनाथ की आराधना की थी ।सोमेश्वर मंदिर में  मन्नत पूरी होने पर आंचल की खूंट पर लोकनर्तक से महिलाएं नृत्य कराकर नृत्यसंगीत के आदि देवता देवाधिदेव महादेव को प्रसन्न करने का प्रयास करती हैं। चावल के आटे का शुद्ध घी में यहां नैवेद्य के रूप में रोट चढ़ाने की प्रथा है। ऐसी मान्यता है कि जो गृहिणी ऐसा करती हैं, अन्नपूर्णा की साक्षात मूर्ति मां पार्वती अत्यंत प्रसन्न होती है। महंत रविशंकर गिरि बताते हैं कि यहां तीन परंपरा के श्रद्धालु जलाभिषेक करते हैं। बसंत पंचमी में शाक्त सम्प्रदाय, महाशिवरात्रि व श्रावण मास में शैव सम्प्रदाय व अनंत चतुर्दशी में वैष्णव सम्प्रदाय के लोग पूजा व अभिषेक करते हैं। दुनिया में यह परंपरा केवल यहीं है। यहां भगवान राम ने माता जानकी के साथ महाशिवरात्रि के दिन अभिषेक व पूजन किया था।
* .गौरीशंकर मंदिर, खुसरूपुर​​​​​​​ - गौरीशंकर मंदिर का शिवलिंग भगवान शंकर और माता पार्वती युक्त है।  इसे गौरीशंकर मंदिर कहा जाता है। शिवलिंग में 1200 छोटे रुद्र (शिवलिंग) हैं। पौराणिक कथा के अनुसार आज का बैकटपुर बैकुंठ धाम था। इसी वन में जरा नाम की राक्षसी रहती थी। मगध सम्राट जरासंध की उत्पत्ति की किवदंती यहीं से जुड़ी है। जरासंध शिव के भक्त थे। मंदिर का जो वर्तमान स्वरूप है, वह मुगल सेनापति राजा मान सिंह द्वारा निर्मित है। मंदिर प्रबंधन बिहार राज्य धार्मिक न्यास के जिम्मे है।
* उमानाथ शिव मंदिर, बाढ़ - उत्तरवाहिनी गंगा तट पर स्थित शिवमंदिर देश में गिने-चुने ही हैं। उमानाथ उनमें एक है। गंगा का प्रवाह कुछ ही स्थलों पर उत्तरागामी है। पुजारी अजय पांडे ने बताया कि इनमें बनारस, उमानाथ और अजगैबीनाथ हैं। यही वजह है कि उमानाथ को काशी के समान माना जाता है। किवदंती है कि सैकड़ों वर्ष पूर्व शिवलिंग को उखाड़ मंदिर के बीच स्थापित करने के लिए खुदाई की गई। जैसे-जैसे गहरी होती गई, शिवलिंग का धरती के अंदर आकार लंबा होता गया। इसी वजह से इसे अंकुरित महादेव कहा जाता है। ​​​​​​​
* . बूढ़ानाथ मंदिर, भागलपुर​​​​​​​ - गंगा के दक्षिणी तट पर 50 एकड़ में फैला मंदिर काफी समृद्ध है। बक्सर से ताड़का सुर का वध करने के बाद वशिष्ठ मुनि शिष्य के साथ भागलपुर पहुंचे और शिवलिंग की स्थापना कर पूजा की। मंदिर के महंत शिवनारायण गिरि महाराज बताते हैं कि यहां शिव की जटा से निकली गंगा हर साल शिव व पार्वती के चरण पखारते गुजरती है। उत्तरवाहिनी गंगा के गुजरने से इसका आध्यात्मिक महत्व और बढ़ जाता है। कहा जाता है कि शंकर भगवान का वृद्ध रूप यहां स्थापित है। इसलिए इसे बाबा बूढ़ानाथ कहा जाता है। मंदिर ट्रस्ट के पास रखे ताम्रपत्र पर लिखे श्लोक में मंदिर की स्थापना का उल्लेख है।
* . बाबा सिद्धेश्वरनाथ, जहानाबाद​​​​​​​​​​​​​​ - बाणावर पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर व गुफाओं के बारे में धार्मिक मामलों के जानकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने बताया कि शैवधर्म में सिद्ध संप्रदाय ने शिवलिंग पूजन की प्रथा जहानाबाद के मखदुमपुर प्रखंड में स्थित बराबर पर्वत समूह की सूर्यांक गिरि की चोटी पर सिद्धेश्वर नाथ की स्थापना कर शुरू की। महाभारत के वन पर्व में सिद्धेश्वर नाथ को बानेश्चर शिव लिंग कहा गया है। मंदिर का निर्माण छठी शताब्दी में किया गया। सावन माह की अनंत चतुर्दशी को पातालगंगा के जल में स्नान कर भक्त सिद्धेश्वर नाथ पर जलाभिषेक कर मनोवांछित फल की कामना करते हैं। जहानाबाद जिले के कको प्रखंड के भेलावर में एक मुखी शिवलिंग तथा जहानाबाद का ठाकुरवाड़ी में स्थित पंचलिंगी शिव लिंग  प्राचीन है ।
*. ब्रह्मेश्वरनाथ मंदिर, ब्रह्मपुर - शिव महापुराण में यह शिवलिंग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाला है। जब ब्रह्मा को पुरुषोत्तम भगवान से सृष्टि रचना का आदेश मिला तब उन्होंने ब्रह्मपुर को अध्यात्म की धुरी माना। एक बार ब्रह्मा ने अपने तीन मुखों से शिव को प्रणाम किया। तो विष्णु ने कहा कि यह हमारे आराध्य का अपमान है। पाप मुक्ति के लिए ब्रह्मा ने यहां पहुंच विश्वकर्मा से आग्रह कर शिवगंगा (ब्रह्मसरोवर) और षट्कोणीय शिव मंदिर बनवाया। खुद शिवलिंग बना आराधना की। तब दोषमुक्त हुए।
*.  बाबा दूग्धेश्वरनाथ देवकुण्ड औरंगाबाद -  सृष्टि , शक्ति और प्रलय के देव महादेव की अर्चना सभी लोग करते है । अरवल जिले का करपी प्रखंड की सीमा पर स्थित औरंगाबाद जिले का गोह प्रखंड के देवकुण्ड  7वें मनु वैवस्वत मन्वन्तर में वैवस्वतमनु के पुत्र सोन प्रदेश का राजा शर्याति  की पुत्री सुकन्या और भृगुवंशी ऋषि च्यवन का कर्म स्थल देवकुण्ड में बाबा दूग्धेश्वरनाथ का महान भक्त थे। सुकन्या की प्रार्थना से देवों के वैद्य अश्विनीकुमारों ने ऋषि च्यवन का जर्जर शरीर को युवा अवस्था मे लाकर सुकन्या को सौप दिया था । बाबा दूधेश्वरनाथ की आराधना के दौरान च्यवनऋषि और सुकन्या द्वारा देवो के लिए सहस्त्र धारा प्रवाहित कर सरोवर का निर्माण  कराया गया था । प्राचीन काल में वैदिक नदी हिरण्यबाहु नदी के तीर पर बाबा दूग्धेश्वरनाथ शिव लिंग की स्थापना की गई थी । च्यवन ऋषि द्वारा सरोवर निर्माण कर देवों के वैद्य अश्विनी कुमारों  को सम्मान में सरोवर को समर्पित किया गया था । अश्विनी कुमारों द्वारा सरोवर में अमृत और अनेक प्रकार के जीवन को संरक्षित के लिए औषधियों को अर्क प्रवाहित किया गया । सरोवर को देवों को समर्पित करने के बाद देवकुण्ड के नाम से विख्यात हो गया । देवकुण्ड में स्नान करने के बाद बाबा दूग्धेश्वरनाथ पर जलाभिषेक करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है । फाल्गुन कृष्ण की त्रयोदशी का महान महत्व है । श्रद्धालुओं द्वारा सावन महीने में पटना के गायघाट स्थित गंगाजल लेकर बाबा दूग्धेश्वरनाथ पर जलाभिषेक कर मनोकामना सिद्ध करते है ।
