गुरुवार, मई 27, 2021

सृष्टि का मूल ऊँकारेश्वर ज्योतिर्लिंग...



        पुरणों तथा शास्त्रों में भगवान शिव की महिमा का उल्लेखनीय वर्णन है ।  ऊँकार में विंध्य की तपस्या से परमेश्वर शिवलिङ्ग का प्रादुर्भाव हुआ है । ऊँकार  ज्योतिर्लिंग सृष्टि का रूप है ।। इनके दर्शन से मानसिक संताप से मुक्ति और अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है । प्रदेश के खंडवा जिले के खंडवा से 12 कि. मि. की दूरी पर आँकार के समीप  नर्मदा नदी के मध्य में  मन्धाता द्वीप पर ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग है।  भगवान शिव के ओम ज्योतिर्लिंग  मंदिर के समीप भील जनजाति ने खाण्डववन  नगर का निर्माण किया था । मान्धाता  द्वीप ऊँ के आकार में बना है।   मध्यप्रदेश के खंडवा जिले का नर्मदा नदी के मान्धाता द्वीप पर ॐकारेश्वर , ममलेश्वर , ॐकारेश्वर मंदिर स्थित ॐकारेश्वर का निर्माण नर्मदा नदी से स्वतः  हुआ है। ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ ऊँ के उच्चारण किए बिना नहीं होता है।  क्षेत्र में भौतिक विग्रह के रूप में  68 तीर्थ , 33 कोटि देवता तथा 2 ज्योतिस्वरूप लिंगों सहित 108  शिवलिंग हैं। मध्यप्रदेश में देश के प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में से 2 ज्योतिर्लिंग विराजमान हैं। ओमकार  में भील राजाओं की राजधानी थी । आहिल्या बाई होलकर की ओर से यहाँ नित्य मृत्तिका के 18 सहस्र शिवलिंग तैयार कर उनका पूजन करने के पश्चात उन्हें नर्मदा में विसर्जित कर दिया जाता है।  मान्धाता ने  नर्मदा किनारे पर्वत पर घोर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और शिवजी के प्रकट होने पर भगवान शिव से यहीं निवास करने का वरदान माँग लिया था । मान्धाता  नगरी को ओंकार-मान्धाता पुकारी जाने लगी है । ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता  है ।
ओंकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार, माता घाट (सेलानी), सीता वाटिका, धावड़ी कुंड, मार्कण्डेय शिला, मार्कण्डेय संन्यास आश्रम, अन्नपूर्णाश्रम, विज्ञान शाला, बड़े हनुमान, खेड़ापति हनुमान, ओंकार मठ, माता आनंदमयी आश्रम, ऋणमुक्तेश्वर महादेव, गायत्री माता मंदिर, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, आड़े हनुमान, माता वैष्णोदेवी मंदिर, चाँद-सूरज दरवाजे, वीरखला, विष्णु मंदिर, ब्रह्मेश्वर मंदिर, सेगाँव के गजानन महाराज का मंदिर, काशी विश्वनाथ, नरसिंह टेकरी, कुबेरेश्वर महादेव, चन्द्रमोलेश्वर महादेव के मंदिर भी दर्शनीय हैं।