*  . च्यवशेश्वर  मदसरवाँ , अरवल  -   भृगुनंदन च्यवन ऋषि द्वारा स्थापित शिवलिंग अरवल जिले का कलर प्रखंड के मदसरवाँ में है । यह क्षेत्र मधुदैत्य के अधीन था । यहां के ऋषि मधुश्रवा थे ।च्यवनऋषि ने मधुश्रवा द्वारा महा पुरुषोत्तम यज्ञ  का आयोजन कराया गया था ।इस यज्ञ में 12 कोटि देवता शामिल हुए थे । राजा शर्याति की पुत्री और च्यवनऋषि की पत्नी सुकन्या द्वारा यज्ञ में आए हुए देवों , दैत्य , दानव , मानव संस्कृति के पोशाकों को स्वागत किया गया । मधुसरवाँ में यज्ञ स्थल पर एक सरोवर का निर्माण किया गया । सरोवर का नामकरण सुकन्या सरोवर बाद में वधु सरोवर के नाम से ख्याति मिली । पुरुषोत्तम यज्ञ में 33 कोटि के देवों द्वारा मान्यता दी गयी कि प्रत्येक मलमास में वधूसरोवर में स्नान कर चयवनेश्वर शिवलिंग पर जलाभिषेक और आराधना करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी । आदिशंकराचार्य का पूरी सम्प्रदाय द्वारा मधुसरवाँ मठ का निर्माण किया गया ।
अरवल जिले के करपी प्रखंड के पुनपुन नदी के किनारे पंचतीर्थ , किंजर में , तेरा में सहस्रशिवलिंग , नादी में , रामपुरचाय  में , करपी में , कुर्था प्रखंड, अरवल प्रखंड , कलेर प्रखंड तथा वंशी सोनभद्र के क्षेत्रों में शैव धर्मलबी द्वारा शिवलिंग स्थापित कर शैवधर्म का अनुयायी हुए है ।
*  . पितामहेश्वर गया - स्वयम्भू मनु के मन्वन्तर काल में स्वायम्भुवमनु के वंसज कीकट द्वारा किकट प्रदेश की स्थापना की तथा वैवस्वत मन्वन्तर में वैवस्वतमनु की पुत्री इला और चंद्रमा तथा वृहस्पति की भार्या तारा के पुत्र बुध के संसर्ग से गय द्वारा गया नगर का निर्माण किया गया था ।कीकट प्रदेश की राजधानी  गया थी । किकट प्रदेश का राजा गय असुर संस्कृति प्रारम्भ किया था । राजा गे को गयासुर के नाम से ख्याति प्राप्त हुई थी । गयासुर ने भगवानशिव की उपासना के लिए गया स्थित फलगुनदी के किनारे ब्रह्मा जी द्वारा शिवलिंग की स्थापना कराया था । ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित शिवलिंग को पितामहेश्वर के नाम से ख्याति प्राप्त है। मंगलागौरी के समीप मार्कण्डेय ऋषि द्वारा स्थापित  मारकणडेश्वर  , भगवान राम द्वारा स्थापित रामशिला पहाड़ी के समीप रामेश्वर शिवलिंग है ।
*. .  चतुर्मुखी महादेव मंदिर , कम्मन छपरा , वैशाली - वैशाली जिले में देश का इकलौता चक्रकार वैशाली में समुद्र तल से 52 फीट की ऊंचाई पर 26.12 डिग्री अक्षांश एवं 85.4 डिग्री पूर्व देशांतर पर चतुर्मुखी   शिवलिंग वैशाली में समुद्र तल से 52 फीट की ऊंचाई पर 26.12 डिग्री अक्षांश एवं 85.4 डिग्री पूर्व देशांतर पर झारखंड के देवघर स्थित बाबा वैद्यनाथ और उत्तर प्रदेश के वाराणसी में काशी विश्वनाथ के मध्य स्थित है। शिवलिंग में शंकर भगवान के साथ ही तीन मुख में ब्रम्हा, विष्णु एवं सूर्यदेव की आकृति है। महाशिवरात्रि पर यहां हजारों लोग जलाभिषेक को उमड़ते हैं।  मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जब अपने गुरु विश्वामित्र एवं अनुज लक्ष्मण के साथ जनकपुर जा रहे थे  आतिथ्य स्वीकार करते हुए यहां ठहरे थे। चौमुखी महादेव की पूजा-अर्चना कर आगे प्रस्थान किया था। एक अन्य किवदंती यह भी है कि इसकी स्थापना द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के समय वाणासुर ने कराई थी। वैशाली के कम्मन छपरा में स्थित चतुर्मुख शिवलिंग दुर्लभ है। धरातल से चक्रकार आधार की ऊंचाई करीब 5 फीट है। इसमें सात महल विराजमान है। दक्षिण की ओर शिवलिंग के मुख में त्रिनेत्रधारी भगवान शिव एवं अन्य तीन दिशाओं में भगवान ब्रह्मा, विष्णु एवं सूर्यदेव हैं। सात महल वाले शिवलिंग में एक-दूसरे महल के बीच 30 सेमी की दूरी है। इस बीच में कुछ लिखा है। इस लिपी को आज तक पढ़ा नहीं जा सका है। करीब 120 वर्ष पूर्व वैशाली के कम्मन छपरा में कुएं की खोदाई में इस दुर्लभ शिवलिंग का पता चला। ग्रामीणों ने तुरंत खोदाई बंद कर दी।  ग्रामीण घर में कोई भी शुभ कार्य करने के पूर्व यहां मिट्टी के पांच ढेले रख आते थे। मंदिर का स्वरूप लेने के बाद यह जगह ढेलफोरवा महादेव मंदिर के रूप में प्रचलित हुई। 1974 में पहली बार स्थानीय श्रद्धालुओं ने पवित्र नारायणी के रेवा घाट (मुजफ्फरपुर) से कांवर में जल भरकर यहां जलाभिषेक शुरू किया। जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल में एक लेख में इसका वर्णन है। 1945 में जब पुरातत्व विभाग ने इस स्थल पर खोदाई की तो यहां एक सोने का सिक्का मिला जो चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के समय का था। दोबारा 1975 में खोदाई की गई। 2013 तक नाम चौमुखी महादेव था। बाद में प्रबंधन ने विक्रमादित्य शब्द जोड़ दिया। निर्माण के दौरान शिवलिंग के अधिकांश भाग को जमींदोज कर दिया गया है। मात्र दो चक्र ही बाहर हैं। काले पत्थर के अनोखे शिवलिंग के मिलने के बाद मूर्ति विशेषज्ञों का इस ओर ध्यान आकृष्ट हुआ। शोध में यह संभावना जताई गई कि इस शिवलिंग का निर्माण ब्रह्मांड की जानकारी देने वाले विज्ञान कास्मोलॉजी के नियमों के अनुसार सप्त भवन सहित पाताल, पृथ्वी एवं स्वर्ग तत्वों को आधार मानकर किया गया गया था। मंदिर के गर्भगृह में जाने के लिए 22 सीढ़ी हैं।
19 .चतुर्मुखी शिव लिंग मंदिर पौरा पहाड़ी , कैमूर -  बिहार के भाभुआ जिले में सोन नदी के निकट कैमूर हिल्स की पौंरा पहाड़ियों (समुद्रतल से 608 फीट/185 मीटर की ऊंचाई पर) पर स्थित है । कैमूर मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले के कटंगी से लेकर बिहार के रोहतास जिले के सासाराम के आस-पास तक फैली लगभग 483 किलोमीटर लंबी, विंध्य रेंज का पूर्वी भाग है। ये हिल रेंज कभी भी आसपास के मैदानों से कुछ एक सौ मीटर से अधिक ऊपर नहीं उठती है और इसकी अधिकतम चौड़ाई लगभग 80 किमी है।भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा लगाई गई सूचना पट्टिका मंदिर को 625 CE में बनाया जाना इंगित करती है। मंदिर में 635 CE के हिंदू शिलालेख पाए गए हैं, मंदिर 1915 से ASI के तहत एक संरक्षित स्मारक है। परन्तु, इतिहास के कुछ और ठोस तथ्य इस मन्दिर को बनाए जाने के बारे में ज्यादा तरतीब से और तर्कसंगत साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं । ब्राह्मी लिपि में लिखा मुंडेश्वरी शिलालेख ( जिसे शासक उदयसेना द्वारा बनवाया गया था) और इसके दो टूटे हुए भाग जो क्रमशः 1891 और 1903 ई. में मिले थे, मंदिर को 4थी शताब्दी से पहले का बताते हैं। श्रीलंका के सम्राट महाराजा दत्तगामिनी (101-77 BCE) की राजसी मुहर के यहां इस मंदिर परिसर में पाये जाने ने इतिहास को बदला और ये फैक्ट स्थापित हुआ कि श्रीलंका से एक राजकीय तीर्थयात्रियों का समूह / भिक्षुओं ने 101 BCE से 77 BC (करीबन 2100 साल पहले) के बीच प्रसिद्ध दक्षिणपथ राजमार्ग के माध्यम से बोधगया से सारनाथ यात्रा के दौरान  मंदिर का दौरा किया है । चतुर्मुख शिवलिंग पर बना नाग, गणेश मूर्तियों पर बना नागजनेऊ (पवित्र धागा), पूरे भारत में और कहीं भी ऐसा नहीं पाया जाना तथा कैमूर रेंज की इस पहाड़ी के चारों ओर फैले हुए टूटे टुकड़ों / अवशेषों पर स्पष्ट रूप से संकेत मिलता है कि, यह नागवंश (110 BCE से 315 CE) के शासकों द्वारा किया गया निर्माण था। नागवंशी राजा नाग को अपने शाही मुहर के रूप में इस्तेमाल करते थे। मुंडेश्वरी शिलालेख में वर्णित शासक उदयसेना की नागवंश के शासकों नागसेना, वीरशैव आदि के साथ काफी समानता थी। नागवंशी राजपूतों के 52पुरों (गाँव) का अस्तित्व, इस क्षेत्र पर उनके लंबे समय तक उनके शासन के बारे में भी संकेत करता है। बाद में यह क्षेत्र गुप्त वंश के नियंत्रण में आया। इस मंदिर पर उनकी विशिष्ट नागर शैली की वास्तुकला का प्रभाव और रामगढ़ किले व रामगढ़ गांव का नाम(संभवतः गुप्त वंश के प्रसिद्ध राजा रामगुप्त के नाम पर स्थापित ) इस तथ्य के सबूत हैं।रामगुप्त गुप्तवंश का एक शासक था, जिसने अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को एक शक दुश्मन को संधि में दे दिया था। चन्द्रगुप्त - ll, उस शक दुश्मन को हराकर ध्रुवदेवी से शादी करता है।महाभारत में भी उल्लिखित है कि गुरु द्रोणाचार्य को कौरवों और पांडवों को शिक्षित करने के शुल्क रूप में, वर्तमान समय के अहिनौरा, मिर्जापुर, सोनभद्र और कैमूर क्षेत्र पर स्थित अहिच्छत्र (नागों का क्षेत्र) का शासक बनाया गया था। 2008 में बिहार राज्य धार्मिक न्यास बोर्ड ने विशेषज्ञों की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जिसमें सर्वसम्मति से मुंडेश्वरी शिलालेख की तिथि 108 CE निर्धारित की गई है । मंदिर 3-4 BCE  में,भगवान विष्णु को पीठासीन देवता मानकर बनाया गया था। सातवीं सदी के आसपास, शैव धर्म और विनितेश्वर एक सहायक देवता थे । मंदिर के प्रमुख देवता मंडलेश्वर महादेव के रूप मे है । चेरो' - एक शक्तिशाली और आदिवासी जनजाति कैमूर पहाड़ियों के मूल निवासी थे।  जनजाति शक्ति की उपासक थी और इस प्रकार मुंडेश्वरी को मंदिर का मुख्य देवता बनाया गया। हालांकि, चतुरमुख शिवलिंग अभी भी मंदिर के केंद्र में स्थित है ।  मंदिर की दीवार के साथ एक जगह पर मां दुर्गा की 3 फीट ऊंची काले पत्थर की प्रतिमा ( भैंस पर सवार) स्थापित की गई थी। ये आज भी वहीं स्थापित है। मां दुर्गा को यहां दस हाथों वाली, महिष यानी भैंसे की सवारी करने वाली देवी महिषासुरमर्दिनी के रूप में दिखाया गया है ।चतुर्मुख शिवलिंग के गर्भगृह के केंद्र में बने होने के बावजूद महादेव शिव शक्ति के बन गए। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग होने के बावजूद मुख्य पीठासीन देवता मुंडेश्वरी देवी है। 
*. लग्नेश्वर महादेव मंदिर गया - 16 सोमवार तक महादेव की विधि-विधान के साथ पूजा करने से चढ़ता है लग्न, लग्नेश्वर महादेव की पूजा के लिए सोमवार को कुंवारी कन्याओं  द्वारा लाग्नेश्वर शिव की आरदजन करती है । देवो के देव महादेव का एक स्वरूप ‘लग्नेश्वर’ महादेव गया शहर के विष्णुपद मार्ग स्थित श्रीकृष्ण द्वारिका मंदिर में महादेव का यह स्वरूप विराजमान है। महादेव के इस स्वरूप की खास बात यह है कि यह एक अतिप्राचीन शिवलिंग है, जहां विवाह से जुड़ी हर कठिनाई दूर होती है।  महादेव की विधि-विधान के साथ पूजा अर्चना करने से अविवाहित युवक-युवतियों पर लगन चढ़ता है। सोमवार को खासकर युवतियों की यहां जबर्दस्त भीड़ जुटती है। पूजा से पूर्व कुंवारी कन्याएं सर्वप्रथम संकल्प कराती है। संकल्प करने के बाद 16 सोमवार का व्रत करती है। फलाहार का उपवास रख विधि-विधान के साथ पूजा कर दीये भी जलाती है। बता दें कि इस मंदिर में आचार्य भी खुद बैठ कर पूजा से जुड़ी हर रस्म को पूरा कराते है।पृथ्वी पर जब भगवान शिव का वास हो, उस दिन ब्रह्म मुर्हूत में पूजा करने से विशेष फल मिलता है। इस दिन अविवाहित कन्या लग्नेश्वर महादेव पर संतरा के रस से अभिषेक करे। 108 बेलपत्र पर ओम्: नम्: शिवाय: लिख महादेव को अर्पण करे। विशेष फल मिलता है। अतिप्राचीन शिवलिंग पर की गई है नक्काशी 200 वर्ष से अधिक पुराना है  । लग्नेश्वर महादेव का मंदिर, 20 वर्ष पूर्व हुआ था । मंदिर में  माता पार्वती व नदी की प्रतिमाएं विराजमान है। एक बार में मंदिर में पांच लोगों को ही प्रवेश की अनुमति रहती है। मंदिर के अंदर आचार्य स्वयं विधि-विधान के साथ पूजा अर्चना कराते है । 20 वर्ष पूर्व लग्नेश्वर महादेव मंदिर का जीर्णोद्धार व खुदाई का कार्य किया गया था। यहां पांच इंच ऊंचा शिवलिंग है, जबकि जमीं के अंदर 10 फीट से भी अधिक गहरा है। लग्नेश्वर महादेव स्वयं भू है। 