पुरणों के अनुसार ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग  स्थल में शिव भक्त कुबेर ने तपस्या  तथा शिवलिंग की स्थापना करने के पश्चात भगवान  शिव ने कुवेर को देवताओ का धनपति बनाया और  कुबेर के स्नान के लिए भगवान शिवजी ने अपनी जटा  से कावेरी नदी उत्पन्न की । कुबेर मंदिर के बाजू से कावेरी नदी प्रवाहित होकर नर्मदाजी में मिलती है । कावेरी ओमकार पर्वत का चक्कर लगाते हुए  नर्मदा - कावेरी का संगम है । ओमकारेश्वर मंदिर  के परिसर  में पंचमुख गणेशजी की मूर्ति है। प्रथम तल पर ओंकारेश्वर लिंग विराजमान हैं। श्रीओंकारेश्वर का लिंग अनगढ़ है। यह लिंग मन्दिर के ठीक शिखर के नीचे न होकर एक ओर हटकर है। लिंग के चारों ओर जल भरा रहता है। मन्दिर में माता पार्वती  मूर्ति है। ओंकारेश्वर मन्दिर में सीढ़ियाँ चढ़कर महाकालेश्वर लिंग , सिद्धेश्वर लिंग ,  गुप्तेश्वर लिग  , ध्वजेश्वर लिंग ,  शिवलिंगों के प्रांगणों में नन्दी की मूर्तियां स्थापित हैं । ओमकारेश्वर की परिक्रमा में रामेश्वर-मन्दिर तथा गौरीसोमनाथ के दर्शन हो जाते हैं। ओंकारेश्वर मन्दिर के पास अविमुतश्वर, ज्वालेश्वर, केदारेश्वर  मन्दिर है ।मान्धाता टापू में  ऑकारेश्वर की दो परिक्रमाएँ होती हैं - एक छोटी और एक बड़ी। ऑकारेश्वर की यात्रा तीन दिन की मानी जाती है। इस तीन दिन की यात्रा में  सभी तीर्थ आ जाते हैं। अत: इस क्रम से ही वर्णन किया जा रहा है।प्रथम दिन की यात्रा- कोटि-तीर्थ पर ( मान्धाता द्वीप में ) स्नान और घाट पर ही कोटेश्वर, हाटकेश्वर, त्र्यम्बकेश्वर, गायत्रीश्वर, गोविन्देश्वर, सावित्रीश्वर का दर्शन करके भूरीश्वर, श्रीकालिका तथा पंचमुख गणपति का एवं नन्दी का दर्शन करते हुए ऑकारेश्वरजी का दर्शन करते हैं ।। ओंकारेश्वर मन्दिर में ही शुकदेव, मान्धांतेश्वर, मनागणेश्वर, श्रीद्वारिकाधीश, नर्मदेश्वर, नर्मदादेवी, महाकालेश्वर, वैद्यनाथेश्वरः, सिद्धेश्वर, रामेश्वर, जालेश्वरके दर्शन करके विशल्या संगम तीर्थ पर विशल्येश्वर का दर्शन करते हुए अन्धकेश्वर, झुमकेश्वर, नवग्रहेश्वर, मारुति (यहाँ राजा मानकी साँग गड़ी है): साक्षीगणेश, अन्नपूर्णा और तुलसीजी ,  अविमुक्तेश्वर, महात्मा दरियाईनाथ की गद्दी, बटुकभैरव, मंगलेश्वर, नागचन्द्रेश्वर, दत्तात्रेय एवं काले-गोरे भैरव ,  श्रीराममन्दिर में श्रीरामचतुष्टय का तथा  गुफा में धृष्णेश्वर का दर्शन करके नर्मदाजीके मन्दिरमें नर्मदाजी का दर्शन करते  है ।
 कोटितीर्थ पर स्नान करके चक्रेश्वर का दर्शन करते हुए गऊघाट पर गोदन्तेश्वर, खेड़ापति हनुमान, मल्लिकार्जुनः, चन्द्रेश्वर, त्रिलोचनेश्वर, गोपेश्वरके दर्शन करते श्मशान में पिशाचमुक्तेश्वर, केदारेश्वर होकर सावित्री-कुण्ड और आगे यमलार्जुनेश्वर के दर्शन करके कावेरी-संगम तीर्थ पर स्नान - तर्पणादि कर श्रीरणछोड़जी एवं ऋणमुक्तेश्वर का पूजन , राजा मुचुकुन्द के किले , -संगम तीर्थ ,  गौरी-सोमनाथ की विशाल लिंगमूर्ति , गणेशजी और हनुमानजी की  विशाल मूर्तियाँ ,  अन्नपूर्णा, अष्टभुजा, महिषासुरमर्दिनी, सीता-रसोई तथा आनन्द भैरव ,  षोडशभुजा दुर्गा, अष्टभुजादेवी तथा द्वारके बाहर आशापुरी माताके दर्शन करके सिद्धनाथ एवं कुन्ती माता ( दशभुजादेवी ) के दर्शन करते हुए किले के बाहर द्वार में अर्जुन तथा भीम की मूर्तियोंके दर्शन करे। यहाँ से धीरे-धीरे नीचे उतरकर वीरखला पर भीमाशंकर के दर्शन करके और नीचे उतरकर कालभैरव के दर्शन