* . पंचमुखी शोभनाथ मंदिर , नवादा - नवादा नगर के शोभनाथ मंदिर की  स्थापना 1931 में की गई थी। आस्था के साथ श्रद्धालुओं की गई पूजा-अर्चना से मुरादें पूरी होती है। मंदिर को धार्मिक न्यास बोर्ड ने अपने अधीन कर लिया है।  पंचमुखी महादेव की आराधना से कई माताओं की गोदें भरी है। तो कई की मनोवांछित आशाएं पूरी हुई है। यहां वर्ष में10 हजार से अधिक जोड़े परिणय सूत्र में बंधते हैं।  नवादा-गया पथ पर भदौनी पशु हाट के पास अवस्थित है शोभनाथ मंदिर।  नवादा-हसुआ पथ पर सड़क निर्माण के क्रम में दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवाहित गहरे नाले पर 1931 में पुल निर्माण कार्य हो रहा था। संवेदक द्वारा बनाये जा रहे पुल की आधारशीला रखते ही बार-बार पानी के तेज प्रवाह में प्रवाहित हो जाता था। तब संवेदक की नजर पास के एक ऊंचे टिल्हे की ओर गई। खुदाई करने पर वहां लोगों को पंचमुखी शिवलिंग के दर्शन हुए। अद्भुत शिवलिंग की पूजा-अर्चना के बाद पूरा निर्माण कार्य पुन: प्रारम्भ किया। शिवलिंग की पूजा से कार्य में बाधा नहीं आई और निर्माण कार्य तेज से हो गई। संवेदन ने उसने मंदिर बनाने का संकल्प लिया था। पुल निर्माण संपन्न होते ही मंदिर का निर्माण कराया है । प्रति दिन यहां सैकड़ों श्रद्धालुओं द्वारा पूजा-अर्चना की जाती है, लेकिन प्रत्येक माह की पूर्णिमा, श्रावण की सोमवारी, महाशिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। जिसमें दूर-दूर से शिव भक्त यहां आकर जलाभिषेक करते है। 
* . ज्वाला नाथ मंदिर , हिसुआ , नवादा  -  हिसुआ स्थित जय ज्वालानाथ मंदिर एक ऐतिहासिक शिव मंदिर है । शिव भक्त यहां माथा टेकने आते हैं। साथ ही मनोकामना पूरी होने की दुआएं मांगते हैं। यहां भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। ज्वालानाथ मंदिर परिसर को आकर्षक बनाने के लिए मंदिर प्रबंधन कमेटी इसका जीर्णोद्धार  किया  है।  मंदिर परिसर में प्रबंधन कमेटी द्वारा भगवान शिव, माता पार्वती, कार्तिकेय और गणेश की मूर्ति के साथ-साथ शिव के सवारी बसहा बैल की भी स्थापना वैदिक रीतियों और मंत्रो के बीच की गई। गया के जमींदार को कोई संतान नहीं थी. इस वजह से वे सदा उदास रहते थे। एक बार उनकी मुलाकात मंदिर के पुजारी  से हुई। पुजारी की सलाह पर उन्होंने मंदिर में माथा टेका और पुत्र प्राप्ति की मन्नत मांगी। भगवान शिव की कृपा से पुत्री प्राप्त होने के बाद जमींदार बड़ा खुश हुआ हसि । मंदिर और शिवालयों पर आकर्षक मंदिर रुपी गुंबज और अन्य प्रकार के छत होते हैं जो कंक्रीट के होते हैं।  इस चमत्कार के बाद जमींदार ने भी मंदिर का निर्माण आरंभ किया था, लेकिन जैसे ही छत ढलाई के लिए सेंटिंग की जाती, वह धराशायी हो जाता था। जिसके बाद आज तक यह एक गोलाकार चारदीवारी में स्थापित है।  एक बार चोरों ने बेशकीमती शिवलिंग को चुराने का प्रयास किया। शिवलिंग को चोरों ने उखाड़ लिया, लेकिन सभी चोरों की तत्काल आंखो से रोशनी क्षीण हो गई। सभी चोर रात भर महज पचास से साठ मीटर की परिधि में ही घूमता रहा। भोर होने पर चोर शिवलिंग को वहीं छोड़ भाग खड़े हुए। जब पुजारी की नजर मैदान में पड़े शिवलिंग पर पड़ी तो उन्होंने वैदिक रीति से शिवलिंग को फिर से मंदिर में स्थापित करने का प्रयास किया। उसी रात भगवान शंकर ने पूजारी को स्वप्न दिया मुझे खुले में रहने दो। जय ज्वाला नाथ महादेव खुले आसमान के तले है
भगवान शिव तथा उनके अवतारों को मानने वालों को शैव कहते हैं। शैव में शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग आदि उप संप्रदाय हैं। महाभारत में माहेश्वरों (शैव) के चार सम्प्रदाय शैव , पाशुपत , कालदमन और कापालिक  है । शैवमत का मूलरूप ॠग्वेद में रुद्र की आराधना में हैं। 12 रुद्रों में प्रमुख रुद्र ही आगे चलकर शिव, शंकर, भोलेनाथ और महादेव कहलाए।भगवान शिव की पूजा करने वालों को शैव और शिव से संबंधित धर्म को शैवधर्म कहा जाता है। शिवलिंग उपासना का प्रारंभिक पुरातात्विक साक्ष्य हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों से मिलता है।ऋग्वेद में शिव के लिए रुद्र नामक देवता का उल्लेख है। अथर्ववेद में शिव को भव, शर्व, पशुपति और भूपति कहा जाता है। लिंगपूजा का पहला स्पष्ट वर्णन मत्स्यपुराण में मिलता है। महाभारत के अनुशासन पर्व से भी लिंग पूजा का वर्णन मिलता है। वामन पुराण में शैव संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है  - पाशुपत ,  काल्पलिक ,कालमुख ,लिंगायत है ।
पाशुपत संप्रदाय शैवों का सबसे प्राचीन संप्रदाय है। इसके संस्थापक लवकुलीश थे जिन्‍हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है।पाशुपत संप्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया, इस मत का सैद्धांतिक ग्रंथ पाशुपत सूत्र है। कापालिक संप्रदाय के ईष्ट देव भैरव थे, इस सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र 'शैल' नामक स्थान था। कालामुख संप्रदाय के अनुयायिओं को शिव पुराण में महाव्रतधर कहा जाता है। इस संप्रदाय के लोग नर-कपाल में ही भोजन, जल और सुरापान करते थे और शरीर पर चिता की भस्म मलते थे। लिंगायत समुदाय दक्षिण में काफी प्रचलित था। इन्हें जंगम भी कहा जाता है, इस संप्रदाय के लोग शिव लिंग की उपासना करते थे। बसव पुराण में लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक वल्लभ प्रभु और उनके शिष्य बासव को बताया गया है, इस संप्रदाय को वीरशिव संप्रदाय भी कहा जाता था। दसवीं शताब्दी में मत्स्येंद्रनाथ ने नाथ संप्रदाय की स्थापना की, इस संप्रदाय का व्यापक प्रचार प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ। दक्षिण भारत में शैवधर्म चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव और चोलों के समय लोकप्रिय रहा।नायनारों संतों की संख्या 63 बताई गई है जिनमें उप्पार, तिरूज्ञान, संबंदर और सुंदर मूर्ति के नाम उल्लेखनीय है।पल्लवकाल में शैव धर्म का प्रचार प्रसार नायनारों ने किया। ऐलेरा के कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूटों ने करवाया। चोल शालक राजराज प्रथम ने तंजौर में राजराजेश्वर शैव मंदिर का निर्माण करवाया था। कुषाण शासकों की मुद्राओं पर शिव और नन्दी का एक साथ अंकन प्राप्त होता है।