करे तथा कावेरी-संगम पर जूने कोटितीर्थ और सूर्यकुण्ड के दर्शन करके नौका से या पैदल (ऋतुके अनुसार जैसे सम्भव हो ) कावेरी पार करे। उस पार पंथिया ग्राम में चौबीस अवतार, पशुपतिनाथ, गयाशिला, एरंडी-संगमतीर्थ, पित्रीश्वर एवं गदाधर-भगवान के दर्शन करे। यहाँ पिण्डदानश्राद्ध होता है। फिर कावेरी पार कर के लाटभैरव-गुफा में कालेश्वर, आगे छप्पनभैरव तथा कल्पान्तभैरवके दर्शन करते हुए राजमहलमें श्रीराम का दर्शन करके औकारेश्वर के दर्शन से परिक्रमा पूरी करे। तीसरे दिन की यात्रा- इस मान्धाता द्वीप से नर्मदा पार करके इस ओर विष्णुपुरी और ब्रह्मपुरी की यात्रा की जाती है। विष्णुपुरी के पास गोमुख से बराबर जल गिरता रहता है। यह जल जहाँ नर्मदा में गिरता है, उसे कपिला-संगम तीर्थ कहते हैं। वहाँ स्नान और मार्जन किया जाता है। गोमुख की धारा गोकर्ण और महाबलेश्वर लिंगों पर गिरती है। यह जल त्रिशूलभेद कुण्ड से आता है। इसे कपिलधारा कहते हैं। वहाँ से इन्द्रेश्वर और व्यासेश्वरका दर्शन करके अमलेश्वर का दर्शन करना चाहिये। ममलेश्वर  ज्योतिर्लिंग है। ममलेश्वर मन्दिर अहल्याबाई का बनवाया हुआ है। गायकवाड़ राज्य की ओर से नियत किये हुए बहुत से ब्राह्मण यहीं पार्थिव-पूजन करते रहते हैं। यात्री चाहे तो पहले ममलेश्वर का दर्शन करके तब नर्मदा पार होकर औकारेश्वर जाय; किंतु नियम पहले ओंकारेश्वर का दर्शन करके लौटते समय ममलेश्वर-दर्शन का ही है। पुराणों में ममलेश्वर नाम के बदले अमलेश्वर उपलब्ध होता है। ममलेश्वर-प्रदक्षिणा में वृद्धकालेश्वर, बाणेश्वर, मुक्तेश्वर, कर्दमेश्वर और तिलभाण्डेश्वरके मन्दिर मिलते हैं।ममलेश्वरका दर्शन करके (निरंजनी अखाड़ेमें) स्वामिकार्तिक ( अघोरी नाले में ) अघेोरेश्वर गणपति, मारुति का दर्शन करते हुए नृसिंहटेकरी तथा गुप्तेश्वर होकर (ब्रह्मपुरीमें) ब्रह्मेश्वर, लक्ष्मीनारायण, काशीविश्वनाथ, शरणेश्वर, कपिलेश्वर और गंगेश्वरके दर्शन करके विष्णुपुरी लौटकर भगवान् विष्णु के दर्शन करे। यहीं कपिलजी, वरुण, वरुणेश्वर, नीलकण्ठेश्वर तथा कर्दमेश्वर होकर मार्कण्डेय आश्रम जाकर मार्कण्डेयशिला और मार्कण्डेयेश्वर के दर्शन करते है । भक्त अम्बरीष और मुचुकुन्द के पिता सूर्यवंशी राजा मान्धाता ने इस स्थान पर कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया था। उस महान पुरुष मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत हो गया। ओंकारेश्वर लिग  शिवलिंग है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। प्राय: किसी मन्दिर में लिंग की स्थापना गर्भ गृह के मध्य में की जाती है और उसके ठीक ऊपर शिखर होता है, किन्तु यह ओंकारेश्वर लिंग मन्दिर के गुम्बद के नीचे नहीं है । पर्वत ओंकाररूप है।