शिव पुराण में शिव के दशावतार -   महाकाल ,  तारा ,  भुवनेश , षोडश,  भैरव , छिन्नमस्तक गिरिजा , धूम्रवान ,  बगलामुखी , मातंग,  कमल , शिव के ग्यारह अवतार - कपाली , पिंगल ,  भीम ,  विरुपाक्ष , विलोहित , शास्ता ,  अजपाद , आपिर्बुध्य , शम्भ, चण्ड और भव , शैव ग्रंथ - श्‍वेताश्वतरा उपनिषद , शिव पुराण ,  आगम ग्रंथ ,  तिरुमुराई और लिंग पुराण ,  शैव तीर्थ  - बनारस , केदारनाथ , सोमनाथ ,  रामेश्वरम ,  चिदम्बरम ,  अमरनाथ ,  कैलाश और  मानसरोवर है । पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा ममलेश्वर, झारखंड में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशंकर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघृष्णेश्वर।[क] हिंदुओं में मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और संध्या के समय  बारह ज्योतिर्लिंगों का नाम लेने पर मनोवांछित फल की प्राप्ति तथा सात जन्मों का किया हुआ पाप स्मरण मात्र से मिट जाता है।
* सोमनाथ , गुजरात -  प्रभास पाटन, सौराष्ट्र श्री सोमनाथ सौराष्ट्र, (गुजरात) के प्रभास क्षेत्र में विराजमान है।  सोमनाथ मंदिर को अतीत में छह बार ध्वस्त एवम् निर्मित किया गया है। 1022 ई में इसकी समृद्धि को महमूद गजनवी के हमले से सार्वाधिक नुकसान पहुँचा था।
* मल्लिकार्जुन , कुरनूल , आंध्र प्रदेश - आन्ध्र प्रदेश प्रान्त के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तटपर कुरनूल में श्रीशैल पर्वत पर श्रीमल्लिकार्जुन विराजमान हैं। इसे दक्षिण का कैलाश कहते हैं।
* महाकालेश्वर मंदिर , उज्जैन , मध्य प्रदेश -  मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में क्षिप्रा नदी के तटपर पवित्र उज्जैन नगर में महाकालेश्वर मंदिर विराजमान है। प्राचीनकाल में उज्जैन को अवन्तिकापुरी कहते थे।
* ॐकारेश्वर मंदिर , मध्य प्रदेश  - नर्मदा नदी में एक द्वीप पर मालवा क्षेत्र में श्रीॐकारेश्वर स्थान नर्मदा नदी के बीच स्थित द्वीप पर है। उज्जैन से खण्डवा जाने वाली रेलवे लाइन पर मोरटक्का नामक स्टेशन है, वहाँ से यह स्थान 10 मील दूर है। यहाँ ॐकारेश्वर और मामलेश्वर दो पृथक-पृथक लिंग हैं, परन्तु ये एक ही लिंग के दो स्वरूप हैं। श्रीॐकारेश्वर लिंग को स्वयम्भू समझा जाता है।
* केदारनाथ , रुद्रप्रयाग , उत्तराखंड - श्री केदारनाथ हिमालय के केदार नामक श्रृंगपर मंदाकनी नदी के किनारे बाबा केदारनाथ  स्थित हैं। हरिद्वार से 150 मील और ऋषिकेश से 132 मील दूर उत्तरांचल राज्य में है।
* भीमाशंकर , पूना , महाराष्ट्र  - भीमाशंकर श्री भीमशंकर का स्थान मुंबई से पूर्व और पूना से उत्तर भीमा नदी के किनारे सह्याद्रि पर्वत पर  भीमाशंकर मंदिर  है। यह स्थान नासिक से लगभग 120 मील दूर है। सह्याद्रि पर्वत के एक शिखर का नाम डाकिनी है। शिवपुराण के आधार पर भीमशंकर ज्योतिर्लिंग को असम के कामरूप जिले में गुवाहाटी के पास ब्रह्मपुर पहाड़ी पर स्थित बतलाया जाता है। कुछ लोग मानते हैं कि नैनीताल जिले के काशीपुर नामक स्थान में स्थित विशाल शिवमंदिर भीमशंकर का स्थान है।
* विश्वनाथ , काशी , उत्तर प्रदेश  - वाराणसी (उत्तर प्रदेश) स्थित काशी के श्रीविश्वनाथजी सबसे प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में एक हैं। गंगा तट स्थित काशी विश्वनाथ शिवलिंग दर्शन हिन्दुओं के लिए सबसे पवित्र है।
* त्र्यम्बकेश्वर नासिक , महाराष्ट्र  - नासिक में श्री त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र प्रान्त के नासिक जिले में पंचवटी से 18 मील की दूरी पर ब्रह्मगिरि के निकट गोदावरी के किनारे त्रयम्बकेश्वर स्थित है। इस स्थान पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गम भी है।
* वैद्यनाथ , झारखंड - झारखण्ड का देवघर जिला के जसोदिह रेलवे स्टेशन के समीप देवघर में वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग  एवं माता सती की मंदिर है । शास्त्रों के अनुसार  श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की स्थापना लंका का राजा रावण द्वारा लायी गयी ज्योतिर्लिंग की स्थापना भगवान विष्णु द्वारा चिटा भूमि में की गई थी । रावण ने भगवान शिव की जलाभिषेक के लिए शिवकुण्ड का निर्माण एवं कूप का निर्माण कर रावणेश्वर ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक किया था । 
 * नागेश्वर , गुजरात - दारुकावन, द्वारका श्रीनागेश्वर ज्योतिर्लिंग बड़ौदा क्षेत्रांतर्गत गोमती द्वारका से ईशानकोण में बारह-तेरह मील की दूरी पर है। निजाम हैदराबाद राज्य के अन्तर्गत औढ़ा ग्राम में स्थित शिवलिंग को ही कोई-कोई नागेश्वर ज्योतिर्लिंग हैं।  अल्मोड़ा से 17 मील उत्तर-पूर्व में यागेश (जागेश्वर) शिवलिंग ही नागेश ज्योतिर्लिंग है।
* रामेश्वर - तमिल नाडु - रामेश्वरम श्रीरामेश्वर तीर्थ तमिलनाडु प्रान्त के रामनाड जिले में है। यहाँ लंका विजय के पश्चात भगवान श्रीराम ने अपने अराध्यदेव शंकर की पूजा की थी। ज्योतिर्लिंग को श्रीरामेश्वर या श्रीरामलिंगेश्वर के नाम से जाना जाता है।
* घृष्णेश्वर , महाराष्ट्र -  एलोरा, औरंगाबाद जिला श्रीघुश्मेश्वर (गिरीश्नेश्वर) ज्योतिर्लिंग को घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहते हैं। इनका स्थान महाराष्ट्र प्रान्त में दौलताबाद स्टेशन से बारह मील दूर बेरूल गाँव के पास है।
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। :उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्।:सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।:हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रात: पठेन्नर:।:सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥
अंकोरवाट मंदिर अंकोर , कंबोडिया  – विश्व का सबसे विशाल अंकोरवाट मंदिर , अंकोर कंबोडिया में स्थित है ।  कम्बोडिया में ‘अंकोर’ नामक स्थान पर स्थित है । विष्णु मंदिर सम्राट सूर्यवर्मन के शासनकाल में बना था. यह सैंकड़ों वर्गमील में फैला हुआ है और यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से एक है. इसका मूल शिखर एवं अन्य आठों शिखर क्रमशः 64 एवं 54 मीटर ऊँचे हैं. यह मंदिर 7,20,000 वर्गमीटर (500 एकड़) के क्षेत्र में स्थित है । कंबोडिया के इतिहास में इस मंदिर का इतना महत्व है की कंबोडिया के राष्ट्रीय ध्वज तक पर अंकोरवाट मंदिर का चित्र अंकित है! 
* थिल्लई नटराज मंदिर , चिदंबरम - तमिलनाडु के चिदंबरम में स्थित यह शिव मंदिर जिसे ‘चिदंबरम मंदिर’ भी कहा जाता है, बहुत विशाल है. चिल्लई  नटराज मंदिर प्रसिद्ध तीर्थस्थल बन गया है । इसका क्षेत्रफल लगभग 1,60,000 वर्गमीटर है। 
* बृहदेश्वर मन्दिर थजावुर - तमिलनाडु के थंजावुर में लगभग 10,24,00 वर्गमीटर के क्षेत्र में वृहदेश्वर शिव मंदिर स्थित है ।सबसे बड़े स्तम्भ ‘विमानम’ की ऊँचाई 198 फ़ीट  विश्व की सबसे ऊँची मानव निर्मित मीनारों में से एक है । इसके साथ ही यहाँ और भी कई ऊँचे व बड़े स्तम्भ बने हुए हैं । विमानम की परछाई जमीन पर नहीं पड़ती है।  द्रविड़ वास्तुकला का एक बेहतर नमूना, इस मंदिर का निर्माण चोला शासन के दौरान किया गया था । राजाराजा चोला १ द्वारा निर्मित वृहदेश्वर मंदिर का निर्माण सं १०१० में हुआ था ।
* . अन्नामलाईयर मंदिर  तिरुवन्नामलाई -  तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई में अन्नामलाईयर मंदिर स्थित है। अन्नामलाईयर शिव मंदिर अनेक ऊँचे स्तम्भों के कारण प्रसिद्ध है। यह १०११७१ वर्गमीटर में फैला हुआ है।
*  एकंबरेश्वर मंदिर कांचीपुरम - एकंबरेश्वरर मंदिर  दक्षिणी भारत में कांचीपुरम नामक स्थान पर स्थित है । एकम्बरेश्वर  शिव मंदिर का क्षेत्रफल लगभग 92,860 वर्गमीटर है ।  यह पांच महाशिव मंदिरों एवं पंचभूत स्थल है ।
*  थिरुवनेयीकवल मंदिर त्रिची  - तमिलनाडु के त्रिची स्थान पर स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर का निर्माण 1800 वर्ष पूर्व ‘राजा कोसंगनन’ ने करवाया था. यह लगभग 72,843 वर्गमीटर में स्थापित है ।
10. नेल्लईयप्पर मंदिर , तिरुनेलवेली - तमिलनाडु के तिरुनेलवेली शहर में स्थित यह मंदिर लगभग 2000 वर्ष पुराना है. यह लगभग 71,000 वर्गमीटर में फैला हुआ है  । तिरुनेलवेली में श्री अरुलथारुम कंथीमती जी का मंदिर विद्यमान है।
*. पहाड़ी मंदिर, राँची, झारखंड - पहाड़ी मंदिर, रांची पहाड़ी के शिखर पर भगवान शिव को समर्पित है। पहाड़ी मंदिर, समुद्र तल से 2140 मीटर की ऊंचाई पर रांची हिल के शिखर पर स्थित है,  भगवान शिव को समर्पित है। पहले इस पहाड़ी को हैंगिंग टोंगरी के नाम से जाना जाता था क्योंकि यहाँ स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी दी गई थी। उनके बलिदान को याद करने के लिए स्वतंत्रता दिवस पर यहाँ राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है। मंदिर तक पहुँचने के लिए 300 सीढ़ियाँ हैं। यहां  भक्तों की मनोकामना पूरी होती है। इसके अलावा, मंदिर से रांची शहर का मनोरम दृश्य देखा जा सकता है। श्रावण के महीने में यहां बहुत सारे भोज होते हैं, और भक्त मंदिर के देवता को जल चढ़ाते हैं। आओ और भगवान शिव के पहाड़ी मंदिर परिसर में नागदेव की पूजा अर्चना श्रद्धालु द्वारा करने के पूर्व बाबा पहाड़ी नातन की पूजा करते है । श्रद्धालुओं अपने मनोकामनाएं पूर्ण करने के लिए बाबा पहाड़ी नातन और गुफा में स्थित नाग देवता की आराधना करते है ।
*  शिव मंदिर रामगढ़ झारखंड -  भगवान शिव के प्रति आस्था और मजबूत हो गई है।अंग्रेजों का कहना था वे इस अंधविश्वास पर विश्वास नहीं करते। लेकिन इस चमत्कार को देखने के बाद उन्हें विश्वास करना पड़ा। गहराई पर पहुंचने के बाद उन्हें पूरा शिवलिंग मिला और शिवलिंग के ठीक ऊपर गंगा की प्रतिमा मिली जिसकी हथेली पर से गुजरते हुए गंगा जल शिवलिंग पर गिरता है। शिव मंदिर टूटी झरना मंदिर के नाम से जाना जाता है। लेकिन मंदिर को लेकर यह रहस्य आज बना हुआ है । शिव के जलाभिषेक के लिए जल कहां से आता है, जल का स्त्रोत क्या है। मंदिर में शिवजी के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग यहां दर्शन के लिए आते है और शिव जी से अपनी मनोकामना की पूरी करने के लिए उनसे प्रार्थना करते हैं। वर्ष भर मंदिर में भक्तों की भीड़ रहती है लेकिन सावन माह में यहां एक अद्भुत शांति का अनुभव होता है। रहवासियों के अनुसार यहां शिव जी के होने का आभआस होता है। मान्यता है कि भगवान के इस अद्भुत स्वरुप के दर्शन मात्र से सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। शिवलिंग पर गिरने वाले जल को श्रद्धालु प्रसाद के रुप में लेते हैं और अपने घरों को भी लेकर जाते हैं। इस जल को पीने से मन शांत होता है और कष्टों से लड़ने की शक्ति मिलती है।
* चतुर्मुखी शिव मंदिर , इचागढ़ ,जमशेदपुर -  चतुर्मुखी शिवमंदिर झारखंड के ईचागढ़ और लेपाटांड गांव के बीच भगवान शिव का ऐतिहासिक मंदिर बना हुआ है। मंदिर में भगवान शिवजी का चार मुंह वाला लिंग स्थापित है। यह चतुर्मुखी शिवलिंग देश के गिने चुने चतुर्मुखी शिवलिंगों में एक है।  ग्रामीणों ने मंदिर का निर्माण करवाया है। ग्रामीणों के अनुसार पहले यहां 40 से 50 शिवलिंग बिखरे पड़े थे। संरक्षण के अभाव में अब इनमें से गिने-चुने ही रह गए हैं। मंदिर के आसपास कई शिवलिंग हैं । लोग पूरी श्रद्धा के साथ पूजा-अर्चना करते हैं। ईचागढ़ और लेपाटांड गांव के बीच करकरी नदी के पास यह चतुर्मुखी शिवलिंग स्थापित है। इस शिवलिंग से कई तरह के रहस्य जुड़े हुए हैं। इस मंदिर में लोगों की बड़ी आस्था है। लोगों के अनुसार बाबा यहां मन से मांगी गई हर मनोकामना पूरी करते हैं।दयापुर के राजा रोज घोड़े से गुफा के रास्ते भगवान भोले नाथ की पूजा करने ईचागढ़ आते थे। 1990 में पुरातात्विक विभाग से लोग जांच के लिए ईचागढ़ पहुंचे थे। राजा विक्रमादित्य ने ईचागढ़ में चतुर्मुखी शिवमंदिर बनवाए थे। मंदिर के साथ उन्होंने क्षेत्र में और भी कई धरोहरें बनावाई थी। इन धरोहरों के बचे हुए अवशेष आज भी देखने को मिलते हैं।