परिक्रमा के अन्तर्गत बहुत से मन्दिरों के विद्यमान होने के कारण   पर्वत ओंकार के स्वरूप में दिखाई पड़ता है। ओंकारेश्वर के मन्दिर ॐकार में बने चन्द्र का स्थानीय ॐ बने हुए चन्द्रबिन्दु का सथान  ओंकारपर्वत पर बने ओंकारेश्वर मन्दिर  है। देवर्षि नारद ने  गोकर्ण शिव की  भक्ति के साथ उनकी सेवा करने लगे। देवर्षि नारद   विंध्य पर आये और विंध्य ने वहां बड़े आदर से उनका पूजन किया। मेरे पास यहाँ सब कुछ है कभी किसी बात की कमी नहीं होती है इस भाव को मन मैं लेकर विंध्याचल नारद जी के सामने खड़े हो गए। उसकी यह अभिमान भरी बात सुनकर नारद मुनि लम्बी सांस खींचकर चुप चाप खड़े रह गए। देवर्षि  जो बोले : तुम्हारे यहाँ सब कुछ है फिर भी मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उसके शिखरों का भाग देवता लोक में भी पहुंचा हुआ है। किन्तु तुम्हारे शिखर कभी वहां नहीं पहुँच सकते। ऐसा कहकर नारद जी जिस तरह आये थे उसी तरह वहां से चल दिए परन्तु “विंध्य पर्वत मेरे जीवन को धिक्कार है” ऐसा सोचकर मन ही मन में संतप्त हो उठा।  मैं विश्वनाथ भगवान शम्भू की कड़ी तपस्या करूँगा। ऐसा निश्चय करके विंध्य पर्वत प्रभु शिवजी की शरण में आ गए। तदनन्तर जहाँ साक्षात ओंकार की स्थिति है वहां जाकर उन्होंने भगवान् शिव की मूर्ति की स्थापना की और ६ महीने तक निरंतर भोलेनाथ शंकर की आराधना करके शिव जी के ध्यान में तत्पर हो वह अपने तपस्या के स्थान से हिले तक नही, अटल रहे। उनकी ऐसी कठोर और अविचल तपस्या देख पार्वतीपति शंकर ने विंध्याचल को अपना वह स्वरुप दिखाया जो बड़े बड़े योगी मुनियों के लिए भी सुलभ नहीं। और प्रसन्न हो शिव जी ने उससे कहा की विंध्याचल तुम मनोवांछित वर मांगो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हे तुम्हारी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति कराने आया हूँ।
विंध्य ने प्रभु की स्तुति की और बोले आप सदा ही भक्त वत्सल है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो मुझे ऐसी बुद्धि प्रदान करे जिससे सभी कार्य सिद्ध हो सके। भगवान् शिव ने उन्हें उनका मनचाहा वर दे दिया और कहा पर्वत राज विंध्य तुम जैसा चाहो वैसा करो। उसी समय देवता और शुद्ध अंतःकरण वाले ऋषि मुनि वहां पधारे और शंकर जी की पूजा अर्चना करके के पश्चात बोले प्रभु आप यहाँ स्थिर रूप से निवास कर इस स्थान को सदा के लिए पुण्यवान बना दे। उन सभी ऐसी प्रार्थना सुन शिवजी प्रसन्न हो गए और अपने जनकल्याण के लिए उन्होंने उनकी बात स्वीकार कर ली। उनके तथास्तु बोलते ही वहां जो ओंकार लिंग दो स्वरूपों में विभक्त हो गया।प्रणव में  सदाशिव थे ओंकार नाम से प्रसिद्ध हुए और मूर्ति में  शिव ज्योति प्रतिष्ठित हान्सके के बाद  परमेश्वर हुए थे । ओमकार  और परमेश्वर शिवलिंग  भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले है। उसी समय वहां देवो और ऋषियों ने दोनों शिवलिंग की पूजा की और भगवान शिव   को प्रसन्न कर वर प्राप्त किये। इसके बाद देवता अपने अपने लोको को चले गए और विंध्य ने अपने अभीष्ट कार्य को सिद्ध किया और मानसिक वेदना से मगवान् शिव की पूजा अर्चना करता है वह माता के गर्भ में फिर नहीं आता है । 


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