* . लग्नेश्वर महादेव मंदिर गया - . लग्नेश्वर महादेव की पूजा के लिए सोमवार को कुंवारी कन्याओं  द्वारा लाग्नेश्वर शिव की उपासना करती है । देवो के देव महादेव का एक स्वरूप ‘लग्नेश्वर’ महादेव गया शहर के विष्णुपद मार्ग स्थित श्रीकृष्ण द्वारिका मंदिर में महादेव का यह स्वरूप विराजमान है। महादेव के इस स्वरूप की खास बात यह है कि यह एक अतिप्राचीन शिवलिंग है, जहां विवाह से जुड़ी हर कठिनाई दूर होती है।  महादेव की विधि-विधान के साथ पूजा अर्चना करने से अविवाहित युवक-युवतियों पर लगन चढ़ता है। सोमवार को खासकर युवतियों की यहां जबर्दस्त भीड़ जुटती है। पूजा से पूर्व कुंवारी कन्याएं सर्वप्रथम संकल्प कराती है। संकल्प करने के बाद 16 सोमवार का व्रत करती है। फलाहार का उपवास रख विधि-विधान के साथ पूजा कर दीये भी जलाती है। बता दें कि इस मंदिर में आचार्य भी खुद बैठ कर पूजा से जुड़ी हर रस्म को पूरा कराते है। पृथ्वी पर जब भगवान शिव का वास हो, उस दिन ब्रह्म मुर्हूत में पूजा करने से विशेष फल मिलता है। इस दिन अविवाहित कन्या लग्नेश्वर महादेव पर संतरा के रस से अभिषेक करे। 108 बेलपत्र पर ओम्: नम्: शिवाय: लिख महादेव को अर्पण करे। विशेष फल मिलता है। अतिप्राचीन शिवलिंग पर की गई है नक्काशी 200 वर्ष से अधिक पुराना है  । लग्नेश्वर महादेव का मंदिर, 20 वर्ष पूर्व हुआ था । मंदिर में  माता पार्वती व नदी की प्रतिमाएं विराजमान है। एक बार में मंदिर में पांच लोगों को ही प्रवेश की अनुमति रहती है। मंदिर के अंदर आचार्य स्वयं विधि-विधान के साथ पूजा अर्चना कराते है । 20 वर्ष पूर्व लग्नेश्वर महादेव मंदिर का जीर्णोद्धार व खुदाई का कार्य किया गया था। यहां पांच इंच ऊंचा शिवलिंग है, जबकि जमीं के अंदर 10 फीट से भी अधिक गहरा है। लग्नेश्वर महादेव स्वयं भू है।
* पंचमुखी शोभनाथ मंदिर , नवादा - नवादा नगर के शोभनाथ मंदिर की  स्थापना 1931 में की गई थी। आस्था के साथ श्रद्धालुओं की गई पूजा-अर्चना से मुरादें पूरी होती है। मंदिर को धार्मिक न्यास बोर्ड ने अपने अधीन कर लिया है।  पंचमुखी महादेव की आराधना से कई माताओं की गोदें भरी है। तो कई की मनोवांछित आशाएं पूरी हुई है। यहां वर्ष में10 हजार से अधिक जोड़े परिणय सूत्र में बंधते हैं।  नवादा-गया पथ पर भदौनी पशु हाट के पास अवस्थित है शोभनाथ मंदिर।  नवादा-हसुआ पथ पर सड़क निर्माण के क्रम में दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवाहित गहरे नाले पर 1931 में पुल निर्माण कार्य हो रहा था। संवेदक द्वारा बनाये जा रहे पुल की आधारशीला रखते ही बार-बार पानी के तेज प्रवाह में प्रवाहित हो जाता था। तब संवेदक की नजर पास के एक ऊंचे टिल्हे की ओर गई। खुदाई करने पर वहां लोगों को पंचमुखी शिवलिंग के दर्शन हुए। अद्भुत शिवलिंग की पूजा-अर्चना के बाद पूरा निर्माण कार्य पुन: प्रारम्भ किया। शिवलिंग की पूजा से कार्य में बाधा नहीं आई और निर्माण कार्य तेज से हो गई। संवेदन ने उसने मंदिर बनाने का संकल्प लिया था। पुल निर्माण संपन्न होते ही मंदिर का निर्माण कराया है । प्रति दिन यहां सैकड़ों श्रद्धालुओं द्वारा पूजा-अर्चना की जाती है, लेकिन प्रत्येक माह की पूर्णिमा, श्रावण की सोमवारी, महाशिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। जिसमें दूर-दूर से शिव भक्त यहां आकर जलाभिषेक करते है 
 *. ज्वाला नाथ मंदिर , हिसुआ , नवादा  -  हिसुआ स्थित जय ज्वालानाथ मंदिर एक ऐतिहासिक शिव मंदिर है । शिव भक्त यहां माथा टेकने आते हैं। साथ ही मनोकामना पूरी होने की दुआएं मांगते हैं। यहां भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। ज्वालानाथ मंदिर परिसर को आकर्षक बनाने के लिए मंदिर प्रबंधन कमेटी इसका जीर्णोद्धार  किया  है।  मंदिर परिसर में प्रबंधन कमेटी द्वारा भगवान शिव, माता पार्वती, कार्तिकेय और गणेश की मूर्ति के साथ-साथ शिव के सवारी बसहा बैल की भी स्थापना वैदिक रीतियों और मंत्रो के बीच की गई। गया के जमींदार को कोई संतान नहीं थी. इस वजह से वे सदा उदास रहते थे। एक बार उनकी मुलाकात मंदिर के पुजारी  से हुई। पुजारी की सलाह पर उन्होंने मंदिर में माथा टेका और पुत्र प्राप्ति की मन्नत मांगी। भगवान शिव की कृपा से पुत्री प्राप्त होने के बाद जमींदार बड़ा खुश हुआ हसि । मंदिर और शिवालयों पर आकर्षक मंदिर रुपी गुंबज और अन्य प्रकार के छत होते हैं जो कंक्रीट के होते हैं।  इस चमत्कार के बाद जमींदार ने भी मंदिर का निर्माण आरंभ किया था, लेकिन जैसे ही छत ढलाई के लिए सेंटिंग की जाती, वह धराशायी हो जाता था। जिसके बाद आज तक यह एक गोलाकार चारदीवारी में स्थापित है।  एक बार चोरों ने बेशकीमती शिवलिंग को चुराने का प्रयास किया। शिवलिंग को चोरों ने उखाड़ लिया, लेकिन सभी चोरों की तत्काल आंखो से रोशनी क्षीण हो गई। सभी चोर रात भर महज पचास से साठ मीटर की परिधि में ही घूमता रहा। भोर होने पर चोर शिवलिंग को वहीं छोड़ भाग खड़े हुए। जब पुजारी की नजर मैदान में पड़े शिवलिंग पर पड़ी तो उन्होंने वैदिक रीति से शिवलिंग को फिर से मंदिर में स्थापित करने का प्रयास किया। उसी रात भगवान शंकर ने पूजारी को स्वप्न दिया मुझे खुले में रहने दो। जय ज्वाला नाथ महादेव खुले आसमान के तले है1 
* . रामेश्वर मंदिर , बक्सर  -   महर्षि विश्वामित्र की तपोभूमि बक्सर में श्री रामेश्वरनाथ मंदिर  धार्मिक धरोहरों में  है । रामेश्वर नाथ महादेव के दर्शन और पूजन के लिए देश ही नहीं, बल्कि विदेशों से भी भक्त आते हैं. अति प्राचीनतम इस मंदिर की व्याख्या धार्मिक ग्रंथों में उलेख है । बाबाधाम के नाम से मशहूर ब्रह्मपुर नगरी में विराजमान बाबा ब्रह्मेश्वर नाथ महादेव की स्थापना सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा ने स्वयं के हाथों से हुई थी । गंगा के तट पर रामरेखा घाट किनारे स्थित श्री रामेश्वरनाथ मंदिर  की स्थापना त्रेतायुग में  भगवान श्रीराम ने की । बक्सर आने के दौरान राम द्वारा भगवान शिव की पूजा-अर्चना के लिए रामेश्वरनाथ मंदिर की स्थापना की गई थी ।ऋषि महर्षियों की तपस्या में राक्षस खलल डालने लगे, तब भगवान श्री राम ने दानवों के गमन पर रोक लगाने के लिए एक रेखा खींची ताकि चारों दिशाओं सहित आकाश और पाताल के रास्ते भी यहां राक्षसों का प्रवेश नहीं हो सके । उसी रेखा के कारण इस जगह का नाम रामरेखा घाट पड़ा है । रामेश्वरनाथ मंदिर भक्तों के लिए एक बड़ा आस्था का केंद्र है ।
*. भोजेश्वर मन्दिर  भोजपुर मध्य -  भोपाल से ३० किलोमीटर दूर स्थित भोजपुर में  भोजपुर मन्दिर  बेतवा नदी के तट पर विन्ध्य पर्वतमालाओं के मध्य एक पहाड़ी पर स्थित है। भोजेश्वर  मन्दिर का निर्माण एवं  शिवलिंग की स्थापना धार के परमार राजा भोज (१०१० - १०५३ ई॰) ने करवायी थी। भोजेश्वर शिवलिङ् स्थापना पाँडवों द्वारा किया गया था । भोजेश्वर मन्दिर के शिलालेखों से ११वीं शताब्दी के हिन्दू मन्दिर निर्माण की स्थापत्य कला का ज्ञान होता है व पता चलता है कि गुम्बद का प्रयोग भारत में इस्लाम के आगमन से पूर्व होता था। इस अपूर्ण मन्दिर की वृहत कार्य योजना को निकटवर्ती पाषाण शिलाओं पर उकेरा गया है। मन्दिर परिसर को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व का स्मारक चिह्नित किया गया है व इसका पुनरुद्धार कार्य कर इसे फिर से वही रूप देने का सफ़ल प्रयास किया है। मन्दिर के बाहर लगे पुरातत्त्व विभाग के शिलालेख अनुसार इस मंदिर का शिवलिंग भारत के मन्दिरों में सबसे ऊँचा एवं विशालतम शिवलिंग है। इस मन्दिर का प्रवेशद्वार भी किसी हिन्दू भवन के दरवाजों में सबसे बड़ा है। मन्दिर के निकट ही इस मन्दिर को समर्पित एक पुरातत्त्व संग्रहालय भी बना है। शिवरात्रि के अवसर पर राज्य सरकार द्वारा यहां प्रतिवर्ष भोजपुर उत्सव का आयोजन किया जाता है। पांडवों की माता कुन्ती द्वारा भगवान शिव की पूजा करने के लिए पाण्डवों ने इस मन्दिर के निर्माण का एक रात्रि में ही पूरा करने का संकल्प लिया था परंतु पूरा नहीं हो सका। मन्दिर का निर्माण कला, स्थापत्य और विद्या के महान संरक्षक मध्य-भारत के परमार वंशीय राजा भोजदेव ने ११वीं शताब्दी में करवाया। परंपराओं एवं मान्यतानुसार उन्होंने ही भोजपुर एवं अब टूट चुके एक बांध का निर्माण भी करवाया था। मन्दिर का निर्माण कभी पूर्ण नही हुआ जी । मन्दिर एक ही रात में निर्मित होना था किन्तु इसकी छत का काम पूरा होने के पहले ही सुबह हो गई, इसलिए काम अधूरा रह गया। राजा भोज द्वारा निर्माण की मान्यता को स्थल के शिल्पों से भी समर्थन मिलता है, जिनकी कार्बन आयु-गणना इन्हें ११वीं शताब्दी का ही सुनिश्चित करती है। भोजपुर के निकटवर्ती जैन मन्दिर में, जिस पर उन्हीं शिल्पियों के पहचान चिह्न हैं, जिनके इस शिव मन्दिर पर बने हैं; उन पर १०३५ ई॰ की ही निर्माण तिथि अंकित है । वर्ष १०३५ ई॰ में राजा भोज के शासन की पुष्टि करते हैं। राजा भोज द्वारा जारी किये गए मोदस ताम्र पत्र (१०१०-११ ई॰), उनके राजकवि दशबाल रचित चिन्तामणि सारणिका (१०५५ ई॰) आदि इस पुष्टि के सहायक हैं। इस मन्दिर के निकटवर्त्ती क्षेत्र में कभी तीन बांध तथा एक सरोवर हुआ करते थे। इतने बड़े सरोवर एवं तीन बड़े बाधों का निर्माण कोई शक्तिशाली राजा ही करवा सकता था। ये सभी साक्ष्य इस मन्दिर के राजा भोज द्वारा निर्माण करवाये जाने के पक्ष में दिखाई देते हैं। पुरातत्त्वशास्त्री प्रो॰किरीट मनकोडी इस मन्दिर के निर्माण काल को राजा भोज के शासन के उत्तरार्ध में, लगभग ११वीं शताब्दी के मध्य का बताते हैं।मन्दिर के बाहर लगा भा.पुरा.सर्वे.वि. का मन्दिर सूचना पट्ट, जिसमें मन्दिर के बारे में महत्त्वपूर्ण तथ्य लिखे हैं।उदयपुर प्रशस्ति में बाद के परमार शासकों द्वारा लिखवाये गए शिलालेखों में ऐसा उल्लेख मिलता है जिनमें: मन्दिरों से भर दिया जैसे वाक्यांश हैं, एवं शिव से सम्बन्धित तथ्यों को समर्पित है। इनमें केदारेश्वर, रामेश्वर, सोमनाथ, कालभैरव एवं रुद्र का वर्णन भी मिलता है। लोकोक्तियों एवं परंपराओं के अनुसार उन्होंने एक सरस्वती मन्दिर का निर्माण भी करवाया था। जैन लेखक मेरुतुंग ने अपनी कृति प्रबन्ध चिन्तामणि में लिखा है कि राजा भोज ने अकेले अपनी राजधानी धार में ही १०४ मन्दिरों का निर्माण करवाया था। हालांकि आज की तिथि में केवल भोजपुर मन्दिर ही अकेला बचा स्मारक है, जिसे राजा भोज के नाम के साथ जोड़ा जा सकता है। प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार; जब राजा भोज एक बार श्रीमाल गये तो उन्होंने कवि माघ को भोजस्वामिन नामक मन्दिर के बारे में बताया था जिसका वे निर्माण करवाने वाले थे। इसके उपरान्त राजा मालवा को (मालवा वह क्षेत्र था जहां भोजपुर स्थित हुआ करता था।) लौट गये।  माघ कवि ( ७वीं शताब्दी) राजा भोज के समकालीन नहीं थे, अतः यह कथा कालभ्रमित प्रतीत होती है। यह मन्दिर मूलतः एक १८.५ मील लम्बे एवं ७.५ मील चौड़े सरोवर के तट पर बना था। सरोवर की निर्माण योजना में राजा भोज ने पत्थर एवं बालू के तीन बांध बनवाये। इनमें से पहला बांध बेतवा नदी पर बना था जो जल को रोके रखता था एवं शेष तीन ओर से उस घाटी में पहाड़ियाँ थीं। दूसरा बांध वर्तमान मेण्डुआ ग्राम के निकट दो पहाड़ियों के बीच के स्थान को जोड़कर जल का निकास रोक कर रखता था एवं तीसरा बांध आज के भोपाल शहर के स्थान पर बना था जो एक छोटी मौसमी नदी कालियासोत के जल को मोड़ कर इस बेतवा सरोवर को दे देता था। ये कृत्रिम जलाशय १५वीं शताब्दी तक बने । मालवा नरेश होशंग शाह ने अपनी सेना से इस बाँध को तुड़वा डाला जिसमें उन्हें तीन महीने का समय लग गया था। यह भी बताया जाता है कि यहाँ होशंगशाह का लड़का बाँध के सरोवर में में डूब गया था तथा बहुत ढूंढने पर भी उसकी लाश तक नहीं मिली। नाराज़ होकर उसने बाँध को तोप से उड़ा दिया और मंदिर को भी तोप से ही गिरा देने की कोशिश की थी। इसके कारण मंदिर का ऊपर और बगल का हिस्सा गिर गया। इस बांध के टूट जाने से सारा पानी बह गया और तब इस अपार जलराशि के एकाएक समाप्त हो जाने के कारण मालवा क्षेत्र में है ।भगवान शिव का उप ज्योतिर्लिंग में माही और समुद्र के संगम पर उप ज्योतिर्लिंग अंतकेश्वर , भृगु कक्ष में रुद्रेश्वर महाकाल का उप ज्योतिर्लिंग दुग्धेश्वर औरंगाबाद बिहार का देवकुण्ड में स्थित है ।ओंकारेश्वर का उप ज्योतिर्लिंग ।कर्दमेश्वर  केदारेश्वर का उप लिंग भूतेश्वर , भीमशंकर का उप लिंग भीमेश्वर ,नागेश्वर का उप लिंग भूतेश्वर ,रामेश्वर का उप लिंग गुप्तेश्वर और घुमेश्वर तथा ज्योतिर्लिंग विश्व नट का उप ज्योतिर्लिंग जहानाबाद जिले का बराबर की सूर्यान्क गिरी पर सिद्धेश्वरनाथ है ।







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